Wednesday, July 3, 2024
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जमीनी स्तर पर जुड़िए सरकार

2024 के आम चुनाव इस तथ्य का संकेत है कि जनता ही जनार्दन है। जनता की मूलभूत समस्याओं का निजात करके शासक वर्ग मजबूत स्थिति में हो सकता है। जाति वर्गीकरण में पाया गया है कि सबसे ज्यादा बेरोजगारी उच्च जाति में है, जिसकी हिमायती राजनीतिक दल को सोचने के लिए फुर्सत नहीं था। भाजपा को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश से ही मिला जो वोटो के दृष्टि से परंपरागत मतदाताओं का गढ़ रहा है। विकसित भारत की संकल्पना और देश की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने जैसे वादे को देश के निधन- वंचित वर्ग को आकर्षित करने में असफल रहा है ।

आम चुनाव ,2024 से राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति और मजबूरी की राजनीति की वापसी हुई है। भारतीय राजनीति में मौसम वैज्ञानिक के नाम से जाने जाने वाले सुशासन बाबू गठबंधन की राजनीति को दबाव की राजनीति में तब्दील कर देते है।समय का तकाजा और दूरदर्शिता के अभाव में सुशासन बाबू शासक निर्माण की भूमिका में है।इसी तरह की वाक्या चंद्रबाबू नायडू जी का भी है की वह गठबंधन की राजनीति को मलाईदार मंत्रालय और अपनी मांगों के लिए भरपूर इस्तेमाल करते है। दोनों राजनेताओं की खूबी है की अवसर का लाभ प्रत्येक चरण पर उठाने में माहिर है।गठबंधन की राजनीति मजबूरी की राजनीति में बदल जाती है ।विधायिका कार्यपालिका से मजबूत होती है तो विकास की राजनीति पटरी से नीचे आ जाती है।

संप्रति सवाल यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में हीन स्थिति में क्यों हो गई? तात्कालिक स्तर पर सबसे बड़ा कारण युवाओं का गुस्सा था। संगठन और सरकार में सामंजस्य का अभाव भी कारण रहा है। अयोध्या में श्री राम मंदिर निर्माण के कारण समूचा देश राममय में हुआ था जिससे भाजपा अतिविशवास में थी, लेकिन उत्तर प्रदेश में राम नहीं रंग ला पाए।

सबसे बड़ा संकट यह रहा कि अयोध्या मंडल के सभी सीटों से हाथ धोना पड़ा है ।उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा नुकसान युवाओं के गुस्से, बड़े नेताओं के परस्पर अहम ,स्थानीय स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार और अलोकप्रिय लोगों को टिकट वितरण से है जिनको शीर्ष नेतृत्व समय से समझ नहीं सका था।

इस जनादेश का संदेश यह भी है कि संगठन को जमीनी लोगों पर विश्वास करना होगा। जब नेतृत्व चापलूस और चाटुकार से फीडबैक लेने लगे तो संगठन हीनतर (कमजोर)स्थिति में आ जाती है। यूपी में ऐसे नेताओं की लंबी सूची रही है जिनको जनता की नब्ज टटोलने से कोसों भर दूर रहे हैं।

जमीनी कार्यकर्ता नाराज होकर उत्तर प्रदेश सरकार को सुधार का संदेश दिया है। यह सत्य है कि भाजपा द्वारा 240 सीटों की जीत मोदी जी के व्यक्तित्व के कारण मिला है ।भाजपा को 46% वोट मिले है। भारतीय जनता पार्टी को परंपरागत मतदाताओं पर विशेष ध्यान देना होगा,क्योंकि निश्चित और परंपरागत मतदाताओं के भरोसे सरकार बनती है।फ्लोटिंग(बहने वाले मतदाता) कब किधर चले जाए ! यह तथ्य समाज वैज्ञानिकों के शोध का प्रकरण अभी भी बना हुआ है।

(लेखक राजनीति विश्लेषक हैं)

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आसन्न अतीत के सुरक्षित पड़े अंधेरे में प्रवेश

साहित्य ने जब- जब चिकित्सकों, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को आकर्षित किया है, उन्हों ने इसे शाश्वत ऊंचाइयों से ही जोड़ा है । मास्को मेडिकल कॉलेज से अपनी शिक्षा पूरी करने वाले एंटोन चेखव रूस के जाने माने चिकित्सक होने के साथ साथ विश्व प्रसिद्ध नाटककार, और कथाकार रहे। कहते थे- चिकित्सा उनकी धर्म पत्नी है और साहित्य प्रेमिका। प्रवासी भारतीय माता- पिता की संतान अब्राहम वर्गीस मशहूर अमेरिकन चिकित्सक होने के साथ-साथ उपन्यासकार, संस्मरण लेखक भी हैं। मानते हैं कि चिकित्सा उनका पहला प्यार है और लेखन सीधे उसी से निकला है।

ब्रिटेन के उपन्यासकार समरसेट मोघम ने चिकित्सक होते हुये भी कभी चिकित्सा का अभ्यास नहीं किया और पूर्णकालिक लेखक बन गए। वे नाटककार, उपन्यासकार और कहानीकार थे। हारवर्ड विश्वविद्यालय से एम. डी. करने वाले जॉन माइकल क्रिचटन नाटक, कहानिया, उपन्यास लिखने में रूचि रखते थे। ‘द जुरैसिक पार्क’ उनकी विश्व प्रसिद्ध रचना है। इन्फोसिस कंपनी की अध्यक्ष टाटा मोटर्स की पहली महिला इंजीनियर सुधा मूर्ति ने साहित्य को 32 पुस्तकें दी हैं। उपन्यास, कहानी, लघु कथा, यात्रा संस्मरण- सब पर लेखनी चलाई है।

नौ उपन्यासों के रचयिता बेस्ट सेलर लेखक चेतन भगत ने दिल्ली प्रोद्यौगिकी संस्थान से मकेनिकल इंजीन्यरिंग की थी। हिन्दी ब्लोगिंग के आदि पुरुष रवि रतलामी टेक्नोक्रेट थे। हिन्दी पठन और कविता, गजल, व्यंग्य, स्तम्भ लेखन में उनकी पैठ थी।

नोएडा की पारुल सिंह हिन्दी जगत का एक उभरता हुआ हस्ताक्षर है। वे विज्ञान की छात्रा रही हैं। अल्मोड़ा विश्वविद्यालय से बॉटनी में एम. एस. सी. हैं। ‘चाहने की आदत है’ उनका कविता संग्रह है। ‘ऐ वहशते दिल क्या करूँ’ पारुल सिंह का संस्मरणात्मक उपन्यास है।

कहानी का आरंभ जुलाई 2014 से किया गया है। जब 42 वर्षीय नायिका पहली बार अस्पताल में एडमिट हुई थी। भूमिका में कहती हैं- “मैंने अपनी हार्ट सर्जरी के अनुभवों पर यह किताब लिखनी शुरू की। — आजकल हम — मैं और मेरे पति ब्रिजवीर सिंह जी -अलग- अलग शहरों में हैं तो मैं दिन भर का लिखा उन्हें भेजती। — सर्जरी के समय हम दोनों साथ थे ।” लिखने में, साफ़गोई में पति का हाथ प्रमुख रहा- “ जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख/ इतनी अंधेरी थी न कभी पहले रात, लिख जिनसे कसीदे लिखे थे वो फेंक दे कलम/ फिर खूने दिल से सच्चे दिल की शिफात लिख।”

जुलाई 2014 से नायिका पारुल सिंह तकलीफ में है। सांस की तकलीफ है, चक्कर आते हैं, सूजन है, बाल गिरते हैं, बेहोशी सा भी कुछ है। डॉ. इसे पैनिक अटैक कह स्ट्रैस और डिप्रेशन की दवाई देते रहते हैं, खुश रहने के लिए कहते हैं और रोग बढ़ता जाता है। सितंबर 2017 की इकोकार्डियोग्राफी बताती है कि दिल का एक वॉल्व बुरी तरह लीक कर रहा है और सर्जन ही बताएगा कि ओपन हार्ट सर्जरी करके इस वॉल्व की मरम्मत करनी है या इसे बदलना है।

सर्जरी के लिए वह नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली में दाखिल होती है। पता चलता है कि देर हो जाने के कारण वॉल्व रिपेयर का ऑप्शन नहीं रहा। अब एनिमल टिशू से बना मकेनिकल वॉल्व लगेगा।

पन्द्रह परिच्छेदों का यह संस्मरणात्मक उपन्यास रोगी के जीवट की, साहस की कहानी है। स्मृतियों से आच्छन्न पूर्वदीप्ति शैली ने, गीत- गजल- शेर ने, अतीत के रोचक प्रसंगों ने, परामनोविज्ञान की अलौकिक अनुभूतियों ने दुख की इस गाथा में साहित्य रस का सानुपातिक मिश्रण कर दिया है। ‘ज़िंदगी के युद्ध की रूमानी कहानी’ में पंकज सुबीर लिखते हैं–

“यह किताब लड़ना नहीं सिखाती, बल्कि आनंद के साथ लड़ना सिखाती है। —- जो कुछ हो रहा है, उस पर यदि आपका वश नहीं है, तो उसका आनंद लेना चाहिए।– यह दुख की कहानी है, मगर इसमें दुख कहीं नहीं है। दुख अगर इस कहानी को पढ़ ले तो स्वयं हैरत में पड़ जाये कि मेरी कहानी में मुझे ही नगण्य कर देने वाला कौन लेखक है।”

यह छह- सात घंटे की ओपेन- हार्ट- सर्जरी है। बाद में ढेरों मशीनों, अक्सिजन मास्क, कई तरह के दर्द, जागते रहने, लंबी सांस लेने के आदेश हैं। रोगी एक- एक घूंट पानी के लिए तड़पता है और जब नारियल पानी मिलता है, तो लगता है मानो ब्रह्मभोज मिल गया। हृदय की शल्य चिकित्सा के साथ मृत्युभय का वह पक्ष जुड़ा है, जो व्यक्ति के अपनों के प्रति मोह को पहले ही समाप्त कर देता है। यह आई. सी. क्यू. है। सब व्यस्त हैं- मरीज कराहने में और नर्स डॉक्टर तीमारदारी में। अनेक डॉक्टरों का जिक्र हैं– कार्डियक सर्जन डॉ. विकास अग्रवाल, सहायक डॉ अमिता यादव, अनेस्थेटिस्ट डॉ रचिता धवन, डॉक्टर गुलिस्ताँ, फिजिओथैरेपिस्ट। नर्स संगमा, कृष्णा, मेल नर्स, कैंटीन के लोग भी हैं। माँ, पापा, पति बी. वी. और मित्रगण हैं। सुदेश जी, मुरादाबाद का चौंकी इंचार्ज धोरासिंह जैसे अन्य रोगी हैं। दवाइयों के साइड एफ़ेक्ट्स, एनेस्थीसिया, दर्द निवारक दवाए, मसल्स रिलेक्सेट्स आदि मिलकर अनेक परेशानियाँ उत्पन्न कर रहे हैं।

नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट नई दिल्ली की आई. सी. क्यू. में पड़ी नायिका पारुल का संवेदनशील मन वस्तु बनने से विद्रोह कर रहा है। उसके सर्जन डॉक्टर विकास हैंडसम हैं, आत्मविश्वास और गर्व से भरपूर हैं। दृष्टि सपाट, सर्जरी पर पूरा फोकस, रोगी के बारे में सब कुछ कंठस्थ, सिनसियर, आर्गनाइज्ड, लंबे- ऊंचे, रोबोटिक। उन का दौड़ता हुआ सा हृदयहीन, मकैनिकल काफिला दनदनाता हुआ आता है। उनके बोलने का लहज़ा सपाट सा है। सर्जन और रोगी का अद्भुत रिश्ता है- वह डॉ के लिए मात्र एक रोगी है और डॉ रोगी के लिए जीवन दाता, भगवान, खेवनहार है। पारुल उनमें अपनापन ढूंढती है। लेकिन डॉ. को मरीज का उत्तर या बात सुनने की आदत ही नहीं। मरीज सिर्फ मरीज है, उसका कोई रुतबा नहीं, वह शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप में भी अनेक चुनौतियों से नित्य जूझता है। क्या मरीज का कोई आत्म सम्मान नहीं होता?

मृत्यु और जीवन के बीच झूल रही पारुल अपने डॉ के गले लगना चाहती है। लेकिन डॉ रोबोट सा व्यक्तित्व लिए है। समझिए कि मरीज का भी वस्तुकरण हो चुका है। उसे वार्ड से आई. सी. यू. अथवा आई. सी. यू. से वार्ड में भेजा नहीं जाता, हैंड ओवर किया जाता है। उसे आई. सी. यू. एक सोलो ट्रिप सा, प्रवास सा लगता है। भले ही मानसिक तौर पर पूरा परिवार आपके साथ हो, लेकिन शारीरिक स्तर पर आप अकेले ही होते हो। ऐसे में फिजियोथेरेपिस्ट का संवेदनशील व्यवहार और पति का स्नेह तथा अपनापा पारुल के अंदर आत्मविश्वास उत्पन्न करते हैं। मृतप्राय: जीवट में संजीवनी भरते हैं।

डॉ. अमिता तो हर रोगी के दर्द से तादात्म्य की क्षमता लिए है। बेटियो की स्मृति क्षमताबोध देती है। सर्जन के रूखे और अपमानजनक व्यवहार के बाद पारुल को पति बी. वी. का आना ऐसे लगता है जैसे किसी मेले में अकेले खोये हुये व्यक्ति को कोई अपना मिल गया हो, जैसे चारों ओर कोई खुशबू फैल गई हो।

फ्लैश बैक, पुरानी स्मृतियां, अतीत की यात्रा पठनीयता में रोचकता भरते है। आई. सी. यू. में प्यास की तीव्रता पारुल को दशकों पूर्व की उस यात्रा पर ले जाती है, जब दिल्ली से हल्द्वानी जाते लैंड स्लाइड के कारण बस रुकी थी। वह नाशपतियाँ तोड़ कर लाई थी, बहुत प्यास लगी थी और बोतल में पानी देख वह प्रसन्न भी हुई थी और विस्मित भी। ऑपरेशन थिएटर में पारुल बड़ी बेटी की ड़िलीवरी के समय यानी तेईस की उम्र में सात माह के बाद बाद हुये सिजेरियन की स्मृतियों में चक्कर लगाने लगती है। जब बार बार लंबी सांस लेने के लिए कहा जाता है तो वह अपने बचपन में पहुँच जाती है। जब वह और मनोज साँसे रोक कर साँसे बचाने का जुगाड़ किया करते थे। अपने शरीर की बनावट पर यह सुनने पर कि ब्रेस्ट भारी होने के कारण फेफड़े ठीक से काम नहीं कर रहे, जख्म भर नही रहा, वह आहत होती है, और वय: संधि काल की स्कूली स्मृतियाँ ताजा हो आती हैं, तब भी वक्ष के इसी भारीपन ने उसे वर्षों परेशानी में डाले रखा था।

नींद में अस्पताल की सीढ़ियाँ पारूल को दशकों पूर्व की कालेज की सीढ़ियों तक ले जाती है, जब वह मेरठ के रघुनाथ कॉलेज में बी. एस. सी. की मस्त किशोर छात्रा थी। लिखती हैं-

“ मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त

मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ।”

उपन्यास में कुल 15 परिच्छेद हैं और हर परिच्छेद का आरंभ एक शेर से होता है-

“हजारों ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।”

गहन असहनीय दर्द में भी पारुल मन ही मन गीत गाती रहती है, क्योंकि गानों में डूबा होना दर्द में डूबने से ज्यादा अच्छा है। दर्द से जूझने के लिए वह म्यूजिक थेरेपी का प्रयोग करती है। रेडियो से साहिर के गीतों की आवाजें उसे बांधती हैं।

मरीज का डॉ./नर्स से रिश्ता एक विश्वास का होता है। जैसे पारुल डॉ. विकास में अपनापा ढूंढती है, वैसे ही रोगी धोरासिंह पर एक नर्स का ‘हुन्न बोलो’ जादू कर रहा है- “जादू था जो आदिकाल से किसी भी स्त्री के समक्ष पुरुष को बेचारा, निरुपाय बनाता आया है। — पुरुष स्वभावत: स्त्री के किसी भी रूप के समक्ष आशा भरी निगाहों से ही देखता है। उसे लगता है उसी के पास हल है उसकी सारी समस्याओं का। भरण- पोषण की दुरूह कंटीली धूप सी जिम्मेदारियों से व्याकुल वह थोडी नर्म छांव सदा अपने जीवन में वह स्त्रियॉं में ही तलाशता व पाता है। पुरुष स्वभाव अपनी भावनाओं को प्रकट न कर पाने के लिए शापित है, ऐसे में स्त्री चाहे किसी भी रिश्ते में हो , जब उसका अनकहा समझती है तो उसके समक्ष आँख मूँद आराम पाता है।”

उपन्यास में परामनोविज्ञान के अनेक प्रसंग मिलते हैं। परिच्छेद तीन में सर्जरी के लिए पारुल को बेसुध किया जा चुका है। उसका दिल और फेफड़े बंद पड़े हैं। उन्हें ‘पी. सी. बी.’ तकनीक यानी मशीनों से चालू रखा हुआ है। ऐसे में एक परा मनोवैज्ञानिक शक्ति पारुल की आत्मा को अस्पताल के प्रथम तल पर बैठे परिजनों के पास ले आती है। वह पति की अंतरचेतना से सामंजस्य स्थापित कर उसे पढ़ने लगती है। परिच्छेद 6 में आया परामनोविज्ञान का प्रसंग मृत्यु भय से जुड़ा है-

“अचानक मुझे ऐसा लगा कि मुझ से यह धरती छूट रही है अब मैं इस ब्रह्मांड पर वापिस नहीं आऊँगी, पता नहीं कहाँ चली जाऊँगी। — नीची छूटती जाती धरती से दूर होते जाना देख रही थी।”

परिच्छेद 12 में बेचैन पारूल हठधर्मी डॉ विकास के आदेश से परेशान हो माँ को याद करती है और तभी डॉ का उसके हक में निर्णय आ जाता है और उसे लगता है माँ ने ही डॉ की अंतश्चेतना को प्रभावित कर यह निर्णय करवाया है। पारुल का विश्वास है कि “माँ के साथ हम टेलीपैथी से जुड़े होते हैं।” 175

पारुल सिंह में स्त्री सुलभ नज़ाकत और सौंदर्यबोध है। वह सर्जरी के लिए अस्पताल भी आती है तो जीन्स, पुलओवर और पूरे मेकअप के साथ। सर्जरी के समय भी उसे शरीर पर रह जाने वाले निशान की चिंता है। शरीर उसका प्लम्पी सा है। लेकिन वह स्मार्ट है। पति को भी वेषभूषा से स्मार्ट बनाए रखती है और उसे डॉ. भी स्मार्ट ही चाहिए। नाजुक इतनी थी कि चीर- फाड़ के भय से वह शादी के बाद बच्चों को जन्म ही नहीं देना चाहती थी और नियति देखो कि हृदय पर छुरिया चलवाने के लिए अभिशप्त है। अस्पताल में भी देखती है कि डॉ नीले रंग का ब्लेज़र या कोट, सफ़ेद शर्ट, नीली टाई पहनते हैं। नर्सें हरे रंग की पट्टियों वाले स्क्रब, कैनटीन का स्टाफ सफ़ेद टोपी, सफ़ेद शर्ट, काली जैकेट पहनता है।

कहते हैं कि भगवान ने स्त्री को बड़ी फुरसत से बनाया है, लेकिन उसके जीवन में फुर्सत के पल लिखना ही भूल गया है। कामकाजी स्त्री को तो मशीन ही मान लो। स्त्री भले ही डॉ. हो, उसे घर जाकर भी, रविवार को भी काम करना होता है। डॉ रचिता को अस्पताल का काम थकान नहीं देता, घर का काम – सफाई, कपड़े, खाना- जैसे थैंकलैस काम थका देते हैं और पति आम पतियों की तरह न बाहर से काम करवाने देते हैं, न ढंग की मशीन लेने देते हैं और न स्वयं कोई मदद करवाते हैं। नायिका की कॉलेज हॉस्टल की सबसे मेघावी सहपाठिन अनीता की भी बात करती है। पढ़ाई छूटी, सात बहनों के भाई से शादी हुई और वह हाउस वाइफ बनकर रह गई।

पल्मोनलाजिस्ट, एनेस्थेटिस्ट , एंजीओग्राफी, कार्डियोपलमोनरी बाईपास, परफ्यूजनिस्ट, लंग्स का एसपिरेशन, माइट्रल वॉल्व, मिनिमली इनवेसिव सर्जरी , परफ्यूजनिस्ट, इन्सिजन, एस्टर्नम, रूमेटिक हार्ट डिजीज, माइल्ड ट्रायकस्पिड, कैल्सिफिकेशन, कैथेटर जैसे अनेकानेक मेडिकल के शब्द उपन्यास में समाहित हैं।

उपन्यास में आई सूत्रात्मकता लेखिका के प्रौढ़ चिंतन का परिणाम है। जैसे-

1. बात लफ्जों के बिना कही जाती है, वो ही सबसे ज्यादा महत्व की होती है। — वो इस दुनिया की सबसे खूबसूरत बात होती है।

2. दो तरह की मुस्कुराहटें होती हैं अमूमन। एक में तो चेहरा ही मुसकुराता है केवल, और दूसरी मुस्कुराहट वो होती है जिसमें चेहरे के साथ आँखें भी मुस्कुराती हैं।

3. बीमारी के साथ मर जाना बीमारी को खत्म करने का छटा और आसान रास्ता था।

4. जितनी अपनी हिम्मत बढ़ाते हैं ऊपर वाला उतने ही बड़े इम्तिहान लेने लगता है।

5. कितना अभिमानी होता है इंसान, सामने मौत खड़ी हो तो भी उसे अपने अहं की रखवाली जरूरी लगती है।

मम्मी के कुछ विश्वास- अंधविश्वास भी हैं। जैसे नाम लेने से लोग पास और पास आ जाते हैं। मरे हुये लोग सिरहाने आ बैठते हैं तो मौत आती है।पौराणिक प्रतीक भी आए हैं, जैसे- कामधेनु के सहारे वैतरनी पार करने की जुगत।

‘ऐ वहशते दिल क्या करूँ’ उपन्यास स्मृति व्यापार नहीं है। जो तन मन पर गुजारा उस भोगे गए दर्द का रचनात्मक, साहित्यिक व्यौरा है। कहानी प्रेम– मुहब्बत की नहीं है, सामाजिक- सांस्कृतिक, प्रशासनिक, राजनैतिक विघटन की नहीं है, यह जीवन का आम, लेकिन अछूता पक्ष है।

उपन्यास कुछ ईमानदार प्रश्न छोड़ता है कि डॉ. की सहृदयता रोगी का आधा दर्द हर लेती है। रोगी का वस्तुकरण उसे स्वस्थ होने नहीं देता। कामकाजी स्त्री को पति का सहयोग अवश्य मिलना चाहिए। चूल्हा चौंका स्त्री की प्रतिभा को राख़ कर देता है। उपन्यास अनास्था से आस्था, नकारात्मकता से सकारात्मकता, मृत्युबोध से जीवन बोध की यात्रा है। लेखिका ने अद्भुत कथाकौशल से ओपन हार्ट सर्जरी वाले रोगी की वेदनाओं, मन: स्थितियों का लेखा जोखा, अपनी लेखनी में पिरोया है। यहाँ अस्पताल के इंटैन्सिव केयर सेंटर के मेडिकल स्टाफ और मरीजों का मुंह बोलते चित्र हैं, जिन्हें डॉक्टरों को अवश्य पढ़ना चाहिए।

यह संस्मरणात्मक उपन्यास है। पारुलसिंह ने आसन्न अतीत के सुरक्षित पड़े अंधेरे में प्रवेश किया है। जिये हुये अतीत को पुन: जिया है। हिन्दी में संस्मरणात्मक उपन्यासों की शुरुआत निराला के ‘कुल्लीभाट’ से मानी गई है। रामदेव धुरंधर का ‘अपने रास्ते का मुसाफिर’ आत्म संस्मरणात्मक उपन्यास है। मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ भी आत्मकथात्मक है। मृदुला गर्ग के ‘ये नायाब औरतें’ में यादों के पेंडोरा बॉक्स से निकाले गए नायाब किस्से हैं।

उपन्यास का अन्तिम परिच्छेद इसके संस्मरणात्मक रूप की एक बार फिर पुष्टि करता है। यहाँ पुस्तक मेला है। पंकज सुबीर, नीरज गोस्वामी, शहरयार, सन्नी जैसे साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों की चर्चा है।

लेखक के बारे में

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब

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जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणाम !

जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान हुआ है। औद्योगिक क्रांति के पश्चात पर्यावरण को जितनी क्षति पहुंची है वह बीते 2000 वर्षों के तुलना में बहुत विनाशकारी है। इसका परिणाम हम जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि से उपजे महासंकटों के रूप में देख रहे हैं। वैश्विक स्तर के अद्यतन प्रतिवेदन में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के चलते वर्ष 2050 तक वैश्विक आय में 19% की कमी आ सकती है।

इसी प्रकार विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में प्रकाशित प्रतिवेदन में चिंता जताई गई है कि भारत में आय में कमी का 22% तक हो सकता है। वायुमंडल में पहले से मौजूद ग्रीनहाउस गैस निरंतर बढ़ रहे हैं। प्रदूषण और पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था को लगभग 20% की हानि हो सकती है। संप्रति से कार्बन उत्सर्जन में वृहद कटौती कर ली जाए तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को ब20% तक नुकसान उठाना ही होगा।

जलवायु परिवर्तन आने वाले 25 वर्षों में संसार भर के लगभग सभी देशों में भारी आर्थिक नुकसान करेगा। इसमें प्रकृति सभी वर्गों और सभी आय वर्गों को नुकसान पहुंचाएगी। आर्थिक नुकसान को झेलने वाले देशों में विकासशील देशों और विकसित देश दोनों है। पर्यावरण समस्याओं पर शीघ्र सकारात्मक सुधार नहीं किया गया तो वर्ष 2029 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को 60% तक का नुकसान उठाना पड़ेगा ।मौसम वैज्ञानिकों और भूगर्भ भूगर्भ वैज्ञानिकों का मानना है कि बढ़ते तापमान के लिए त्वरित स्तर पर कार्रवाई नहीं हुआ तो पृथ्वी आने वाले वर्षों में धधकते गोला बन जाएगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि वैश्विक तापमान विगत 150 सालों में अपने उच्चतम स्तर पर है।

औद्योगीकरण की शुरुआत से लेकर संप्रति तक तपांतरण में 1.25 सेल्सियस के स्तर पर पहुंच चुका है ।आंकड़ों के अनुसार 45 वर्षों से प्रत्येक दशक में तापमान में 0.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है । आईपीसीसी के आंकड़ों और अनुमानों में 21वीं सदी में पृथ्वी के पार्थिव स्तर के तापमान में 1.1 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है । वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया है कि बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से घट रही है । अन्य शोध के अनुसार ,वायुमंडल में 36 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमंडल से 24 लाख तन ऑक्सीजन खत्म हो चुका है । यही स्थिति बनी रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होना निश्चित है।

भूमंडलीय तापन के कारण पृथ्वी का तापमान जिस तेज गति से उन्नयन कर रहा है इससे आने वाले वर्षों में 60 डिग्री सेल्सियस होने की संभावना बढ़ रही है। पृथ्वी के तापमान में 3.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो आर्कटिक और अंटार्कटिका के वृहद हिमखंड पिघल जाएंगे ।बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की बर्फ की चादरें शीघ्रता से पिघल रहे हैं ।भूमंडलीय तापन के कारण हिमालय क्षेत्र में माउंट एवरेस्ट के हिमचादर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ रहे हैं। कश्मीर और नेपाल के मध्य गंगोत्री हिमचादर भी तेजी से पिघल रही है। जलवायु परिवर्तन को सुरक्षित भविष्य के लिए संरक्षित करना है तो भूमंडलीय तापन को नियंत्रित करना होगा ।ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित एवं सावधानी पूर्वक अनुप्रयोग करना होगा। वैज्ञानिक प्रगति के फलात्मक प्रभाव को मानव हित के लिए सावधानी से प्रयोग करना होगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं )

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किस करवट बैठेगा मुस्लिम आरक्षण का ऊंट ?

संविधान के अनुच्छेद 341 और अनुच्छेद 342 के तहत, किसी समुदाय विशेष को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति घोषित करना संसद में निहित शक्ति है। आरक्षण और योग्यता के बीच संतुलन रखना, समुदायों को आरक्षण देते समय प्रशासन की दक्षता को ध्यान में रखना भी आवश्यक है। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि भारत के संविधान में आरक्षण जातीय आधार पर है न कि धार्मिक आधार पर।

भारत में आरक्षण सदा से वोट बैंक की राजनीति साधने का माध्यम रहा है। सबको पता है कि भारत के संविधान द्वारा अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 10 वर्ष के लिए सरकारी नौकरियां अधिनिया आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। प्रारंभ में इस आरक्षण की अवधि को आगे बढ़ते हुए वोट बैंक को साधा जाता रहा। लेकिन जब यह स्थायी सा हो गया तो अब वोट बैंक बनाने के लिए कुछ नया चाहिए था।

भारत के संविधान में अनुसूचित जाति जनजाति के लिए सीमित अवधि के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी लेकिन पदोन्नति में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। लेकिन वोट बैंक को रिझाने और अपनी सत्ता पाने के लिए उन्होंने यह भी शुरू कर दिया जो कि पूर्णत: असंवैधानिक था। हालांकि जब किसी व्यक्ति ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते इसे संविधान संशोधन के माध्यम से संवैधानिक बना दिया गया।

तब कांग्रेस नेता और बाद में राजीव गांधी के बोफोर्स घोटाले में फंसने पर कांग्रेस विरोधी लहर के चलते कांग्रेस छोड़कर नए विपक्षी गठबंधन नेशशनल फ्रंट में आए कांग्रेस के पूर्व नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह, जनता दल के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने सोचा कि आरक्षण के माध्यम से ऐसा कुछ किया जाए जिससे वे आजीवन प्रधानमंत्री बने रहें, इसके लिए उन्होंने रद्दी की टोकरी में पड़ी मंडल आयोग की रिपोर्ट को निकाला और रातों-रात लागू कर दिया। इस प्रकार भारत में पिछड़ी जातियों के नाम पर आरक्षण शुरू हो गया, जिसका सामान्य वर्ग द्वारा भारी विरोध भी हुआ। आजीवन प्रधानमंत्री बनने का सपना तो देखा, लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

1990 में उनके शासनकाल में, जब कश्मीर के नेता और भारत के पहले मुस्लिम गृहमंत्री, मुफ्ती मोहम्मद सईद भारत के गृहमंत्री बने तो कश्मीर घाटी से कश्मीरी हिंदुओं को बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा भारी हिंसा करके कश्मीर घाटी से निकाल दिया। जिसकी पूरे देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम रथयात्रा निकाली गई और उसके बाद, भाजपा ने तत्कालीन जनता दल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार अविश्वास मत हार गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 7 नवंबर 1990 को इस्तीफा दे दिया।

लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते सभी दलों ने मंडल आयोग की सिफारिश के अनुसार पिछड़े वर्ग के आरक्षण को स्वीकार कर लिया। सामान्य वर्ग के लोगों में बढ़ते आक्रोश के चलते सरकार ने जनवरी 2019 में संविधान संशोधन करके सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए भी भी 10% आरक्षण प्रदान कर दिया।

अगर इतिहास टटोल कर देखें तो आरक्षण के माध्यम से वोट बैंक बनाकर सत्ता पाने का सर्वाधिक कार्य कांग्रेस द्वारा ही किया गया। वी.पी. सिंह भी मूलतः कांग्रेसी ही थे। उन्होंने भी आरक्षण का ही दांव खेला था, हालांकि वह उनके काम नहीं आया।जब कांग्रेस को कोई नया रास्ता दिखाई नहीं दिया। अब आरक्षण के जिन्न से कैसे नया वोट बैंक बनाया जाए इसके नए-नए रास्ते ढूंढे जाने लगे। तब उन्होंने विभिन्न राज्यों में वहां की तगड़ी और दबंग जातियों को आरक्षण के लिए भड़काया और एक के बाद एक राज्य को आरक्षण के आंदोलन से दहलाना शुरू किया, यह प्रक्रिया अभी तक चल रही है।

दबंग और लड़ाकू जातियों में से यादवों को तो पहले ही आरक्षण मिल गया था फिर कभी जाट आरक्षण के नाम पर पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा को रक्तरंजित किया, गुर्जर आरक्षण के नाम पर राजस्थान को दहलाया गया। फिर पाटीदार आरक्षण को लेकर गुजरात को दहलाया गया, मराठा आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र मैं भी ऐसा ही हुआ और इसी प्रकार कर्नाटक में भी किया गया। जब भी चुनाव आते हैं आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर निकाला जाता है। इस बार भी महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण में किस जाति को जोड़ा जाए, इसे लेकर बड़ा मुद्दा बनाया गया।

अब विपक्षी नेताओं को वोट बैंक साधने के लिए कोई नया रास्ता खोजना था। मुस्लिम तुष्टिकरण का मुद्दा तो पहले से ही लगातार सुर्खियों में रहा है। मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कांग्रेस के शासनकाल में ही कई ऐसे कानून बनाए गए जो संविधान की मूल भावना के तथा समानता के अधिकार के ठीक प्रतिकूल थे। अब संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रतिकूल कई राज्यों में मुसलमानों को आरक्षण देने का काम शुरू कर दिया गया। अदालतों द्वारा इसे असंवैधानिक तथा गैर कानूनी मानते हुए रद्द किया जाने लगा। लेकिन मुसलमानों का हितैषी बनने और दिखाने के लिए फिर भी यह होता रहा ताकि मुस्लिम वोट बैंक इन दलों के पक्ष में रहे।

इन दलों की आपसी लड़ाई भी प्राय: मुस्लिम वोट बैंक को लेकर देखी जाती है। जैसे-जैसे मुसलमानों की आबादी बढ़ती जा रही है विपक्षी दलों को यह सबसे अच्छा रास्ता दिखाई दे रहा है। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार द्वारा हाल ही में आरक्षण में मुसलमानों को शामिल किए जाने और उसके आधार पर उन्हें नौकरियां दिए जाने का मामला जब उच्च न्यायालय में पहुंचा तो उसे गैर कानूनी पा कर कोलकाता उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। लेकिन क्योंकि बांग्लादेश और म्यांमार से होती घुसपैठ तथा मुस्लिम आबादी बढ़ने की दर के कारण बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ी है, हालांकि इनमें से बहुत बड़ी आबादी यहां से पलायन कर अन्य राज्यों में भी पहुंच रही है।

जो ममता बैनर्जी का सबसे पक्का वोट बैंक है, तो वे कहां मानने वाली हैं। उन्होंने कोलकाता उच्च न्यायालय के निर्णय को मानने से इनकार कर दिया । अब वे सर्वोच्च न्यायालय में जाएगी। उसमें कुछ वर्ष निकल जाएंगे तब तक असंवैधानिक आरक्षण के माध्यम से नौकरी पर लोगों को कई साल हो जाएंगे, तब उन्हें हटाना और कठिन हो जाएगा। यह हो या ना हो तो भी वे यह धारणा बनाने में तो सफल हो ही जाएँगी कि वे मुसलमानों के लिए संविधान के विरुद्ध जाकर भी कुछ भी करने को तैयार हैं। इससे उनका वोट बैंक तो बढ़ेगा ही। जिसकी जितनी आबादी उसका हर चीज पर उतना हक, इस तरीके से कांग्रेस भी इनके समर्थन में खड़ी है।

इसी प्रकार कर्नाटक सहित कई राज्यों में संविधान विरुद्ध मुसलमानों को अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ा वर्ग में आरक्षण दिया जाने लगा है। उसके विरुद्ध अदालतों में भी लड़ाइयां जारी हैं। लेकिन अब विपक्षी दलों के कई नेताओं ने खुल्लम खुल्ला यह कहना शुरू कर दिया है कि वे मुसलमान के आरक्षण के पक्ष में हैं। यदि वे सत्ता में आएंगे तो मुसलमानों को आरक्षण देंगे, भले ही उसके लिए कानून या संविधान बदलना पड़े। मुस्लिम-यादव समीकरण से बने दलों के मुखिया तो मंचों से मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव ने तो इसे चुनावी मुद्दा बनाया है। यह कहना भी अनुचित न होगा कि इंडी गठबंधन कै ज्यादातर दल पुरजोर ढंग से मुस्लिम तुष्टिकरण में जुटे हुए हैं और उसके लिए कानून व संविधान को ताक पर रख रहे हैं।

अब यहां विचार का विषय यह है कि यदि मुसलमानों को हिंदुओं की तरह अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया तो इस वर्ग के आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा कौन लेगा ? आजादी के बाद जिस तेजी के साथ मुसलमान की आबादी बढ़ी है और लगातार बढ़ रही है तो इस आरक्षण का ज्यादातर लाभार्थी कौन होगा? इसका नुकसान किस होगा ? यह भारत के संविधान के प्रतिकूल तो होगा ही, इसे वर्तमान में आरक्षण का लाभ उठा रहे हिंदू बौद्ध आदि की अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ी जातियों को तब आरक्षण का कितना हिस्सा मिल सकेगा ? क्या वे अपनी आरक्षण में से इतना बड़ा हिस्सा मुसलमान को जाते देखकर चुप बैठेंगे ?

मुस्लिम आरक्षण को लेकर अब विचार का विषय यह भी है कि लोकसभा चुनावों के पश्चात राजनीतिक समीकरण कैसे बनते हैं और सत्ता किसी मिलती है ? जहां भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह संविधान के बाहर जाकर मुसलमानों को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने की विरोध में है और वह ऐसी प्रयासों को सफल नहीं होने देगी। वहीं विपक्षी गठबंधन के घटक दल मुसलमानों को आरक्षण देने को लेकर तलवारें भांज रहे हैं।

यहां प्रश्न यह भी है कि क्या हिंदू, बौद्ध आदि की अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोग अपने आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों को देने के लिए तैयार होंगे, जिनकी आबादी लगातार बढ़ रहा है? क्या इसीलिए कारण देश में एक बार फिर हिंसा का तांडव होगा? वोट बैंक की राजनीति की आग में क्या एक बार फिर देश जलेगा।

क्या धार्मिक आधार पर मुसलमान को अलग से आरक्षण दिया जाएगा और इसके लिए आरक्षणकी निर्धारित सीमा को बढ़ाकर फिर एक नया विभाजन किया जाएगा ? क्या ऐसे प्रयासों की देशभर में तीखी प्रतिक्रिया नहीं होगी ? इसके सामाजिक स्तर और देश के विकास पर किस-किस तरह के प्रभाव पड़ेंगे? क्या प्रतिभा पलायन में और अधिक तेजी आएगी ? प्रणाम जो भी हो लेकिन सत्ता पाने के लिए आतुर विपक्षी दल अब किसी भी कीमत पर मुसलमान को आरक्षण के दायरे में लाकर सत्ता पाने के लिए बेचैन हैं। इसके लिए वे संविधान में परिवर्तन करने के लिए भी तैयार हैं। इन सब प्रयासों का परिणाम क्या होगा, यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन इतना तय है कि यह इतना सरल और शांतिपूर्ण तो नहीं होगा।

(लेखक वैश्विक हिंदी परिषद के अध्यक्ष हैं )

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400 पार के नारे ने विपक्ष की नींद नहीं उड़ाई, उसे जीवनदान दे दिया

4 जून को आए लोकसभा चुनाव परिणामों में भाजपा सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने और एन डी ए को स्पष्ट जनादेश मिलने के बावजूद आल्हादित नहीं है। कार्यकर्ता और समर्थक वर्ग मायूस है। नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। चुनाव परिणाम आने के बाद भारतीय जनता पार्टी कार्यालय में मोदी के संबोधन करते समय उनकी पीड़ा को साफ समझा जा सकता था। लेकिन लोकतंत्र में जो भी जनादेश हो वही अंतिम सत्य है। आगे का रास्ता उसी जनादेश में से निकालना होता है।

इसी दिन इंडी गठबंधन के नेताओं की तस्वीरें भी आईं। उनको सत्ता से दूर रहने का जनादेश मिला। इंडी गठबंधन में शामिल एक भी दल सौ सीटें भी प्राप्त नहीं कर सका। आश्चर्य की बात तो यह है कि इतने दलों के एक साथ आ जाने के बावजूद ये गठबंधन संख्या बल में अकेली भाजपा से पीछे ही रहा। फिर भी चेहरे ऐसे चमक रहे थे जैसे जनता ने उन्हें सत्ता सौंप दी हो। उनको सिर्फ इस बात की खुशी थी, कि उन्होंने मोदी के चार सौ पार के नारे को पूरा नहीं होने दिया। समझ नहीं आया कि उन्होंने चुनाव सत्ता में आने के लिए लड़ा था या मोदी के चार सौ पार के नारे को विफल करने के लिए ? *हां, यह जरूर हो सकता है कि इंडी गठबंधन में शामिल ये राजनीतिक दल अपने अस्तित्व को बचाने के लिए चुनाव लड़ रहे हों और जनता ने उनको एक बार और जीवनदान दे दिया। इस पर तो खुशी बनती है, उनको इस जीवनदान को मिलने का उत्सव जरूर मनाना ही चाहिए।*

सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भाजपा से चूक कहां हुई? भाजपा समर्थक ही नहीं भाजपा विरोधी भी इस पहेली को हल करने में अलग अलग तर्क दे रहे हैं। सोशल मीडिया तो इन तर्कों से भरा पड़ा है। राजनीतिक समीक्षक भी अपनी समझ के हिसाब से इन परिणामों का विवेचन कर रहे हैं। यह कहना कि जनता ने महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे को हाथों हाथ लिया, यह उतना ही बेमानी है, जितना कांग्रेस यह कहे कि जनता ने उसे सरकार चलाने का आदेश दिया है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस का जातीय सांमजस्य भाजपा से बेहतर था, उसका लाभ उसे मिला।

दरअसल, *अबकी बार 400 पार का नारा भाजपा विरोधियों के लिए वरदान बन कर सामने आया। भाजपा विरोधी दल मुस्लिमों और दलितों को यह समझाने में सफल रहे कि भाजपा को यदि 400 से ज्यादा सीटें मिल गईं तो वह समान नागरिक सहिंता और नागरिकता संशोधन अधिनियम को कठोरता से लागू करेंगें। इसी के साथ दलितों को उन्होंने चेताया कि भाजपा आरक्षण को समाप्त करेगी।* ये दोनों ऐसे विषय थे जिनको मुस्लिमों और दलितों ने हाथों हाथ लिया। उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि वहां मुस्लिमों ने भाजपा के विरोध में रणनीतिक रूप से उसी को एकजुट वोट दिया जो भाजपा को हरा सकता है। इसी प्रकार दलितों ने उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को छोड़कर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की राह पकड़ी। जिसके कारण भाजपा को पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम वैसे नहीं आए, जिसकी आशा भाजपा को थी और इसी कारण भाजपा अपने बल पर बहुमत नहीं ला पाई।

तो यह कहा जा सकता है कि *मुस्लिमों ने भाजपा का सबका साथ और सबका विकास नारे को किनारे कर दिया और इस्लाम पहले की नीति को अंगीकार किया।* वरना कोई कारण नहीं गुजरात में रहने वाले गुजराती बोलने वाले क्रिकेटर युसुफ पठान पश्चिम बंगाल के बहरामपुर में जाकर एकमात्र कांग्रेसी नेता अधीररंजन चौधरी को हरा दें। चौधरी के विरोध में उस व्यक्ति को जिता दें, जो उनकी कही बात तक को नहीं समझ सकता !

ऐसा नहीं है कि विपक्ष ने ही 400 पार के नारे से भाजपा को नुकसान पहुंचाया। इस नारे से भाजपा कार्यकर्ताओं में आए अति आत्मविश्वास और बूथ पर मतदान के प्रति उदासीनता ने भाजपा को विपक्ष से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। इसके अलावा चुनाव से ठीक पहले जिस प्रकार से गैर भाजपाई नेताओं को भाजपा में शामिल कर उनको आगे बढ़ाया गया उससे भी भाजपा का मूल कार्यकर्ता उदासीन हो गया। एक छोटा सा लेकिन अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि मतदाता पर्ची के वितरण का काम कार्यकर्ता की बजाय चुनाव आयोग के प्रतिनिधि बी एल ओ द्वारा किया गया, इसका सबसे बड़ा और भारी नुकसान यह हुआ कि भाजपा कार्यकर्ता का मतदाता से सीधा संवाद नहीं हुआ। केवल प्रचार, रैली, भाषण और माहौल के जरिये ही यह मान लिया गया कि आएंगे तो मोदी ही। जबकि स्वयं मोदी भाजपा में बूथ जीता तो चुनाव जीता की रणनीति को कठोरता से लागू करने और करवाने वाले संगठनकर्ता रहे हैं। तो मोदी के मंत्र को नकारने के कारण भी भाजपा स्वयं के बूते बहुमत के आंकडें़ से दूर रही।

2024 के चुनाव परिणाम के कई सारे आयाम हैं, जब विपक्ष अपने जीवनदान पर आनंदोत्सव मना रहा है, भाजपा के सामने चुनौती है कि वह परिणाम का आत्ममंथन करे और जरूरी उपाय करे, क्योंकि भारत काल के ऐसे दौर में है, जहां से आगे ले जाने के लिए भाजपा के अलावा किसी और दल पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं है।

(लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट से जुड़े हैं, जयपुर में रहते हैं)

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गौ हत्या को कैसे जायज ठहराते रहे गांधीजी

1947 के दौर की बात है। देश में विभाजन की चर्चा आम हो गई थी। स्पष्ट था कि विभाजन का आधार धर्म बनाम मज़हब था। भारतीय विधान परिषद के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद के पास देश भर से गौवध निषेध आज्ञा का प्रस्ताव पारित करने के लिए पत्र और तार आने लगे। महात्मा गाँधी ने 25 जुलाई की प्रार्थना सभा में इसी इस विषय पर बोलते हुए कहा-
“आज राजेंद्र बाबू ने मुझ को बताया कि उनके यहाँ करीब 50 हज़ार पोस्ट कार्ड, 25-30 हज़ार पत्र और कई हज़ार तार आ गये हैं। इन में गौ हत्या बकानूनन बंद करने के लिये कहा गया है।

आखिर इतने खत और तार क्यों आते हैं? इन का कोई असर तो हुआ ही नहीं है। हिंदुस्तान में गोहत्या रोकने का कोई कानून बन ही नहीं सकता। हिन्दुओं को गाय का वध करने की मनाही है इस में मुझे कोई शक नहीं हैं। मैंने गौ सेवा का व्रत बहुत पहले से ले रखा है। मगर जो मेरा धर्म है वही हिंदुस्तान में रहने वाले सब लोगों का भी हो यह कैसे हो सकता है? इस का मतलब तो जो लोग हिन्दू नहीं हैं उनके साथ जबरदस्ती करना होगा। हम चीख-चीख कर कहते आये हैं कि जबरदस्ती से कोई धर्म नहीं चलाना चाहिये। जो आदमी अपने आप गोकशी रोकना चाहता उसके साथ में कैसे जबरदस्ती करूँ कि वह ऐसा करें?

अगर हम धार्मिक आधार पर यहाँ गौहत्या रोक देते हैं और पाकिस्तान में इसका उलटा होता है तो क्या स्थिति रहेगी? मान लीजिये वे यह कहें कि तुम मूर्तिपूजा नहीं कर सकते क्योंकि यह शरीयत के अनुसार वर्जित है। … इसलिए मैं तो यह कहूंगा कि तार और पत्र भेजने का सिलसिला बंद होना चाहिये। इतना पैसा इन पर बेकार फैंक देना मुनासिब नहीं है। मैं तो आपकी मार्फ़त सरे हिन्दुस्तान को यह सुनाना चाहता हूँ कि वे सब तार और पत्र भेजना बंद कर दें। ( हिंदुस्तान 26 जुलाई, 1947)”
“हिन्दू धर्म में गोवध करने की जो मनाई की गई है वह हिन्दुओं के लिए है सारी दुनियाँ के लिए नहीं। ( हिंदुस्तान 10 अगस्त 1947)”
” अगर आप मज़हब के आधार पर हिंदुस्तान में गो कशी बंद कराते हैं तो फिर पाकिस्तान की सरकार इसी आधार पर मूर्तिपूजा क्यों नहीं बंद करा सकती! (हरिजन सेवक 10 अगस्त 1947) ”

गाँधी जी के गौ वध निषेध सम्बंधित बयानों की समीक्षा आर्यसमाज के प्रसिध्द विद्वान पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने सार्वदेशिक पत्रिका के अगस्त 1947 के सम्पादकीय में इन शब्दों में की-
माहात्मा जी के उपर्युक्त वक्तव्य से हम नितांत असहमत हैं। प्रजा जिस बात को देशहित के लिए अत्यावश्यक समझती है क्या अपने मान्य नेताओं से पत्र, तार आदि द्वारा उस विषयक निवेदन करने का भी उसे अधिकार नहीं है? क्या देश के मान्य नेताओं का जिन के हाथों स्वतन्त्र भारत के शासन की बागडोर आई है यह कहना कि प्रजा द्वारा प्रेषित हज़ारों तारों और पत्रों का कोई प्रभाव तो हुआ ही नहीं सचमुच आस्चर्यजनक है। क्या प्रजा की माँग की ऐसी उपेक्षा करना देश के मान्य नेताओं को उचित है?

हिंदुस्तान में गौहत्या रोकने का कोई कानून बन ही नहीं सकता। ऐसा महात्मा जी का कहना कैसे उचित हो सकता है? क्या विधान परिषद् की सारी शक्ति महात्माजी ने अपने हाथ में ले रक्खी है जो वे ऐसी घोषणा कर सकें? यह युक्ति देना कि ऐसा करने से हिन्दुओं के अतिरिक्त दूसरे लोगों पर जबर्दस्ती होगी सर्वथा अशुद्ध है। इसके आधार पर तो किसी भी विषय में कोई कानून नहीं बनना चाहिये क्योंकि बाल्यविवाह, अस्पृश्यता, मद्यपान निषेध, चोरी निषेध, व्यभिचार निषेध आदि विषयक किसी भी प्रकार के कानून बनाने से उन लोगों पर एक तरह से जबर्दस्ती होती है जो इन को मानने वा करने वाले हैं। जिस से समाज और देश को हानि पहुँचती है उसे कानून का आश्रय लेकर भी अवश्य बंद करना चाहिये।

स्वयं महात्मा गांधीजी की अनुमति और समर्थन में गत वर्ष 11 फरवरी को वर्धा में जो गौरक्षा सम्मलेन हुआ था उसमें एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत किया गया था कि ‘इस सम्मेलन का निश्चित विचार है कि भारत के राष्ट्रीय धन के दृष्टीकौन से गौओं, बैलों और बछड़ों का वध अत्यंत हानिकारक है इसलिए यह सम्मेलन आवश्यक समझता है कि गौओं, बछड़ों और बैलों का वध कानून द्वारा तुरंत बंद कर दिया जाए। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जो पूज्य महात्माजी गत वर्ष तक गोवध को कानून द्वारा बन्द कराने के प्रबल समर्थक थे वही अब कहें कि इस विषय में कानून नहीं बनाना चाहिए। गोवध निषेध और मूर्तिपूजा निषेध की कोई तुलना नहीं हो सकती।

गोवध निषेध की मांग धार्मिक दृष्टि से नहीं किन्तु आर्थिक और संपत्ति से भी की जा रही है क्योंकि गोवध के कारण गोवंश का नाश होने से दूध घी आदि उपयोगी पौष्टिक वस्तुओं की कमी से हिन्दू, मुसलमान,ईसाई, सिख और सभी को हानि उठानी पड़ती है। बाबर, हुमायूँ, अकबर, शाह आलम आदि ने अपने राज्य में इसे बंद किया था। गोवध निषेध के समान कोई चीज पाकिस्तान सरकार कर सकती है तो वह सुअर के मांस के सेवन और बिक्री पर प्रतिबन्ध है। इससे कोई हानि न होगी यदि उसने ऐसा प्रतिबन्ध लगाना उचित समझा। गौवध निषेध विषयक प्रबल आंदोलन अवश्य जारी रखना चाहिए।

इस लेख से यही सिद्ध होता है कि गाँधी जी सदा हिन्दू हितों की अनदेखी करते रहे। खेद जनक बात यह है कि उनकी तुष्टिकरण उनके बाद की सरकारें भी ऐसे हो लागु करती रही। नेहरू जी की सरकार ने और 1966 में प्रबल आंदोलन के बाद इंदिरा गाँधी ने भी गोवध निषेध कानून लागु नहीं किया। मोदी जी को भी 6 वर्ष हो गए है। यह कानून कब लागु होगा? हिन्दुओं में एकता की कमी इस समस्या का मूल कारण है।

(लेखक ऐतिहासिक व अध्यात्मिक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं)

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अयोध्या में भाजपा क्यों हारी…

कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर गुजरता है, लेकिन दिल्ली के रास्ते में पी एम श्री नरेंद्र मोदी के लिए सबसे बड़ा अवरोध लखनऊ बन गया । इस बार के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी को उत्तर प्रदेश में करारी हार का सामना करना पड़ा है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने 2024 के आम चुनाव में अयोध्या में अपनी पकड़ कायम ना रख सकी। जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम जी टाट – पट्टी में रहते थे तो बीजेपी अयोध्या में राम की गरिमा मय देवत्थान बनाने के संकल्प को लेकर दो सदस्य संख्या को बढ़ाते- बढ़ाते कई बार प्रदेश और केंद्र में अपना बहुमत बना कुशल पूर्वक सरकार चलाई थी।

वर्तमान में माननीय श्री नरेंद्र मोदी जैसे कुशल प्रधान मंत्री और माननीय श्री योगी आदित्यनाथ जी जैसे मुख्य मंत्री को जनता की सेवा का अवसर पाने में अयोध्या की पुनर्स्थापना में महत्व पूर्ण भूमिका रही। देश प्रदेश तथा अंतराष्ट्रीय जगत में इस प्रकरण को बहुत ही अहमियत मिली, परन्तु 2024 के आम चुनाव में भाजपा ने अपनी स्थिति बरकरार बनाए रखने में विफल रही । उत्तर प्रदेश की सबसे हॉट सीट बनी फैजाबाद-अयोध्या लोकसभा सीट तथा उससे लगे हुए अंबेडकर नगर,बस्ती ,खलीलाबाद सुलतानपुर अमेठी रायबरेली,गोंडा वा कैसरगंज आदि पर भी भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है।

यूपी के सियासी मैदान में अखिलेश यादव और राहुल गांधी एक साथ आए । एक बार पहले भी आए थे तब ये कामयाब नही हो सके थे लेकिन इस बार की अपने मकसद में कामयाब होते देखे जा रहे हैं। भाजपा पिछले एक दशक में सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। इस सीट पर सपा के अवधेश प्रसाद विजय प्राप्त कर चुके हैं। इसके कारणों और परिस्थितियों पर एक बार विहंगम दृष्टि डालना अनुचित ना होगा।

चुनाव हारने के प्रमुख कारण:-
1.माननीय प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री की अतिसक्रियता:-
जब देश और प्रदेश के मुखिया जहां ज्यादा सक्रिय रहेंगे वहां स्थानीय सांसद और विधायक की पकड़ ढीली हो जायेगी।वह लोगों में अपनी इमेज नही बना पाएगा। वह आम जनता से दूर होता जायेगा। इस कारण एसटी स्थानीय सांसद और विधायक अपना कर्तव्य बखूबी से निभाने में विफल रहे।

2. पुराने जन प्रतिनिधियों का सहयोग ना ले पाना :-
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अयोध्या आंदोलन के प्रणेता माननीय आडवाणी जी,विनय कटियार जी, उमा भारती जी ,रितंभरा जी,मुरली मनोहर जोशी जी, कल्याण सिंह जी आदि का सहयोग नहीं लिया गया। सब कोई प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री की सक्रियता के कारण अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन ना कर सके।

3. विकास योजनाएं जनता को पसन्द नहीं :-
अयोध्या में रामलला मंदिर के निर्माण के साथ करोड़ों की विकास योजनाओं को पूरा कराया गया। पिछले दिनों पीएम मोदी ने 15,700 करोड़ की योजनाओं का शिलान्यास-लोकार्पण किया था। अयोध्या में भव्य रेलवे स्टेशन का पुननिर्माण किया गया है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्‌डा का विकास किया गया ।अयोध्या रामलला मंदिर के साथ-साथ सड़कों से लेकर गलियों तक को दुरुस्त किया गया।अयोध्या में विकास करना कोई काम नहीं आया।

अयोध्या में 2017 के बाद से हर साल दिवाली पर दीपोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इस प्रकार के आयोजनों का भी प्रभाव नहीं दिखा। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया। इसके बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त 2020 को रामलला के मंदिर की आधारशिला रखने अयोध्या आए। कोरोना के खतरे के बीच रामलला का मुद्दा देश भर में गरमाया। 22 जनवरी को इस साल रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हुई। इस समारोह में भाग लेने पीएम नरेंद्र मोदी पहुंचे थे। उनके साथ-साथ देश भर से विशिष्ट लोगों का यहां आगमन हुआ। ये सब जन आयोजन ना होकर सरकारी आयोजन बन गए।

4. राम लहर काम ना आई :-
राम मंदिर का मुद्दा वैसे तो पूरे देश के लिए अहम था, लेकिन उत्तर प्रदेश के लिहाज से कुछ सीटों पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव था। अब फैजाबाद सीट तो केंद्र में थी ही, इसके अलावा गोंडा, कैसरगंज, सुल्तानपुर, अंबेडकरनगर,बस्ती सीट पर भी राम मंदिर का काफी प्रभाव था। यह सारी सीटें फैजाबाद के आसापास ही पड़ती हैं, ऐसे में माना जा रहा था यहां से बीजेपी को ज्यादा चुनौती नहीं रही। इस क्षेत्र के चुनावी नतीजों ने सभी को हैरान कर दिया है। जिस अयोध्या को लगातार राम नगरी कहकर संबोधित किया गया, जहां पर सबसे ज्यादा बीजेपी ने राम के नाम पर वोट मांगा, उसी सीट को राम विरोधी समाजवादी पार्टी ने हथिया लिया है।

5. ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा , फोकस सिर्फ अयोध्या धाम पर :-
बीजेपी ने अयोध्या धाम के विकास पर सबसे ज्यादा फोकस किया।सोशल मीडिया से लेकर चुनाव-प्रचार में अयोध्या धाम में हुए विकास कार्यों को बताया गया लेकिन बीजेपी ने अयोध्या के ग्रामीण क्षेत्रों पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अयोध्या धाम से अलग ग्रामीण क्षेत्र की तस्वीर बिल्कुल अलग रही। ग्रामीणों ने इसी आक्रोश के चलते बीजेपी के पक्ष में मतदान नहीं किया।

6.जमीनों का अधिग्रहण :-
अयोध्या में रामपथ के निर्माण के लिए जमीन का अधिग्रहण किया गया। कई लोगों के घर-दुकान तोड़े गए। निराशाजनक पहलू यह रहा कि कई लोगों को मुआवजा नहीं मिला। इसकी नाराजगी चुनाव परिणाम में साफ नजर आ रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति चौदह कोसी परिक्रमा मार्ग के चौड़ीकरण में भी देखने को मिली। बड़ी संख्या में घर- दुकान तोड़े गए लेकिन प्रभावितों को उचित नहीं मिला।

7. प्रत्याशी को एंटी इन्कंबैंसी का असर :-
निवर्तमान सांसद श्री लल्लू सिंह के खिलाफ क्षेत्र में एंटी इन्कंबैंसी थी। लोगों की नाराजगी उनके क्षेत्र में मौजूदगी को लेकर थी। उम्मीदवार से लोगों की नाराजगी उन्हें ले डूबी। उम्मीदवार के प्रति यह गुस्सा लोगों के भीतर बदलाव के रूप में उभरने लगा। वे प्रधान मंत्री मुख्य मंत्री और बड़े बड़े मठों से तो जुड़े पर छोटे तपकों से दूर होते गए।

स्थानीय प्रत्याशी लल्लू सिंह के प्रति लोगों की बहुत नाराजगी रही। बीजेपी हाई कमान ने सांसद लल्लू सिंह पर भरोसा जताते हुए तीसरी बार चुनावी मैदान में उतारा था। यह निर्णय लोगों को अनुकूल ना लगा। भाजपा उम्मीदवार लगातार 10 साल से सांसद थे। उनको बदले जाने का दबाव स्थानीय स्तर के नेताओं की ओर से भी बनाया जा रहा था। इसके बाद भी भाजपा ने इस पर ध्यान नहीं दिया। नया चेहरा ना उतरना ही बीजेपी को यहां भारी पड़ गया। लल्लू सिंह के खिलाफ स्थानीय लोगों को नाराजगी का अंदाजा पार्टी नहीं लगा पाई. नतीजतन बीजेपी को प्रतिष्ठित सीट गंवानी पड़ी। लल्लू सिंह ने चुनाव-प्रचार के दौरान संविधान बदलने का बयान भी दिया था।बयान पर काफी हो-हल्ला मचा था।

8.आवारा पशु को लेकर नाराजगी : –
अयोध्या के ग्रामीण क्षेत्रों में किसान आवारा पशुओं से खासे परेशान रहे हैं। सरकार ने गोशाला जरूर बनाई हैं लेकिन स्थायी समाधान नहीं निकाल पाई है। आवारा पशुओं के मुद्दे को समाजवादी पार्टी ने मुद्दा बनाया था। बीजेपी को इस मुद्दे पर नाराजगी झेलनी पड़ी और हार का दंश झेलना पड़ा।

9.जनरल सीट पर दलित उम्मीदवार उतरना :-
जातीय समीकरण को साधने में भाजपा सफल नहीं हो पाई। अखिलेश यादव इस सीट पर पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक यानी पीडीए को एकजुट करने में सफल हो गए। यह भाजपा की हार का कारण बन गई। समाजवादी पार्टी ने एक बड़ा प्रयोग करते हुए मंदिरों के इस शहर से एक दलित को उम्मीदवार बनाया था।उसकी यह रणनीति काम कर गई ।

10.जातिगत समीकरण हावी :-
अयोध्या के जानकारों के मुताबिक जातिगत समीकरण और अयोध्या के विकास के लिए जमीनों का अधिग्रहण को लेकर जनता में जबरदस्त नाराजगी है। इसके साथ ही कांग्रेस का आरक्षण और संविधान का मुद्दा काम कर गया।लल्लू यादव का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वो संविधान में बदलाव के लिए बीजेपी को 400 से अधिक सीटें जिताने की बात कर रहे थे। वहीं बसपा का कमजोर होना भी सपा की बढ़त में बड़ा काम किया।

11.मुस्लिम वोटरो की एकजुटता
कांग्रेस-सपा के जिस गठबंधन को 2017 में नहीं चल पाया था, वह गठबंधन 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में जमकर वोट बटोरे हैं. उत्तर प्रदेश के जानकारों के मुताबिक इस चुनाव में मुस्लिम वोट ने एकजुट होकर इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान किया. संविधान और आरक्षण बचाने के मुद्दे को हवा देकर इंडिया गठबंधन ने बीजेपी के कोर हिंदू वोट बैंक को भी बांट दिया। विपक्ष के इस नैरेटिव ने बड़ी संख्या दलितो, पिछड़ों और आदिवासियों को बीजेपी से दूर किया.महंगाई और बेरोजगार के मुद्दे ने भी का मुद्दा भी काम करता दिखा।

12.बड़े शीर्षस्थ नेताओं के कारण ओवर कॉफिडेंस:-
भाजपा यहां पर ओवर कॉन्फिडेंस का शिकार हो गई। बीजेपी ने माना कि उम्मीदवार के चेहरे की जगह अयोध्या में पीएम मोदी का चेहरा चलेगा। यह सफल नहीं हो पाया।

13. स्थानीय सांसद द्वारा जमीन का खरीद फरोख्त:-
स्थानीय प्रत्याशी श्री लल्लू सिंह पर क्षेत्र में जमीन खरीद और फिर उसे ऊंचे दामों में बेचने का आरोप लगा हुआ है। श्रीराम मंदिर पर फैसले के बाद जमीन खरीद-बिक्री का मामला जोर-शोर से उठा था। इस पर बड़ा जोर दिया गया।इससे श्री सिंह की छवि धूमिल हुई और उन्हें कम वोट मिले।

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

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डॉ.कृष्णा कुमारी की प्रकृति, प्रेम और संस्कृति के रस में श्रृंगारित रचनाएं

बारिशों में भीग जाना इश्क़ है।
गीत कोई गुनगुनाना इश्क़ है।
बेसहारों का सहारा जो बनें,
उन के आगे सर झुकाना इश्क़ है ।
नाज़ से पलकें उठा कर देखना,
शर्म से नज़रें झुकाना इश्क़ है।
प्रेम से बढ़ कर इस संसार में कुछ भी नहीं।

इश्क को केंद्र बना कर कई मानवीय संदेश देने वाली रचनाकार डॉ.कृष्णा कुमारी ‘कमसिन’ की यह लोकप्रिय ग़ज़ल है जिसे सुनाने की फरमाइश हर कार्यक्रम में की जाती है। रचना में ‘इश्क़’ को गीता और रामायण के पौराणिक संदेशों को भी जोड़ते हुए आज के समाज को संदेश देने को कोशिश की गई है। ग़ज़ल को आगे बढ़ाती हुई वे लिखती हैं….
कर्म को अपने, इबादत जानना,
फ़र्ज़ को दिल से निभाना इश्क़ है।
होश गर बाक़ी रहे तो प्रेम क्या,
बेर चख-चख कर खिलाना इश्क़ है।
अपने जो भी हम से हैं रूठे हुए ,
प्यार से उन को मनाना इश्क़ है।
कहना कुछ था, कह गए कुछ और ही,
यूँ ज़ुबाँ का लड़खड़ाना इश्क़ है।

रचनाकार की मनोभावनाएं, शब्दों का गूंथन, प्रस्तुति, रचना कौशल, भावप्रवणता को समझने के किए एक उत्कृष्ट उद्धरण है। ऐसी अनगिनत रचनाओं की शिल्पी पिछले 27 वर्षों से साहित्य सृजन में निरंतर लगी हुई हैं। हिंदी, राजस्थानी, उर्दू, अंग्रेजी में समान अधिकार रखते हुए गद्य और पद्य दोनों विधाओं में कविता, गीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तक, बालगीत,निबंध, कहानी, यात्रा वृतांत, साक्षात्कार , संस्मरण, डायरी, समीक्षा, पत्र, रिपोर्ट , शोध आलेख , परिचर्चा, पत्र लेखन आदि में प्रवीण हैं।

इनकी शैली सहज और सरल रूप में कथात्मक , वर्णनात्मक , व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, समीक्षात्मक है , जिस का विषयानुरूप स्वत: प्रयोग हुआ है। रचनाओं में श्रृंगार, करुण, शांत, वात्सल्य, हास्य, अद्भुत आदि रसों की धारा प्रवाहित हैं। इनका सृजन प्रकृति से प्रभावित है। संत सूरदास के पद ,जयशंकर प्रसाद की कामायनी, सुमित्रानंदन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ,तुलसीदास, रामचंद्र शुक्ल के (चिंतामणि) के निबन्ध , बिहारी , रहीम, मैथिलीशरण गुप्त, (कनुप्रिया) आदि इनके प्रेरणास्त्रोत रहे हैं।

इनकी कविताओं की चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जब आंतरिक स्पंदन, संवेदनाएं और स्वानुभूतियाँ मन में गहरे तक उतर कर उथल-पुथल मचाती है, तब ये सहज भाव अनायास शब्दों के रूप में कागज पर उतरने लगते हैं और रचना का स्वरुप ग्रहण कर लेते हैं। इनकी कवितायें भी अमूर्त भावों का साकार स्वरुप हैं जिनमें जीवन के अनेक रंग उतर आए हैं।

कविताओं में ‘अभी छोटे हैं ये बच्चे’, ‘लड़की नहीं जानती’, ‘जीने दो पर्वतों को’,’ आदमी या चीज’ और चिड़िया, और मैं’ , ‘हे पर्वतों’, ‘शब्द नहीं जानते हैं कि..,’ ‘प्रेम है,’ ‘चिड़ियाएँ, पेड़ और मैं”, ‘बीज हैं …’ , ‘जरुरी तो नहीं’, ‘बेचारी’ , ‘कितनी बार कहा है तुमसे’ आदि कतिपय प्रतिनिधि रचनाएं हैं| सभी कवितायें पढने वालों के मन में सकारात्मक उर्जा का संचार करती हैं|। इनको प्रकृति, चाँदनी और बच्चों से बेहद लगाव है, पर्यावरण के प्रति आप बहुत सचेत हैं , लिखती हैं…

अभी तो है समय
हैं अभी छोटे ये बच्चे
इसलिए ले कर खिलौने, गोलियाँ मीठी
कि लेकर चीज़ हो जाते हैं, ख़ुश ये
और हम आश्वस्त, पर
कल जब ये होंगे कुछ बड़े
और आते ही स्कूल से
माँगेंगे हम से पूरा जंगल,
कोई ख़ाली टुकड़ा धरती का
सभी रंग आसमानों के
करेंगे हठ, हमें परबत ही ला कर दो
कभी रोयेंगे
“हम को पेड़ दिखलाने चलो ”
या फिर हवा का स्वाद
चखने के लिये होंगे परेशाँ,
हम को कर देंगे निरुत्तर…….
अभी भी है समय देखो
यदि आज हम चाहें तो
पहाड़ों के इस हंसी पावों में
रुन-झुन घुंघरूओं की बाँध सकते हैं
बना रख सकते हैं / आकाश को नीला
हवाओं को सुगंधें बाँट सकते हैं
बिछौना कर भी सकते हैं/ हरे मखमल का धरती पर
अभी तो है समय……
हम आज यदि चाहें तो…….
कल बच्चों को देने के लिए
उनके सवालों कर जवाबों का
मुरब्बा डाल सकते हैं,
कि दे सकते हैं इन बीजों को
अवसर वृक्ष बनने का
अभी तो है समय शायद
अभी छोटे हैं बच्चे… ।

प्रकाशित काव्य -कृतियों में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित “मैं पुजारिन हूँ”, “कितनी बार कहा है तुम से”, “बहुत प्यार करते हैं शब्द” काव्य संग्रह, एवं “…तो हम क्या करें” ग़ज़ल संग्रह , और ‘अस्यो छै म्हारो गाँव’ राजस्थानी काव्य संग्रह शामिल हैं। इनकी काव्य रचनाओं में प्रेम, प्रकृति चित्रण, सामाजिक संदर्भ और सरोकार, मानवीय संवेदना, सांस्कृतिक संदर्भ, ग्रामीण परिवेश, शाश्वत मूल्य,जिजीविषा ,नैतिकता , जीव-जगत,पर्यावरण, सद्भाव, त्यौहार, स्त्री विमर्श , आम आदमी का दर्द ,हताशा , कुण्ठा, आधुनिक बोध आदि भावों की झलक दिखाई देती हैं।

बाल कविता संग्रह “जंगल में फाग” में संग्रहित बाल कवितायेँ और गीत, बाल मनोविज्ञान के अनुकूल, रोचक, मनोरंजक, जिज्ञासा जाग्रत करने वाले हैं। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित “अस्यो छै म्हारो गाँव” में हाडौती भाषा में लिखित कविताएं गांव की ठेठ संस्कृति ,परिवेश,खेत , नदी , कुए, लोकोत्सव, ग्रामीण महिलाओं के संधर्ष, जन-जीवन, लड़के – लड़कियों खेल, रहन-सहन, टोटके , गोबर उगाना, घट्टी पीसना, नन्दी का आना, मनोरंजन के साधन अर्थात हमारी मूलभूत संस्कृति के विविध परिदृष्यों से साक्षत्कार करवाती है। कुछ अन्य विषयों पर दोहे, गीत, ग़ज़ल, कवितायेँ आदि भी शामिल हैं। जन-चेतना का बानगी के लिए एक शैर यूँ लिखती हैं……
शादी लायक हुआ है बेटा,
अब होंगी व्यापार की बातें ।

इनकी हिंदी कविताओं पर मुम्बई के प्रसिद्द ग़ज़लकार और फ़िल्मी गीतकार इब्राहीम ‘अश्क’ लिखते हैं ” कृष्णा जी के बोल सोने की तरह खरे और अनमोल हैं।इनकी कविता में रंग भी है, रस भी है, भावों का सौन्दर्य भी है और भाषा का माधुर्य भी।” ऐसी ही एक सुंदर कविता का कुछ अंश ….

शब्द नहीं जानते
रंग-भेद/ वर्ग-भेद….
जाति से/ धर्म से ऊँच-नीच से/ दूर हैं इतने
जितनी धरती से नीहारिकाऐं ……
शब्द बाँचते हैं गीता/ पढ़ते हैं नमाज़
गाते हैं आरती/ देते हैं अज़ान
बाईबिल का अनुवाद
करते हैं शब्द ही,
रामायण का पारायण भी ……
भरते हैं शुभ-कामनाओं के कलश….
शब्द/ केवल शब्द हैं / ये क्या समझें
सियासत मनुष्यों की….
ये क्या जानें/ दुनियादारी
किस चिड़िया का नाम है … ?

गद्य विधा में “स्वप्निल कहानियां” संग्रह में कहानियों के साथ कुछ लघु कथाएं भी शामिल हैं जिनके प्रमुख विषय -प्रेम, नारी- जीवन, मानव मूल्य,पर्यावरण ,साम्प्रदायिक सद्भाव, मानवीयता,, नैतिक मूल्यों का क्षरण, प्रकृति, संवेदना आदि हैं । “पगली” बेहद संवेदनशील एवं मार्मिक कहानी है। घटनाक्रम को ऐसा मोड़ दिया गया है जिस में उस असहाय , मानसिक विकलांग स्त्री के साथ कुछ ऐसा दुष्कृत्य होता है कि वह गर्भवती हो जाती है , एक बच्ची को जन्म देकर इस लोक से ….? जिसे एक संतानहीन परिवार गोद लेकर सम्मानित जिन्दगी देता है। यह कहानी पाठकों को मन को झकझोर कर रख देती है ।

इस कहानी को ‘कथांचल’ संस्था, उदयपुर द्वारा ‘कथाशिल्पी राजेन्द्र सक्सेना सर्वोत्तम कहानी पुरस्कार’ से नवाज़ा गया है। इनकी कहानी “नि:स्पृह समर्पिता” उदात्त प्रेम की पराकाष्ठा को चरितार्थ करती है। कुछ प्रतिनिधि कहानियां ‘रैनबसेरा’ ,’बस इतना ही कसूर था’, ‘पतझड़ का प्रभात’, ‘भूल -सुधार’ (जो पर्यावरण संरक्षण के भाव से ओतप्रोत है) ‘कैक्टस के जंगल’ , ‘सपना’, ‘स्वप्निल अहसास’ तथा लघु कथाएं- धर्म या ढोंग , पैर तो हैं , अनायास आदि प्रतिनिधि रचनाएं हैं जो इनकी सूक्ष्मदृष्टि को दर्शाती हैं | जाने-माने कहानीकार अरनी रोबर्ट् ने अपनी भूमिका में लिखा है- “ये कहानियां बहुत अच्छी हैं- एक से बढ़कर एक| कहानी में जो विशेषतायें होनी चाहिए वे सब इन में मौजूद हैं।”

इनकी दो यात्रा वृतांत की कृतियां “आओ नैनीताल चलें” और “हरित पगडंडी पर” अत्यंत रोचक व पठनीय यात्रा- साहित्य हैं। ‘हरित पगडंडी पर’, कृति में इन्होंने दक्षिण भारत के मैसूर, ऊटी, कोडाकनाल, बैंगलुरू के यात्रा वृत्त लिखे है। तीसरा यात्रा- वृतांत “अद्भुत देश हैं सिंगापुर” प्रकाशनाधीन है।

विविध विषयों पर निबंध लेखन इनकी प्रिय विधा है। इनकी निबन्ध की तीन पुस्तकें ” प्रेम है केवल ढाई आखर “, ‘ज्योतिर्गमय’ जिसे राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर से आर्थिक सहयोग मिला है , और “नागरिक चेतना” प्रकाशित हुई हैं। “ज्योतिर्गमय” ललित निबन्ध, साहित्य अकादमी , उदयपुर से ‘ देवराज उपाध्याय पुरस्कार से अलंकृत है। ये निबन्ध भारतीय सांस्कृति के प्रतिबिम्ब हैं। इस कृति में शामिल 22 निबन्धों में ‘सखि ! बसंत आया’, ‘श्री कृष्ण लौकिक और अलौकिक’,’ विज्ञान , संस्कृति और वृक्ष’ , ‘रावण: एक अविस्मरणीय चरित्र’, ‘हर पल एक पर्व है’, ‘बारात और शिष्टाचार’ उल्लेखनीय हैं।

प्रेम है केवल ढाई आखर’ में मूलत: नैतिक मूल्य और मनोभाव प्रतिबिम्बित हैं | इन में अध्यात्म, सामाजिक संदर्भ, प्रेम, क्षमा, अहंकार, आत्मशक्ति, विश्व मैत्री, आत्म साक्षात्कार, नशा , क्रोध , नारी जीवन से सम्बन्धित विषयवस्तु पर निबंध हैं जो मनुष्य में स्वविवेक जाग्रत करते हैं, सद्गुणों में वृद्धि करते हैं, सामाजिक विकास में सहायक हैं। अंधविश्वासों एवं नशे जैसी सामाजिक बुराइयों से दूर रहने को प्रेरित करते हैं। “नागरिक चेतना” एक दीर्घ निबन्ध कृति है। इस में श्रेष्ठ नागरिक के नैतिक कर्तव्यों, दायित्व बोध के निर्वहन करने की सोदाहरण विवेचना की गई है। हमारा राष्ट्र सुविकसित, सुदृढ, सुव्यस्थित, स्वच्छ, सुस्वास्थ्य प्रदान करने वाला बन सके , ये ही इस किताब का उद्येश्य है |

इनकी एक साक्षात्कार कृति “कुछ अपनी कुछ उनकी” में देश के जाने-माने विख्यात साहित्यकार,विचारक,कलाकार, चित्रकार, शिक्षाविद, गीतकार, गीत व ग़ज़ल गायक, पत्रकार, पायलट जैसे मनीषियों से उनके जीवन परिचय पर विमर्श है। अन्य विधाओं में नाटक लेखन के क्षेत्र में इन्होंने तीन नाटक वन्य जीव संरक्षण पर आधारित “अब चुप नहीं रहूँगी”,परिवार नियोजन पर आधारित “गलती हो गई” और “सडक सुरक्षा” लिखें हैं। इनके नाटक “अब चुप नहीं रहूंगी ” को पंजाब के विश्वविद्यालय से एक शोधार्थी ने एम्. फिल. के लघु शोध में शामिल किया है। ये करीब सात दर्जन पुस्तकों की समीक्षा और कई पुस्तकों की भूमिकाएं और कृति -परिचय भी लिख चुकी हैं। इन्होंने नाटक ‘गलती हो गई ” का निर्देशन भी किया तथा कुछ व्यंग्य रचनाएं भी लिखी हैं और डायरी भी लिखती हैं।

परिचय : प्रेम और प्रकृति से मुख्य रूप से प्रभावित सृजन करने वाली रचनाकार डॉ.कृष्णा कुमारी का जन्म कोटा जिले के चेचट ग्राम में पिता प्रभुलाल वर्मा के परिवार में हुआ। आपने एम.ए., एम.एड., (मेरिट अवार्ड) साहित्य रत्न, आयुर्वेद रत्न एवं बी.जे.एम.सी की शिक्षा प्राप्त की। “बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा का रचना कर्म : एक समालोचनात्मक अध्ययन” विषय पर कोटा विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। आकाशवाणी केंद्र कोटा एवं जयपुर , दूरदर्शन जयपुर और विभिन्न स्थानीय चैनलों से समय- समय पर रचना पाठ, वार्तायें और साक्षात्कार प्रसारित होते हैं और अनेक काव्य गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों, मुशायरों में भागीदारी की है।

इनकी देश के प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं एवं संकलनों में हजारों रचनाएँ प्रमुखता के साथ प्रकाशित हो चुकी हैं| कई साहित्यकारों के व्यक्तित्त्व- कृतित्त्व पर भी इन के लिखे आलेख छपे हैं| उर्दू लिपि की भी कई पत्रिकाओं में गजलें प्रकाशित हैं| अपनी और अन्य रचनाकरों की पुस्तकों, कई पत्रिकाओं पर इनके बनायें आवरण चित्र प्रकाशित हैं| साथ ही रेखा चित्र, स्केच, डिजाइन आदि भी छपते हैं। इनकी कुछ रचनाओं का अंग्रेजी, उर्दू, राजस्थानी , गुजराती भाषा में अनुवाद हुआ है| कई शोध ग्रंथों, वि. विद्यालय के संदर्भ ग्रंथों अन्य कई महत्त्वपूर्ण किताबों में रचनाओं को का उल्लेख हुआ है । आप कई साहित्यिक संस्थाओं में सक्रिय हैं और आपको साहित्य सृजन के लिए कई उल्लेखनीय, प्रतिष्ठा प्राप्त संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया गया है । आपने रचनाओं में कई नवाचार भी किये हैं।

चलते – चलते…..
इनकी सभी कवितायेँ अत्यंत भावपूर्ण और लोक-रंग से सराबोर हैं, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की आप पुरजोर पक्षधर हैं…
सीमाओं में बाँध लूँ, कैसे अपना प्यार।
मुझको तो प्यारा लगे, सारा ही संसार।।

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क्या काशी की तासीर बदलने का प्रयास महंगा पड़ा नरेंद्र मोदी को?

प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी काशी से केवल डेढ़ लाख मतों के अंतर से ही जीत पाए जबकि काशी में विकास और आधुनिक स्तर का बदलाव देखा गया फिर नरेंद्र मोदी के कद के हिसाब से कम अंतर स्व जीत का अर्थ क्या है?

काशी की अपनी तासीर है, अपना मूड है। बनारसी महादेव के भक्त हैं। भोले हैं तो तुरंत गुस्से में आने वाले भी। वहीं औघड़ का शहर काशी अपनी अलग पहचान रखता है। काशी में किया गया विकास कार्य काशी की पौराणिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध ही खड़ा हो गया था। घाटों के सौंदर्यीकरण के नाम पर नमो घाट बना देना, दो घाटों को जोड़ कर एक घाट बना देना, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के विकास के नाम पर विश्वनाथ मंदिर को अक्षरधाम बनाने का प्रयास, मंदिर परिसर में रेस्टोरेंट, कृत्रिम सजावट , कुछ संतों का ठेकेदार के रूप में पहचान बन जाना, काशी के अंदर की बनावट के साथ छेड़छाड़ करना, बुढ़वा मंगलवार (होली के बाद का मंगलवार) पर होने वाले वयस्क कवि सम्मेलन पर प्रतिबंध, स्थानीय केवट की नावों की जगह गुजरात की बड़ी कम्पनियों के क्रूज को बढ़ावा देना बनारसियों को रास नहीं आ रहा था।

समय समय पर स्थानीय लोग इसकी शिकायत भी कर रहे थे किंतु ठेकेदार बन बैठे प्रभावशाली संतों के प्रभाव में ये बातें दबाई जाती रही। जिन बनारसियों ने स्वामी दयानंद सरस्वती को भी अपने घेरे में ले लिया हो वो इन बातों पर चुप कैसे रह जाते। उचित समय के इंतजार में थे, उचित समय हाथ लगा और अपना विरोध दर्ज करवा दिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझना होगा कि विकास का ये अर्थ नहीं कि विकास के नाम पर आप शहर के संस्कृति पर ही प्रहार कर दें। काशी और गुजरात महाराष्ट्र और दिल्ली में अंतर है। लोगों की सोच में अंतर है। यहां के लोग दूसरों के साथ स्वयं को भी गुरु मानते हैं। उन्हें अपने हिसाब से चलना पसंद हैं, वो जो हैं उसे ही व्यवस्थित व सुसंस्कारित मानते हैं। यदि उन्हें ये बताया जाए कि उनके जीवन को सुव्यवस्थित अथवा संस्कारित करने की आवश्यकता है तो परम् बनारसी इसे अपना अपमान ही समझेंगे।

उम्मीद है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन बातों पर ध्यान देंगे और काशी को काशी ही रहने देंगे और खासकर काशी विश्वनाथ को अक्षरधाम बनाने का प्रयास नहीं करेंगे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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भाजपा की जीतः जिस की पताका ऊपर फहराई

नरेंद्र मोदी की जीत को सैल्यूट कीजिए। ई वी एम की जीत को सैल्यूट कीजिए। लोकतंत्र की इस ख़ूबसूरती को भी सैल्यूट कीजिए कि लोग अपनी हार में भी जीत खोज ले रहे हैं। ख़ुशी में झूम रहे हैं। सैल्यूट कीजिए कि काशी में मोदी हारते-हारते बचे। इतना कुछ करने-कराने के बावजूद। पास ही रायबरेली में राहुल गांधी नरेंद्र मोदी से कहीं ज़्यादा मार्जिन से जीते। अमेठी में के एल शर्मा की जीत मोदी से अच्छी है। अमित शाह , शिवराज सिंह चौहान , नितिन गडकरी जैसे लोग लाखों की मार्जिन से रिकार्ड तोड़ते हुए जीते। लेकिन उन के नेता मोदी , जिन के नाम पर एन डी ए ने समूचा चुनाव लड़ा , वही अच्छी मार्जिन पाने के लिए तरस गए।

आरक्षण भक्षण प्रेमी लोगों के आरक्षण खत्म हो जाने के भय की मार्केटिंग और साढ़े आठ हज़ार रुपए महीने की मुफ़्तख़ोरी की लालसा में लोगों ने उत्तर प्रदेश में भाजपा को कुचल कर रख दिया। बंग्लादेशी और रोहिंगिया ने पश्चिम बंगाल में भाजपा को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भाजपा को कंगाल बना दिया। संदेशखाली कार्ड पिट गया। सारे अनुमान धराशाई हो गए। तो भी 2024 के इस लोकपर्व में आप भी उत्सव मनाइए और जानिए कि जीत कैसी भी हो , खंडित भी हो तो भी जीत लेकिन महत्वपूर्ण होती है। फिर भी जो आप कुछ नहीं समझ पा रहे हैं तो आप को कन्हैयालाल नंदन की यह कविता ज़रूर ध्यान में रख लेनी चाहिए।

तुमने कहा मारो
और मैं मारने लगा
तुम चक्र सुदर्शन लिए बैठे ही रहे और मैं हारने लगा
माना कि तुम मेरे योग और क्षेम का
भरपूर वहन करोगे
लेकिन ऐसा परलोक सुधार कर मैं क्या पाऊंगा
मैं तो तुम्हारे इस बेहूदा संसार में/ हारा हुआ ही कहलाऊंगा
तुम्हें नहीं मालूम
कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं सेनाएं
तो योग और क्षेम नापने का तराजू
सिर्फ़ एक होता है
कि कौन हुआ धराशायी
और कौन है
जिस की पताका ऊपर फहराई
योग और क्षेम के
ये पारलौकिक कवच मुझे मत पहनाओ
अगर हिम्मत है तो खुल कर सामने आओ
और जैसे हमारी ज़िंदगी दांव पर लगी है
वैसे ही तुम भी लगाओ।

सो तमाम तकलीफ़ और मुग़ालते के बावजूद दिल थाम कर मान लीजिए। दिल कड़ा कर लीजिए। और सारे इफ-बट के बावजूद मान लीजिए कि नरेंद्र मोदी अब तीसरी बार प्रधान मंत्री बनने जा रहे हैं। अपनी क़िस्मत के पट्टे में वह ऐसा लिखवा कर लाए हैं। अब सारी कसरत के बावजूद कोई इसे रोक नहीं सकता। पार्टी कार्यालय में आज के भाषण में मोदी ने अपनी पुरानी गारंटी वाली बातें दुहरा दी हैं। तीसरी अर्थव्यवस्था जैसी बातें उसी तेवर में दुहराईं जो चार सौ की गुहार में दुहराते थे। बड़े-बड़े काम करने का ऐलान भी किया।

अलग बात है कि इंडिया गठबंधन के कुछ सूरमा भोपाली नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू में अपनी सत्ता की भूख को मिटाने ख़ातिर मुंगेरीलाल का हसीन सपना देखने में लग गए हैं। गुड है यह भी। पर बिना यह सोचे कि तोड़-फोड़ का यह काम उन से बढ़िया अमित शाह करने के लिए परिचित हैं। सो क़ायदे से आगे के दिनों में इंडिया गठबंधन को इस तोड़-फोड़ से सतर्क रहना चाहिए। जो कि देर-सवेर होना ही होना है। अरुणाचल और उड़ीसा में भाजपा की सरकार बनना , आंध्र में एन डी ए की सरकार का बनना लोग क्यों भूल रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी वाली भाजपा जैसी नैतिकता और शुचिता अगर कोई मोदी वाली भाजपा में तलाश कर रहा है तो उसे अपनी इस नादानी पर तरस खानी चाहिए।

हां , राहुल गांधी को अभी चाहिए कि अभी और दूध पिएं और खेलें-कूदें। उत्तर प्रदेश में जो भी फतेह है , वह अखिलेश यादव और उन के पी डी ए की फ़तेह है। आरक्षण भक्षण प्रेमी लोगों के आरक्षण खत्म हो जाने के भय की मार्केटिंग और साढ़े आठ हज़ार रुपए महीने की मुफ़्तख़ोरी की लालसा की फ़तेह है। राहुल गांधी या इंडिया गठबंधन की नहीं। अच्छा अगर नीतीश और नायडू इंडिया गठबंधन रातोरात ज्वाइन ही कर लेते हैं तो भी बहुमत के लिए 272 के हिसाब से बहुमत का शेष आंकड़ा कहां से ले आएंगे ? बाक़ी नैतिक हार का पहाड़ा पढ़ने पर कोई टैक्स नहीं लगता। न कोई फीस लगती है।

नैतिकता और शुचिता वैसे भी आज की राजनीति की किसी भी पाठशाला में शेष है क्या ? सब के सब अनैतिक और लुटेरे हैं।

साभार- https://sarokarnama.blogspot.com/ से

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