भारत के स्वतंत्रता संग्राम का विश्लेषण करते हुए, ‘स्व’ को ही उस राष्ट्रीय आंदोलन की उत्प्रेरक शक्ति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, जो कि यहाँ की स्थानीय संस्कृति और आस्थाओं को कुचलने के प्रयास के विरुद्ध विदेशी आक्रांताओं का सामना करने के लिए उठ खड़े हुए असाधारण नेतृत्व के साथ ही साथ, जनसामान्य को भी प्रेरित कर रहा था।
विदेशी ताकतों के विरुद्ध कश्मीर से कन्याकुमारी तक महान पुरूषों और वीरांगनाओं द्वारा किये जाने वाले संघर्षों के सूक्ष्म अध्ययन से यह ध्यान में आता है कि केवल कुछ संकीर्ण या तुच्छ कारणों से प्रेरित होकर नहीं, अपितु स्थानीय जीवन पद्धति तथा मूल्यों को बचाए रखने के लिए वे इस संघर्ष के लिए प्रस्तुत हुए।
देश के विभिन्न भागों में उठ खड़े हुए ऐसे ही संघर्षों एवं आंदोलनों का स्मरण करते हुए भारत, 2022 में अपनी स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है। *इस दृष्टि से यह महत्वपूर्ण हो उठता है कि पूरे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को ‘स्व’ के दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया जाय, जिससे एक सही परिप्रेक्ष्य में इसका संज्ञान हम लोग ले सकें।
राजनैतिक तथा आर्थिक शोषण या धर्मांतरण, तथा इन सबसे भी महत्वपूर्ण भारत का विभाजन – यह सब औपनिवेशिक शासकों द्वारा ‘स्व’ के विचार को कमजोर करने की दिशा में किये जाने वाले प्रयास थे। ऐसे तो अंग्रेजों का भारत में प्रवेश सत्रहवी शताब्दी के प्रारंभ में ही हो गया था, किन्तु 1757 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्राप्त करने के बाद बर्बरता और लूट का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक निरन्तर चलता रहा।
ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध हमारा स्वतंत्रता संग्राम केवल औपनिवेशिक ताकतों के राजनीतिक एवं आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए नहीं था। 190 वर्ष का अंग्रेजों का शासनकाल यदि “विनाशपर्व” था, तो यही हमारे विस्मृत ‘स्व’ के अनुसंधान का भी पर्व था।
अंग्रेजों द्वारा किये जाने वाले भारतीयों और भारतीय अर्थव्यवस्था के शोषण के फलस्वरूप भारत की जनता ने अंग्रेजों को भारत से बाहर करने के सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता का अनुभव किया। आज स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद हमारे लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजों के विरुद्ध हमने अपनी आवाज़ किस प्रकार उठाई तथा भारत को विदेशी दासता से मुक्त करवाने के क्रम में हमारे देश और देशवासियों को कितना मूल्य चुकाना पड़ा।
यह सत्य है कि भारतीय जन ने विदेशी आधिपत्य को कभी भी बिना प्रतिरोध के स्वीकार नहीं किया। यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों के विरुद्ध भी पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद से ही भारत के विभिन्न भागों में कृषकों, श्रमिकों, वनवासियों तथा अन्य लोगों द्वारा औपनिवेशिक शासन के विस्तार के विरुद्ध अपनी शक्ति भर प्रतिरोध किया गया। निस्संदेह उनके विरोध प्रदर्शन स्थानीय कारकों व प्रभावों से उपजे थे किंतु उन सबने निश्चित ही विदेशी शासन के विरुद्ध उठे स्वर को सशक्त करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
केन्द्रीकृत, शोषक और हिंसक शासन प्रणाली एवं उसके द्वारा अपनाये जाने वाले लोभ, केंद्रित अर्थतंत्र से छुटकारा पाए बिना अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा, इस विश्वास के साथ ही श्री अरविंद, महात्मा गांधी तथा अन्य महापुरुषों ने स्वधर्म, स्वराज एवं स्वदेशी के सामाजिक-दार्शनिक विचार को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया। इस त्रयी में पहली अवधारणा थी – ‘स्वधर्म’, जिसके प्रकट रूप ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का विचार रखने वाले भारतीय चिन्तन में सभी का उत्थान, जिसमें प्राणी जगत, जंगल, नदियां तथा भूमि आदि सभी कुछ समाहित है। दूसरा है – ‘स्वराज’ अर्थात् स्व-शासन। स्व-शासन छोटे स्तर पर, विकेन्द्रीकृत, स्व-संगठित तथा स्व-निर्देशित सहभागितापूर्ण शासन की संरचना।
इसका तात्पर्य आत्म-परिवर्तन, आत्म-अनुशासन तथा आत्म-संयम भी है। इस प्रकार स्वराज शासन की एक नैतिक, पारिस्थिकीय तथा आध्यात्मिक प्रणाली है। त्रिमूर्ति में तीसरा है – ‘स्वदेशी’, अर्थात् स्थानीय अर्थतंत्र, जो कि स्थानीय उत्पादों और उपभोक्ताओं के लिए स्थानीय मांग और आपूर्ति की श्रंखला को पुनर्स्थापित करने का एक प्रयास था। पहले, स्वदेशी का विचार केवल अर्थतंत्र तक ही सीमित था किंतु बाद में यह अवधारणा सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों में भी प्रतिफलित होती देखी जा सकती है। यदि हम उपरोक्त त्रयी (स्वधर्म, स्वराज एवं स्वदेशी) में उपस्थित ‘स्व’ की संकल्पना पर विचार करें, तो हम पाते हैं कि औपनिवेशिक संरचना विभिन्न तरीकों और तकनीकों के माध्यम से भारतीय ‘स्व’ के इस विचार के दमन का ही एक प्रयास था।
इस उपनिवेशवाद को पश्चिम के लोगों द्वारा पूर्व के लोगों के प्रति धार्मिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दृष्टिकोण से देखा जाना महत्वपूर्ण है। नस्लीय श्रेष्ठता और अश्वेतों पर श्वेतजनों की उत्कृष्टता की संकल्पना विभिन्न आख्यानों के माध्यम से दिखलाई देती है, जिसे इतिहास के नए अनुसंधानों के आलोक में पुनः नए सिरे से समझे जाने की आवश्यकता है।
*भारत की समृद्धि की चर्चा पूरे विश्व में थी जिससे आकर्षित होकर सैकड़ों वर्षों से लुटेरे हमलावरों के आक्रमण होते आए थे। अंग्रेजों के पहले के आक्रांताओं ने भारत को जी भरके लूटा था, अंग्रेजों ने भी वही किया।* अंग्रेजों ने कुटिलता से भारत को लूटा और अपनी इस लूट को वैधानिक आवरण देकर अपनी न्यायप्रियता का पाखण्ड भी रचा। भारत में भी एक वर्ग उनकी कृपा पाने के लिये उनके पक्ष में तर्क गढ़ता रहा। इन्होंने प्रचारित किया कि अंग्रेज न्यायी थे, कलाप्रेमी थे, विद्वत्ता का आदर करनेवाले थे, व्यक्ति स्वातंत्र्य के प्रेमी थे, और ऐसा विमर्श (narrative) बनता गया। ऐसे लोगों द्वारा लिखी गयी पुस्तकें अंग्रेजों द्वारा प्रकाशित करवायी जाती थीं और उन्हें निशुल्क वितरित भी किया जाता था। अंग्रेजों का कीर्तिगान करते हुए वे लिखते थे कि अंग्रेजों ने भारत को शासन के एक सूत्र में बाँधा, कानून-व्यवस्था दी, पाठशालाएँ दीं, संपूर्ण शिक्षा पद्धति दी, अस्पताल दिए, व्यावहारिक बातें (एटीकेट्स/मेनर्स) सिखाईं, रेल और टेलीफोन का नेटवर्क दिया, संक्षेप में भारतीयों को उन्होंने सभ्य और आधुनिक बनाया।
तथ्य यह है कि अनेक अंग्रेज इतिहासकारों ने ही अंग्रेजों की क्रूरता, उनके द्वारा किए गए अत्याचार, भारत की हुई लूट, झूठा इतिहास लिखने का उनका षड्यंत्र, इन सबके बारे में विस्तार से लिखा है। प्रख्यात गांधीवादी विचारक श्री धर्मपाल ने वर्षो तक अध्ययन कर प्रमाणों के साथ यह बताया कि कैसे अंग्रेजों ने हमारी व्यवस्थाओं को ध्वस्त किया।
इंग्लैंड की पार्लियामेंट ने सन् 1813 में एक ‘चार्टर अधिनियम’ पारित किया, जिसके तहत कहा गया कि ‘भारत को शिक्षित करना ब्रिटेन का दायित्व है’, अर्थात् ईस्ट इंडिया कंपनी को कहा गया कि वे शिक्षा पर ज्यादा पैसा खर्च करें तथा इन नेटिवों को (भारतीयों को) ‘ठीक से’ शिक्षित करें। आधुनिक शिक्षा के नाम पर अंग्रेजों ने हमारी सारी प्राचीन परंपराएँ उखाड़ फेंकने के भरसक प्रयास किए।
यह विडंबना ही है कि स्वतंत्रता पाने के बाद जिन तथ्यों को लेखनीबद्ध करके देश की भावी पीढ़ियों के लिये सहेजा जाना चाहिये था वह कार्य आज भी अधूरा है। भारत की शिक्षा-व्यवस्था, भारत की स्वास्थ्य सेवाएँ और भारत के उद्योग, इन सबका ह्रास अंग्रेजी शासन में कैसे होता गया इस पर विस्तार से कभी नहीं लिखा गया। *अंग्रेजों की क्रूरता, बर्बरता, निर्ममता और भारतीयों पर किए हुए उनके अन्याय व अत्याचार के साथ ही अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट का तथ्यपूर्ण विवरण इस पुस्तक में संकलित है। साथ ही अंग्रेजों के आने के पहले भारत की स्थिति क्या थी, अंग्रेजों ने कैसे भारत की जमी-जमाई व्यवस्थाओं को छिन्न– भिन्न किया और उनके जाने के बाद भारत की स्थिति क्या रही इस पर विस्तार से प्रकाश डालने वाली यह पुस्तक अपनी सहज-सरल प्रस्तुति तथा प्रवाहपूर्ण भाषा-शैली के चलते नयी पीढ़ी को अपनी ओर अवश्य आकर्षित करेगी।
यह 75वां स्वतंत्रता दिवस हम सभी के लिए स्वतंत्रता संग्राम के पूरे आख्यान के संदर्भ में अपने विस्मृत ‘सामूहिक सत्य’ को नए दृष्टिकोण से परखने, स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों को पहचानने तथा साथ ही साथ अपने अतीत और अपनी सामूहिक पहचान का विश्लेषण करने की दृष्टि में परिवर्तन लाने का एक श्रेष्ठ अवसर है। इस अवसर पर प्रकाशित होने वाली यह पुस्तक विनाशपर्व जन सामान्य तक सही तथ्यों को ले जाने तथा उनके विचारों को उद्वेलित करने के अपने प्रयोजन में सफल होगी, यह विश्वास है।
भारत में ब्रिटिश राज और भारतीय प्रतिरोध के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करने वाली पुस्तकों की श्रंखला में विनाशपर्व, यह श्री प्रशान्त पोल की तीसरी पुस्तक है। इससे पूर्व उनकी लिखी दोनों पुस्तकों, ‘वे पंद्रह दिन’ तथा ‘भारतीय ज्ञान का खजाना’ को पर्याप्त प्रतिसाद मिला है। प्रस्तुत पुस्तक को भी पाठकों का वैसा ही स्नेह मिले तथा लेखक के यह राष्ट्रीय प्रयास यशस्वी हों, यही शुभकामना है।
(लेखक– प्रज्ञा प्रवाह के संयोजक हैं )
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