डॉ. कुंदन लाल चौधरी की सभी पुस्तकें जिस में कश्मीरी समाज और राष्ट्रीय स्थिति का आकलन है, लंबे समय तक देशभक्तों और हिन्दुओं के लिए मशाल बनी रहेंगी। सचमुच, उन की पुस्तक ‘होमलैंड आफ्टर एट्टीन ईयर्स’ (2011) भी इस का प्रमाण है। जिस में कश्मीर से भगाए जाने के अठारह वर्ष बाद वहाँ दो दिन की तूफानी यात्रा के मार्मिक विवरण हैं। कश्मीर में हालिया जिहादी विकास, वर्तमान कश्मीरी मुस्लिम मानसिकता और उस के परिणाम की संपूर्ण समझ केवल इसी एक पुस्तक से मिल जा सकती है।
उपर्युक्त शीर्षक संपूर्ण नहीं है, न ही यह लेख। डॉ. कुंदन लाल चौधरी एक संवेदनशील कवि, लेखक, अवलोकनकर्ता, अच्छे सहृदय डॉक्टर, आदर्श पुत्र-भाई-पति-पिता, सच्चे सामाजिक, जागरूक हिन्दू, और देशभक्त भी थे। उन की आठ पुस्तकें भी इस की प्रमाणिक गवाही हैं। जिन में तीन कहानी संग्रह, और पाँच कविता संकलन हैं। सभी अनूठी, सत्यनिष्ठ, कलात्मक। उन से अगस्त 2006 में प्रथम संपर्क हुआ था। विधि के प्रसाद से, उन्होंने स्वयं एक पत्र के साथ अपनी पहली व दूसरी कविता पुस्तकें भेजीं।
संयोगवश, विस्थापित कश्मीरी लेखिका क्षमा कौल से प्राप्त डॉ. चौधरी की डायरी का यह अंश उन्हें जानने से पहले ही एक लेख में उद्धृत किया था: ‘‘भय सर्व-व्यापक है। रेडियो या ट्रांजिस्टर की खरखराहट, पानी से भरा जा रहा सिस्टर्न, हवा से पत्तों की सरसराहट, ये दैनंदिन ध्वनियाँ भी कभी-कभी धमकियाँ सी लगती हैं। दरवाजे पर बजती घंटी हृदय कंपाती है। दरवाजे पर हुई दस्तक चक्रव्यूह बनाने को विवश करती है। टेलीफोन की घंटी बजती है तो लगता है कि फिर कोई अज्ञात व्यक्ति है जो कहेगा या तो जल्दी दफा हो जाओ या परिणाम भुगतो…’’।
उन की पहली कविता पुस्तक, ‘ऑफ गॉड, मेन, एंड मिलिटेंट्स’ (2000) पढ़कर दिल-दिमाग हिल कर रह गया। क्या हम लोग एक ही देश में रहते रहे? क्या यहाँ सचमुच कोई शासन-सरकार है? विश्वास करना कठिन था! अपने पुरखों की भूमि पर पाँच हजार वर्ष से रह रहा एक सज्जन, शालीन, सुशिक्षित, शान्तिपूर्ण, लघु हिन्दू समुदाय ठीक स्वतंत्र भारत में, हर तरह के जिहाद द्वारा, प्रताड़ित-अपमानित कर खत्म किया जाता रहा, और शासन-सत्ता मूक बनी रही। ऐसा बेधड़क अत्याचार यहाँ ब्रिटिश-राज में भी मिलना कठिन है। इसलिए विशेष लज्जास्पद क्योंकि यह कोई अनायास या पहली बार नहीं हुआ। सदियों से, और फिर गत सौ साल में लगातार, कश्मीरी पंडितों को जिहाद से डराया-मारा-भगाया जाता रहा था। अतः भारतीय राजसत्ता की मूढ़ता अक्षम्य हो जाती है, जिस में हमारे सभी बड़े राजनीतिक दल समान रूप से अपराधी हैं। वे मुट्ठी भर कश्मीरी इस्लामी नेताओं के प्रपंच का उपाय नहीं कर सके! बल्कि, उलटे उन्हें वह हर सहूलियत-सुविधा-साधन दिए जिस का मुख्यतः उपयोग कश्मीर को हिन्दुओं से खाली कराने, इस्लाम फैलाने और भारत से अलगाव बनाते रहने में हुआ।
उस प्रथम कविता-संग्रह की 72 कविताएं पूरे बारह वर्षों, 1988-1999 का प्रत्यक्ष अनुभव, अवलोकन हैं। उन में कश्मीरी हिन्दू की जीवन-स्थिति के विविध दृश्य झलकते हैं। ‘शिव का कुहासा’ से लेकर ‘आदित्य’ तक उस में बेचैनी-कष्ट की लुका-छिपी से लेकर, भायनक आतंक, घोर विडंबना, हताशा-निराशा से लेकर नई आशा तक कई रंग मिलते हैं। कवि की अनुमति लेकर उस से नौ कविताएं अनूदित कर अपनी पुस्तक ‘जिहादी आतंकवाद’ में शामिल की। उतने कम शब्दों में वैसी बड़ी प्रस्तुति अन्यथा अंसभव होती। अंपनी अंतिम प्रकाशित कथा-पुस्तक ‘रूम इन आवर हर्ट्स एंड अदर स्टोरीज’ (2019) की जानकारी देते हुए डॉ. चौधरी ने लिखा था, ‘‘इस में बाइस कहानियाँ हैं। आपको पढ़ने में कुछ घंटे ही लगेंगे। पर मुझे यह लिखने में वर्षों लगे हैं। लेकिन यही तो लेखन है। कोई परिश्रम करता है ताकि दूसरे आनन्द लें। (दूसरों को) आनन्द देना ही सर्वोच्च आनन्द है।’’
सचमुच, उन की पुस्तक ‘होमलैंड आफ्टर एट्टीन ईयर्स’ (2011) भी इस का प्रमाण है। जिस में कश्मीर से भगाए जाने के अठारह वर्ष बाद वहाँ दो दिन की तूफानी यात्रा के मार्मिक विवरण हैं। एक तरह से अपने पूरे जीवन, समाज, समय और देश का भी सूक्ष्म-संक्षिप्त पुनराकलन। वह कविता संकलन अत्यंत सशक्त है। कश्मीर में हालिया जिहादी विकास, वर्तमान कश्मीरी मुस्लिम मानसिकता और उस के परिणाम की संपूर्ण समझ केवल इसी एक पुस्तक से मिल जा सकती है।
डॉ. चौधरी से पहली भेंट दिल्ली में उन की पहली कथा-पुस्तक ‘फेथ एंड फ्रेंजी’ (2012) के लोकार्पण पर हुई थी। पत्र-व्यवहार, फोन-वार्ता, आदि वर्षों से होती रही थी। पर उन्हें देखा न था। उन्होंने ही कार्यक्रम का संदेश भेजा। वहाँ उन की वक्तृता भी प्रभावी लगी, लेखन की तरह सहज सत्यनिष्ठ। कार्यक्रम बाद लोगों ने पुस्तक खरीद अपनी-अपनी प्रतियों पर लेखक के हस्ताक्षर लिए। उसी क्रम में पहली भेंट हुई। मिल कर वे बड़े प्रसन्न हुए। उपस्थित परिवारजन को परिचय दिया।
उस के बाद दूसरी, और आखिरी, भेंट जम्मू में उन के घर पर हुई। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति के ठीक एक दिन पहले। बड़ी देर बातें हुई। फिर उन्होंने अपना बनाया हुआ विषम बगीचा भी दिखाया, जहाँ कभी-कभी दूर-दूर के अनूठे पक्षी भी आ जाते हैं। विदा करते हुए कश्मीरी मीठी रोटी दी, जिस का स्वाद अदभुत था। कई दिनों तक थोड़ा-थोड़ा खाता रहा। फिर मिलने की इच्छा थी, विशेषतः कश्मीर की बदली संवैधानिक स्थिति के बाद। पर कोरोना ने बाधित कर दिया।
वैसे, ई-मेल और ह्वाट्सएप द्वारा वे विविध प्रश्नों पर अपने उत्तर नियमित दिया करते थे। पर पिछले वर्ष एक बार बड़ा लंबा अंतराल हो गया। तब उन के एक ह्वाट्सएप संदेश ने बताया कि उन्हें आकस्मिक कैंसर ने ग्रस लिया। जब कि उन जैसा सात्विक, परोपकारी, परिश्रमी जीवन जीने वाले बिरले होते हैं! फौरन उन की डॉक्टर बेटी ने अमेरिका से आकर इलाज कराया। फिर अमेरिका ले गईं जहाँ गत रविवार उन्होंने अंतिम साँस ली।
कोरोना की अभूतपूर्व, वैश्विक गृहबंदी में, उन की ‘होमलैंड आफ्टर एट्टीन ईयर्स’ की सभी 45 कविताएं एक-एक कर प्रतिदिन अनुवाद की। हर दिन एक कविता। कुछ बहुत लंबी कविताएं भी। कभी-कभी वे अपनी ही कविता हिन्दी में पढ़कर चकित हो जाते थे! हिन्दी शब्दों में कुछ भाव अधिक मार्मिकता, प्रखरता से उभरे थे। पूरी पुस्तक अनुवाद हो चुकने पर उस की संपूर्ण टाइप प्रति उन्हें डाक से भेजी। उस में अनुवादक का नाम नहीं था, जिस पर उन्होंने स्नेहिल नाराजगी भी प्रकट की। फिर अमेरिका चले जाने के बाद भी समय-समय पर वैसे लेख या वीडियो भेजता रहा जो विशेष महत्वपूर्ण थे। राजनीतिक इस्लाम संबंधी सभी वीडियो-प्रस्तुतियाँ देखने के बाद उन्होंने उसे पुस्तक रूप में अवश्य प्रकाशित कराने को कहा। उसे ‘संपूर्ण जीवन का काम’ जैसा महत्वपूर्ण बताया। वह सचमुच एक बड़ी अनुशंसा थी!
संयोगवश, 1 नवंबर को प्रातः देवप्रयाग में था जहाँ अलकनन्दा एवं भागीरथी मिल कर गंगा बनती हैं। मात्र दर्शन की लालसा से संगम के कोण-तट पहुँचा। पर वहाँ उपस्थित एक पंडित जी ने मानो जबरन साथ लग कर अपने दिवंगत पुरखों, बंधु-बाँधवों का तर्पण करा दिया। मंत्रों के बीच उन्होंने विविध संबंधियों का स्मरण कराते हुए जोड़ा: ‘जिन का नाम नहीं जानते’, और ‘जिन का हाल में देहांत हुआ’। तब नहीं जानता था कि वे कल ही दिवंगत हुए। किन्तु उस अनाम तर्पण में सर्वव्यापी नारायण और पुण्यसलिला भागीरथी ने डॉ. कुंदनलाल चौधरी को श्रद्धांजलि अवश्य जोड़ ली होगी।
निस्संदेह, ऐसी महान आत्माएं क्लेष-मुक्त हो जाती हैं, जिन्होंने अपने देश, समाज, और लोगों की सैदव सेवा की। डॉ. कुंदन लाल चौधरी की सभी पुस्तकें जिस में कश्मीरी समाज और राष्ट्रीय स्थिति का आकलन है, लंबे समय तक देशभक्तों और हिन्दुओं के लिए मशाल बनी रहेंगी। श्रीहरि ऊँ तत्सत्!
जवाहरलाल नेहरू महिला कॉलेज
हम क्रिकेट स्टेडियम के बगल से ड्राइव कर रहे हैं
रेसिडेंसी रोड की ओर,
मशहूर रीगल चौक के लिए
और फिर मौलाना आजाद रोड पर।
कभी आपत्ति नहीं हुई
किसी सड़क, पार्क, या संस्थान का नामकरण
किसी मुस्लिम नाम से करने पर
इस प्रिय कश्मीर में,
चाहे वह कोई गैर-कश्मीरी ही हो
जैसे कि वे मौलाना थे,
जिन के नाम पर यह रोड है।
किन्तु, महिला कॉलेज के पास से गुजरते
मैं नहीं पाता वह सुप्रसिद्ध नाम
पंडित जवाहर लाल नेहरू का
गेट के बोर्ड पर –
ऐसा नाम जिस पर गर्व होना चाहिए था
हर कश्मीरी को कई कारणों से।
क्योंकि, न केवल वे इसी जमीन के थे,
और भारत के प्रथम प्रधान मंत्री,
बल्कि उन्होंने ही जम्मू और कश्मीर को दिया
वह विशेष, अर्द्ध-स्वायत्त दर्जा,
जिस से उसे मिला था
देश में सब से बराबर से अधिक का पद।
फिर भी, जब इस महिला कॉलेज का नामकरण
उन के नाम से हुआ,
तो हिंसक उपद्रव तब तक होते रहे
जब तक कि नाम हटा नहीं दिया गया।
ओह, कितनी असहिष्णुता!
कितनी कृतघ्नता!
क्या यह नहीं दर्शाता गहरे अध्ययन की जरूरत
इस विकृत कश्मीरी मानसिकता की?
-4 अक्तूबर 2008
गणेश
हम जल्द ही शाही दरवाजा आ पहुँचे,
मुख्य द्वार जो आप को ले जाता है
उस चौड़ी चारदीवारी के अंदर
(कलाई नाम से प्रसिद्ध)
जो बहुत पहले बना था
पत्थर और चूने की कारीगरी से
हरि पर्वत किले और ढलान पर फैली
विशाल खुली धरती
के समीप।
बचपन में, हम अक्सर उस दीवाल पर चलते थे
(चीन की दीवार का हमारा रूप)
पूजा करने जाते
उस सीमा में देवताओं के स्थल तक,
या क्रिकेट, फुटबॉल और हॉकी खेलते
वहाँ पसरी विशाल बंजर भूमि पर
जो अब मैं लुप्त हो चुकी देखता हूँ
कुकुरमुत्ते जैसी उग आई रिहाइशों से।
गेट से कुछ ही दूरी पर
एक अटपटी संरचना खड़ी है
उस पहाड़ी से जुड़ती,
वह प्रसिद्ध गणेश मंदिर।
मैं हाथ जोड़ने आया हूँ
इन गजमुख देवता को,
ज्ञान-विवेक के स्त्रोत,
जिन्हें हम सदैव स्मरण करते हैं
जब हम आरंभ करते हैं कोई दिन
या कोई नया कार्य।
यह वही गणेश हैं
जहाँ प्रति प्रातः श्रद्धालुओं के झुंड आते थे,
जहाँ घंटियाँ बजनी कभी बंद न होती
और शंख प्रतिध्वनि गूँजती
उस विषम पहाड़ी से,
जहाँ अगरबत्ती की सुगंध तिरती थी
ऊपर नीले आसमान में।
मंदिर के अंदर,
स्थान के लिए तीर्थयात्री धक्का-मुक्की करते
बत्ती जलाने, फूल चढ़ाने हेतु,
और कोई स्तुति पढ़ने और प्रार्थना करने।
दूसरे जो नहीं पहुँचे होते अंदर
मंदिर के बाहर
पंक्तिबद्ध खड़े प्रतीक्षा में,
एक दूसरे से स्पर्धा करते,
खिड़की से बाँह घुसाकर
अंदर बैठे पुजारियों से विनती करते
कि उनकी कलाई पर रक्षासूत्र बाँध दें,
माथे पर तिलक लगा दें,
और उन के चुल्लू में
थोड़ा चरणामृत डाल दें
ताकि कृतज्ञता से उसे पीकर
अपने को धन्य समझें।
आज, वहाँ एक डरावनी चुप्पी है
और एक नंगा खालीपन –
मंदिर अंदर से बंद है
और आस-पास कहीं एक चिड़िया भी नहीं।
सादे वेश में एक पुलिसवाला,
जिसे मैं गलती से पुजारी समझ लेता हूँ,
दरवाजा खोलता है मेरे लिए
और फौरन गायब हो जाता है,
संभवतः, मुझे लगा,
पूजा के सामान लाने के लिए।
दर्शन के हर क्षण को जज्ब करने
और बुतपरस्ती के खोए बरसों की भरपाई करने
मैं सावधानी से मंदिर में प्रवेश करता हूँ –
एक नीची छत का कमरा
हरि पर्वत पहाड़ी के नीचे,
एक विषम टीले के पास बना
उत्तरपूर्वी ढलान के साथ।
गाढ़े सिंदूर से लिथड़ा,
यहाँ चट्टान का टीला
प्राकृतिक रूप से है
लम्बोदर गणेश जैसा
हाथी के मुँह और टेढ़ी सूँढ़ के साथ,
जिस ने वह भक्ति उत्पन्न की
युगों-युगों से।
किन्तु, अब, चट्टान विकृत है और नंगी पड़ी,
प्रतिमा बिगाड़ी जा चुकी पूरी तरह,
और प्रिय गणेश,
अपने श्रद्धालुओं द्वारा परित्यक्त,
नीचे देख रहे, अनाथ और उदास।
निकट ही एक शिवलिंग
झुलसे और सूखे,
क्योंकि कोई नहीं है
जो उन का दूध और जल से अभिषेक करे,
कोई नहीं जो उन्हें एक फूल से सजाए।
कमरे की खिड़कियाँ बंद हैं,
रोशनी के शहतीर दरारों से चीरते हैं
अंदर एक डरावना दृश्य बनाते।
मकड़ियों के जालों ने महीन नमूने बना रखे हैं
ताक, छज्जे और कोनों में
और चूहे दौड़ रहे फर्श पर।
एक अँधेरी छत आपको ताकती है,
और एक दमघोंट चुप्पी
नंगी दीवारों से लौट आती है।
दीपक में बाती नहीं और सूखा,
घंटियाँ मौन हो गई हैं,
जहाँ भगवान के लिए कोई स्तुति नहीं,
और फूल नहीं कोई,
न लोबान।
मैं गूँगा और स्तब्ध खड़ा हूँ,
पूरी वीरानी को पीता हुआ,
लज्जा से गलता हुआ
अपने देवताओं को छोड़ देने के लिए,
फिर भी, पूछता हूँ बदले में एक प्रश्न:
क्यों वे साबित हुए मिट्टी के देवता
और कोई विकल्प न छोड़ा अपने भक्तों के लिए
कि सब कुछ पीछे छोड़कर
अपनी जान बचाने भागें।
मैं खिड़की खोलता हूँ
बाहर गली में देखने
वह लहरीली राह जो हमें लाती थी
हरि पर्वत से घूमते
निचली पहाड़ी के साथ
और बादाम के बगीचों से होते,
हमारे देवताओं के मंदिर तक
जिन्होंने यह स्थान पवित्र किया –
हेरी, सारिका, सप्त ऋषि,
देवी अंगन और चक्रेश्वर।
पर, मैं नहीं पाता उस राह का कोई चिन्ह
जिसे मिला लिया गया किसी के पिछवाड़े में,
जहाँ एक स्त्री बरामदे में झाड़ू लगा रही थी।
वह मुझे देखती है, खुलकर मुस्कुराती,
और नमस्कार से अभिवादन करती है,
एक कप चाय के लिए मुझे निमंत्रण देते।
मैं कृतज्ञता से उसे सलाम करता हूँ,
और खिड़की पुनः बंद कर देता हूँ।
यहाँ तक कि हरि पर्वत नाम भी
बदल कर कोहे मरान कर दिया गया है
सत्ताधारियों द्वारा
जो नाम बदलने के ज्वार में हैं।
उसी तरह शंकराचार्य पहाड़ी का नाम
सुलेमान तेंग किया गया है,
और असंख्य सोतों वाले अनन्तनाग का
इस्लामाबाद।
कितने बनावटी और अप्राकृतिक
ये नाम कानों को लगते हैं,
जैसे नाम किया जाए लंदन का जेद्दा
और पेरिस का मदीना।
जब मैं यहाँ से निकलने को होता हूँ,
देवताओं को अकेले छोड़ने में सिहरते
उस ठंढी, बंद कोठरी में,
धूल और समय की मिट्टी खाते,
और धीरे-धीरे विस्मरण में डूब जाने,
वह व्यक्ति जिस ने दरवाजा खोला था
फिर नमूदार होता है, अब पुलिस वर्दी में,
और मेरे पीछे दरवाजा बन्द कर लेता है।
तब मैं समझ पाता हूँ कि वह पुजारी नहीं,
बल्कि ड्यूटी पर एक संतरी था!
4 अक्तूबर 2008
(लेखक भारताीय मूल्यों व संस्कृति से जुड़े विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं, इस्लामी विषयों के गहन जानकार हैं)
साभार https://www.nayaindia.com/ से