आज ई. सन् २०१५ की पहली तारीख को मैं यह लेख लिख रही हूं। चारों तरफ से पागल शुभकामनाओं ने धावा बोला हुआ है। तथाकथित नया साल २०१५ आज से प्रारंभ जो हो गया है। बाहर चुभने वाली शीत और सर्दी में जकड़ने वाली बरसात दोनों का खासा प्रकोप है। आज ऐसा कोई काम भी नहीं है जो कंपकंपाते हाड़ सहित घर से बाहर निकलने के लिए मुझे बाध्य करे। मेरे लिए साल के बदलने का भी ऐसा कोई खास अर्थ नहीं है जो हाड़ को घर पर ही रखकर मुझे होटल में जाकर न खाने योग्य चीजें खाने और दारू पीकर सड़क पर नाचने के लिए उकसा सके। इसलिए शुभकामनाओं के प्रत्यक्ष आक्रमण से तो बची हुई हूं पर मोबाइल फोन की कर्ण कटु ध्वनि आज इतनी सुननी पड़ी है कि सुबह का भोजन प्रात: ग्यारह बजे की बजाय बड़ी मुश्किल से एक बजे नसीब हुआ है। अंतर्तंत्र(इंटरनेट) पर उपलब्ध भांति-भांति की संदेश सेवाओं के माध्यम से प्राप्त शुभकामना संदेशों को तो मैंने अभी प्रतीक्षारत ही रख छोड़ा है। एक संदेश खोलकर देखा था तो वहां भी एक ऊंटपटांग सा छोरा मुंह में सिगार और हाथ में शेम्पेन की बोतल लिए नाचता दिखा। अब बाकी संदेशों को खोलकर देखने की हिम्मत ही नहीं पड़ रही है। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है। समय आने पर वे स्वत: सद्गति को प्राप्त होंगे।
शुभकामना संदेश भेजने वालों का भला, न भेजने वालों का दोगुना भला। "भारतीय भाषा अभियान समूह के सदस्य’’ भी आज आधी रात से इसी आदान प्रदान में व्यस्त हैं। अत: मुझे थोड़ा समय मिला है अपने शुभभावों को शब्दबद्ध करने का। तो नये साल के पहले दिन निकम्मेपन की इस शुभ वेला में पहली शुभकामना चित्त पटल पर यह रूपायमान हुई है कि मेरे गुरुवर आचार्य विद्यासागर जी और उनके जैसे वीतरागी श्रमण संत युगों-युगों तक जीवन्त रहें और उनकी दिव्य देशना का लाभ हम पशुवत् मनुष्यों को मिलता रहे, मिलता ही रहे। नव वर्ष के प्रथम दिन यह मेरी ओर से सृष्टि के जीव मात्र को दी जा रही शुभकामना है क्योंकि जब तक वे रहेंगे तब तक दूरदर्शी भारतीय संस्कृति की बची खुची पावन परंपराएं भी बची रहेंगी और मृत, मृतप्राय: परम्पराओं के पुनर्जीवित होने की आस भी बनी रहेगी। इस दिशा में उनका अतुल्य पुरुषार्थ सेना के जवानों को भी लज्जित करने में समर्थ है। गौ रक्षा का प्रकल्प दयोदय, कलिकाल के अभागे मानव की भाग्य रक्षा का प्रकल्प भाग्योदय, भारतीय भाषा अभियान, इंडिया हटाओ : भारत लौटाओ आदि अन्य बहुतेरे ऐसे प्रकल्पों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की रक्षा का उनका प्रयास अनुपम है। उनकी प्रेरणा से ऐसे उपक्रमों में गतिशील लाखों चैतन्य आत्माएं अपने अस्तित्व की सार्थकता पाकर स्वयं को धन्य अनुभव कर रही हैं।
इस अवसर पर मैं प्रत्येक भारतीय का ध्यान भारतीय संस्कृति की ऐसी परंपराओं की ओर आकर्षित करने की धृष्टता कर रही हूं जिनके होने के और न होने के भी दूरगामी प्रभाव हैं। जो हमारी अदूरदर्शी, सुविधाभोगी जीवन शैली के कारण विलोपन की कगार पर हैं। याद कीजिए कभी हमारे देश में लगभग हर घर में और खेतों में मीठे पानी से लबालब भरे हुए कुएं हुआ करते थे जो गर्मी में भी सूखते नहीं थे। बड़ी-बड़ी बावडि़यां और तालाब भी होते थे। ये कुएं, बावडि़यां और तालाब पूरी आबादी को न केवल बारहों महीने पीने का पानी उपलब्ध कराते थे अपितु सिंचाई के भी महत्वपूर्ण साधन थे। ये कुएं जल स्रोतो की ऐसी अटूट श्रृंखला का सृजन करते थे जिससे धरती हमेशा तृप्त रहती थी और बदले में अपने पेट से सोने जैसी फसलें उगल कर हमें भी तृप्त रखती थी। उसे आज की भांति पुनर्भरण के महंगे कृत्रिम साधनों की आवश्यकता नहीं थी। कुओं, तालाबों, बावडि़यों के जल से धरती के पुनर्भरण का स्वचालित चक्र चलता रहता था।
कुएं की चौपाल पर एक हौज बना दी जाती थी। कुएं से पानी भरने वाला हर व्यक्ति स्वप्रेरणा से ही इस हौज में एक दो बाल्टी पानी डाल कर जल दान का पुण्य कमाता था। इस हौज का पानी पालतू पशुओं की प्यास बुझाता था। कुआं हो और उसके पास पानी का कोर्इ् छोटा-मोटा डबरा न हो, ऐसी दुर्घटना भारत में घटना तो संभव नहीं थी। इन डबरों के जल से कुत्ते, बंदर, गधे, चिडि़यों, कबूतरों, तोतों, गोरैयों, कौओं, कोयलों, मैनाओं की तृष्णा मिटती थी। कुएं के होने मात्र से उसके आसपास की भूमि पर पंछियों के पैरों से, पंखों से चिपक कर आने वाले पराग कणों के गिरने से नीम, पीपल, कनेर, वट आदि वृक्ष ऊगकर अपनी भव्य छांव का विस्तार करते रहते थे। इस छांव में थके राहगीर तो विश्राम पाते ही थे, बड़ों को गोष्ठी का और बच्चों को खेलने का मैदान इस छांव में सहज ही मिल जाता था। जेठ की दोपहरी में भी नौनिहाल इन वृक्षों की छांव में खेल रहे हों तो उनकी मांओं को लू लगने की चिंता नहीं रहती थी। छोटे-मोटे पारिवारिक, सामाजिक कार्यक्रम भी इसी छांव तले संपन्न हो जाते थे। रस्सी बंधी बाल्टी से पानी खींचने वालों का शरीर सौष्ठव और लोच काबिले तारीफ होता था। हाथ, पैर, पेट, पीठ और फेफडों के स्वाभाविक व्यायाम के कारण महंगे जिम में जाकर अन्य किसी व्यायाम की कोई जरूरत न थी। एक कुएं के होने का मतलब था उसके आसपास के लगभग पांच सौ मीटर के दायरे में एक स्वस्थ, सुखद पर्यावरण चक्र का निर्माण और पर्यावरण के हर अंग की स्वचालित सुरक्षा। वसुधैव कुटुम्बकम् का अनुपम उदाहरण।
देश के दुर्भाग्य से अंग्रेज हमारे देश में आए। हम गुलाम हो गए। इस गुलामी के साथ आयी अंग्रेजों की सुविधाभोगी जीवन शैली, जिसने महान प्रतिभाशाली लोगों के शोध, निरीक्षण, परीक्षण, अनुभव और परिणाम पर आधारित हमारी महान परंपराओं को एक-एक कर विस्थापित कर दिया। स्थानीय निकायों से जल प्रदाय की नल प्रणाली के आते ही कुएं उपेक्षित हो गए और एक-एक कर मर गए। उपेक्षित होकर कोई कबतक जी सकता है भला? मरते हुए कुओं के साथ ही मरता गया वह स्वस्थ, सुखद पर्यावरण का चक्र। मर गए हमारे नीम, पीपल, वट और कनेर के पेड़। बड़ों की गोष्ठी के स्थान और बच्चों के खेल के मैदान मर गए। हमारे पशुओं और पंछीयों की कई नस्लें विलुप्त हो गईं प्यास से तड़प-तड़प कर, छांव के अभाव में, अनुकूल पर्यावरण के अभाव में। पुनर्भरण के इस स्वाभाविक चक्र के मर जाने से धरती का जल स्तर गिरता चला गया। लाचार, विवश धरती माता प्यासी हो गई पर चुपचाप सहती गई।
उसकी इसी सहनशीलता की परीक्षा लेने के लिए बोरिंग के नाम से एक और प्रणाली आई जिसने अपनी नुकीली नोक से जहां तहां छेद-भेद कर के धरती के कलेजे को छलनी कर दिया। चूस डाला धरती को। आज हालात यह हैं कि पांच-पांच सौ फीट बोर करने पर भी पानी नहीं है क्योंकि मां धरती के आंचल में जल के पुनर्भरण की कोई सुव्यवस्थित प्रणाली नहीं है। धरती मरुस्थल होने की ओर अग्रसर है और हम सुविधाओं के नशे में गाफिल मरुस्थल की इस पदचाप को सुन नहीं पा रहे हैं।
प्रज्ञावान लोगों को इस परंपरा के विलुप्त होने के नुकसान अब समझ में आ रहे हैं। तभी तो सरकारें भी अब खेतो में कुएं बनाने के लिए अनुदान प्रदान कर प्रोत्साहित कर रही हैं और घरों में जल वपन तंत्र(वाटर हार्वेस्टिंग सेस्टम) लगाने की समझाइश दे रही है। घरों के कुओं के लिए भी ऐसे ही प्रोत्साहन की व्यवस्था होना चाहिए। पुराने सूख चुके कुओं, बावडि़यों, तालाबों को पुनर्जीवित करने के पुरजोर प्रयास होना चाहिए।
घर-घर कुएं होने का एक और बहुत बड़ा लाभ यह है कि संकटकाल के अलावा, सामान्य काल में पीने के लिए, निस्तार के लिए और कुछ हद तक सिंचाई के लिए भी पानी की व्यवस्था का भार सरकार पर नहीं रहता। न जलप्रदाय के महंगे तामझाम खड़े करने की झंझट, न कर वसूली का त्रास। कई बार पेयजल की पाइप लाइन में गंदे पानी की निकास नाली का जल मिल जाने से पेय जल के दूषित होने की घटनाएं भी सुनने में आयी हैं। किसी कारण से कोई कुआं दूषित भी हो जाए या गर्मी में कुछ कुएं सूख भी जाएं पर सामान्यत: सारे कुएं एक साथ असफल नहीं होते। अत: जल की उपलब्धता कुछ खास प्रभावित नहीं होती। लोग आपसी सहयोग से पानी का बंटवारा कर लेते हैं। पानी का अपव्यय भी नहीं होता। लोग बूंद-बूंद पानी की कीमत जानते हैं। पारस्परिक निर्भरता रहने के कारण आपसी भाईचारा भी बना रहता है। स्थानीय निकायों पर जल प्रदाय का भार न हो तो वे बचे हुए समय और संसाधन का अन्यत्र उपयोग कर बेहतर प्रशासन दे सकते हैं। पानी के लिए होने वाले झगडों का अभाव हो तो पुलिस पर काम का भार भी कम हो और समाज में पुलिस और प्रशासन की अनावश्यक दखलंदाजी के अवसर भी कम हो जाएं। इस तरह घर-घर कुओं की परंपरा सभी के लिए, हर दृष्टि से हितावह है।
हमें कृतज्ञ होना चाहिए आचार्य विद्यासागर जी जैसे उन ॠषियों, मुनियों, संतों का जो आज इस विपरीत काल में भी अपने भोजन में कुएं के पानी का आग्रह पाले हुए हैं। सतही सोच रखने वालों को यह एक कष्टदायी आग्रह लगता है क्योंकि उनकी दृष्टि हिंसा की उस श्रृंखला को देख नहीं पाती जो ऐसे जल स्रोतों के न होने से घटती है और होने मात्र से बचायी जा सकती है। आचार्य विद्यासागर जी नाम के संत नहीं हैं। उन्होने सच्चे अर्थों में महावीर की अहिंसा को आचरण में धारण किया है। बोरिंग मशीन से धरती के कलेजे का छेदन-भेदन होते देख जिनकी आंखें रोती हैं। सूखती धरती की पीडा से जिनके नयन नम हो जाते हैं। प्यासे पशु-पक्षियों की तड़प को जो अपने हृदय में अनुभव करते हें। वे देख पाते हैं नलजल प्रणाली और बोरिंग प्रणाली में होने वाले पंचेन्द्रिय से लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनन्त जीव घात को जिसके कारण वह जल, जल न रहकर वस्तुत: रक्त रूप हो जाता है और श्रमण तो क्या श्रावक के पीने योग्य भी नहीं रह जाता। ऐसे महान संत जबतक धरा पर विराजमान हैं और हाथ से खींचे गए कुएं के पानी से बने भोजन का आग्रह रखते हैं तबतक कुओं की परंपरा भी चलती रहेगी और उसके पुनर्जीवित होने की आस भी बनी रहेगी। यह आस बची रही तो धरती को मरुस्थल होने से बचाया जा सकेगा। जनजीवन के लिए उपयोगी पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की नस्लों को बचाया जा सकेगा। सुखद् पर्यावरण चक्र को बचाया जा सकेगा।
अत: मेरा सभी भारतीयों से आग्रहपूर्ण निवेदन है कि वे अपने घरों में, खेतों में, खलिहानों में जहां भी संभव है एक कुएं की व्यवस्था अवश्य रखें। यह सच है कि आजकल स्थान का अभाव है लेकिन तकनीक की मदद से आज दो-ढाई फुट व्यास के कुओं का निर्माण भी संभव हो गया है। इसका लाभ उठाएं, स्वयं स्वच्छ जल पिएं, पड़ोसियों को पिलाएं, सच्चे संतों को नवघा भक्ति से मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक शुद्ध आहार-जल का दान कर उत्तम पूण्य का वरण करें। धरती को मरुस्थल बनने से बचाएं, यही शुभकामना है।
हम अपने देश की खातिर इतना भी नहीं कर सकते?
विजयलक्ष्मी जैन
सेवानिवृत्त उपजिलाधीश
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