जुलाई 2024 में यूनाइटेड स्टेट्स (US) के राष्ट्रपति, जो बाइडेन ने तिब्बती नागरिकों के आत्मनिर्णय लेने के अधिकार का समर्थन करने वाले एक विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए. इस कानून की भावना, ‘तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करना है.’ यह भावना अब तक की US की ऐतिहासिक भूमिका के विपरीत है. इस भूमिका के तहत US ऐतिहासिक रूप से तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता आया है.
इस ब्रीफ में तिब्बत को लेकर US की नीति में निरंतर होने वाले बदलाव का परीक्षण किया गया है. 1950 के आरंभ में US की मुख्य चिंता तिब्बती नागरिकों पर चीन की ओर से किए जा रहे मानवाधिकार के कथित अत्याचारों को लेकर थी. इसके बाद जब 1970 के दशक में चीन के साथ उसके संबंधों में दोस्ताना दौर आया तो US तिब्बत को लगभग भूला ही बैठा था. फिर आया 1990 का दौर जब US ने तिब्बती मामलों को लेकर एक विशेष समन्वयक की नियुक्ति कर दी थी. इस ब्रीफ में तिब्बत को लेकर दशकों से US की नीति में जो विसंगतियां चली आ रही हैं, उन पर प्रकाश डालकर यह तर्क दिया गया है कि US के दृष्टिकोण में निरंतरता का अभाव तिब्बती लोगों के हितों की रक्षा करने की दिशा में काफ़ी कुछ नहीं कर पाया है.
प्रस्तावना
तिब्बत की स्वायत्तता के मुद्दे को फिर से केंद्र में लाने के लिए यूनाइटेड स्टेट्स (US) से जुड़ी दो घटनाएं ज़िम्मेदार कही जा सकती हैं. चीन की ओर से राष्ट्रपति जो बाइडेन से ‘तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करने’[1] वाले विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करने की गुज़ारिश की गई थी. इसी बीच US कांग्रेस के एक प्रतिनिधिमंडल ने पूर्व अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की अगुवाई में जून 2024 में धर्मशाला पहुंचकर दलाई लामा से मुलाकात कर तिब्बती लोगों के साथ एकजुटता की हामी भरी.[a],[2] जुलाई में राष्ट्रपति बाइडेन ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर कर इसे कानूनी दर्ज़ा दे दिया.[3]
अमेरिका ने तिब्बती मामलों को लेकर सबसे पहले 1997 में एक विशेष समन्वयक की नियुक्ति की थी. 2002 में बनी तिबेटन पॉलिसी एक्ट यानी तिब्बती नीति कानून में तिब्बती नागरिकों की विरासत का जतन करने के लिए भविष्य में उठाए जाने वाले वैधानिक कदमों को लेकर सक्रियतावाद के बीज बोए गए थे
ऐसे में यह परीक्षण करना रोचक और शिक्षाप्रद साबित होगा कि यह कानून तिब्बत को लेकर US की ओर से बनाए गए पूर्व के कानूनों से अलग कैसे है और इसका तिब्बती लोगों के भविष्य पर क्या असर होने वाला है.
पूर्व में बनाए गए अमेरिकी कानून
अमेरिका ने तिब्बती मामलों को लेकर सबसे पहले 1997 में एक विशेष समन्वयक की नियुक्ति की थी.[4] 2002 में बनी तिबेटन पॉलिसी एक्ट यानी तिब्बती नीति कानून में तिब्बती नागरिकों की विरासत का जतन करने के लिए भविष्य में उठाए जाने वाले वैधानिक कदमों को लेकर सक्रियतावाद के बीज बोए गए थे.[5] इसके बाद 2018 में बने रेसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत एक्ट[6] तथा 2020 का तिबेटन पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट[7] चीन पर और दबाव डालने के लिए था. इसमें भी 2020 के कानून में दलाई लामा के चयन में चीन की ओर से होने वाली किसी भी प्रकार की दखलंदाज़ी को खारिज़ किया गया था.
2002 में पारित तिबेटन पॉलिसी एक्ट में तिब्बत के विशिष्ट ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई पहचान की रक्षा करने पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में ज़िम्मेदारी तय करने की बात की गई थी. सेक्रेटरी ऑफ स्टेट यानी अमेरिकी विदेशमंत्री को चेंगदू स्थित अमेरिकी महादूतावास कार्यालय के तहत ल्हासा में तिब्बत के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास पर नज़र रखने के लिए कार्यालय खोलने का काम सौंपा गया था. लेकिन जब यह कार्यालय नहीं खुल सका तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. हां, तिब्बती भाषा में होने वाला वॉइस ऑफ अमेरिका तथा रेडियो फ्री एशिया का प्रसारण चलता रहा.
US अब तक 11वें पंचेन लामा, गेधुन चोएक्यी नियिमा, के साथ संबंध स्थापित करने में भी असफ़ल साबित हुआ है. गेधुन चोएक्यी नियिमा को 1995 में ही उनके घर से उठा लिया गया था. चीन ने उनके स्थान पर अपनी ओर से ग्यालसेन नोरबू को लामा नियुक्त कर दिया है.[9] 2002 के कानून में UN जनरल असेंबली में पारित 1959, 1961 और 1965 के प्रस्तावों को भी मान्यता दी गई, जिसमें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना से तिब्बती नागरिकों के आत्मनिर्णय के अधिकार को रोकने की कोशिश न करने को कहा गया था.
2020 में पारित किए गए तिबेटन पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट में 2002 के पूर्व अपनाए गए विभिन्न रुखों को भी शामिल कर लिया गया था. उस वक़्त तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में पारित 2020 के कानून में तिब्बत की विशिष्ट पहचान को बनाए रखने पर ज़ोर देकर मानवाधिकारों के रक्षा की बात की गई थी. इसके अलावा इस कानून में ल्हासा में एक वाणिज्य दूतावास स्थापित करने का भी आह्वाहन किया गया था. 2020 के कानून में संभवत: एक अस्थायी समझौता होता हुआ दिखाई देता है, क्योंकि इस कानून में तिब्बती लोगों के आत्मनिर्णय का उल्लेख नहीं किया गया था.
हालांकि, इस कानून में भी चीन की ओर से पुनर्जन्म और उत्तराधिकार के मामले में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप का विरोध किया गया था. इसके अलावा भविष्य में भी दलाई लामा की अभिव्यक्ति का विरोध करता है. [b] इसके अलावा इस कानून में तिब्बत में मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले चीनी अधिकारियों पर ग्लोबल मैग्निट्स्की मानवाधिकार जवाबदेही अधिनियम लागू करने और तिब्बती पठार में पर्यावरण तथा जल संसाधनों की रक्षा को लेकर भी बात की गई थी.
नए कानून के नए पहलू:तिब्बत और आत्मनिर्णय
तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को प्रोत्साहित करने वाला कानून तिब्बत और चीन के बीच एक “विवाद” की सीधे बात करता है. इसका अर्थ यह है कि यह कानून इन दोनों को ही स्वतंत्र भौगोलिक तथा राजनीतिक इकाई के रूप में स्वीकार करता है. यह 2002, 2018 तथा 2020 के कानूनों में उपयुक्त की गई कमोबेश संयमित भाषा से अलग है. इसके अलावा ताज़ा कानून में चीन पर दलाई लामा के प्रतिनिधियों के साथ अर्थपूर्ण बातचीत करने का दबाव डालने पर ध्यान दिया गया है.
एक ऐसी बातचीत की वकालत की गई है, जिसमें चीन की ओर से कोई शर्त पहले से लादी नहीं गई हो. पूर्व में चीन यह शर्त लादता आया है कि बातचीत से पहले ही दलाई लामा को यह स्वीकार करना होगा कि तिब्बत हमेशा से चीन का ही हिस्सा रहा है. इसी बीच दलाई लामा भी इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार दिखाई देते हैं कि वर्तमान में तिब्बत चीन का ही हिस्सा है. उन्होंने यह भी घोषणा कर दी है कि वे तिब्बत की आज़ादी नहीं चाहते हैं,बल्कि वे बातचीत के रास्ते पर चलते हुए एक समाधान पर पहुंचने को प्रतिबद्ध हैं.हालांकि चीन की इस अतिरिक्त शर्त को दलाई लामा ने स्वीकार नहीं किया है कि तिब्बत हमेशा से ही चीन का हिस्सा रहा है.
तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को प्रोत्साहित करने वाले कानून की धारा 2 के खंड 5 (अमेरिकी कांग्रेस का निष्कर्ष) के अनुसार “US सरकार ने कभी भी यह नहीं कहा है कि प्राचीन काल से तिब्बत चीन का हिस्सा रहा है.”[12] हालांकि इस बात के दोहराव के कारण अमेरिका की स्थिति पर कोई सवालिया निशान नहीं लगता. क्योंकि अमेरिका भी वैश्विक समुदाय की तरह यह मानता है कि आज तिब्बत चीन का ही हिस्सा है. तिब्बत में मानवाधिकारों की रक्षा और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार को नए कानून में भी फिर से स्थान दिया गया है. इस कानून में नीतिगत उपाय भी पेश किए गए हैं. ये नीतिगत उपाय चीन की सरकार तथा चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की ओर से तिब्बत को लेकर किए जाने वाले दुष्प्रचार से निपटने के काम आएंगे. इस कानून में भी पुराने कानूनों की तरह ही न केवल तिबेट स्वायत्त क्षेत्र को शामिल किया गया है, बल्कि ग्रेटर तिबेट को भी शामिल किया गया है. ग्रेटर तिबेट क्षेत्र को काफ़ी पहले ही पृथक करते हुए पड़ोसी चीनी प्रांत ग़ंसु, चिंगहई, सिचुआन और युन्नान में समाहित कर दिया गया है.
अमेरिकी नीति में आया बदलाव
1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के गठन और उसके पहले के कुछ वर्षों में US ने तिब्बत की आज़ादी अथवा स्वायत्तता को लेकर कोई चिंता जाहिर नहीं की थी. इतना ही नहीं 1950 में जब चीनी सेना ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया तब भी अमेरिका को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था.[13] इतना ही नहीं 1908 में विलियम वुडविले रॉकहिल, जो चीन स्थित US दूतावास में अमेरिकी राजदूत थे ने दलाई लामा का “जागीरदार राजकुमार” के रूप में वर्णन किया था.[14] 1940 के आरंभिक काल में US की तिब्बत नीति ग्रेट ब्रिटेन संचालित करता था. ऐसे में इस काल में अमेरिका की तिब्बत नीति पर ग्रेट ब्रिटेन के रुख़ की छाप दिखाई देती है. हालांकि ब्रिटेन की तरह US भी “सार्वभौमिकता” शब्द के निहितार्थ और “आधिपत्य” के बीच अंतर को समझ नहीं सका था.बिट्रिश लोगों यानी अंग्रेजों ने ही तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को 19 वीं तथा 20 वीं शताब्दी में गढ़ा था. इसका कारण यह था कि अंग्रेज भी आउटर तिबेट के प्रांत वेस्टर्न खाम तथा इउ-त्संग पर अपने अस्पष्ट दावे को शर्तों के आधार पर मान्यता देना चाहते थे. ऐसा करते हुए वे चीन को भी इस बात के लिए बढ़ावा दे रहे थे कि वह खुद को इन्नर तिबेट यानी अंदरुनी तिब्बती प्रांत अम्दो तथा ईस्टर्न खाम तक ही सीमित न रखें.
बिट्रिश लोगों यानी अंग्रेजों ने ही तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को 19 वीं तथा 20 वीं शताब्दी में गढ़ा था. इसका कारण यह था कि अंग्रेज भी आउटर तिबेट के प्रांत वेस्टर्न खाम तथा इउ-त्संग पर अपने अस्पष्ट दावे को शर्तों के आधार पर मान्यता देना चाहते थे. ऐसा करते हुए वे चीन को भी इस बात के लिए बढ़ावा दे रहे थे कि वह खुद को इन्नर तिबेट यानी अंदरुनी तिब्बती प्रांत अम्दो तथा ईस्टर्न खाम तक ही सीमित न रखें. यह एक ग्रेट गेम यानी बड़े खेल का हिस्सा था, जिसमें साम्राज्यवादी रूस को हाई टार्टरी में घुसपैठ करने या पांव जमाने से रोका जाना था.[15] अंग्रेज खुद ज़्यादा कष्ट उठाने के इच्छुक नहीं थे.
अत: वे चीन की ओर से किए जाने वाले दावों से ही संतुष्ट हो जाते थे. इसी दौरान 1914 में ग्रेट ब्रिटेन, चीन तथा तिब्बत के बीच हुए शिमला सम्मेलन में अंग्रेजों ने तिब्बत पर चीनी आधिपत्य को स्वीकारते हुए आउटर तिबेट की स्वायत्तता को भी मान्यता दे दी. इस सम्मेलन के अनुच्छेद 2 में यह भी तय किया गया कि ग्रेट ब्रिटेन तथा चीन दोनों ही आउटर तिबेट के प्रशासन में हस्तक्षेप से दूर रहेंगे. इसमें दलाई लामा के चयन तथा उनके अधिष्ठापन में हस्तक्षेप न करना शामिल था. यह करना ल्हासा में कार्यरत तिब्बती सरकार का ही अधिकार माना गया था.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद काफ़ी कम समय के लिए US राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट ने ल्हासा में दलाई लामा के प्रशासन से सीधे संपर्क साधा था. वे उस वक़्त तिब्बती क्षेत्र में युद्ध के पश्चात सहायता करने के लिए पहुंच हासिल करना चाहते थे.[17] हालांकि, तिब्बत तक पहुंचने का यह प्रयास प्रासंगिक ही था. 1940 के दशक में गृह युद्ध के दौरान वामपंथियों को काफ़ी सफ़लता मिली. इस सफ़लता से उत्साहित होकर उन्होंने तिब्बत के इलाकों पर अपनी पकड़ मजबूत करने की ठान ली. किंग/चिंग राजवंश के पतन के पश्चात चीनी अधिकारियों तथा सैनिकों ने तिब्बत छोड़ दिया था. 1912 तथा 1950 के बीच आउटर तिबेट में चीन की कभी मौजूदगी ही नहीं रही. कुओमितांग सरकार ने अपनी मौजूदगी पुन: स्थापित करने की कोशिश करते हुए 13वें दलाई लामा की मृत्यु के पश्चात जनरल मुसोंग हुआंग की अगुवाई में एक “शोक अभियान” ल्हासा भेजा था.
द्वितीय विश्व युद्ध में चीन के सहयोगी के रूप में अमेरिका ने च्यांग काई-शेक के रुख़ का समर्थन किया था. [c},[d] इस समर्थन की वजह से ही 1949 तक तिब्बत को लेकर US की नीति सतर्कता वाली बनी रही. चाइनीज़ नेशनलिस्ट यानी चीनी राष्ट्रवादी सरकार ने तिब्बत पर “आधिपत्य” का दावा किया था, जबकि चीनी संविधान में तिब्बत को रिपब्लिक ऑफ चाइना का अविभाज्य अंग बताया गया था.
इसी वजह से इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ल्हासा में तिब्बती सरकार के साथ काम करने को लेकर US हमेशा सावधान रहता था. [e] यह उस वक़्त की बात है जब दलाई लामा, रीजेंट और कशाग ने अमेरिका के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर दोनों सरकारों के बीच बेहतर संबंध स्थापित करने की इच्छा व्यक्त की थी. एक प्रस्ताव भी था, जिसमें एक तिबेटन ट्रेड मिशन यानी तिब्बती व्यापार अभियान को 1947 में भारत, चीन तथा यूनाइटेड किंगडम (UK) तथा US भेजा जाना था.[19] इस मिशन का नेतृत्व त्सेपोन शाकबपा, एक तिब्बती रईस कर रहे थे. इस मिशन ने अंतत: 1948[20] में ल्हासा में कार्यरत तिब्बती सरकार[21] की ओर से जारी पासपोर्ट्स पर यात्रा की. त्सेपोन शाकबपा के तिब्बती पासपोर्ट पर भारत, US, UK, फ्रांस, इटली, स्विट्जरलैंड, ईराक, पाकिस्तान और हांगकांग के अप्रवासन संबंधी स्टैंप लगे हैं, लेकिन इसमें चीन का स्टैंप नहीं है. हालांकि, इस मिशन ने अपने निर्धारित कार्यक्रम के तहत शांघाई, नानजिंग तथा हांगझोऊ का भी दौरा किया था.[22] इस बात से यह संकेत मिलता है कि रिपब्लिक ऑफ चाइना आज़ादी को लेकर किसी भी सुझाव को मानने के मूड में नहीं था. हालांकि, उस वक़्त तिब्बत को स्वतंत्र दर्ज़ा मिला हुआ ही था.
1 अगस्त 1947 को नई दिल्ली स्थित अमेरिका राजदूत की ओर से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को भेजे गए पत्र में भी US नीति की सावधानी उजागर हो जाती है. इस पत्र में राजदूत ने लिखा है कि, “डिपार्टमेंट (ऑफ स्टेट) की राय को ध्यान में रखते हुए कि कोई ऐसा कदम न उठाया जाए जिससे तिब्बत की संप्रभुता को लेकर चीनी दावे की झलक दिखाई देती हो, दूतावास ने “विदेश कार्यालय” (तिब्बती सरकार के) के पत्र के जवाब में अपनी ओर से “विदेश ब्यूरो” लिख दिया है.”[23] अमेरिका की ओर से किया गया अंतर शायद यह था कि “विदेश कार्यालय” का मतलब किसी संप्रभु देश का विदेश मंत्रालय होता है, जबकि “विदेश ब्यूरो” का अर्थ चीन में केंद्र सरकार के प्रांतीय विदेश मामलों का ब्यूरो होता है. शब्दों के चयन में बरती गई सावधानी से यह संकेत मिलता है कि US तिब्बत की संप्रभुता को लेकर चीन के दावे को कमज़ोर नहीं करना चाहता था. इसके अलावा अमेरिका ने तिब्बती सरकार के “विदेश कार्यालय” के इस सुझाव को भी ख़ारिज कर दिया कि वह यानी “विदेश कार्यालय” एक स्वतंत्र देश के विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करता है.
तत्कालीन असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ स्टेन जेम्स ग्राहम पार्सन्स की ओर से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को 14 अक्टूबर 1959 को लिखे एक मेमो में दी गई एक रूपरेखा के अनुसार तिब्बत को लेकर US की नीति में 1950 से उद्भव आने लगा. यह वह दौर था जब वामपंथियों/कम्युनिस्टों ने वहां कब्ज़ा जमा लिया था.[24] ताइवान स्ट्रेट यानी जलसंधि समेत क्षेत्र में बढ़ते तनाव की वजह से अमेरिकी ने यह दृष्टिकोण अपना लिया था कि तिब्बती लोगों को भी आत्मनिर्णय करने का वैसा ही “जन्मसिद्ध अधिकार” है जैसा अन्य लोगों को हासिल है. उसने यह भी स्वीकार लिया था कि आवश्यकता पड़ने पर यदि तिब्बत को आज़ाद देश का दर्ज़ा देना पड़ा तो इस पर भी विचार किया जाएगा. लेकिन उस वक़्त US ने तिब्बत को लेकर एक निर्णायक कानूनी रुख़ तैयार करने का कोई कदम नहीं उठाया था. पार्सन्स के अनुसार अमेरिका के “मौजूदा उद्देश्यों के लिए” इतना ही काफ़ी था कि वह, “मांचु राजवंश के पतन तक तिब्बत ने जिस वास्तविक स्वायत्तता का उपभोग किया या फिर 1914 में हुए शिमला सम्मेलन के बाद से तिब्बत को मिली वास्तविक स्वायत्तता” को मान्यता देता है.[25]
1950 से चली आ रही US नीतियों पर नज़र डालते हुए पार्सन्स ने कहा कि अमेरिका ने इस बात को माना था कि, “1959 में मौजूदा हालात को देखते हुए तिब्बती आज़ादी को मान्यता देने संबंधी तर्क इसका विरोध करने के मुकाबले ज़्यादा मजबूत थे.”[26] ताइवान से रिपब्लिक ऑफ चाइना पर राज करने तक सीमित हो चुके च्यांग काई-शेक ही अंतत: US के रुख़ को प्रभावित करते हुए संतुलित कर रहा था.
उस वक़्त के प्रभारी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट सी. डगलस ढिल्लन की ओर से राष्ट्रपति आइज़नहावर को 16 जून 1959 को भेजे मेमोरेंडम नं 381 में इस बात का उल्लेख है कि दलाई लामा की ओर से अमेरिकी राष्ट्रपति एवं सेक्रेटरी ऑफ स्टेट यानी विदेश मंत्री को भेजे गए अपील पत्र में दलाई लामा ने इस बात पर जोर दिया है कि “चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश देने से पहले तिब्बत को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने की शर्त रखी जाएं.”[27] यह दलाई लामा के मार्च 1959 में भारत पलायन करने के तुरंत बाद की है.
उस वक़्त भी दलाई लामा तिब्बत के लिए पूर्ण स्वराज्य की मांग कर रहे थे, क्योंकि इसके पूर्व में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के तहत रहकर सही मायनों में स्वायत्ता पाने की कोशिशों को सफ़लता नहीं मिली थी. भारत पहुंचने के बाद दलाई लामा ने 17 प्वाइंट एग्रीमेंट को मानने से भी इंकार कर दिया था.[28] उस वक़्त US ने आकलन किया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी, “तिब्बत की आज़ादी के ख़िलाफ़ थे. वे चाहते थे कि दलाई लाम सार्वजनिक रूप से तिब्बत की स्वायत्तता को पुन: स्थापित करने के लिए काम करें.”[29] आज यह आकलन अथवा अनुमान लगाने का विषय हो सकता है कि उस वक़्त तिब्बत की आज़ादी को लेकर US समेत सभी में उत्साह की जो कमी देखी गई थी, उसकी जड़ में दरअसल भारत की तत्कालीन नीति ही थी. [f]
तिब्बत के मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र की ओर से की जाने वाली कार्यवाही में होने वाले विकास को लेकर सेक्रेटरी ऑफ स्टेट क्रिश्चियन हर्टर को भेजे गए दो मेमोरैंडम में काफ़ी रोचक जानकारी मिलती है. 5 अगस्त 1959 को यह मेमोरैंडम क्रमांक 383 असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर फार ईस्टर्न अफेयर्स (पार्सन्स) तथा कार्यवाहक असिस्टेंट सेक्रेटरी फॉर इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन अफेयर्स (वॉल्टर वाल्मस्ले) ने लिखे थे.[30] मार्च 1959 में भारत के लिए फ्लाइट में सवार होने के बाद दलाई लामा ने अमेरिकी सरकार से तिब्बत का मामला UN जनरल असेंबली यानी महासभा में उठाने के लिए समर्थन मांगा था. दलाई लामा चाहते थे कि इस मामले में UN कार्रवाई के लिए सार्वजनिक अपील की जानी चाहिए. दलाई लामा ने “यह भी पूछा था कि क्या US सरकार किसी अन्य देश, संभव हो तो एशियाई देश, को यह प्रस्ताव देने को तैयार होगी कि वह देश उनकी यानी दलाई लामा की निर्वासित सरकार को मान्यता दें.”
दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास अपने आकलन में बेहद स्पष्ट था. उसका मानना था कि, “GOI का यह विचार है कि संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत का मामला उठाने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा. लेकिन उसका यह भी मानना है कि दलाई लामा को यह अपील करने का अधिकार है. यदि संयुक्त राष्ट्र चाहे तो वह दलाई लामा की बात सुन सकता है और भारत को इसमें कोई आपत्ति नहीं है.”[32] दूतावास का आकलन था कि दलाई लामा की अपील और संयुक्त राष्ट्र में उनकी मौजूदगी से शायद उनके यानी दलाई लामा की भारत वापसी की राह में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी. बशर्तें दलाई लामा तिब्बत की आज़ादी की संकल्पना पर जोर नहीं देंगे.[33] इसके अलावा US भी उनकी भारत वापसी ही चाहता था.
उस वक़्त च्यांग काई-शेक की गर्वनमेंट ऑफ द रिपब्लिक ऑफ चाइना (GRC) न केवल UN का सदस्य राष्ट्र थी, बल्कि वह UN सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी थीं. अमेरिकी दूतावास के आकलनानुसार रिपब्लिक ऑफ चाइना स्वयं तिब्बत के मामले को महासभा में नहीं उठाएगी. लेकिन यदि कोई अन्य देश इस समस्या को उठाता है तो वह उस देश का पूरजोर समर्थन करेगी. GRC का प्रतिनिधिमंडल UN में होने वाले ऐसी किसी भी बहस में शामिल होगा जिसमें चीनी वामपंथियों की ओर से तिब्बत में की गई कार्रवाई की निंदा की जाएगी. इसके अलावा वह राष्ट्रपति च्यांग के 26 मार्च, 1959 के उस बयान पर कायम रहेगी जिसमें कहा गया था कि तिब्बत के नागरिकों को बीजिंग में वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद आत्मनिर्णय का अधिकार होगा.[34]
20 फरवरी 1960 को तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट हर्टर ने कहा था, “US सरकार मानती है कि तिब्बत के लोगों पर यह सिद्धांत (आत्मनिर्णय का) लागू होना चाहिए और उन्हें अपना राजनीतिक भविष्य चुनने में अपनी बात रखने का अधिकार होना चाहिए.”[35] गुआंगक्यू ज़ू के अनुसार, “17 जनवरी 1962 को दलाई लामा को लिखे एक पत्र में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट डीन रस्क ने भी U.S. के इस रुख़ को दोहराया कि तिब्बत के लोगों पर आत्मनिर्णय का सिद्धांत लागू होना चाहिए.”[36] गुआंगक्यू ज़ू आगे कहते हैं कि “उस वक़्त के दौरान आने वाले U.S. के सभी प्रशासनों ने चीनी मानवाधिकार कार्रवाईयों की आलोचना की थी. इन सारे प्रशासनों ने U.N. महासभा में पारित 1959, 1961 तथा 1965 के तीनों प्रस्तावों का समर्थन किया था, जिसमें चीन से तिब्बत से चले जाने की गुज़ारिश की गई थी.”[37]
ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका इस विषय में खुद को बचाए रख रहा था और उसे तिब्बत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में सहायता के लिए की जा रही अपील से कोई लेना-देना नहीं था. US तथा UK दोनों ही इस मामले में भारत को पहल करते देखना चाहते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका इस विषय में खुद को बचाए रख रहा था और उसे तिब्बत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में सहायता के लिए की जा रही अपील से कोई लेना-देना नहीं था. US तथा UK दोनों ही इस मामले में भारत को पहल करते देखना चाहते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. यह अल साल्वाडोर था, जिसने UN महासभा में 1950 में एक प्रस्ताव रखा, जब तिब्बत में PLA घुस गया था.[38] लेकिन इस प्रस्ताव पर हुई बहस अधूरी रही और इसे आगे बढ़ा दिया गया. इसका कारण यह था कि इसमें बड़ी शक्तियों के बीच अनिश्चितता देखी गई थी. तिब्बत का सवाल UN की महासभा में इसके बाद 1959 में दोबारा उस वक़्त उठा जब तिब्बत में अशांति के बीच दलाई लामा को भारत के लिए उड़ान पकड़नी पड़ी. इस बार भी छोटी शक्तियों आयरलैंड तथा मलाया ने ही “तिब्बत का सवाल” उठाते हुए इसे लेकर प्रस्ताव को आगे बढ़ाया था.[39]
1959 तथा 1964 के बीच में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ) की तीन रिपोर्टों से तिब्बत के मुद्दे को बल मिला. इनमें प्रथमदृष्टया मानवाधिकार के हनन के सबूत मिले तथा यह भी पाया गया कि चीन तिब्बती राष्ट्र तथा बुद्धिस्ट धर्म को नष्ट करने की कोशिश कर रहा है.
चीनी PLA से मुकाबला करने वाले खम्पा गुरिल्ला टूकड़ी चुशी गंगद्रुक (चार नदियां, छह श्रेणियां, जो खम् क्षेत्र को परिभाषित करती हैं) को मिलने वाला अमेरिकी समर्थन [g] इतिहास के पन्नों में अच्छी तरह दर्ज़ है.[40] 1950 के दशक में सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) की ओर से चलाए गए लो इंटेंसिटी यानी कम तीव्रता वाले ख़ुफ़िया ऑपरेशंस में तिब्बती प्रतिरोध यूनिट्स को कोलाराडो में दिया गया प्रशिक्षण शामिल है. इसके अलावा नेपाल से सटे तिब्बत के इलाके में सक्रिय विद्रोहियों की “मस्टैंग आर्मी” को भी प्रशिक्षित किया गया था. US की ओर से दिया जाने वाला यह समर्थन उस वक़्त कम होने लगा जब 1965 में PRC ने तिबेट ऑटोनॉमस रीजन (TAR) की स्थापना की. और यह समर्थन 1971 में चीन-US नज़दीकी बढ़ने के साथ पूरी तरह ख़त्म हो गया. उसके बाद से तिब्बत को अमेरिका की विदेश नीति में हाशिए पर धकेल दिया गया और इसके साथ ही तिब्बती गुरिल्लाओं को मिलने वाला सारा समर्थन भी ख़त्म हो गया.[41] नवीनतम तिब्बत-चीन विवाद कानून इस बात की पुष्टि करता है कि, “इस कानून के बावजूद लंबे समय से चली आ रही यूनाइटेड स्टेट्स की द्विदलीय नीति में कोई परिवर्तन नहीं आएगा कि वह तिबेट ऑटोनॉमस रीजन को मान्यता देता है और इसके साथ ही तिब्बत के कुछ अन्य चीनी इलाको को वह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा मानता है.
चीन-US के बीच घनिष्ठता बढ़ने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके बाद आए उत्तराधिकारियों ने तिब्बत के मामले पर नर्म रुख़ अपना लिया. यह बात तो सर्वविविदत है कि राष्ट्रपति जिमी कार्टर दलाई लामा से मिलने में भी हिचकिचा रहे थे.[43] इस रुख़ पर निर्णायक मुहर उस वक़्त लग गई जब 5 फरवरी 1992 को सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जेम्स बेकर ने विदेशी मामलों की सीनेट कमेटी के समक्ष सुनवाई में स्पष्ट कर दिया कि, “U.S. की नीति चीन के इस रुख़ को स्वीकार करती है कि तिब्बत चीन का ही हिस्सा हैं.”[44] वह अपने इसी रुख़ पर आज भी कायम है.
अमेरिका की नीति तिब्बत के भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. लेकिन तिब्बत को लेकर अमेरिकी नीति का इतिहास बताता है कि इसमें प्रतिबद्धता को लेकर विसंगतियां हैं. इस नीति में बीच-बीच में सहानुभूति की बौछार के साथ-साथ सक्रियतावाद देखने को मिलता है. 1950 के दौर में आत्मनिर्णय को लेकर चौकन्ना रवैया अपनाया गया, जबकि 1960 के दशक में मानवाधिकारों पर ध्यान केंद्रीत किया गया. दरअसल इस मामले पर बहस छेड़कर US बड़े पैमाने पर अपने व्यापारिक और आर्थिक हितों को साधना चाहता था. वह इसके साथ ही वह अपने साझा दुश्मन यानी सोवियत संघ को लेकर बीजिंग का तुष्टीकरण करते हुए अपने रणनीतिक हितों को साधने की कोशिश कर रहा था.
थियानमेन के बाद…
1987-1989 के बीच तिब्बत में अशांति के दौरान ही थियानमेन में प्रदर्शन के बाद जून 1989 में सेना की ओर से कड़ी कार्रवाई की गई थी. जब बिल क्लिंटन ने 1992 में अमेरिका के राष्ट्रपति का पद संभाला तो उनके देश का ध्यान मानवाधिकार हनन, व्यापारिक तनाव, प्रसार संबंधी चिंताओं और ताइवान जलसंधि में चल रहे तनाव की ओर था. क्लिंटन ने दलाई लामा के साथ चार मर्तबा 1993, 1997, 1998,[45] and 2000.[h],[46] मुलाकातें की. तत्कालीन उपराष्ट्रपति अल गोर तथा सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मैडलीन अलब्राइट 1997 तथा 1998 की बैठकों में मौजूद थे. इसी प्रकार 1993 की बैठक में गोर तथा सेक्रेटरी ऑफ स्टेट वॉरेन क्रिस्टोफर तथा स्पीकर टॉम फ़ोले के साथ उपस्थित थे. इन बैठकों के कारण ही दलाई लामा की भविष्य में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के साथ 2001 तथा 2003,[47] एवं बराक ओबामा के साथ 2010[48] में बैठक संभव हो सकी.
क्लिंटन के एकध्रुवीय दशक की वजह से US को तिब्बत के लिए एक यथोचित सौदे की वकालत करने का मौका मिला. लेकिन इसी दौर में क्लिंटन प्रशासन ने धीरे-धीरे चीन को मोस्ट फेवर्ड नेशन (MFN) का दर्ज़ा देने की राह में से मानवाधिकार हनन के मुद्दे को अलग कर दिया. ऐसे में साफ़ था कि तिब्बत में हो रहे मानवाधिकार के हनन का मामला अब हाशिए पर डाला जा रहा है.
1997 में तिब्बती मामलों के लिए विशेष समन्वयक का कार्यालय स्थापित करने से पहले ही 103 वीं कांग्रेस में एक विधेयक पेश किया गया था. इसमें तिब्बत के लिए यूनाइटेड स्टेट्स के विशेष दूत का पद बनाने की बात की गई थी. इसी प्रकार कांग्रेस के 104 वें तथा 105 वें सत्र में भी फॉरेन रिलेशंस ऑथोराइजेशन बिल में भी इस पद को गठित करने का प्रावधान पेश किया गया था.[49] इस विधेयक में विशेष दूत को राजदूत का दर्ज़ा देने का आवाहन किया गया था. इसका कारण यह था कि चीन के साथ अहम द्विपक्षीय संबंधों में नीति स्तर पर वरिष्ठ स्तरीय बातचीत की केंद्रीयता को सुनिश्चित किया जा सके.[50] क्लिंटन प्रशासन अंतत: उस वक़्त समझौते के लिए तैयार हो गया जब सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मैडलीन अलब्राइट ने विदेश मंत्रालय में डायरेक्टर ऑफ प्लानिंग, ग्रेगरी क्रेग को तिब्बती मामलों के लिए विशेष समन्वयक नामित कर दिया.[51]
चीन-दलाई लामा बातचीत और अमेरिका
चीनी सरकार तथा दलाई लामा के प्रतिनिधियों के बीच सीधी बातचीत को US का समर्थन लंबे समय से अमेरिका की नीति का एक अहम बिंदु रहा है. डेंग ज़ियाओपिंग की अगुवाई में सीधी बातचीत में उत्साहजनक प्रगति देखी गई थी. उसके बाद दलाई लामा के प्रतिनिधियों की ओर से फैक्ट फाइंडिंग मिशंस चलाए गए, लेकिन इसका कोई फ़ल नहीं निकला. 1988 में यूरोपीयन संसद को दलाई लामा के संबोधन में उनके “स्ट्रासबर्ग प्रस्ताव” के तहत बातचीत के माध्यम से समझौते का मुद्दा प्रमुखता से उछला, लेकिन इसके कुछ ही देर बाद चीन ने अपने कदम पीछे खींच लिए. 2002 तथा 2010 के बीच तिब्बती और चीनी लोगों के बीच नौ दौर की बातचीत हुई.
इसमें से केवल एक बार बैठक 2005 में स्विट्जरलैंड के बर्न शहर में हुई थी, बाकी सारी बैठकों का आयोजन चीन में ही किया गया था.[52] ये बैठकें बेनतीजा रही. तिबेटन नेशनल अपराइजिंग डे यानी तिब्बती राष्ट्रीय विद्रोह दिवस की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर अपने बयान में दलाई लामा ने कहा कि, “चीन का इस बात पर ज़ोर देना कि तिब्बत प्राचीन काल से ही चीन का हिस्सा रहा है न केवल गलत है, बल्कि यह अनुचित भी है. हम भूतकाल को नहीं बदल सकते. भले ही वह अच्छा रहा हो अथवा बुरा. राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इतिहास के साथ छेड़छाड़ करना सही नहीं होगा.” उन्होंने आगे कहा था कि, “हम तिब्बती नागरिक एक वैध और अर्थपूर्ण स्वायत्तता चाहते हैं. एक ऐसी व्यवस्था जो तिब्बती नागरिकों को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के ढांचे में रहने में सक्षम बना सकें.”[53] 2010 के बाद से अब तक कोई सीधी बातचीत नहीं हुई है. हां, दलाई लामा के प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया है कि बातचीत के अनौपचारिक चैनल्स खुले हुए हैं.
राष्ट्रपति क्लिंटन ने चीनी राष्ट्रपति जियांग जेमिन पर 1997-1998 में दबाव डाला था कि वे दलाई लामा के साथ बातचीत करें. राष्ट्रपति बुश ने भी चीनी सरकार से दलाई लामा अथवा उनके प्रतिनिधियों के साथ सार्थक बातचीत करने की गुज़ारिश की थी. बुश का कहना था कि दलाई लामा की “सार्थक स्वायत्तता की मांग” जायज हैं.[55] इसी प्रकार वे मानते थे कि तिब्बती लोगों की अनूठी सांस्कृतिक, भाषाई तथा धार्मिक विरासत का सम्मान किया जाना चाहिए. बुश ने 2003 में दलाई लामा के साथ हुई अपनी बैठक में भी इस बात का समर्थन किया और चीन की 2001 में अपनी दो यात्राओं के दौरान भी राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ बातचीत में तिब्बत का मुद्दा उठाया था. बुश ने इसके अलावा 2002 में अमेरिका की यात्रा पर आए उपराष्ट्रपति हू जिंताओ तथा 2003 में आए प्रीमियर वेन जियाबाओ के समक्ष भी इसे उठाया था.
2011 में ओबामा और दलाई लामा की व्हाइट हाउस में मुलाकात हुई. व्हाइट हाउस की ओर से इस अवसर पर जारी बयान के अनुसार, “राष्ट्रपति ने अहिंसा के प्रति दलाई लामा की प्रतिबद्धता की सराहना की है. इसी प्रकार राष्ट्रपति ने दलाई लामा की चीन के साथ बातचीत करने और ‘मिडिल वे यानी मध्यम मार्ग’ अपनाने के दृष्टिकोण को भी सराहा है.”
2011 में ओबामा और दलाई लामा की व्हाइट हाउस में मुलाकात हुई. व्हाइट हाउस की ओर से इस अवसर पर जारी बयान के अनुसार, “राष्ट्रपति ने अहिंसा के प्रति दलाई लामा की प्रतिबद्धता की सराहना की है. इसी प्रकार राष्ट्रपति ने दलाई लामा की चीन के साथ बातचीत करने और ‘मिडिल वे यानी मध्यम मार्ग’ अपनाने के दृष्टिकोण को भी सराहा है.” इस बयान में यह भी कहा गया था कि राष्ट्रपति ओबामा ने इस बात पर बल दिया है कि वे दीर्घावधि से मौजूद मतभेदों को सीधी बातचीत से हल करने के पक्षधर हैं. ऐसे में चीन तथा तिब्बत के बीच परिणाम देने वाली बातचीत दोनों के लिए सकारात्मक होगी.
निष्कर्ष
तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करने वाले नवीनतम कानून में तिब्बती नागरिकों के आत्मनिर्णय को लेकर नए सिरे से किया गया उल्लेख वर्तमान संदर्भों में उससे ज़्यादा संवेदनशील साबित होगा, जितना यह दिखाई देता है. याद रहे कि दुनिया के किसी भी देश ने अब तक तिब्बत को आज़ाद राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी है.US ने अपनी ओर से बहुराष्ट्रीय मंचों पर तिब्बती लोगों के आत्मनिर्णय के फ़ैसले को प्रोत्साहित करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं. UN सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के नाते US इस स्थिति में है कि वह तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करने वाले कानून में उठाए गए मुद्दों को लेकर चर्चा की शुरुआत कर सकता है. लेकिन वह ऐसा करने से बचता रहा है. इतना ही नहीं US ने अपने सहयोगियों के साथ ताइवान जलसंधि की स्थिति पर चर्चा की है, लेकिन वह प्राथमिकता के साथ तिब्बत के मुद्दे पर बातचीत नहीं करता. तिब्बती मामलों में अमेरिका के विशेष दूत को तिब्बती लोगों के साथ बातचीत करने का अधिकार मिला हुआ है.
स्वाभाविक रूप से ऐसी किसी भी बातचीत में भारत में बड़ी संख्या में रहने वाले तिब्बती शरणार्थियों को भी शामिल किया जाएगा. ऐसा होने पर भारत तथा चीन दोनों के बीच तनाव और बढ़ जाएगा. इसके अलावा भारत लंबे समय से UN के उन प्रस्तावों का विरोध करता आया है, जिसमें आत्मनिर्णय की बात की जाती है.[j] ऐसे में तिब्बती लोगों के मामले में भी आत्मनिर्णय की बात आने पर भारत के रुख़ में कोई परिवर्तन संभव नहीं है.
वर्तमान में US के किसी भी विधेयक अथवा प्रतिबंधों को चीन बुरी तरह नकार देता है या उसकी उपेक्षा कर देता है.[58] चीन ने तिब्बत को पूरी तरह अवशोषित यानी अपने में मिला लिया है. वह अपने एकीकरण को जनसंख्या में बदलाव के साथ-साथ सांस्कृतिक और शैक्षणिक पुन:निर्धारण के साथ मजबूत करता जा रहा है. इसके अलावा चीन मतारोपण यानी विचारों को थोपने, सर्विलांस और दंडात्मक उपाय का उपयोग करते हुए भी यहां अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है. इसके अलावा तिब्बत में विकसित हो रही रेल, सड़क तथा हवाई कनेक्टिविटी के चलते बीजिंग की पकड़ और पुख़्ता होती जा रही है.
दलाई लामा भी यह कह चुके हैं कि वे तिब्बत के लिए आज़ादी की मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे सार्थक स्वायत्तता चाहते हैं.[59] तिब्बती लोगों के लिए सहानुभूति तो है, लेकिन ऐसे ठोस कदम बेहद कम उठाए गए हैं जो सार्थक बदलाव ला सकें. US के नवीनतम कानून के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तिब्बती लोगों के आत्मनिर्णय के फ़ैसले को स्वीकार करने अथवा उसको जगह देने की संभावनाएं बेहद कम ही है.
20 जनवरी 2017 को तिब्बती मामलों के विशेष समन्वयक और सिविलियन सिक्योरिटी, डेमोक्रेसी एंड ह्यूमन राइट्स, लोकतंत्र तथा मानवाधिकार की अंडर सेक्रेटरी सारा सेवल का कार्यकाल समाप्त हो गया था.[60] याद रहे कि उसके बाद ट्रंप प्रशासन ने इस पद को तीन वर्ष और सात माह के लिए रिक्त रखा था. इसके बाद अक्टूबर 2020 में ब्यूरो ऑफ डेमोक्रेसी, ह्यूमन राइट्स एंड लेबर में असिस्टेंट सेक्रेटरी रॉबर्ट डेस्ट्रो को इस पद पर नियुक्त किया गया था.[61] अत: अमेरिका में आने वाले राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए या माना जाना चाहिए कि अमेरिका के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में इस बात की ही संभावना ज़्यादा है कि मौजूदा अमेरिकी रुख़ को ही जारी रखा जाएगा. यदि ट्रंप की राष्ट्रपति के रूप में वापसी होगी तो यह संभावना और भी बढ़ जाएगी.
(सुजान चिनॉय भारत के पूर्व राजदूत और चीन संबंधी विशेषज्ञ हैं. वे वर्तमान में मनोहर पर्रिकर इन्स्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस में डायरेक्टर जनरल हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)