Friday, December 27, 2024
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लगता है जैसे ये साहित्यकार सरस्वती के नहीं कामदेव के पुत्र हैं

हम नवीं-दसवीं में रटा करते थे कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। तब यह नहीं पता था कि यह दर्पण तो ऐसा है जिसमें 12 अक्टूबर के सुंधीद्र कुलकर्णी नजर आते हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर साहित्यकारों का जो आचरण चल रहा है उससे समाज उस बंदर की तरह हो गया है जिसके हाथ में जब बंदरवाला दर्पण थमा देता है तो वह उसे इधर उधर घुमाते हुए यह नहीं समझ पाता है कि उसमें खुद उसकी ही तस्वीर नजर आ रही है या वह किसी और की समझ रहा है।

साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाओ अभियान ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि क्या, इस देश में जहां 20 फीसदी लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहते हो, जो हर रोज के भोजन पर 30 रुपए भी न खर्च कर पाते हो वहां बौद्धिक जुगाली करने के लिए साहित्य अकादमी सरीखे अभ्यारण बनाने की कोई जरुरत है?

पहले मैं भी साहित्यकारों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखता था। उन्हें पृथ्वी का महानतम व्यक्ति मानता था पर जब उनकी हरकतें देखीं व साहित्य के कैग राकेश तिवारी से उनके बारे में सुना तो मेरी धारणा ही बदल गई। कोई किसी चेली के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा है तो किसी की पूर्व चेली उस पर गंभीर आरोप लगा रही है!

वैसे बचपन में अक्सर अखबार में यह पढ़ा करते थे कि संगीत मास्टर हारमोनियम या गिटार बजाना सिखाते सिखाते अपनी चेली को लेकर भाग गया। जब बड़ी कक्षा में आए तो हिंदी पढ़ने वाली छात्राएं बताती थीं कि बिहारी के श्रृंगार रस पढ़ाते समय मास्टरजी की आंख में वही ललक दिखायी पड़ती है जो बंगाली को रसगुल्ला देखकर व कुत्ते को हड्डी देखकर लगती है। बस ऐसा लगता है कि उनकी लार टपकने ही वाली है।

कमोबेश अपने साहित्यकार के साथ भी कई भावी साहित्यकारियां होती हैं जिन्हें वे स्थापित करने की गाजर दिखाकर उन्हें मोहित कर रहे होते हैं। वैसे यह लाबी इतनी मजबूत है कि वह तय करती है कि अमुक कालेज में कौन प्राध्यापक बनेगा? किसे फलां पुरस्कार मिलेगा? किसकी पुस्तक की अच्छी समीक्षा की जाएगी? किसी ने हंस की सवारी की तो किसी ने गरुड़ की पर सभी साहित्य के जरिए गिद्ध, चील और बाज की तरह इंसानी मांस तलाशते ही नजर आते हैं। इनकी हरकतों के बारे में तो खुद उनकी पूर्व पत्नियों ने इतना लिखा है कि कुछ न पूछिए। लगता है कि जैसे वे सरस्वती पुत्र न होकर कामदेव के पुत्र हो।

मुझे याद है कि इन्हें न तो समाज की परवाह है और न ही उम्र की किसी सीमा में बंधना पसंद आता है। ऐसे ही एक नामी गिरामी साहित्यकार से मेरी पत्नी की प्रभाषजी के बेटे की शादी में मुलाकात हो गई। उनके साथ उनकी नवीनतम पत्नी भी खड़ी थी जो कि उनकी उम्र में एक तिहाई थी। वैसे इस साहित्यकार की शख्सियत की खासियत यह थी कि वे बचपन से बुजुर्ग लगते थे। मैंने उनका अभिवादन करने के साथ ही अपनी पत्नी से उनका परिचय करवाया। पत्नी भी उनसे परिचित थी। इससे पहले कि मैं उनकी पत्नी का परिचय करवाता, पत्नी बोल उठी यह आपकी बेटी है?

उसके बाद मैंने वहां से खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी। उस समय ट्विटर नहीं था वरना जो एसएमएस दिग्विजय सिंह के बारे में चल रहा था वह उन पर खरा उतरता। दिग्विजय सिंह की शादी पर किसी ने एसएमएस किया कि ‘उनकी पत्नी से किसी ने पूछा कि आखिर आपने इनमें क्या देखा? उसने जवाब दिया कि एक तो इनकी इनकम, ऊपर से इनकी उम्र कम।’ खैर उस साहित्यकार के दुनिया छोड़ देने के बाद उनकी बालिका वधू उनकी सारी साहित्यिक वसीयत की उत्तराधिकारी बनी।

मूलभूत सवाल यह है कि क्या हमें इन साहित्यिक अकादमियों की जरुरत है, क्या साहित्यकार किसी इनाम का पात्र होता है? उसे तो समाज में सम्मान का पात्र होना चाहिए। वैसे भी यह पुरस्कार किसी उभरते हुए लेखक या साहित्यकार को न देकर प्रतिष्ठित साहित्यकारों को ही दिया जाता है। जिनकी पहले से ही किताबें छप रही होती हैं। सरकारी खर्च पर उनका साहित्य प्रकाशित करने का क्या लाभ? किसान के लिए कौनसी अकादमी बनी हुई है? मजदूर को कौन पुरस्कृत करता है?

वैसे सबसे गजब काम तो पंजाबी लेखिका दिलीप कौर टिवाणा ने किया है। उन्होंने 31 साल पहले हुए नवंबर 1984 के सिख विरोधी दंगों के व मुसलमानों के खिलाफ जारी हिंसा के विरोध में अपना पद्मश्री लौटा दिया। उन्हें 2004 में इसे दिया गया था। तब भी 1984 के दंगे हुए 20 साल बीत चुके थे। उनका कहना है कि गौतम बुद्ध और गुरु नानक की धरती पर सिखों और मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचार हमारे समाज के लिए अपमानजनक है। अगर ऐसा था तो उन्होंने इसे 2004 में स्वीकार ही क्यों किया था? आखिर तब तो 1984 के सिख दंगे व 2002 के गुजरात दंगे दोनों ही हो चुके थे। इस तरह की घटनाओं के कारण ही संघ के मुखपत्र पांचजन्य को उनका माखौल उड़ाने का मौका मिल रहा है जिसने अपने संपादकीय में कहा कि कुछ लेखकों को सेक्यूलरिज्म की बीमारी है। इन बुद्धिजीवियों को सिख दंगों के अपराधियों से सम्मान लेते हुए बुरा नहीं लगा था। कश्मीर घाटी से जब हिंदूओं को खदेड़ा जा रहा था, उस वक्त इन लोगों ने एक शब्द भी नहीं कहा था।

इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की मानसिकता को अपने सहयोगी मनोज मिश्र ने बहुत सरल शब्दों में समझा दिया। उन्होंने एक किस्सा सुनाया कि ‘एक आदमी ने किसी से सवाल किया कि अगर पृथ्वी से चांद की दूरी एक लाख किलोमीटर हो व पटना जाने का किराया एक हजार रुपए हो तो मेरी उम्र क्या होगी? उसने कहा 32 साल। सवाल पूछने वाला आश्चर्य में पड़ गया। उसने विस्मय के साथ कहा बिल्कुल ठीक पर आपने कैसे गणना की? जवाब देने वाले ने कहा कि हमारे मुहल्ले में एक अर्ध पागल है उसकी आयु 16 साल है।

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विनम्र उनका लेखन नाम है।)

साभार-http://www.nayaindia.com/ से

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