Sunday, November 24, 2024
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रामचन्द्रजी द्वारा सीता के परित्याग की कथा: ननद की जलन

कश्मीरी रामायण ‘रामावतार चरित` में एक कथा-विलक्षणता राम द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता को वनवास दिलाने में रजक-घटना को मुख्य कारण न मानकर कवि ने सीता की छोटी ननद (?)को दोषी ठहराया है जो पति-पत्नी के पावन-प्रेम में यों फूट डालती है। एक दिन कुतिलतावश वह भाभी (सीता जी) के पीछे पड़कर पूछती है कि रावण का आकार कैसा था, तनिक उसका हुलिया तो बताना। न चाहते हुए भी सीता जी सहज-भाव से कागज़/भोजपत्र पर रावण का एक काल्पनिक रेखाचित्र बना देती है जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन-प्रेम यों फूट डालती है:

”दोपुन तस कुन यि वुछ बायो यि क्या छुय
दोहय सीता यथ कुन वुछिथ तुलान हुय,

मे नीमस चूरि पतअ आसि पान मारान
वदन वाराह तअ नेतरव खून हारान। (पृ० ३९९)

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(रावण का चित्र दिखा कर- देखो भैया, यह क्या है! सीता इसे देख-देख रोज़ विलाप करती है। जब से मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से उसकी आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही है। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह कागज़/चित्र चुरा लिया है तो मुझे ज़िन्दा न छोड़ेगी . . . .।)

इस प्रसंग से प्रेरित होकर रामचन्द्रजी सीता का परित्याग करने की सोचते हैं और लक्ष्मणजी से माता सीता को वन में छोड़ आने का आदेश देते हैं। वैसे,इस वृत्तांत का उल्लेख भारतीय रामकथा में भी मिलता है।कहते हैं, जब श्रीराम लंका-विजय के बाद अयोध्या वापस आए तो कुछ दिनों बाद श्रीराम के गुप्तचरों ने उनसे कहा कि प्रजा में माता सीता की पवित्रता पर संदेह किया जा रहा है। इसी संदेह के कारण माता सीता को अग्नि-परीक्षा भी देनी पड़ी। लेकिन इसके बाद भी माता सीता की पवित्रता पर सवाल उठाए जा रहे थे। तब प्रभु श्रीराम को पिता दशरथ के द्वारा सिखाया गया राजधर्म याद आ गया। जिसमें राजा दशरथ ने कहा था कि एक राजा का अपना कुछ नहीं होता है। सब-कुछ राज्य का हो जाता है। बल्कि आवश्यकता पड़ने पर यदि राजा को अपने राज्य और प्रजा के हित के लिए अपनी स्त्री, संतान, मित्र यहां तक कि प्राण भी त्यागने पड़े तो उसमें संकोच नहीं करना चाहिए। क्योंकि राज्य ही उसका मित्र है और राज्य ही उसका परिवार है।

प्रजा की भलाई ही उसका सर्वोपरि धर्म है।इस कारण भगवान श्रीराम ने अपने राजधर्म का पालन करते हुए माता सीता को छोड़ने का मन बना लिया। सीता जब गर्भवती थीं तब उन्होंने एक दिन प्रभु राम से तपोवन घूमने की इच्छा व्यक्त की। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि वे सीता को तपोवन में छोड़ आएं। लक्ष्मण ने तपोवन में पहुंचकर अत्यंत दुखी मन से सीता से कहा- ‘माते, में आपको अब यहां से वापस नहीं ले जा सकता, क्योंकि यही रामजी/पभु की आज्ञा है।‘

इस मार्मिक प्रसंग को कवि प्रकाशराम ने अपनी रामायण ‘रामावतारचरित’ में यों भावुक होकर वर्णन किया है:-

दैव गति देखिए, शाहंशाह (रामचन्द्रजी) को एक दूत ने (राज्य में हो रही किसी अनियमितता) की खबर दी। तब उन्होंने स्वयं सम्बंधित दफतर की जाँच-पडताल की और इस प्रकार फसाद (कटुता) ने जड़ पकड़ ली। देखिए, वे खुद ज्ञाता और सर्वज्ञ थे। किन्तु नियति के चक्र के बहानों (कारणों) से वे भी बच न सके। (नियति ने) बाकी कौर-केसर भी निकालनी शुरू की और उन (रामचन्द्रजी) के घर में फूट पड़ने लगी।(कहते हैं) उस सीता की एक छोटी ननद हुआ करती थी जिसने उस (बेचारी सीता) की भरी दुपहरी को शाम में बदल डाला।

सीता से उसका वैर खूब बढ़ गया था। उसको जब उसने (रानीजी के समान) सुख-भोग करते देखा तो मारे ईर्ष्या के उसके घुटने जैसे टूट गए थे। रश्क ने ज़ोर मारा और देखिए, उस (सीता)का क्या हाल कर दिया उसने? उसे तख्त पर चढ़ा नीचे उसके लिए खाई खोद डाली। (ननद एक दिन बोली) तुमने आज तक मेरी कोई बात नहीं मानी। अपनी (भाभी) होकर भी मुझे दुश्मन मानती रही। (आज मैं कुछ चाहती हूँ) सच-सच लिखकर मुझे बता देना। वह दशमुख-रावण सूरत से भला कैसा था? उस (सीता) के सामने खूब गरजमंद बनी वह(खूब पीछे पड़ गयी)। इधर, वह (सीता) यह न जान सकी कि यह मेरे गले में कौन-सा फंदा डाल रही है? उसने सीता की दुबारा खूब मनुहार की और वह (सीता) त्रिया होने के कारण (स्त्री सुलभ स्वभाव से) मजबूर हो गई।

अव्वल, उस सीता को सच्चाई (असलियत) दिखाई न दी। दूसरा, उसने (सरल स्वभाव के कारण) अपने में और ननद में कोई भिन्नता नहीं जानी और तीसरा यही उसके लिए संकट का कारण बना। चैथी बात यह कि शायद उसके सुखों में बढोतरी हो गई थी, तभी अहंकार का सदाशिव ने यह हाल कर दिया। पाँचवी बात यह कि उसकी स्वयं की यह इच्छा रही होगी कि पुत्र को जन्म देकर जल्दी से घर (माँ वसुंधरा के पास) चली जाऊँ। छठी बात यह कि वह लोगो को ननद के दुर्व्यवहार से परिचित कराना चाहती थी। सातवीं बातयह कि उधर, श्रीरामजी को धोबी ने भी उलाहना दिया था। आठवीं बात यह कि शायद रामचन्द्रजी ने पूछा हो कि माँग इस समय क्या माँगती है? और उस (सीता) ने कहा हो कि मेरे मन की यही राय (इच्छा) है कि मैं पुनः ऋषियों के स्थान (वन) को देखना चाहती हूँ। नौवीं बात यह कि (अयोध्या)पहुँचकर उसकी खूब टीका (टिप्पणी) होने लगी थी।

दसवीं बात यह कि (शायद) उसने सोचा हो कि (अब अत्यधिक) सुखानंद से क्या मिलने वाला है, अतः वन में बैठकर भगवान् को ढूँढ लूँ। मुद्दा यह कि उस (सीता) ने उस (रावण) की सूरत कागज़/भोजपत्र पर बनाई और (ननद को) दिखाकर कहा- देख, कैसे नरकवासी रावण ज़हर खा रहा है! तभी उस (रेखा-चित्र) को बहन अपने भाई के पास ले गई और उसे दिखाया। देखिए, कैसे सीता को (उस ननद ने) मरवा डाला (आफ़त में डाल दिया)। वह (भाई से) बोली-देखो भैया, यह क्या है! सीता रोज़ इसे देख-देखकर विलाप करती है। जब से इस (चित्र) को मैंने उसके यहाँ से चुराया है, वह खूब छाती पीटने लगी है। यदि वह जान जाय कि उसका यह कागज़ (रेखा-चित्र) ननद (मैं) ने चुरा लिया है तो वह मुझे मार ही डालेगी, ऐसी (डाकिन) है वह!

यह सुनकर रामजी अत्यन्त क्रुद्ध हुए। इधर, संभवतः कुश और लव को पैदा होना था। यह सोचकर रामजी बेताव (चिन्ताकुल) हो उठे। लक्ष्मण को बुलवाकर उससे सब कुछ बताया और कहा कि सीता को वन में छोड़ आ।—ऐसा सुनकर लक्ष्मणजी तनिक उग्र हो उठे ओैर कहा कि सीता को यह किस पाप की सज़ा दी जा रही है? परन्तु उन (रामजी) के आगे उनकी एक न चल सकी तथा उनका जिगर एकबारगी दहक उठा। लक्ष्मणजी पुनः बोले-आपको ज़रा भी दया न आई? सीता सती हैं, उस पर भला यह कौन-सा पाप लगा है? (जो आप उसे यह कठोर दण्ड दे रहे हैं) अपनी ओर से उस (लक्ष्मण) ने खूब विनती की, मगर रामजी कुछ भी नहीं माने। दरअसल, उस (परमेश्वर) को ऐसा करना था, जिसकी यह घटना बहाना-मात्र बन गई।

लाचार होकर लक्ष्मण ने हुक्म को मान लिया और सीता को अपने साथ न ले जाने के लिए उसे कोई चारा (उपाय) नज़र आता न दिखा।(घर से) निकालकर सीता को वन में छोड़ आने को वह जाने को तैयार हुआ। देखिए, कैसे मनुष्यजाति के लोगो ने स्वर्ग की हूर को घर से निकाल बाहर कर दिया। कहते हैं, वह लक्ष्मण खूब रोने लगा तथा (बार-बार)पीछे मुडकर देखने लगा (ताकि रामचन्द्रजी को दया आ जाए और वे उन्हें रोक लें)।बहुत रोने से उसका दिल दहलने लगा और वह गश खा गया। (होश में आने पर) वह धीरे-धीरे पीछे की ओर पुनः (कातर नजरों से) देखने लगा कि शायद उनको अब भी दया आ जाए।

तब रोते हुए सीता धीरे-से बोली-(रे लक्ष्मण!) तू ही बता कि किस बात की यह सज़ा मुझे दी जा रही है? (अब तक) रास्ते छानते-छानते क्या मेरे पैर कम घिसे थे? जानती हूँ यह उपदेश (शायद) ननद द्वारा इन्हें दिया गया है। तब लक्ष्मण बोला-आप थोडी देर के लिए यहाँ बैठ जाइए, मैं अपने-आप का अंत कर देता हूँ। क्योंकि (आपकी दशा देख-देखकर) मेरा दिल जल रहा है। यह बात सुनकर सीता नीचे पृथ्वी पर गिर पडी़। उसके शरीर से तीव्र कँपकँपी छूटने लगी तथा देह पर जैसे चीटिंयाँ रेंगने लगी। आँखों की ज्योति कम हो गई और वह पत्थरों को चाटने लगी। वह (लक्ष्मण से) बोली-मुझे छोड जाने से पहले ज़रा पानी तो पिला देना।

तब वह(लक्ष्मण) पानी लेने के लिए गया और जब बहुत दूर से पानी ले आया तो उसने देखा कि स्वर्ग की वह हूर-परी (सीता) गहन निद्रा में डूबी हुई है। गहरी नींद में वह ऐसे निमग्न थी जैसे मुँह के बल गिर पडी हो या फिर जैसे फूल की डाली सूखकर पृथ्वी पर गिरी हो। लक्ष्मण ने जब सीता माता को यों सुसुप्तावस्था में देखा तो उसने इसी में गनीमत जानी कि अब वह (सीता को छोड़) उससे दूर निकल जाए। पानी के लौटे को वृक्ष (की डाली) पर लटका दिया और उस (सीता के) मुँह पर पानी की बूँदें धीरे-धीरे टपकने लगी। इसके उपरान्त लक्ष्मणजी रोते हुए लौटने लगे वैसे ही जैसे किसी को मारने के लिए (सूली की ओर) बढाया जाता हो ।

रोते-रोते वह इतना क्षीणकाय हो गया कि (बार-बार) मुँह के बल गिर जाता मानो (सीता के) पादों से रुख्सत (विदाई) माँग रहा हो। (मारे ग्लानि के वह मन-ही-मन कहने लगा-) मुझ पर दया करना। हे उमा देवी ! मुझे क्षमा करना, मैंने पाप किया है (आपको वन में छोड़ आने की बात मैंने मान ली)। आपको इस अवस्था में देखकर मेरा कलेजा छलनी हो रहा है, अब दुबारा आपको देखने की ताकत मुझ में कहाँ? मैं आपके चरणों के सान्निध्य से रूखसत हो रहा हूँ-ऐसा सोच मृत्यु जैसे मुझे काटने को आती है।आपको (यों अकेला) छोडने के लिए जाने मैं क्यों यहाँ आ गया? अब, हे माता! मैं आपकी ही शरण में हूँ। मुझपर (पास) दया करना। मुझे रामचन्द्रजी का हूक्म नहीं मानना चाहिए था और न ही इस काम के लिए उन्हें मुझे यहाँ भेजना चाहिए था। मुझे वे वहीँ पर शमशीर/तलवार से मार डालते, यदि मैं आपको साथ ले चलने के उनके हुक्म को न मानता, तो ज्यादा अच्छा था। अन्यथा, लगता है हे माता! यह सब आपके कर्म-लेख में बदा था जिसका अर्थ स्पष्ट होता जा रहा है।

इस प्रकार (खिन्न मन से) वह लुभावना चन्द्र (लक्ष्मण) चलता गया और नमस्कार करते हुए शहर (अयोध्या) के अन्दर पहुँचा गया। इधर, सीता (लोटे में रखे) पानी की बूँदों से बेदार हो गई। उसके वस्त्र गर्मी के कारण पसीने में भीग गए थे। जब उसने देखा कि लक्ष्मण उससे दूर हो गया है तो वह उद्विग्न हुयी, वैसे ही काँपने लगी जैसे वायु से पेड़ की टहनी। वह बोली-हाय ! यह क्या हुआ? यह किन (मुसीबतों) सर्पों ने मेरे गले को घेर लिया। अब कहीं कौए और गीदड़ मुझे (इस निर्जन में) खा न जाएँ? लक्ष्मण द्वारा इस प्राकर छोड़ देने पर रोते-रोते उसकी आँखों की ज्योति कम हो गई।

कभी उसे लगता जैसे दूर से (लक्ष्मणजी) उसकी ओर आ रहे हों किन्तु (दूसेर ही क्षण) नजरों से वे गायब हो जाते। (तब) अपने आप से वह सुन्दरी (सीता) कहने लगी कि बहुत ज्यादा रोने से इन दो पुतलियों का प्रकाश मद्धिम पड़ गया है। तभी शायद वे लक्ष्मण मुझे दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। वह बैठकर (ध्यान से) चलने की आहट पर कान धरने लगी (आँखों की ज्योति पर विश्वास न कर आहट का अवलम्ब लेने लगी किन्तु क्षणभर के बाद (किसी की भी आहट न पाकर) वह समझा गई कि वे (लक्ष्मण) उसको छोड़कर चोरी-छिपे घर चले गए होंगे। तब अपने को खाक में मिला देख वह अपने दुखड़े सुनाने लगी जिन्हें सुन (वन के) पत्थर भी जैसे पिघल गए (चाक हो गए)। उसके रोने से ऐसी अश्रु-धारा बही जिससे सैलाब आया तथा (बेचारे) पशु-पक्षी वन छोड़कर भागते हुए पंजाब जहुँच गए।

गुलों ने जब उसका मुख देखा तो उनपर जैसे कालिख पुत गई। बहती वायु में भी वे सूख गए तथा (धराशायी होकर) मिट्टी के नीच छिप गए। (उस वन के बीचों-बीच) उस अकेली सीता की हाल (सूखे) काँटों व घास-फूस की तरह हो गई। एक तो नाजुक बदन, दूसरा यह अकेलापन। तीसरा त्रिया (पत्नी) होकर भी अपने भर्त्ता के सुख से वंचित। चैथा, मन्दोदरी के गर्भ से चोरी-छिपे जन्म लेना और फिर राजा जनक का पिता बन उसका पालन-पोशण करना।(आशय यह है कि सीता को जन्म से ही तरह-तरह के कष्ट देखने पड़े) आँखों से वह आँसू और हाथ-पैरों से खून बहाने लगी। (बेचारी) बार-बार गिर जाती तथा उसकी जुबान गूँगी हो गई तथा पीड़ा से तड़फने लगी। वह भीतर वन की ओर चल दी। (दौर्बल्य के कारण) उसकी हंसी जैसी गर्दन टेढ़ी हो गई थी।

वन में जाकर उसने जो बात कही, रे मनुष्य! उसे तू कान लगाकर सुन। वह सदुपेदश है तथा उसको हृदयंगम कर और असत्य से पीछे हट। (वह बोली-) खबर नहीं किस घड़ी मैंने उनका मन तोड़ा जो (आज) काँटों पर चलकर मेरे पाद यों छलनी हो रहे हैं। खबर नहीं किस घड़ी मैंने अतीत में (अभिमान-वश) किसी का मजाक जो उड़ाया जो (आज) मेरी बहार में यों वीराना छा गया। खबर नहीं किस घड़ी मैंने किसी पर अन्याय किया जो (आज) स्वर्ग की इस चमेली पर कालिख पुत गई। खबर नहीं किसी घड़ी किसने मुझे बद-दुआ दी जो मैं (आज) यों उदास फिरने लगी हूँ। खबर नहीं किस को मैंने अपने रहस्य बता डाले जो (आज) हृदय में यों तीर लग गया। खबर नहीं किसके साथ मैंने धोखा किया जो (आज) मेरी यह दुर्गति हुई, अन्यथा मेरा पाप ही क्या था?

वह रोते-कलपते हुए कहने लगी-कहाँ गया वह जिसने मुझे आग में धकेल दिया, कहाँ गया वह जिसने मेरे कर्म-लखे को पलट दिया। कहाँ गया वह जिसने मुझे आग में तपाकर सोना (कुन्दन) बनाया। कहा गया वह जो हम दोनों (सीता-राम) को यकसान (एक समान) समझता था। (आज) वह मुझे यों निःसहाय छोड़कर कहाँ चला गया? जो मेरे साथ यहाँ तक आया था, वह कहाँ गया? उसके इस प्रकार चले जाने से मेरे जिगर में आग धधकने लगी है। वह मेरा एकमात्र था, किन्तु अब वह भी चला गया। दरअसल, पाप (दुर्भाग्य) के कारण मेरी आँख लग गई और मैं उसका मूल्य जान न सकी। अब किसको दोष दूँ? मेरे भाग्य में ऐसा ही बदा था। जो मुझे भोगना होगा उससे अब भला कौन मुझे दूर कर सकता है ! (बस, एक बात है) यहाँ अकेले में तनिक बेबस पड़ी हूँ। रो-रोकर सारे अंग टूट गए हैं। इस प्रकार वह सीता रोते हुए तथा रक्त बहाते हुए चलती गई और रामजी के लिए भजन गाने लगी।

(चित्र: रामचन्द्रजी की आज्ञा से लक्ष्मण द्वारा सीता को वन में छोड़ना)

(लेखक विभिन्न विषयों पर hindimedia.in के लिए लिखते रहते हैं।)

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