नागराज मंजुले की सैराट (अंधी दौड़) बेहद खूबसूरती से बनाई गई फिल्म है, जिसमें अलग-अलग जाति के दो युवा प्रेमियों की कहानी दिखाई गई है। फिल्म के संगीत में पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत की धुनें सुनाई पड़ती हैं, जो ओपेरा का माहौल बना देती हैं और गंवई महाराष्टï्र में गुंथी इस कहानी को अलग ही स्तर पर ले जाती हैं। इस साल अप्रैल में पर्दे पर आई सैराट अब तक की सबसे अधिक कमाई करने वाली मराठी फिल्म साबित हो रही है। इस फिल्म की निर्माता जी स्टूडियोज है, जिसके मराठी फिल्मों के प्रमुख निखिल साणे बताते हैं कि महज 4 करोड़ रुपये में बनी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर 80 करोड़ रुपये कमा चुकी है। हालांकि तमाम तरह के कर और दूसरों के हिस्से चुकाने के बाद स्टूडियो के लिए इसमें से एक तिहाई रकम ही बचेगी। लेकिन वह रकम भी सैराट के बजट से छह गुना अधिक होगी।
इससे साबित होता है कि मराठी सिनेमा पिछले कुछ साल से किस तरह के रचनात्मक पुनर्जागरण से गुजर रहा है। इस दौरान ऐसी कई फिल्में आई हैं, जिन्होंने मराठी सिनेमा की सूरत ही बदल दी है। 2014 में ‘एलिजाबेथ एकादशी’ आई थी तो 2015 में ‘कत्यार कालजात घुसली’ आई और उनसे पहले 2013 में आई ‘फंड्री’ भी नए सिनेमा की मशाल उठा रही थी। इन सभी की कहानियां उम्दा थीं, जिन्हें पूरी दुनिया में और भारत में भी फिल्म महोत्सवों के दौरान सराहा गया और पुरस्कृत भी किया गया। अच्छी फिल्में आम तौर पर कमाई कर लेती हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों की ही तरह मराठी में भी उनकी कमाई की रफ्तार कुल मिलाकर मंद ही रहती है। 2015 में जो मराठी फिल्में बनाई गई थीं, उनमें से मुश्किल से 10 या 15 फीसदी ही मुनाफे में रहीं और सूत्र बताते हैं कि मराठी फिल्मों ने जो कुल 250 करोड़ रुपये कमाए, उनमें सबसे ज्यादा योगदान उन्हीं फिल्मों का था।
जो सिनेमा कुछ वक्त पहले तक बद से बदतर हालत में पहुंच चुका था, उसके लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं हैं। अस्सी और नब्बे के दशकों में मराठी फिल्मों का मतलब दादा कोंडके का फूहड़ हास्य होता था। फिर मुकाम हासिल करने में जुटा पंजाबी और बांग्ला सिनेमा आज मराठी सिनेमा से क्या सीख सकते हैं? मैंने सैराट को मुंबई के एक थिएटर में देखा था। वहां आए ज्यादातर लोग मराठी भाषा को ठीक से समझते भी नहीं थे। फिर भी वे फिल्म देखने आए क्योंकि उसमें अंग्रेजी के सबटाइटल दिए गए थे। इससे फिल्म मराठी भाषियों तक ही सीमित नहीं रही बल्कि उसे दूसरी भाषा और प्रांतों के दर्शक भी मिल गए। जाहिर है कि इससे फिल्म की कमाई भी बढ़ गई, बिल्कुल वैसे ही, जैसे भोजपुरी या हिंदी में बनी स्पाइडर-मैन की बढ़ी थी।
याद रखिए कि हर साल औसतन 1,000 फिल्में बनाने वाला भारतीय फिल्म उद्योग केवल 13,800 करोड़ रुपये कमाता है। हॉलीवुड इसकी आधी फिल्में बनाता है और अपने देश में ही इससे दस गुना अधिक कमाई कर लेता है क्योंकि फिल्में बेचने के हुनर में वह हमसे बेहतर है। अगर पर्दे पर आई फिल्मों को बेहतर तरीके से बेचना है तो यह जरूरी है कि भारतीय फिल्में भी बड़ी तादाद में दर्शकों पर निशाना साधें। केवल महाराष्टï्र, गुजरात या पंजाब से आगे क्यों नहीं बढ़ा जाए? पूरे भारत के बाजार में फिल्म क्यों नहीं दिखाई जाए? कुछ फिल्में वाकई में ऐसा कर रही हैं।
मिसाल के तौर पर ‘बाहुबली’ को ही लीजिए। 2015 की सबसे सफल फिल्मों में शुमार बाहुबली तेलुगू-तमिल भाषाओं में बनाई गई थी और उसे हिंदी, मलयालम तथा फ्रेंच भाषाओं में भी डब किया गया। फिलहाल विवादों में फंसी ‘उड़ता पंजाब’ ने भी हिंदी-पंजाबी भाषा के साथ समूचे उत्तर भारत के दर्शकों को निशाना बनाया है। जी ने भी फिल्मों में सबटाइटल देने शुरू कर दिए हैं और यह काम सबसे पहले राष्टï्रीय पुरस्कार से सम्मानित ‘फंड्री’ के साथ किया गया। साणे कहते हैं, ‘फंड्री (प्रेम और जाति भेद की कहानी) की चर्चा केवल मराठियों में सीमित नहीं थी, बल्कि समूचे सोशल मीडिया और राष्टï्रीय मीडिया में हो रही थी। हमें लगा कि तमाम संस्कृतियों के लोग इसे देखेंगे और हमने सबटाइटल तैयार कर दिए।’ साणे को यह नहीं पता कि टिकटों की बिक्री या कमाई कितनी बढ़ी, लेकिन बढ़ी जरूर थी।
नया मराठी सिनेमा पिछले चार साल से अच्छा प्रदर्शन क्यों कर रहा है, यह आपको तभी समझ आएगा, जब आप फिल्म देखेंगे। यह सिनेमा कुछ अलग है और मराठी संस्कृति, नाट्य और साहित्य की परतें टटोलकर शानदार कहानियां लाता है तथा समाज और रिश्तों की तहों में झांकता है। कत्यार कालजात घुसली 1967 के एक नाटक पर आधारित है, जिसमें दो शास्त्रीय गायकों के बीच का द्वंद्व दिखाया गया है। इसी साल आई नटसम्राट बहुत अधिक सफल रही थी और सैराट ने ही उसे पछाड़ा। वह फिल्म 1970 के नामचीन नाटक पर बनाई गई थी, जिसमें गुमनामी में खोते एक थिएटर कलाकार की कहानी थी।
साणे की मानी जाए तो सफलता का कोई फॉर्मूला नहीं होता। वह कहते हैं कि सैराट प्रेम कहानी भर नहीं है बल्कि इसमें तमाम सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी हैं। साणे को यह भी लगता है कि इस मामले में मराठी सिनेमा के सबसे करीब मलयालम सिनेमा है, जो एकदम अनूठी विधा और विषयों को सामने लाकर लोकप्रिय हो रहा है। साणे यह भी याद दिलाते हैं कि जिन फिल्मों को आलोचकों की वाहवाही मिली है, उनमें से ज्यादातर को युवा, अनजाने निर्देशकों ने ही साकार किया है। अगर मल्टीप्लेक्स मिलें, टिकट की बेहतर कीमत मिलें और ज्यादा पर्दे मयस्सर हों तो बेहतरीन कहानी को बेहतर बाजार भी मिल जाएगा।
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