जैन धर्म के प्रमुख महापर्व पर्युषण 12 सितम्बर से प्रारम्भ होंगें जो कि 19 सितम्बर को “संवत्सरी महापर्व” (क्षमापर्व) के दिवस के साथ पूर्ण होगें।
श्रमण डॉ पुष्पेन्द्र ने बताया कि देश के विविध अंचलों चातुर्मासरत श्रमण – श्रमणियों के पावन सान्निध्य में जैन धर्मावलम्बि तप – त्याग – साधना – आराधना पूर्वक 8 दिवस इस महापर्व को मनाएगें। इन अष्ट दिवसों में जैन अनुयायियों के मुख्यतया पांच प्रमुख अंग हैं स्वाध्याय, उपवास, प्रतिक्रमण, क्षमायाचना और दान।
पर्युषण पर्व के दौरान प्रतिदिन जैन स्थानकों में स्वाध्याय के रूप में निरंतर धार्मिक प्रवचन होंगे। जो कि प्रातःकाल होगें। इसमें सर्वप्रथम जैन आगम सूत्र “अन्तकृत दशांग सूत्र” का प्रतिदिन मूल व भावार्थ के साथ वाचन पश्चात् स्वाध्याय के विशिष्ट गुणों, सेवा, संयम, साधना, ध्यान, सद्व्यवहार पर प्रवचन होंगे।
प्रतिदिन सुबह व सांयकाल प्रतिक्रमण होंगे जो आत्मशुद्धि के लिए नितांत आवश्यक हैं। आठवें दिवस संवत्सरी महापर्व पर विस्तृत स्व आलोचना का पाठ होगा जिसमें जीवन भर के अंदर होने वाली पाप प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए आत्मालोचना कर “मिचछामी दुक्कडम” किया जाएगा।
पर्युषण महापर्व के दौरान जैन धर्मावलम्बि हरी सब्जियों का उपयोग नहीं करते है। इसका मुख्य कारण यह है कि स्वाद आसक्ति का त्याग जैन धर्म में प्रमुख तौर पर बताया गया है उसी के अनुरूप जैन अनुयायी इसका पालन करते है। सूर्यास्त होने के बाद भोजन भी नहीं करेंगे। अधिक से अधिक सादगी – त्याग पूर्वक जीवन यापन करेगें।
श्रमण डॉ. पुष्पेन्द्र ने बताया कि श्वेतांबर जैन समुदाय के अंतर्गत मंदिर मार्गी, स्थानकवासी व तेरापंथ तीनों ही पर्युषण में तप आराधना करते हैं। उल्लेखनीय है कि श्वेतांबर जैन समुदाय में पर्युषण पर्व का आरंभ भादौ के कृष्ण पक्ष से ही होता है जो भादौ के शुक्ल पक्ष पर संवत्सरी से पूर्ण होता है। यह इस बात का संकेत है कि कृष्ण पक्ष यानी अंधेरे को दूर करते हुए शुक्ल पक्ष यानी उजाले को प्राप्त कर लो। हमारी आत्मा में भी कषायों अर्थात क्रोध – मान – माया – लोभ का अंधेरा छाया हुआ है। इसे पर्युषण के पवित्र प्रकाश से दूर किया जा सकता है। यह पवित्र प्रकाश प्राप्त होगा तप आराधना के साथ आहार-व्यवहार अहिंसा यानी आचरण की शुद्धता से ।
पर्युषण में जैन धर्म के अनुयायियों में तप का सर्वाधिक महत्व रहता है। इसकी आराधना भी काफी विस्तृत होती है। जैन धर्म में ऐसी धारणा है कि तपस्श्रया निर्विकार जीवन की आधारशिला है। पूर्व में उपार्जित जो दुष्कर्म हैं, उनको तपश्रया के द्वारा समाप्त किया जा सकता है। जैन धर्म में निर्जरा कहते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से इसकी उपयोगिता विज्ञान ने साबित कर दिया है कि तप के द्वारा शारीरिक व्याधियों का निराकरण हो जाता है। लाखों व्यक्ति एक साथ उपवास व तप करते हैं तो अन्न की बचत राष्ट्रीय स्तर पर होती है।