1986, अगस्त से मैं भुवनेश्वर में रहता हूं। श्री जगन्नाथपुरी नियमित जाता हूं।जगत के नाथ के दर्शन करता हूं। जगन्नाथ जी सेवायत मुझे बताते हैं कि जगन्नाथ जी प्रतिदिन रात को शयन से पूर्व कवि जयदेव की अष्टपदी का सुमधुर गायन सुनते हैं।
इस प्रसंग में जब मैंने पता लगाया तो पता चला कि एक बार एक माली कन्या जगन्नाथ जी को फूल निवेदित करने के लिए फूलों के बाग से फूल तोड़ रही थी और खुशी में कवि जयदेव की अष्टपदी के पांचवें सर्ग की ये पंक्तियां -“धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली”गुनगुना रही थी।श्री जगन्नाथ जी उसके सुमधुर गायन को सुनकर उस कन्या के पीछे -पीछे चलने लगे। संगीत सुनने में वे ऐसे लीन हो गये कि उनको अपने दिव्य परिधान का खयाल तक नहीं रहा।उनका दिव्य परिधान कांटों में फंस गया और जगह-जगह से फट गया। कन्या के गीत गोविंद के पांचवें सर्ग के सुमधुर गायन के बंद करते ही वे अपने श्रीमंदिर लौट आए। श्री जगन्नाथ जी के मुख्य सेवायत के आदेशानुसार
तत्काल उस कन्या को श्रीमंदिर में बुलाया गया ।उस माली कन्या ने श्रीमंदिर में श्री जगन्नाथ जी को वही जयदेव की अष्टपदी का सुमधुर गायन कर जगन्नाथ जी को प्रसन्न कर दिया।
-यह है कवि जयदेव की अष्टपदी का प्रताप जिसे श्रीमंदिर में श्री जगन्नाथ जी को प्रतिदिन शयन से पूर्व सुनाया जाता है और जिसे सुनकर श्री जगन्नाथ जी रात्रि विश्राम करते हैं। यहां अब तो बोलना ही पड़ेगा -“जय जगन्नाथ”।