भावों की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम भाषा है। लिखकर, बोलकर या संकेतों के द्वारा अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त किया जाता है। भाषा संप्रेषण के यही तीन रूप हैं, लेकिन जैसे-जैसे भाषा का विस्तार होता है, उसके लिखित और मौखिक दोनों रूपों में भिन्नता आने लगती है। ऐसी स्थिति में शिष्ट तथा सुशिक्षितजन द्वारा व्यवहार में लाया जाने वाला भाषा का लिखित या लिपि-रूप ही मानक-रूप कहलाता है।
फिलवक्त मैं बता दूँ कि भाषा का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है, जबकि बोली एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती है। एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ और एक बोली के अंतर्गत कई उपबोलियाँ हो सकती हैं। बोली का संबंध ग्राम या मंडल से होता है, बोली को तभी तक बोली कहा जाता है, जब तक कि उसे साहित्य में महत्त्व प्राप्त न हो। बोलियों के बनने का प्रमुख कारण भौगोलिक होता है, इसी वजह से मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के बोलचाल के लहजे को मालवी बोली के नाम से जाना जाता है। मालवी में कहा गया है कि ‘बारा कोस पे बानी बदले पाँच कोस पे पानी’।
वर्तमान में मालवा विंध्य पर्वत श्रेणी के उत्तर में फैला एक विस्तृत पठार है। इसके अंतर्गत संपूर्ण पश्चिमी मध्य प्रदेश और उसके सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिले शामिल हैं, जहाँ मालवी बोली बोली जाती है। वस्तुतः अवंती जनपद (उज्जैन) में मालवगण की सत्ता होने के कारण यह क्षेत्र ‘मालवा’ कहलाया। यही कारण है कि मालवी का केंद्र भी उज्जैन और इंदौर ही है। इस क्षेत्र में आदर्श मालवी बोली जाती है। हालाँकि मालवी की कुछ उपबोलियाँ भी हैं, जैसे रजवाड़ी, सोंधवाड़ी, उमठवाड़ी और भीली। मालवी बहुत ही मीठी बोली है, इसमें काफी मात्रा में लोक-साहित्य रचा गया है, कथा-वार्त्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली और लोकोक्ति के माध्यम से मालवा की संस्कृति को समझा जा सकता है।
अभी हम सिर्फ लोकोक्ति की बात करते हैं, अगर भाषा की समृद्धि और सभ्यता का विकास देखना है तो वह मुहावरों, लोकोक्तियों और कहावतों में देखा जा सकता है। जब जीवन के दीर्घकाल के अनुभव को छोटे वाक्यों में कहा जाता है तो वह कहावत कहलाती है। कहावत को ही मालवी में केनावत या ओखाण या केवाड़ा कहते हैं। सामाजिक जीवन के सुख-दुःख के तमाम अनुभवों को मालवी की केनावतों या कहें कहावतों में बड़ी खूबसूरती से बयाँ किया गया है। जैसे एक कहावत है—‘फोड़ा पड़ना, यानी मुसीबत आना’।
इसी प्रकार नीति, कृषि, स्वास्थ्य, परंपरा और सामाजिक रीति-रिवाजों पर कई कहावतें मालवा क्षेत्र में समय-समय पर सुनी जा सकती हैं। मालवा क्षेत्र के उन बुजुर्गों की अवश्य ही दाद देना पड़ेगी, जिनके व्यापक अनुभव ने आगे की पीढ़ी को जीने की सही राह बताई है। उनके अनुभवों से निकली तमाम कहावतों का थोड़ा आनंद लें।
एक कहावत तो मालवा के संदर्भ में ही है—‘मालव माटी गहन गंभीर डग-डग रोटी, पग-पग नीर।’
१. मूर्ख व्यक्ति को लेकर मालवी बोली में कहावतों का पहाड़ सा खड़ा है—
अक्कल को ढाँढो—निरा गँवार आदमी, अर्थात् जिस व्यक्ति में ढाँढे (पशु) जितनी बुद्धि हो उसके लिए यह कहावत बोली जाती है।
डांस, मकोड़ा, अजाण नर टूटे पण छूटे नी—डांस और मकोड़ा जब शरीर से चिपक जाते हैं तो वे फिर निकलते नहीं हैं, चाहे उनके दो टुकड़े क्यों न हो जाएँ। ठीक उसी प्रकार अजाण या मूर्ख व्यक्ति होते हैं, जो अपनी जिद में स्वयं का ही नुकसान कर बैठते हैं।
घोंघा बसंत—ऐसा मूर्ख, जो अपना भला-बुरा न जानता हो।
रामाजी—भोला परंतु मूर्खतापूर्ण हरकतें करने वाला आदमी।
गेली ग्यारस—ऐसा व्यक्ति जो ज्ञान शून्य हो। रामाजी टाइप।
गँवार खा मरे के उठा मरे—गँवार व्यक्ति कोई भी काम करे, वह स्वयं की हानि तो करेगा ही दूसरे को भी अपने लपेटे में ले लेगा।
२. बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहने या व्यर्थ की डींगें हाँकने वालों के लिए भी मालवी बोली में कहावतों का खजाना भरा पड़ा है—
ढपोर शंख—इस कहावत को लेकर मालवा क्षेत्र में एक कहानी प्रचलित है, जिसमें एक आदमी को कहीं से एक ढपोर नाम का एक शंख मिलता है, जो सिर्फ काम पूरा करने या इच्छित वस्तु देने का वादा करता है, किंतु देता कभी नहीं। जब इस प्रकार से कोई ऊँची-ऊँची छोड़ता है, तब ऐसे आदमी को ढपोर शंख कहा जाता है।
साहुकारी भरम की बैराँ जात शरम की—साहूकार वही जो पूँजीपति हो, लेकिन कुछ न होते हुए भी जो ऐसा भ्रम फैलाकर रखे कि मैं बड़ा साहूकार हूँ, उसके लिए यह कहावत सौ टका सही है। वाक्य का वजन बढ़ाने के लिए यहाँ एक बात और जोड़ दी कि बैराँ (स्त्री) वही जिसके पास लाज रूपी गहना हो।
के रांड पटेल—फर्जी पदवी पाने की अभिलाषा। दरअसल गाँवों में पंचायत के प्रमुख को पटेल कहा जाता है और उसका तथा उसकी बातों का बड़ा सम्मान किया जाता है। अब जो व्यक्ति कुछ न होते हुए भी यह चाह रखता है कि सब मुझे पटेल कहकर नमस्कार करें, तब ऐसे झूठे आदमी के लिए यह कहावत कही जाती है।
फाक सुपदंड घोण से की तनखा—अपने आप को किसी बड़े पद पर बताना और मूँछों पर ताव देते हुए घूमना कि मैं ये हूँ, मैं वो हूँ, जबकि हकीकत यह है कि प्राप्त तनख्वाह से घर चलाना भी मुश्किल हो रहा है। घर में भले ही फाके पड़ रहे हैं, लेकिन शान जो दिखानी है।
उधारी भोई नचावे—भोई एक नाटक कंपनी को कहते हैं, जो गाँव-गाँव घूमा करती थी और गाँव का धनी आदमी अपने पैसे से भोई नचवाता था, लेकिन जो व्यक्ति झूठी शान दिखाने के खातिर भोई नचाने के लिए उधार तक ले लेता था, तब यह कहावत कही जाती थी।
मरद का दीवाला मसाण में—समाज में स्वयं को प्रतिष्ठित दिखाने के लिए जब कोई व्यक्ति कर्ज में डूब जाता है और चारों तरफ से बुरी तरह फँस जाता है, तब कहा जाता है कि मरद का दीवाला मसाण में यानी ये झूठी शान ही उसकी मौत का कारण बनेगी।
ओछी पूँजी ने अजवाँ में हाथ—यहाँ भी बात वही है, यानी आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया।
घर में पड़े फाँका, बाबूजी फरे बाँका—घर में तो खाने तक के लाले पड़ रहे हैं, लेकिन इस बात की चिंता किए बिना ही घर का मुखिया लोगों से स्वयं को मालदार होने का ढिंढोरा पीटता फिरता है। फाँका (कमी) होने के बावजूद बाँका यानी छैल-छबीले बनकर घूमते फिरना।
घर का तो घट्टी चाटे ने पड़ोसी के आटो मेले—यानी हालत तो ऐसी है कि घर के लोगों को जरा भी आटा नसीब नहीं, लेकिन दूसरों को आटा मेलने (दान करने) के वादे किए जा रहे हैं। व्यर्थ की उदारता का दिखावा करने पर उक्त कहावत सटीक बैठती है।
३. व्यक्ति के बुरे काम पर मालवी बोली का अंदाज भी देखें—
चोरी को माल मोरी में—बुरा काम करके कमाया हुआ धन ठीक उसी तरह खर्च हो जाता है, जैसे मोरी (बाथरूम) में बहाया गया पानी।
बोयो पेड़ बबूल को तो आम काँ से होय—यानी कर्म ही इतने बुरे हैं कि उसका परिणाम तो बुरा होना ही है। जब दूसरों की राह में काँटे बिछा दोगे तो फिर उससे भलाई की उम्मीद रखना बेकार ही है।
अपनी माँ के कोई डाकण नी के—प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सभी वस्तुएँ और आदतें प्यारी होती हैं, चाहे वे खराब ही क्यों न हों। अर्थात् अपनी बुराइयों को नजरअंदाज करना।
माल मामा को ने खटपट भाणजा की—यहाँ यह संदेश है कि दूसरे की दौलत पर बुरी नजर रखना। इस कहावत को रिश्तेदारी से जोड़ा गया है, क्योंकि धोखा हमेशा अपने नजदीक का ही व्यक्ति देता है और मामा-भानजा का संबंध बहुत ही पास का है।
काला भेले गोरो बैठे रंग नी तो गुण तो बदले—इसे कहते हैं संगत का असर। यहाँ काला रंग बुराई और गोरा रंग भलाई का प्रतीक है। यानी बुरे व्यक्ति के भेले (साथ) कोई भी रहे बुराई तो साथ लाएगा ही।
आंधो मूते जग देखे ऊ समझे कोई नी देखे—अपनी बुराई न देखना। हर व्यक्ति यही समझता है कि मुझमें कोई बुराई नहीं है, जबकि दूसरों को आप में कई बुराइयाँ दिख जाएँगी।
खजूर से तो खोड़िया ही हिटे—खजूर के पेड़ की पत्तियाँ जब सूख जाती हैं तो वे कड़क और नुकीली हो जाती हैं, जो काफी नुकसान पहुँचा सकती हैं। इन्हें ही खोड़िया कहते हैं। हालाँकि यह बात और है कि इन पत्तियों से दैनिक उपयोग की कई चीजें बनाई जाती हैं, लेकिन इसके बुरे पक्ष को आधार बनाकर यह कहावत बनाई गई है, जिसका आशय है कि बुरे व्यक्ति के पास तो बुराई ही मिलेगी।
बाप के बाप नी के तो पड़ोसी के काकाजी कदे केवेगो—यह कहावत ऐसे लोगों के लिए है, जो एहसान-फरामोश हैं। इतने कि अपने पिता का भी बुरा कर बैठते हैं। जब पिता को नहीं छोड़ा तो दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने की उम्मीद भी बेकार है।
रांड से रंडवा भला ने टूटी जूती से उबाना भला—चरित्रहीन पत्नी होने से अच्छा है कि कुँवारे रहें और टूटी हुई चप्पल पहनने से अच्छा है कि नंगे पैर ही रहें। कहने का आशय यह है कि तमाम बुराइयों से दूर रहने में ही सबकी भलाई है।
महादेवजी का औगण तो नांदियो ही जाने—महादेवजी के अवगुण तो नंदी ही जानता है, अर्थात् हर व्यक्ति में कुछ-न-कुछ बुराई अवश्य होती है, पर उसकी उन बुराइयों को तो वही जानता है, जो उसके नजदीक रहता है।
४. मुसीबत के मारों को लेकर भी मालवी में बहुत कुछ कहा गया है—
नींद बेची ने उजरको मोल लेनो—आगे बढ़कर आफत में पड़ना। बेहतर स्वास्थ्य के लिए नींद बहुत जरूरी है और जब निश्चिंतता होती है, तभी नींद आती है। अब जो व्यक्ति सामने से मुसीबत मोल ले ले तो उसका क्या किया जाए। यही कहावत उसके काम की है।
बढ़ ले बद्री भेरू आयो—जब अचानक से बड़ी मुसीबत आ जाती है तो छोटी मुसीबत को बाय-बाय कहने के लिए यह जुमला कहा जाता है।
दुबला नी रीस घणी—रीस यानी गुस्सा। दुबला व्यक्ति जब मुसीबत में पड़ जाता है, तब क्रोध बहुत करता है। यहाँ दुबला का अर्थ सिर्फ शारीरिक रूप से कमजोर ही नहीं, बल्कि ऐसा व्यक्ति जो आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी कमजोर हो। अपना हक न मिलने पर बार-बार क्रोधित होता रहता है।
दुबला के दो असाढ़—ऐसा कहा जाता है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से आषाढ़ का महीना ठीक नहीं रहता है, लिहाजा सेहतमंद आदमी तो कुशल से रह सकता है, लेकिन दुबले व्यक्ति को स्वास्थ्य संबंधी मुसीबतें आ सकती हैं। फिर ऊपर से दो आषाढ़। आशय यह है कि कमजोर व्यक्ति पर मुसीबतों का पहाड़ ज्यादा टूटता है। एक मुसीबत से छूटे नहीं कि दूसरी तैयार।
आग खावे ने अंगारो मूते—जब दूसरों के लिए कोई व्यक्ति बड़ी मुसीबत बनकर खड़ा हो जाए, तब ऐसे व्यक्ति के लिए यह कहावत बोली जाती है, लेकिन इस कहावत को तभी सुना गया है, जब कोई बच्चा बहुत अधिक शैतानी या मस्ती कर रहा हो।
जे का घर नी हो बाड़ो ओको बड़ो फजीतवाड़ो, जो नी ले बात को आड़ो ओको भी फजीतवाड़ो—यहाँ यह स्पष्ट है कि जिसके घर बाड़ा या कहें बाउंड्रीवाल नहीं होगी, उसके पास किसी-न-किसी प्रकार की मुसीबतें आती ही रहेंगी। उसी प्रकार जो बात का आड़ा नहीं लेगा, यानी सबकी हर बात मानने लगेगा तो उसे भी परेशानी तो होगी ही। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘न’ करना भी सीखें।
५. जो उपकार नहीं मानते, उन्हें आप क्या कहेंगे। जरा देखें—
खाय माटी का ने गीत बीराँ का गाय—खाते तो माटी यानी पति की कमाई का, पर गुणगान करते है बीराँ (भाई) का। हैं न एहसान फरामोश।
कटी आंगली पे नी मूते—गाँवों में ऐसी मान्यता है कि अगर शरीर पर कहीं कट जाए और खून निकलने लगे तो अपनी ही पेशाब लगा लेने से खून बहना बंद हो जाता है। इसी विज्ञान को आधार बनाकर यह कहावत बनी है शायद, लेकिन इस कहावत का अर्थ है कि संकट में भी साथ नहीं देना।
६. ऐसे व्यक्ति, जिनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है और जो सबकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। वे निराश न हों, उनके लिए भी मालवी कहावतों के माध्यम से बहुत कुछ कहा गया है—
बिना पींदा को लोटो—ऐसा आदमी, जिसकी अपनी कोई सोच न हो। जैसे बिना पेंदे का लोटा इधर-उधर लुढ़कता रहता है, ऐसे ही बिना व्यक्तित्व का आदमी भी लुढ़कता रहता है। कभी इधर तो कभी उधर।
ऐसी दो कहावतें और हैं, जिनका भी भावार्थ यही है—रामजी की भी जै ने रावण की भी जै और भरतपुरी लोटो।
७. आलसियों पर तो क्या खूब कहा है—
तू राणी मूँ राणी कुन भरे परेंडा से पाणी—सब आलसी। अगर तू रानी है तो मैं भी रानी हूँ, अब बता कुएँ से कौन पानी भरेगा? यानी कोई नहीं। किसी को कोई काम करना ही नहीं है।
गाड़ी देखी ने पग भारी होय—जहाँ साधन उपलब्ध होते हैं, वहाँ व्यक्ति प्रयत्न नहीं करना चाहता है। जैसे पैदल चलने की बात हो, लेकिन वाहन खड़ा हो तो कौन पैदल चलना चाहेगा।
पूछबा वालो कदी नी डोटाए—आजकल तो रास्ता पता करने के लिए गूगल मेप का सहारा लिया जाता है, लेकिन पहले पूछ-पूछकर चलने की परंपरा थी। इसी आधार पर यह कहावत रची गई है। यानी हर गली या हर चौराहे पर बार-बार पूछकर चलने वाला व्यक्ति कहीं भी डोटाता (भटकता) नहीं है।
आलस और नींद करसाण के खोवे—किसान के सिर्फ दो ही शत्रु हैं—आलस्य और नींद।
८. लालची और संतोषी लोगों की तो बात ही अलग है—
डाकण बेटा ले के दे—ऐसे लोग जो लोभवश हमेशा लेने का ही मन रखते हैं, देने का कभी नहीं उनके ऊपर ये कहावत चरितार्थ होती है।
भली म्हारी टाटी जे में मिले घी बाटी—संतोषी व्यक्तियों पर यह उक्ति फिट बैठती है। मुझे तो मेरा छोटा सा घर ही प्यारा है, जिसमें घी-बाटी यानी अच्छा खाने को मिल जाता है।
९. कृषि और स्वास्थ्य पर भी कहावतों की बहार है—
माघ माह जो परे न सीत, महँगा नाज जानियो मीत—इसमें साफतौर पर यह कहा गया है कि यदि माघ (जनवरी) के महीने में पर्याप्त ठंड नहीं पड़ी तो अनाज का उत्पादन कम हो जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर महँगाई भी बढ़ जाएगी।
चलना भला न कोस बरसात का बेटी भली न एक—पक्की सड़कें आज हैं, लेकिन तब बारिश होने पर कीचड़ में एक कोस चलना भी दुश्वार था। बेटियों का सम्मान आज है, लेकिन तब एक लड़की भी बोझ समझी जाती थी।
हाजी हांडे कईं आँकड़ो दे—आँकड़ा एक प्रकार की दवा भी है। जब किसी स्वस्थ आदमी को कोई स्वस्थ रहने के गुण सिखाता है, तब ऐसा कहा जाता है।
पाणी पीवे धाप नी लागे लू की झाप—गरमी के मौसम में यदि भरपूर पानी पी लिया जाए तो फिर लू लगने का डर नहीं रहता है।
रोग की जड़ खाँसी ने लड़ाई की जड़ हाँसी—आयुर्वेद में कहा गया है कि बिमारी की जड़ खाँसी है। यदि स्वस्थ रहना हो तो खाँसी होते ही उसका उपचार तुरंत करना चाहिए। इसी प्रकार मित्रता या संबंध भंग होने के कई कारणों में प्रमुख है, किसी की शारीरिक रचना, कार्य या व्यवहार को देखकर हँसना।
१०. नीति संबंधी अन्य केवाड़ा—
खोद-खोद मरे ऊँदरो ने जा बैठे भुजंग—किसी की मेहनत का फल जब किसी और को मिलता है, तब ऐसा कहा जाता है। ऐसा अकसर देखा गया है कि कोई चूहा बड़ी मेहनत से मिट्टी खोद-खोदकर अपने रहने के लिए बिल बनाता है और उसमें जाकर बैठ जाता है भुजंग यानी साँप।
मांडना पे टपकी देनो—गाँवों में कच्चे घरों को गोबर से लीपने के बाद खड़िया या गेरू से मांडना बनाने की प्रथा आज भी है। यह बड़ी मेहनत का काम है, लेकिन जब मांडना कोई और बनाए तथा उस मांडने पर टपकी (बिंदु) कोई और लगाए और कहे कि यह मांडना मैंने बनाया है, तब यह बात कही जाती है। मतलब यह कि काम का श्रेय कोई और ले ले।
बेटी दीजो जान के पानी पीजो छान के—स्पष्ट है कि पानी यदि छानकर पीएँगे तो वह स्वास्थ्य के लिए उत्तम रहेगा, ठीक उसी प्रकार जिस घर में बेटी का ब्याह करना है, उस परिवार को पहले ही देख-परख लेंगे तो बाद में रोड़ा नहीं पड़ेगा।
बड़ा घरे बेटी दी अबे मिलबा का साँसा—कहने का तात्पर्य यह है कि रिश्तेदारी बराबर वालों के साथ करना चाहिए, वरना वह दुःख का कारण बन सकती है।
हाथ जोड़बा से डोकरा नी परने—चाहे कितनी ही मिन्नतें कर लो, पर बुजुर्ग की शादी नहीं हो सकती, अर्थात् यह कहावत ऐसे व्यक्ति के लिए है, जो अयोग्य हो। कितना ही प्रयास कर लो, वह अयोग्य ही रहेगा।
अपने कर्तव्य का निर्वाह करना कितना आवश्यक है, इस बात को कहावतों के नजरिए से जानें—
दूध ने पूत नजर हटताँ ही गया—चूल्हे पर गरम करने के लिए रखे हुए दूध और अपने वयस्क होते पुत्र पर से अगर थोड़ी देर के लिए भी नजर हटा ली तो सब गड़बड़ हो जाएगा। दूध उफन कर बाहर आ जाएगा और पुत्र के बिगड़ जाने का अंदेशा है। तात्पर्य यह है कि कर्तव्य पालन में चूक न होने दें।
भड़ जी तो भटा खाए ने दूसरा के परेज बताए—यानी अपनी बात पर खुद ही अमल नहीं करना और दूसरों से उम्मीद करना। ये भी कह सकते हैं कि कोरा ज्ञान बघारना। अपना कर्तव्य भूल दूसरों को उपदेश देते फिरना।
अन्य महत्त्वपूर्ण कहावतें—
घणा पटेलिया बगड़े गाम—जहाँ एक से अधिक पटेल अर्थात् मुखिया होंगे, वहाँ किसी काम के ठीक से होने की संभावना कम है, क्योंकि सभी अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहेंगे, ऐसे में कार्य की कोई ठोस योजना बन ही नहीं पाएगी।
बाप ने तो मारी नी मेंडकी ने बेटो तीरंदाज—जब कोई व्यक्ति अपनी क्षमता से अधिक या कोई अनूठा काम करना चाहता है, तब यह कहावत सामने आती है।
गाड़ी ने लाड़ी देवा की नी वे—गाड़ी और लाड़ी (पत्नी) देने की वस्तु नहीं है। इस बात को संस्कृत में जरा इस तरह से कहा गया है—लेखनी, पुस्तकम्, नारी पर हस्ते न गता गतम्। वर्तमान जीवन-शैली को देखते हुए इस लिस्ट में गाड़ी को भी शामिल कर लिया गया है।
गुड़ खाए ने गुलगुला से परेज करे—मेरे एक मित्र हैं, जो बकरा खाते हैं, पर बिना प्याज का। इस कहावत का अर्थ अब आप समझ गए होंगे।
फूट्या करम फकीर का भरी चलम ढुल जाए—भाग्यहीन लोगों के लिए यह कहावत है। कोई कितने ही खजाने के दरवाजे आपके लिए खोल दे, लेकिन अगर आपके भाग्य में नहीं है तो उसमें से आपको कुछ नहीं मिलेगा।
नीवरो नांदियो—फालतू, बेकार और निठल्ले व्यक्ति को कहा जाता है।
काण्या ढोली के एकज डंको—जो व्यक्ति अपनी ही जिद पर अड़ा रहे और एक ही बात की रट लगाए रखें, तब यह बात कही जाती है।
बनिया मित्र न वेश्या सती, कागा हंस न गधा जती—यहाँ बनिया किसी जाति का न होकर ऐसे व्यक्ति का प्रतीक है, जो कंजूस हो। कंजूस कभी किसी का मित्र नहीं बन सकता है, क्योंकि उसका पूरा ध्यान पैसा बचाने में ही लगा रहता है। ऐसा मित्र आड़े वक्त में कभी मित्रता नहीं निभा पाएगा। वेश्या या चरित्रहीन स्त्री भला क्यों सती होने लगी? कौवा कितना ही मलमल के नहा ले वह हंस नहीं बन सकता है और गधा या अनपढ़ कभी साधु नहीं बन सकता है। प्रवचन देने मात्र से कोई साधु नहीं हो जाता है।
भण्या पण गुण्या कोनी—भण्या यानी पढ़ लिख तो लिये, पर गुण नहीं के बराबर हैं, अर्थात् व्यावहारिकता का अभाव।
पइसा अंट ने विद्या कंठ—बैंक का प्रचलन होने से पहले की यह कहावत है कि पैसा वही जो अंट (जेब) में हो और विद्या वही जो कंठस्थ हो। दोनों कब काम आ जाए।
माँ पे पूत पिता पे घोड़ो घणो नी तो थोड़ो-थोड़ो—यह कहावत थोड़ा वैज्ञानिक आधार लिये हुए है। यहाँ ऐसा माना गया है कि मनुष्य की संतान में अपनी माता के गुणसूत्र पिता की बनिस्बत अधिक होते हैं, जबकि इसके विपरीत स्थिति होती है घोड़े की। घोड़े की संतान पिता के गुणसूत्रों के करीब होती है। किसी व्यक्ति की कार्यप्रणाली को देखकर यह कहावत कही जाती थी। हालाँकि जब प्रशंसा करना हो, तब भी यही कहावत और जब बुराई करना हो, तब भी यही कहावत।
मनक-मनक में आँतरा कोई हीरा कोई काँकरा—प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में अनूठा होता है। कोई बहुत गुणी तो कोई बहुत गँवार।
घरे घर गारा का चूला—कोरोना काल में तो यह बात सौ फीसद सच साबित हो रही है। शब्दार्थ यह है कि हर घर में गारा (मिट्टी) के चूल्हे हैं, अर्थात् सब की स्थिति एक जैसी ही है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मालवी बोली की कहावतों का फलक बहुत बड़ा है, जिसमें जीवन के हर पहलू को बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है। जिंदगी में कहीं सुख की छाया है तो कहीं दुःख की धूप, लेकिन प्यारी-प्यारी इन कहावतों में है इन सबका मिलाजुला संगम।(लेखक के बारे में – मूलत: प्राध्यापक (हिंदी), विगत २५ वर्षों से प.म.व. गुजराती वाणिज्य महाविद्यालय, इंदौर (म.प्र.) में पदस्थ। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य, लघुकथा तथा यात्रा-संस्मरण प्रकाशित। एक यात्रा संस्मरण ‘गोवा जैसा मैंने देखा’ महाराष्ट्र बोर्ड की कक्षा दसवीं की हिंदी पाठ्य-पुस्तक में सम्मिलित। )
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डॉ. विनय शर्मा
१८७-बी अंबिकापुरी (मेन)
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