Wednesday, April 9, 2025
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केसरबाई केरकरः जयपुर घराने की अप्रतिम गायिका

(जन्म १८९२- निधन १९७७)

हिंदुस्तानी संगीत के इतिहास में, जयपुर घराना, राग को अत्यधिक जटिल और कठिन पद्धति द्वारा विस्तृत करते हुए, अपने स्वर और लय के संतुलित समाकलन के लिए जाना जाता है। यह वही चुनौतीपूर्ण जटिलता है जिसमें गायन की जयपुर शैली के सबसे लोकप्रिय संगीतकारों में से एक, केसरबाई केरकर, ने अच्छी तरह निपुणता हासिल की और निर्विवाद प्रमाण की छाप सहित अपने श्रोताओं के लिए प्रस्तुत की। १९०० के दशक के पूर्व में वह देवदासी परंपरा से अलग हो गईं और अपने समय की एक अत्यंत प्रतिष्ठित और प्रख्यात कलाकार बन गईं।

केरी (गोवा) में जन्मी, केसरबाई का परिवार जब कोल्हापुर में स्थानांतरित हुआ तब उन्होंने दस साल की उम्र में उस्ताद अब्दुल करीम खान के निचे संगीत प्रशिक्षण शुरू किया। यह सिर्फ़ कुछ महीनों तक ही जारी रहा जब तक उनका परिवार १९०१ में गोवा वापस आ गया, जहाँ उन्होंने पं. वाज़ेबुआ से सीखना शुरू कर दिया। जब १९०९ में उनका परिवार बॉम्बे स्थानांतरित हुआ, तो उन्होंने लगभग एक साल तक उस्ताद बरकतुल्लाह खान (बीन वादक) से सीखा। उन्होंने कुछ महीनों तक पं. भास्करबुआ बखले से भी सीखा। अब तक उनका प्रशिक्षण अनियमित था और १९२० से ही उनकी तालीम, अगले पंद्रह वर्षों के लिए, उस्ताद अल्लादिया खान के साथ शुरू हुई। हमें उपाख्यानों से पता चलता है कि १९१८ में बॉम्बे में एक दोस्त के यहाँ आयोजित संगीत सभा में उन्होंने अपने प्रशिक्षण को गंभीरता से अल्लादिया खान के अलावा किसी और के साथ न शुरू करने का निर्णय लिया।

वह एक साक्षात्कार में बताती हैं कि वह, बरकतुल्लाह खान से सीखे, मिया मल्हार को गाने में असमर्थ रहीं। संयोग से केसरबाई को सिखाने के लिए बरकतुल्लाह को राज़ी करने वाले, शहर के प्रसिद्ध दर्शकों में से एक, ने उनके प्रदर्शन पर उन्हें सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई। विफलता और अपमान की भावना ने उन्हें निरंतर रूप से संगीत प्रशिक्षण लेने के लिए प्रेरित किया। अल्लादिया खान को इन्हें अपनी शिष्या स्वीकार कराना आसान नहीं था इसलिए बहुत अनुनय के बाद ही उन्होंने कुछ सख्त नियमों के तहत इन्हें सिखाने का निर्णय लिया।

केसरबाई की अपनी साँस को दीर्घ अंतराल तक बनाए रखने की क्षमता, जो एक महिला के स्वर के लिए असामान्य मानी जाती थी, ने श्रोताओं और संगीतकारों को अक्सर प्रभावित किया है। उनका उन्मुक्त कंठ और भारी-भरकम स्वर अपनी दृढ़ता एवं स्पष्टता के द्वारा आपको छू लेता है। ऐसा कहा जाता है कि ध्वनि के इस प्रक्षेपण को व्यवधान से बचाने के लिए उन्होंने जान-बूझकर संगीत कार्यक्रमों में माइक्रोफ़ोन के उपयोग से परहेज किया। जटिल और असामान्य या दुर्लभ (अप्रचलित) राग में निपुणता प्राप्त करना जयपुर घराने की एक विशिष्ट विशेषता है। केसरबाई के रंगपटल में खोखर, कान्हड़ा, बधंस-सारंग, हिंडोल-बहार, जौन-बहार जैसे विभिन्न प्रकार के राग सम्मिलित हैं। उन्हें १९३८ में ‘सुरश्री’ की उपाधि, १९५३ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा सम्मान पत्र और १९५९ में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। जब १९६५ के आसपास उन्हें एहसास हुआ कि उनका स्वास्थ्य उनकी अटूट संगीतकारिता में बाधा उत्पन्न करेगा तब उन्होंने सार्वजनिक प्रदर्शन बंद करने की घोषणा की।

उनका प्रभावशाली स्वर श्रोताओं को निरंतर प्रभावित करता है और यह केवल पृथ्वी पर ही नहीं गूँजता है। नासा के अंतरिक्ष-खोज यान वायजर १ के लिए साउंड्स ऑफ़ अर्थ नामक एक एल्बम संगृहित किया गया था और बीथोवेन, मोज़ार्ट और बाख के बीच बाह्य अंतरिक्ष में केसरबाई का राग भैरवी में ‘जात कहाँ हो’ का प्रस्तुतिकरण अनंतकाल के लिए गुंजायमान है।

विभीषण कोद्ण्ड स्वामि मंदिर को चक्रवात भी नुकसान नहीं पहुंचा पाया

तमिलनाडु के रामेश्वरम में कोथंडा रामस्वामी मंदिर हिंदू देवता राम को समर्पित एक तीर्थस्थल है।  यह मंदिर 1964 के चक्रवात से बची एकमात्र ऐतिहासिक संरचना है, जिसने धनुषकोडी को बहा दिया था पर इस मन्दिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सका था। मंदिर में राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान और विभीषण को देव स्वरूप स्थापित किया गया है।
रामायण के मुताबिक, भगवान राम ने अपने भक्त विभीषण को अमरता का वरदान दिया था। विभीषण को यह वरदान उनकी अटूट भक्ति और धर्म के प्रति निष्ठा के लिए मिला था। उसने  अपने भाई रावण का साथ न देकर भगवान राम और सत्य का साथ दिया था। उसने अपने बड़े भाई रावण और सभी राक्षसों को अनीति के रास्ते पर चलने से मना किया था।वह परिवार से अधिक नीति और धर्म का साथ दिया । विभीषण को चिरंजीवी माना जाता है।विभीषण राक्षस कुल में पैदा होने के बाद भी नीति और सत्य के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहा। उसका यह मंदिर चारों ओर समुद्र से घिरा हुआ है और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। रामेश्वरम् के टापू के दक्षिण भाग में, समुद्र के किनारे, एक और दर्शनीय मंदिर है।
यह मंदिर रमानाथ मंदिर से पांच मील दूर पर बना है। यह कोदंड ‘स्वामी का मंदिर’ कहलाता है। कहा जाता है कि विभीषण ने यहीं पर राम की शरण ली थी। रावण-वध के बाद राम ने इसी स्थान पर विभीषण का राजतिलक कराया था। इस मंदिर में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां के साथ ही विभीषण की भी मूर्ति स्थापित है।अनुमान है कि इस मंदिर का निर्माण लगभग 500-1000 वर्ष पहले हुआ था।माना जाता है कि यह मंदिर वह स्थान है जहाँ रावण के छोटे भाई विभीषण ने राम और उनकी वानर सेना से शरण माँगी थी। इस परंपरा के अनुसार, सीता के अपहरण के बाद, विभीषण ने रावण को सलाह दी कि वह सीता को राम को लौटा दे। रावण ने सलाह नहीं मानी, जिसके कारण विभीषण लंका से भाग गए और राम की सेना में शामिल हो गए। जब विभीषण ने राम के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, तो वानर सेना ने राम से विभीषण को जासूस समझकर स्वीकार न करने का आग्रह किया। हालाँकि, हनुमान के आग्रह पर राम ने विभीषण को स्वीकार कर लिया और कहा कि उनके सामने आत्मसमर्पण करने वालों की रक्षा करना उनका कर्तव्य है। यह भी कहा जाता है कि रावण के वध के बाद, राम ने इसी स्थान पर विभीषण के लिए “पट्टाभिषेकम” (लंका के राजा के रूप में आरोहण) किया था। इस कहानी को मंदिर के अंदर की दीवारों पर पेंटिंग में दर्शाया गया है।
यह मंदिर समुद्र के किनारे बना है और राम को समर्पित है। इस मंदिर में विभीषण के साथ-साथ राम, लक्ष्मण, सीता, और हनुमान की भी मूर्तियां हैं। यह मंदिर रामेश्वरम से 13 किलोमीटर दूर है. यह मंदिर बंगाल की खाड़ी और मन्नार की खाड़ी से घिरे एक द्वीप पर बना है।
यह मंदिर 1964 के चक्रवात से बचा था।इस मंदिर में राम और विभीषण की मित्रता की कहानी बताने वाली दीवारों पर पेंटिंग हैं।इस मंदिर में एक दूरबीन भी है जिससे रामसेतु को देखा जा सकता है।इस मंदिर के पास बंगाल की खाड़ी और मन्नार की खाड़ी का समुद्र है।इस समुद्र में एक पत्थर का शिवलिंग है जिसे लोग पूजते हैं। मान्यता है कि इसी जगह पर भगवान राम ने विभीषण का राज्याभिषेक किया था।
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

तीन हजार साल पुराना लकड़ी का बना फ्लश शौचालय

लगभग 1700-1400 ईसा पूर्व का एक प्रारंभिक फ्लशिंग शौचालय, जिसमें लकड़ी की सीट थी, माना जाता है कि यह मिनोअन सभ्यता द्वारा बनाया गया था। यह सभ्यता 2600 से 1100 ईसा पूर्व के बीच क्रेट द्वीप पर फली-फूली।

मिनोअन इंजीनियरिंग के सबसे प्रभावशाली उदाहरणों में से एक नॉसोस महल में पाया जाता है, जिसे 1900 से 1600 ईसा पूर्व के बीच बनाया गया था। यह भव्य परिसर उस समय की नवीनतम तकनीकों से सुसज्जित था, जिसमें एक उन्नत जल निकासी प्रणाली भी शामिल थी। इस प्रणाली के तहत एक फ्लशिंग शौचालय भी था, जिसमें लकड़ी की सीट लगी थी। यह शौचालय जल निकासी पाइपों के एक नेटवर्क से जुड़ा था, जो प्रभावी ढंग से महल से गंदे पानी को बाहर निकालता था। इस प्रणाली का उपयोग बारिश के पानी के प्रबंधन और पूरे महल में स्वच्छ पानी की आपूर्ति के लिए भी किया जाता था, जिससे मिनोअन सभ्यता की उन्नत जल विज्ञान और स्वच्छता संबंधी समझ का पता चलता है।
मिनोअन सभ्यता के पतन के बाद, यह उन्नत नलसाजी (प्लंबिंग) तकनीक लुप्त हो गई और लगभग 3000 वर्षों तक—औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) तक—यूरोप में इस तरह की प्रणालियाँ फिर से विकसित नहीं हो सकीं।
इस प्राचीन फ्लशिंग शौचालय का पुनर्निर्मित मॉडल अब क्रेट के हेराक्लिओन पुरातत्व संग्रहालय (Archaeological Museum of Heraklion) में प्रदर्शित किया गया है।

रंगों में बांट दिया स्त्री संसार

स्त्री सशक्तिकरण के सौ साल गुजर चुके हैं और आज भी समाज उन्हें सशक्त बनाने की कोशिश में है। एक ओर समाज कहता है कि आधी दुनिया उनकी लेकिन आधी तो क्या खुले मन से एक टुकड़ा भी देने को राजी नहीं है। यकीन ना हो तो देख लीजिए कि स्त्री संसार को रंगों में बांट दिया गया है, वह भी एक कलर में। पिंक कलर यानी स्त्री संसार और शेष पर कब्जा रहेगा हमारा। सवाल यह है कि क्यों एक रंग उन्हे दे रहे हैं। उनका भी सब रंगों पर अधिकार है लेकिन पुरुषवादी मानसिकता इससे बाहर आने नहीं देगी। सुनीता विलियम भले ही अंतरिक्ष छू आए या कि पीटी उषा खेल में परचम लहरा ले, आर्थिक मामलों में पुरुषों को पीछे धकेल कर आगे बढ़ जाए या शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावी दखल हो, उन्हें नोटिस नहीं लिया जाएगा। उन्हें बस समाज एक मिसाल के तौर पेश करेगा लेकिन कभी ये कोशिश नहीं होगी कि समाज में आज के दौर की आइकन सुनीता, पी टी उषा, सुधा मूर्ति बना सके।
लोकमाता देवी अहिल्या के बारे में सोचना भी बेमानी है, सावित्री बाई फूले, सरोजनी नायडू और पंडित विजय लक्ष्मी जी की याद ही नई पीढ़ी को नहीं है। दुनिया में शासन का डंका बजाने वाली इंदिरा गांधी इसलिए याद है क्योंकि उन्होंने इमर्जेंसी थोपा था लेकिन लोग भूल गए कि इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक माफी भी मांगी थी। मृदुभाषी सुषमा स्वराज हों या पंद्रह साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित राजनीतिक कारणों से स्मरण में हैं। हालांकि इनमें से किसी एक  नाम को एक रंग की जरूरत नहीं थी बल्कि अपने कौशल से उन्होंने रंगों का संसार सजा दिया था।
आज हम जिस दौर में हैं वहां ना स्वर्णकालिक इतिहास है और ना भविष्य रचने वाली कोई पीढ़ी। हैरानी है कि हर गली कूचे में स्त्री विमर्श हो रहा है लेकिन स्त्रियों के हक में क्या सुधार आया, यह कुछ दिखता नहीं है। अखबारों के पन्ने पलटते ही कलेजा मुंह में आ जाता है जब नवजात बच्चियों के साथ वीभत्स व्यवहार किया जाता है। हर घटना के बाद हम भूल जाते हैं कि इन नासुरों से निपटने की जवाबदारी हम सबकी है। कुछ कोशिशें हो रही होगी लेकिन यह सब नाकाफी है। बेटियों को सशक्त बनाने के लिए हमारे पास एक उपाय है, उन्हें सम्मानित कर दो। यह भी ठीक माना जा सकता है लेकिन उन्हें चुनकर जवाबदेही सौंपे तब बात कुछ बने।
देवी अहिल्या लोकमाता ऐसी ही नहीं बनीं। समाज और ख़ासतौर पर स्त्री को सशक्त बनाने के उनके प्रयासों ने उन्हें लोकमाता का दर्ज दिया। अनेक अपमान सह कर स्त्री शिक्षा के लिए खड़ी होने वाली सावित्री देवी फुले का स्मरण करते हैं। इन्होंने अपने कार्यों से समाज में इंद्र धनुष तान दिया। एक स्त्री की शक्ति अपार है और इसलिए एक दिन उनके नाम करने से कोई भला नहीं होगा। पुरुषवादी सोच को सम्मान देने का दिखावा करना होता है तो कभी स्त्री को दुर्गा, तो कभी लक्ष्मी तो कभी सरस्वती बता कर वाहवाही लूट लेता है। सवाल यह है कि जा स्त्री लांछित होती है, अन्याय का शिकार होती है तब पुरुष समाज कहां खड़ा होता है।
रील और सोशल मीडिया में उलझी नई पीढ़ी को रंगों में उलझाने के बजाय इतिहास से अवगत कराया जाए। प्राथमिक शिक्षा में हमारे समाज की महान स्त्री विभूतियों को पढ़ाया जाए। सांस्कृतिक कार्यक्रम में इन पर ही केंद्रित कार्यकम का निर्माण हो। बच्चों को आपस में समानता का भाव उत्पन्न किया जाए ताकि आगे कभी समाज स्त्री संसार को रंगों में ना बांट सके और स्त्री विमर्श के स्थान पर पुरुष विमर्श हो। यह बात जान लेना चाहिए कि आधा आसमान नहीं, पूरी सतरंगी दुनिया उनकी है और रहेगी।
(लेखक पत्रकार हैं और सामाजिक विषयों पर लिखते रहते हैं)

अब मैं बोलूँगी- पत्रकारिता की दुनिया की स्याह सच्चाई

स्मृति आदित्य, मीडिया और साहित्य का सुपरिचित नाम, जब कहती हैं ‘अब मैं बोलूँगी’ तो सुनने वालों को सजग, सतर्क होकर सुनना होगा। शिवना प्रकाशन से प्रकाशित और हाल ही में पुस्तक मेले में विमोचित उनकी पुस्तक ‘अब मैं बोलूँगी’ उन तमाम आवाजों की गूँज है, जो अव्वल उठाई नहीं जातीं या फिर दबा दी जाती हैं। इस किताब को पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार बहुत याद आए- तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।

मीठे लेकिन झूठे ख़्वाब से झकझोरकर उठाने का एहसास कड़वा हो सकता है, लेकिन उतना ही ज़रूरी भी। पत्रकारिता जगत में लंबी और उल्लेखनीय पारी के बाद अपने अनुभवों को स्मृति ने इस किताब में सँजोया है। नहीं…शायद सँजोना कहना ग़लत होगा। सलीक़े से, करीने से सजा-सँवार कर जो भी किया या कहा जाता है, उसमें कहीं बनावटीपन या दिखावा आ ही जाता है। जबकि यहाँ एक ईमानदार, मेहनती पत्रकार का सच्चा, अनगढ़, भावपूर्ण आवेग है, जो पाठक को बहा ले जाता है। इस किताब की पढ़ना साहित्य के राजपथ पर चलना नहीं है, उस पथरीली पगडंडी से गुज़रना है, जहाँ से हम में से बहुत से लोग गुज़रे हैं। उन खुरदुरे रास्तों के काँटों और पाँवों के छालों से कभी न कभी वास्ता पड़ा है।

डायरी विधा में लिखी यह किताब शुरू होती है, लगभग पंद्रह साल तन-मन से एक संस्थान से जुड़े रहने के बाद हुए मोहभंग और इस्तीफे से। फिर फ़्लैश बैक में पच्चीस साल पहले पत्रकारिता की शुरुआत के संघर्ष से होते हुए मीडिया संस्थानों के वर्क कल्चर पर आती है। उनके अनुभव इतने खरे और सच्चे हैं कि पाठक संवेदनाओं के साथ शुरू से अंत तक जुड़ा रहता है। जैसे 31 जुलाई वाले दिन, जो नौकरी का आख़िरी दिन था, वे लिखती हैं कि इतना हल्का महसूस कर रही थीं कि घर पहुँचकर ‘कैडबरी गर्ल’ की तरह नाची। इसमें पीड़ा और आक्रोश का जो अंडर करंट है, वह छू जाता है और पढ़ते हुए आँखों में अनायास नमी उतर आती है।

बाई-लाइन और क्रेडिट के लिए जूझना, संपादकीय को हमेशा विज्ञापन और मार्केटिंग से कमतर आँकना, रिपोर्टिंग में आने वाले ख़तरे, इन स्थितियों का सामना लगभग सभी मीडियाकर्मी करते हैं। पर महत्वपूर्ण यह कि कार्यस्थल पर जिस प्रतिस्पर्धा, इर्ष्या, असुरक्षा और शोषण की बात उठाई है, वह सिर्फ मीडिया तक सीमित नहीं है बल्कि प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले अमूमन हर शख्स की कहानी है। इस स्तर पर किताब एक ऐसा आईना है, जिसमें बहुतों को अपने दर्द का अक्स नज़र आएगा। यहाँ यह डायरी निजी अनुभव होते हुए भी सार्वभौमिक हो जाती है। और बकौल स्मृति यही उनकी किताब का उद्देश्य भी है कि ‘अपने हिस्से का प्रतिरोध दर्ज करना ही चाहिए और शुरुआत कहीं से तो हो।’

कामकाजी लड़कियाँ तो अधिकांश जगह उनके साथ रिलेट कर सकती हैं। वे लिखती हैं, ‘हम छोटी जगह की लड़कियाँ संकोच और स्वाभिमान के मिश्रण से बनी होती हैं, जिन्हें अक्सर हमारा अहम मान लिया जाता है …वास्तव में हम सही वक्त पर सही कदम न उठाने की पीड़ा से गुज़र रही होती हैं।’ इससे उस समय और कुछ हद तक आज भी छोटे शहरों की अधिकांश लड़कियों के मन को कितना सही उकेरा है। पूरी किताब दरअसल एक सच्ची, संवेदनशील लड़की का अपने आत्मसम्मान को बचाते हुए संघर्ष का दस्तावेज़ है। गिरना, बिखरना, टूटना, फिर खुद को समेटकर स्वाभिमान के साथ खड़ा होना, इसी जिजीविषा का नाम स्मृति है और यही जीवन है।

अंतिम पन्नों में वे कहती हैं, ‘मैं हर हाल में खुश रहने वाली लड़की बस इतना चाहती हूँ कि इस पेशे की ‘नैतिकता’ को यथासंभव बचाया जाए ताकि आने वाली पत्रकारीय नस्ल और फसल हरी रहे, लहलहाती रहे।’ चूँकि स्मृति बच्चों के बीच सम्मानीय और प्रिय मीडिया शिक्षक हैं, उनकी यह चिंता वाजिब है। पत्रकारिता में आने वाली पीढ़ी के लिए यह एक ज़रूरी और मार्गदर्शक किताब हो सकती है। जो बच्चे मीडिया की चकाचौंध से आकर्षित होकर इस क्षेत्र में आते हैं, उन्हें पहले इस तरह की किताबें पढ़ना चाहिए ताकि आने वाले संघर्षों के लिए तैयार होकर इस क्षेत्र में क़दम रखें। बच्चे यह भी सीखेंगे कि मुश्किल वक़्त में परिवार और दोस्तों के अलावा कार्यक्षेत्र में कुछ भले लोग भी मिलते हैं, जिनसे दुनिया में उम्मीद क़ायम है।

स्मृति के इस साहस को सलाम, इस आशा के साथ कि इसे ख़ूब स्नेह मिले, समर्थन मिले और उनकी आवाज़ में और आवाजें शामिल हों। फिर दुष्यंत कुमार के ही शब्दों में –

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।


समीक्षक- शैली बक्षी खड़कोतकर
अब मैं बोलूँगी
डायरी
लेखक – स्मृति आदित्य
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट,

बस स्टैंड के सामने, सीहोर मप्र 466001

मोबाइल- 9806162184, ईमेल- shivna.prakashan@gmail.com

मूल्य- 150रुपये

प्रकाशन वर्ष- 2025शैली बक्षी खड़कोतकर
संपर्क- ई-8, 157, भरत नगर, भोपाल– 462039
मोबाइल- 9406929314
ईमेल- shailykhadkotkar@gmail.com

प्रो, कुमुद शर्मा ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति का कार्यभार ग्रहण किया

वरिष्ठ साहित्यकार, आलोचक एवं मीडिया विशेषज्ञ प्रोफेसर कुमुद शर्मा जी ने आज, शुक्रवार, 07 मार्च 2025 को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति पद का पदभार संभाला। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के उच्चतर शिक्षा विभाग द्वारा 06 मार्च 2025 को जारी आदेश के अनुसार उन्हें इस पद पर नियुक्त किया गया है। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की पहली महिला कुलपति के रूप में प्रो. कुमुद शर्मा की नियुक्ति विश्वविद्यालय के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि है।

प्रोफेसर कुमुद शर्मा  ने हिंदी कविता, कहानी, नाटक, आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र में अपनी विशेष उपस्थिति बनाई है। उन्होंने अनेक लोकप्रिय काव्य संग्रह लिखे हैं जैसे “धूल के आँगन”, “आज फिर दिल ने पुकारा है”, “उस पार के बस्ती” और “सूरज के समान” आदि। उन्होंने नाटक लेखन के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बनाई है और उनके लिखे नाटक जैसे “बेघर”, “प्रतिज्ञा”, “शोर”, “आँखों के सामने” और “आधे अधूरे” आदि लोकप्रिय हैं।

इसके अलावा, प्रोफेसर कुमुद शर्मा ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में आलोचना का भी अपना योगदान दिया है। उन्होंने अनेक विषयों पर अपने लेख लिखे हैं और हिंदी साहित्य के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।  प्रोफेसर कुमुद शर्मा ने अनेक उत्कृष्ट लेखनों का अनुवाद भी किया है, जो अंग्रेजी साहित्य से हिंदी में अनुवादित किए गए हैं। उन्होंने उत्कृष्ट लेखन का अनुवाद किया है जैसे “सिद्धार्थ” (हर्मन हेस्से), “अज्ञातवास” (जोसेफ अग्नेल), “फ्रांकलिन डी रूजवेल्ट और मैं” (शिकागो ट्रिब्यून की संपादक जोन के। ओ’हारा) और “जीवन के उपहार” (ओशो) आदि।

सम्मानित प्रोफेसर कुमुद शर्मा का योगदान हिंदी साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में नहीं सीमित है, बल्कि उनका योगदान हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण और अमूल्य है।

प्रो. कुमुद शर्मा वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की विभागाध्यक्ष एवं वरिष्ठ प्रोफेसर रही हैं। इसके अतिरिक्त, वे विभिन्न महाविद्यालयों की प्रबंध समितियों की अध्यक्ष के रूप में भी कार्यरत रही हैं। उनका अकादमिक अनुभव अत्यंत व्यापक रहा है।
प्रो. कुमुद शर्मा ने 1985 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से “नई कविता में राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप विकास” विषय पर पीएच.डी. पूरी की और 2002 में रांची विश्वविद्यालय से “भूमंडलीकरण: भारतीय मीडिया का बदलता परिदृश्य” विषय पर डी.लिट. की उपाधि प्राप्त की। आधुनिक साहित्य, स्त्री विमर्श और मीडिया अनुसंधान में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्होंने अपने अकादमिक जीवन में अनेक महत्वपूर्ण शोधों का निर्देशन किया है और उनके मार्गदर्शन में कई शोधार्थियों ने एम.फिल एवं पीएच.डी. पूरी की है।

उनकी लेखनी भी अत्यंत समृद्ध रही है। उन्होंने भारतीय साहित्य के निर्माता: अंबिका प्रसाद बाजपेयी, समाचार बाज़ार की नैतिकता, आधी दुनिया का सच, हिंदी के निर्माता, विज्ञापन की दुनिया, जनसंपर्क प्रबंधन और भूमंडलीकरण और मीडिया जैसी चर्चित पुस्तकें लिखी हैं। उनके समीक्षात्मक लेख, अनुवाद एवं सामाजिक विषयों पर विश्लेषणात्मक लेख विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। वे साहित्य अमृत पत्रिका की संयुक्त संपादक भी रह चुकी हैं।
प्रो. कुमुद शर्मा को उनके उत्कृष्ट शैक्षणिक और साहित्यिक योगदान के लिए अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। उन्हें 2002 और 2009-10 में भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त, उन्हें दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य श्री सम्मान तथा प्रेमचंद रचनात्मक लेखन पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है।

अपने शैक्षणिक एवं साहित्यिक योगदान के साथ-साथ प्रो. कुमुद शर्मा ने प्रशासनिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे भारत सरकार की विभिन्न समितियों में सलाहकार एवं सदस्य के रूप में कार्य कर चुकी हैं, जिनमें नागरी उड्डयन मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय, खनन मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, प्रसार भारती एवं एनसीईआरटी शामिल हैं।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की पहली महिला कुलपति के रूप में प्रो. कुमुद शर्मा की नियुक्ति विश्वविद्यालय के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। महिला दिवस से एक दिन पूर्व एक महिला कुलपति पाकर विश्वविद्यालय के समस्त हितधारक हर्षोल्लास से भरे हुए हैं।

सत्य घटनाओं पर बनाएं फिल्में, नकल न करें

दो दिवसीय ग्वालियर शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल का समापन, विजेताओं को मिले एक लाख के पुरस्कार

ग्वालियर। फिल्म समाज का आईना होती हैं। लेखक की जिम्मेदारी होती है कि वह फिल्म के माध्यम से समाज को सच्चाई से अवगत कराएं। फिल्म निर्माता सत्य घटनाओं पर आधारित गंभीर फिल्में बनाएं। किसी भी फिल्म की नकल बिल्कुल न करें। यह बात आईआईटीटीएम में आयोजित दो दिवसीय ‘ग्वालियर शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल’ के समापन समारोह में रविवार को वक्ताओं ने कही। मनोहारी सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ कार्यक्रम का समापन ओम नम: शिवाय फेम प्रख्यात अभिनेता समर जयसिंह एवं चर्चित फिल्म ‘द कन्वर्जन’ के निर्माता-निर्देशक विनोद तिवारी, प्रख्यात फिल्म निर्देशक देवेंद्र मालवीय, प्राध्यापक डॉ.श्रीनिवास सिंह, विक्रांत विश्वविद्यालय की कुलगुरू अमरीका सिंह के सानिध्य में हुआ। अध्यक्षता सतपुड़ा चलचित्र समिति मध्य प्रदेश के अध्यक्ष लाजपत आहूजा ने की। कार्यक्रम सह संयोजक संजीव गोयल भी मंचासीन रहे।

श्री तिवारी ने कहा कि नए फिल्म निर्माताओं से कहा कि वह गंभीर विषयों पर फिल्में बनाएं। हांलाकि ऐसी फिल्में बनाने में थोड़ी परेशानी भी आती हैं। अपना उदाहरण देते हुए बताया कि जब उन्होंने लव जिहाद फिल्म बनाई तो इसे सेंसर बोर्ड ने प्रसारित करने की अनुमति नहीं दी। 14 बार इस फिल्म को रिजेक्ट किया गया। न्यायालय की वजह से यह फिल्म प्रदर्शित हो पायी। मेरी आगे भी कोशिश रहेगी कि फिल्मों के माध्यम से समाज को सच्चाई से अवगत कराता रहूंगा।

अभिनेता समर जय सिंह ने इस आयोजन के लिए सतपुड़ा चलचित्र, भोपाल एवं विश्व संवाद केंद्र, भोपाल का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि इससे नए कलाकारों को मंच मिलने से वह प्रोत्साहित होंगे। उन्हें मुंबई जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्होंने कलाकारों से आह्वान करते हुए कहा कि वह समाज में घटित घटनाओं के आधार पर फिल्म बनाएं। इसके लिए समाचार पत्र भी पढ़ते रहें। समर जय सिंह ने फिल्मकारों से कहा कि वह नकल करके फिल्में नहीं बनाएं।

फ़िल्म निर्देशक देवेंद्र मालवीय ने फिल्मकारों से कहा कि अगर आपके पास विचार हैं तो आप ग्वालियर में भी फिल्में बना सकते हैं। कार्यक्रम के प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत मुकुंद पाठक, प्रवीण दुबे, अतुल दुबे, लक्ष्मीनारायण प्रजापति, तपन भार्गव, हर्षिता श्रीवास्तव, मनीष मांझी ने किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ.अश्विनी अग्रवाल, अभिनव द्विवेदी, उमेश गोंजे ने किया।

कैंपस फिल्म कैटेगरी में प्रथम स्थान पर ध्रुव तारा फिल्म रही। इसके डायरेक्टर नवीन कुमार थे। दूसरे स्थान पर आशीष मिश्रा द्वारा निर्देशित फिल्म कहानी एवं तीसरे स्थान पर विजय बोडके की फिल्म किताबी मस्ती रही। वहीं  डाक्यूमेंट्री कैटेगरी में प्रथम सेकेंड चांस (फिल्म निर्माता हर्षित मिश्रा),द्वितीय स्थान पर गल देव: एक अनोखी मान्यता (तनिष्क भूरिया) और तीसरे स्थान पर काशी: आदि, अंत और मोक्ष (दिव्यांशी बुंदेला) रही। शॉर्ट फिल्म श्रेणी में प्रथम लोन आसान दरों पर (आशीष जी), द्वितीय फोन कॉल (विशेष शर्मा), तृतीय स्थान पर अब होगा इंसाफ फिल्म (विजय तिवारी) रही। रील कैटेगरी में प्रथम धरती पुत्र अगरिया(कृतार्थ देव चतुर्वेदी) और स्पेशल जूरी अवार्ड डॉक्यूमेंट्री चंबल: सत्य और मिथ्या (आशुतोष भार्गव), डिग्री फिल्म (दीपक दुबे) को दिया गया। विजेताओं को करीब एक लाख के पुरस्कार प्रदान किए गए।

पश्चिम रेलवे द्वारा प्रेरणादायक पहल के साथ मनाया गया अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस

मुंबई। पश्चिम रेलवे द्वारा अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस 2025 के अवसर पर अपनी महिला कर्मचारियों के उत्कृष्ट योगदान को सम्मानित करने और कार्यस्थल पर लैंगिक समावेशिता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई प्रेरणादायक और महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इन कार्यक्रमों के माध्यम से रेलवे क्षेत्र में महिलाओं को समान अवसर प्रदान करने और उनकी भूमिका को और अधिक सशक्त बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

पश्चिम रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी श्री विनीत अभिषेक द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, पश्चिम रेलवे द्वारा महिला दिवस के उपलक्ष्य में वसई रोड स्टेशन से एक कंटेनर मालगाड़ी का परिचालन पूर्णतः महिला क्रू द्वारा किया गया। इस क्रू में लोको पायलट (मालगाड़ी) श्रीमती मीरा बाई मीणा, वरिष्ठ सहायक लोको पायलट श्रीमती उत्कर्षा शर्मा तथा गार्ड (ट्रेन प्रबंधक) श्रीमती कैरल डिसूजा शामिल रहीं। यह विशेष पहल रेलवे के परिचालन क्षेत्र में महिलाओं के समावेश और उनकी दक्षता को दर्शाने का एक सराहनीय प्रयास था। इस सफल परिचालन के माध्यम से पश्चिम रेलवे ने महिला सशक्तिकरण का एक मजबूत संदेश दिया और यह साबित किया कि महिलाएं किसी भी तकनीकी एवं परिचालन क्षेत्र में समान रूप से सक्षम हैं।

श्री अभिषेक ने आगे बताया कि महिला दिवस के अवसर पर पश्चिम रेलवे के महालक्ष्मी ट्रैक्शन सबस्टेशन (TRD) पर कार्यरत सम्पूर्ण महिला मेंटेनेंस टीम का सम्मान किया गया। इस टीम को पश्चिम रेलवे की प्रमुख मुख्य कार्मिक अधिकारी (PCPO) श्रीमती मंजुला सक्सेना द्वारा सम्मानित किया गया। यह टीम 25 केवी और 110 केवी के ट्रैक्शन पावर सप्लाई उपकरणों का रखरखाव करती है, जिससे उपनगरीय रेल सेवाओं का निर्बाध परिचालन सुनिश्चित होता है। यह टीम रेलवे में तकनीकी क्षेत्र में कार्य करने वाली महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई है।

इसी क्रम में, पश्चिम रेलवे ने माटुंगा रोड रेलवे स्टेशन पर कार्यरत सम्पूर्ण महिला टीम का भी सम्मान किया। यह स्टेशन पूरी तरह से महिला कर्मचारियों द्वारा संचालित किया जाता है, जिसमें स्टेशन मास्टर, बुकिंग क्लर्क, टिकट चेकिंग स्टाफ, रेलवे सुरक्षा बल (RPF) कर्मी और हाउसकीपिंग स्टाफ शामिल हैं। इन सभी महिला कर्मचारियों के सामूहिक प्रयासों से यह स्टेशन सुचारू रूप से संचालित हो रहा है। इस सराहनीय कार्य के लिए प्रमुख मुख्य कार्मिक अधिकारी श्रीमती मंजुला सक्सेना द्वारा इन महिला कर्मचारियों को सम्मानित किया गया, जिससे उनके समर्पण और सेवा भावना को सराहना दिया जा सके।

महिला दिवस के अवसर को और अधिक खास बनाने के लिए पश्चिम रेलवे द्वारा रेडियो चैनल फीवर 104 एफएम के सहयोग से “पश्चिम रेलवे की नायिका” शीर्षक से एक विशेष वीडियो जारी किया गया। यह वीडियो पश्चिम रेलवे की महिला कर्मचारियों की प्रेरणादायक कहानियों को प्रदर्शित करता है, जिन्होंने रेल परिचालन को सुरक्षित और सुविधाजनक बनाने के लिए अपनी सेवाएं दी हैं। इसके अलावा, पश्चिम रेलवे की वरिष्ठ मोटरमैन श्रीमती प्रीति कुमारी के संघर्ष और सफलता की कहानी को दर्शाने वाला एक विशेष पॉडकास्ट भी जारी किया गया, जिसे पश्चिम रेलवे के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर जारी किया गया है। इस पॉडकास्ट के माध्यम से आम जनता महिला कर्मचारियों के योगदान और उनकी कार्यक्षमता को नजदीकी से समझ सकेगी।

महिला दिवस के उपलक्ष्य में पश्चिम रेलवे के मुंबई सेंट्रल मंडल द्वारा रेलवे स्टेशनों और कार्यस्थलों के लिए ‘लैंगिक समावेशी प्रणाली के लिए दिशा-निर्देश’ भी जारी किए गए। इन दिशा-निर्देशों का उद्देश्य कार्यस्थल पर लैंगिक समानता को बढ़ावा देना, एक सुरक्षित एवं समावेशी कार्यसंस्कृति सुनिश्चित करना और रेल परिचालन के सभी क्षेत्रों में महिला कर्मचारियों की भागीदारी को प्रोत्साहित करना है।

पश्चिम रेलवे अपने महिला कर्मचारियों के महत्वपूर्ण योगदान को पहचानते हुए भविष्य में भी महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है। अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस 2025 के अवसर पर किए गए इन सभी कार्यक्रमों और पहलों ने पश्चिम रेलवे की प्रगतिशील सोच और महिला कर्मचारियों के प्रति सम्मान का एक उदाहरण प्रस्तुत किया। पश्चिम रेलवे का यह प्रयास कार्यस्थल पर समान अवसरों और समावेशी वातावरण को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

होली बाल कविता की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 24 विजेता रहे

कोटा/ होली बाल कविता की राष्ट्रीय प्रतियोगिता के परिणाम घोषित कर दिए गए हैं। प्रतियोगिता का आयोजन संस्कृति, साहित्य, मीडिया फोरम, कोटा तथा समरस संस्थान साहित्य सृजन गांधीनगर, कोटा इकाई, कोटा के संयुक्त तत्वाधान में किया गया।  समरस संस्थान की राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. शशि जैन ने बताया कि  राजस्थान सहित उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र, झारखंड, पश्चिमी बंगाल राज्यों के चार वर्ग में आयोजित प्रतियोगिता में 89 प्रतियोगियों ने भाग लिया। विजेता प्रतियोगियों को शीघ्र ही कार्यक्रम में प्रमाण पत्र से पुरस्कृत किया जाएगा।
 पुरुष वर्ग के लिए साहित्यकार वैदेही गौतम और विजय जोशी निर्णायक रहे। इस वर्ग में 27 प्रतियोगियों में प्रथम स्थान पर संयुक्त रूप से भाटूंद जिला पाली के विनोद कुमार दवे , मथुरा के अंजीव अंजुम और अल्मोड़ा उत्तराखंड के डॉ.पवनेश ठकुराठी  का चयन किया गया। द्वितीय स्थान पर संयुक्त रूप से पाली के श्रीराम वैष्णव कोमल, बाड़मेर के नरसिंगाराम  जीनगर निजरूप , कोटा के डॉ. रघुराज सिंह कर्मयोगी एवं विष्णु शर्मा ‘हरिहर ‘ रहे। तृतीय स्थान पर संयुक्त रूप से झालावाड़ के राकेश कुमार नैयर, जोधपुर के, महेश सोलंकी और छबड़ा जिला बारां के टीकम चन्दर ढोडरिया रहे।
महिला वर्ग में रामेश्वर शर्मा रामू भैया कोटा, रेखा लोढ़ा भीलवाड़ा और दिनेश कुमार माली ओडिशा निर्णायक रहें। इस वर्ग में प्राप्त 40 प्रविष्टियों में संयुक्त रूप से प्रथम  कोटा की डॉ. अपर्णा पांडेय , स्नेहलता शर्मा, श्यामा शर्मा और बूंदी की सुमन लता शर्मा रहे। द्वितीय स्थान पर संयुक्त रूप से जयपुर की डॉ. प्रीति शर्मा, कोटा की  मंजू किशोर’रश्मि’, अर्चना शर्मा और भीलवाड़ा की शिखा अग्रवाल रहे।
तृतीय स्थान पर संयुक्त रूप से उदयपुर की  डॉ.प्रियंका भट्ट, जयपुर की सुशीला शर्मा, कोटा की पल्लवी दरक रहे।
युवा वर्ग में डॉ. अपर्णा पाण्डेय और डॉ. प्रभात कुमार सिंघल निर्णायक रहे। इस वर्ग में कुल 11 प्रतियोगियों में से प्रथम भवानीममंडी की शुभांगी शर्मा, द्वितीय कोटा की ज्योतिरमयी एवं तृतीय स्थान पर बकानी झालावाड़ की अदिती शर्मा ‘सलोनी’ रहें।
बाल वर्ग में साहित्यकार श्यामा शर्मा और डॉ . प्रभात कुमार सिंघल निर्णायक रहे। इस वर्ग में कुल 11 बाल प्रतियोगियों में पलल्वन उच्च प्राथमिक स्कूल झालावाड़ के कक्षा 4 के मीस्टी माल्या प्रथम, याना शर्मा द्वितीय और कक्षा 9 की नमामि शर्मा रही।
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डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
पत्रकार, कोटा

लैंगिक भेद मिटाना सामूहिक जिम्मेदारी – नूपुर प्रसाद

दिल्ली। हिन्दू महाविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर महिला विकास प्रकोष्ठ द्वारा परिचर्चा का आयोजन किया। आयोजन में कॉलेज की प्राचार्य प्रो अंजू श्रीवास्तव एवं  उप प्राचार्य प्रो रीना जैन ने परिचर्चा में भाग लेने आई अपने अपने क्षेत्रों की विदुषी महिलाओं का स्वागत किया। परिचर्चा में भारतीय पुलिस सेवा की वरिष्ठ अधिकारी नूपुर प्रसाद ने अलग-अलग स्तरों पर स्त्रियों के साथ होने वाले शोषण और विभिन्न क्षेत्रों में असमान प्रतिनिधित्व पर  तथ्यों को प्रस्तुत करते हुए बताया कि स्त्री सशक्तीकरण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच सम्भव करता है। प्रसाद ने आर्थिक क्षेत्र में असमान वेतन दर और इस असमानता को कम करने के तरीकों पर भी विस्तार से चर्चा की। कार्य क्षेत्र में असमानता और शारीरिक शोषण जैसे संजीदा मुद्दों पर बोलते हुए उन्होंने ज़ोर दिया कि लैंगिक भेद को कम करने में केवल स्त्रियों की नहीं अपितु पूरे समाज की समान भूमिका होती है।

भारतीय राजस्व सेवा की वरिष्ठ अधिकारी शुभ्रता प्रकाश ने पुराने समय की स्त्री समस्याओं और समय के साथ उसके बदलते स्वरूप की चर्चा की। प्रकाश ने अवसाद की दोहरी लड़ाई का उल्लेख करते हुए बताया कि स्त्रियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य किस तरह सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।  उन्होंने अपने सेवा काल के अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहा कि सामाजिक समानता के लिए प्रत्येक मोर्चे पर बहुत अधिक चुनौतियाँ हैं जिनसे लड़कर ही बदलाव संभव होगा।

मनोविज्ञान की विशेषज्ञ और सलाहकार वसुधा चतुर्वेदी ने परिचर्चा में कहा कि स्त्रियों के लिए अपनी देखभाल या सेल्फ केयर अभी भी एक अज्ञात विचार है, जबकि वे ख़ुद सभी की जरूरतों का पूरा खयाल रखतीं हैं। खुद की मानसिक जरूरत और देखभाल उनकी वैचारिक और व्यवहारिक परिधि से बाहर की बात है। चतुर्वेदी ने मनोवैज्ञानिक उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट किया और युवा महिलाओं आह्वान किया कि वे सेल्फ केयर को आवश्यक समझें ताकि समाज की वास्तविक बेहतरी हो सके।

होम्योपैथी की चिकित्सक डॉ गीता सिद्धार्थ ने कहा स्त्रियों को एक जीवन काल में चार बार जन्म लेना पड़ता है। पहली बार जब उसका जन्म होता है, दूसरी बार जब वह युवती होती है,  तीसरी बार जब वह माँ बनती है और चौथी बार जब उसका मेनोपोज़ होता है। इन चारों पड़ावों से जुड़े स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक  पक्षों को विस्तार से बताते हुए डॉ सिद्धार्थ ने शारीरिक जागरूकता के सम्बन्ध में होम्योपैथी की उपयोगिता बताई।

योग एवं प्राकृतिक चिकित्सक डॉ दीपाली ने विविध क्रियाकलापों के माध्यम से शारीरिक तनाव  कम करने के तरीके बताए और इनके महत्त्व को स्पष्ट किया। आपने रोज़मर्रा के जीवन में सेल्फ केयर की महत्ता और सेल्फ टॉक (स्वयं से बात करना) के मानसिक स्वास्थ्य पर होने वाले सकारात्मक और जादुई प्रभावों की ओर भी ध्यान इंगित किया।

आयोजन में  डॉ मनीषा पांडे, डॉ अनिरुद्ध प्रसाद, डॉ पल्लव एवं अभय रंजन ने वक्ताओं का फूलों से अभिनन्दन किया। प्रकोष्ठ की छात्राओं अनुजा दीक्षित, भव्या शुक्ला, स्मृति और तनिष्का ने मंच संचालन किया। प्रकोष्ठ अध्यक्ष अवंतिका और उपाध्यक्ष रुचिका ने अतिथि परिचय दिया। अंत में महिला विकास प्रकोष्ठ की परामर्शदाता डॉ नीलम सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित किया और कहा कि महिला दिवस का आयोजन सशक्तीकरण को प्रतिबिंबित करता है। परिचर्चा में राष्ट्रीय सेवा योजना के  स्वयं सेवकों, विद्यार्थियों और शोधार्थियों की भारी उपस्थिति रही।

अभिनव झा
महिला विकास प्रकोष्ठ
हिन्दू महाविद्यालय
दिल्ली