Wednesday, April 9, 2025
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प्राचीन भारत की गौरवशाली न्याय व्यवस्था

सामान्यतः ऐसा माना जाता है (और जो शालेय / महाविद्यालयीन शिक्षा से और दृढ होता गया है) कि, न्याय प्रणाली, न्यायालय, न्यायमूर्ती, वकील…. यह सब व्यवस्थाएं अंग्रेजो ने भारत मे लायी। अंग्रेज आने से पहले भारत मे यह कुछ भी नही था। यदि जनता की कोई शिकायते होती थी, तो वह सीधे राजा के सामने रखी जाती थी। राजा उसके मनमर्जी से, या उस समय उसकी जो मनस्थिती रही होगी, उस प्रकार निर्णय देता था।

परंतु वास्तविक चित्र क्या है?

हजारो वर्षों से अपने देश मे सुव्यवस्थीत न्यायप्रणाली कार्यरत थी। इस न्यायप्रणाली का आधार था – धर्मशास्त्रों का,अलग-अलग स्मृतियों का। इस न्यायव्यवस्था को समाज मान्यता थी। इस व्यवस्था के कारण उस समय के अखंड और विशाल भारत देश में स्वस्थ, सुदृढ और सशक्त समाज व्यवस्था का अस्तित्व था। महेश कुमार शरण ने उनके पुस्तक ‘कोर्ट प्रोसिजर इन एन्शंट इंडिया’ मे लिखा है –
‘It is just possible that elements of Hindu law were adopted by Romans thourgh Greek and Egyptian channels’
अर्थात, विश्व मे परिपूर्ण न्यायव्यवस्था सर्वप्रथम भारत मे ही विकसित हुई है। यह न्याय व्यवस्था ग्रीक और मिस्त्र देश के माध्यम से रोमन्स (युरोपियन्स) ने अपनायी होगी।

महेश कुमार शरणने आगे लिखा है –
‘It should be a pride and satisfaction to a Hindu to know that his / her ancestors had scaled great heights not only in literature, philosophy and religion, but had advanced very farin the domain of law’ – (Court procedures in Ancient India)

(अर्थात, एक हिंदू के लिए इसकी जानकारी होना अत्यंत गर्व और समाधान की बात है कि उसके पुरखों ने केवल साहित्य, दर्शन और धर्म मे ही अपनी कीर्ती ध्वजा फहराई थी, ऐसा नही है। तो न्याय के क्षेत्र में भी उन्होने कीर्तीमान रचा था।)

आगे लिखा है-

‘The  rule and evidence were as complete and perfect, as we can find them today. The administration of justice was regular and the system was well defined, as no aspect was left arbitrarily, capricious or uncertain. Judiciary had the highest regard and supreme position.

(अर्थात, ‘नियम’ और ‘प्रमाण’ इन की परिभाषा इतनी परिपूर्ण और निर्दोष थी, जितनी आज है। न्याय प्रणाली एक नियमित व्यवस्था थी। परिभाषा सुस्पष्ट थी। इसमे कोई भी अनियंत्रितता नही थी, अनिश्चितता नही थी। न्यायव्यवस्था सर्वोच्च स्थान पर थी और उस व्यवस्था को सर्वाधिक आदर और सम्मान मिलता था।)

इसी पुस्तक में महेश कुमार शरण ने आगे लिखा है –

Besides this, the whole procedure is completely indigenous and nothing has been imported into it from any other system, whatsoever.’

(अर्थात, इस न्याय व्यवस्था की संपूर्ण प्रक्रिया पूर्णतः स्वदेशी थी। इसमें कोई भी बाहरी (देशों से) बिंदु या व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया गया था।)

————–         ————-

भारत की यह संपूर्ण न्याय व्यवस्था, स्मृतियों के आधार पर खड़ी थी। कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पाराशर स्मृति आदि प्रमुख स्मृतियां थी।

यह स्मृति क्या होती है? यह कितनी पुरानी है?

एक सुव्यवस्थित समाज रचना निर्माण करने के लिए, हजारों वर्षों से अपने पूर्वजों ने कुछ ग्रंथों का निर्माण किया हैं। इन ग्रंथो के अनुसार ही अपने समाज में प्रथा, परंपरा, व्यवस्थाएं निर्माण हुई। इन ग्रंथों के आधार पर अपना समाज चल रहा था। इसलिए, इतने सारे आक्रमणों के बाद भी हमारी पहचान कायम रही, बनी रही।

इन ग्रंथो में वेद है, उपनिषद है, श्रुति है, स्मृति है, पुराण है। हजारों वर्षों से हमारे ऋषि मुनियों ने, समाज महर्षियों ने, जिस ज्ञान का संचय किया है, वह संचय यानी स्मृतियां। एक प्रकार से परंपराओं का संकलन होने के कारण इन्हें ‘स्मृति’ यह नाम दिया गया है। यह स्मृति मानो हमारा धर्मशास्त्र है। भारत का और पौर्वात्य प्राचीन साहित्य का अध्ययन करने वाले जो पाश्चात्य विद्वान है, उनके अनुसार इन स्मृतियों की रचना ईसा पूर्व 500 वर्षों से लेकर तो ईसा के बाद पांचवें सदी तक हुई है। तक्षशिला विश्वविद्यालय में जिस काल खंड में आर्य चाणक्य अर्थशास्त्र लिख रहे थे, उसी कालखंड में स्मृतियों की रचना हुई है, ऐसा पश्चिम के विद्वानों का मत है। परंतु उपलब्ध संदर्भों के अनुसार स्मृतियों का कालखंड इससे भी बहुत प्राचीन है।

इन स्मृतियों में से ‘कात्यायन स्मृति’ यह ऋषि कात्यायन द्वारा लिखी गई है, ऐसा माना जाता है। कात्यायन यह याज्ञवल्क्य ऋषि के पुत्र थे। इनका कार्यकाल ईसा पूर्व कुछ हजार वर्ष माना जाता है। अर्थात ‘कात्यायन स्मृति’ यह ग्रंथ, कात्यायन ऋषि ने लिखे हुए सूत्र और उनके अन्य शिष्यों के साहित्य का संकलन है। इसलिए कात्यायन स्मृति में केवल ऋषि कात्यायन के श्लोक नहीं है। देवल  पितामह, प्रजापति, वशिष्ठ, मनु आदि ॠषियोंका सहभाग भी इस कात्यायन स्मृति में है।

इस स्मृति में कात्यायन ऋषि ने उनके पहले, इस न्याय के क्षेत्र में जिन्होंने काम किया था, उनका उल्लेख किया है। भृगु, बृहस्पति, गार्गीय, तम, कौशिक, लिखिता, मनु, मानव आदि..! प्राचीन भारत में जो न्याय प्रणाली विकसित हो रही थी, उसमें कात्यायन ऋषि के बाद, लगभग 1000 वर्ष तक, इसमें विशिष्ट सुधार होते रहे। कात्यायन स्मृति में उसका प्रभाव दिखता है। इस स्मृति में प्रत्यक्ष कात्यायन ऋषि ने लिखे हुए श्लोक अंत में दिए हुए हैं।

महामहोपाध्याय डॉक्टर पांडुरंग वामन काणे (1880 – 1972) ने प्राचीन भारतीय न्याय शास्त्र के क्षेत्र में, अत्यंत गहन शोध और भरपूर लेखन किया है। ‘भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास’ इस विषय पर उनका 6500 पृष्ठोंका का, पांच खंडो में लिखा हुआ साहित्य प्रकाशित हुआ है। स्वयं न्याय शास्त्र के विद्वान तो थे ही, साथ मे उन्होंने संस्कृत ग्रंथोका का गहन अध्ययन किया। वर्ष 1963 में महामहोपाध्याय काणे जी को भारत का सर्वोच्च सम्मान, ‘भारत रत्न’ दिया गया।

ऐसे पां. वा. काणेजी ने, कात्यायन स्मृति के बारे में बहुत कुछ लिख रखा है। वे लिखते हैं –  ‘कात्यायन स्मृति में न्याय प्रणाली के संदर्भ में जो विषय आएं है, वह अद्भुत और आश्चर्य जनक है। क्योंकि आज के आधुनिक न्याय शास्त्र जैसी पद्धति और नियम, कात्यायन स्मृति में हैं।’

[Some of his (sage Katyayan’s) rules, such as those about the contents and characteristics of good points and written statements, about the evidence of witness and about documents, about constructive res judicata are startling in their modernity].

कात्यायनी स्मृति में आए हुए विषय –

– न्यायालय, न्यायालय की प्रक्रिया / पद्धति
– कागजात
– परिक्षण (बहस)
– शपथ लेकर दी हुई साक्ष्य / बयान
– भागीदारी
– भेंट वस्तु (gift)
– अनुबंध तोड़ना
– जो मालिक नहीं हैं, ऐसे व्यक्ति ने की हुई वस्तुओं की बिक्री
– परंपराओं का / नियमों का उल्लंघन
– विवादों की सीमा
– पैतृक संपत्ति का बंटवारा / विवाद
– वाकपारुष्य (आज की भाषा में ‘हेट स्पीच’)
– दंड पारुष्य (कठोर सजा)
– प्रकीर्णक (विविध / अनेक प्रकार के यम-नियम)

प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था / २
–   प्रशांत पोळसंपूर्ण कात्यायन स्मृति में, न्यायालय की परिभाषा से लेकर, विविध प्रसंगों में किस प्रकार से न्यायदान करना चाहिए, इस पर विस्तार से चर्चा की है।न्यायालय की परिभाषा-

धर्मशास्त्र विचारेण मूलसार विवेचनम्
यत्राधिक्रियते स्थाने, धर्माधिकरणम् हितत्  ।।52।।

[The place, where the decision of the truth of the plaint, i.e. lit, the cause or root of the dispute, is carried on by a consideration of the (rules of the) sacred law is (called) the Hall of Justice]

धर्माधिकरण याने न्यायालय.

मजेदार बात यह है कि, कात्यायन स्मृति में फिर्यादी को किस प्रकार के प्रश्न पूछने चाहिए इसका भी विस्तार से वर्णन किया है,।

प्रश्न प्रकार –

काले कार्यार्थिनं पृच्छेत प्रणतंपुरतःस्थितं ।
किं कार्य  का च ते पीडा मा भैषीब्रूहि मानव ।।86।।

केन कस्मिकंदाकस्मातपृच्छे  देवं सभागतः I
एवं पृष्ठः सयद्ब्रूयात्तत्सभ्यै ब्राह्मणैः सहः ।।87।।

विमृश्य कार्यं न्यायंचेदाव्हानार्थमतः परम्
मुद्रां वा निक्षेपेत्तस्मिन्पुरुषं वा समादिशेत ।।88।।

अर्थात, न्यायाधीश ने पक्षकार को (जो फरियाद लेकर आया है), न्यायालय के उचित समय पर, प्रश्न पूछना चाहिए। यह पूछते समय, पक्षकार ने न्यायाधीश के सामने आदब से खड़ा रहना है। न्यायाधीश पूछेंगे, “आपकी शिकायत क्या है? आपको कहीं चोट तो नही आई हैं? डरिए मत…” आदि।

इसके बाद न्यायाधीश ने पूछना है, “किसके कारण, कहां, कब, (दिन के किस समय) और क्यों ?आपको तकलीफ हुई, या आप क्यों शिकायत कर रहे हैं?” इन प्रश्नों पर पक्षकार जो कहता है, वह न्यायालय ने शांति से सुनना है। उस न्यायालय में उपस्थित मूल्यांकन कर्ताओं की (आज की भाषा में ‘जूरी सदस्य’) मदद से, उनकी सलाह पर, न्यायमूर्ति ने यह तय करना है कि यह शिकायत / यह प्रकरण न्याय प्रविष्ट होने योग्य है या नहीं? अगर है, तो न्यायमूर्ति ने संबंधित गुनहगार को हाजिर करने के लिए संबंधित अधिकारियों को आज्ञा देनी है।

कितना अद्भुत है यह सब..! पां. वा. काणे के कहे अनुसार, हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं, यह सब पढ़कर! कितने विस्तार से पूरी न्याय प्रणाली (न्याय की पद्धति / प्रक्रिया) समझायी है। सनद रहे, कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व, अपने देश में इतनी व्यवस्थित, और ठीक से दस्तावेजीकरण (Well  documented) की हुई, न्याय व्यवस्था अस्तित्व में थी।

और हमें पढ़ाया गया कि भारत में न्याय व्यवस्था लायी, वह अंग्रेजों ने..!

एक हजार से अधिक श्लोक कात्यायन स्मृति में है। यह ग्रंथ विस्तृत धर्मशास्त्र का एक हिस्सा है। इस का अर्थ है, हमारे पूर्वजों ने एक सुव्यवस्थित न्याय प्रणाली विकसित करके उसका उपयोग किया था।

इसीलिए समाज में किसी पर भी अन्याय नहीं होता था, और कानून व्यवस्था सही रूप में लागू की जा रही थी।

धर्मशास्त्र का (अर्थात न्याय शास्त्र का), विस्तृत विवेचन करने वाला कात्यायन स्मृति यह एकमात्र ग्रंथ नहीं था। साधारणत: ढाई हजार वर्ष पुराना, या उससे भी प्राचीन, ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ यह ग्रंथ भी, भारतीय न्याय पद्धति की विस्तृत विवेचना करता है। इस ग्रंथ में कुल 1003 श्लोक है, जो तीन खंडों में विभाजित है।

01. आचार कांड – इसमें तेरा अध्याय है। ब्रह्मचारी, विवाह, गृहस्थ, भक्ष्याभक्ष्य, द्रव्यशुद्धी, दान, श्राद्ध, राज धर्म इत्यादि विषयों पर इसमें विवेचन किया है।

02. व्यवहार कांड – 25 अध्याय के इस कांड में सीमावाद, स्वामीपालवाद, अस्वामी विक्रम, दत्तक प्रधानिक (गोद लेना), वेतन, दान, वाकपारूष्य आदि विषय और उनके यम-नियम का वर्णन है।

03.प्रायश्चित कांड – इसमें 6 अध्याय है।  शौच प्रकरण, आपधर्म प्रकरण, वानप्रस्थ, यति धर्म प्रकरण, प्रायश्चित प्रकरण जैसे विषय इसमें आते हैं।

अंग्रेजों का शासन भारत में जब तक अच्छी तरह स्थिर नहीं हुआ था, तब तक, मुख्य रूप से ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ के आधार पर न्यायदान के काम चलते थे। याज्ञवल्क्य ऋषि मिथिला के थे। शुक्ल यजुर्वेद और ‘शतपथ ब्राह्मण’ उपनिषद के रचयिता थे।

याज्ञवल्क्य स्मृति मे, पंचायत समिति (ग्राम पंचायत) में व्यवस्था कैसी होनी चाहिए इस विवेचन से लेकर, राज्य के मुख्य न्यायाधीशने, या राजा ने, किस प्रकार से न्याय देना चाहिए, इसकी विस्तार से चर्चा की है।

पिछले कुछ वर्षों से अपने देश में ‘मनुस्मृति’ की बहुत चर्चा हुई है। ‘भारत की प्राचीन समाज व्यवस्था और न्याय व्यवस्था मनुस्मृति के ही आधार पर चलती थी’ ऐसा चित्र निर्माण किया गया हैं। यह गलत है।

भारत के न्याय व्यवस्था के संदर्भ में मनुस्मृति यह मुख्य संदर्भ ग्रंथ कभी नहीं था। अनेक संदर्भ ग्रंथो में से एक था, यह सच है। ‘दंड विधान’ मे, अर्थात सजा देने मे मनुस्मृति का कुछ अंशों मे उपयोग होता था, यह भी सच हैं। किंतु केवल इतना ही..! जो महत्व कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पाराशर स्मृति को था, उतना महत्व मनुस्मृति को निश्चित रूप से नहीं था।

किंतु ‘इन दो – ढाई हजार वर्ष पुरानी स्मृतियों के आधारपर ही, भारत की न्याय व्यवस्था चलती थी’ यह विधान पूर्ण सत्य नहीं है। यह अर्ध सत्य है।

प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था / ३
–   प्रशांत पोळ

प्राचीन भारत के न्याय व्यवस्था की चर्चा करते हुए पिछले भाग में हमने कुछ ‘स्मृतियों’ की चर्चा की। कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति जैसे ग्रंथ अपने प्राचीन न्याय व्यवस्था के आधार स्तंभ थे।मात्र इन दो – ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रंथों के आधार पर भारत में न्याय होता था, यह कहना पूर्ण सही नहीं है। भारतीयों की, अर्थात हिंदुओं की, विशेषता है कि वह देश – काल – परिस्थिति अनुसार अपने व्यवस्थाओं और नियमों को युगानुकूल परिष्कृत करते जाते हैं। ‘जो पुराना है, प्राचीन है, वही सब अच्छा है’ यह कुएं के मेंढकों की मानसिकता अपनी (हिंदुओं की) नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे देश में ‘भाष्य’ यह समयानुसार, लिखे गए वेदों को / उपनिषदों को / स्मृतियों को परिष्कृत करने की एक सर्वमान्य पध्दति थी।इसी कारण धर्मशास्त्र पर (अर्थात न्याय प्रणाली पर) लिखे गए लगभग सभी ग्रथोंपर, समय-समय पर भाष्य लिखा गया। इस्लामी आक्रांता भारत में आने तक यह परंपरा कायम थी। आगे चलकर वह कम होती चली गई।

याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिथिला नगर के वाचस्पती मिश्र ने भाष्य लिखा। सन 900 से 980 यह उनका कार्यकाल था। उनके अनेक ग्रथोंमें से ‘न्याय सूचि निबंध’ और ‘न्याय वर्तिका तात्पर्य टीका’, यह दो ग्रंथ न्याय व्यवस्था पर है। इनमें से पहला ग्रंथ अर्थात, ‘न्यायसूचि निबंध’ यह, अक्षय पद गौतम के ‘न्याय सूत्र’ इस ग्रंथ पर प्रमुखता से भाष्य करता है। अक्षयपद गौतम का कालखंड यह ईसा पूर्व 200 वर्ष का था। इसी ‘न्याय सूत्र’ पर, आगे चलकर उद्योतकर, भविविक्त, अविधा कर्ण, जयंत भट आदी अनेक विद्वानों ने भाष्य लिखे हैं।

ग्यारहवी सदी मे, दक्षिण मे चालुक्योंके राज्य मे, ‘विज्ञानेश्वर’ नाम के न्यायाधीश ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिखा है। यह भाष्य ‘मिताक्षरा’ नाम से प्रसिद्ध है। इस ‘मिताक्षरा’ ग्रंथ में अन्य विषयों के साथ ही, ‘जन्म के साथ मिलने वाला उत्तराधिकार’ (Inheritance by birth) इस विषय पर विस्तृत विवेचन है।

विज्ञानेश्वर ने लिखे हुए इस ग्रंथ के लगभग 100 वर्षों के बाद, बंगाल के ‘जीमूतवाहन’ इस परिभद्र कुल के व्यक्ति ने ‘दायभाग’ यह ग्रंथ ‘उत्तराधिकार’ इसी विषय पर लिखा।

अगले 800 वर्ष, बृहद बंगाल (आज के बांग्लादेश सहित) और असम प्रांत में, उत्तराधिकारी संबंधित सभी न्याय दान में ‘दायभाग’ यह ग्रंथ प्रमाण माना गया है। लेकिन शेष भारत के उत्तराधिकार संबंधित मामलों में, ‘मिताक्षरा’ इस ग्रंथ के आधार पर न्याय दिया जाने लगा। आगे चलकर पन्द्रहवीं सदी में, चैतन्य महाप्रभु के सहपाठी रह चुके, बंगाल के ही रघुनंदन भट्टाचार्य ने ‘दायभाग’ पर भाष्य लिखा। कई स्थानों पर यह भाष्य प्रमाण माना जाता था। अंग्रेजों के शासन के प्रारंभिक काल खंड में, न्याय देते समय हिंदू विधि का उपयोग किया जाता था। अंग्रेजों की पहली सत्ता बंगाल में स्थापन होने के कारण देश का पहला हाई कोर्ट, वर्ष 1862 में कोलकाता में स्थापना हुआ। इस कोलकाता उच्च न्यायालय ने, उत्तराधिकार इस विषय में रघुनंदन भट्टाचार्य के ‘दायभाग’ पर लिखा गया भाष्य प्रमाण माना था।

‘मिताक्षरा’ यह शेष भारत में सर्वमान्य संदर्भ ग्रंथ माना जाता था, लेकिन उसके पांच अलग-अलग प्रकार (variants) थे।
1. काशी      2. मिथिला      3. मद्रास      4. मुंबई       5. पंजाबसन 2005 में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने ‘मिताक्षरा का आज के संदर्भ में महत्व’ इस विषय पर एक दीर्घ लेख लिखा। इसमें वह कहते हैं कि, ‘पचास के दशक में भारतीय संसद ने सब पुराने हिंदू कानून रद्द करके नए कानून तैयार किये। इसलिए दैनंदिन न्याय प्रणाली में मिताक्षरा के संदर्भ समाप्त हुए। फिर भी, भारतीय न्यायालय व्यवस्था समझने के लिए मिताक्षरा आज भी उपयुक्त है।’अर्थात इन स्मृतियाओ॔ का, या उन पर लिखे गए भाष्य का, विचार किया तो साधारणतः ढाई से तीन हजार वर्ष पहले के ग्रंथो से हमें सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था का विस्तृत विवरण मिलता है। यह न्याय व्यवस्था केवल कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा, दायभाग ऐसे ग्रंथो तक सीमित नहीं थी, तो प्रत्यक्ष समाज में इसका उपयोग होता था। इस्लामी आक्रांताओं ने जो विध्वंस किया, उसके कारण हमारे पास पुराने आलेख, पुराने कागजात उपलब्ध नहीं है। लेकिन जो मिले हैं, जो शिलालेख, ताम्रपट मिलते हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि, भारत में एक परिपूर्ण सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था थी। सत्ता किसी की भी हो, राजा कोई भी हो, परंतु धर्मशास्त्र ने दी हुई यह न्याय व्यवस्था सर्वमान्य थी और सबके लिए बंधनकारक थी।

विजयनगर साम्राज्य (वर्ष 1336 -1646) के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य में और आगे चलकर, पेशवा के राज्य में भी, न्याय व्यवस्था अच्छी थी। विजयनगर साम्राज्य की जो पांडुलिपियां मिली है, उनसे उस समय की समाज व्यवस्था, न्याय पद्धति, दंड शासन आदि बातों का स्पष्ट चित्र हमारे सामने आता है। विजयनगर साम्राज्य के आदि गुरु विद्यारण्य अर्थात माधवाचार्य ने पाराशर स्मृति पर ‘प्रसार माधवीय’ ग्रंथ लिखा है। इस ग्रंथ के ‘व्यवहार कांड’ प्रकरण में न्याय व्यवस्था के यम – नियम विस्तार से दिए हैं। मंगलौर के भास्कर आनंद सालटोर की, विजयनगर साम्राज्य की न्याय व्यवस्था के संदर्भ में एक अच्छी पुस्तक उपलब्ध है, – ‘Justice System of Vijaynagara’। इसमें उन्होंने विजयनगर साम्राज्य के न्याय व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया है। साथ ही विजयनगर साम्राज्य में घटित अनेक महत्वपूर्ण न्याय दानों की, अर्थात, कानूनी मामलों के निर्णयोंकी, जानकारी भी दी है।

(क्रमशः)
–   प्रशांत पोळ जाने माने इतिहासविद हैं और भारतीय इतिहास , प्राचीन ज्ञान से लेकर आधुनिक भारत से जुडे़ विषयों पर खोजपूर्ण पूस्तकें लिख चुके हैं) 
(आगामी प्रकाशित ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग २’ के अंश)

रेल्वे का दो भागों में खुलने वाला अनोखा पुल पंबन पुल

पाम्बन पुल (Pamban Bridge) भारत के तमिल नाडु राज्य में पाम्बन द्वीप को मुख्यभूमि में मण्डपम से जोड़ने वाला एक रेल सेतु है। इस पुल के निर्माण का प्रयास 1870 के दशक में ही शुरू हो गया था, जब ब्रिटिश सरकार ने श्रीलंका तक व्यापार संपर्क बढ़ाने का निर्णय लिया था। यह अगस्त 1911 से बनना शुरु हुआ और इसका उदघाटन 24 फ़रवरी 1914 में हुआ था। तब यह भारत का एकमात्र समुद्री सेतु था। यह सन् 2010 में बान्द्रा-वर्ली समुद्रसेतु के खुलने तक भारत का सबसे लम्बा समुद्री सेतु रहा। सन् 1988 में रेल पुल से  समांतर एक सड़क पुल भी बनाया गया जो राष्ट्रीय राजमार्ग 87 का भाग है।
दिसंबर 2022 में पुराने पुल पर रेल परिवहन को स्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया क्योंकि जंग के कारण बेसक्यूल खंड काफी कमजोर हो गया था । लगभग 2.2 किमी तक कुल और 143 खंभों वाले इस पुल को 1914 में आधिकारिक तौर पर चालू किया गया था। यह मुंबई का आउटलेट-वर्ली सी लिंक भारत का दूसरा सबसे लंबा समुद्री पुल है। पाम्बन रेलवे पुल भारतीय मुख्य भूमि और पाम्बन द्वीप के बीच 2.065 किलोमीटर लंबा फैला हुआ है। फ्लोरिडा के बाद यह दुनिया के सबसे संक्षारक वातावरण में स्थित है, जिससे इसका रखरखाव एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह स्थान एक चक्रवात-प्रवण उच्च वायु वेग क्षेत्र में भी आता है। पाम्बन रेल पुल शेज़र रोलिंग लिफ्ट तकनीक पर काम करता है, जिससे फ़ेरी की पेशकश होती है, जो 90 डिग्री के कोण पर ऊपर की ओर खुलती है। अरब सागर के नीले विस्तार के अद्भुत दृश्य पेश करने वाली रेल ड्रॉ के दौरान पंबन पुल हमेशा से ही लोगों को आकर्षित करता रहता है।
रेलवे पुल समुद्र तल से 12.5 मीटर (41 फीट) ऊपर स्थित है और 6,776 फीट (2,065 मीटर) लंबा है। पुल में 143 खम्भे लगे हुए हैं और इसमें दो-पतरों से बना एक बैस्क्यूल खंड बना हुआ है, जिसमें सेज़र रोलिंग टाइप लिफ्ट स्पैन होते हैं, जिन्हें जहाजों के आने-जाने के लिए उठाया जा सकता है। प्रत्येक पतरें का वजन 415 टन (457 टन) है।पुल के दोनों पतरे लीवर का उपयोग करके मैन्युअल रूप से खोले जाते हैं।
नए पंबन ब्रिज में 18.3 मीटर के 100 स्पैन और 63 मीटर का एक नेविगेशनल स्पैन शामिल है. यह मौजूदा पुल की तुलना में 3 मीटर ऊंचा है और समुद्र तल से 22 मीटर की नौवहन वायु निकासी प्रदान करता है. इसके निर्माण में इलेक्ट्रो-मैकेनिकल नियंत्रित सिस्टम का उपयोग किया गया है, जो इसे ट्रेन नियंत्रण प्रणालियों के साथ समन्वित करता है।
पुराने ब्रिज के बन्द होने का कारण  दिसंबर 2022 में पुराने पुल पर रेल परिवहन को स्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया क्योंकि जंग के कारण बेसक्यूल खंड काफी कमजोर हो गया था ।नया पंबन ब्रिज अक्टूबर 2024 से पूरी तरह चालू हो गया है। यह भारत का पहला वर्टिकल लिफ्ट सी ब्रिज है। फेसबुक के इस लिंक से इस पुल की घटना को और सुगमता से जाना जा सकता है।

‘ख़ैबर दर्रा’- पाठकों को बाँधने वाली अद्भुत क़िस्सागोई भी और चिंतन सूत्र भी

‘ख़ैबर दर्रा’ कथाकार, ग़ज़लकार, व्यंग्यकार और संपादक पंकज सुबीर का सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह है। इससे पहले उनके ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’, ‘महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ’, ‘कसाब डॉट गांधी एट यरवदा डॉट इन’, ‘चौपड़े की चुड़ैल’, ‘होली’, ‘प्रेम’, रिश्ते’, ‘जोया देसाई कॉटेज’, हमेशा देर कर देता हुईं मैं’ कहानी संग्रह आ चुके हैं। ‘ये वो सहर तो नहीं’, ‘अकाल में उत्सव’, ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ और ‘रूदादे सफ़र’ उनके उपन्यास हैं। ‘बुद्धिजीवी सम्मेलन’ उनका व्यंग्य संग्रह है। ‘अभी तुम इश्क़ में हो’ गजल संग्रह है।

‘ख़ैबर दर्रा’ जिसकी टैग लाइन- ‘हर क़स्बे हर शहर में होना चाहिए’ है, में उनकी नौ कहानियाँ संकलित हैं- ‘एक थे मटरू मियाँ एक थी रज्जो’, ‘हरे तीन की छत’, ‘ख़ैबर दर्रा’, ‘वीरबहूटियाँ चली गई’, ‘देह धरे का दंड’, ‘निर्लिंग’, ‘आसमाँ कैसे कैसे’, ‘कबीर माया पापणी’, ‘इजाज़त @घोड़ाडोंगरी’।

प्रथम कहानी ‘एक थे मटरू मियाँ एक थी रज्जो’ ‘वनमाली’ पत्रिका के सितंबर अक्तूबर संयुक्तांक 2024 में प्रकाशित हुई। यह 25-26 पृष्ठों की लंबी कहानी देश के वर्तमान स्नेरियों का पटाक्षेप करती है। कहानी में कुल चार पात्र हैं। व्यंग्य की पैनी धार कहानी में अनेक स्तरों पर प्रवाहित हो रही है। प्रमुख पात्र दुर्गादास त्रिपाठी के चरित्र में पत्रकार/ नेता के गुणों का पूरा एजेंडा खुला पड़ा है। वह जो तोड़-फोड़, मार-पीट, झगड़े-टंटे यानी नकारात्मक और ध्वंसात्मक कामों में सबसे आगे रह चुका हो, हत्याओं का सहयोगी या समर्थक हो, जेल यात्रा कर चुका हो। राजनेता वही है, जो पार्टी के हार जाने पर दल बदल ले, सत्तारूढ़ पार्टी में चला आए। अपने ऊँचे संपर्कों का झूठ बोलने में निष्णात हो। अपनी प्रशंसा के लिए भक्त मंडली पाले हो। नेता वही, जो शतरंज-सी चालें चलनी जानता हो। नायक मटरू देश का आम आदमी- आधा अधूरा- पढ़ाई के नाम पर आठवीं तक, पेशे के नाम पर अख़बार के दफ़्तर के मामूली काम, पार्टी वर्कर, आका दुर्गादास त्रिपाठी का वफ़ादार।

दामोदर इस पपेट शो का अदना-सा खिलाड़ी है। रजनी महत्त्वाकांक्षी, अवसरवादी, चुस्त युवती है। हर संपर्क का फ़ायदा उठाना उसे आता है। वह जानती है कि समय क़लम वाले पत्रकार का नहीं, कैमरे वाले पत्रकारों का है। अपने प्रशिक्षण और संपर्कों का फ़ायदा उठा वह राजधानी पहुँच जाती है। त्रासद और कारुणिक दृश्य यह है कि जर्जर पार्टी कार्यालय के नीचे आकार मटरू की मृत्यु हो जाती है और रजनी-मटरू की पत्रकार बेटी कैमरा मैन के साथ इस ख़बर का प्रसारण करती है, बिना यह जाने कि यह उसका बाप है। देश की प्रगति पर व्यंग्य यह भी है कि बस्तियों के लोग नहीं जानते कि स्कूल क्या चीज़ होती है, वे कभी स्कूल गए ही नहीं और छोटी बस्तियों में बाल श्रम कानून भी लागू नहीं होता। होश में आते ही बच्चे श्रमिक बन जाते हैं।

‘हरे टीन की छत’ मीरा और अर्जुन के किशोर प्रेम की, रागबोध की, प्राकृतिक छटा और सान्निध्य की कहानी है। काव्य पंक्तियाँ और सूत्र वाक्य प्राण तत्व बन कर आए हैं। जैसे- “एक गहरी सी धुंध में पूरी पचमढ़ी समाई हुई है। दूर सतपुड़ा की चोटियों पर कुछ बादल लुढ़क-पुढ़क होने के बाद साँस लेने के लिए रुके हुये हैं। जैसे कोई रुई का गोला पहाड़ से लुढकते हुये पहाड़ पर लगे दरख्त में उलझ कर रुक गया हो।” पृष्ठ 35

“हरापन भी यादों की तरह ही होता है, फुरसत के पलों की बरसात का स्पर्श पाते ही एकदम खिल उठता है।” पृष्ठ 38

“किसी की स्मृतियों को हमेशा सुंदर बनाए रखना चाहते हैं तो उसके पास लौटिए मत, लौटकर आने से स्मृतियों में बनी सुंदरता नष्ट हो जाती है।”

‘ख़ैबर दर्रा’ के कथ्य ने, कथागत मोड़ों ने, तभी एक सारा आकाश रच दिया था, जब पहली बार मैंने इसे ‘हंस’ के अक्तूबर 2024 अंक में पढ़ा था। दर्रे के दोनों ओर अलग-अलग संप्रदाय के लोग रहते हैं और एक दिन सांप्रदायिक आग भड़क जाती है, अनियंत्रित हो जाती है। कहानी मज़हब और इंसानियत के दुश्मनों की, सांप्रदायिकता और दंगों की, नेतागिरी और गुंडागर्दी की, अस्तित्व और संधर्ष की ही नहीं, अपितु मूल्यवत्ता और हृदय परिवर्तन की, संवेदनशीलता और मानवीयता की, धर्म और नैतिकता की है। अपाहिज पिता और कर्तव्यनिष्ठ बेटी की सदाशयता कुटिल युवक की दुर्भावनाओं को सद्भावनाओं में, दुश्मनी को आत्मीयता में, नकारात्मता को साकारात्मकता में परिवर्तित कर देती हैं और दिमाग में छाए कुविचार, अश्लील भाव कुछ ऐसे धुलते हैं कि वह उनका वेलविशर बन जाता है।

‘वीरबहूटियाँ चली गई’ भी पंकज सुबीर की लंबी कहानी है। यह प्रथमत: अक्तूबर 2024 में ‘जानकीपुल डॉट कॉम’ में प्रकाशित हुई थी। कहानी पाठक को तुलसी की रामायण और जायसी के पद्मावत मे वर्णित वीरबहूटियों की यादों को ताज़ा कर जाती है। कहानी आज की वस्तुवादी, बुद्धिवादी एप्रोच को चुनौती देती पाठक को वन्य प्रकृति के नैसर्गिक लोक की यात्रा पर ले जाती है। यह मनुष्य और प्रकृति के अंत: सम्बन्धों की कहानी है। बालमन के अबोध प्रेम की कहानी है। लोक विश्वास और प्रकृति प्रदत्त स्वास्थ्य सूत्रों की कहानी है। वन सौंदर्य की भिन्न छवियों की कहानी है। रूप, रस, गंध की कहानी है। बाल मन के दो अबोध/ मासूम झूठों की कहानी है।

पर्यावरण से दूरी बना रहे आज के मनुष्य की त्रासदी की कहानी है। कहानी की अनाम बालिका बीमार होने के कारण पर्यावरण की गोद में आई है। इमली और नींबू के पेड़, रंगीन क्रीपर की बेल, बोगनबेलिया, गुलमोहर, नींबू का पेड़, पीला कनेर, मेहंदी की झाड़ियाँ, मनी प्लांट, खजूर के पत्ते, झूले, फाख्ता पक्षी, झींगुर, गिरगिट, पगडंडियाँ, सियारों की आवाज़ें- देखती महसूसती वह नाव के आकार की कुर्सी पर कुछ देर बैठी रहती है। यहाँ पगडंडी से रोज़ एक बालक निकलता है, वह अक्सर उसके लिए बेकरी से कुछ लाता है और बताता है कि चिरमी के बीज, मख़मल जैसी वीरबहूटियाँ शारीरिक मानसिक सारी बीमारियाँ सोख लेती हैं। अगले परिच्छेद में वे बरसों बाद मिलते हैं, लेकिन अब यहाँ न इमली-नींबू के पेड़ हैं, न रंगून क्रीपर की बेल, न बोगनबेलिया, न गुलमोहर, पीला कनेर, मेहंदी की झाड़ियाँ, खजूर के पत्ते, फाख्ता पक्षी, झींगुर, गिरगिट, पगडंडियाँ, सियार। अब वन प्रदेश दो मंज़िला घरों, लोहे, पत्थर, ईंटों में बदल चुका है। अब शारीरिक मानसिक सारी बीमारियों को सोखने वाले चिरमी के बीज, मखमल जैसी वीरबहूटियाँ नहीं हैं। कुछ सूत्रात्मक पंक्तियाँ भी मिलती हैं-

“माँ अपने बच्चों को जल्दी-जल्दी बड़ा करना चाहती है, मगर दादियाँ-नानियाँ बच्चों को ज़िंदगी भर बच्चा बनाकर रखना चाहती हैं।” पृष्ठ 85

“ज़मीन और नदी एक सी होती हैं, सब कुछ अपने अंदर सोख लेती हैं।” पृष्ठ 96

‘आसमाँ कैसे कैसे’ में उस समय का वर्णन है, जब लोग ज़ुबान के पक्के होते थे। राजेश को अपने मित्र दिलीप की दुकान खरीदनी है, बेटा विनय एग्रीमेंट बनवा कर लाता है और राजेश उस अतीत में खो जाता है, जब आदमी भले ही मर जाये, पर उसकी मृत्यु के बाद भी परिवार सब तरह के लालचों के प्रति अनासक्त होकर अपनी ज़ुबान पर अडिग रहता था।

‘कबीर माया पापिणी’ कहानी कहती है कि पैसा सर्वोपरि है- मज़दूर के लिए भी और ऑफ़िसर के लिए भी। एक तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करते पंकज सुबीर लिखते हैं कि फ़ैक्टरी कर्मचारी की काम के दौरान दुर्घटना मृत्यु हो जाती है और माँ-बाप दाह संस्कार करने की बजाय सरकार से, फ़ैक्टरी मालिक से, बीमा कंपनी से मुआवजा लेने के लिए धरना दिये बैठे हैं। दूसरी ओर ज़िला कलेक्टर अरुण सिंह की माँ मृत्यु शैय्या पर है और वे आबकारी और शराब के ठेके से मिलने वाली एक करोड़ रिश्वत राशि के चक्कर में संवेदनाशून्य हो चुके हैं। माँ की मृत्यु हो जाति है, पर उनकी आँखों से एक आँसू तक नहीं गिरता, लेकिन जाना पड़ेगा और एक करोड़ का नुकसान हो जाएगा, सोचकर वे फूट-फूट कर रो देते हैं।

‘देह धरे का दंड’ होमोसेक्सुयालिटी की सोडोम वृति पर है। यह दो युवकों की कहानी नहीं, पूरे समाज में चल रहे दुराचारों का लेखा-जोखा है। स्कूल के अधिकांश अध्यापक, समाज के सम्मानित धर्मगुरु- सब इन युवकों के साथ दुराचार करते हैं। इन्हें तो पता ही नहीं था कि होमो सेक्सुएलिटी होती क्या है। यहाँ जलकर आत्महत्या करने का कारण समाज है। कानून ने भले ही होमो युवकों को साथ रहने की इजाज़त दे दी हो, समाज को यह कदाचित् स्वीकार नहीं। कहानी सरकारी अस्पतालों की जर्जर अवस्था के बहुमुखी चित्र भी लिए है। ‘निर्लिंग’ में भी थर्डजेंडर की उन वेदनाओं, यातनाओं और शारीरिक शोषण का धारावाहिक सिलसिला है, जो अंतत: आत्महत्या के लिए विवश करते हैं। ऐसे तुच्छ और क्षुद्र, महत्त्वहीन, कीड़े-मकोड़ों जैसे जीवन से तो मर जाना ही बेहतर है। समाज शारीरिक अंगों की बाकी कमियों को तो स्वीकार लेता है, लेकिन जननांग की कमी घृणा का, शोषण का कारण है। यह आत्महत्या नहीं, समाज द्वारा की गई हत्या ही है।

अंतिम कहानी ‘इजाज़त@ घोड़ाडोंगरी’ में धरा, ध्रुव और रवि के माध्यम से स्त्री पुरुष सम्बन्धों का, देह और प्रेम का दांपत्य के धरातल पर लेखा-जोखा मिलता है। ध्रुव उच्च जाति का सुंदर पुरुष है, लेकिन अपने सौंदर्य-सजग व्यक्तित्व के कारण, चेतन-अचेतन में समाये अतिरिक्त अभिमान के कारण वह धरा के जीवन का वह भाग नहीं बन पाता, जो एक आदिवासी रवि बन जाता है। लेखक ने धरा की तुलना करते हुये गुलज़ार की ‘इजाज़त’ फिल्म की बात की है, जिसमें रेखा पति नसीरूद्दीन शाह के पैर छूने के बाद शशि कपूर के साथ चली जाती है। ऐसा ही धरा ने किया, क्योंकि उसे ध्रुव तारे की नहीं, आसमान पर चमकते रवि की चाह है, उस रवि की जिसके पास प्रकाश, ऊर्जा और ऊष्मा- सब एक साथ हैं।

इन कहानियों में अवसरवादी राजनेता भी हैं, मृत मानवीय संवेदना वाले अफसर-मज़दूर भी तथा ईमानदार विश्वसनीय सच्चे और सुच्चे मनुष्य भी। होमो का बहुमुखी शोषण भी है और हृदयविदारक चीत्कार भी। किशोर प्रेम भी, दाम्पत्य जीवन के मानदंड और गलियारे भी। पाठकों को बाँधने वाली अद्भुत क़िस्सागोई भी और चिंतन सूत्र भी।

लेखक- पंकज सुबीर
प्रकाशक- राजपाल एंड सन्ज़, नयी दिल्ली
मूल्य- 325 रुपये / पृष्ठ- 176

समीक्षक
डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब
13 प्रीत विहार, आर. एस. मिल, जी. टी. रोड, अमृतसर, 143104, पंजाब
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बस्ती जिले में नदियों की सफाई और नौका विहार की संभावनाएं

दिनांक 24 फरवरी 2025 को मुझे केरल के नेय्यार नदी पर  पूवर बोटिंग सफारी नौका विहार करने का अवसर  प्राप्त हुआ था। जो काफी रोमांटिक और शान्ति सकून भरा रहा। इस प्रकार के आयोजन उत्तर भारत के अनेक स्थलों पर भी विकसित किया जा सकता है। इससे जल परिवहन और नौका विहार के नए आयाम जुड़ेंगे और क्षेत्र के विकास में चार चांद लग सकते हैं।
जल परिवहन का उपयोग प्राचीन समय से ही किया जा रहा है और इसके कई फायदे हैं। यह एक सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल परिवहन साधन है। कम लागत: जल परिवहन की लागत अन्य परिवहन चालकों की तुलना में कम लागत है। पर्यावरण के अनुकूल: जल परिवहन से प्रदूषण कम होता है, क्योंकि यह कम जल का उपयोग करता है। यह बहुत सस्ता है क्योंकि पानी का घर्षण ज़मीन की तुलना में बहुत कम है । जल परिवहन की ऊर्जा लागत कम है।
उत्तर प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इस विकल्प को विकसित करने के लिए प्रयासरत हैं। उन्होंने  कहा है कि बलिया से अयोध्या तक सरयू नदी में जल परिवहन सेवा शुरू की जाएगी।  अयोध्या स्थित सरयू नदी में जल मार्ग का विकास करने और इसे सुदृढ़ बनाने के लिए नए सिरे से प्रयास शुरू कर दिए गए हैं। जल मार्ग में पानी की भरपूर व्यवस्था के लिए नदी तल का सिल्ट निकालने का कार्य किया जाएगा।  सरयू नदी में पानी का प्रवाह बढ़ाकर वाटर मेट्रो चलाने की तैयारी भी है। सरयू नदी में अयोध्या टांडा बडहल गंज को जोड़ते हुए यूपी की सीमा बलिया तक जल परिवहन को विकसित किया जा सकता है।सरयू नदी से मखौड़ा धाम को नदी मार्ग से नौका द्वारा जोड़कर पर्यटक को विकसित किया जा सकता है। टांडा से अयोध्या को नदी मार्ग से जोड़कर उमरिया देवरहा बाबा की जन्म भूमि को जोड़ते हुए पर्यटन स्थल विकसित किया जा सकता है।
कुवानो नदी सरयू (घाघरा) की सहायिका है। यह नदी तराई इलाके में बहराइच ज़िले के बसऊपुर गाँव के पास से एक सोते के रूप में निकलती है। नदी अपने मार्ग में बस्ती, संत कबीर नग़र और गोरखपुर जिले से होकर बहती है। इस नदी में नौका विहार की असीम संभावनाएं हैं। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में कुवानो नदी पर अमहट भद्रेश्वर नाथ और मुड़ घाट बारछत्तर सन्त रविदास बन बिहार आदि कुछ स्थल को जोड़ते हुए इस तरह के नौका विहार के लिए उपयुक्त है। बस्ती का संत रविदास पार्क कुवानों नदी के तट पर स्थित है. यहां पर आपको पार्क के साथ ही प्राकृतिक संसाधन देखने को मिल जाएंगे जो कि बेहद ही खूबसूरत हैं. इस पार्क में आपको मनोरंजन के साथ ही तरह तरह के जीव जन्त पशु पक्षी देखने को मिल जाएंगे. गर्मी के मौसम में यहां पर पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। इसे नौका विहार द्वारा विकसित किया जा सकता है।
बिसुही नदी बहराइच जिले के इकौना परगना से निकलकर गोंडा की पश्चिमी सीमा में प्रवेश करती है। उतरौला तहसील में पहुंचकर यह सादुल्लानगर को मनकापुर से और बूढ़ापायर को बभनीपायर से अलग करती है। जिले में 70 मील की दूरी तय करके ये नदी कुआनो में मिल जाती है। इसका पाट भी कुआनो की तरह संकरा व गहरा है। जिले में प्रवेश करते समय नदी की चौड़ाई 10 से 15 गज तक ही है, जबकि पूर्वी सीमा पर पहुंचते-पहुंचते यह 40-50 गज तक चौड़ी हो गई है। नदी के तट व अधिकांश भाग जामुन के कुंजों से आच्छादित हैं। इन्हें छटवांकर अनुकूल बनाया जा सकता है।
मनोरमा नदी पर मखौड़ा से बस्ती के लाल गंज तक पण्डुल पांडव घाट से झुगी नाथ तक को नौका विहार द्वारा जोड़ा जा सकता है। मनवर रामरेखा और सरयू नदी को जोड़कर नौका विहार के स्पॉट बनाए जा सकते हैं। इसी प्रकार आमी, रामरेखा, घाघौवा नाला ,गरिया आदि नदियों को भी इस दृष्टि से जोड़ा जा सकता है।
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321)

7 से 13 मार्च तक होलाष्टक, फिर 14 मार्च से 13 अप्रैल तक मल मास, शुभ कार्य 16 अप्रैल से प्रारंभ होंगे

फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से पूर्णिमा तक होलाष्टक की मान्यता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार होलाष्टक में मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। ज्योतिष शास्त्र की मान्यता के अनुसार इस बार 7 मार्च से होलाष्टक की शुरुआत होगी, 13 मार्च को होलिका दहन के साथ इसका समापन होगा।  होली से पहले 8 दिनों का समय होलाष्टक कहा जाता है। होली के 8 दिन पूर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होलाष्टक लग जाता है, जो पूर्णिमा तक जारी रहता है। ऐसे में इन 8 दिनों में कोई भी शुभ काम नहीं किया जाता। होलाष्टक के इन 8 दिनों को वर्ष का सबसे अशुभ समय माना जाता है। इन आठ दिनों में क्रमश: अष्टमी तिथि को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध एवं चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए माने जाते हैं जिसकी वजह से इस दौरान सभी शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।
अपने नाम के अनुसार होलाष्टक होली के ठीक आठ दिन पूर्व शुरू हो जाते हैं। होलाष्टक के मध्य दिनों में 16 संस्कारों में से किसी भी संस्कार को नहीं किया जाता है। यहां तक कि अंतिम संस्कार करने से पूर्व भी शांति कार्य किए जाते हैं। इन दिनों में 16 संस्कारों पर रोक होने का कारण यह है कि इस अवधि को शुभ नहीं माना जाता है।

लेकिन 14 मार्च से सूर्य मीन राशि में प्रवेश करेंगे। सूर्य की मीन संक्रांति को मलमास माना गया है। मलमास में भी शुभ मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं। ऐसे में इस बार लगातार सवा महीना मांगलिक कार्य नहीं होंगे। 15 अप्रैल को मलमास समाप्त होने के बाद एक बार फिर शहनाई की गूंज सुनाई देगी।

होलाष्टक के शुरुआती दिन में ही होलिका दहन के लिए 2 डंडे स्थापित किए जाते हैं, जिनमें से एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित हो जाता है, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। अन्यथा अमंगल फल मिलते हैं। क्योंकि होलिका दहन की परंपरा को सनातन धर्म को मानने वाले सभी मानते हैं, इसलिए होलाष्टक की अवधि में हिंदू संस्कृति के कुछ संस्कार और शुभ कार्यों की शुरुआत वर्जित है। लेकिन किसी के जन्म और मृत्यु के पश्चात किए जाने वाले कृत्यों की मनाही नहीं की गई है। तभी तो कई स्थानों पर धुलेंडी वाले दिन ही अन्नप्राशन संस्कार की परंपरा है। अत: प्रसूतिका सूतक निवारण, जातकर्म, अंत्येष्टि आदि संस्कारों की मनाही नहीं की गई है। देश के कई हिस्सों में होलाष्टक नहीं मानते। लोक मान्यता के अनुसार कुछ तीर्थस्थान जैसे शतरुद्रा, विपाशा, इरावती एवं पुष्कर सरोवर के अलावा बाकी सब स्थानों पर होलाष्टक का अशुभ प्रभाव नहीं होता है, इसलिए अन्य स्थानों में विवाह इत्यादि शुभ कार्य बिना परेशानी हो सकते हैं। फिर भी शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार होलाष्टक की अवधि में शुभ कार्य वर्जित हैं। अत: हमें भी इनसे बचना चाहिए।

चित्रनगरी संवाद मंच पर ‘रासबिहारी टिकट कलेक्टर’ ने सबको गुगगुदाया

हास्य व्यंग्य नाटक रासबिहारी टिकट कलेक्टर का यूं तो यह प्रथम प्रदर्शन था मगर अभिनेत्री कामना सिंह चंदेल की तैयारी ज़बरदस्त थी। उन्होंने एक टिकट कलेक्टर के जीवन के कई रोचक और रोमांचक अनुभवों को असरदार तरीक़े से पेश किया। दर्शकों ने उन्हें भरपूर सराहा। रविवार 2 मार्च 2025 को चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई की ओर से मृणालताई हाल, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट, गोरेगांव में आयोजित इस नाटक को देखने के लिए कथाकार सुधा अरोड़ा, डॉ उषा मिश्रा और पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज जैसे प्रतिष्ठित क़लमकार हाल में मौजूद थे। टिकट कलेक्टर के किरदार के अलावा कामना सिंह ने कुछ और चरित्रों को जिस विविधतापूर्ण अंदाज़ में पेश किया वह लाजवाब था। उनके इस हुनर की सबने दिलखोल कर तारीफ़ की। नाटक के कुछ संवाद बड़े अच्छे और चुटीले हैं। सीधा-साधा टीसी जब भी दबंग यात्रियों से पिटता है वह यही कहता है-” ग़लती मेरी ही थी”… उसका यह संवाद दर्शकों के साथ रह जाता है।

प्रस्तुति के बाद इस नाटक पर खुली चर्चा भी हुई। इस नाटक के लेखक अशोक मिश्र ने दर्शकों के सवालों के जवाब दिए। दर्शकों की राय में बिना स्टेज और किसी साज सज्जा के यह नाटक ऐसा प्रभावशाली है तो प्रेक्षा गृह में इसका कमाल देखने लायक होगा।
#यादों_में_फ़िल्मकार_श्याम_बेनेगल
नाट्य प्रस्तुति के बाद हाल ही में दिवंगत फ़िल्मकार श्याम बेनेगल को याद किया गया और भारतीय सिनेमा में उनके योगदान पर चर्चा की गई। कथाकार सुधा अरोड़ा ने कहा कि समांतर सिनेमा की शुरुआत बेनेगल जी की ही फ़िल्मों से हुई। अंकुर, निशांत, मंथन, भूमिका आदि फ़िल्मों के हवाले से उन्हें एक अप्रतिम फ़िल्मकार के रूप में याद करते हुए सुधा जी ने कहा कि श्याम बेनेगल ने सिनेमा में ऐसे चरित्र बनाए जो हमारे जहन में हमेशा के लिए महफ़ूज़ रह जाते हैं।
श्याम बेनेगल की वेलकम टू सज्जनपुर, समर, वेलडन अब्बा आदि फ़िल्मों के लेखक अशोक मिश्र ने उनसे जुड़े कई बेहतरीन संस्मरण सुनाए। उन्होंने बताया कि दलित अत्याचार पर आधारित फ़िल्म ‘समर’ को बेस्ट फ़िल्म का नेशनल अवार्ड मिला तथा उन्हें बेस्ट स्क्रीनप्ले का नेशनल अवार्ड मिला। मगर आज तक यह फ़िल्म सिनेमा हॉल में प्रदर्शित नहीं हो पाई। अशोक जी के अनुसार श्याम बेनेगल सीधे-सादे मेहनती इंसान थे। उनके काम में सच्चाई थी। उन्हें राजनीति की गहरी समझ थी। वह एक दृष्ट संपन्न व्यक्ति थे। सबसे खुलकर मिलते थे और सबको सम्मान देते थे। वह ऐसे सिद्ध पुरुष थे जिसे कभी ग़ुस्सा नहीं आता था। उनमें कमाल का सेंस आफ ह्यूमर था। यह ह्यूमर उनकी फ़िल्मों में भी नज़र आता है। कवि राजीव रोहित ने श्याम बेनेगल के व्यक्तित्व पर एक बढ़िया कविता सुनाई।
कविता पाठ के सत्र में रोशनी किरण, सुमीता केशवा, और दमयंती शर्मा ने सुमधुर गीत सुनाकर माहौल को सरस बना दिया। इस अवसर पर शोभा स्वप्निल, मधुबाला शुक्ल, क्रांति सिंह, प्रज्ञा मिश्र, सविता दत्त, पीयूष पराग, शायर क़मर हाजीपुरी और पत्रकार इरफान सामी मौजूद थे।
अगले रविवार 9 मार्च को चित्रनगरी संवाद मंच में होली स्नेह मिलन आयोजित किया जा रहा है। सभी मित्रों से अनुरोध है कि हास्य व्यंग्य और होली की ठिठोली का लुत्फ़ उठाने के लिए समयानुसार पधारें। पता वही – मृणालताई हाल, पहली मंज़िल, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट, आरे रोड, अम्बा माता मंदिर के पीछे, निकट बाटा शोरूम (एस.वी. रोड) गोरेगांव पश्चिम, मुंबई -400 062

एक इतिहास बना गया महाकुंभ

महाकुंभ – 2025 संपन्न हो चुका है। यह एक ऐसा अद्भुत धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक आयोजन बना जिसने न केवल संपूर्ण वैश्विक जगत सनातन संस्कृति से परिचित हुआ अपितु उसकी दिव्यता से हैरान भी रह गया। महाकुंभ -2025 राष्ट्र व वैश्विक जगत को कई संदेश देकर विदा हुआ। इस महाआयोजन में न तो कोई गरीब था और नहीं अमीर, ऊंच -नीच, जाति- भेद, बिरादरी भेद ,पुरुष – महिला, युवक-युवतियों तथा छोटे -छोटे बच्चों  के मन में केवल एक ही उत्सुकता रोमांच व संकल्प था कि किसी न किसी प्रकार मां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती की त्रिवेणी के तट पर स्नान करना है। महाकुंभ -2025 में 66 करोड़ से अधिक सनातनियों ने बिना किसी भेदभाव के स्नान किया। विहंगम दृष्टि से अनुमान लगाया जा सकता है कि हर हिंदू सनातन के परिवार से कम से कम एक व्यक्ति ने तो संगम में पवित्र डुबकी लगाई ही है। दुबकी लगाने वाले वहां से पवित्र गंगाजल लेकर गये हैं और उन्होंने पवित्र कुम्भ जल उन आस्थावान लोगों तक पहुंचाया है जो किसी कारण से संगम स्थल तक पहुंच नहीं सके।

यह महाकुंभ सनातन के वैभव और सनातनियों आस्था के लिए स्मरण किया किया जायेगा।यह महाकुंभ 66 करोड़ से अधिक स्नानार्थियों के आगमन के साथ साथ अन्य अनेक कीर्तिमानों के लिये स्मरण किया जाएगा। यह महाकुंभ उन समर्पित सनातनियों के लिए स्मरण किया जाएगा जिन्होंने दिन -रात बिना थके बिना रुके संगम की रेती पर आने वाले अनजान श्रद्धालुओं की निःस्वार्थ भाव से की। महाकुंभ-2025 के संपन्न होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी भावुक कर देने वाली पोस्ट में लिखा कि इस महाकुंभ में युग परिवर्तन की आहट दिख रही है। महाकुंभ- 2025 में सनातन धर्म को मतांतरण से बचाने के लिए विचार- विमर्श हुआ, काशी- मथुरा के लिए आंदोलन का संकल्प लिया गया, हिंदू बेटियों को लव जिहादियों के चंगुल से बचाने का संकल्प लिया गया तथा साथ ही भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करवाने के संकल्प के साथ गौ माता को राष्ट्रमाता का दर्जा दिलवाने जैसे संकल्प पारित किये गये। महाकुंभ -2025 में जलवायु परिवर्तन और उससे उपजे संकट पर भी व्यापक चर्चा की गई। सभी प्रमुख साधु संतों अखाड़ों  व उनके महामंडलेश्वरों ने  एक ही संकल्प गुंजायमान किया  कि भारत को वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाकर विश्वगुरु बनाना है।महाकुंभ ने “एक भारत श्रेष्ठ भारत“ की संकल्पना को साकार करने का संदेश दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में  सनातन का गौरव पूरे विश्व में छा गया।

महाकुंभ ने सनातन की शक्ति का जो परिचय दिया उससे सनातन विरोधी वह ताकतें जो सनातन के उन्मूलन का सपना देखती हैं वह बुरी तरह से हिल गई हैं । महाकुंभ 2025 को विफल करने के लिए इन  सनातन विरोधी शक्तियों  की ओर से कई प्रकार के षड्यंत्र किये गए, अफवाहें फैलाई गयीं  कि लोग वहां न जायें किंतु कोई भी  षड्यंत्र सफल नहीं हुआ। महाकुंभ ने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँध दिया। महाकुंभ -2025 में भारत का विश्वरूप दर्शन दिखा। महाकुंभ में आम सनातनी व सनातन को जानने का इच्छुक हर जिज्ञासु  प्रचार से नहीं विचार से प्रयागराज पहुंचा।

महाकुंभ -2025 स्वच्छता  व श्रद्धा का संगम बना। महाकुंभ में स्वच्छता के लिए 1.5 लाख से अधिक शौचालय बनाये गये।15 हजार सफाई कर्मचारी तैनात रहे। 1,500 गंगा सेवादूतों को जागरूकता के लिए कुंभ में नियुक्त किया गया। महाकुंभ में 7 लाख से अधिक श्रद्धालुओं को त्वरित उपचार का लाभ मिला।चिकित्सा सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने के लिए कनाडा, जर्मनी, रूस के विशेषज्ञ चिकित्सकों के साथ एम्स दिल्ली और आइएमएस बीएचयू के चिकित्सक युद्धस्तर पर जुटे रहे।इस बार डिजिटल खोया -पाया विभाग ने 20, 000 से अधिक बिछड़े लोगों को मिलाया।

महाकुंभ में नेत्र महाकुंभ भी लगाया गया जिसमें 2 लाख से अधिक श्रद्धालुओं के नेत्रों की जांच की गई और 1.5 लाख से अधिक लोगों को चश्मे का वितरण किया गया। जिन मरीजों  को मोतियाबिंद के आपरेशन की महती आवश्यकता थी उन सभी का प्रयागराज और चित्रकूट में निःशुल्क ऑपरेशन करवाकर उन्हें घर भेजा गया। भारत में समृद्ध खेल संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए  स्वदेशी खेलों के खेल महाकुंभ का आयोजन भी चर्चा का विषय रहा।

महाकुंभ 2025 के लिए कई पल अविस्मरणीय हैं । महाकुंभ 2025 में यूपी की योगी कैबिनेट के सभी 54 मंत्रियों ने एक साथ मां गंगा की पवित्र डुबकी लगकार कीर्तिमान रचा और कई ऐतिहासिक निर्णय लिये गये। देश के आध्यात्मिक नेतृत्व के साथ साथ प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, उद्योगपति, खेल जगत के पुरोधा, अन्य देशों में बैठे सनातनी  कोई भी महाकुम्भ के आकर्षण को नकार नहीं सका ।

महाकुंभ में श्रद्धालुओं को सकुशल यात्रा कराने के लिए रेलवे व परिवहन सेवाओं की व्यवस्था के लिए भी स्मरण किया जाएगा। महाकुंभ के लिए 16000 से अधिक ट्रेनें चलीं। जिसमें 4.38 करोड़ यात्रियों का आवागमन हुआ। 3.25 करोड़ यात्रियों का आवागमन रोडवेज बसों से हुआ। 5.59 लाख यात्रियों का आवागमन विमान से हुआ। कुल मिलाकर 7.68 करोड़ यात्रियों का ट्रेन, विमान व बसों से आवागमन हुआ इसके अलावा अन्य यात्री पैदल,निजी व किराये के विभिन्न साधनों से प्रयागराज पहुंचे।

महाकुंभ से लाखों लोगों को रोजगार मिला। महाकुंभ 2025 से बेरोजगार युवाओं को प्रेरित करने वाली बहुत सी कहानियां मीडिया के माध्यम से सामनें आयी जिसमें किसी ने दातुन बेचकर 45 दिन में लाखों रुपये कमा लिये तो किसी ने चाय की दुकान खोल ली। मां गंगा के घाटों पर नाविकों ने भी खूब धन कमाया और लखपति बन गये। महाकुंभ -2025 से यूपी की आर्थिकी बहुत मजबूत हुई है जिसका असर आगामी समय में दिखाई पड़ेगा।

महाकुंभ ने उत्तर प्रदेश में आध्यात्मिक पर्यटन के पांच मार्ग प्रशस्त किये जिसमें एक है प्रयागराज से मां विन्ध्यवासिनी धाम होते हुए काशी का सर्किट, जिस तरह प्रयागराज में अभूतभूर्व भीड़ रही उसी प्रकार मां विन्ध्यवासिनी धाम में भी प्रतिदिन पांच  से सात लाख की भीड़ रही। काशी में भी एक दिन 10 से 15 लाख तक श्रद्धालु रहे और कई बार भीड़ के दबाव के कारण मां गंगा आरती को रोकना पड़ा। प्रयागराज महाकुंभ के कारण एक और सर्किट बना अयोध्याधम और गोरखपुर का। अयोध्याधाम में भी सात से 12 लाख श्रद्धालु प्रतिदिन पहुंचे।तीसरा सर्किट बना प्रयागराज से श्रृंगवेरपुर होते हुए लखनऊ और नैमिषारण्य का । प्रागराज से राजापुर और चित्रकूट का भी एक सर्किट बना तो पांचवा सर्किट बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे होते हुए मथुरा ,वृंदावन और शुकतीर्थ का रहा जहां बड़ी संख्या में पर्यटक व श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचे।

महाकुंभ -2025 की सफलता से प्रसन्न  मुख्यमंत्री का यह कहना कि सनातन की ध्वजा अब झुकेगी नहीं एकदम सटीक टिप्पणी है। महाकुंभ- 2025 के सफल आयोजन से पूरे विश्व में सनातन का मान बढ़ा है, भारत की प्रबंधकला , क्षमता और कुशलता के प्रति विश्वास बढ़ा है। पूरे विश्व ने माना कि जो कोई नहीं कर पाया वह भारत के प्रयागराज ने कर दिखाया। इस अभूतपूर्व आयोजन की गूंज भारत के जन सामान्य को बरसों बरस सुनाई देती रहेगी । ये महाकुंभ भारत के सनातन की बहुत बड़ी उपलब्धि जिससे प्रधानमंत्री मोदी और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सम्मान भी बहुत बढ़ गया है।

वहीं समापन समारोह के अवसर पर मुख्यमंत्री येगी आदित्यनाथ ने मेले की सफलता का आधार बने सफाई कर्मियों, स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस कर्मियों के साथ समय बिताया, सम्मान किया उनके लिए घोषणाएं कीं और उनके साथ भोजन किया तथा स्वयं स्वच्छता अभियान में भाग लेकर उनका मनोबल बढ़ाया।

प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

फोन नं.- 9198571540

एक भूली बिसरी गायिका नगरत्नम्मा

बैंगलोर नागराथनम्मा 3 नवंबर 1878 – 19 मई 1952

बैंगलोर नगरत्नम्मा – एक भारतीय कर्नाटक गायक, सांस्कृतिक कार्यकर्ता, विद्वान थr। देवदासियों की वंशज, वह कला की संरक्षक और एक इतिहासकार भी थी। नगरत्नम्मा ने तिरुवैयरू में कर्नाटक के गायक त्यागराजा की समाधि पर एक मंदिर का निर्माण किया और उनकी स्मृति में त्यागराजा आराधना उत्सव की स्थापना में मदद की। एक पुरुष-प्रधान उत्सव के भीतर, वह नारीवादी इतनी मजबूत थी कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि महिला कलाकारों को इसमें भाग लेने के लिए समानता दी जाए।
नगरथ्नम्मा का जन्म 1878 में पुत्तू लक्ष्मी और वकील सुब्बा राव के पास नंजांगुड में हुआ था। मैसूर के दरबार में पुत्तू लक्ष्मी के पूर्वज गायक व संगीतकार के रूप में सेवा करते थे। सुब्बा राव द्वारा त्यागकर मैसूर महाराज के दरबार में संस्कृत विद्वान शास्त्री के सानिध्य में शरण प्राप्त हुई। उन्होंने संस्कृत और संगीत में नागरथ्नम्मा को शिक्षित किया, शास्त्री ने भी नागरथ्नम्मा को छोड़ दिया, जिन्होंने जल्द ही मैसूर छोड़ दिया और अपने चाचा, वेंकितस्वामी अप्पा, पेशे से वायलिन वादक के तहत संरक्षण पाया। नागथनामा ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और कन्नड़, अंग्रेजी और तेलुगु सीखी, संगीत और नृत्य में भी कुशल हो गई। उन्हें थ्यगराज द्वारा निर्धारित प्रक्रिया पर ‘शिष्य-परमपरा’ (छात्र शिक्षक सीखने की प्रक्रिया की परंपरा) में मुनूसवामप्पा द्वारा कर्नाटक संगीत में प्रशिक्षित किया गया था। वह 15 साल की उम्र में वायलिनवादक और नर्तक के रूप में एक पढ़े लिखे दर्शकों के सामने अपनी पहली स्टेज में उपस्थिति बनाने में सक्षम थी।
नागरत्नम्मा अपने जीवन की शुरुआत में एक गायक बन गई और अपने समय की सर्वश्रेष्ठ कर्नाटिक गायकों में से एक के रूप में उभरी। उन्होंने कन्नड़, संस्कृत और तेलुगु में गाया। उसके विशेष संगीत फ़ोर्ट में हरिकथा शामिल है। नृत्य में उनकी प्रतिभा ने मैसूर के शासक जयचमराजेन्द्र वोडेयार का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने अपनी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें मैसूर में अस्थना विदुषी (कोर्ट डांसर) बनाया। शासक की मृत्यु के बाद, वह बैंगलोर चली गई। वे बैंगलोर में न केवल संगीत में बल्कि नृत्य में भी लोकप्रिय हुईं। उन्हें कई अन्य शाही घरों जैसे त्रावणकोर, बोबिली और विजयनगरम द्वारा भी संरक्षण दिया गया था। मैसूर के उच्च न्यायालय में एक न्यायाधीश नरहरी राव, नगरथ्नम्मा के संरक्षक थे और उन्होंने उन्हें एक संगीतकार और नर्तक के रूप में अपना करियर आगे बढ़ाने के लिए मद्रास (अब चेन्नई) जाने का सुझाव दिया था। वह वहां चली गई क्योंकि इसे “हार्ट ऑफ़ कर्नाटिक म्यूजिक” माना जाता था और उसकी संगीत प्रतिभा और विकसित हुई थी। यहाँ, उसने विशेष रूप से अपनी पहचान बैंगलोर नगरथ्नम्मा के रूप में की थी।
नागनाथम्मा के अनुसार, उन्हें एक सपने में निर्देशित किया गया था कि वे थ्यागराज के सम्मान में एक स्मारक का निर्माण करें और कर्नाटिक संगीत को बनाए रखने के लिए एक मंच बनाएं। इसके बाद, वह एक तपस्वी जीवन शैली की ओर मुड़ गई और अपनी सारी कमाई इस उद्देश्य के लिए दान कर दी।
मद्रास में रहते हुए, नगरथ्न्नम्मा को उनके गुरु, बिदाराम कृष्णप्पा ने संत थ्याराजा की समाधि या समाधि की जीर्ण स्थिति के बारे में बताया था। बिदाराम कृष्णप्पा के शिष्य, कृष्ण भागवतार और सुंदर भागवतार ने 1903 में संगमरमर से बनी एक छोटी सी इमारत बनाई थी और उसके बाद त्यागराज के सम्मान में वार्षिक संगीत समारोह आयोजित किए थे। कुछ ही सालों में संत के सम्मान में रुचि रखने वालों में झगड़ा हो गया था और संत समाधी में दो प्रतिद्वंदी समूह दो प्रतिद्वंदी संगीत कार्यक्रम आयोजित कर रहे थे। छोटे से मकान की देखभाल को नुकसान पहुंचा था और यह जल्दी से जीर्ण हो गया था। इसने नगरत्नम्मा को समाधि को बहाल करने और त्यागराजा के सम्मान में इसे एक स्मारक में बदलने के लिए कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। उसने उस भूमि का अधिग्रहित किया जहां त्यागराजा की समाधि स्थित थी और अपने स्वयं के वित्तीय संसाधनों से उनके सम्मान में एक मंदिर का निर्माण किया। उसने श्री त्यागराज की एक मूर्ति स्थापित करने और पूजा करने के लिए व्यवस्था की और रोजाना प्रार्थना की। इस प्रकार निर्मित त्यागराजा मंदिर 1921 में स्थापित किया गया था।
यह संगीत समारोह दक्षिण भारत में सबसे लोकप्रिय संगीत कार्यक्रमों में से एक बन गया है। वार्षिक उत्सव में महिला संगीतकारों की भागीदारी की यह परंपरा पुरुष संगीतकारों के साथ-साथ “थ्यगराज आराधना” के रूप में लोकप्रिय है, पिछले कुछ वर्षों से जारी है

भारतीय अनुवाद परिषद द्वारा दिनेश कुमार माली सम्मानित

भारतीय अनुवाद परिषद अनुवाद साहित्य को समर्पित एक विशिष्ट संस्था है जो विगत साठ वर्षों से अनुवाद-क्षेत्र में समर्पित विद्वानों / अनुवादकों को i) नातालि, ii) ‘डॉ. गार्गी गुप्त ‘द्विवागीश’ तथा iii) डॉ. गार्गा गुप्त ‘अनुवाद-श्री’ पुरस्कारों से सम्मानित करती आ रही है। अनुवाद-जगत की प्रख्यात विदुषी एवं भारतीय अनुवाद परिषद की संस्थापिका डॉ. गार्गी गुप्त द्वारा इन पुरस्कारों को छह दशक पूर्व स्थापित किया गया था तथा इनकी इसी परंपरा का निर्वाह उनके सुपुत्र श्री चारू शेखर गुप्ता जी पूर्ण निष्ठा से निभा रहे हैं। पाँच वर्षों के लिए परिषद द्वारा वर्ष 2018-2019, 2019-2020, 2022-2023, 2023-2024 तथा 2024-2025 के राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार एवं सम्मान समारोह का आयोजन शुक्रवार दिनांक- 28 फरवरी 2025 को सायं 3.00 बजे से सभागार, भारतीय विद्या भवन, कस्तुरबा गांधी मार्ग, नई दिल्ली में आयोजित किया गया।
परिषद द्वारा अनुवाद क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य करने वाले भारतीय तथा विदेशी भाषाओं के भारतीय एवं विदेशी अनुवादकों को उनके समग्र अनुवाद कार्यों के लिए ‘डॉ. गार्गी गुप्त द्विवागीश पुरस्कार’ प्रतिवर्ष एक महिला और एक पुरुष अनुवादक को दिया जाता है। इस समारोह में  वर्ष 2019-2020 के लिए ओडिशा के श्री दिनेश कुमार माली को ओड़िया-हिन्दी-ओड़िया के लिए प्रदान किया गया।
पुरस्कार एवं सम्मान-समारोह का संचालन भारतीय अनुवाद परिषद के महासचिव प्रो. पूरनचंद टंडन ने किया। उन्होंने समारेह की भूमिका रखते हुए सर्वप्रथम परिषद का परिचय दिया तथा समारोह के सम्मानित अतिथियों से सभी को परिचित कराया। तत्पश्चात् परिषद की उपाध्यक्ष श्रीमती संतोष खन्ना ने सभी का औपचारिक स्वागत एवं अभिनंदन किया। मुख्य अतिथि श्रीप्रकाश सिंह निदेशक, साउथ कैम्पस दिल्ली विश्वविद्यालय, विशिष्ट अतिथि नासिरा शर्मा, प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं अनुवादविद् तथा समारोह की अध्यक्ष प्रो नंदिनी साहू, कुलपति, हिंदी विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल ने सभी सम्मानित विद्वतजनों को क्रमशः ‘नातालि पुरस्कार’, ‘डॉ. गार्गी गुप्ता द्विवागीश पुरस्कार’ तथा ‘डॉ. गार्गी गुप्त अनुवाद श्री पुरस्कार’, प्रदान किए। साथ ही उन्होंने परिषद द्वारा प्रकाशित ‘स्मारिका’ तथा अनुवाद पत्रिका के लोकार्पण के पश्चात् उद्बोधन स्वरूप आशीर्वचन प्रस्तुत किया। सम्मानित अतिथियों ने सभी अनुवादकों को शुभकामना एवं बधाई देते हुए आज के संदर्भ में अनुवाद की महत्ता को उद्घाटित किया। विशेषकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति तथा भारतीय ज्ञान परंपरा के विशेष परिप्रेक्ष्य में अनुवाद के बदलते आयाम पर विचार रखा तथा इस संदर्भ में अनुवाद की चुनौतियों पर प्रकाश डाला।
इन पुरस्कार-सम्मान के निर्णायक मंडल के सदस्यों में जाने-माने भाषा एवं अनुवादविद् तथा प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. नासिरा शर्मा, पूर्व समकुलपति इग्नू एवं वर्तमान में समकुलपति पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के प्रो. किरण हज़ारिका तथा सचिव साहित्य आकादमी, भारत सरकार श्री श्रीनिवास राव, भारतीय अनुवाद परिषद के महासचिव प्रो. पूरनचंद टंडन उपाध्यक्ष श्री कृष्ण गोपाल अग्रवाल तथा भारतीय अनुवाद परिषद की कार्यकारिणी के सदस्य डॉ. हरीश कुमार सेठी शामिल थे।
आयोजन को समापन की ओर ले जाते हुए परिषद के उपाध्यक्ष श्री कृष्णगोपाल अग्रवाल ने सभी का औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन दिया। समारोह में अनेक गणमान्य व्यक्ति, संस्था के आजीवन सदस्य, पत्रकार, विद्वान-अनुवादक, भाषाविद्, प्रशासक तथा राजनेता उपस्थित थे।

बाल साहित्य से बच्चों में संस्कारों का बीज पनपता है

कोटा की बाल साहित्यकार डॉ. कृष्णा कुमारी बाल साहित्य पर अच्छा दखल रखती हैं और उन्होंने बाल साहित्य पर ही डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। जब मुझे यह ज्ञात हुआ तो मैंने उनसे समय ले कर इस विषय पर लंबी चर्चा की। साक्षात्कार में बाल साहित्य की उपयोगिता, प्रकार, शैली आदि पर जो तथ्य उभर कर आए उनके प्रमुख अंश प्रस्तुत कर रहा हूं।
आप साहित्य और बाल साहित्य को किस प्रकार देखती हैं के प्रश्न के जवाब में वे कहती हैं, समाज के अभिन्न अंग साहित्य जगत में बाल साहित्य का महत्व सदियों से रहा है। आदमी को इन्सान बनाने की प्रक्रिया में साहित्य की  महत्त्पूर्ण भूमिका है । इस के द्वारा मानव के विकारों का परिष्कार होता है और वह उच्चतर जीवन जीने  की ओर अग्रसर होने लगता है । इस प्रकार साहित्य मनुष्य को  सुसंसकृत बनाते  हुए सभ्यता से भी जोड़े रखता है ।
वे कहती हैं,  बाल साहित्य इस से थोडा भिन्न होता है । सम्पूर्ण वांडमय का आधार भी बाल साहित्य ही माना गया है । बाल साहित्य  अर्थात बच्चों का साहित्य जो बालक के लिए रचा जाता है , बालक को आनंद चाहिए , मनोरंजन चाहिए , इस प्रकार बाल साहित्य का  अर्थ हुआ ‘गद्य –पद्य में लिखी गई ऐसी  रचनाएँ जिन्हें पढ़कर बालक आनादित  हो उठें  , उल्लसित हो जाये , उन की कल्पनाओं को पंख लग जाएँ । इसी के साथ बालक के सम्यक उन्नयन , सर्वांगीण विकास में सहायक हो, उसे सुसभ्य, सुसंस्कृत, चरित्रवान ,सुनागरिक बनाने में अहम् भूमिका निभाये , उस में विश्वबंधुत्व , मानवीय संवेदना का भाव जाग्रत करे तथा उस के भावी जीवन के लिए मार्ग प्रशस्त करें। डॉ. नामवर सिंह का उल्लेख कर बताती हैं कि उन्होंने कहा है उनके लिए बाल साहित्य तो वह है जो उन्हें हिलाए , दुलाये और दुलराये भी  यानि वे ख़ुशी से झूम उठें ।
बाल साहित्य का महत्व आप कैसे आंकती हैं के सवाल पर डॉ. कृष्णा अनेक उद्धरणों के साथ कहती हैं बाल साहित्य, साहित्य का ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा है और जो  बालक के सम्यक  उन्नयन  की आधारशिला  तैयार करता है | उसे प्रकृति से जोड़ता है ,बातों ही बातों में प्रेम , सहयोग , करुणा , सत्य , सद्भावना , संवेदना , साहस आदि मानवीय गुणों से  बालक का साक्षात्कार करवाता है । मूलत, बाल साहित्य बच्चों को जीने की कला सिखाता है ,चीजों को देखने –परखने की नई  दृष्टि देता है ।
  वे बताती  हैं, डॉ. नागेश पांडेय ने बाल साहित्य की आवश्यकता को व्यक्त करते हुए लिखा है कि बच्चों को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने की दिशा में बाल साहित्य की अवर्णनीय भूमिका  है । आज जब विश्व के समग्र राष्ट्रों में एक प्रतियोगिता  का वातावरण है और विकास की आपाधापी में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है , ऐसे में बालक को एक सफल नागरिक के रूप में तैयार करने हेतु बाल साहित्य की आवाश्यकता विशेष रूप से बढ़ गई है । इसी परिपेक्ष्य में प्रख्यात बाल साहित्यकार हरिकृष्ण  देवसरे  का मानना है  कि  बाल साहित्य की तुलना माँ के दूध से की जा सकती है । जैसे बच्चा अपना पहला आहार माँ के दूध के रूप में लेता है वैसे ही उस का पहला बौद्धिक आहार माँ के मुहं से सुनी लोरी के रूप में बाल साहित्य होता है । जैसे बच्चे के स्वस्थ शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध आवश्यक होता है वैसे ही उस के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए बाल साहित्य महत्वपूर्ण होता है।
उनका कहना है कि मूर्धन्य आलोचक डॉ. नगेन्द्र  ने माना  है कि पहले समाज में बालक का अस्तित्व खिलौने के रूप में था । उनको प्यार-  दुलार तो   मिलाता था लेकिन उसे समाज का एक अभिन्न अंग नहीं समझा जाता था । लेकिन आज के बालक की   आवश्यकताओं में एक आवश्यकता बाल साहित्य की भी है । अर्थात बाल साहित्य  में माँ के दुलार को महती  जितना आवश्यकता  है क्योंकि इस का पाठक एक बच्चा होता है और बच्चे को सर्व प्रथम माँ का  प्यार , दुलार ही चाहिए|
श्री नाथ सहाय ने बाल साहित्य की आवश्यकता  को बताते हुए लिखा है कि  बालक देश की आधारशिला है । इस की समुचित शिक्षा , संवेगिक व बौद्धिक विकास पर ही देश का विकास संभव है । प्रारम्भ से ही इन्हें राष्ट्रीय , जनतान्त्रिक मूल्य  आधारित  शिक्षा देने की आवश्यकता पड़ती है , जिससे एक जागरुक नागरिक  के रूप में इन का उत्तरोत्तर विकास हो । इस दिशा में बाल – साहित्य की महत्तपूर्ण भूमिका है , जिस के द्वारा बालकों में स्वस्थ  संस्कार प्रस्तिस्थापित हो सकें । अनुशासन , मर्यादा ,व्यवस्था की नींव बचपन में ही उचित बाल साहित्य द्वारा निर्मित की जा सकती है ।
 वे कहती है इन सभी संदर्भों के प्रकाश में कह सकते हैं कि बाल साहित्य बच्चों के लिए  अत्यावश्यक है । यह एक पथ प्रदर्शक की भाति काम करता है , बालकों के लिए अत्यंन्त उपयोगी है । डॉ. देवसरे के अनुसार बाल साहित्य  बच्चों के लिए माँ के दूध जितना उपयोगी है । डॉ. नागेश पाण्डेय ने इसे बच्चों को सुनागरिक बनाने के लिए जरुरी माना है, वहीँ श्री नाथ सहाय ने  बच्चों के समुचित विकास और नैतिक मूल्यों से जुड़ने के लिए बाल साहित्य की अहम् भूमिका को स्वीकार किया  हैं । डॉ नगेन्द्र इसे बच्चो के लिए प्रमुख आवश्यकता मानते हैं |
उनका मानना है कि  बालक किसी भी समाज के लिए आत्म स्वरुप होता है । इस नन्हें पौधे को जैसे खाद – पानी से सिंचित किया जायेगा , वो वैसा ही पल्लवित , पुष्पित और फलित होगा । अतः बाल साहित्य बच्चों का मनोरंजन करने के साथ साथ उन्हें आनंद प्रदान करता है , उन का ज्ञानवर्द्धन करता है , उन की कल्पनाओं , जिज्ञासाओं का शमन करता है ,  स्मरण शक्ति में एवं  तर्क क्षमता में वृद्धि करता है । बौद्धिकता का विकास करके प्रकृति और पर्यावरण प्रेम भी जाग्रत करता है। बाल रचनाओं के द्वारा बालक अपने परिवेश को, चीजों को, सामाजिक गतिविधियों को , रिश्तों को  बारीकी से जानने लगता है । बाल साहित्य उनकी  प्रज्ञा को तीव्र करता है । वहीँ नई वैज्ञानिक तकनीकों से जोड़े  रखता है
डॉ. कृष्णा  कहती हैं कि सब से महत्त्पूर्ण  बात कि बालकों का साहित्य एकल परिवारों में  दादा –दादी , नाना –नानी की कमी को पूरी करते  हुए, बच्चों के एकाकीपन  को दूर करता है । बाल बालकों को जीवन जीने की कला सिखाता है । बाल साहित्य बच्चों के साथ –साथ प्रोढ़ों , नवसाक्षरों और  इन से जुड़े  अन्य  व्यक्तियों के लिए भी आवश्यक  माना गया है,  जैसे दादा – दादी , नाना –नानी , माता – पिता , शिक्षक आदि । तभी तो वे अपने बालकों को कवितायेँ , कहानियां सुना सकेंगे और उन से जुड़ कर उन का प्यार पा सकेंगे । डॉ नागेश पाण्डेय ने इस परिपेक्ष्य में लिखा  भी है कि बाल साहित्य केवल बच्चों के लिए ही नहीं , प्रोढ़ों , नवसाक्षरों के लिए भी सामन रूप से अपनी महत्ता सिद्ध करता है । वास्तविकता तो ये है कि बच्चे  से जुड़े हर व्यक्ति के लिए बाल साहित्य का अध्ययन अपेक्षित है। सनातन  काल से बाल साहित्य की आवश्यकता रही है और हमेशा रहेगी ।
बाल साहित्य की उपयोगिता पर उनका कहना है बाल साहित्य बालकों के लिए जितना आवश्यक है उतना ही उपयोगी भी । इस संदर्भ में डॉ. राष्ट्र बंधु का मानना है कि हमें चाहिये कि हम बाल साहित्य की उपयोगिया से समाज को परिचित कराएँ| आंगनबाड़ी में बच्चों को पहेलियाँ, लोरियां और कहानियों का प्रवेश क्रमबद्धता से नहीं है । शिक्षा में जे . टी. सी .,बी . टी. , सी . ,बी . एड . , एम् . एड .और पुस्तकालयों के लिए बाल साहित्य का ज्ञान ,शिक्षा को सामाजिकता से जोड़ सकता है| अत बाल साहित्य में जो मनोविज्ञान है उस से मनोचिकित्सा की सफलता सरलता से हो सकती है । स्वास्थ्य और चिकित्सा में भी बाल साहित्य का उपयोग चमत्कारी प्रभाव दिखा सकता है |
उक्त संदर्भों में बाल साहित्य की उपयोगिता पर कह सकते हैं कि बाल साहित्य बच्चों को खुशियों से भर देता है । बालकों की कल्पना शक्ति का विस्तार होता है । बाल साहित्य पढ़ने, देखने और सुनने से बच्चे कई प्रकार की  कई कलाओं से सहज रूप से जुड़ जाते है| साथ ही बाल साहित्य लिखना भी सीख जाते है । बाल साहित्य से बालकों की क्रियात्मक क्षमता और सृजनशीलता  में वृद्धि होती है ।बाल साहित्य से बच्चों के अतिरिक्त समय का बहुत अच्छा सदुपयोग होता है।
वे मानती हैं कि बाल साहित्य पढ़ने से बलकों में स्वावलंबन , आत्मनिर्भरता ,अनुशासन , दृढता  , साहस , मैत्री –भाव , सहयोग की भावना ,प्रेम आदि भाव स्वत ही जाग्रत हो जाते हैं । कहानियों , कविताओं , पहेलियों आदि के पठन – पाठन से बालको की स्मरण शक्ति बढती है । कहानी सुन कर मित्रों को या किसी और को सुनाने से उन की वाक कला , वाक चातुर्य में संवर्द्धन होता है । नाटकों के पठन और मंचन से अभिनय कला का विकास भी होता है । बाल- साहित्य को आत्मसात करने से बच्चे व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करते हैं । बाल पहेलियाँ सुनने और हल करने से बच्चों का मानसिक विकास होता है , संतुष्टि मिलती हैं , चिंतन –मनन से द्वार खुलते हैं ।
 बाल साहित्य की विशिष्टता  पर चर्चा करता हूं तो वे कहती हैं कि बाल साहित्य की प्रथम  विशिष्टता ये ही है कि वह बालकों के लिए होता है , क्योंकि बाल साहित्य सम्पूर्ण वांग्मय का अति महत्त्पूर्ण अंग है । बालक अपने आप में ही इस सृष्टि की विशिष्ट ईकाई है । बाल साहित्य बड़ों के साहित्य से  अनेक प्रकार से भिन्न है , जो इस की विशेषताओं  के फल स्वरुप ही है । इस संदर्भ में डॉ.नागेश पाण्डेय  “संजय “ का कथन है कि बाल साहित्य सामान्य साहित्य का अंग होता हुए भी उस से सर्वथा पृथक है  भाषा – शैली , शिल्प , उद्धेश्य , संवेदना , मनोवि ज्ञान और महत्त्व इत्यादि अनेकानेक दृष्टियों से दोनों में  मूलभूत  अंतर है । इसी संदर्भ में डॉ. श्रीप्रसाद के अनुसार बड़े और बच्चों की कविता में मूल अंतर संवेदना का है ।
वे कहती है कि स्पष्ट होता ,है, बाल साहित्य की भाव–पक्ष और कला–पक्ष के आधार पर  अपनी अलग विशेषताएं है क्योंकि बालक और बड़ों की दुनिया  हर दृष्टि से भिन्न  होती है । जहाँ बच्चा कल्पनाओं के आकाश में विचरण करते नहीं थकता वहीँ बड़ों को यथार्थ के कठोर धरातल पर चलना पड़ता है । बाल साहित्य रस से परिपूर्ण , सहज , बच्चों की तरह मासूम होता है और इस के लिए बाल रचनाकार को उन की भाव भूमि पर उतर कर सर्जना करनी पड़ती है । बाल साहित्य जितना सरल होता है उस का सृजन उतना ही कठिन । इसी के साथ बाल साहित्य की अन्य विशेषताओं में उस का आकार में  लघु होना भी है ,चाहे गीत हो , कहानी हो , नाटक हो या दूसरी विधा । ये इसलिए कि बालकों को  शीघ्र याद हो सके और हमेशा स्मृति में रहे । बाल साहित्य का  सकारात्मक होना इस की विशेष विशेषता है ।
बालक सदैव वर्तमान में जीता है , या फिर कल्पनाओं में । अत: बाल साहित्य वर्तमान के साथ भविष्य की संकल्पना को लेकर लिखा जाता है । बाल साहित्य, बच्चों के साथ–साथ  बाल साहित्य प्रौढ  , युवा , महिलाएं भी बड़ी रूचि से पढ़ते हैं और भरपूर आनंद लेता हैं अर्थात बाल रचनाएँ हर वर्ग को बहुत पसंद आती हैं । बाल रचनाओं  की भाषा – शैली अन्त्यानुप्रास  (तुकबन्दी) आदि बाल रचनाओं की प्रमुख विशिष्टताएँ हैं ।
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डॉ. कृष्णा कुमारी
तालमंडी, कोटा