Sunday, November 24, 2024
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कहीं धार्मिक शोभायात्राओं पर नफरत के पत्थर, कहीं मजहबी जुलूस में फिलीस्तीनी झंडे

देश को अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति दिलाने के लिए समाज जागरण तथा स्वदेशी का प्रभुत्व स्थापित करने के लिए महान क्रांतिकारी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने सार्वजनिक गणेश पूजा का प्रारम्भ किया था जो आज भी एक समृद्ध परम्परा के रूप में उसी उत्साह के साथ मनाया जाता है और हिन्दू जीवन का भिन्न अंग है । आज गणेशोत्सव की धूम न केवल  संपूर्ण भारत में जन सामान्य में दिखाई देती है वरन साहित्य और सिनेमा से लेकर राजनीतिक तक में इसका प्रभाव प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है। किन्तु देश के एक वर्ग विशेष को गणेशोत्सव रास नहीं आता और वो अवसर मिलते ही गणेश पूजा पंडालों व शोभायात्राओं  पर पत्थरबाजी करके  नफरती उन्माद पैदाकर देश का साम्प्रदायिक वातावरण खराब करने का षड्यंत्र प्रतिवर्ष करता है।

इस वर्ष भी देश के अलग अलग भागों से गणेशोत्सव को खंडित करने के कुत्सित प्रयासों  के समाचार आए। मध्य प्रदेश के रतलाम में भगवान गणेश की शोभा यात्रा पर पथराव किया गया। पुलिस के अनुसार रतलाम जिले के मोचीपुरा क्षेत्र में यह पत्थरबाजी उस समय हुई जब हिंदू गणेश उत्सव की मूर्ति लेकर जा रहे थे।यहाँ स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए भारी पुलिस बल तैनात करना पड़ा।

गुजरात के सूरत में वरियावी में देर शाम तक गणेश पूजा हो रही थी लेकिन रात होते -होते वातावरण अचानक हिंसक हो गया क्योंकिगणेश पूजा के दौरान तथाकथित अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने बीच में घुसकर मूर्तियों पर पथराव कर दिया। घटना के विषय में जानकारी देते हुए गुजरात के गृहमंत्री हर्ष सांघवी ने बताया कि सूरत के सैयदपुरा इलाके में 6 लोगों ने गणेश पूजा पंडाल पर पथराव किया। घटना में शामिल सभी  लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। बाद में पुलिस ने घटना में शामिल 27 अन्य लोगों को भी गिरफ्तार करने में सफलता प्राप्त कर ली ।सूरत के सभी इलाको में भारी पुलिस बल तैनात है। गुजरात के ही कच्छ जिले में भी गणेश पूजा पंडालों व यात्राओं पर हमले किये गये जिसमें भी कुछ नफरती अल्पसंख्यकों को हिरासत में लिया गया है।

महाराष्ट्र, जो गणेश पूजा के लिए प्रसिद्ध है वहां के तो कई जिलों में गणेश पूजा को निशाना बनाया गया है जिसमें सबसे बड़ी घटना भिवंडी जिले में घटी जहां गणेश पूजा शोभा यात्रा  पर नफरत के पत्थर चले। ध्यान देने योग्य  बात यह है कि पत्थरबाजी की सभी घटनाओं को नाबालिग युवक सोची -समझी रणनीति के तहत अंजाम दे रहे है। महाराष्ट्र के बुलढाणा जिला भी  नफरती पत्थरों का शिकार बना। इसके अलावा राज्य  कई अन्य जिलों व कस्बों  से गणेश पूजा पंडालों व विसर्जन समारोह से लौट रहे लोगों पर सुनयोजित हमले किये गये।

उत्तर प्रदेश जहां पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सशक्त नेतृत्व वाली सरकार है वहां पर भी पत्थरबाज अपनी हरकतोंसे बाज नहीं आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में गणेश विसर्जन के दौरान पत्थरबाजी की घटना से तनाव उत्पन्न  हो गया। यहां पर शोहरतगढ़ थाना क्षेत्र में गणेश की प्रतिमा का विसर्जन करने के लिए निकली यात्रा पर  मारवाड़ी चौराहे पर दूसरे समुदाय के लोगों ने पत्थर फेंके। पत्थरबाजी का जानकारी प्राप्त होते ही भारी संख्या मे पुलिसबल आ गया और स्थिति नियंत्रित की गई। इसी तरह की घटनाएं फर्रूखाबाद, महोबा, कन्नौज सहित कई जिलों में घटी हैं। राजधानी लखनऊ में भी एक परिवार ने अपने घर पर ही गणेशजी की पूजा करने के लिए प्रतिमा स्थापित की थी, घर पर जब  केवल मां और बेटी ही थी तबअचानक से कुछ उपद्रवियों ने उनके घर में घुसकर गणेश जी की प्रतिमा को खंडित कर दिया और  उनके घर को भी नुकसान पहुंचाया।

राजस्थान में भीलवाड़ा जिले में गणेश पूजा व विसर्जन समारोह को निशाना बनाया गया जिसके कारण तनाव व्याप्त हो गया और हिंसा भड़क उठी थी। कर्नाटक में तो मुस्लिम तुष्टिकरण इस सीमा तक चला गया कि गणेशजी को कैद ही कर लिया गया।

उधर बारावफात के जुलूसों में कई स्थानों पर फिलीस्तीन के झंडे फहराये गये है तो कहीं -कहीं “सिर तन से जुदा“ के नारे लगाये गये। एक जगह तिरंगे झंडे पर कलमा ही लिख कर फहरा दिया गया।

स्पष्ट है कि यह सभी घटनाएं एक सुनियोजित षड्यंत्र के अंतर्गत की जा रही हैं। प्रारम्भिक जांच से पता चल रहा हे कि मदरसों एवं मस्जिदों में कट्टरपंथी मौलाना मुस्लिम युवाओ को हिंदुओं पर हमला करने के लिए भड़का रहे हैं। मदरसों में पढ़ने वालो छात्रों के मन में नफरत का जहर बोया जा रहा है। गुजरात और राजस्थान में गिरफ्तार युवाओं से पाता चला है कि युवाओं ने अपने फोन पर व्हाट्स एप ग्रुप बना रखे थे जिसमें हिंदुओं के खिलाफ व देवी देवताओं के जुलूसों पर किस प्रकार से अपना बचाव करते हुए हमले करने हैं कि जानकारी दी जाती है।

गणेश पूजा पंडालों व गणेश जी की प्रतिमा विसर्जन यात्राओं पर हमले का विरोध करना तो दूर अपितु समाजवादी नेता अबू आजमी जैसे लोग पत्थरबाजों  और पीएफआई के खतरनाक मंसूबों के समर्थन में ही बयानबाजी करते नजर आ रहे हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण में संलिप्त नेताओं का कहना है कि मुस्लिम बाहुल्य इलाकों व मस्जिदों के समाने से ढोल नगाढ़े व डीजे के साथ नारेबाजी करते हुए धार्मिक यात्रा नहीं निकालनी चाहिए, कोई इनसे ये नहीं पूछता -आखिर क्यों? भारतीय राजनीति में सबसे बड़ी समस्या यह है कि मोहब्बत की दुकान खोलने वाले सभी राजनैतिक दल तुष्टीकरण में आकंठ डूबे हैं।  हिंदू हिंसक है कहने वाले अब गूंगे बहरे हो गये हैं। ओवैसी की आवज बंद हो गयी है क्योंकि अब हिंदुओं के प्रथम पूज्य सर्वमान्य देव गणेश जी की प्रतिमा पर जो नफरती पत्थर बरसाये जा रहे हैं वो उन्हीं की देन है। संविधान के रक्षक मौन हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गणेश पूजन के अवसर पर सर्वाच्च न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड के घर पर जाकर उनके साथ गणेश पूजन करने पर जिनका सेकुलरिज्म और संविधान खतरे में आ गया था, गणेशोत्सव पर पत्थरबाज़ी के समय उनको दिखाई देना ही बन्द  हो गया।

भारत के संविधान में हर नागरिक को अपने अधिकार प्राप्त हैं। भारत में हर धर्म  का नागरकि कहीं भी रह सकता है, अपने धर्म का पालन कर सकता है। पर्व मना सकता है। भारत सभी का है किंतु यहां पर एक बहुत ही विकृत सुनियोजित साजिश के तहत ही  हिन्दू विरोध की  राजनीति हो रही है।गणेशोत्सव पर हो रहे हमले बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे हमलों का ही प्रतिरूप हैं तथा ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत में गजवा -ए -हिंद की दिशा में काम हो रहा है। यह बात बिल्कुल सत्य है कि जहां -जहां मुस्लिम आबादी बढ़ जाती है वहां  पर हिंदुओं पर हमले बढ़ रहे हैं। यह सत्य भी स्पष्ट होता जा रहा है कि हिंदू बहुल आबादी में एक मुस्लिम परिवार तो आसानी से रह सकता है किंतु जैसे ही मुस्लिम आबादी बढ़ती है और उनके बीच में कोई हिंदू हो या फिर किसी अन्य दूसरे धर्म का परिवार वह नहीं रह सकता।

इतना समय बीत जाने के बाद भी मुसलमानों ने दूसरे धर्मां के प्रति सहिष्णुता का भाव नहीं सीखा है। कट्टरपंथी विचारधारा केवल अपने ही धर्म के ही विचारों को सर्वश्रेष्ठ समझकर अन्य धर्मां के पर्वों के साथ नफरत भरा व्यवहार करती है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बार- बार संदेश दे रहे हैं  कि “हिंदू कटेगा तो कटेगा“ जिसे प्रत्येक हिन्दू को समझना चाहिए और सारे भेदभाव भुलाकर समरस होना चाहिए ।

प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

फोन नं- 9198571540

तीन श्रेष्ठ कवियों की पत्रकारिता का आकलन

हिंदी के तमाम मूर्धन्य संपादक पत्रकारिता के किसी संस्थान या विश्वविद्यालय से प्रशिक्षित नहीं थे। किंतु वे अपने आप में प्रशिक्षण संस्थान थे। वे पूरे के पूरे पाठ्यक्रम थे और वे ही प्रयोगशाला थे। उनके भीतर अपने समाज को देखने और समझने की अचूक दृष्टि थी। इसलिए पत्रकारिता के पश्चिमी सिद्धांतों को रटने से कहीं ज्यादा आवश्यक भारतीय समाज के भीतर पत्रकारिता के स्वाभाविक विकास को समझना है। उसे समझने के लिए संपादकों की कहानी को जानना जरूरी है। उसमें सिद्धांत भी है, तकनीक भी है, उद्देश्य भी है और भविष्य के लिए प्रेरणाएं भी हैं। यह तभी संभव है जब स्वयं कोई मूर्धन्य संपादक यानी भीतर का अनुभवी व्यक्ति अपनी ज्येष्ठ पीढ़ी के मूर्धन्य संपादकों की कहानी बताए। यह मूल्यवान कार्य हिंदी के मूर्धन्य संपादक अच्युतानंद मिश्र ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान’ में किया है। मिश्र जी ने जिन तीन श्रेष्ठ कवियों की पत्रकारिता की प्रामाणिक कहानी इस पुस्तक में लिखी है, वे हैं- सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती।

अच्युतानंद मिश्र ने पुस्तक के पहले अध्याय ‘साहित्य के तीन महानायक और पत्रकारिता’ में लिखा है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी साहित्य और हिंदी पत्रकारिता के बीच विभाजक रेखा अदृश्य थी। प्रस्तुति की शैली और अनुशासन अलग-अलग थे लेकिन दोनों के सामाजिक सरोकार, राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति निष्ठा और राष्ट्रीयता की दृष्टि समान थी। हिंदी गद्य के निर्माण में पत्रकारिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका को सभी ने स्वीकार किया है। साहित्य की प्राचीनता और पत्रकारिता की आधुनिकता के बावजूद हिंदी की सांस्कृतिक विरासत और संपूर्ण शब्द संपदा दोनों की अविभाज्य धरोहर है। पौने दो सौ वर्ष के सहविकास का यह रिश्ता अटूट है। अपने दौर के श्रेष्ठतम साहित्य सर्जकों और संपादकों ने इतिहास के इस शानदार और गौरवपूर्ण अध्याय को साथ-साथ लिखा और जिया है। साहित्य के प्रति पूर्ण सम्मान के साथ ही यह स्वीकार करना पड़ेगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध में लोक प्रतिबद्ध पत्रकारिता ने अपने सर्वस्व की आहुति दी थी। सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं और पत्रकारों ने अपना अस्तित्व दांव पर लगाकर सच लिखने, छापने और बोलने का जोखिम उठाया था।

अज्ञेय, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती ने साहित्य के साथ हिंदी पत्रकारिता में भी सशक्त और सार्थक हस्तक्षेप किया। तीनों को साहित्य से भरपूर सम्मान और पत्रकारिता से अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली थी। तीनों ने अपना-अपना साहित्यिक और पत्रकारीय लेखन लगभग साथ-साथ शुरू किया था। अज्ञेय ने ‘तारसप्तक’ और ‘प्रतीक’ के माध्यम से उस दौर के कवियों, लेखकों और पत्रकारों को पहचान दी थी। उनके सहयोगी के रूप में रघुवीर सहाय की प्रतिभा सामने आई थी। रघुवीर सहाय की पत्रकारिता 1947 में लखनऊ के दैनिक ‘नवजीवन’ के माध्यम से और डॉ. धर्मवीर भारती की पत्रकारिता 1948 में प्रयाग में ‘संगम’ के माध्यम से शुरू हो चुकी थी।

अच्युतानंद मिश्र लिखते हैं कि अज्ञेय, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती पर स्वतंत्रता पूर्व के संपादकों की छाप थी। उनमें से कुछेक के साथ तीनों ने काम किया था और कई को नजदीक से काम करते हुए देखा था। साहित्य तीनों का पहला आकर्षण था। साहित्य की तरह ही संपादक के रूप में भी तीनों अपने पाठकों में अलग-अलग पहचान के साथ लोकप्रिय थे। तीनों के बीच लोकतंत्र, समाजवाद, व्यवस्था विरोध और हिंदी की अस्मिता निर्विवाद थी। हिंदी पत्रकारिता की भाषा गढ़ने में तीनों ने अपनी शैली में योगदान किया था। तीनों ने हिंदी के साथ भारतीय साहित्य और भाषाओं को प्रोत्साहित किया था। तीनों का फलक विशाल था। वे साहसी और प्रयोगधर्मी थे। भारतीय मनुष्य और मानवीयता उनके साहित्य और पत्रकारिता के केंद्र में थी। तीनों ने मौलिक लेखन के साथ-साथ अनुवाद के माध्यम से भी हिंदी को समृद्ध किया। तीनों को लेकर साहित्य में जो गुटबंदी या विवाद उछाले गए थे, उसकी छाया उनकी पत्रकारिता पर भी थी। लेखन और संपादन में तीनों अपने कथ्य और शिल्प को लेकर बेहद सजग थे। तीनों ने अपने दौर के चर्चित श्रेष्ठ साहित्यकारों से अपनी पत्रिकाओं में बार-बार लिखवाया और छापा। राजनेताओं से गहरे निजी रिश्तों के बावजूद वे राजनीति में नहीं गए। उनका चिंतन प्रगतिशील और आधुनिक था लेकिन वे मार्क्सवादी नहीं थे। उन पर मानवेन्द्रनाथ राय, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की गहरी छाप थी। उनके आदर्श उदात्त थे। बिक्री और विज्ञापन बढ़ाने के लिए पत्रिकाओं को सस्ता बनाने के तीनों खिलाफ थे। उन्होंने अपने लेखकों, सहयोगियों और पाठकों की एक पूरी पीढ़ी को अपने ढंग से गढ़ने का काम किया था।

तीनों का नई पीढ़ी पर अद्भुत प्रभाव था। तीनों अपने पांडित्य से आक्रांत करने के बजाए अपने साहचर्य से एक नई स्फूर्ति देते थे। उस दौर के सैकड़ों लेखकों और हजारों प्रबुद्ध पाठकों को उन्होंने स्वयं पत्र लिखकर लेखन के लिए प्रेरित किया और सम्मान से छापा भी था। तीनों ने हिंदी क्षेत्र में मध्य वर्ग के बेचैन युवाओं को भाषाई स्वाभिमान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान दिलाने की पहल की थी। तीनों स्वप्नद्रष्टा भी थे और कर्मकठोर भी। तीनों ने बुद्धिजीवियों को उनकी निष्क्रियता तथा अकर्मण्यता पर जमकर लताड़ा है।
अच्युतानंद मिश्र ने तीनों मूर्धन्य संपादकों में समानता का वर्णन किया है तो उनके वैचारिक अंतर्विरोध को भी उजागर किया है। कहते हैं कि तीनों को उनके संचालकों ने प्रताड़ित और अपमानित किया था, लेकिन तीनों ने उसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाई। प्रश्न है कि आजीविका के लिए मूल्यों के साथ समझौता किस सीमा तक होना चाहिए? जयप्रकाश नारायण को केंद्र में रखकर लिखी गई धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता ‘मुनादी’ का सबसे पहले ‘धर्मयुग’ में न छपना जैसे मुद्दों को लेकर आज भी सवाल उठाए जाते हैं।

इस पुस्तक का महत्व इसलिए है कि यहां पहली बार तीन श्रेष्ठ कवियों के पत्रकारीय अवदान को प्रकाश में लाया गया है। कृष्णबिहारी मिश्र ने इसे अनुशीलन का एक और गवाक्ष कहा है। यह भी रेखांकित करनेयोग्य है कि अच्युतानंद मिश्र ने तीनों श्रेष्ठ कवियों की रचनाओं और उनके द्वारा संपादित पत्र-पत्रिकाओं से गुजरकर, उस दौर के साक्षी रहे साहित्य चिंतकों, विद्वानों और पत्रकारिता के सहयोगियों से संवाद कर संपादक के रूप में उनका वस्तुपरक आकलन किया है। प्रामाणिकता इस पुस्तक की सबसे बड़ी पूंजी है।

अज्ञेय ही रहे ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय ने पत्रकारिता को नई ऊर्जा दी, धर्मयुग और धर्मवीर भारती, संवादों और साक्षात्कारों के बीच अज्ञेय, अज्ञेय से त्रिलोकदीप की बातचीत, अज्ञेय से नरेश कौशिक की बातचीत, अज्ञेय से भारतभूषण अग्रवाल की बातचीत और जवाहरलाल कौल से अच्युतानंद मिश्र की बातचीत शीर्षक अध्याय भी पठनीय हैं। उन अध्यायों से पाठकों के सामने सामने एक नया परिप्रेक्ष्य खुलता दिखाई पड़ता है। उनमें विचार की कई बार एक नई कौंध मिलती है। यह विशेषता अच्युतानंद मिश्र की दूसरी पुस्तकों- ‘सरोकारों के दायरे’, ‘कुछ सपने, कुछ संस्मरण’, ‘पत्रों में समय-संस्कृति’, ‘हिंदी के प्रमुख समाचार पत्र और पत्रिकाएं’ (चार खंड) में भी विद्यमान है।

पुस्तक : तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान, लेखक : अच्युतानंद मिश्र, प्रकाशक : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, पृष्ठ :172, मूल्य : 225 रुपए, संस्करण: 2024

(समीक्षक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)

भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुकूल हो भारत की शिक्षा

शिमला। आज पूरा विश्व भारत की विशेषता के बारे में जानना चाहता हैं | दुनिया भारत के बारे में अधयन्न करना चाहती है आखिर वह कौन सी बात है जो भारत को समर्थ और शक्तिशाली बना कर रखा है | भारतीय संगीत, योग, वेद उपनिषद , रामायण , रामचरितमानस आदि ग्रंथों से हामारी ज्ञान परम्परा समृद्ध है जो हमारी मानवता की आधारशीला हैं यही से व्यक्ति का सामाजिक निर्माण होता हैं श्रेठ समाज के निर्माण में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान रहता है | उक्त बाते विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान की अखिल भारतीय कार्यकारिणी बैठक का शुभारम्भ करते हुए डॉ कृष्ण गोपाल सह सरकार्यवाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कही |

इस अवसर पर डी. रामकृष्ण राव अध्यक्ष विद्या भारती व् गोविन्द चन्द महंत संगठन मंत्री विद्या भारती उपस्थित रहे सर्वप्रथम सभी पदाधिकारियों द्वारा गोलोक वासी कार्यकर्ताओं को श्रद्धान्जली अर्पित की गई व एक मिनट का मौन रखा गया , तत्पश्चात सरस्वती वंदना विद्यालय के छात्रों द्वारा प्रस्तुत की गयी| विद्या भारती अखिल भारतीय महामंत्री श्री अवनीश भटनागर जी ने बैठक में उपस्थित अधिकारीयों व्गणमान्य अतिथियों का परिचय करवाया
यह अखिल भारतीय बैठक हिमाचल प्रदेश में 22 वर्षो के पश्चात् आयोजित की जा रही है| विद्या भारती उत्तर क्षेत्र के महामंत्री श्री देशराज शर्मा ने पुण्य भूमि हिमाचल प्रदेश की भूमिका पर प्रकाश डाला ।
बैठक के उद्घाटन सत्र में विद्या भारती द्वारा प्रकाशित दो पुस्तकों “अभिनव पंचपदी अधिगम पद्दति” तथा ” लोक माता देवी अहिल्या” का विमोचन किया गया जिसका प्रकाशन विद्या भारती ने किया है ।
अपने वक्तव्य में गोविन्द चन्द मंहत जी ने कहा कि कार्यकारिणी की बैठक देव भूमि शिमला में कठिन क्षेत्र मानकर रखी गई है । यहां हम सभी गुणवता के लिए विभिन्न 29 विषयों पर विचार करेंगे । विषय संयोजक अपने-अपने विषयों की प्रस्तुति देगें व उनके विकास की चर्चा करेगें । संघ शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों की चर्चा भी इस बैठक में की जाएगी । उन्होने कहा कि पंचपदी के अनुसार प्रभावी शिक्षण हो इस पर भी चिंतन होगा ।

इस अवसर पर एक प्रदर्शनी लगाई गयी जिसका उद्घाटन सह सरकार्यवाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ डॉ कृष्ण गोपाल जी व् विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के संगठन मंत्री श्री गोविन्द महंत जी ने दीप जलाकर किया| इस प्रदर्शनी में विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र द्वारा साहित्य, स्थानीय विद्यालय के छात्रों द्वारा “हिमाचल एक झलक” विषय पर, औषधीय पौधों (Herbal Garden) की प्रदर्शनी लगाई गईं | इसके साथ साथ विद्या भारती द्वारा कौशल को विकसित करने के लिए चलाये जा रहे जन शिक्षण संस्थान शिमला द्वारा भी स्वनिर्मित उत्पादों की प्रदर्शनी लगाई गयी| जन शिक्षण संस्थान शिमला के निदेशक सुश्री मंजुला अत्री ने संस्थान व् प्रदर्शनी के बारे में विस्तृत जानकारी दी |
इस अवसर पर विद्या भारती उत्तर क्षेत्र के संगठन मंत्री श्री विजय नड्डा जी, सह संगठन मंत्री श्री बाल कृष्ण जी व् महामंत्री श्री देशराज जी मुख्य रूप से उपस्थित रहे |

प्रचार विभाग
हिमाचल प्रान्त

मालवी कहावतों में रची बसी है जीवन की मिठास और जीने की कला

भावों की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम भाषा है। लिखकर, बोलकर या संकेतों के द्वारा अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त किया जाता है। भाषा संप्रेषण के यही तीन रूप हैं, लेकिन जैसे-जैसे भाषा का विस्तार होता है, उसके लिखित और मौखिक दोनों रूपों में भिन्नता आने लगती है। ऐसी स्थिति में शिष्ट तथा सुशिक्षितजन द्वारा व्यवहार में लाया जाने वाला भाषा का लिखित या लिपि-रूप ही मानक-रूप कहलाता है।

फिलवक्त मैं बता दूँ कि भाषा का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है, जबकि बोली एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती है। एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ और एक बोली के अंतर्गत कई उपबोलियाँ हो सकती हैं। बोली का संबंध ग्राम या मंडल से होता है, बोली को तभी तक बोली कहा जाता है, जब तक कि उसे साहित्य में महत्त्व प्राप्त न हो। बोलियों के बनने का प्रमुख कारण भौगोलिक होता है, इसी वजह से मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के बोलचाल के लहजे को मालवी बोली के नाम से जाना जाता है। मालवी में कहा गया है कि ‘बारा कोस पे बानी बदले पाँच कोस पे पानी’।
वर्तमान में मालवा विंध्य पर्वत श्रेणी के उत्तर में फैला एक विस्तृत पठार है। इसके अंतर्गत संपूर्ण पश्चिमी मध्य प्रदेश और उसके सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिले शामिल हैं, जहाँ मालवी बोली बोली जाती है। वस्तुतः अवंती जनपद (उज्जैन) में मालवगण की सत्ता होने के कारण यह क्षेत्र ‘मालवा’ कहलाया। यही कारण है कि मालवी का केंद्र भी उज्जैन और इंदौर ही है। इस क्षेत्र में आदर्श मालवी बोली जाती है। हालाँकि मालवी की कुछ उपबोलियाँ भी हैं, जैसे रजवाड़ी, सोंधवाड़ी, उमठवाड़ी और भीली। मालवी बहुत ही मीठी बोली है, इसमें काफी मात्रा में लोक-साहित्य रचा गया है, कथा-वार्त्ता, गाथा, गीत, नाट्‍य, पहेली और लोकोक्ति के माध्यम से मालवा की संस्कृति को समझा जा सकता है।
अभी हम सिर्फ लोकोक्ति की बात करते हैं, अगर भाषा की समृद्धि और सभ्यता का विकास देखना है तो वह मुहावरों, लोकोक्तियों और कहावतों में देखा जा सकता है। जब जीवन के दीर्घकाल के अनुभव को छोटे वाक्यों में कहा जाता है तो वह कहावत कहलाती है। कहावत को ही मालवी में केनावत या ओखाण या केवाड़ा कहते हैं। सामाजिक जीवन के सुख-दुःख के तमाम अनुभवों को मालवी की केनावतों या कहें कहावतों में बड़ी खूबसूरती से बयाँ किया गया है। जैसे एक कहावत है—‘फोड़ा पड़ना, यानी मुसीबत आना’।
इसी प्रकार नीति, कृषि, स्वास्थ्य, परंपरा और सामाजिक रीति-रिवाजों पर कई कहावतें मालवा क्षेत्र में समय-समय पर सुनी जा सकती हैं। मालवा क्षेत्र के उन बुजुर्गों की अवश्य ही दाद देना पड़ेगी, जिनके व्यापक अनुभव ने आगे की पीढ़ी को जीने की सही राह बताई है। उनके अनुभवों से निकली तमाम कहावतों का थोड़ा आनंद लें।
एक कहावत तो मालवा के संदर्भ में ही है—‘मालव माटी गहन गंभीर डग-डग रोटी, पग-पग नीर।’
१. मूर्ख व्यक्ति को लेकर मालवी बोली में कहावतों का पहाड़ सा खड़ा है—
अक्कल को ढाँढो—निरा गँवार आदमी, अर्थात् जिस व्यक्ति में ढाँढे (पशु) जितनी बुद्धि हो उसके लिए यह कहावत बोली जाती है।
डांस, मकोड़ा, अजाण नर टूटे पण छूटे नी—डांस और मकोड़ा जब शरीर से चिपक जाते हैं तो वे फिर निकलते नहीं हैं, चाहे उनके दो टुकड़े क्यों न हो जाएँ। ठीक उसी प्रकार अजाण या मूर्ख व्यक्ति होते हैं, जो अपनी जिद में स्वयं का ही नुकसान कर बैठते हैं।
घोंघा बसंत—ऐसा मूर्ख, जो अपना भला-बुरा न जानता हो।
रामाजी—भोला परंतु मूर्खतापूर्ण हरकतें करने वाला आदमी।
गेली ग्यारस—ऐसा व्यक्ति जो ज्ञान शून्य हो। रामाजी टाइप।
गँवार खा मरे के उठा मरे—गँवार व्यक्ति कोई भी काम करे, वह स्वयं की हानि तो करेगा ही दूसरे को भी अपने लपेटे में ले लेगा।
२. बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने या व्यर्थ की डींगें हाँकने वालों के लिए भी मालवी बोली में कहावतों का खजाना भरा पड़ा है—
ढपोर शंख—इस कहावत को लेकर मालवा क्षेत्र में एक कहानी प्रचलित है, जिसमें एक आदमी को कहीं से एक ढपोर नाम का एक शंख मिलता है, जो सिर्फ काम पूरा करने या इच्छित वस्तु देने का वादा करता है, किंतु देता कभी नहीं। जब इस प्रकार से कोई ऊँची-ऊँची छोड़ता है, तब ऐसे आदमी को ढपोर शंख कहा जाता है।
साहुकारी भरम की बैराँ जात शरम की—साहूकार वही जो पूँजीपति हो, लेकिन कुछ न होते हुए भी जो ऐसा भ्रम फैलाकर रखे कि मैं बड़ा साहूकार हूँ, उसके लिए यह कहावत सौ टका सही है। वाक्य का वजन बढ़ाने के लिए यहाँ एक बात और जोड़ दी कि बैराँ (स्त्री) वही जिसके पास लाज रूपी गहना हो।
के रांड पटेल—फर्जी पदवी पाने की अभिलाषा। दरअसल गाँवों में पंचायत के प्रमुख को पटेल कहा जाता है और उसका तथा उसकी बातों का बड़ा सम्मान किया जाता है। अब जो व्यक्ति कुछ न होते हुए भी यह चाह रखता है कि सब मुझे पटेल कहकर नमस्कार करें, तब ऐसे झूठे आदमी के लिए यह कहावत कही जाती है।
फाक सुपदंड घोण से की तनखा—अपने आप को किसी बड़े पद पर बताना और मूँछों पर ताव देते हुए घूमना कि मैं ये हूँ, मैं वो हूँ, जबकि हकीकत यह है कि प्राप्त तनख्वाह से घर चलाना भी मुश्किल हो रहा है। घर में भले ही फाके पड़ रहे हैं, लेकिन शान जो दिखानी है।
उधारी भोई नचावे—भोई एक नाटक कंपनी को कहते हैं, जो गाँव-गाँव घूमा करती थी और गाँव का धनी आदमी अपने पैसे से भोई नचवाता था, लेकिन जो व्यक्ति झूठी शान दिखाने के खातिर भोई नचाने के लिए उधार तक ले लेता था, तब यह कहावत कही जाती थी।
मरद का दीवाला मसाण में—समाज में स्वयं को प्रतिष्ठित दिखाने के लिए जब कोई व्यक्ति कर्ज में डूब जाता है और चारों तरफ से बुरी तरह फँस जाता है, तब कहा जाता है कि मरद का दीवाला मसाण में यानी ये झूठी शान ही उसकी मौत का कारण बनेगी।
ओछी पूँजी ने अजवाँ में हाथ—यहाँ भी बात वही है, यानी आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया।
घर में पड़े फाँका, बाबूजी फरे बाँका—घर में तो खाने तक के लाले पड़ रहे हैं, लेकिन इस बात की चिंता किए बिना ही घर का मुखिया लोगों से स्वयं को मालदार होने का ढिंढोरा पीटता फिरता है। फाँका (कमी) होने के बावजूद बाँका यानी छैल-छबीले बनकर घूमते फिरना।
घर का तो घट्टी चाटे ने पड़ोसी के आटो मेले—यानी हालत तो ऐसी है कि घर के लोगों को जरा भी आटा नसीब नहीं, लेकिन दूसरों को आटा मेलने (दान करने) के वादे किए जा रहे हैं। व्यर्थ की उदारता का दिखावा करने पर उक्त कहावत सटीक बैठती है।
३. व्यक्ति के बुरे काम पर मालवी बोली का अंदाज भी देखें—
चोरी को माल मोरी में—बुरा काम करके कमाया हुआ धन ठीक उसी तरह खर्च हो जाता है, जैसे मोरी (बाथरूम) में बहाया गया पानी।
बोयो पेड़ बबूल को तो आम काँ से होय—यानी कर्म ही इतने बुरे हैं कि उसका परिणाम तो बुरा होना ही है। जब दूसरों की राह में काँटे बिछा दोगे तो फिर उससे भलाई की उम्मीद रखना बेकार ही है।
अपनी माँ के कोई डाकण नी के—प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सभी वस्तुएँ और आदतें प्यारी होती हैं, चाहे वे खराब ही क्यों न हों। अर्थात् अपनी बुराइयों को नजरअंदाज करना।
माल मामा को ने खटपट भाणजा की—यहाँ यह संदेश है कि दूसरे की दौलत पर बुरी नजर रखना। इस कहावत को रिश्तेदारी से जोड़ा गया है, क्योंकि धोखा हमेशा अपने नजदीक का ही व्यक्ति देता है और मामा-भानजा का संबंध बहुत ही पास का है।
काला भेले गोरो बैठे रंग नी तो गुण तो बदले—इसे कहते हैं संगत का असर। यहाँ काला रंग बुराई और गोरा रंग भलाई का प्रतीक है। यानी बुरे व्यक्ति के भेले (साथ) कोई भी रहे बुराई तो साथ लाएगा ही।
आंधो मूते जग देखे ऊ समझे कोई नी देखे—अपनी बुराई न देखना। हर व्यक्ति यही समझता है कि मुझमें कोई बुराई नहीं है, जबकि दूसरों को आप में कई बुराइयाँ दिख जाएँगी।
खजूर से तो खोड़िया ही हिटे—खजूर के पेड़ की पत्तियाँ जब सूख जाती हैं तो वे कड़क और नुकीली हो जाती हैं, जो काफी नुकसान पहुँचा सकती हैं। इन्हें ही खोड़िया कहते हैं। हालाँकि यह बात और है कि इन पत्तियों से दैनिक उपयोग की कई चीजें बनाई जाती हैं, लेकिन इसके बुरे पक्ष को आधार बनाकर यह कहावत बनाई गई है, जिसका आशय है कि बुरे व्यक्ति के पास तो बुराई ही मिलेगी।
बाप के बाप नी के तो पड़ोसी के काकाजी कदे केवेगो—यह कहावत ऐसे लोगों के लिए है, जो एहसान-फरामोश हैं। इतने कि अपने पिता का भी बुरा कर बैठते हैं। जब पिता को नहीं छोड़ा तो दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने की उम्मीद भी बेकार है।
रांड से रंडवा भला ने टूटी जूती से उबाना भला—चरित्रहीन पत्नी होने से अच्छा है कि कुँवारे रहें और टूटी हुई चप्पल पहनने से अच्छा है कि नंगे पैर ही रहें। कहने का आशय यह है कि तमाम बुराइयों से दूर रहने में ही सबकी भलाई है।
महादेवजी का औगण तो नांदियो ही जाने—महादेवजी के अवगुण तो नंदी ही जानता है, अर्थात् हर व्यक्ति में कुछ-न-कुछ बुराई अवश्य होती है, पर उसकी उन बुराइयों को तो वही जानता है, जो उसके नजदीक रहता है।
४. मुसीबत के मारों को लेकर भी मालवी में बहुत कुछ कहा गया है—
नींद बेची ने उजरको मोल लेनो—आगे बढ़कर आफत में पड़ना। बेहतर स्वास्थ्य के लिए नींद बहुत जरूरी है और जब निश्चिंतता होती है, तभी नींद आती है। अब जो व्यक्ति सामने से मुसीबत मोल ले ले तो उसका क्या किया जाए। यही कहावत उसके काम की है।
बढ़ ले बद्री भेरू आयो—जब अचानक से बड़ी मुसीबत आ जाती है तो छोटी मुसीबत को बाय-बाय कहने के लिए यह जुमला कहा जाता है।
दुबला नी रीस घणी—रीस यानी गुस्सा। दुबला व्यक्ति जब मुसीबत में पड़ जाता है, तब क्रोध बहुत करता है। यहाँ दुबला का अर्थ सिर्फ शारीरिक रूप से कमजोर ही नहीं, बल्कि ऐसा व्यक्ति जो आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी कमजोर हो। अपना हक न मिलने पर बार-बार क्रोधित होता रहता है।
दुबला के दो असाढ़—ऐसा कहा जाता है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से आषाढ़ का महीना ठीक नहीं रहता है, लिहाजा सेहतमंद आदमी तो कुशल से रह सकता है, लेकिन दुबले व्यक्ति को स्वास्थ्य संबंधी मुसीबतें आ सकती हैं। फिर ऊपर से दो आषाढ़। आशय यह है कि कमजोर व्यक्ति पर मुसीबतों का पहाड़ ज्यादा टूटता है। एक मुसीबत से छूटे नहीं कि दूसरी तैयार।
आग खावे ने अंगारो मूते—जब दूसरों के लिए कोई व्यक्ति बड़ी मुसीबत बनकर खड़ा हो जाए, तब ऐसे व्यक्ति के लिए यह कहावत बोली जाती है, लेकिन इस कहावत को तभी सुना गया है, जब कोई बच्चा बहुत अधिक शैतानी या मस्ती कर रहा हो।
जे का घर नी हो बाड़ो ओको बड़ो फजीतवाड़ो, जो नी ले बात को आड़ो ओको भी फजीतवाड़ो—यहाँ यह स्पष्ट है कि जिसके घर बाड़ा या कहें बाउंड्रीवाल नहीं होगी, उसके पास किसी-न-किसी प्रकार की मुसीबतें आती ही रहेंगी। उसी प्रकार जो बात का आड़ा नहीं लेगा, यानी सबकी हर बात मानने लगेगा तो उसे भी परेशानी तो होगी ही। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘न’ करना भी सीखें।
५. जो उपकार नहीं मानते, उन्हें आप क्या कहेंगे। जरा देखें—
खाय माटी का ने गीत बीराँ का गाय—खाते तो माटी यानी पति की कमाई का, पर गुणगान करते है बीराँ (भाई) का। हैं न एहसान फरामोश।
कटी आंगली पे नी मूते—गाँवों में ऐसी मान्यता है कि अगर शरीर पर कहीं कट जाए और खून निकलने लगे तो अपनी ही पेशाब लगा लेने से खून बहना बंद हो जाता है। इसी विज्ञान को आधार बनाकर यह कहावत बनी है शायद, लेकिन इस कहावत का अर्थ है कि संकट में भी साथ नहीं देना।
६. ऐसे व्यक्ति, जिनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है और जो सबकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। वे निराश न हों, उनके लिए भी मालवी कहावतों के माध्यम से बहुत कुछ कहा गया है—
बिना पींदा को लोटो—ऐसा आदमी, जिसकी अपनी कोई सोच न हो। जैसे बिना पेंदे का लोटा इधर-उधर लुढ़कता रहता है, ऐसे ही बिना व्यक्तित्व का आदमी भी लुढ़कता रहता है। कभी इधर तो कभी उधर।
ऐसी दो कहावतें और हैं, जिनका भी भावार्थ यही है—रामजी की भी जै ने रावण की भी जै और भरतपुरी लोटो।
७. आलसियों पर तो क्या खूब कहा है—
तू राणी मूँ राणी कुन भरे परेंडा से पाणी—सब आलसी। अगर तू रानी है तो मैं भी रानी हूँ, अब बता कुएँ से कौन पानी भरेगा? यानी कोई नहीं। किसी को कोई काम करना ही नहीं है।
गाड़ी देखी ने पग भारी होय—जहाँ साधन उपलब्ध होते हैं, वहाँ व्यक्ति प्रयत्न नहीं करना चाहता है। जैसे पैदल चलने की बात हो, लेकिन वाहन खड़ा हो तो कौन पैदल चलना चाहेगा।
पूछबा वालो कदी नी डोटाए—आजकल तो रास्ता पता करने के लिए गूगल मेप का सहारा लिया जाता है, लेकिन पहले पूछ-पूछकर चलने की परंपरा थी। इसी आधार पर यह कहावत रची गई है। यानी हर गली या हर चौराहे पर बार-बार पूछकर चलने वाला व्यक्ति कहीं भी डोटाता (भटकता) नहीं है।
आलस और नींद करसाण के खोवे—किसान के सिर्फ दो ही शत्रु हैं—आलस्य और नींद।
८. लालची और संतोषी लोगों की तो बात ही अलग है—
डाकण बेटा ले के दे—ऐसे लोग जो लोभवश हमेशा लेने का ही मन रखते हैं, देने का कभी नहीं उनके ऊपर ये कहावत चरितार्थ होती है।
भली म्हारी टाटी जे में मिले घी बाटी—संतोषी व्यक्तियों पर यह उक्ति फिट बैठती है। मुझे तो मेरा छोटा सा घर ही प्यारा है, जिसमें घी-बाटी यानी अच्छा खाने को मिल जाता है।
९. कृषि और स्वास्थ्य पर भी कहावतों की बहार है—
माघ माह जो परे न सीत, महँगा नाज जानियो मीत—इसमें साफतौर पर यह कहा गया है कि यदि माघ (जनवरी) के महीने में पर्याप्त ठंड नहीं पड़ी तो अनाज का उत्पादन कम हो जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर महँगाई भी बढ़ जाएगी।
चलना भला न कोस बरसात का बेटी भली न एक—पक्की सड़कें आज हैं, लेकिन तब बारिश होने पर कीचड़ में एक कोस चलना भी दुश्वार था। बेटियों का सम्मान आज है, लेकिन तब एक लड़की भी बोझ समझी जाती थी।
हाजी हांडे कईं आँकड़ो दे—आँकड़ा एक प्रकार की दवा भी है। जब किसी स्वस्थ आदमी को कोई स्वस्थ रहने के गुण सिखाता है, तब ऐसा कहा जाता है।
पाणी पीवे धाप नी लागे लू की झाप—गरमी के मौसम में यदि भरपूर पानी पी लिया जाए तो फिर लू लगने का डर नहीं रहता है।
रोग की जड़ खाँसी ने लड़ाई की जड़ हाँसी—आयुर्वेद में कहा गया है कि बिमारी की जड़ खाँसी है। यदि स्वस्थ रहना हो तो खाँसी होते ही उसका उपचार तुरंत करना चाहिए। इसी प्रकार मित्रता या संबंध भंग होने के कई कारणों में प्रमुख है, किसी की शारीरिक रचना, कार्य या व्यवहार को देखकर हँसना।
१०. नीति संबंधी अन्य केवाड़ा—
खोद-खोद मरे ऊँदरो ने जा बैठे भुजंग—किसी की मेहनत का फल जब किसी और को मिलता है, तब ऐसा कहा जाता है। ऐसा अकसर देखा गया है कि कोई चूहा बड़ी मेहनत से मिट्टी खोद-खोदकर अपने रहने के लिए बिल बनाता है और उसमें जाकर बैठ जाता है भुजंग यानी साँप।
मांडना पे टपकी देनो—गाँवों में कच्चे घरों को गोबर से लीपने के बाद खड़िया या गेरू से मांडना बनाने की प्रथा आज भी है। यह बड़ी मेहनत का काम है, लेकिन जब मांडना कोई और बनाए तथा उस मांडने पर टपकी (बिंदु) कोई और लगाए और कहे कि यह मांडना मैंने बनाया है, तब यह बात कही जाती है। मतलब यह कि काम का श्रेय कोई और ले ले।
बेटी दीजो जान के पानी पीजो छान के—स्पष्ट है कि पानी यदि छानकर पीएँगे तो वह स्वास्थ्य के लिए उत्तम रहेगा, ठीक उसी प्रकार जिस घर में बेटी का ब्याह करना है, उस परिवार को पहले ही देख-परख लेंगे तो बाद में रोड़ा नहीं पड़ेगा।
बड़ा घरे बेटी दी अबे मिलबा का साँसा—कहने का तात्पर्य यह है कि रिश्तेदारी बराबर वालों के साथ करना चाहिए, वरना वह दुःख का कारण बन सकती है।
हाथ जोड़बा से डोकरा नी परने—चाहे कितनी ही मिन्नतें कर लो, पर बुजुर्ग की शादी नहीं हो सकती, अर्थात् यह कहावत ऐसे व्यक्ति के लिए है, जो अयोग्य हो। कितना ही प्रयास कर लो, वह अयोग्य ही रहेगा।
अपने कर्तव्य का निर्वाह करना कितना आवश्यक है, इस बात को कहावतों के नजरिए से जानें—
दूध ने पूत नजर हटताँ ही गया—चूल्हे पर गरम करने के लिए रखे हुए दूध और अपने वयस्क होते पुत्र पर से अगर थोड़ी देर के लिए भी नजर हटा ली तो सब गड़बड़ हो जाएगा। दूध उफन कर बाहर आ जाएगा और पुत्र के बिगड़ जाने का अंदेशा है। तात्पर्य यह है कि कर्तव्य पालन में चूक न होने दें।
भड़ जी तो भटा खाए ने दूसरा के परेज बताए—यानी अपनी बात पर खुद ही अमल नहीं करना और दूसरों से उम्मीद करना। ये भी कह सकते हैं कि कोरा ज्ञान बघारना। अपना कर्तव्य भूल दूसरों को उपदेश देते फिरना।
अन्य महत्त्वपूर्ण कहावतें—
घणा पटेलिया बगड़े गाम—जहाँ एक से अधिक पटेल अर्थात् मुखिया होंगे, वहाँ किसी काम के ठीक से होने की संभावना कम है, क्योंकि सभी अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहेंगे, ऐसे में कार्य की कोई ठोस योजना बन ही नहीं पाएगी।
बाप ने तो मारी नी मेंडकी ने बेटो तीरंदाज—जब कोई व्यक्ति अपनी क्षमता से अधिक या कोई अनूठा काम करना चाहता है, तब यह कहावत सामने आती है।
गाड़ी ने लाड़ी देवा की नी वे—गाड़ी और लाड़ी (पत्नी) देने की वस्तु नहीं है। इस बात को संस्कृत में जरा इस तरह से कहा गया है—लेखनी, पुस्तकम्, नारी पर हस्ते न गता गतम्। वर्तमान जीवन-शैली को देखते हुए इस लिस्ट में गाड़ी को भी शामिल कर लिया गया है।
गुड़ खाए ने गुलगुला से परेज करे—मेरे एक मित्र हैं, जो बकरा खाते हैं, पर बिना प्याज का। इस कहावत का अर्थ अब आप समझ गए होंगे।
फूट्‍या करम फकीर का भरी चलम ढुल जाए—भाग्यहीन लोगों के लिए यह कहावत है। कोई कितने ही खजाने के दरवाजे आपके लिए खोल दे, लेकिन अगर आपके भाग्य में नहीं है तो उसमें से आपको कुछ नहीं मिलेगा।
नीवरो नांदियो—फालतू, बेकार और निठल्ले व्यक्ति को कहा जाता है।
काण्या ढोली के एकज डंको—जो व्यक्ति अपनी ही जिद पर अड़ा रहे और एक ही बात की रट लगाए रखें, तब यह बात कही जाती है।
बनिया मित्र न वेश्या सती, कागा हंस न गधा जती—यहाँ बनिया किसी जाति का न होकर ऐसे व्यक्ति का प्रतीक है, जो कंजूस हो। कंजूस कभी किसी का मित्र नहीं बन सकता है, क्योंकि उसका पूरा ध्यान पैसा बचाने में ही लगा रहता है। ऐसा मित्र आड़े वक्त में कभी मित्रता नहीं निभा पाएगा। वेश्या या चरित्रहीन स्त्री भला क्यों सती होने लगी? कौवा कितना ही मलमल के नहा ले वह हंस नहीं बन सकता है और गधा या अनपढ़ कभी साधु नहीं बन सकता है। प्रवचन देने मात्र से कोई साधु नहीं हो जाता है।
भण्या पण गुण्या कोनी—भण्या यानी पढ़ लिख तो लिये, पर गुण नहीं के बराबर हैं, अर्थात् व्यावहारिकता का अभाव।
पइसा अंट ने विद्या कंठ—बैंक का प्रचलन होने से पहले की यह कहावत है कि पैसा वही जो अंट (जेब) में हो और विद्या वही जो कंठस्थ हो। दोनों कब काम आ जाए।
माँ पे पूत पिता पे घोड़ो घणो नी तो थोड़ो-थोड़ो—यह कहावत थोड़ा वैज्ञानिक आधार लिये हुए है। यहाँ ऐसा माना गया है कि मनुष्य की संतान में अपनी माता के गुणसूत्र पिता की बनिस्बत अधिक होते हैं, जबकि इसके विपरीत स्थिति होती है घोड़े की। घोड़े की संतान पिता के गुणसूत्रों के करीब होती है। किसी व्यक्ति की कार्यप्रणाली को देखकर यह कहावत कही जाती थी। हालाँकि जब प्रशंसा करना हो, तब भी यही कहावत और जब बुराई करना हो, तब भी यही कहावत।
मनक-मनक में आँतरा कोई हीरा कोई काँकरा—प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में अनूठा होता है। कोई बहुत गुणी तो कोई बहुत गँवार।
घरे घर गारा का चूला—कोरोना काल में तो यह बात सौ फीसद सच साबित हो रही है। शब्दार्थ यह है कि हर घर में गारा (मिट्टी) के चूल्हे हैं, अर्थात् सब की स्थिति एक जैसी ही है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मालवी बोली की कहावतों का फलक बहुत बड़ा है, जिसमें जीवन के हर पहलू को बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है। जिंदगी में कहीं सुख की छाया है तो कहीं दुःख की धूप, लेकिन प्यारी-प्यारी इन कहावतों में है इन सबका मिलाजुला संगम।(लेखक के बारे में – मूलत: प्राध्यापक (हिंदी), विगत २५ वर्षों से प.म.व. गुजराती वाणिज्य महाविद्यालय, इंदौर (म.प्र.) में पदस्थ। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य, लघुकथा तथा यात्रा-संस्मरण प्रकाशित। एक यात्रा संस्मरण ‘गोवा जैसा मैंने देखा’ महाराष्ट्र बोर्ड की कक्षा दसवीं की हिंदी पाठ्‍य-पुस्तक में सम्मिलित।  )
संपर्क 
डॉ. विनय शर्मा
१८७-बी अंबिकापुरी (मेन)
ज्ञान बहार स्कूल के पीछे
एयरपोर्ट रोड, इंदौर-४५२००५
दूरभाष : ९८२६०३७१०६

Dr. Vinay Sharma
Professor & H.O.D. (Dept. of Hindi)
P.M.B.Gujarati Commerce College,
Indore (M.P.)
Mob.-9826037106

ब्याज दरों को कम करने का चक्र हुआ प्रारम्भ

अमेरिकी फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष जर्मी पोवेल ने दिनांक 19 सितम्बर 2024 को यूएस फेड दर में 50 आधार बिंदुओं की कमी करने की घोषणा करते हुए यूएस फेड दर को 5.5 प्रतिशत से घटाकर कर 5 प्रतिशत कर दिया है। 4 वर्ष पूर्व पूरे विश्व में फैली कोविड महामारी के खंडकाल के पश्चात मुद्रा स्फीति की दर में, पिछले 4 दशकों में, सबसे अधिक वृद्धि दर्ज हुई थी और मुद्रा स्फीति की दर को नियंत्रण में लाने के उद्देश्य से विकसित एवं अन्य कई देश ब्याज दरों को लगातार बढ़ा रहे थे ताकि उत्पादों की मांग बाजार में कम हो तथा उत्पादों की आपूर्ति इस मांग के अनुरूप हो जाए। पिछले 4 वर्षों के दौरान यूएस फेड दर 0 प्रतिशत से बढ़कर 5.50 प्रतिशत तक पहुंच गई थी परंतु अब 4 वर्ष पश्चात यूएस फेड दर को कम करने की घोषणा की गई है।

कई विकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं अमेरिका में लागू ब्याज दरों से अत्यधिक प्रभावित होती हैं। जब भी अमेरिका द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि की घोषणा की जाती है तो अन्य देशों में अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों के संस्थानों एवं नागरिकों द्वारा किया गया निवेश इन देशों से निकलकर अमेरिका में वापिस आने लगता है क्योंकि अमेरिकी वित्तीय संस्थानों एवं अमेरिकी सरकार द्वारा जारी किए जाने बां ड पर उन्हें आकर्षक ब्याज दर मिलने लगती है।

इसके विपरीत जब भी अमेरिका द्वारा यूएस फेड दर में कमी की घोषणा की जाती है तो अन्य विकासशील देशों में अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों के संस्थानों एवं नागरिकों का निवेश बढ़ने लगता है क्योंकि इन्हें अमेरिकी वित्तीय संस्थानों एवं सरकार द्वारा जारी किए जाने बांड पर तुलनात्मक रूप से कम आय होने लगती है। इसी विशेष कारण के चलते कई देशों को अमेरिकी फेड रिजर्व के निर्णय को ध्यान में रखते हुए ही अपने देश में भी ब्याज दरों को कम अथवा अधिक करना होता है ताकि उनके देश में अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों के संस्थानों एवं नागरिकों द्वारा किया जा रहा निवेश बहुत अधिक प्रभावित नहीं हो।

चूंकि अब यूएस फेड दर में 50 आधार बिंदुओं की कमी की गई है अतः अन्य कई देश भी ब्याज दरों में कमी की घोषणा कर सकते हैं। इससे पूरे विश्व में ही ब्याज दरों को कम करने का चक्र प्रारम्भ हो सकता है। हालांकि इसकी शुरुआत यूरोपीयन देशों एवं ब्रिटेन द्वारा पूर्व में की जा चुकी है तथा अब विकासशील देश भी ब्याज दरों में कमी की घोषणा शीघ्र ही कर सकते हैं। भारत में भी हालांकि पिछले कुछ समय से मुद्रा स्फीति की दर लगातार नियंत्रण में बनी हुई है परंतु भारतीय रिजर्व बैंक यदि पूर्व में ही ब्याज दरों में कमी की घोषणा करता तो भारत में अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों के संस्थानों द्वारा अमेरिकी डॉलर में किये गए निवेश के भारत से निकलने की सम्भावना बढ़ जाती। आज विश्व के कई देश, विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में, आपस में इतने अधिक जुड़ चुके हैं कि किसी एक देश के आर्थिक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन अन्य देशों के आर्थिक क्षेत्र को भी प्रभावित करते हैं।

अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा यह भी कहा गया है कि केलेंडर वर्ष 2024 में यूएस फेड दर में 25 आधार बिंदुओं की दो बार और कमी की घोषणा की जा सकती है तथा केलेंडर वर्ष 2025 में 100 आधार बिंदुओं की कमी की जा सकती है। इस प्रकार यूएस फेड दर घटकर 3.50 प्रतिशत तक नीचे आ सकती है। यूएस फेड दर में 50 आधार बिंदुओं की कमी की घोषणा के साथ ही 10 वर्षों के लिए जारी अमेरिकी बांड की यील्ड घटकर 3.73 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है एवं डॉलर इंडेक्स भी 100.37 के निचले स्तर पर आ गया है।

अब अमेरिकी डॉलर पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में दबाव बढ़ेगा जिससे अमेरिकी डॉलर का अवमूल्यन हो सकता है। इससे अमेरिकी बाजारों से अब पूंजी निकलकर अधिक आय की तलाश में अन्य इमर्जिंग देशों के शेयर बाजार में जाएगी। इसका सबसे अधिक लाभ भारत को हो सकता है क्योंकि भारत पूर्व में ही MSCI Emerging Market IMI (Investible Market Index) Index में चीन से आगे निकलकर प्रथम स्थान पर आ गया है। इस इंडेक्स में भारत के शेयरों का भार चीन के शेयरों के भार से अधिक हो गया है। विश्व के वित्तीय संस्थान, सोवरेन फंड, पेंशन फंड एवं अन्य निवेशक MSCI के इंडेक्स पर अधिक विश्वास करते हैं एवं अपने निवेश भी इस इंडेक्स में शामिल शेयरों में करते हैं।

दूसरे, अब बहुत सम्भव है कि भारतीय रिजर्व बैंक भी रेपो दर में कमी की घोषणा शीघ्र ही करे क्योंकि अब अमेरिका में अधिक ब्याज दरों का दौर समाप्त हो रहा है। अमेरिका में बढ़ी हुई ब्याज दरों का विपरीत प्रभाव न केवल भारतीय रुपए पर हो रहा था बल्कि अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों से भारत में अमेरिकी डॉलर में होने वाले विदेशी निवेश पर भी दबाव बना हुआ था। अब अमेरिका में यूएस फेड दर के कम करने से भारतीय रुपए पर दबाव एवं भारत से विदेशी निवेश के बाहर जाने का डर भी कम हो जाएगा। साथ ही, यदि भारत में भी ब्याज दरों को कम करने का दौर शुरू होता है तो इससे भारतीय उद्योग जगत को फायदा होगा और उनकी लाभप्रदता में वृद्धि होगी जो विदेशी निवेश को भारत में आकर्षित करने में सहायक होगी।

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पहिले से ही अपने उच्चत्तम स्तर 68,900 करोड़ अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गया है। अब बदली हुई परिस्थितियों में भारत का शेयर बाजार यदि और अधिक विदेशी निवेश की राशि भारत में आकर्षित करता है तो भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 100,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार कर सकने की क्षमता रखता है। तीसरे, भारत में ब्याज दरों के कम होने से उद्योग जगत द्वारा भारत में उत्पादित वस्तुओं की लागत भी कम हो सकती हैं और भारत में निर्मित उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बन सकेंगे, इससे भारतीय उत्पादों के निर्यात में वृद्धि होने की सम्भावना बन सकेगी। चौथे, अमेरिकी बाजार में ब्याज दरों के कम होने से विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लाभप्रदता में वृद्धि के चलते इन कम्पनियों द्वारा नवाचार के लिए रीसर्च पर खर्च में बढ़ौतरी की जा सकती है, जिसका सीधा सीधा लाभ भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने वाली कम्पनियों को होने जा रहा है।

आम जनता द्वारा बैकों से लिए गए ऋण की किश्तें भी अब कम हो सकती हैं इससे विशेष रूप से मध्यमवर्गीय परिवारों द्वारा खर्च करने योग्य राशि में वृद्धि होगी जो विभिन्न उत्पादों की मांग निर्मित करने में सहायक होगी। कुल मिलाकर, अब यह कहा जा सकता है कि अमेरिका में यूएस फेड दर के कम करने का अच्छा प्रभाव आगे आने वाले समय में विकसित देशों एवं भारत सहित विश्व की अन्य इमर्जिंग अर्थव्यवस्थाओं पर भी दिखाई देने लगेगा।

प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940

ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

लोक जीवन की धड़कनों में लिपटी राजेन्द्र केडिया की कहानियां

 राजस्थान मूल के रचनाकार राजेंद्र केडिया का साहित्य जगत में आगमन 65 वर्ष की आयु में हुआ तब कलम उठाई तो बिना रुके अनवरत चल रही है। लोक कथाओं की शैली में लिखी गई इनकी कहानियों का कथानक सर्वथा नया और मौलिक है जो किसी भी पुरानी लोक कथा का पुर्नलेखन कदापि नहीं है। ये हिंदी, राजस्थानी, संस्कृत, बांग्ला,अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं के ज्ञाता हैं। इन भाषाओं की लगभग 15 हजार से अधिक दुर्लभ पुस्तकों एवं पाण्डुलिपियों का संकलन इनके निजी संग्रह में उपलब्ध है। इनके लेखन का उद्देश्य पाठकों को देश एवं राजस्थान की पुरातन लोक-संस्कृति एवं परंपरागत जीवन- मूल्यों से अवगत कराना।
आपने अपनी ज़मीन से जुड़ी राजस्थानी भाषा की बीस हजार से अधिक मौलिक कहावतों का संग्रह किया है। कहते हैं, कहावतें और मुहावरे उनसे जुड़ी कथाएं बीते समय की साहित्यिक धरोहर हैं। राजस्थान में साहित्य में कहावतों का विपुल भंडार है। चार कोस पे पानी बदले……..के बावजूद कहावतों का मूल स्वरूप, मर्म और भाव ज्यों का त्यों बना हुआ है। पिता के मुंह से सुने कहावतों और मुहावरों से इनके मन में राजस्थानी भाषा से लगाव बढ़ता गया। जाति एवं पेशेगत जनजातियों की अधिकांश कहावतों में व्यंग्य भरे होते हैं जो उस तथागत जाति विशेष के गुण स्वभाव को उजागर करते हैं। इन्होंने झूठे और अहंकार भरे व्यवहार को व्यंग्य बाणों का निशाना बनाया है, तो बदले हुए सामाजिक परिवेश में उसी चिंतनीय स्थिति पर अफसोस भी जताते हैं।
कहावतों में विद्वेष की भावना नहीं होती और न ही वे किसी का महिमा मंडित करने के लिए होती है। समाज और जाति की विसंगतियों को उजगार करना ही उनका उद्देश होता है। कहावतें भोगे हुए यथार्थ और प्रचलित धारणाओं पर आधारित होती हैं। राजस्थान की समस्त ललित कलाएं, गायन, नृत्य,संगीत, चित्रण आदि निम्न वर्गों द्वारा ही संरक्षित किए गए हैं। राजस्थान की लुप्त होती आत्मा को तलाशती और अपनी मूल संस्कृति की पहचान करती कहावतों के मूल विषय वस्तु परख संकलन का उद्देश्य और अभिप्राय जाति पेशे और ऊंच नीच की भावना को दूर कर आपस में सद्भाव और भाई चारे की भावना को बढ़ाना है।
 संग्रहित कहावतों को  विषय-वस्तु परक शोधपूर्ण दस खंडों में सहेजने पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।  ” जाति और पेशेगत जनजातियों” 2300 मौलिक कहावतों का प्रथम खंड एवं  “पशु-पक्षी, कीट-पंतग” विषयक द्वितीय खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं। लगभग 700- 800 पृष्ठों के इन दो खंडों में कहावतों के पात्र के बारे में विशद भूमिका, साहित्यिक संदर्भ, शब्दावली एवं मुहावरे भी संग्रहित किए गए हैं। अन्य खंड, रिश्ते-नाते, अंग-प्रत्यंग, भाव-भावना, घर-गृहस्थी, ईश्वर- धर्म, रीति-रिवाज आदि विषयक शीघ्र प्रकाश्य हैं।
ये कहते हैं धरती पर सबसे खूबसूरत लोक राजस्थान में है। न कश्मीर न पेरिस।  यहां के रहने वाले बूढ़े उम्रदराज इंसान हैं जिनके चेहरे की  झुर्रियों और सलवटों में न जाने किस किस जमाने की कितनी कहानियां छिपी हैं और उनको सुनने और लोगों तक पहुंचाने में पूरी उम्र नाकाफी है। बचपन में खेलने की उम्र में इन्होंने  पुस्तकों को अपना साथी बना लिया था। पहले बाल पत्रिकाएं फिर अंग्रेजी के कॉमिक्स,अंग्रेजी के टार्जन और साथ ही दुर्गा प्रसाद खत्री कुशवाहा और आनंद प्रकाश जैन के साथ, बाद में प्रेमचंद और मोंटो के बीच  लेखन शैली को उभारने का मौका मिला।
जाट रे जाट , कहानी संग्रह :
 इनका राजस्थानी जाट कहानी संग्रह उनके राजस्थान की जमीन और भाषा से जुडे होने का जीवन्त प्रमाण है। फतेहपुर शेखावाटी, राजस्थान के प्रति अपना कृतज्ञता ज्ञापन है ’जाट रे जाट‘ कहानी संग्रह। इस संकलन में छत्तीस कहानियाँ हैं जो एक पंक्ति में लोकोक्ति लगती है और विस्तार में जीवन अनुभवों का निचोड। कलेवर में छोटी किन्तु सोच में सशक्त कहानियाँ लोकाभिमुख होने की वजह से बहुत प्रारम्भ में ही पाठक की पकड को मजबूत बना देती हैं। कथ्य की ताकत वस्तु विधान और भाषा दोनों रूपों में अपनी विशेषता प्रकट करती है। कौतुहल और रवानगी से भरी इन कहानियों में जाट एक चरित्र भी है और प्रतीक भी। चरित्र के रूप में वह सरल, भोला, हँसमुख है और प्रतीकात्मक दृष्टि से प्रबल, साहसी, श्रमशील और जीवनेच्छा से भरा है।
उदाहरणार्थ  ” साँड ” कहानी में धेलिये जाट ने ठाकर की चालाकी पकड ली। वह जानता था खीर ठाकर ने खाई थी किन्तु दुनिया के सामने यह नाटक रचना चाहता है कि चन्द्र-देवता ने भोग लगाया। “जाट और ससुराल” कहानी में जाट-जाटनी ने ससुराल जाने का विचार किया। विचार अच्छा था किन्तु ससुराल वालों की चालाकी भी ताड ली। ससुर ने जंवाई को बेटा कहकर खेत में काम कराया तो जाट जंवाई ने फसल बेचकर रकम खुद रख ली। इसलिये कि ससुर को यह भान हो सके कि उसने गलती की है। ’बेटा और जंवाई‘ एक नहीं होते। ’पावणाँ सू पीढी कोनी चालै, जवायाँ सू खेती कोनी चालै।‘  कहानी “जाटनी और हाकम ” में हाकम की अकड और जाटनी की समाजोपयोगी बातें ध्यान खींचती हैं। “जाट और बावलिया” में जाट ने अपनी बुद्धिमत्ता का सबूत दिया। जाट और गुरु, कुआँ, जूतियाँ, बातों के कारीगर जैसी प्रशंसनीय कहानियों में जाट के अलग-अलग चेहरे हैं जो यह दर्शाते हैं कि जीवन की पाठशाला में अनुभवों की किताब से ही सफल और श्रेष्ठ परिणाम मिलते हैं।
वाह रे जाट – कहानी संग्रह 2:
इनकी पुस्तक ” वाह रे जाट” की कहानियाँ लोक जीवन की भावभूमि पर उकेरी गई मौलिक और नितांत काल्पनिक कहानियां हैं। कहानियां किसी व्यक्ति,जाती अथवा समाज का नहीं वरन आदमी के सोच और विचार का प्रतिनिधित्व करती है। कहानियों का भूत आम धारणा के प्रतिकूल भोला और भला महसूस होता है। संग्रह में 35 कहानियां संकलित हैं। नारी मन की उलझन – सुलझन का बयान करती कहानी ” झुमका ‘ का संदेश है कि नारी मान – मर्यादा और उचित – अनुचित के विचार में पुरुषों से कहीं उम्दा और ऊंची समझ रखती है।
 ” भूत का मन” और ” जाट और भूतनी ” कहानियां भी मन की मर्यादा और उसके धर्म को उजगार करती हैं। ब्याज की माया, रामजी का लठ, जाट यमराज, जाट और बड़ा गेला, जाट और न्याय, हिसाब बराबर, जाटनी और खवासण , सो टके की बात कहानियां भी संग्रह की उम्दा कहानियां हैं। इनकी कहानियों में जाट पात्र किसी वर्ग का नहीं वरन माटी से जुड़ा फकत मेहनती इंसान, मजबूत सोच, अपने अधिकार के लिए लड़ने को प्रेरित करने, निरंतर संघर्ष करने और अन्याय का प्रतिकार करने का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार जाटनी , नारी के अदम्य साहस, असीम धैर्य और अपराजेय अस्मिता का प्रतीक है। परायी चीज पर नज़र रखने वाली दुरात्माओं  को वह बिना लाठी उठाये सबक सिखाना जानती है।
जाट – जाटनी के कथानको में इन प्रतीकों के ताने – बाने में बुनी कहानियों का मर्म है यथार्थ से नहीं भटकें। यूं कह सहते हैं कि कहानियों में हमारा अपना ही अक्स दिखाई देता है।
अमलकांटा- कहानी संग्रह :
अमलकांटा कहानी संग्रह में 264 पृष्ठों में लोक जीवन की धड़कनों से सुगबुगाती 20 बड़ी राजस्थानी कहानियां संकलित हैं। संग्रह की कहानियां डोर से बंधी, माटी की पुतली, अकलिया, हरकारा, अंत का पंत, आठवी सुगंध और बस एक दिन पढ़ते ही बनती हैं।
” इन कहानियों में.”……….लेखक लिखता है , खोए हुए बचपन को तलाशती हुई कुछ कहानियां यादों के उन कोनों में झांकती हैं, जहां बढ़ती हुई उम्र का अहसास, अक्सर अंधेरा बन कर छाया रहता है। “सांस की फांस”  अमूमन हर घर और हर बहू के कलेजे में धंसी होती है और हल्की हल्की टीस भी रहती है। घरेलू जिंदगी की धड़कन और रौनक भी वही फांस होती है, इसे मानने में उज्र नहीं होना चाहिए क्योंकि यही लोकजीवन की वास्तविकता है। आप ही सोना,आप ही सुनार, अंगीठी मूल – चक्र, ऐरन नाद और बिंदु हथौड़ा । सब कुछ उसी पर गढ़ा जाता है।
 ” एरेन” कहानी इसी गोरखबानी का प्रतीक है। मन के ही सोने में मन का ही खोट मिलने के पहले , कोई ऐरन का नाद सुने, तो खोट मिलाए ही नही। प्रेम कसूंबा होता है। चखने वाले को ही नहीं चखाने वाले को भी उसका नशा उग जाता है। उसके कसूमल रंग की रंगत उधड़ती है, तब रंगे जाने वाला, रंगणहार और रंगणारी ही नहीं, देखने वाले भी उसके रंग में रंग जाते हैं। ” कंटीली चंपा का पहर” कहानी ढाई आखर के पाठ का पहला अक्षर है।  रिश्ते – नातों का जिक्र करती हुई कहानियों में , मन की कड़वाहट को प्यार की मिठास से घोल कर , कौन पी पाया है और किसने होंठों से लगा कर छोड़ दिया, इसका अंदाज़ा पाठक को सहज ही लगता है। अमल कांटा एक ऐसी दूतरफी धारवाली चुभन है जो कहने वाले को भी चुभता है और सुनने वाला भी उसकी चुभन महसूस करता है।
मदन बावनिया- उपन्यास
यह उपन्यास मदन बावनिया किरदार की कहानी कहती है जो आम आदमी होते हुए दूसरों के कद से डरना छोड़ देता है। तब वह बावनिया नहीं रहता, बड़ों – बड़ों के कंधे पर सवारी गांठ सकता है और उससे भी ऊंचे आसमान झांक सकता है। उपन्यास के आखिर में उपन्यास में प्रयुक्त कतिपय शब्दों के अर्थ और टिप्पणियां दी गई हैं। इस उपन्यास का डूंगरगढ़, बीकानेर के मदन सैनी द्वारा राजस्थानी में अनुवाद किया है, जिस पर मदन सैनी को राजस्थान भाषा साहित्य और संस्कृति अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया।
जोग-संजोग – उपन्यास :
राजस्थान के नमक के विराट व्यवसाय, हजारों बैलगाड़ियों के टांडों, उनके संचालक बनजारों तथा संस्कारवान सेठ-साहूकारों की जीवन शैली पर आधारित इनका शोधपूर्ण उपन्यास “जोग-संजोग” है। यह उपन्यास राजस्थान के पुराने सेठ साहूकारों और व्यापारियों की परम्पराओं, उनके कठिन परिश्रम, निष्ठा और ईमानदारी के साथ अलग पहचान बनाने वाली व्यापारिक सूझ – बुझ और जोखिम उठाने की प्रवृति पर आधारित है। धार्मिक और नैतिक मूल्यों को स्थापित करते हुए उनकी सादगी भरी जीवन शैली और दानशीलता की मिसाल को दर्शाता है। उनके इन गुणों का उल्लेख इतिहास में भी कई जगह मिलता है। इसी की महत्वपूर्ण कड़ी है इनका यह उपन्यास जिसे इन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों और परंपराओं का गूढ़ अध्ययन कर लिखा है। इनके इस उपन्यास पर शोध कर सुश्री आस्था चौहान के शोध-प्रबन्ध पर, दयाल बाग शिक्षण संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी), आगरा द्वारा डॉक्टरेट की डिग्री प्रदान की गई है।
 प्रकाशन :
इनका प्रथम कहानी संग्रह ’तीसरा नर’ सन् 2005 में प्रकाशित हुआ। इनके प्रकाशनों में दो हिंदी उपन्यास जोग-संजोग  और मदन बावनिया, चार कहानी संग्रह तीसरा नर, जाट रे जाट, वाह रे जाट, अमलकांटा प्रकाशित हुए हैं।  राजस्थानी कहावतों का संसार खण्ड-1 (जाति, पेशे और जनजातियां) एवं  खण्ड-2 (पशु-पक्षी, कीट-पतंग) प्रकाशित हैं। कहावतों के अन्य खंड सहित इनका कहानी संग्रह ” तलब ” और ” मेरा कलकत्ता, मेरा बड़ा बाजार”( संस्मरण),  उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कलकत्ते के सामाजिक परिवेश और प्रवासी राजस्थानी समाज की पारंपरिक जीवन-शैली से परिचित कराती पुस्तक प्रकाशनाधीन हैं। आप सामाजिक पत्रिकाएं ’रिलीफ’, ’आनन्द पत्रिका’ एवं ’अग्र-संदेश’ के मानद संपादक हैं।
सम्मान :
 सरस्वती पुरस्कार (सरस्वती पुस्तकालय, राज.), संत सुंदरदास सम्मान, राष्ट्र भाषा परिषद सम्मान एवं अन्य पुरस्कार-सम्मान आदि से सम्मानित किया गया। आपको विभिन्न संस्थाओं द्वारा इनके लेखन से संबंधित विभिन्न विषयों पर व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाता है।
 परिचय :
ग्रामीण और शहरी संस्कृति में पले – बड़े हुए लोक जीवन के रचनाकार राजेंद्र केडिया का जन्म फतेहपुर शेखावाटी के मूल निवासी सीताराम केडिया माता रुक्मणि केडिया के परिवार में 4 जनवरी 1941 को हुआ। इन्होंने  स्नातक, साहित्य रत्न, विधि एवं वाणिज्य में स्नाकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। ये गंभीर पुस्तक प्रेमी और पाठक हैं। प्रारंभिक शिक्षा के समय से ही साहित्यिक विधाओं के प्रति इनकी रुचि रही। इसी रुचि ने इन्हें कहानी, संस्मरण, नाटक, उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया।  इनके दिल में राजस्थान का लोक बसा है, जिसकी छाप इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर दिखाई देती हैं। इन्होंने 2010 में अपने कपड़े का व्यवसाय बंद कर दिया और तब से वर्तमान समय तक निरंतर साहित्य सृजन में लगे हुए हैं। आपका साहित्य मारवाड़ी समाज में विशेष चाव से खूब पढ़ा जाता है।
सम्पर्क: 
सीजी-130, साल्टलेक सिटी, सेक्टर-2, कोलकाता-700 091( पश्चिमी बंगाल)
मो. 9831103037
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
( लेखक विगत 43 वर्षों से पर्यटन, इतिहास, संस्कृति , सामाजिक और साहित्य आदि विषयों पर लिख रहे हैं।)

पूर्वजों के ऋण से उऋण होने और श्रध्दा का पर्व है श्राध्द

अश्विनी मास में 15 दिन श्राद्ध के लिए माने गए हैं। पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक का समय पितरों को याद करने के लिए मनाया गया है। सबसे पहला श्राद्ध पूर्णिमा से शुरू होता है। इस दिन पहला श्राद्ध कहा जाता है, जिन पितरों का देहांत पूर्णिमा के दिन हुआ हो, उनका श्राद्ध पूर्णिमा तिथि के दिन किया जाता है। इन 15 दिनों में सभी अपने पितरों का उनकी निश्चित तिथि पर तर्पण, श्राद्ध करते हैं। ऐसा करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देकर प्रस्थान करते हैं। अमावस्या के दिन पितरों को विदा दी जाती है।

हिंदू पंचांग (कैलेंडर) में आश्विन मास के संपूर्ण कृष्णपक्ष में पितरों को संतुष्ट करने के लिए समर्पित किया गया है। इसी कारण इसे ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। भारतीय काल-गणना के अनुसार, इस समय सूर्य कन्या राशि में होता है। इसलिए ‘कन्या’ राशि में सूर्य की स्थिति में पड़ने वाले पितृपक्ष को जनसाधारण में ‘कनागत’ के नाम से भी जाना जाता है। इस बार पितृपक्ष 17 सितंबर, 2024 भाद्रपद पूर्णिमा से शुरू हो गया है. इस दिन श्राद्ध पूर्णिमा भी है. 2 अक्टूबर, 2024 को सर्व पितृ अमावस्या यानी आश्विन अमावस्या (Ashwin Amavasya) के दिन इसका समापन होगा।
सात सौ साल के इस्लामिक राज और दो सौ साल के ईसाई शासन के बाद भी आज हम अपने त्योहार मना पाते हैं, अपने देवी देवताओं की पूजा कर पाते हैं और अपने देश मे गर्व से रह पाते हैं, ये सब इसीलिए सम्भव हो पाया क्योंकि आपने तलवार के डर अथवा पैसों के मोह में अपना धर्म नहीं बदला ।हम सदैव आपके ऋणी रहेंगे, ये पितृपक्ष आपके अदम्य शौर्य और आपके निःस्वार्थ भक्ति को समर्पित ।

आपके गौरवशाली वंशज
” उदित होती हुई उषा, बहती हुई नदियाँ, सुस्थिर पर्वत और पितृगण सदैव हमारी रक्षा करें ।”

-ऋग्वेद की यह प्रार्थना हमारी संस्कृति में पितरों की भूमिका को रेखांकित करती है । अपनी परम्परा में पितरों की उपस्थिति को अनुभव करना ही सच्ची पितृपूजा है। यह न कोई अशुभ कर्मकांड है, न ही रूढ़िगत मानसिकता का द्योतक। प्रत्येक संस्कारशील प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे। पितृपूजा हमें अपनी कुल-परम्परा का स्मरण कराती है। हमारे सामाजिक संस्कार, हमारा विचार- दर्शन, हमारी मर्यादाएँ और हमारे भौतिक, आध्यात्मिक उत्तराधिकार पितरों पर ही अवलम्बित हैं । इसलिये प्रातःकाल पितरों का स्मरण कर हम अपनी विरासत के प्रति जागृत होते हैं ।

यह सच्चाई है कि कर्मकांड की उलझनों में दबा हुआ और कभी- कभी देवी-देवताओं से जड़ सम्बंध रखने वाला हमारा मन पितरों को सम्मान देते समय भाव विभोर ही नहीं हो उठता, गम्भीर भी हो जाता है। शास्त्रकारों ने साल का पूरा एक पखवाड़ा ही पितृपूजा के लिये सुरक्षित रख छोड़ा है, जो सम्भवतः सबसे लम्बा जनसुलभ धार्मिक अनुष्ठान है। हम इसे पितृपूजा या श्राद्धपक्ष के रूप में जानते हैं ।

पितरों के प्रति प्रकट की जाने वाली श्रध्दा को पितृयज्ञ कहा गया , जिसके विवरण ऋग्वेद से लेकर धर्मसूत्रों तक में भरे पड़े हैं। सूत्रकाल में पहली बार “श्राध्द ” शब्द का प्रयोग हुआ । “श्रध्दया दीयते यस्मात् श्राध्दं येन निगद्यते” कहकर श्राध्द की सर्वमान्य परिभाषा की गई। श्राध्दविधि का जन्मदाता मनु है। उसने भी श्राध्द का अर्थ पितृयज्ञ ही किया। पुरातनकाल से ही पितरों की दो श्रेणियाँ मिलती हैं । पहली श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो अत्यंत प्राचीनकाल के हैं, और अपनी चरितार्थता के कारण अब देवताओं की कोटि में हैं । दूसरी श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो निकटवर्ती तीन पीढ़ियों के हैं । सामान्यतः श्राध्द दूसरी श्रेणी के पितरों का किया जाता है। इस श्राध्द में पिता, पितामह, प्रपितामह को उनकी सदाशयता के साथ स्मरण करते हुए आह्वान किया जाता है। उनके स्वागत में बर्हि बिछाई जाती है, जिस पर आकर वे बैठते हैं, और उन्हें “कव्य” प्रदान किया जाता है।

दूसरे देशों की तुलना में हमारे यहाँ पितृपूजा का साहित्य और प्रयोगविज्ञान इतना समृद्ध है कि शास्त्रचर्चा के बिना ही सामान्य जन की इसमें गहरी पैठ हो जाती है । यह बात अलग है कि हमारा पितृ विषयक ज्ञान आज भी अधूरा और अस्पष्ट है । पितरों को तिलांजलि देकर , पिंडदान कर और ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर श्राध्द की पूर्णता मानने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। और तो और ,भोजन को ही श्राध्द मान लेने का रिवाज चल पड़ा है। श्राध्द के दिन अपने मतलब के लोगों को बुलाकर उन्हें “लंच” या “डिनर” देना पितृपूजा नहीं, यह बात कम लोगों को समझ में आती है । ऐसे बुलाये गए लोगों को “श्राध्दमित्र” कहा गया है।

आपस्तम्ब ने तो यहाँ तक लिखा है कि श्राध्द करने वाला यदि अपने सगे-सम्बंधियों और मिलने वालों को भोजन कराता है, तो वह भोजन भूत-प्रेतों के हिस्से में चला जाता है। इसलिए अदृश्य और अज्ञात प्राणियों के लिये चारों दिशाओं में हव्य डालने को श्राध्द का अनिवार्य अंग बनाया गया। श्राध्द कर्म पितृपक्ष में ही नहीं किया जाता , अपितु विवाह आदि शुभप्रसंगों पर भी किया जाता है। इस श्राध्द को “नांदी श्राध्द ” कहते हैं ।

ऋग्वेद के दशम मंडल में एक पितृसूक्त मिलता है, जिसमें सुंदर प्रार्थना के द्वारा पितरों का आह्वान किया गया है। सूक्त की एक ऋचा का भाव इस प्रकार है :
“वे सभी पितर जो हैं यहीं या नहीं हैं कहीं ,
जानते हैं हम या जिन्हें जानते ही नहीं ,
हे अग्नि ! जानते हो तुम निश्चय ही उन सभी को ,
आओ । उन सभी के संग स्वीकार करो
यज्ञ का यह श्रध्दा- प्रसंग।”

सामान्यतः माता-पिता की दिवंगत पीढ़ी को संयुक्त रूप से पितर कहा जाता है। माता-पिता हमारी वंश-परम्परा के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि हैं ।कालिदास ने “जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ” कहकर जगत के माता-पिता की वंदना की है। प्राचीन वैदिक परम्परा में तो ऋतु, मास, रात्रि, वनस्पति और प्राणिक जगत को पितर कहकर सम्बोधित किया गया है। इस तरह जो पर्यावरण हमारी रक्षा करता है , वह पितर ही है। इसलिये पितरों की स्मृति में वृक्ष लगना, प्याऊ बनवाया, औषधालय खुलवाना महत्व का कार्य समझा जाता है।

लोग अपने घरों के नाम पितृस्मृति, मातृस्मृति रखकर भी पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।

प्राचीन पितरों का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने आने वाली पीढ़ी के लिये सत्य, प्रकाश और अमृत का मार्ग प्रशस्त किया। इन पितरों के कई नाम बताये गये हैं, जिनमें आंगिरस, अथर्वण, वशिष्ठ, भृगु और नवग्वा प्रमुख हैं । फिर भी हमारी परम्परा वैवस्वत यम को पहला व्यक्ति मानती है, जिसने पितृलोक की दुनिया बसाई। प्राचीन ऋषि पितृलोक को अत्यंत उज्ज्वल और अमृतमय आकाश के रूप में देखते थे। उन्होंने इस लोक को पितरों की आध्यात्मिक विजय के रूप में भी देखा। यह लोक आनंद, उल्लास और राग-रागिनियो से सदैव भरा-पूरा है।

कहा जाता है कि नचिकेता ने सशरीर इस लोक की यात्रा की थी। वह वहाँ तीन दिन रह कर आया था, और यम से भी मिला था। प्रार्थना साहित्य में देवताओं के बाद पितरों का ही क्रम आता है। देवताओं को पाने के लिए भी पितरों का ही सहारा लेना पड़ता है। इसीलिए हम देवपूजा से पहले गोत्रोच्चारण के द्वारा अपनी पितृ-परम्परा का ध्यान करते हैं ।पितृपूजा का शुद्ध सात्विक रूप केवल इतना ही है कि हम आत्मा की अमरता में अपनी गहरी आस्था व्यक्त करें । हमारी पितृ-परम्परा आत्मा का ही रूप है ,और वही एकमात्र गंतव्य है। इसीलिए मनु ने कहा था – अमृत पथ पर चलते रहे पिता ,पितामह हमारे।रास्ता निर्द्वन्द्व अब वही है, बस वही है।।

मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों। साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।’ – वायु पुराण

श्राद्ध का मुहूर्त कब-कब है

पूर्णिमा तिथि की शुरुआत- 17 सितंबर की सुबह 11.44 बजे
पूर्णिमा तिथि का समापन- 18 सितंबर की सुबह 8.04 बजे
कुतुप मूहूर्त- सुबह 11:51 से दोपहर 12:40 बजे
रौहिण मूहूर्त- दोपहर 12:40 से 13:29 बजे
अपराह्न काल- 13:29 से 15:56 बजे

श्राद्ध की प्रमुख तिथियां कब-कब हैंपितृ पक्ष की शुरुआत- 17 सितंबर, 2024प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध- 18 सितंबर, 2024

द्वितीया तिथि का श्राद्ध- 19 सितंबर, 2024

तृतीया तिथि का श्राद्ध- 20 सितंबर, 2024

चतुर्थी तिथि का श्राद्ध- 21 सितंबर, 2024

पंचमी तिथि का श्राद्ध- 22 सितंबर, 2024

षष्ठी-सप्तमी तिथि का श्राद्ध- 23 सितंबर, 2024

अष्टमी तिथि का श्राद्ध- 24 सितंबर, 2024

नवमी तिथि का श्राद्ध- 25 सितंबर, 2024

दशमी तिथि का श्राद्ध- 26 सितंबर, 2024

एकादशी का श्राद्ध- 27 सितंबर, 2024

द्वादशी तिथि का श्राद्ध- 29 सितंबर, 2024

त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध- 30 सितंबर, 2024

चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध- 1 अक्टूबर, 2024

पितृ पक्ष का समापन- 2 अक्टूबर

मृत्युशैया की ओर हिंदी !

कवि अज्ञेय ने पाँच दशक पहले ही आगाह किया था: रोमन लिपि में हिन्दी लिखना इस के खात्मे की दिशा में पहला कदम है। वह कदम उठाया जा चुका है। पूरे देश में रोमन लिपि का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है।… हिन्दी को दिखावटी राजभाषा पद से मुक्त कर देने में सब का हित है। हमारे नेता और नीति-नियंता इस बात को जितना जल्द समझ लें, उतना ही हिन्दी का सम्मान बचेगा।

अब भारत में हिन्दी भाषा और समाज के हित में आवश्यक है कि इसे झूठे, दिखावटी राजत्व की अपमानजनक स्थिति से मुक्त कर दिया जाए। इस भाषा का अब उतना सम्मान भी नहीं जो आखिरी मुगल बादशाहों का था, जिन का राज बस ‘दिल्ली से पालम’ तक सिमट गया था। उलटे, कथित राजभाषा होने के नाम पर हिन्दी को सालो भर अन्य भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कर्मचारियों, आदि की नाराजगी का नाहक सामना करता पड़ता है।

इस तरह, आज भारत में हिन्दी मानो किसी राजा की ऐसी पटरानी है जिसे दरबार में कोई पूछता, देखता तक नहीं। न राजा को उस की परवाह हो, जिस की प्रेयसी कोई और हो। पर उसी पटरानी से रनिवास की अन्य सभी रानियाँ जलती, खार खाती, रोज जली-कटी सुनाती हों। बेचारी पटरानी असहाय यह सब झेलने को लाचार हो। क्या उस के लिए यह अधिक अच्छा न होगा कि उसे भी पटरानी की पदवी से मुक्त कर सामान्य रानी बना दिया जाए? ताकि वह अन्य रानियों के सहज बहनापे की तो पात्र हो सके! राजा और दरबारी तंत्र बेशक उस की उपेक्षा करता रहे।

यही स्थिति आज भारत में हिन्दी भाषा की बन चुकी। अतः सचमुच उपयुक्त होगा कि हिन्दी को झूठे राजत्व की दोहरी प्रवंचना से मुक्ति मिले। तब कालगति में वह अपना जो भी सही स्थान पा लेगी। अन्य भारतीय भाषाओं के बौद्धिकों, कर्मचारियों की नाहक कटूक्तियों से हिन्दी को छुटकारा मिलेगा तो उसे धीरे-धीरे स्वत: वह सदभाव पुनः मिल जाएगा, जो ब्रिटिश शासन काल में था। स्मरणीय है कि ब्रिटिश राज में हिन्दी को राष्ट्रीय कामकाज की भाषा बनाने के सभी प्रयत्न गुजराती, तमिल, बंगाली, आदि नेताओं, ज्ञानियों ने किए थे। गाँधीजी, राजगोपालाचारी, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आदि नाम सभी जानते हैं जिन्होंने तब हिन्दी की वह क्षमता और भूमिका पहचानी थी। किन्तु तब देश में हिन्दी वैसी ही एक भाषा थी जैसी तमिल या मराठी थी, जबकि देश के शासन और शिक्षितों की भाषा अंग्रेजी थी। आज हिन्दी को वही सामान्य स्थान, सभी भारतीय भाषाओं में एक – न कि राजभाषा – पुनः दे देना चाहिए।

ठंडे दिमाग से सोचें तो यह एक कल्याणकारी और राष्ट्रीय एकता बढ़ाने वाला काम होगा। वैसे भी, एकता को छिन्न-भिन्न करने, देशवासियों के बीच ईर्ष्या-द्वेष बढ़ाने के लिए अब काफी मुद्दे, विषय आ चुके हैं। इस के लिए हिन्दी का जो उपयोग हमारे नेतागण विगत छः दशकों से कर रहे हैं, वह अब खत्म किया जा सकता है। इस में किसी अहिन्दी भाषी नेता या बौद्धिक को आपत्ति न होगी।

वास्तव में, शिक्षा, बौद्धिक विमर्श, नीति-निर्माण और प्रशासन के क्षेत्र में केवल अंग्रेजी का औपचारिक स्थान बना देना हर तरह से ठीक रहेगा। यह व्यवहार में बहुत पहले स्थापित हो चुका, और अबाध बढ़ रहा है। हमारे नेता-प्रशासक भी इसे मानते हैं। यदि शंका हो, तो 1963 और 1976  के राजभाषा कानून और नियम की तुलना करके देख लें। 1976  के राजभाषा नियम का फिर 1986 , 2007  और 2011 में संशोधन भी किया गया है। क्रमशः सभी वास्तविक व्यवहार दिखाते हैं कि भारत गणतंत्र के सात दशक में अंग्रेजी और हिन्दी की स्थिति में उँच और नीच की खाई लगातार बढ़ती गई है। तब गिरी हुई पटरानी को एक अन्य रानी की तरह सामान्य स्थान दे देना अधिक मानवीय होगा।

उस से देश को कई लाभ भी होंगे। एक, दोहरी राजभाषा का नकली आडंबर सँभालने में होने वाले भारी खर्च, समय और ऊर्जा की बचत होगी। हर कर्मचारी और छात्र भी जानता है कि किसी भी नियम, नीति, दस्तावेज, आदि को प्रमाणिक रूप में जानना हो तो मूल अंग्रेजी वाला दस्तावेज ही पढ़ना ठीक है। वरना, ऊटपटाँग या यांत्रिक हिन्दी अनुवादों से कुछ भी समझने, करने में दोहरी-तेहरी मेहनत और झमेला उठाना पड़ता है।

दूसरा लाभ, केवल अंग्रेजी की औपचारिक प्रमुखता बना देने के बाद सभी विद्यार्थी अपनी भाषाई प्रवीणता पर निरुद्वेग ध्यान दे सकेंगे। केंद्रीय सेवाओं में केवल अंग्रेजी माध्यम से परीक्षा और इंटरव्यू होने से भाषाई भेद-भाव और बढ़ा-चढ़ाकर नंबर देने का प्रपंच खत्म हो सकेगा। इस से गुणवत्ता बढ़ेगी, तथा छात्रों, उम्मीदवारों और निरीक्षकों में अच्छी भाषा के महत्व के प्रति गंभीरता भी।

तीसरे, सभी भारतवासियों में इस विषय पर सदभावना बनेगी। तब जिस मलयाली, कन्नड़, या तेलुगू भाषी को हिन्दी साहित्य या समाज में रुचि होगी, वह सहजता से उसे प्राप्त करेगा। हिन्दी भाषी बड़बोले भी लफ्फाजी और झूठे घमंड से हिन्दी को चोट पहुँचाने से बाज आएंगे।

चौथे, हिन्दी भाषी लेखकों, कवियों, प्रकाशकों में अच्छे और सच्चे साहित्य के प्रति चिन्ता होगी। सजगता और निष्ठा उभरेगी। अभी, राजभाषा के नाम पर सालाना करोड़ों रूपयों की जैसी-तैसी पुस्तकों की खरीद के धंधे में बेकार, सतही, और घटिया पुस्तकें छापकर और थोक राजकीय खरीद में ठिकाने लगाकर आसान और मोटी कमाई व कमीशन का धंधा बन्द होगा। यह बंद होने पर ही सच्चे और अच्छे लेखन-प्रकाशन का मार्ग खुलेगा, जो अभी थोक घटिया छापने-बेचने में अवरुद्ध हो गया है। आज हिन्दी प्रकाशन में सब से उपेक्षित स्थान लेखक और पाठक का है। सारा महत्व धंधेबाज प्रकाशकों, बिचौलियों, और राजकीय कारकूनों का है – जो आपसी सहयोग से नियमित रूप से लाखों के वारे-न्यारे करते हैं। न उन्हें पाठक की परवाह है, न लेखक की। यह दयनीय स्थिति एकबारगी सुधर सकती है, यदि राजभाषा के नाम पर वैध लूट का यह जाली धंधा बन्द हो।

अंततः, यह भी अच्छा होगा कि केंद्रीय राजकीय संस्थानों में अहिन्दी भाषी अधिकारियों, कर्मचारियों में हिन्दी भाषी सहकर्मियों के प्रति एक खिंची नजर सीधी हो सकेगी। अभी स्थिति यह है कि यदि कोई सहकर्मी हिन्दी में कोई लेख, टिप्पणी साझा करे, तो अन्य भाषा-भाषी सहकर्मी इसे अपनी हेठी समझते हैं! मानो, उन्हें कष्ट देने या उपेक्षित करने के लिए ऐसा किया जाता है। यह भोली जलन खत्म हो तो सब का भला हो। अभी हमारी स्थिति समवेत रूप से यह है कि अंग्रेजी चाहे तमिल, असमिया, मणिपुरी, आदि सभी को आमूल समाप्त कर दे तो ठीक, किन्तु हिन्दी नहीं ‘थोपी’ जानी चाहिए। यह माँग और भावना बिलकुल सामान्य है, जिस का सम्मान होना ही चाहिए। तभी हिन्दी भी सम्मानित रह सकेगी। वरना, इस की स्थिति दिनों-दिन पतली भी हो रही है, और ऊपर से अपमान और तानाकशी भी झेलनी पड़ती है।

अब यूपी, बिहार, मप्र, आदि के सुदूर गाँव से भी ग्रामीण अपने हिन्दी संदेश रोमन में लिखकर जैसै-तैसे संप्रेषित करते हैं। आपस में भी। सब जानते हैं कि कामचलाऊ अंग्रेजी तो ठेला चलाने, सब्जी बेचने, कूरियर पहुँचाने वाले गरीब लडकों को भी जाननी ही है – वरना वे सड़क पर स्थान का नाम, ट्रैफिक निर्देश, पते, आदि नहीं पढ़ सकेंगे जो अब प्रायः केवल अंग्रेजी में रहते हैं। इसलिए जब कैसी भी अंग्रेजी जानना अपरिहार्य है, तो दो लिपियाँ सीखना क्या जरूरी!

लिहाजा, कथित हिन्दी क्षेत्र में भी हिन्दी धीमी परन्तु निश्चित मृत्यु की ओर बढ़ रही है‌। जैसे अन्य भारतीय भाषाएं भी। कवि अज्ञेय ने पाँच दशक पहले ही आगाह किया था: रोमन लिपि में हिन्दी लिखना इस के खात्मे की दिशा में पहला कदम है। वह कदम उठाया जा चुका है। पूरे देश में रोमन लिपि का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है।

यह ऐतिहासिक गति जैसी है, जिस से हमारे नेता चाहें तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकते हैं। कि उन्होंने कुछ नहीं किया है, सब स्वत: हुआ, उन का कोई दोष नहीं, आदि। किन्तु उन का यह दोष निश्चित रूप से है कि वे छीजती, मरती हिन्दी भाषा को अपने ही देशवासियों से नाहक अपमानित भी होने दे रहे हैं। हिन्दी को दिखावटी राजभाषा पद से मुक्त कर देने में सब का हित है। हमारे नेता और नीति-नियंता इस बात को जितना जल्द समझ लें, उतना ही हिन्दी का सम्मान बचेगा। आगे, हरि इच्छा!


(लेखक के बारे में – हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है) ।

साभार- https://www.nayaindia.com/ से 

आकाश से झरा, समुद्र में तिरा! (लघु भारत : मॉरिशस)

‘अर्रे अर्रे! यह क्या कर रही हैं आप माताजी?… छोड़िए!… छोड़िए!’’  मेरे बार-बार बरजने को दरकिनार करतीं वे तीनों वृद्ध महिलाएँ देखते ही देखते आगे बढ़ीं और मेरे पैर कसकर पकड़ लिए… मुझे काटो तो ख़ून नहीं… पत्थर-सी स्तब्ध मैं… अपने पैर छुड़ाने का प्रयास करने लगी, पर उनकी झुर्रियों से भरी मुट्ठियाँ काफ़ी मज़बूत थीं। टूटे-फूटे शब्दों और आँसू झरती आँखों से उन्होंने मुझे समझाया कि चूँकि ‘‘मेरी मातृभूमि भारत है और मैंने  बद्री-केदार की यात्रा भी की है… (जो कि भारत में एक साधारण और बेमानी-सी बात है।) उनके इस परम आनंद का कारण है… भौंचक-सी मैं कभी उनकी ओर देखती तो कभी बाईं ओर खड़ी बिंदु भाभी की ओर।

हालत यह थी कि मारे संकोच के मैं ज़मीन में गड़ी जा रही थी, पर उनके उद्गारों से मेरा हृदय गद्गद हो रहा था और मन हल्का हो आकाश में उड़ रहा था। भारत में जन्म लेने मात्र से ऐसा सुख! यह मेरी कल्पना के परे था। …मैंने हल्के हाथों से उन्हें हटाना चाहा, पर वे पैर छोड़ ही नहीं रही थीं। इसलिए मैं धीरे-धीरे पीछे की ओर खिसकने लगी… स्थिति यह बनी कि ऊबड़-खाबड़ बालू होने के कारण संतुलन बिगड़ गया और मैं धड़ाम से पीछे की ओर उटंगती-सी गिरती-पड़ती, ऊटपटांग ढंग से पसरती हुई बालू में बैठ गई… मेरी टाँगें सामने थीं और दोनों हाथ पीछे की ओर की ज़मीन थामे मेरी पीठ को सहारा दे रहे थे। यह दृश्य देख वे तीनों भी सकुचाकर घबरा गईं और इस चक्कर में मेरे पैर छूट गए। … दूसरे ही क्षण वे मेरे पास आईं और क्षमायाचना की तरह मिठास से भरे अपने हाथ मेरे बालों, चेहरे, पीठ, घुटनों आदि पर फेरने लगीं। मैं दंग थी… क्या सच मेरी मातृभूमि ऐसी महान है? जीवन में पहली बार अपने देश के प्रति मेरा हृदय ऐसा आलोड़ित हुआ कि आँखों की कोरें भींग गईं।

मित्रो, यह घटना घट रही है- मॉरिशस में !…भारत के गाँवों की तरह का यह दृश्य मुझे बाधित कर रहा है एक तुलनात्मक दृष्टिकोण के लिए। …यहाँ के परिवेश में प्रेम का समुद्र हिलोरंगे ले रहा है, जबकि आज हमारे यहाँ का ग्रामीण हमसे एक दूरी बनाए सहमा-सा दूर खड़ा रहकर अविश्वसनीय दृष्टि से हमें जाँचता रहता है- (वैसे उसका अविश्वास भी हम शहरियों की ही देन है)।

घटना यूँ घटी कि… मेरी आतिथेय बिंदु भाभी (उप प्रधान मंत्री प्रेम कुंजु की पत्नी) के साथ मॉरिशस के लुभावने समुद्र तट पर टहलते हुए मेरा ध्यान बरबस नारियल पेड़ों के नीचे ‘छीटों के घाघरे’ और ‘सफ़ेद ओढ़नी से सिर ढके’ बैठी हुई तीन बड़ी उम्र की महिलाओं की ओर गया। उनके झुर्रीदार चेहरे प्रसन्नता की आभा से दमक रहे थे। वे कत्थई रंग की शीशे की तश्तरी में सूजी का हलवा परोस कर एक-दूसरे को दे रही थीं। …पता नहीं क्यों, आरंभ से ही मेरा विचित्र स्वभाव बूढ़ों के प्रति एक विशेष लगाव महसूस करता है। इसलिए हाल ही में ‘बद्री-केदार’ की यात्रा से लौटी मैं लगभग दौड़ती-सी उनके क़रीब जाकर बोली थी, ‘‘क्या आपलोग बद्री धाम जाना चाहेंगी? …आप लोग भारत आ जाइए, आगे का सारा ख़र्च और इन्तज़ाम मेरा।’’ (तब तक मेरे तेज़ दौड़ते दिमाग़ ने एक कमख़र्ची योजना भी बना ली थी)। उन तीनों के हाथ रुक गए और वे ‘औसान-चूक’ (हक्का-ब़क़्का) सी मुझे ताकने लगीं। बिंदु भाभी ने जब आगे बढ़कर उन्हें भोजपुरी में मेरा आशय समझाया तो… उनकी आँखें, नाक, चेहरे की नसें, पूरी देह… जैसे तरल होकर आँसुओं की राह बहने लगे- और बस… वे सब उस बालू में…!!

दो-चार मिनट की विश्रांति के बाद जब उनसे चर्चा हुई तो पता चला कि वे ग़रीब हैं और रविवार को काम से छुट्टी होने के कारण आपस में बोलने-बतियाने, सूजी का नमकीन हलवा लेकर मन की भाप निकालने यहाँ आई हैं। बद्री-केदार तो दूर अब तो उनकी आत्मा भी मरने के बाद ही भारत जा पाएगी।…

यह तथ्य चौंकाने वाला था, क्योंकि हम सब इस भ्रम में थे कि 125-150 वर्ष पहले मॉरिशस आया यहाँ का हर भारतीय अब पूर्णत: खुशहाल है, अर्थात पैसे वाला है। मन में प्रश्न जागा- यहाँ भिखारी हैं नहीं? ‘घेटो’ में भी सिर्फ़ नशेड़ी और आलसी अफ्रीक़ी जूलू ही नज़र आ रहे हैं, …तो फिर ये महिलाएँ ग़रीब कैसे?… इस बात का खुलासा वहाँ रहने पर बाद में हुआ।…

मैडागास्कर के पूर्व में और अ़फ्रीका से 2000 किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में स्थित 1865 वर्ग किलोमीटर का ‘मॉरिशस’ अपनी 330 किलोमीटर की लुभावनी तटीय समृद्धि के लिए आज पूरे विश्व के पर्यटकों की आँखों का तारा बना हुआ है। कहने को तो हिन्दी सम्मेलन और कबीर परिसंवाद हमें यहाँ खींच लाए थे, पर दरअसल हम सब नीले आकाश से, गहरे नीले समुद्र में टपके उस ‘सितारे मॉरिशस’ के रूप के लालची थे, ‘जिसे चाँद की आँख से झरा और सागर की गोद में पला’ ‘मुक्तामणि’ कहा जाता है। जिस ज्वालामुखी ने फटकर मॉरिशस को जन्म दिया था, आज भी वहाँ के लोग उसे बहुत श्रद्धा से देखते हैं। उस 85 किलोमीटर गहरे और कई किलोमीटर चौड़े गर्त्त के अन्दर झाँकने से ऐसी तूफ़ानी हवा से साबिका पड़ता है कि डॉ. बालाशौरी रेड्डी ने घबराने का नाटक करते हुए हँसकर कहा, ‘‘भइया! ज़रा मुझे पकड़ो, कहीं मैं उड़ न जाऊँ।’’

यहाँ की दृश्यावली में कुछ खास न होने पर भी वहाँ खड़े होने पर एक अलौकिक अनुभूति होती है। लगता है आप पृथ्वी के गर्भमुख पर खड़े हैं, अस्तित्वहीन… तत्वहीन… देहहीन… और बस क्षणमात्र में ही यह अणुओं का राशिपुँज नश्वर शरीर हवा में बिखरकर बिला जाएगा।

हालाँकि मॉरिशस का यह हिस्सा न तो यहाँ के अधिकतर स्थानों की तरह हरियाली से… फूलों से… और फलों से लदा–फँदा है, ना ही इसके आसपास वे दुर्लभ ‘गुलाबी कबूतर’ हैं, जो ‘ऑक्स–एग्रेट्स’ में नज़र आते हैं… न ही यहाँ मॉरिशस के वे विशालकाय कमल–पत्र हैं जिनपर एक बच्चा आराम से बैठ या सो सकता है, …और न ही यहाँ मॉरिशस का वह जगत्प्रसिद्ध ‘तालीपॉट ताड़’ है, जो साठ साल में एक बार पूर्ण पुष्पित होता है और फिर मानों पूर्णता की गाथा कहकर मर जाता है। इन सबके बावजूद इस ज़मीन का मायावी आकर्षण आपको अपनी ओर खींचता ही है।….

ऐतिहासिक तथ्य है कि एक पुर्तगाली नाविक 1505 ई. में अकस्मात् यहाँ के समुद्र तट पर आ पहुँचा। उसकी लालची आँखों ने यहाँ की उर्वरित भूमि, ख़ुशगवार मौसम, समुद्र तट और स्वच्छ पर्यावरण का लेखा-जोखा तैयार किया और मॉरिशस को अपने राजा के नज़राने में प्रस्तुत कर दिया। अ़फ्रीका और भारत के सभी फलों, फूलों, सब्ज़ियों, पक्षियों और मछलियों का भंडार और उपजाऊ भूमि का मालिक मॉरिशस पश्चिमी देशों की आँखों में ‘कोहिनूर’-सा चमकने और खटकने लगा…।

अब यूरोप की तिज़ारती नस्ल भला इसे कैसे बख्श देती? देखते ही देखते दौर चल पड़ा इस पर आधिपत्य जमाने का। …पुर्त्तगालियों की मंशा से इसे सर्वप्रथम हड़पा हॉलैंड के ‘डच’ बंदों ने, और 1598 से 1712 ई. तक यहाँ राज किया। बाद में यहाँ फ्रांसिसियों का राज 1715 से 1810 तक चला। इसके बाद पेरिस संधि के अंतर्गत मॉरिशस 1814 से अंग्रेज़ों के कब्ज़े में आ गया। इसके कुछ ही वर्षों बाद इसका दोहन करने के लिए अंग्रेज़ों का ‘नरतांडव’ भारत में शुरू हुआ। इसका प्रमुख कारण था कि पश्चिमी देशों में गुलामी-प्रथा उठ जाने के कारण इन ‘गोरे राजकुमारों’ को दिन में तारे नज़र आने लगे थे और इन हुक्मरानों के सामने ढेरों-ढेर समस्यायें आन खड़ी हुई थीं। …ये ठहरे गोरी चमड़ी के मालिक!! इन्होंने तो सिर्फ़ ‘राज’ करना ही सीखा था ‘काज’ करना नहीं… अब ये करें तो क्या करें? ये सिर फोड़ने लगे कि कैसे अपना ‘राज’ बचाएँ? किसे कुचलें? किसकी जान लें, किसे ढूँढ़े, जो इनकी ज़मीनों में अपना शरीर और आत्मा खपा कर इनके लिए अनाप-शनाप उत्पादन करे? ऐसा कौन हो, जो जलते सूरज में टीलों पर स्थित इनके विशाल बंगले को सिल्क के पंखों से झलकर ठंडा रखे? …अब कौन सारे श्रमसाध्य और घटिया काम करे, जो आज तक इनके ग़ुलाम करते आए थे?…

इनका राजसी ठाठ-बाट कैसे चलता रहे, इसकी फ़िक्र इन्हें खाए जा रही थी कि इनके शैतानी दिमाग़ की खिड़की खुली और इन्होंने अंग्रेज़ों के ‘सूरज न डूबने वाले साम्राज्य’ के एक कोने में स्थित ‘भारत’ को कड़ी नज़र से घूरते हुए अपने ‘दलालों’ को हुक्म दिया-  ‘‘जाओ! धोखे से तुरंत उस देश के हट्टे-कट्टे जवानों को यहाँ बहकाकर ले आओ।’’ रक्षक ही जब भक्षक बन जाएँ, तो गुलामी प्रथा का क़ानून क्या करे? अभी भारत का ‘बिहारी’ सूखे की चपेट से गुज़रा ही था कि ‘अंग्रेज़ों के दल्लों’ ने उन्हें रोज़गार और समृद्धि के सब्ज़बाग़ दिखाए। …यहाँ का भोला-भाला मेहनतकश किसान उनके चंगुल में फँसता चला गया। …इस शिकंजे के इंद्रधनुषी रंगों में यह भी शामिल था कि ‘‘अरे! तुम्हें घर क्या ख़बर करनी है? अब तो तुम जल्दी ही पैसों से भरा संदूक लेकर लौटोगे, तभी सबको आश्चर्यजनक आह्लाद से भरना!! …तन पर केवल एक कपड़ा, और हाथ में रामचरितमानस की गुटका मात्र है तो क्या? चलो…चलो! तुम्हारे लिए वहाँ ॠद्धि-सिद्धि से पूर्ण समृद्धि का ख़जाना प्रतीक्षारत है।…सारी दुनिया की ख़ुशहाली बेसब्री से तुम्हारा इंतज़ार कर रही है! चलो… चलो!’’

अब ज़रा उस आह्लाद… खुशी और समृद्धि के इतिहास पर नज़र डालें :-

‘‘सड़ाक्… सड़ाक्… चिर्र.. चिर्र… झन्न-झन्नन्नन… ज़ंज़ीर-बेड़ी की कर्कश खनखनाती आवाज़ से… कान के पर्दे फट रहे हैं। जानवरों से भी बदतर स्थिति में मॉरिशस की जेटी पर भारतीय गुलाम  हाथ-पैर-पीठ सब कुछ बेड़ियों में बँधाए… अपनी फटी आँखों से उन खेतों को ढूँढ़ रहे हैं, जो उनके बच्चों के पेट में दो मुट्ठी अनाज पहुँचाएँगे। …मूसलाधार बारिश हो रही है और साथ ही कोड़ों की बरसात भी तेज हो रही है। भूखे पेट ने कुछेक को पूरा, तो कुछ को अधमरा कर दिया है। …अंग्रेज़ राजाओं के अनुसार यह उनकी ‘सिज़निंग’ (क्षमता बढ़ाना) है। …इस कठोर तपस्या से तपकर जो कुंदन निकलेगा उसका स्वर्णिम सुख भी तो ये ही भोगेंगे? पर आख़िर इस तपस्या! इस ‘सिज़निंग’ का क्या फल मिला उन्हें? …क्या हश्र हुआ उनका? …देखिए हश्र- गन्ने के खेतों में गहरे खूँटे गाड़ दिए गए हैं, जिनमें बँधी सांकलों से इन बेड़ीवाले मज़दूरों को कसकर बाँध दिया गया है… खुले आसमान के तले तपते सूरज, तेज़ बारिश, और ओलों की बौछार में चौबीसों घंटे खटने के लिए। उनकी पत्नियाँ कहीं दूर रख दी गई हैं, ताकि पति की अनुपस्थिति में उनपर अहर्निश बलात्कार होते रहें और बाक़ी समय में वे भी अपने आसपास के खेतों में काम करें। खेतों से बीने हुए रूखे-सूखे अनाज का दलिया लेकर वे कभी-कभार ही पतियों के पास खेतों पर जा पाती हैं। पति को ईद के चाँद की तरह कभी-कभार घर आने की अनुमति मिलती है। ऐसे में क्या अस्वाभाविक है कि एक ही माँ के एक नीली आँखों वाला सफ़ेद बुर्राक बच्चा पैदा हो और दूसरा साँवला। पर धन्य है स्वतंत्र मॉरिशस (ई. 1968)। स्वतंत्र गणतंत्र। (1992) में इन संतानों को ‘एक नज़र’ से देखा गया, …बिना किसी भेदभाव के? कितनी महीन और बारीक़ समझ है इस समाज की… कितना सत्यापित न्याय है यह जिसने एक बेबस, लाचार और मज़बूर स्त्री के दर्द को समझा और उसकी संतानों को हिक़ारत की जगह सम्मान से देखा। उस ‘जेटी’ को आज भी एक स्मारक की तरह ‘कुली जेटी’ के नाम से सुरक्षित रखा गया है।’’

अभिमन्यु अनत के लिखे इस ऐतिहासिक नाटक का मंचन जब हम मॉरिशस के प्रेक्षागृह में देख रहे थे, पूरा हॉल सुबकियों से भर गया था। सबकी सूजी हुई आँखें अपने रोने की कहानी कह रही थीं। यह सब देखना और सुनना इतना मर्मान्तक था कि घण्टों हम लोग चुप्पा-से हो गए और… ‘‘ऐ मइय्या! जहाज छूटैला’’ का दर्द हम सबके कानों में कई दिनों तक गूँजता रहा। आज भी मॉरिशस के जवान उस ‘कुली जेटी’ को साष्टांग दण्डवत करते हैं, जहाँ इनके पुरखों का ख़ून बहा था।

यह सही है कि भारतीय किसानों से भरे ये जहाज मॉरिशस से आगे डरबन, केपटाऊन, जोहानिसबर्ग, ट्रिनिडाड, टोबैगो, सूरीनाम तक गये थे और इधर फ़िजी तक… इन सभी देशों में भारतीय मूल के निवासियों ने अपने परिश्रम और सूझबूझ से अपनी आर्थिक स्थिति काफ़ी सुधार ली, पर इनके समाज और संस्कृति की स्थिति उतनी सुडौल नहीं रह पाई, जितनी मॉरिशस की। वैसे तुलसी का बिरवा, हनुमान मंदिर और ध्वजाएँ तो आपको सभी जगह दिख जाएँगी, पर हिन्दी भाषा और संसद में भारतीय मूल का वर्चस्व मॉरिशस में ही दिखेगा।

यहाँ के लोग क्रियोल (फ्रेंच और अ़फ्रीकन का सम्मिश्रण) और फ्रेंच भी बोलते हैं, पर एक बड़ी आबादी भोजपुरी मिश्रित हिन्दी में ही बातचीत करती है। जबकि डरबन आदि जगहों पर केवल नाम और सम्बोधन ही हिन्दी के बचे हैं, बाक़ी सब कुछ अंग्रेज़ी में है। मॉरिशसवासियों के नामों में एक विचित्र-सा परिदृश्य दिखाई पड़ा- ‘मुंशी प्रेमचंद’, ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’, ‘सत्येन बोस’ आदि नाम वहाँ बहुप्रचलित हैं। उपाधियों और जातियों समेत पूरे के पूरे, मसलन ‘सत्येन बोस होलास’, ‘मुंशी प्रेमचंद बोरचंद’ आदि। आखिर इसका कया कारण रहा होगा कि सात समुद्र पार घर-द्वार से बिछड़े… ये लोग ‘राम भजन’, ‘सीताराम’, ‘काशीनाथ’ अपने बच्चों का नाम देते हैं? …अख़बारों में से तैर कर भारतीय मिट्टी से निकले ये जगत प्रसिद्ध नाम जब इनके कानों तक पहुँचे, तो इन्होंने बहुत सम्मान से इन्हें अपने भविष्य को सौंप दिया। डरबन में मेरे एक मित्र का नाम ‘सीताराम रामभजन’ (विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष) है, लेकिन मॉरिशस में अब कम ही ‘देवधर गजाधर’ आदि मिलेंगे। अब उन्होंने नवीन (प्रधानमंत्री), प्रेम, माधव, धनंजय आदि ढेरों नामों को अपना लिया है। आज वे हर बात में ‘मॉरिशस’ को ‘छोटा भारत’ कहते सुनाई पड़ते हैं। …वैसे तो इन अन्य देशों में भी भारत के प्रति श्रद्धाभाव है, लेकिन मॉरिशस तो स्वयं को भारत का ही एक हिस्सा मानता है।

हालाँकि यहाँ चीनी और मुस्लिम बाशिंदे भी हैं, पर यहाँ की आबादी मुख्यत: हिन्दू धर्मवालों की ही है। इतिहास गवाह है कि यहाँ कभी भी… किसी भी क्षण… धर्म को लेकर हंगामा नहीं हुआ। ‘शिवरात्रि’ के पर्व पर ‘काँवड़िये’ कंधों पर काँवड़ रख ‘गंगा तालाब’ जाते हैं, तो उनके क्रिश्चियन और मुसलमान मित्र साथ-साथ चलते-दिखते हैं। दिवाली, ईद, उगादी (तेलुगु पर्व), गणेश चतुर्थी आदि के समानांतर ही ईसाइयों का ‘फादर लवाल’ एवं फरवरी में चीनियों का नववर्ष ‘वसन्त उत्सव’ के नाम से खूब धूमधाम से मनाये जाते हैं। अचरज हुआ यह देखकर कि यहाँ के घरों पर ताले दिखना तो दूर की बात, यहाँ पुलिस भी नाममात्र को ही है। यह पूछने पर कि यहाँ पुलिस की क्या भूमिका है पता चला कि ‘‘यदि आपने अपनी गाड़ी की चाबी, गाड़ी में ही रहने दी है, तो आपको जेल हो जाएगी।’’… ‘‘कारण?’’… ‘‘यदि कोई बच्चा उत्सुकतावश गाड़ी चला बैठे और मारा जाए, तो ‘मॉरिशस का राष्ट्रीय नुकसान’ होगा।… यहाँ आबादी कम है, और जान क़ीमती है?’’… ऐसी अनहोनी बात पर इस पापी मन को भला कैसे विश्वास होता! पर खोजबीन करने पर इसे सही पाया।

वहाँ दो-एक अजूबे और दिखे: …भारत में विशेषकर दिल्ली में सड़कों पर मंत्रियों का कारवाँ और कर्णभेदी सायरन की चीख़ एकदम साधारण बात है। जबकि ‘पोर्टलुई’ (मॉरिशस की राजधानी) की बासठ सदस्यों की संसद का हर सदस्य अपनी गाड़ी  ‘निषिद्ध इलाक़े’ से दूर खड़ी करवा कर पैदल संसद तक आता है, एकदम साधारण ढंग से रोज़मर्रा की आदत की तरह। हमलोगों ने स्वयं प्रधानमंत्री को फ़ाइलों का पुलिंदा हाथ में लिए संसद में आते देखा। सरकार की ओर से सबको एक से एक क़ीमती गाड़ियाँ (फ़ोन सहित) मुहैया हैं, पर उनके बच्चे बस का डंडा पकड़कर स्कूल जाते हैं। उप प्रधानमंत्री की पत्नी को घर का सारा काम ख़ुद करना पड़ता है- खाना बनाना, कपड़े धोना, घर पोंछना आदि-आदि… सब कुछ। इसे सच मानिए! क्योंकि यह मेरा स्वयं का देखा सत्य है।

मॉरिशस के पर्यटन उद्योग, कपड़ा उद्योग, चीनी उद्योग और अब सूचना प्रौद्योगिकी (आई.टी.) ने यहाँ रोज़गार के असंख्य साधन उपलब्ध करवा दिए हैं और यहाँ का आम आदमी काफ़ी ख़ुशहाल है। यहाँ आज तक डकैती और चोरी की घटना नहीं हुई है, …न ही यहाँ कोई भिखारी दिखाई पड़ता है। तो क्या यह स्वर्ग है? नहीं, यहाँ भी उन महिलाओं की तरह ही कई क़िस्मत के मारे लोग हैं, जिनके घर-परिवार में कोई नहीं है। सरकार की पेंशन के बावजूद इस उम्र में भी उन्हें कुछ काम करना पड़ता है। वैसे यहाँ उन्हें रहने, खाने-पीने-पहनने- ओढ़ने की कोई तकलीफ़ नहीं है। …वैसे भी इसे संसार का आठवाँ आश्चर्य ही मानना चाहिए कि यहाँ मंत्रियों समेत किसी का भी लम्बा-चौड़ा बैंक बैलेंस नहीं है। एक बार सरकार गिर जाने पर एक उप प्रधानमंत्री की दयनीय आर्थिक स्थिति की मैं साक्षी हूँ।

‘मॉरिशस’ की अपने नागरिक से बस एक ही अपेक्षा है- आप कर्मठ जीवन जीना सीखें। बैठे-ठाले का यहाँ भगवान भी मालिक नहीं है। यहाँ के ‘घेटो’ इसका सत्यापन करते हैं।…

मॉरिशस एक ऐसा अनुभव है, जो अपनी स्मृति मात्र से ही हृदय में जवाफूल, कमल-पुष्पों और चम्पाओं की ख़ुशबू भर देता है। आपकी रसना- वहाँ के रसीले आम और लीची के लिए ललचाने लगती हैं और शरीफ़े? यहाँ उसे रामफल कहते हैं, आपकी समस्त इंद्रियों को तृप्त कर देते हैं।… वहाँ की हवा… नारियल के दरख़्तों से भरा समुद्र तट… उसके अन्दर बसे मूँगा-प्रवाल के पहाड़ (जिन्हें काँच से बने तलों की नौकाओं से देखने का नायाब सुख…) ये आपके स्मृति पटल पर हमेशा स्फटिक मणि-से कौंधते रहते हैं। इस अनुभव को आप चाहकर भी अपने स्मृति पटल से नहीं पोंछ सकते। … विशेषकर सफ़ेद बालू के अन्दर आतीं नीली लहरें! …आपके सर्वस्व को स्वयं में तिरोहित कर… उस समुद्र की ही एक बूँद बना लेती है… तब आप अपने न होने से दु:खी नहीं… बल्कि एक ऐसे अवर्चनीय आनन्द से भर जाते हैं- जो वाक और अर्थ की सीमा के परे है… और इसे (बस) केवल अनुभव ही किया जा सकता है…

(लेखिका के बारे में- ‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
संपर्क सूत्र : 3 लाउडन स्ट्रीट, कोलकता-700017

भारत की अंतरिक्ष कूटनीति : सतत विकास और क्षेत्रीय सहयोग के लिए साझेदारी

भारत का लक्ष्य अंतरिक्ष के क्षेत्र में वैश्विक खिलाड़ी के रूप में अपनी भूमिका बढ़ाना है. इसके लिए वो सस्ती प्रौद्योगिकी और ग्लोबल साउश के देशों के साथ सहयोगात्मक प्रयासों के माध्यम से अंतरिक्ष तकनीकी में पहले क्षेत्रीय नेता और फिर वैश्विक ताक़त बनना चाहता है.

हाल ही में भारत ने 23 अगस्त 2024 को अपना पहला राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस मनाया. इस कार्यक्रम की थीम थी ‘चांद पर जाकर ज़िंदगी को छूना: भारत की अंतरिक्ष गाथा’. भारत की अंतरिक्ष यात्रा एक ऐसे समय में सफल हो रही है, जब अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक मंच पर अतंरिक्ष के क्षेत्र पर काफ़ी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है. विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) के मुताबिक 2035 तक वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था के 1.8 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, जो 2023 में 630 मिलियन डॉलर से कुछ ही ज़्यादा थी. अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था कई उद्देश्यों को पूरा करती है, जैसे कि हमारे रोज़मर्रा के कामकाज को सुनिश्चित करने में सैटेलाइट्स की प्रमुखता बढ़ाना, आपदा का सामना करने की तैयारियों को लेकर मौसम की सटीक भविष्यवाणी, कृषि के लिए रिमोट सेंसिंग तकनीक, जल संसाधन प्रबंधन, शैक्षिक गतिविधियों को सुविधाजनक बनाना, टेलीमेडिसिन को बढ़ावा देना, और बड़े पैमाने पर सतत विकास और स्थिरता के नैरेटिव में योगदान देना.

भारत की अंतरिक्ष यात्रा एक ऐसे समय में सफल हो रही है, जब अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक मंच पर अतंरिक्ष के क्षेत्र पर काफ़ी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है.

बाहरी अंतरिक्ष क्षेत्र में मिलने वाली सफलता विकास साझेदारी के माध्यम से क्षमता निर्माण को बढ़ावा देती है. इतना ही नहीं इसकी मदद से सैन्यीकरण और प्रौद्योगिकियों का शस्त्रीकरण करके उन्नत देश अपने महत्वपूर्ण रणनीतिक उद्देश्यों को भी पूरा करते हैं. शायद ये साइबर युद्ध और क्षुद्रग्रहों (एस्टोरॉइड्स) और चंद्रमा जैसे खगोलीय पिंडों पर संसाधनों के खनन का परिणाम भी हो सकता है. इस लिहाज से देखें तो विकासशील देशों के लिए ये बात बहुत महत्वपूर्ण है कि वो भी अंतरिक्ष कूटनीति में शामिल हों.

इससे वो विदेश नीति के उद्देश्यों और अपने विकास लक्ष्यों को साकार कर सकेंगे. उन्हें भी घरेलू अंतरिक्ष क्षमताओं को बढ़ाने के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने की कोशिश करनी चाहिए. इससे वैश्विक अंतरिक्ष कार्यक्रम में उनकी अपनी हिस्सेदारी भी बनी रहेगी. दरअसल, कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से विकासशील देशों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में निवेश और उसका विकास करना एक चुनौती है. हालांकि भारत के लिए, अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ, अंतरिक्ष कूटनीति क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है. इससे स्थिरता के एजेंडे को भी बढ़ावा मिलता है.

अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी की वर्तमान स्थिति: ग्लोबल नॉर्थ बनाम ग्लोबल साउथ
बाहरी अंतरिक्ष से संबंधित मामलों की देखरेख और निगरानी करने के लिए दो अंतर्राष्ट्रीय निकाय बनाए गए हैं. ये हैं बाहरी अंतरिक्ष मामलों के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNOOSA) और बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र समिति (COPUOS). इन दोनों संगठनों के काम और उनके फैसलों में स्थायी पांच देशों का बहुत ज़्यादा प्रभाव होता है. इन पांच में से चार देश ग्लोबल नॉर्थ से संबंधित हैं. इन संगठनों पर ग्लोबल नॉर्थ के प्रभाव और दबाव की वजह से बाहरी अंतरिक्ष के क्षेत्र में नवउपनिवेशवाद की चिंताएं पैदा होती हैं, क्योंकि अंतरिक्ष शोध में सच्चे ‘विजेता’ वो हैं, जिनके पास पहले से ही प्रभावित करने की शक्ति है और जिनकी आर्थिक क्षमताएं मज़बूत हैं.

उदाहरण के लिये अमेरिका की शीर्ष अंतरिक्ष संस्था, नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) ने साल 2023 में साइकी नाम के एस्टोरॉइड का पता लगाने के लिये “साइकी” अंतरिक्ष यान लॉन्च किया, जो अद्वितीय धातुओं की दृष्टि से बहुत ज़्यादा समृद्ध है. ये संभावित रूप से अमेरिका को अपने फायदे के लिए एस्टोरॉइड के संसाधनों का खनन करने की मंजूरी देगा.

अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर यूरोपीय संघ (ईयू) की वतर्मान में जो पहल चल रही है, उसे ‘कोपरनिकस’ कार्यक्रम कहा जाता है. इसका मुख्य काम सुरक्षा और निगरानी का है. इससे यूरोपीय संघ की सीमा की निगरानी, अवैध इमिग्रेशन का पता लगाने और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे पर नज़र रखने में मदद मिलेगी.

अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर यूरोपीय संघ (ईयू) की वतर्मान में जो पहल चल रही है, उसे ‘कोपरनिकस’ कार्यक्रम कहा जाता है. इसका मुख्य काम सुरक्षा और निगरानी का है. इससे यूरोपीय संघ की सीमा की निगरानी, अवैध इमिग्रेशन का पता लगाने और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे पर नज़र रखने में मदद मिलेगी. हालांकि, इसके घोषणापत्र में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन संघर्ष के समय कोपरनिकस का इस्तेमाल सैन्य निगरानी के लिए या फिर किसी तरह के ख़तरों के ख़िलाफ समय रहते कार्रवाई करने के लिए किया जा सकता है. चीन ने सह-कक्षीय एंटी-सैटेलाइट (ASAT) प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन किया. ये ‘गैर-सहयोगात्मक’ लक्ष्यों से जुड़ सकता है. उन्हें अक्षम कर सकता है.यहां तक कि उन्हें नष्ट कर सकता है. ये भारत और बाहरी अंतरिक्ष में उसके रणनीतिक इरादे के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है. ASAT के माध्यम से चीन की बढ़ती अंतरिक्ष शक्ति ने भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए अंतरिक्ष शस्त्रीकरण प्रौद्योगिकियों में अपनी क्षमताओं में निवेश करने के लिए मजबूर किया है.

ग्लोबल नॉर्थ के देशों की मज़बूत आर्थिक स्थिति और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों तक शुरुआती पहुंच के फायदे की वजह से उनके पास ग्लोबल साउथ के राष्ट्रों पर एक महत्वपूर्ण और निश्चित बढ़त है. वालरस्टीन के ‘कोर’, ‘अर्ध-परिधि’ और ‘परिधि’ देशों के लेंस के माध्यम से विकसित देशों ने “कोर” पर कब्जा कर लिया है. ऐसे में विकासशील देशों, जिनमें से अधिकांश को ‘परिधि’ के रूप में देखा जाता है, को अंतरिक्ष क्षेत्र में शोध के लिए खुद अवसरों का निर्माण करना चाहिए. इन देशों को लंबे समय में अंतरिक्ष कूटनीति के अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाना चाहिए. इस संदर्भ में देखें तो बाहरी अंतरिक्ष शासन में अपनी जगह बनाने की कोशिश में ग्लोबल साउथ के देशों के बीच कई पहल हुई हैं. (तालिका-1)

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग (आईआईआरएस) और एशिया और प्रशांत में संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी शिक्षा केंद्र (सीएसएसटीईएपी) के माध्यम से भारत विशेषज्ञता की सुविधा प्रदान करता है और सूचनाएं साझा करता है.

उन्नति (यूनिस्पेस नैनोसैटेलाइट असेंबली और ट्रेनिंग, UNNATI), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा संचालित नैनोसैटेलाइट के संयोजन और निर्माण का एक अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम है।

दक्षिण पूर्व एशिया में रिमोट सेंसिंग की सुविधा देने के लिए वियतनाम में भारत एक बड़े केंद्र का निर्माण कर रहा है. इस सेंटर से अंतरिक्ष-आधारित प्रणाली के संचालन की विश्वसनीय सुविधा दी जाएगी.

लैटिन अमेरिकी और कैरेबियाई देश
अमेरिका के साथ साझा सहयोग के माध्यम से, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) ने इटली और अर्जेंटीना के साथ मिलकर कई सैटेलाइट लॉन्च किए हैं. इसके अलावा इसने चीन के साथ भी अपना सहयोग बढ़ाया है

महासागरों की निगरानी के लिए अर्जेंटीना और ब्राज़ील संयुक्त रूप से SABIA Mar सैटेलाइट बना रहे हैं.

इक्वाडोर, मैक्सिको और कोलंबिया के बीच LATCOSMOS-C कार्यक्रम का लक्ष्य लैटिन अमेरिका से पहला क्रू मिशन लॉन्च करना है. यानी इस कार्यक्रम के तहत अंतरिक्ष यात्री भेजने का लक्ष्य है.

अफ्रीका
मिस्र की अंतरिक्ष एजेंसी ने 50 से अधिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं. पृथ्वी के अवलोकन, रिमोट सेंसिंग और जल प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करते हुए उसने चीन, अमेरिका, कनाडा, यूरोपीय संघ और जापान के साथ संयुक्त सहयोगी तंत्र भी बनाए हैं.नाइजीरिया ने आपदा प्रबंधन तारामंडल और अफ्रीकी संसाधन प्रबंधन तारामंडल के हिस्से के रूप में सैटेलाइट भी लॉन्च किए हैं.दक्षिण अफ्रीकी अंतरिक्ष एजेंसी धीरे-धीरे भारत, फ्रांस, रूस और अन्य अफ्रीकी देशों के साथ सहयोग बढ़ा रही है.

दक्षिणपूर्व एशिया
वियतनाम ने भी अंतरिक्ष क्षमताओं का निर्माण किया है.  अंतरिक्ष सहयोग के क्षेत्र में वो जापान, इज़राइल और नीदरलैंड के साथ अपनी तकनीकी क्षमताओं का निर्माण कर रहा है.स्पेस टेक्नोलॉजी और एप्लीकेशन पर आसियान की उप-समिति (एससीओएसए) अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोगात्मक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों, क्षमता निर्माण, तकनीकी के हस्तांतरण आदि के लिए आसियान देशों के बीच अंतरिक्ष सहयोग की सुविधा प्रदान करती है.
स्रोत: Namdeo & Vera, 2023

भारत की अंतरिक्ष कूटनीति
भारत समेत ज़्यादातर विकासशील देश अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए,एक हद तक, पश्चिमी देशों या फिर चीन से उन्नत राष्ट्रों पर निर्भर हैं. इसके अलावा अंतरिक्ष की खोज संबंधित गतिविधियों में उनकी भागीदारी ‘डेटा एकत्र करने और संचारित करने’ के आस-पास घूमती है, जिससे इन देशों की आबादी के बीच कनेक्टिविटी बढ़ाई जा सके और इस तरह उन्हें भी विकास की सुविधा मिल सके. हालांकि भारत अब अंतरिक्ष कूटनीति को आगे बढ़ाने और सतत विकास को नए स्तर पर ले जाने की कोशिश कर रहा है. इससे ना सिर्फ भारत के स्पेस प्रोग्राम में प्रगति हो रही है, बल्कि ग्लोबल साउथ में अन्य देशों के विकास में भी मदद मिली है. उदाहरण के लिये भारत ने 2019 में नेटवर्क फॉर स्पेस ऑब्जेक्ट ट्रैकिंग एंड एनालिसिस (NETRA ) प्रोजेक्ट किया था.

ये स्पेस सिचुएशनल अवेयरनेस (एसएसए) प्रणाली मलबे और अन्य खतरों का पता लगाने के लिये बाहरी अंतरिक्ष में प्रारंभिक चेतावनी प्रदान करती है. इससे मिलने वाली जानकारी को अन्य विकासशील देशों के साथ साझा किया जा सकता है, जिससे उन्हें अपनी एसएसए पहलों में मदद मिल सके. भारत की कम लागत वाली और उचित प्रक्षेपण सेवाओं, विशेष रूप से इसरो के ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है. इसके अलावा, भारत के पास सक्रिय रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स का सबसे बड़ा समूह है जो EOS-06 (2022) और EOS-07 (2023) जैसे पृथ्वी अवलोकन को प्राथमिकता देता है.
इन उपग्रहों से मिले डेटा का उपयोग कृषि, जल संसाधन और शहरी योजना जैसे क्षेत्रों में किया जा सकता है. बाहरी अंतरिक्ष में अपनी कूटनीति की पहल के हिस्से के रूप में भारत अपने क्षेत्रीय सहयोगियों और अन्य विकासशील देशों के साथ अपने विकास लक्ष्यों को सुविधाजनक बनाने के लिए ऐसी जानकारी साझा कर सकता है.

इसके अलावा, 2017 में इसरो ने साउथ एशिया सैटेलाइट (एसएएस) भी लॉन्च किया, जिसे GSAT-9 के रूप में भी जाना जाता है. ये एक जियोस्टेशनरी यानी भूस्थिर संचार उपग्रह है, जो “दक्षिण एशियाई देशों पर पर कवरेज़ के साथ KU-बैंड के तहत विभिन्न संचार अनुप्रयोगों को सुविधा प्रदान करता है. GSAT-9 की कुछ प्रमुख विशेषताओं में दूरदराज के क्षेत्रों में बेहतर बैंकिंग प्रणालियों और शिक्षा के लिए दूरसंचार संपर्क बढ़ाना शामिल है. इसके साथ ही GSAT-9 की मदद से उपयोगी प्राकृतिक संसाधनों का मानचित्रण, प्राकृतिक आपदाओं के लिए मौसम का पूर्वानुमान, स्वास्थ्य परामर्श और अन्य संबद्ध सेवाओं के लिए लोगों से लोगों के बीच संपर्क प्रदान करने जैसे सुविधाएं मिलती हैं.

भारत को स्पेस प्रोग्राम के विकास में एक प्रमुख क्षेत्रीय ताक़त और अंतरिक्ष कूटनीति में एक वैश्विक खिलाड़ी बनने के अपने प्राथमिक उद्देश्य पर नज़र बनाए रखनी चाहिए. इस संदर्भ में देखें तो पीएम मोदी द्वारा GSAT-9 को दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक ‘उपहार’ बताना प्रासंगिक घोषणा है.

इससे स्पष्ट है कि सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने के लिए अपने पड़ोसी देशों के सामाजिक-आर्थिक विकास को सुविधाजनक बनाने का भारत का एजेंडा उल्लेखनीय है. फिर भी, भारत को स्पेस प्रोग्राम के विकास में एक प्रमुख क्षेत्रीय ताक़त और अंतरिक्ष कूटनीति में एक वैश्विक खिलाड़ी बनने के अपने प्राथमिक उद्देश्य पर नज़र बनाए रखनी चाहिए. इस संदर्भ में देखें तो पीएम मोदी द्वारा GSAT-9 को दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक ‘उपहार’ बताना प्रासंगिक घोषणा है. ये शायद बाहरी अंतरिक्ष में क्षेत्रीय एकता और बड़े सहयोग की वकालत करने वाला भारत का सबसे मज़बूत संकेत भी था. इसके अलावा, हाल के बजटीय आवंटन में अंतरिक्ष विभाग के लिए 13,042.75 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया. ये पिछले वित्तीय वर्ष से 498.84 करोड़ रुपये अधिक है.
अब आगे क्या?
चूंकि कई विकासशील देशों, विशेष रूप से दक्षिण एशिया के देशों के पास, अपने खुद के अंतरिक्ष कार्यक्रमों और प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के साधनों की कमी है, इसलिए ग्लोबल साउथ के लिए अंतरिक्ष कूटनीति चुनौतियों से भरी है. बड़े पैमाने पर पैसों की आवश्यकता के अलावा, कई विकासशील देशों की परस्पर विरोधी प्राथमिकताएं, अलग-अलग उद्देश्य और इस क्षेत्र की सीमित समझ है. स्वाभाविक रूप से, वैश्विक बहुसंकट और भू-राजनीतिक प्रवाह के कारण विकासशील देशों की अलग-अलग अंतरिक्ष कूटनीति प्राथमिकताओं के बीच तालमेल बनाना चुनौतीपूर्ण है. विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि ग्लोबल साउथ के देशों में अंतरिक्ष कूटनीति पर राजनीतिक इच्छाशक्ति और स्पष्ट रणनीतिक या नीतिगत ढांचे की भी कमी है. इसकी वजह से इन देशों के बीच अंतरिक्ष सहयोग की पहल अस्थायी और अस्थिर होती है, जो कभी भी विफल हो सकती है.

इसके अलावा जब बात निवेश, तकनीकी कौशल, मानव संसाधन और नियामक तंत्र की आती है तो उन्नत देशों पर बहुत ज़्यादा निर्भरता होती है. इससे विकासशील देशों की संप्रभुता के अतिक्रमण और ऋण के जाल जैसे भू-राजनीतिक ख़तरे पैदा हो सकते हैं. इसकी वजह से लंबे समय में उनके फैसले लेने की शक्ति कम हो सकती है.

इस लिहाज से देखें तो सतत विकास पर ग्लोबल साउथ के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिये भारत की अंतरिक्ष पहल ज़रूरी हो जाती है, क्योंकि इससे कम लागत वाले विकासात्मक समाधानों को अहमियत मिलती है. अपनी G20 अध्यक्षता के हिस्से के रूप में भारत ने वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट के माध्यम से विकासशील देशों को एक मंच प्रदान करने की बात कही थी. ऐसे में अंतरिक्ष कूटनीति में भारत की पहल ना सिर्फ दक्षिण-दक्षिण सहयोग (SSC) बल्कि उत्तर-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में एक उल्लेखनीय कदम है. भरत ने साथी विकासशील देशों के साथ अपने विकास के अनुभव को साझा करने का जो वादा किया है, वो ग्लोबल साउथ की अंतरिक्ष कूटनीति में अंतर को पाटने के लिए उपयोगी साबित हो सकता है. हालांकि इन देशों के बीच जो भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है, वो बड़े स्थिरता के उद्देश्य को कमज़ोर करती है. फिर भी ये देखना दिलचस्प होगा कि भारत आने वाले वर्षों में अपनी अंतरिक्ष कूटनीति के माध्यम से क्षेत्रीय सहयोग को कैसे बढ़ावा देता है.

स्वाति प्रभु ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं
अरित्रा घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं

(चित्र सौजन्य से गेटी इमेज)
साभार-  orfonline.org/hindi से