मैं मानता हूं कि भारत विविधताओं और अनेकता में एकता की कसौटी पर खरा उतरता है। लेकिन हम कई अन्य देशों को देखे जहां पर एक राष्ट्र एक भाषा को परिमार्जित होते हुए देखा जाता है, जबकि वहां भी कई भाषाएं और बोलियां विद्यमान है। साथ ही वो देश अपनी भाषा के साथ कोई समझौता नहीं करते जैसे इजरायल, जापान, चीन, स्वीडन, रूस आदि। वहीं आप अपने देश को देखिए जिसमे संवैधानिक तौर पर 22 भाषाओं की मान्यता तो दी लेकिन किसी एक भाषा विशेषकर हिन्दी जो सबसे ज्यादा बोले जानी वाली देशी भाषा है उसको आज तक हम राष्ट्रीय भाषा के तौर पर स्थापित नही कर पाएं। इसके पीछे यही तर्क दिया जाता है कि इससे क्षेत्रीय असंतुलन का खतरा है। यही कारण है कि हमारी हिन्दी देखते ही देखते एक संपर्क भाषा के तौर पर विकसित करने के चक्कर में हिन्दी से हिंग्लिश बना बैठे। यानी हम अपनी हिन्दी के वैश्वीकरण के चक्कर में अपनी ही भाषा के साथ खिलवाड़ कर बैठे।
हिन्दी भाषा विश्व की प्राचीन भाषाओं में से एक है, जो विश्व में तीसरी सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है। भारत के अलावा हिन्दी और उसकी बोलियां विश्व के अन्य देशों में भी बोली पढ़ी व लिखी जाती हैं। अमेरिका, मारीशस, नेपाल, गयाना, फिजी और संयुक्त अरब अमीरात में भी हिन्दी भाषी लोगों की बड़ी संख्या मौजूद है। भारत की जनगणना 2011 के अनुसार 57% जनसंख्या हिन्दी जानती है, यानी जिस देश की आधी से अधिक जनसंख्या हिन्दी जानती और बोलती हो उस भाषा का वैश्वीकारण शायद समझ में नहीं आया क्योंकि न तो हिन्दी का सही संरक्षण ही कर पाए और न ही उसे अंतराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के आस पास ही पहुंचा पाए। इसके लिए हिन्दी भाषी भी कम दोषी नहीं हैं।
आप खुद सोचिए की हम और आप कितनी बार हिन्दी बोलते समय अंग्रेजी के कुछ प्रचलित शब्दों का बार बार प्रयोग करते है। जैसे- टाइम, पार्टी, क्लास, बर्थ/सीट, क्लास रूम, प्रैक्टिस, ड्राइवर, कोल्ड ड्रिंक, लाइट, एरिया, ट्रेन, बस, पेपर, लेट, वाइफ, एक्सरसाइज, एक्सीडेंट, हॉस्पिटल, सुगर, एप्लीकेशन, लेटर, लिस्ट, शॉपिंग, हसबैंड, बुक, टेबल, चेयर, प्रॉब्लम, यूज, बाइक, बाथरूम, किचन, बेडरूम, रोड, गिफ्ट, पेन, लगेज, लॉस, एडवांस, पॉकेट, बैग, शर्ट, पैंट, वॉकिंग, वर्क बुक, मॉड्यूल, राइटिंग, सोशल, नेटवर्किंग, प्राइमरी, प्रमोशन, चैट, गैप, लर्निंग, सोशल डिस्टेंसिंग, डाइट, वेलकम, थैंक यू आदि प्रतिदिन इस्तेमाल होने वाले प्रचलित शब्द है। इन शब्दों को हम घर में, नियमित बोलचाल में, भाषण/ व्याख्यान में, प्रशिक्षण में, शिक्षण में और जाने कहां-कहां तक प्रसारित करते हैं, यानी हम अपने वाग्य यंत्र को कम दुख पहुंचाए, को ध्यान में रखकर हिंग्लिश का अनुसरण बोलने के लिए करते है, जो हमारे भाषा के साथ खिलवाड़ हैं। आप तमिल भाषा को ही ले लें जो अतिप्राचीन भाषा है, लेकिन इसको बोलने वालो ने कभी भी भाषिक मिश्रण बनाने का प्रयास नहीं किया।
एक बार हिन्दी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ जानकारी कर लेनी चाहिए। हिन्दी भाषा की उत्पत्ति मूल रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है । वैसे तो हिन्दी भाषा की आदी जननी संस्कृत मानी जाती है। हिंदी संस्कृत, पाली, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश / अवहट्ट से गुजरती हुई हिंदी का रूप ले लेती है। हिन्दी भाषा को पाँच उपभाषाओं में बाटा गया है, जिसके अंतर्गत हिंदी की सत्रह बोलियां आती हैं । हिन्दी भाषा के विकास को जानने से पहले हम यह भी देख लेते हैं कि हिंदी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई है?,
हिन्दी शब्द की उत्पत्ति सिंधु शब्द से हुई है सिंधु का तात्पर्य सिंधु नदी से है । जब ईरानी उत्तर पश्चिम से होते हुए भारत आए तब उन्होंने सिंधु नदी के आसपास रहने वाले लोगों को हिन्दी कहा। ईरानी भाषा में ‘स’ को ‘ह’ तथा ‘ध’ को ‘द’ उच्चारित किया जाता था। इस प्रकार यह सिंधु से हिंदू बना तथा हिन्दू से हिन्द बना फिर कालांतर में हिन्द से हिंदी बना जिसका अर्थ होता है “हिंद का” – हिन्द देश के निवासी । बाद में यह शब्द ‘हिंदी की भाषा’ के अर्थ में उपयोग होने लगा । कई लोगों का यह सवाल होता है कि हिंशब्द किस भाषा का है। आपको बता दें कि हिंदी शब्द वास्तव में फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है हिंद देश के निवासी ।
हिन्दी भाषा के विकास को हम 3 वर्गों में विभाजित कर सकते हैं क्रमशः प्राचीन हिन्दी (1100 ई०- 1400 ई०),मध्यकालीन हिन्दी (1400 ई०-1850 ई०) एवम आधुनिक हिन्दी (1850 ई०– अब तक) प्राचीन या पुरानी हिन्दी/प्रारंभिक या आरंभिक हिन्दी/आदिकालीन हिन्दी प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय, अपभ्रंश – अवहट्ट के बाद की भाषा से है। यह काल हिन्दी भाषा का शिशु काल था । यह वह काल था जब अपभ्रंश-अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर बचा हुआ था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित और स्पष्ट रूप विकसित नहीं हो पाए थे।
मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया और उसकी प्रमुख बोलियों का विकास होने लगा था । इस अवधि के दौरान, भाषा के तीन रूप उभरे – ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली। ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ । सूरदास, नंददास, रसखान, मीराबाई आदि लोगों ने ब्रजभाषा को साहित्य विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनके अलावा कबीर, नानक, दादू साहिब आदि लोगों ने खड़ी बोली के मिश्रित रूप का प्रयोग साहित्य में करते रहे। 18वीं शताब्दी में खड़ी बोली को मुस्लिम शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ और इसके विकास को एक नई दिशा मिली। आधुनिककालीन हिन्दी, हिन्दी के आधुनिक काल तक ब्रजभाषा और अवधी हम बोल-चाल तथा साहित्यिक क्षेत्र से दूर हो गई थी। 19वीं सदी के मध्य तक भारत में ब्रिटिश सत्ता का सबसे बड़ा विस्तार हो चुका था। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप आम भाषा से दूर हो गया, तो उनके बदले धीरे-धीरे खड़ी बोली का प्रयोग शुरू हो गया। ब्रिटिश सरकार ने भी इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था।
हिन्दी के आधुनिक काल में एक ओर उर्दू और दूसरी ओर ब्रजभाषा के प्रचार के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19 वीं शताब्दी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा थी और गद्य की भाषा खड़ी बोली थी। 20वीं शताब्दी के अंत तक, खड़ी बोली गद्य और कविता दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई थी। विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों ने इस युग में खड़ी बोली की स्थापना में बहुत मदद की। परिणामस्वरूप, खड़ी बोली साहित्य की प्रमुख भाषा बन गई। आधुनिककालीन हिन्दी में खड़ी बोली को हम पांच युगों बांटते है, जो हिंदी पूर्व-भारतेंदु युग, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावाद युग, प्रगतिवादी युग और प्रयोगवादी युग के लंबे सफर के बाद आज हिन्दी अपनी पहचान के लिए संघर्षरत है।
आधुनिक काल में सम्पूर्ण वैश्वीकरण होने के कारण और सोशल मीडिया ने हमारी हिन्दी को हिंग्लिश के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए जाल फेंका और हम फंस गए। चुकि हिन्दी के समृद्ध अस्तित्व के काफी दिनों बाद विश्व पटल पर 1969 में अंतरजाल (इंटरनेट) की शुरुआत हुई और हमारे देश में इसकी पहुंच 80 के दशक में देखने को मिलता है, लेकिन देखते ही देखते अंतरजाल ने हमारे जीवन के एक अंग के रूप में कार्य करने लगा और यही से हिंग्लिश की शुरुआत हुई। कुछ सॉफ्टवेयर भी जो हमारे बहीखातों और मुनीम जी को चलता किया। कुछ याद आया आप सभी को वही विंडोज जो आज हर जगह विद्यमान है, जिसने आपके नैसर्गिक लेखन को तो प्रभावित किया ही, आपको नकलची भी बना दिया। मैं ये नही कहता कि आप तकनीक का प्रयोग न करें ! करें लेकिन संतुलित करें।
हमने सभी खोजी इंजनों को खुद ही मौका दिया कि वो इस बदलाव के वाहक बने। इस बदलाव में गूगल जो एक खोजी इंजन है, जिसने आपके विचारो को पढ़कर, कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) का प्रयोग करके आपकी सुविधानुसार सामग्री को उपलब्ध करा रहा है, इसने पूरी हिन्दी की नैसर्गिकता को ही बदल कर रख दिया क्योंकि हम भारतीयों को पका पकाया खाने की आदत हो चूकि है, इसलिए इस गूगल ने इसी का लाभ उठाया। गूगल ने अपने टाइपिंग के फॉन्ट भी बना लिए। ज्योहि ये फॉन्ट प्रयोग में आया हम मानक टाइपिंग फॉन्ट कुर्तिदेव को छोड़कर मंगल, कोकिला का प्रयोग करने लगे और हमने अपनी टाइपिंग की विरासत को बदल दिया। यानी मशीनों ने आपके भाषाई समृद्धता को चुटकी में ही मसल कर रख दिया क्योंकि हमें सब कुछ आसान चाहिए । हम तो सिर्फ अब हिन्दी की फुफकार हिन्दी दिवस और कुछ अन्य कार्यक्रमों में हिन्दी बचाने की दुहाई देकर मारते है।
अगर हमें अपनी भाषा हिन्दी को बचाना है, तो इसकी शुरुआत मातृ शिक्षा से ही शुरू करनी होगी। हम डॉगी क्यों कहते है क्योंकि वो आसान है और किसी के सामने आपको एक अंग्रेजियत का सुखद अहसास कराता है। जबकि हिन्दी में तो इसी को शानदार, प्यारा कुत्ता भी तो कह सकते है। इसी प्रकार रंग को कलर न कहें, हम गाय को गाय ही कहें काउ नहीं। इसी प्रकार पारिवारिक रिश्तों के नामों का भी उच्चारण कराए कभी कॉन्वेंट शिक्षा की नकल प्रारंभ में मत करें। यानी शुरुआत से ही शुद्ध हिन्दी की बात की जाएगी तभी वाग्य यंत्रों में से विशेषकर अंग -जीभ टूटेगी और हम कठिन शब्दों के प्रयोग को आसान कर पाएंगे, नहीं तो अगली पीढ़ी में हिन्दी के कई शब्द उनको संग्रहालय में किसी सामग्री की तरह दिखेंगे और कहेंगे देखो चिंटू ये शब्द तुम्हारे दादा जी प्रयोग करते थे, समझे!
(लेखक के ये अपने विचार है।)
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साभार – वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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