कामवासना प्रकृति की वह सौ फीसदी कारगर जुगत है जिससे वह प्रजातियों के वंश संवहन और अस्तित्व को बनाये रखती है। यह ताकत न रहती तो फिर धरती पर जीवन का सातत्य ठहराव पा गया होता। अपने इस मकसद की पूर्ति के लिये प्रकृति ने सभी जीव प्रजातियों मे प्रणय लीलाओं के अद्भुत प्रपंच रचे हैं।
नर मादाओं को तरह तरह के हाव भावों से प्रभावित करते हैं। नृत्य करते हैं, रिझाते हैं। मादा भी पहले तो किंचित प्रत्यक्ष उपेक्षा और निर्मिमेष भाव से नर की अजीबोगरीब हरकतों को देखती है, मगर नर की जैवीय प्रखरता और निरन्तर मनुहार और योग्य भावी संतति की संभावना से आश्वस्त हो समर्पण कर देती है। तदन्तर समागम और प्रजनन से वंशबेलि की उत्तरजीविता सुनिश्चित होती रहती है।
मनुष्य में भी यही जैवीय प्रवृत्ति अपना शिखर पा गई है। मगर यहां वह संस्कृति के प्रभाव में काफी संस्कारित है। है तो वही सब उपक्रम मगर यहां संस्कृति के आवरण में। तनिक सलीके से। निजता से। खुल्लमखुल्ला नहीं। अलग अलग संस्कृतियों में प्रेम निवेदन के तौर तरीके हैं। संस्कार और रस्मों रिवाज हैं। मगर मूल चेतना तो वही है।
जीवन में काम के महत्व को हमारे मनीषियों ने स्वीकारा। यहां तक कि काम को और भी उद्दीपक बनाया। एक काम के आराध्य देव तक को वजूद में ला दिया। मदनोत्सव को सामाजिक स्वीकृति दे दी। वात्स्यायन ने चौसठ विधि – आसनों का तोहफा क्या दिया, मानव कल्पना ने उनमें निरन्तर अभिवृद्धि ही किया है । मन्दिरों के वाह्यावरणों तक को कामोद्दीपक शिल्प से अलंकृत किया और यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। मूल प्रयोजन वही है, संतति संवहन।
किन्तु मानवीय संदर्भ में यौनाचार को मर्यादित रखने, एक बेहद निजी गोपन व्यवहार के रुप में ही मान्यता मिली है। इस विचार का उत्कर्ष श्रीमद्भगवतगीता में देख सकते हैं जब कृष्ण कहते हैं कि मैं महज जनन कृत्य के के लिए ‘काम’ हूं। काम की लम्पटता से मेरा वास्ता नहीं।
यह सही है कि भले ही एक सोद्येश्य से किन्तु काम संबन्धी गोपनता के अतिशय ने कई यौनिक वर्जनाओं को भी उत्पन्न किया तथापि लोक जीवन में अमर्यादित यौनाचार कभी स्वीकार्य नहीं रहा। यहां तक कि विलासी राजाओं के कामुकता भरे विलासी जीवन को सही ठहराने के औचित्यस्वरुप निर्जन स्थलों, जंगलों में सहजयानियों द्वारा यौनाचार की नक्काशियों वाले मन्दिर भी लम्बे समय तक आमजनों से उपेक्षित रहे।
ऐसे मर्यादित यौनाचार की परंपरावाले देश में होली को लेकर लम्पटता, खुद की यौनकुंठाओं, प्रवंचनाओं के शमनार्थ किये जाने वाले हुड़दंग और जोर जबर्दस्ती उचित नहीं है। आश्चर्य है कि वैलेंटाइन प्रेम पर्व का उद्धत विरोध करने वाली टीम भी होली पर एकदम मर्यादाहीन और बेलगाम हो जाती है। होली स्नेह का, प्रेम का त्योहार है और मदनोत्सव भी है। मगर मर्यादा का मदनोत्सव।
जितने भी होली हुल्लड़बाज हैं मुझे कहीं न कहीं यौन विकारों से पीड़ित लगते हैं या फिर यौन बुभुक्षित हैं। बुभुक्षितं किम न करोति पापम। आरत काह न करई कुकर्मू । अरे हुल्लड़बाजों नारी का दिल ही जीतना है तो उसके मन से प्रवेश लो, देह से नहीं। देह का सम्मान मन में जगह देगा।अपने यौनाग्रहों के शमन के सुरुचिपूर्ण तरीके ढ़ूढ़ों, भड़ंगई पर क्यों उतर आते हो? मानवीय संकोच और शालीनता को इतना भी तार तार कर देना उचित नहीं।
होली मनाईये मगर मर्यादाएं न टूटे, किसी का दिल न टूटे। नेह के बन्धन ढीले न हों बल्कि और मजबूत हो जांय।
————————————————————————————————————————————————————–
डॉ अरविन्द मिश्रा
विज्ञान कथा लेखक