समाजवादी विचारधारा के पोषक और भारतीय राजनीति के मजबूत स्तम्भों में से एक डॉ राम मनोहर लोहिया जी भारत के प्रमुख समाजवादी विचारक , राजनीतिज्ञ और स्वतंत्रता सेनानी थे । संसद में सरकार के अपव्यय पर कि गयी उनकी बहस ” तीन आना-पंद्रह आना” आज भी प्रसिद्ध है ! उनका जीवन प्रत्येक राजनीतिज्ञ के लिए आदर्श है किन्तु दुःख कि बात है कि आज उन जैसा एक भी राजनीतिज्ञ नहीं दिख रहा है खासकर उस पार्टी में भी जिसने लोहिया के समाजवाद को आगे करके राजनीति के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त किया । जी हां हम बात कर रहे हैं देश की सबसे मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों में से एक समाजवादी पार्टी की जो आज अपने मूल्यों और सिद्धांतों से भटकती नजर आ रही है ।
पिछले कुछ महीनों से पार्टी के अंदर ही जबर्दस्त आपसी नूराकुश्ती हो रही थी जिसका अंत आखिरकार कल सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव ने प्रेस कांफ्रेंस करके कर दिया ।उन्होंने राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को पार्टी से 6 वर्ष के निकाल दिया । इस पूरे प्रकरण में सबसे खास बात नेता जी का अपने बेटे को पार्टी से निकालना था जिसने ये साबित कर दिया कि वो महाभारत के धृतराष्ट्र नही जो पुत्रमोह से कभी ऊपर उठकर सोंच ही नही पाये बल्कि आज के वो पिता हैं जो राजनीति से ऊपर अपने बेटे को भी स्थान नही देते । बहरहाल इस पूरे प्रकरण के बाद अखिलेश यादव का भी बयान आया ।उन्होंने कहा मुझे पिता जी ने पार्टी से निकाला है न की दिल से । मैं पुनः चुनाव में जीत दर्ज करके उन्हें समर्पित करूँगा । हालाँकि कल अखिलेश यादव के यूएस सलाहकार स्टीव जार्डिन का एक मेल भी लीक हो गया जिसमें उन्होंने पार्टी को ऐसे ही ड्रामे की सलाह दी थी । उन्होंने कहा था कि इस तरह पार्टी को भावनात्मक रूप से अखिलेश के विकास कार्यों का वोट मिलेगा । लीक हुए इस मेल की सच्चाई कुछ भी लेकिन
एक प्रश्न इस वक्त सबके सामने है कि क्या वाकई समाजवाद पर परिवारवाद भारी पड़ गया ! लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी सिर्फ परिवार तक सिमट कर रह गई और नेताजी एक बार फिर पीएम की दावेदारी करने से चूक गए. उधर, यूपी में सत्ता का केंद्र मुलायम-शिवपाल के हाथ से निकलकर अखिलेश के हाथ पहुंच चुका था। अखिलेश ने पिता और चाचा की इच्छाओं का सम्मान भी किया. लेकिन ढाई साल पूरे होने तक अखिलेश, ‘गिफ्ट में मिली कुर्सी’ और ‘साढ़े चार मुख्यमंत्री’ वाले तानों के बीच अपना वजूद स्थापित करने में जुट गए । दरअसल, दरार सिर्फ पार्टी में ही नहीं परिवार में भी पड़ चुकी है. पिता मुलायम ने 325 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की और फिर बेटे अखिलेश ने 235 उम्मीदवारों की. पिता-पुत्र की लिस्ट में तकरीबन 75 फीसदी उम्मीदवारों के नाम कॉमन हैं. ऐसे में इन उम्मीदवारों के सामने भी धर्म संकट खड़ा हो सकता है कि ये अपना नेता किसे मानें? उधर परिवार के कुछ सदस्यों के टिकट को लेकर भी संदेह की स्थिति पैदा हो गई थी । कुलमिलाकर मौजूदा समाजवाद पर परिवारवाद का गाढ़ा रंग चढ़ते हुए साफ नजर आ रहा है ।
बहरहाल, अगर पार्टियों में कार्यकर्ताओ के भविष्य की बात करें तो उन्हें आगे बढ़ाने का प्रचलन दलों से लगभग खत्म ही होता जा रहा है। सर्वप्रथम अगर बसपा प्रमुख मायावती की बात करें तो उन्हें पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने आगे बढ़ाया तो मुलायम सिंह यादव को डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ चौधरी चरण सिंह ने। लालू प्रसाद यादव व रामविलास पास को लोक नायक जयप्रकाश ने आगे बढ़ाया तो अजित सिंह अपने पिता चौधरी चरण सिंह की विरासत को भोग रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इन लोगों ने कितने कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाया है। इन्हें बस अपने परिवार के लोग ही कर्मठ व निष्ठावान कार्यकर्ता नजर आते हैं। सपा में मुलायम सिंह के भाई राम गोपाल यादव, शिवपाल यादव व उनके पुत्र अखिलेश यादव के साथ उनका कुनबा आगे बढ़ा है तो लालू प्रसाद ने भी अपने पत्नी, पुत्र व पुत्री को ही आगे बढ़ाया। कांग्रेस में गांधी परिवार के युवराज राहुल गांधी पार्टी की बागडोर संभाले हुए हैं। अपने को दलित की बेटी बताने वाली मायावती ने अपने परिवार में से किसी को आगे नहीं बढ़ाया तो किसी दलित को दूसरी लाइन का नेता भी नहीं बनने दिया। इन सब के बीच ही स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा में चले गए। वंशवाद से भाजपा भी अछूती नहीं है। राजनाथ सिंह के बेटे, वसुंधरा राजे के बेटे समेत कई राजनीतिक दलों के परिजन भाजपा से विभिन्न पदों पर विराजमान हैं। कहना गलत न होगा कि लोकतंत्र में भी राजतंत्र की बू आने लगी है। इन परिस्थितियों में कैसे एक किसान व मजदूर का बेटा नेता बनकर किसान व मजदूर की आवाज को उठाएगा ?
एक तरफ राजनेताओं के चारित्रिक पतन के चलते गंदली होती जा राजनीति से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है और दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत होने वाले जनप्रतिनिधि तरह-तरह के अनैतिक कार्यां में लिप्त पाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर लगातार राजनीति की मौजूदा समय में प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो रहे हैं । ऐसे में राजनीतिक दलों में निष्ठावान कार्यकर्ताओं की जगह चाटुकार, दलाल व प्रापर्टी डीलरों ने ले ली है। राजनीतिक दलों ने वोटबैंक के लिए आरक्षण, गरीब, दलित जैसी बैसाखियां आम आदमी के हाथ में थमा दी हैं। किसान मजदूरों की लड़ाई लड़ने का दंभ तो हर राजनीतिक दल भरता है पर कितने जनप्रतिनिधि किसान व मजदूर पृष्ठभूमि से हैं ? पूंजीपतियों के दबाव में केंद्र सरकार श्रम कानून में संशोधन कर जहां मजदूर का अस्तित्व खत्म करने पर तुली है वहीं किसान की खेती पूंजीपतियों को सौंपकर किसान को उसके ही खेत में बंधुआ मजदूर बनाने का खेल देश में चल रहा है।
शायद किसी ने सच ही कहा है कि सत्ता और दौलत का नशा बहुत ख़राब होता है । यह अपनों को भी बेगाना बना देता है और मौजूदा समय में इसका सबसे बड़ा उदाहरण समाजवादी पार्टी है ।सूबे के सियासी मौजूदा घटनाक्रम ने इतना तो स्पष्ट ही कर दिया है कि आज के समाजवाद पर परिवारवाद हावी हो चुका है । जिसकी परिणिति क्या होगी शायद किसी को नही पता !
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