Monday, December 23, 2024
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कई रामायणों का सार है  ” लोक के राम” में 

“लोक के राम ” कृति लोक और लोक साहित्य में विद्यमान विभिन्न प्रकार की रामायण, रामकथा अथवा राम के प्रसंगों को विश्लेषणात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। कवि-कथाकार विश्वामित्र दाधीच की यह कृति भारत वर्ष के विभिन्न स्थलों पर राम चरित पर आधारित और प्रचलित सन्दर्भों को उजागर करती है।

इस कृति में ‘लोक के राम’ में क्रमशः 1. लोक-के-राम 2. तुलसी का लोक काव्य 3. ऋषि परम्परा के राम 4. कश्मीरी में राम 5. गुजराती में राम भक्ति 6. महाराष्ट्र के राम 7. उत्तर प्रदेशःकवि गुमानी के राम 8. आनन्द रामायण 9. स्वयंप्रभा के राम 10. उड़िया की लोक रामायण 11. उड़िया महाकविः संत बलरामदास जी की जगमोहन रामायण 12. आनन्द रामायण आख्यान 13. अद्भुत रामायण में राम 14. बंग देश के राम 15. तेलगु में राम-रंगनाथ रामायण 16. तमिल भाषा में रामकथा 17. कन्नड़ के राम 18. असमिया लोकभाषा रामगाथा 19. नेपाल के कवि भानुभक्त रामायण 20. उड़िया विचित्र रामायण 21. राजस्थानी लोकभाषा में रामायण 22. विदेशी लोकभाषा में रामकथा 23. प्रकाशित-राजस्थानी लोक रामायण 24. राजस्थानी संत अग्रदेवाचार्य के रसिक राग के साथ 25. प्रेम रामायण (प्रेम अवस्था) 26. अपने जनों की हित की चिन्ता में राम का शोधात्मक लेखन कर ‘लोक के राम’ को लौकिक सन्दर्भों से उजागर किया है।

प्रथमतः ‘लोक-के-राम’ में वे श्रीराम की आभा का वर्णन करते हुए वन्दन करते हैं-
रक्ताम्भोजदलाभिरामनयनं पीताम्बरालंङ्कतं
श्यामाङ्गं द्विभुजं प्रसन्नवदनं श्री सीतया शोभितम्
कारूण्यामृतसागरं प्रियगणै भ्रत्रिदिभिर्भावितं वन्दे
विष्णु शिवादिसेव्यमनिशं भक्तेष्टसिद्धिप्रदम्।

रक्त कमल दल के समान सुन्दर नेत्रयुक्त पीले वस्त्र से अलंकृत श्याम शरीर द्विभुज प्रसन्न मुख भगवती सीता के साथ सुशोभित, कृपा पूर्ण अमृत के समुद्र, अपने प्रिय मित्रों तथा बन्धुजनों द्वारा सद्भाव से सुशोभित, विष्णु शिव आदि देवताओं से भी अहर्निस सेव्यमन और अपने उपासकों को सभी अभीष्ठ सिद्धियाँ प्रदान करने वाले भगवान श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ।”

लोक के राम की यह वन्दना लोक से लोक में रमी। इस लोक को लेखक विश्वामित्र दाधीच ने अपनी मन की बात में व्याख्यायित किया है। वे अपनी बात इसी प्रश्न से आरम्भ करते हैं कि – “लोक क्या है? लोक शब्द के सन्दर्भ में विद्वानों के अपने-अपने मत एवं इनको परिभाषा रही है। वैदिक काल के सन्दर्भ से देखें तो चौदह भुवन यानि सप्त लोक, ऊभ्वं एवं सप्त लोक अधो यानि पाताल के माने गये है, जैसे भू भव स्व मः जनः तप सात, ये सप्त लोक है, जो पृथ्वी के साथ अन्य ऊपर के लोक है। ऐसे ही सप्त लोक नीचे की ओर बताए गये।

अतल, वितल, नितल, गभस्ति, मान, महातल, सुतल तथा पाताल इत्यादि को भी लोक कहा गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि लोक का तात्पर्य साधारण भाषा में भिन्न-भिन्न देव-दैत्यों के स्थानों को लोक कहा है। पौराणिक साहित्य भी यही दर्शाता है, परन्तु कहीं-कही लोक को विश्व रुप में भी माना है। इस आधार पर तो हम लोक साहित्य को विश्व साहित्य के रुप में ही देखेंगे। हिन्दी साहित्य में लोक को “लोग” ही कहा है, जिसका अर्थ जन साधारण है।”

लोक की ऐसी अवधारणा को सहजता से उद्घाटित कर कवि विश्वामित्र दाधीच लोक साहित्य और उसके उद्गम पर अपनी विवेचना करते हुए उसे इस प्रकार विश्लेषित करते हैं- “साहित्य के मनिषियों द्वारा इसका उद्‌गम मुख्य रुप से श्रुति परम्परा से ही होता है, जो शास्त्रीय विधि से अनुबंधित नहीं होता, अथवा साहित्य के सभी प्रभावशाली नियमों से मुक्त होकर साधारण लोगों को वाणी से निकलता है। लोक साहित्य को जनता के भावों का उद्‌गार माना है। लोक साहित्य जब-जब उल्लास, उमंग एवं हर्षित होता है तब-तब लयबद्ध शब्दों के जरिए लोक गीतों एवं लोक नाट्य, कथाओं के रुप में सामने आता है। इससे स्पष्ट है लयबद्ध शब्द लोक साहित्य की धरोहर है। कई साहित्य मनिषियों ने “लोके वेदे च” कहकर वेद तुल्य भी माना है।”

इस लोक के सन्दर्भ में वे अपनी मान्यता को इस तरह उजागर करते हैं –
कहा व्याकरण कैसी सीमा
बन्धन मुक्त हुआ करता है
केवल लोक रंग में रंगकर
लय में शब्द जीया करता है।

लोक के रंग में ही रंग कर कवि विश्वामित्र दाधीच ने लोक के राम को लोक साहित्य में से उभारा है। तब वे स्वयं लोक साहित्य के बारे में अनुशीलन करते हुए सार रूप में कहते हैं- “जहाँ तक लोक साहित्य का सवाल है तो जो भी लिखा गया अधिकतर लोक साहित्य ही है। कवि के युग या काल के अनुसार जो भी भाषा रही हो उस भाषा का साहित्य जन- जन के द्वारा स्वीकार किया गया, तो वह लोक साहित्य ही कहा जायेगा।”

इसी सन्दर्भ को आत्मसात् करते हुए लेखक विश्वामित्र दाधीच ने रामकथा के विविध संदर्भों को अपनी इस पुस्तक में विवेचित किया है। इसी प्रसंग में वे कहते हैं कि “लोक में रामकथा” जन-जन की भावना में श्रद्धा और विश्वास की डोरी से बंधा हुआ लोक साहित्य है। जो रामकथा के माध्यम से जन-जन तक पहुँचा और पहुँच रहा है। समाज में प्रचलित रामकथा का लोक काव्य जो प्रमाण के रुप में सामने आया अथवा साहित्य मनीषियों ने जिनकी चर्चा समय-समय पर की उसी लोक साहित्य को हम पढ़ और समझ रहे है।”

पढ़ने और गुनने के ये सन्दर्भ इस पुस्तक में समाहित विभिन्न प्रान्तों की रामकथाओं में उल्लेखित कर लेखक ने श्रीराम के विविध प्रसंगों को उद्घाटित किया है।

लेखक विश्वामित्र दाधीच ने विविध रामायणों को समग्रता से प्रस्तुत कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस माने में भी कि जब वे कहते हैं “रामकथा अनन्त है, कवि अनन्त है, फिर भी मेरे सूक्ष्म प्रयास से जितना कुछ लिख पाया मैंने लिखा है…”। कवि की यह सहज स्वीकारोक्ति ही अपने आप में अध्ययन और समर्पण का द्योतक है जहाँ उन्होंने इस प्रयास में अनेकानेक रामकथाओं को सरल स्वरूप में प्रस्तुत कर आस्था के सोपान प्रदान किये हैं।

पुस्तक का प्रकाशन जीएस पब्लिशर डिस्ट्रीब्यूटर्स, एफ-7, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली द्वारा किया गया है।

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