“हम तो निकले थे रोज़ेदारो को जगाने के लिए , चाँद आया अपनी चाँदनी बिछाने के लिए”
मेरी छः साल की उम्र तक हमारी फैमिली का कोटा के श्रीपुरा मोहल्ले में रहना हुआ था, उसके बाद हमारी फैमिली पाटनपोल वार्ड चन्द्रघटा मस्जिद पाड़ा मे किराये के मकान में रहने लगी थी। मेरा बचपन था सन् 1956 मैं पहली क्लास में पढ़ता था। शहर की आबादी भी बहुत कम थी। जहाँ हम रहते थे, वहाँ बहुत सी गलियाँ थी।
मुझे याद है जब वहाँ रहते हुए रोज़े आए थे, तब गर्मियों के दिन थे। हम आँगन मे सोते थे। सेहरी के वक्त एक या दो ही फक़ीर जगाने आते थे। उनमे एक पतला दुबला नेपाली मुस्लिम फक़ीर भी था जो जगाने आता था। वो गोल गले का नीचा नीचा सफे़द कुर्ता पहनता था और काला तहमद बांधता था। उसके चहरे पर हल्की हल्की मूंछे टोड़ी पर दाड़ी हुआ करती थी।
वो काँच बजाने वाला अच्छा कलाकार भी था। वो काँच बजा बजाकर रोज़ेदारो को जगाने के लिए ये लाइनें गाता था ” हम तो निकले थे रोज़ेदारो को जगाने के लिए , चाँद आया अपनी चाँदनी बिछाने के लिए। फिर आवाज़ लगाता था – जागो रोज़ेदारों जागो।यह फ़क़ीर बीबी ज़ौहरा की मस्जिद के पास छुट्टन भाई की होटल पर चाय पीता था। बीड़ी भी बहुत पीता था। इसके अलावा एक अच्छा मोटा तगड़ा फ़क़ीर और आता था वो सिर पर काली टोपी लगाता था-कुर्ते पर वास्कट पहनता था और चौकड़ी वाले कपड़े का तहमद बाँधता था। रोज़दारों को जगाने के लिए ये दो लाइनें ऊँची आवाज़ में गाता हुआ निकलता था, लाइनें थीं ” ना घर तेरा ना घर मेरा – चिड़िया रैन बसेरा ” फ़िर आवाज़ लगाता था जागो रोज़ेदारों ।
वक़्त गुज़रता गया मेरे बचपन में ही रोज़े सर्दियों में आने लगे । अब पहले के मुक़ाबले कयी फ़क़ीर सहरी के वक़्त रोज़ेदारों को जगाने के लिए आने लगे थे । हम भाई-बहन बड़े शौक़ से सहरी कर रोज़ा रखा करते थे।दादी भी हमारे साथ रोज़ा रखती थीं। मैं सहरी के वक़्त चूल्हा जलाकर सबके लिए चाय बनाता था। बहुत अच्छा लगता था ।जगाने वाले फ़क़ीर एक के बाद एक आते रहते थे। उस वक़्त हमारे मोहल्ले में छावनी से एक फ़क़ीर ढपली बजाकर कुछ लाइनों को गाकर सहरी करने वालों को जगाने आता था।वो इस तरह की लाइने गाता था “खंडवे से रेलगाड़ी अजमेर जा रही थी ” फ़िर आवाज़ लगाता, जागो रोज़दारों सहरी कर लो। कुछ सालो बाद वो दूसरी लाइनें गाने लगा था।”नदी में नाव जो निकली ,नगारे बाजते आए।”जागो अल्लाह के बंदों।
इसके अलावा एक फ़क़ीर कुछ इस तरह की लाइन गाता हुआ आता था।”मत लगा दुनिया से दिल तुझको जाना एक दिन ” । एक और फ़क़ीर बड़े अच्छे तरन्नुम में गाता हुआ आता था। ” अरब में इस्लाम का चाँद जो चमका – हुआ बोल-बाला मुहम्मद के दम का, मुझको भी बुलाले आक़ा – देखूँ मै रोज़ा तेरे शाहे अरब का ।” इसकी आवाज़ सुनकर माहौल एक-दम सुकून देता था। भीलवाड़ा से भी एक बुज़ुर्ग फ़क़ीर आता था वो छोटी सी सारगी बजाता हुआ आता था र साफ़ा बाँधता था, कुर्ता और तहमद उसकी पौशाक़ थी । वो सिर्फ़ एक लाइन सारंगी पर गाता था।”अल्लाह का नाम सच्चा-बाक़ी सब झूंठा है ।”
कई सालों पहले मस्जिद पाड़ा छोड़कर हमारा कई जगह रहना हुआ।इस वक़्त मैं और मेरी फ़ैमिली विज्ञान नगर में नूरी जामा मस्जिद के क़रीब अमन कालोनी में रहती है।यहाँ दो-तीन साल से एक फ़क़ीर किसी गाँव से सहरी के वक़्त जगाने आता है, वो ज़ोर-ज़ोर से टीन बजाकर लोगो को जगाता है वो कोई कलाम वग़ैरह नहीं पढ़ता। जब मैने उससे टीन बजाने का सबब पूंछा तो कहने लगा, अजी साहब ! पहले लोग घरों के आँगन में पलंगों पर सोते थे, अब बंद कमरों में एसी और कूलर की हवा मे सोते हैं, वो हमारी आवाज़ कैसे सुनेंगे ,इसलिए मैं टीन बजाता हूँ । वैसे भी अब मोबाइल का ज़माना है ,लोग टाइम फ़िक्स करके सोते हैं, और उठ जाते हैं । यह सब देखते-देखते बचपन से जवानी आ गयी,और अब उम्र भी ढल रही है। वक़्त तेज़ी से बदल रहा है, मगर रोज़ो के दिनों में वो बचपन की यादे मुझे उन ख़ुशनुमा दिनों में ले जाती हैं जिन्हें महसूस कर मुझे एक अच्छा एहसास होता है ।