(22 मई 2023 महाराणा प्रताप जयंती पर विशेष)
देश भक्ति और स्वाभिमान की अनूठी मिसाल वीरशिरोमणि की उपमा से सुशोभित महाराणा प्रताप 27 वर्ष की उम्र में शासन सम्भाल के बाद संकल्प के साथ मेवाड़ को मुगलों से मुक्त रखने के लिये 30 वर्षो तक जंगलों , गुफाओं में रह कर और मुश्किलों में घास की रोटी खा कर संघर्ष रत रहे। हल्दीघाटी युद्ध को भारत की थर्मोपॉली कहा जाता है। भारत का आधा राज्य देने तक का भी प्रलोभन भी उन्हें तनिक झुका न सका। प्रताप की यशोगाथा बनाने में भीलों का महत्वपूर्ण योगदान रहा और हल्दीघाटी के जग विख्यात युद्ध में जी जान से लड़े। मेवाड़ के राज्य चिन्ह में भीलों को यथोचित सम्मान दिया गया। इस बार महाराणा प्रताप जयंती पर उनकी गाथा और ऐतिहासिक घटनाओं को जानते हैं उदयपुर और आस-पास स्थित प्रताप से सम्बंधित दर्शनीय स्थलों के माध्यम से। जिन्हें देखने दुनिया भर के पर्यटक पहुँचते हैं। मुझे भी अपने उदयपुर पदस्थापन के दौरान इन स्थलों को देखने और प्रताप को समझने का मौका मिला।
हल्दीघाटी
उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर पीली मिट्टी का दर्रा हल्दीघाटी कहा जाता है। खमनोर एवं बलीचा गांव के मध्य इसी घाटी के दर्रे में 18 जून 1576 ई. को विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी का युद्ध मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप एवं मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना के मध्य लड़ा गया। कुछ घंटों तक चले युद्ध में निर्णायक विजय किसी को भी हासिल नहीं हो सकी । इसी युद्ध में महाराणा प्रताप के सहयोगी झाला मान, हाकिम खान,ग्वालियर नरेश राम शाह तंवर सहित देश भक्त कई सैनिक देशहित में बलिदान हुए। उनके प्रसिद्ध घोडे चेतक ने खुद घायल होकर भी अपनी स्वामिभक्ति का परिचय दिया और महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। जहां सैनिकों का रक्त बहा वह स्थल रक्त तलाई कहलाता है।
हल्दीघाटी युद्ध स्थली को देखने के लिए पहले जब सैलानी यहां आते थे तो उन्हें महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक के स्मारक के रूप में बनी एक साधारण सी छतरी देखने को मिलती थी। यहां की पीली माटी जिसके लिए कहा जाता है कि युद्ध जो माटी को चंदन बना गया के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा रहती थी। कई लोग इस पवित्र माटी को अपने मस्तक पर लगा कर धन्य महसूस करते थे और स्मरण स्वरूप कुछ माटी अपने साथ ले जाते थे। यहां का पहाडि़यों से घिरा प्राकृतिक परिवेश और हल्दीघाटी का संकरा मार्ग भी दर्शनीय होता था। विकास के साथ हल्दीघाटी का दर्रा का स्वरूप बदल गया और अब यहां एक पक्की सड़क बन गई है। एक पहाड़ी पर महाराणा प्रताप स्मारक भी दर्शनीय है। यहाँ मुख्य रूप से रक्त तलाई,शाहीबाग, प्रताप गुफा, घोड़े चेतक की समाधि एवं ऊंची पहाड़ी पर महाराणा प्रताप स्मारक दर्शनीय हैं।
संग्रहालय
हल्दीघाटी से 3 किमी दूर बलीचा गांव में महाराणा प्रताप के जीवन से जुड़े प्रसंगों एवं युद्ध की घटनाओं की स्मृतियों को संजो कर एक पहाड़ी पर खूबसूरत संग्रहालय बनाया गया है। मेवाड़ का राज्यचिन्ह, पन्नाधाय का बलिदान, गुफा में महाराणा प्रताप की अपने मंत्रियों से गुप्त मंत्राणा, शेर से युद्ध करते हुए प्रताप, भारतीय संसद में स्थापित महाराणा प्रताप की झांकी की प्रतिमूर्ति, मानसिंह से युद्ध करते महाराणा प्रताप, महाराणा प्रताप एवं घायल चेतक घोड़े का मिलन, महाराणा प्रताप का वनवासी जीवन के साथ-साथ उनसे जुड़े अन्य प्रसंगों को यहाँ माडल, चित्रों एवं झांकी के आकर्षक रूप में प्रदर्शित किया गया है । कृष्ण भक्ति को समर्पित मीरा मीराबाई , महाराणा अमर सिंह, महाराणा उदय सिंह, महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा), महाराणा कुम्भा एवं महाराण बप्पा रावल के पोरट्रेट भी यहां प्रदर्शित किए गए हैं।
इस ऐतिहासिक विरासत का सजीव प्रस्तुतिकरण तथा चित्रण, कलाकृतियों, मूर्तिकला, के रूप में तो प्रदर्शित किया ही गया है साथ ही लाइट एवं साऊण्ड आधारित झांकीयां भी मनोरंजक रूप से बनाई गई हैं। परिसर में एक छोटा सा फिल्म थियेटर भी बना है जहां आगन्तुकों को प्रताप के जीवन से सम्बनिधत लघु फिल्म के माध्यम से जानकारी दी जाती है।
संग्रहालय में महाराणा प्रताप के जीवन से जुड़े पक्षों के साथ-साथ अंचल की लुप्त हो रही संस्कृति के संरक्षण की दृष्टि से प्राचीन काल में कुएं से पानी बाहर निकालने के लिए रहट, कोल्हू, चड़स, तेल की घाणी, रथ, बैलगाड़ी, कृषि यंत्र, वाद्य यंत्र, वेशभूषा, बर्तन, ताले, आदि का वृहत संकलन कर उन्हें आकर्षक झांकी के रूप में प्रदर्शित किया गया है। आने वालों के मनोरंजन के लिए एक कृत्रिम झील बनाई गई है जिसमें बोटिंग की सुविधा भी है। यह संग्रहालय एक अध्यापक मोहनलाल श्रीमाली के जीवन के संघर्षो के बीच उनकी कल्पना और उनके जुनून का जीवंत उदाहरण है। सैलानियों को ही नहीं वरन आने वाली पीढि़यों को यह धरोहर देश भक्ति का संदेश और प्रेरणा देती है।
गोगुन्दा
उदयपुर से 35 किमी.दूरी पर सघन पहाड़ियों से घिरे गोगुन्दा कई बार मेवाड़ के महाराणाओं की आपातकालीन राजधानी रही है। यहीं पर महाराणा प्रताप का राजतिलक हुआ। महाराणा उदयसिंह के हाथ से जब चितौड़ निकल गया तो उन्होंने यहीं पर रहकर उदयपुर नगर बसाया। उनकी मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप ने भी गोगुन्दा को राजधानी बनाया और बाद में उदयपुर चले गये। अकबर ने जब उदयपुर छीन लिया तो महाराणा प्रताप पुनः गोगुन्दा आये। महाराणा प्रताप से मिलने के लिए जयपुर के मानसिंह तथा अकबर के सेनापति राजा टोडरमल ने भी गोगून्दा आकर भेंट की। आज भी यहां महाराणा उदयसिंह का स्मारक बना हैं। गोगुन्दा का विशाल दुर्ग आज काफी जर्जर अवस्था में आ गया है। गोगुन्दा में प्रमुख रूप से गुढ़ा के गणेशजी के साथ-साथ अनेक मंदिर दर्शनीय हैं।
मायरा की गुफ़ा
गोगुन्दा के समीप मायरा की गुफ़ा की विशेषताओं के कारण महाराणा प्रताप ने इसे अपना शस्त्रागार बनाया और इसी में अपना घोड़ा चेतक भी बांधते थे। प्रताप यहां रह कर खुफिया मन्त्रणा भी किया करते थे। गुफा की रचना टेडी मेडी होने से किसी भूलभुलैया से कम नहीं है। गुफा में जाने के यद्यपि तीन रास्ते हैं तथापि बाहर से देखने पर अंदर जाने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता हैं। महाराणा प्रताप नई प्रण किया था कि जब तक वे मेवाड़ मो मुगलों के आतंक से मुक्त नहीं कर देंगे वे महलों को छोड़ के जंगलों में रहेंगे। यह गुफा प्रताप के जंगलों में रहने के दौरान महत्वपूर्ण गुफ़ा रही।
प्रताप स्मारक-मोतीमगरी
उदयपुर में फतहसागर झील के किनारे की मोतीमगरी के 131 बीघा की ऐतिहासिक पहाड़ी को चार पार्कों में विभक्त किया जाकर एक पार्क का नाम महाराणा प्रताप पार्क रखा गया जहां प्रताप स्मारक का निर्माण किया गया है। यह स्थल प्राकृतिक वनस्पति एवं आकर्षक उद्यानों व फव्वारों से एक दर्शनीय स्थल बन गया है। यहां छोटे से उद्यान में महाराणा प्रताप के वफादार घोड़े चेतक पर सवार महारणा प्रताप की श्यामवर्णीय प्रतिमा एक ऊंचे चबूतरे पर बनायी गई है। प्रताप एवं चेतक घोड़े का शिल्प अत्यन्त चित्ताकर्षक है। जिस चबूतरे पर यह प्रतिमा स्थापित है उसके चारों तरफ महाराणा प्रताप के जीवन से संबंधित घटनाओं को पाषाण चित्रों में उकेरा गया है। समीप ही एक दूरबीन लगायी गई है जिसमें न्यूनतम शुल्क से फतहसागर की छटा को निहारा जा सकता है।
दूसरे पार्क में हल्दीघाटी युद्ध के भील सेनानायक जिन्हें पूंजा के नाम से पुकारा जाता था, भीलू राजा की आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई है जहां आदिवासी भील जीवन की झलकियां, सर्पगृह, मृगविहार, भीलों के मकान तथा एक कृत्रिम झील दर्शनीय हैं। भीलू राजा की प्रतिमा का अनावण 8 फरवरी 1989 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के कर-कमलों से किया गया। तीसरा पार्क दानवीर भामाशाह के नाम पर विकसित कर भामाशाह की आदमकद प्रतिमा एक विशाल बुर्ज पर स्थापित की गई है। यहां कमल तलाई फव्वारा, कृत्रिम झरना तथा बर्फीली पहाड़ी के दृश्य बनाए गए हैं। इसी पार्क में बर्ड सेंक्चूरी भी स्थित है।
एक अन्य पार्क हकीमखां सूरी के नाम से मुख्य प्रतिमा के बांई ओर नीचे पहाड़ी पर बनाया गया है। यहां जनाने महलों के खण्डर भी मिलते हैं। यहां जनाने महल के पूर्व की ओर एक ऊंची चट्टाना पर तोप के सामने महान योद्धा हकीमखां सूरी की प्रतिमा स्थापित की गई है एवं एक सुंदर बगीचा भी विकसित किया गया है। मोतीमगरी पहाड़ी पर इन प्रमुख दर्शनीय स्थलों के साथ-साथ वीर भवन हाॅल आफ हिरोज एवं अस्त्र-शस्त्र संग्रहालय भी बनाये गये हैं। पहाड़ी पर एक अन्य आकर्षण एवं ऐतिहासिक महत्व के ’’मोती महल’’ हैं । आज यह खंडहर के रूप में विद्यमान है। कहा जाता है महाराणा उदयसिंह ने उदयपुर नगर बसाने से पूर्व इसी पहाड़ी पर इन महलों का निर्माण कराया था।
सिटी पैलेस,उदयपुर
उदयपुर के सिटी पैलेस का महाराणा प्रताप से सम्बंधित एतिहासिक सामग्री एवं उनके जीवन की घटनाओं पर आधारित बड़े-बड़े सुंदर चित्रों के संग्रह का प्रदर्शन सिटी पैलेस का आकर्षण हैं। जो महाराणा प्रताप के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें इसे अवश्य देखना चाहिए। इसके साथ-साथ सिटी पैलस में 11 शानदार महल हैं, जिन्हें विभिन्न शासकों द्वारा बनाया गया था, फिर भी वे एक दूसरे के समान दिखते हैं। मनक महल (रूबी पैलेस) में क्रिस्टल और चीनी मिट्टी के बरतन के नमूनें हैं। भीम विलास में राधा-कृष्ण की वास्तविक जीवन कथाओं को चित्रित करने वाले लघु चित्रों का शानदार संग्रह दिखाया है।
कृष्ण विलास’ महाराज के शाही जुलूस, त्योहारों और खेलों को चित्रित करने वाली लघु चित्रों के उल्लेखनीय अल्बम के लिए जाना जाता है। मोती महल (पर्ल पैलेस) को अपनी भव्य सजावट के लिए मनाया जाता है, जबकि शीश महल (दर्पण का पैलेस) अपने लुभावनी दर्पण काम के लिए जाना जाता है। ’चीनी चित्रशला’ अपने चीनी और डच सजावटी टाइलों के लिए प्रसिद्ध है। ’दिलखुश महल’ (पैलेस ऑफ जाॅय) भित्ति चित्रों और दिवार चित्रों के लिए जाना जाता है।
बड़ा महल विदेशी उद्यान महल है जो 90 फुट ऊंची प्राकृतिक राॅक संरचना पर खड़ा होता है। रंग भवन महल शाही खजाने को शामिल करता था। भगवान कृष्ण, मीरा बाई और शिव के मंदिर हैं, जो ’रंग भवन’ के अधिकार में स्थित हैं। ’मोर चैक’ में मोर की असाधारण कांच के मोज़ेक हैं, जो गर्मी, सर्दियों और मानसून मौसमों को प्रस्तुत करने वाली दीवारों में सेट है। ’लक्ष्मी विलास चैक’ मेवाड़ चित्रों का एक विशिष्ट संग्रह के साथ एक आर्ट गैलरी है। सिटी पैलेस और ’जनाना महल’(देवियों चैंबर) का एक हिस्सा एक संग्रहालय में बदल दिया गया है। संग्रहालय जनता के लिए खुला है लक्ष्मी चोंक एक सुंदर सफेद मंडप है। अमर विलास’इस महल का सबसे ऊंचा स्थान है और फव्वारे, टावरों और छतों के साथ शानदार लटका हुआ उद्यान है। सिटी पैलेस में नाजुक दर्पण कार्य, संगमरमर का काम , भित्ति चित्र, दीवार चित्रकारी, चांदी का जड़ाऊ का काम अद्भुत है।
कुंभलगढ़ किला
यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल कुंभलगढ़ में राणा प्रताप हल्दी युद्ध के बाद काफी समय तक यहाँ रहे। प्रताप की अनेक स्मृतियां इस दुर्ग से जुड़ी हुई हैं। उनके समय यह मेवाड़ की राजधानी थी। महाराणा कुंभा से ले कर राजसिंह तक राज परिवार इसी दुर्ग में रहा । पन्नाधाय ने यहीं पर उदयसिंह को छुपा कर उसका लालन-पालन किया था। कुंभलगढ़ सुरक्षा की दृष्टि से सात पहाड़ियों के मध्य इस प्रकार बनाया गया है कि काफी नजदीक पहुँचने पर ही इसका अस्तित्व नजर आता है। अनेक पहाड़ियों एवं घाटियों के बीच बना किले का सैनिक एवं सुरक्षात्मक महत्व का पता इसी से चलता है कि यह दुर्ग सदैव अजेय रहा। कुंभलगढ़ प्रशस्ति में पहाड़ियों के नाम नील, श्वेत, हेमकूट, निषाद एवं गन्दमदन बताया गया है।
कुंभलगढ़ की प्रशस्ति की कुछ पट्टिकाएं उदयपुर संग्रहालाय में सुरक्षित हैं। महाराणा कुंभा ने इस अजेय दुर्ग का निर्माण 13 मई 1459 को करवाया था। मंडप नामक शिल्पि ने इसका निर्माण किया। दुर्ग पर जाने के लिए केलवाड़ा नामक कस्बे से पश्चिम की ओर सड़क जाती है जो अटेपोल एवं हल्लापोल दों दरवाजों से हो कर दुर्ग तक पहुँचती है। किले का मुख्य प्रवेश द्वार हनुमान पोल है जिस के बाहर हनुमान जी की मूर्ति लगी है। दुर्ग के चारों तरफ मजबूत दीवार एवं सुदृड़ बुर्जे बनाई गई है। बुर्जो की श्रृंखला शैंपेन बोतल के आकार की नजर आती है। बताया जाता है चीन की दीवार के बाद यह दीवार सबसे लंबी है। दीवार की लंबाई 36 किमी. लंबी एवं 15 फुट चैड़ी है। इसकी चैड़ाई इतनी है कि चार घोड़े इस पर एक साथ दौड़ सकते थे।
नागर शैली में बना नीलकंठ महादेव मंदिर सहित किले पर अनेक कलात्मक मंदिर बने हैं। वास्तु शास्त्र के आधार पर बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीन, जलाशय, महल, आवासीय भवन, यज्ञ वेदी, स्तम्भ एवं छतरियां आदि बनाये गये हैं। किले में 360 से ज्यादा मंदिर हंै जिनमें 300 प्राचीन जैन मंदिर एवं शेष हिन्दु मंदिर हैं। दुर्ग के अन्दर एक और गढ़ है जो कटारगढ़ कहा जाता है। यह गढ़ सात विशाल द्वार विजय पोल, भैरवपोल, नीबू पोल, चैगान पोल, पागड़ा पोल, गणेश पोल एवं सुदृड़ प्राचीरों से सुरक्षित है। इस गढ़ के अन्दर सबसे ऊंचे भाग पर बादल महल एवं कुंभा महल बनाये गये हैं। यही पर कुंवर पृथ्वीराज की छतरी भी बनी है।
(लेखक कोटा में रहते हैं और ऐतिहासिक विषयों पर शोधपूर्ण लेखन करते हैं)