Friday, May 17, 2024
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साइकिल चलाई तो अस्पताल पहुँच गई…!

मैं यह आलेख अपने बिस्तर से लिख रही हूं। मैं एक ऐसी दुर्घटना के बाद आराम कर रही हूं जिसमें मेरी हड्डिïयां तक टूट गईं। दुर्घटना उस वक्त हुई थी जब मेरी साइकिल को तेज गति से आ रही एक कार ने टक्कर मार दी। मेरे शरीर से खून बह रहा था और वह कार सवार वहां से फरार हो चुका था। ऐसी घटनाएं हमारे देश के हर शहर की तमाम सड़कों पर आए दिन होती रहती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी सड़क योजनाओं में पैदल और साइकिल पर चलने वालों का कतई ध्यान नहीं रखा जाता है। मानो उनका कोई अस्तित्व ही न हो। यहां तक कि उन्हें सड़क पार करने जैसे साधारण काम के दौरान भी जान गंवानी पड़ जाती है। मैं उनसे ज्यादा भाग्यशाली थी। दो कारें मेरे पास रुकीं। अजनबियों ने मेरी मदद की और मुझे अस्पताल ले गए। मेरा इलाज हुआ और मैं बहुत जल्दी पूरी तरह फिट होकर बाहर आ जाऊंगी।

यह एक ऐसी लड़ाई है जिस पर हम सबको मिलकर ध्यान देना होगा। हम पैदल चलने और साइकिल चलाने की जगहों को यूं नहीं छोड़ सकते। मेरी दुर्घटना के बाद से मेरे रिश्तेदारों और मित्रों ने लगातार मुझसे कहा है कि मैं इतनी लापरवाह कैसे हो सकती हूं कि दिल्ली की सड़कों पर साइकिल चलाने की सोचूं? उनका कहना सही है। हमने अपनी शहर की सड़कों को केवल कारों के चलने के लिहाज से ही तैयार किया है। सड़कों पर उन्हीं का राज है। साइकिल चलाने वालों के लिए अलग लेन की व्यवस्था नहीं हैं, पैदल चलने वालों के लिए अलग से पटरी नहीं है। अगर थोड़ी बहुत जगह कहीं है भी तो उस पर कारों की पार्किंग कर दी गई है। हमारी सड़कें केवल कार के लिए हैं। बाकी बातों का कोई महत्त्व ही नहीं है।

लेकिन साइकिल चलाना अथवा पैदल चलना केवल इसलिए कठिन नहीं है क्योंकि उसकी योजना सही ढंग से तैयार नहीं की गई है बल्कि ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हमारी मानसिकता ऐसी है कि हम केवल उन्हीं लोगों को रसूख और अधिकार वाला मानते हैं जो कारों पर चलते हैं। हम मानते हैं कि जो भी पैदल चल रहा है अथवा साइकिल से चल रहा है वह गरीब है। ऐसे में जाने अनजाने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है कि वह हाशिये पर चला जाए।

इस सोच में बदलाव लाना होगा। हमारे पास अपने चलने के तौर तरीकों में बदलाव के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं है और मैं यह बात बार-बार दोहराती रही हूं। इस सप्ताह दिल्ली में फैलने वाले जहरीले धूल और धुएं का मिश्रण नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया। गत माह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषकों को मानव के लिए कैंसरकारी करार दिया था। हमें इस हकीकत को समझना होगा कि यह प्रदूषण स्वीकार्य नहीं है। यह हमें मार रहा है।

अगर हम वाकई वायु प्रदूषण से निपटने को लेकर गंभीर हैं तो हमारे पास कारों की लगातार बढ़ती संख्या पर रोक लगाने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं है। हमें कारों नहीं बल्कि लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने का तरीका सीखना होगा।

सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट ने जब 1990 के दशक के मध्य में वायु प्रदूषण के विरुद्घ अभियान की शुरुआत की थी तो उसने हर पारंपरिक तौर तरीका अपनाने का प्रयास किया। उसने ईंधन की गुणवत्ता सुधारने की कोशिश की, वाहनों के उत्सर्जन मानक में सुधार करने की बात कही, उनकी निगरानी और मरम्मत व्यवस्था सही करने की ठानी। इसके अलावा उसने एक बड़े बदलाव के रूप में कंप्रेस्ड नैचुरल गैस (सीएनजी) का इस्तेमाल बढ़ाने की वकालत की ताकि डीजल वाली बसों और टू स्ट्रोक इंजन वाले ऑटो रिक्शा को प्रदूषक ईंधन से मुक्त किया जा सके। अगर इन तरीकों को अपनाया नहीं गया होता तो इसमें कोई शक नहीं कि हमारे यहां हवा का स्तर, उसकी गुणवत्ता और अधिक खराब होती।

लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। प्रदूषण के स्तर में लगातार इजाफा हो रहा है और यह वृद्घि अनिवार्य है। तमाम शोध इसके एक बड़े कारण और एक ही हल की ओर इशारा करते हैं। वह है अलग तरह की परिवहन व्यवस्था स्थापित करना। हमारे पास ऐसा करने का एक विकल्प भी मौजूद है। अभी भी हम पूरी तरह मोटरों पर आश्रित नहीं हैं। हमारे यहां अभी भी चार लेन वाली सड़क अथवा फ्लाईओवर बनाने की गुंजाइश बाकी है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारी अधिकांश आबादी अभी भी बस पर, पैदल अथवा साइकिल से सफर करती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनेक शहरों में 20 फीसदी तक की आबादी बाइक पर सफर करती है।

ऐसा इसलिए क्योंकि हम गरीब हैं। अब चुनौती यह है कि कैसे शहरों का नियोजन इस तरह किया जाए ताकि हम अमीर लोगों के लिए इसका इंतजाम कर सकें। पिछले कुछ सालों से हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं कि शहरों को कैसे सुरक्षित और एकीकृत परिवहन व्यवस्था उपलब्ध कराई जाए। कुछ इस तरह की कार होने के बावजूद हमें उसका इस्तेमाल नहीं करना पड़े।

लेकिन एकीकरण इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है। हम मेट्रो बना सकते हैं या नई बसें चला सकते हैं लेकिन अगर हम दूरदराज इलाकों तक संपर्क नहीं स्थापित करते हैं तो फिर यह किसी काम का नहीं होगा। यही वजह है कि हमें पारंपरिक तरीके से अलग हटकर सोचना होगा।

हमें इस मोर्चे पर विफलता हासिल हो रही है। आज परिवहन की बात हो रही है, पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों का भी। लेकिन ये बातें खोखली हैं। हर बार कोशिश यही होती है कि मौजूदा सड़कों का कुछ हिस्सा लेकर साइकिल का ट्रैक बना दिया जाए और जाहिर तौर पर इसका घनघोर विरोध किया जाता है।

दलील यह है कि ऐसा इसलिए नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे सड़क पर कारों की जगह कम हो जाएगी और सड़कों पर जाम की समस्या बढ़ेगी। जबकि हमें बिल्कुल यही करने की आवश्यकता है। कारों की लेन कम की जाएं और बसों, पैदल चलने वालों और साइकिलों की जगह बढ़ाई जाए। सड़कों पर लगातार बढ़ती कारों से निपटने का यही एक तरीका रह गया है।

हमारी भीड़भरी सड़कों पर साइकिल ट्रैक बनाना और पैदल चलने वालों के लिए साफ सुथरा रास्ता बनाने के लिए कठिन प्रयासों की आवश्यकता होगी। मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि इन बातों पर आसानी से अमल हो जाएगा। दुनिया के अन्य हिस्सों में बहुत आसानी से सड़कों का ऐसा पुनर्निर्माण किया जा चुका है जिससे साइकिल सवारों और पैदल चलने वालों के लिए पर्याप्त जगह निकल आई है।

जरा सोचिए इसके कितने लाभ हैं। हमें स्वच्छ हवा मिलेगी और यात्रा के दौरान हमारा व्यायाम भी होगा। हमें इनकी लड़ाई लडऩी होगी और हम लड़ेंगे। मुझे उम्मीद है कि आप सब सुरक्षित साइकिल सवारी या पैदल चलने का अधिकार हासिल करने की इस यात्रा में आप हमारे साथ रहेंगे।

पुनश्च : मुझे अस्पताल पहुंचाने वाले अजनबियों और एम्स ट्रॉमा सेंटर के उन बेहतरीन चिकित्सकों को धन्यवाद जिन्होंने मेरी जान बचाई।

साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड से

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अमरीका में भी मनाई गई छठ पूजा

भारी संख्या में भारतीय अमेरिकी छठ मनाने के लिए सप्ताहांत में तापमान के शून्य से भी नीचे होने के बावजूद अमेरिकी राजधानी के उपनगर में ऐतिहासिक पोटोमैक नदी के किनारों पर एकत्र हुए।
    
पटना के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने अमेरिका में छठ मनाने की शुरुआत की थी। यह पांचवां साल है, जब सूर्य की पूजा के लिए समर्पित यह वार्षिक हिंदू त्यौहार यहां मनाया गया।

पिछले कुछ वर्षों से इस वार्षिक समारोह का अकेले ही आयोजन करने वाले पटना के कृपा शंकर सिंह ने कहा कि हमें शानदार प्रतिक्रिया मिली है और छठ पूजा करते समय हमें देखने के लिए आने वाले लोगों की संख्या हर साल बढ़ रही है। उन्होंने बताया कि कुछ भारतीय अमेरिकी अटलांटा से भी यहां आए। समुदाय के सदस्यों ने इस समारोह को अगले वर्ष और बड़े स्तर पर आयोजित करने की मांग की है।
    
तापमान के शुक्रवार शाम और शनिवार तड़के शून्य से भी नीचे होने के बावजूद कई श्रद्धालुओं को नदी के बेहद ठंडे पानी में प्रवेश करते और पारंपरिक तरीके से छठ पूजा करते देखा गया। सिंह ने लोगों को ठंड से बचाने के लिए अलाव और इलेक्ट्रिक हीटरों का भी इंतजाम किया था।

सिंह की पत्नी अनीता सिंह को बिहार में रह रही उनकी सास ने छह वर्ष पहले छठ मनाने को कहा था। इसके बाद सिंह और उनके कुछ दोस्त लौदन काउंटी में पोटोमैक नदी के किनारे पिकनिक मनाने गए थे।
    
सिंह ने बताया कि उनके मन में तब यह विचार आया कि यह स्थान छठ पूजा करने के लिए उपयुक्त है। इसके बाद उन्होंने लौदन काउंटी पार्क एंड रिक्रिएशन डिपार्टमेंट से छठ पूजा करने की अनुमति मांगी और उन्हें स्वीकृति दे दी गई।

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कॉमेडी में कपिल अकेले पड़े, गुत्थी की बिदाई

कॉमेडी नाइटस विद कपिल में एक मजाकिया पंजाबी लड़की गुत्थी का किरदार निभाने वाले लोकप्रिय अभिनेता-हास्य कलाकार सुनील ग्रोवर इस सफल टेलीविज़न कार्यक्रम को संभवत: अलविदा करने वाले हैं।
     
कलर्स पर प्रसारित होने वाला यह कार्यक्रम निर्माता और प्रस्तोता कपिल शर्मा की हास्य से भरपूर लाजवाब हाजिर जवाबी और लोगों को गुदगुदाने वाले दादी, बुआ, पलक और गुत्थी के चरित्रों के कारण काफी लोकप्रिय हो गया है।
     
गुत्थी की हरकतें एवं गीत दर्शकों और मेजबानों को हंसने पर मजबूर कर देते हैं लेकिन ऐसा बताया जा रहा है कि गुत्थी का किरदार निभाने वाले ग्रोवर ने कार्यक्रम को छोड़ दिया है।
     
इस घटनाक्रम के करीबी सूत्रों ने कहा कि वह खुश हैं कि उनके निभाए गुत्थी के किरदार को लोगों ने स्वीकार किया और दर्शकों ने उसे इतना प्यार दिया। सुनील ग्रोवर अपनी पूर्व प्रतिबद्धताओं के कारण कार्यक्रम का हिस्सा नहीं होंगे। उनके कार्यक्रम में दोबारा लौटने की संभावनाएं कम ही हैं।
     
ऐसा बताया जा रहा है कि ग्रोवर ने कार्यक्रम के लिए उन्हें दी जाने वाली राशि को बढ़ाए जाने की मांग की थी जो निर्माताओं को स्वीकार नहीं थी इसलिए उन्होंने कार्यक्रम छोड़ने का निर्णय लिया है। हालांकि सूत्रों ने इस प्रकार की खबरों को नकार दिया।

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कानून की छात्रा के यौन शोषण के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जाँच समिति गठित की

सुप्रीम कोर्ट ने एक इंटर्न द्वारा शीर्ष अदालत के तत्कालीन पीठासीन न्यायाधीश के खिलाफ लगाये गये यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच के लिये मंगलवार को तीन न्यायाधीशों की समिति गठित कर दी है।

न्यायमूर्ति आरएम लोढा, न्यायूमर्ति एचएल दत्तू और न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की सदस्यता वाली यह समिति आज शाम से अपना काम शुरू करेगी। इस मामले में प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि संस्थान के मुखिया के नाते मैं इन आरोपों के बारे में चिंतित हूं और व्याकुल हूं कि यह बयान सही है या नहीं।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि यह समिति सारे मामले पर गौर करके तथ्यों का पता लगायेगी और रिपोर्ट तैयार करेगी। उन्होंने कहा कि हम कदम उठा रहे हैं और यौन उत्पीड़न के मामलों को हम हलके में नहीं ले सकते।

इससे पहले एक युवा महिला इंटर्न ने हाल ही में सेवानिवृत्त शीर्ष अदालत के एक न्यायाधीश पर आरोप लगाया कि उन्होंने पिछले साल दिसंबर में एक होटल के कमरे में उसके साथ उस समय र्दुव्‍यवहार किया, जब राजधानी गैंगरेप की घटना से जूझ रही थी।

इस युवा महिला वकील द्वारा एक अनाम न्यायाधीश के खिलाफ लगाये गये आरोप का मसला आज प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम के समक्ष भी उठाया गया। यह मसला उठाने वाले वकील ने न्यायालय से अनुरोध किया कि अदालत को मीडिया की खबरों का स्वत: ही संज्ञान लेकर जांच शुरू करानी चाहिए।

प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ के समक्ष वकील मनोहर लाल शर्मा द्वारा यह मामला उठाये जाने पर न्यायाधीशों ने कहा कि हम इस तथ्य से अवगत हैं। न्यायालय ने इस मामले में कोई भी आदेश देने से इंकार कर दिया।

शर्मा का कहना था कि यह बहुत गंभीर मसला है और भारतीय न्यायपालिका के मुखिया की हैसियत से प्रधान न्यायाधीश को इन आरोपों की जांच करानी चाहिए। इस महिला ने इसी साल कोलकाता की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरीडिकल साइंस से स्नातक किया है। उसने कथित यौन उत्पीड़न की घटना के बारे में अपने ब्लॉग में लिखा है।

जर्नल ऑफ इंडियन लॉ एंड सोसायटी के लिये 6 नवंबर को लिखे गये इस ब्लॉग में महिला वकील ने कहा है कि शीर्ष अदालत के न्यायाधीश के साथ उसके इंटर्न करने के दौरान यह घटना हुयी। ब्लॉग के अनुसार, पिछला दिसंबर देश में महिलाओं के हितों की रक्षा के आंदोलन के लिये महत्वपूर्ण था, क्योंकि देश की लगभग समूची आबादी महिलाओं के प्रति हिंसा के खिलाफ स्वत: ही खड़ी हो गयी थी।

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कितने पाक़-साफ हैं हमारे माननीय न्यायमूर्ति, एक युवती का खुलासा

एक युवा महिला वकील ने आरोप लगाया है कि हाल ही में रिटायर में हुए सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने पिछले साल दिसंबर में उनका यौन उत्पीड़न किया था। नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ जूर्डिशल साइंसेज, कोलकाता से ग्रैजुएशन करने वाली महिला वकील उस जज के साथ बतौर इंटर्न काम कर रही थीं।

वकील ने 'जर्नल ऑइ इंडियन लॉ ऐंड सोसाइटी' के लिए लिखे ब्लॉग में पहले यह सनसनीखेज आरोप लगाया और फिर 'लीगली इंडिया' को दिए इंटरव्यू में इस आरोप को दोहराया। वकील ने कहा कि जब पूरा देश निर्भया गैंग रेप कांड को लेकर उबल रहा था उस दौरान मेरे दादा की उम्र के जज ने एक होटेल के कमरे में मेरा उत्पीड़न किया।

उन्होंने कहा, 'पहले मैंने कायराना फैसला किया कि अपने उत्पीड़क के खिलाफ कानूनी लड़ाई नहीं लड़ूंगी लेकिन बाद में मुझे लगा कि यह सुनिश्चित करना मेरी जिम्मेदारी है कि दूसरी लड़कियों को इस तरह की परिस्थिति का सामना न करना पड़े।' वकील ने कहा कि अब तक वह जज की हैसियत की वजह से चुप रहीं। इसके अलावा वह उनके कृत्य से अवाक रह गई थीं और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे गुस्से को आवाज दी जाए।

'लीगली इंडिया' के साथ इंटरव्यू में महिला वकील ने कहा, 'मैंने उसी जज के द्वारा तीन और यौन उत्पीड़न के मामलों के बारे में सुना है। इसके अलावा मैं चार और ऐसी लड़कियों को जानती हूं जिनका दूसरे जजों ने उत्पीड़न किया। लेकिन ये मामले उतने संगीन नहीं थे। इनमें से ज्यादातर मामले जजों के चैंबर में हुए और उस समय कोई न कोई वहां मौजूद था, इसलिए ये उस स्तर तक नहीं गए। एक लड़की को मैं जानती हूं जिसका लगातार यौन उत्पीड़न हुआ और बाद में इसकी वजह से उसे काम में भी काफी समस्या हुई।'

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भारत में पुलिस और नागरिक सम्बन्ध-कल और आज

पुलिस सुधार के लिए भारत में समय समय पर स्वर उठते रहे हैं और जनता के उबाल पर ठन्डे छींटे मारने के लिए विभिन्न कमेटियों/आयोगों/बोर्डों का गठन किया जाता रहा है किन्तु पुलिस के कर्कश स्वर में अभी तक कोई कमी नहीं आई है| प्राय: आरोप लगते रहते हैं कि पुलिस अपराधियों के साथ अपवित्र गठबंधन रखती है| आम जनता पुलिस से दूर ही रहना चाहती है चाहे उसे कोई वहनीय नुक्सान ही क्यों न हो जाए क्योंकि पुलिस के पास जाने पर हानि निश्चित है लाभ हो या न हो|

मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने भी कहा है कि जिन लोगों के आपसी विवाद हैं उनमें से मात्र 10 प्रतिशत ही न्यायालयों तक आते हैं| यह कथन भारत की न्यायिक प्रणाली पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाता है जिस पर न्यायिक जगत को मंथन और आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है| देश में न्यायपालिका अपने आपको सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च होने का दम  भरती  है अत: जो कुछ पुलिस, प्रशासन और  राजनीति में अवांछनीय हो रहा है उसमें न्यायपालिका  का सक्रिय नहीं तो कम से निष्क्रिय योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता|  

 

स्वतंत्रता के बाद, अंग्रेजी शासन की ही भांति तुष्टिकरण के एक कदम के रूप में,  दिनांक 10.11.1971 को पुलिस सुधार के लिए गोरे कमिटी का आज से 42 पूर्व गठन किया गया था जिसने अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की थी किन्तु संभवतया इसकी सिफारिशें आजतक धूल चाट रही हैं| इस रिपोर्ट में कहा गया है कि  पुलिस को अब उनके विभिन्न कार्यों के निर्वहन में सेवा उन्मुख होना होगा | यह रिपोर्ट पुलिस और लोगों के बीच एक सार्थक संबंध की जरूरत और महत्व को रेखांकित करती है| पुलिस की अपने सभी कामों  में सफलता  समुदाय से उपलब्ध स्वैच्छिक सहयोग पर निर्भर है| पुलिस और जनता के बीच संवाद की बिल्कुल कमी इसकी नैतिकता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है जो बेख़बर आलोचना का कारण बनती है|  किसी भी पुलिस बल की शक्ति  का आधार , एक लोकतांत्रिक देश में, `जनता का विश्वास'  ही है |

एक विकासशील समाज में पुलिस अधिकारी का जनता की अपेक्षाओं का ध्यान रखने में विफल रहना बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए| संविधान और एक समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष समाज की अवधारणा में पुलिस की भूमिका, पुलिस और समुदाय के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों की पृष्ठभूमि पर निर्भर है| दरअसल पुलिस के सभी विकास कार्यक्रमों की सफलता, शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए लोगों के समर्थन की जरूरत है| पुलिस आचरण के आदर्श सिद्धांतों, जिसे 1960 में पुलिस के महानिरीक्षकों के सम्मेलन द्वारा अपनाया गया था, में जनता के सहयोग और लोकप्रिय समर्थन के लिए आवश्यकता पर बल दिया गया था| इसमें विकसित तीन मुख्य सिद्धांतों में, पुलिस भी जिन कर्तव्यों का पालन करती है हर नागरिक को भी करना है और  वे केवल इस अंतर के साथ नागरिक हैं कि पुलिस एक पूर्णकालिक आधार पर नियोजित संगठन हैं| पुलिस अपने कृत्यों द्वारा जब तक  कुशल प्रदर्शन व  सम्मान के साथ लोगों का विश्वास हासिल करने और प्रयास करने के लिए खुद के आचरण को जनानुकूल नहीं बनाएगी जनता उनसे दूरी बनाए रखेगी|

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि पुलिस का कर्तव्य है कि बल के इस्तेमाल के बिना स्थितियों से निपटने, और सहानुभूति व समाज के सभी वर्गों के कल्याण के प्रति जागरूक और उनके सामाजिक संबंध के बिना व्यक्तिगत सेवा, दोस्ती और जरूरत में लोगों को सहायता देने के लिए हमेशा तैयार खड़ी रहे| यह सुनिश्चित करने के लिए वरिष्ठ के पुलिस अधिकारियों को पुलिस के सिद्धांतों को व्यवहार में अपनाकर एक अनुकरणीय उदाहरण स्थापित करने का  प्रयास करना चाहिए| राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने में आजादी के बाद से चाहे पुलिस ने अच्छा काम किया है, लेकिन आम आदमी थाना पुलिस के आचरण से सबसे अधिक चिंतित   है |

हमारे सामने उपस्थित सबूत से पता चलता है कि थाना पुलिस की सार्वजनिक छवि असंतोषजनक है | पुलिस के नजरिए में परिवर्तन के अलावा पुलिस के प्रति लोगों के नजरिए को नई दिशा भी जरूरी हैं| हिंसक और असामाजिक तत्वों के साथ लगातार संपर्क में रहना  पुलिसकर्मियों के सभी प्रकार के व्यवहार और दृष्टिकोण को प्रभावित करता है| लोगों की नजर  में यह पुलिस के काम से जुडा होने से यह  निश्चितरूप से एक कलंक है| वार्षिक पुलिस परेड, खेल , आदि जैसे पुलिस के विभिन्न कार्यों में और उपयुक्त अवसरों पर पुलिस संस्थाओं का दौरा करने से  जनता को भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए | ग्राम रक्षा समितियों  आदि  सार्वजनिक आयोजन से पुलिस को करीब लाने में मदद मिलेगी जो नागरिकों की भागीदारी कार्यक्रम का एक उपयोगी हिस्सा हो सकता है |

भ्रष्टाचार एक बदनुमा दाग  है जो पुलिस बल को सार्वजनिक सम्मान और सहयोग से वंचित करता है| एक बेईमान व्यक्ति का सेवा में बने रहना असंभव बनाने के लिए के लिए एक ठोस अभियान की शुरुआत होनी चाहिए| भ्रष्टाचार की सभी शिकायतों की तुरंत जांच की जानी चाहिए और दोषी के खिलाफ जो कुछ भी कार्रवाई अपने स्तर से हो वह कठोर होनी  चाहिए | भ्रष्टाचार निवारण  के लिए एक अथक अभियान के लिए राजपत्रित पुलिस अधिकारियों को नेतृत्व के लिए आगे आना चाहिए|अपराध की  रोकथाम और पता लगाने में पुलिस की पेशेवर दक्षता से जनता के साथ उनके संबंधों पर सीधा असर पड़ता है |

अपराधों के पंजीकरण से मनाही से  अपराध में कमी करने के दिखावटी तरीके के संबंध में प्रचलित छवि, अंडर-वर्ल्ड के साथ मिलीभगत, अंधाधुंध गिरफ्तारी और निहितार्थ के साथ जांच के अनुचित तरीकों को बंद किया जाना है | प्रशिक्षण के अलावा कानूनी प्रक्रियाओं, काम करने के तरीकों व उपकरणों, वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग , विशेषज्ञता  व  कार्य भार की अधिकता , स्टाफ की संख्या  और संगठन के रूप में कई कारक इसमें शामिल है| सुसज्जित स्वागत कक्षों और शिकायतकर्ताओं और गवाहों के लिए पुलिस स्टेशनों पर अन्य सुविधाओं की कमी को जितनी जल्दी संभव हो दुरुस्त करने के प्रयास किए जाने चाहिए| पुलिस स्टेशन में तैनात पुलिस अधिकारियों पर  कार्य भार भी अत्यधिक है| किन्तु इन पंक्तियों के लेखक का स्वतंत्र मत है कि पुलिस यह भार भी बिना किसी अतिरिक्त आकर्षण या लालच के वहन नहीं कर रही है जैसे रोडवेज में ड्राइवर व कंडक्टर गत 20 वर्षों से बिना ओवरटाइम के कार्य कर रहे हैं|

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अपने सरकारी कार्यों को तुरंत पूरा करने और अपनी निजी जरूरतों और मनोरंजन के लिए कभी – कभी रचनात्मक गतिविधियों के लिए कुछ अतिरिक्त समय निकालने के लिए पुलिस स्टेशन के कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि को तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए| पुलिस से जल्दी जानकारी प्राप्त होना बहुधा व्यथित पक्षकार की भावनाओं को चोट लगने में कमी लाने और पुलिस को जनता के करीब लाने में मददगार है| एक उचित संचार प्रणाली और पर्याप्त परिवहन के साथ सुसज्जित पुलिस के माध्यम से जवाब देने के समय  को कम किया जाना चाहिए | इसके अलावा , वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को विशेष रूप से , पुलिस स्टेशनों पर तैनात अपने सभी अधीनस्थ कर्मचारियों से पुलिस कार्रवाई में ` जवाब देने के समय ' में कटौती की आवश्यकता पर बल देना चाहिए|

(लेखक वरिष्ठ वकील हैं व आम आदमीसे जुड़े कानून मसलों पर नियमित रूप से लिखते हैं- ये उनके निजी विचार हैं)

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मोदी का साथ और राहुल का हाथ

देश को लोकसभा चुनावों के लिए अभी गर्मियों का इंतजार करना है किंतु चुनावी पारा अभी से गर्म हो चुका है। नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ती भीड़, सोशल नेटवर्क में उनके समर्थन-विरोध की आंधी के बीच एक आम हिंदुस्तानी इस पूरे तमाशे को भौंचक होकर देख रहा है। पिछले दो लोकसभा चुनाव हार चुकी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक ऐसी नाव हैं, जिससे इस चुनाव की वैतरणी पार की जा सकती है तो वहीं देश की सेकुलर राजनीति के चैंपियन बनने में लगे दलों को मोदी से खासा खतरा महसूस हो रहा है। यह खतरा यहां तक है कि उन्हें रामरथ के सारथी और अयोध्या आंदोलन के नायक लालकृष्ण आडवानी भी अब ‘सेकुलर’ लगने लगे हैं। जाहिर तौर पर इस समय की राजनीति का केंद्र बिंदु चाहे-अनचाहे मोदी बन चुके हैं। अपनी भाषणकला और गर्जन-तर्जन के अंदाजे बयां से उन्होंने जो वातावरण बनाया है वह पब्लिक डिस्कोर्स में खासी जगह पा रहा है।

साइबर युद्ध में तटस्थता के लिए जगह नहीः

    माहौल यह है कि आप या तो मोदी के पक्ष में हैं या उनके खिलाफ। तटस्थ होने की आजादी भी इस साइबर युद्ध में संभव नहीं है। सवाल यह है कि क्या देश की राजनीति का इस तरह व्यक्ति केंद्रित हो जाना- वास्तविक मुद्दों से हमारा ध्यान नहीं हटा रहा है। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र सामूहिकता से ही शक्ति पाता है। वैयक्तिकता लोकतंत्र के लिए अवगुण ही है। यह आश्चर्य ही है भाजपा जैसी काडर बेस पार्टी भी इस अवगुण का शिकार होती दिख रही है। उसका सामूहिक नेतृत्व का नारा हाशिए पर है। वैयक्तिकता के अवगुण किसी से छिपे नहीं हैं। एक समय में देश की राजनीति में देवकांत बरूआ जैसे लोगों ने जब “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया” जैसी फूहड़ राजनीति शैली से लोकतंत्र को चोटिल करने का काम किया था, तो इसकी खासी आलोचना हुयी थी। यह अलग बात है पं.जवाहरलाल नेहरू जैसा लोकतांत्रिक व्यवहार बाद के दिनों में उनकी पुत्री के प्रभावी होते ही कांग्रेसी राजनीति में दुर्लभ हो गया। हालात यह बन गए राय देने को आलोचना समझा जाने लगा और आलोचना षडयंत्र की श्रेणी में आ गयी। जो बाद में इंदिरा गांधी के अधिनायकत्व के रूप में आपातकाल में प्रकट भी हुयी। हम देखें तो लोकतंत्र के साढ़े छः दशकों के अनुभव के बाद भी भारत की राजनीति में क्षरण ही दिखता है। खासकर राजनीतिक और प्रजातांत्रिक मूल्यों के स्तर पर भी और संसद-विधानसभाओं के भीतर व्यवहार के तल पर भी।

गिरा बहस का स्तरः

 लोकसभा के आसन्न चुनावों के मद्देनजर जिस तरह की बहसें और अभियान चलाए जा रहे हैं वह उचित नहीं कहे जा सकते। इसमें राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना करने का अभियान भी शामिल है। दोनों तरफ से जिस तरह की अभद्रताएं व्यक्त की जा रही हैं वह विस्मय में डालती हैं। मोदी को लेकर उनके आलोचक जहां अतिवादी रवैया अपना रहे हैं, वहीं मोदी स्वयं अपने से आयु व अनुभव में बहुत छोटे राहुल गांधी को ‘शाहजादे’ कहकर चटखारे ले रहे हैं। इस तरह की चटखारेबाजी प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार को कुछ टीवी फुटेज तो दिला सकती है पर शोभनीय नहीं कही जा सकती। यह बड़प्पन तो कतई नहीं है। राहुल-मोदी एक ऐसी तुलना है जो न सिर्फ गलत है बल्कि यह वैसी ही जैसी कभी मनमोहन-आडवानी की रही होगी। भारतीय गणतंत्र दरअसल दो व्यक्तित्वों का संघर्ष नहीं है। यह विविध दलों और विविध विचारों के चुनावी संघर्ष से फलीभूत होता है। हमारे गणतंत्र में बहुमत प्राप्त दल का नेता ही देश का नायक होता है, वह अमरीकी राष्ट्रपति की तरह सीधे नहीं चुना जाता। इसलिए हमारे गणतंत्र की शक्ति ही सामूहिकता है, सामूहिक नेतृत्व है। यहां अधिनायकत्व के लिए, नायक पूजा के लिए जगह कहां है। इसलिए लोकसभा चुनाव जैसे अवसर को दो व्यक्तियों की जंग बनाकर हम अपने गणतंत्र को कमजोर ही करेगें।

व्यक्तिपरक न हो राजनीतिः

   हमारी राजनीति और सार्वजनिक संवाद को हमें व्यक्तिपरक नहीं समूहपरक बनाना होगा क्योंकि इसी में इस पिछड़े देश के सवालों के हल छिपे हैं। कोई मोदी या राहुल इस देश के सवालों को, गणतंत्र के प्रश्नों को हल नहीं कर सकता अगर देश के बहुसंख्यक जनों का इस जनतंत्र में सहभाग न हो। क्योंकि जनतंत्र तो लोगों की सहभागिता से ही सार्थक होता है। इसलिए हमारी राजनीतिक कोशिशें ऐसी हों कि लोकतंत्र व्यक्ति के बजाए समूह के आधार पर खड़ा हो। श्रीमती इंदिरा गांधी मार्का राजनीति से जैसा क्षरण हुआ है, उससे बचने की जरूरत है।

  नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दो बेहद अलग-अलग मैदान में खेल रहे हैं। किंतु हमें यह मानना होगा कि मोदी द्वारा उठाए जा रहे राष्ट्रवाद के सवालों से देश की असहमति कहां हैं। किंतु कोई भी राष्ट्रवाद कट्टरता के आधार पर व्यापक नहीं हो सकता। उसे व्यापक बनाने के लिए हमें भारतीय संस्कृति, उसके मूल्यों का आश्रय लेना पड़ेगा। एक समावेशी विकास की परिकल्पना को आधार देना होगा। जिसमें महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय  और डा. राममनोहर लोहिया की समन्वित विचारधारा के बिंदु हमें रास्ता दिखा सकते हैं। विकास समावेशी नहीं होगा तो इस चमकीली प्रगति के मायने क्या हैं जिसके वाहक आज मनमोहन-मोंटेक सिंह और पी.चिदंबरम हैं। कल इसी आर्थिक धारा के नायक नरेंद्र मोदी- यशवंत सिन्हा-जसवंत सिंह और अरूण जेतली हो जाएं तो देश तो ठगा ही जाएगा।

विचारधारा के उलट आचरण करती सरकारें-

  राहुल गांधी जो कुछ कह रहे हैं उनकी सरकार उसके उलट आचरण करती है। वे गरीब-आम आदमी सर्मथक नीतियों की बात करते हैं केंद्र का आचरण उल्टा है। क्या बड़ी बात है कि कल नरेंद्र मोदी सत्ता में हों और यही सारा कुछ दोहराया जाए। क्योंकि ऐसा होते हुए लोगों ने एनडीए की वाजपेयी सरकार में देखा है। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिग्गज स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी ने एनडीए सरकार के वित्त मंत्री को ‘अनर्थ मंत्री’ की संज्ञा दी थी। ऐसे में आचरण के द्वंद सामने आते हैं। भारतीय राजनीति का अजूबा यह कि मजदूरों-मजलूमों की नारे बाजी करने वाली वामपंथी सरकारें भी पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम रच देती हैं। ऐसे में जनता के सामने विमर्श के तमाम प्रश्न हैं, वह देख रही है कि मंच के भाषण और आपके सत्ता में आने के बाद के आचरण में खासा अंतर है। इसने ही देश के जनमन को छलने और अविश्वास से भरने का काम किया है। इसलिए मोदी को देश के सामने खड़े सुरक्षा के सवालों के साथ आर्थिक सवालों पर भी अपना रवैया स्पष्ट करना होगा क्योंकि उनके स्वागत में जिस तरह कारपोरेट घराने लोटपोट होकर उन पर बलिहारी जा रहे हैं, वह कई तरह की दुश्चिताएं भी जगा रहे हैं।

पूंजीवाद को विकसित कीजिए न कि पूंजीवादियों कोः

   आने वाली सरकार के नायकों राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी को यह साफ करना होगा कि वे न सिर्फ समावेशी विकास की अवधारणा के साथ खड़े होंगें बल्कि आमजन उनकी राजनीति के केंद्र में होंगें। उनको यह भी तय करना होगा कि वे आर्थिक पूंजीवाद और विश्व बाजार की सवारी तो करेंगें किंतु वे पूंजीवाद को विकसित करेंगें न कि पूंजीवादियों को। वे देश को प्रेरित करेंगें ताकि यहां उद्यमिता का विकास हो। लोग उद्यमी बनें और उजली आर्थिक संभावनाओं की ओर बढ़ें। एक ऐसा वातावरण बनाना अपेक्षित है, जिसमें युवा संभावनाओं के लिए आगे बढ़ने के अवसर हों और सरकार उनके सपनों के साथ खड़ी दिखे। राहुल गांधी के लिए भी यह सोचने का अवसर है कि आज कांग्रेस के सामने जो सवाल खड़ें हैं उसके लिए उनका दल स्वयं जिम्मेदार है। कांग्रेस की मौकापरस्ती और तमाम ज्वलंत सवालों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाकर पार्टी ने अपनी विश्वसनीयता लगभग समाप्त कर ली है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की सरकारों और कांग्रेस की सरकारों में चरित्रगत अंतर समाप्त होने के कारण जनता के सामने अब दोनों दल सहोदर की तरह नजर आने लगे हैं न कि एक-दूसरे के विकल्प की तरह। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के लिए आने वाले लोकसभा चुनाव एक अवसर की तरह हैं देखना है कि दोनों अपने आचरण, संवाद तथा प्रस्तुति से किस तरह देश की जनता और दिल्ली का दिल जीतते हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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आपातकाल की वजह से शोले का गब्बार नहीं मारा!

शोले फिल्म के गब्बर सिंह की जान इमर्जेंसी की वजह से बची थी। इमर्जेंसी के दौर में बनी इस फिल्म में पहले क्लाइमैक्स में गब्बर की मौत हो जानी थी, मगर सरकारी अधिकारियों के कहने पर उसे मारने के बजाय जेल भेज दिया गया।  शोले फिल्म का क्लाइमैक्स शूट भी हो चुका था, मगर सेंसर बोर्ड के अधिकारियों के जोर डालने के बाद इसे दोबारा शूट किया गया। नए क्लाइमैक्स में गब्बर को मारने के बजाए पुलिस के हवाले कर दिया। इंटरनेट पर शोले के मूल क्लाइमैक्स का विडियो भी उपलब्ध है।

शोले फिल्म के आखिरी पलों में दिखाया जाता है कि ठाकुर कील वाले जूतों से गब्बर की पिटाई कर रहा होता है। इससे पहले कि ठाकुर पीट-पीटकर गब्बर को मार डाले, पुलिस पहुंच जाती है और गब्बर को अरेस्ट करके ले जाती है। मगर फिल्म के मूल क्लाइमैक्स में गब्बर की मौत हो गई थी। इसमें कहानी यह थी कि ठाकुर अचानक कूदकर गब्बर की छाती पर चोट करता है और गब्बर उछलकर खंबे से जा टकराता है। खंबे से निकला नुकीला सरिया उसकी पीठ में घुस जाता है और उसकी मौत हो जाती है। इसके बाद वीरू वहां पहुंचकर ठाकुर को संभालता है।

 

शोले के निर्देशक रमेश सिप्पी के अलावा फिल्म लिखने वाली जोड़ी सलीम-जावेद के जावेद अख्तर भी बता चुके हैं कि इमर्जेंसी की वजह से फिल्म में बदलाव करना पड़ा था। उन्होंने कहा था, 'जिस दौरान यह फिल्म बनी थी, वह इमर्जेंसी का दौर था। सरकारी अधिकारियों का कहना था कि गब्बर सिंह को मार गिराना कानूनन सही नहीं है। ऐसे में मजबूरन क्लाइमैक्स को दोबारा शूट करना पड़ा। यह बात अलग है कि उन अधिकारियों को गब्बर की हरकतें गैर-कानूनी नहीं लगीं।'

 

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जूम पर आ रही हैं दुनिया की सबसे खूबसूरत हसीनाएं!

देखिए मिस यूनिवर्स 2013 का फिनाले, मास्को से लाइव ए सिर्फ जूम पर, इस शनिवार 9 नवंबर को रात 11 बजे से-

राष्ट्रीय, नवंबर, 2013ः जूम, भारत का नंबर 1 बॉलीवुड चैनल, भारतीय टेलीविजन पर ग्लैमर, स्टाइल एवं खूबसूरती का सबसे बड़ा मंच है। और इस नवंबर जूम अपने दर्शकों को इस बहमांड यूनिवर्स की सर्वाधिक खूबसूरत 86 हसीनाओंं के करीब लेकर जा रहा है। जूम पर इस बार मास्को, रूस से सीधे मिस यूनिवर्स 2013, सौंदर्य प्रतियोगिता का लाइव और एक्सक्लूसिव प्रसारण भारत में किया जाएगा।

मिस यूनिवर्स, अपने 62वें वर्ष में है और निसंदेह ये विश्व की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित सौंदर्य प्रतियोगिता भी है। इस वर्ष मिस यूनिवर्स का प्रसारण करीब 190 देशों में होगा और एक अनुमान के अनुसार इसे पूरे विश्व में 1 अरब से अधिक दर्शक देखेंगे। थॉमस रॉबट्र्स (एम एस एन बी सी लाइव) और पूर्व स्पाइस गर्ल मेल बी (अमेरिकाज गॉट टेलेंट) इस शो को एंेकर करेंगे। ग्रेमी अवॉर्ड के लिए नामांकित रौक बेंड ‘पेनिक! एट द डिस्को’ आर अंतराष्ट्रीय रिकॉर्डिंग कलाकार एमिन इस मौके पर अपनी विशेष प्रस्तुति देंगे और इसे सीधे मास्को, रूस से 9 नवंबर को प्रसारित किया जाएगा।

इस प्रसारण के बारे में जानकारी देते हुए श्री अविनाश कौल, चीफ एग्जीक्यूटिव आॅफिसर, ईटी नॉऊ, टाइम्स नॉऊ और जूम ने कहा कि ‘‘जूम ने लगातार ग्लैमर और स्टाइल की प्रस्तुति का स्तर बढ़ाया है और मिस यूनिवर्स 2013 का प्रसारण जूम ब्रांड पे पूरी तरह से सही बैठता है। बेहद लोकप्रिय मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता को हाल के समय में सिर्फ जूम पर ही इतना बड़ा मंच प्राप्त हो सकता था और जूम वास्तव में इस शानदार वैश्विक आयोजन की मेजबानी करते हुए भारतीय दर्शकों को एक शानदार कार्यक्रम से रूबरू करवाएगा।’’

एक विस्तृत मल्टी-मीडिया मार्केटिंग योजना के साथ जूम इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता का प्रचार  करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। राष्ट्रव्यापी विस्तृत मार्केटिंग अभियान के तहत पारंपरिक और न्यू एज मीडिया का मिश्रित उपयोग किया जा रहा है। पारंपरिक मीडिया में टीवी, प्रिंट, रेडियो और आउटडोर के साथ ही जूम सोशल मीडिया में अपनी मजबूत उपस्थिति का भी लाभ लेकर मिस यूनिवर्स प्रसारण के लिए काफी सनसनी पैदा कर रहा है। सोशल मीडिया अभियान के पहले चरण में जूम के फेसबुक पेज और ट्विटर हैंडल पर भारतीय प्रतियोगी मानसी मोघे के समर्थन में अभियान को आगे बढ़ाया जा रहा है। अगले चरण में कई दिलचस्प अपडेटृस देखने को मिलेंगे जिन्हें विशेष तौर पर सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स के लिए डिजाइन किया गया है और इससे जूम के युवा दर्शक वर्ग में रोमांच पैदा होगा और वे मिस यूनिवर्स फिनाले का प्रसारण देखने के लिए उत्साहित होंगे।

टाइम्स ग्रुप, मिस यूनिवर्स आर्गेनाईजेशन का भारत में प्रमुख आधिकारिक सहभागी है और मिस यूनिवर्स के लिए आधिकारिक भारतीय प्रतियोगी के चयन के लिए मिस डिवा प्रतियोगिता का आयोजन करता है। 21 साल की मानसी मोघे ने मिस डिवा 2013 का खिताब जीता और मिस यूनिवर्स 2013 के फिनाले में भारत का प्रतिनिधित्व करने का गौरव प्राप्त किया। मानसी मोघे, एक इंजीनियर और एक मॉडल है, जिनका जन्म नागपुर में हुआ और वे वहीं पर पली बढ़ी भी हैं। मानसी को गायन, नृत्य और संगीत में काफी रूचि है। नृत्य के प्रति अपने अथाह प्रेम के चलते ही वे शास्त्रीय नृत्य का अभ्यास भी करती हैं और वे सिंथसाइजर भी काफी अच्छा बजा लेती हैं। कॉलेज में सौंदर्य प्रतियोगिता जीतने के अलावा इस ग्लैमर गर्ल ने अपने सपनों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयास जारी रखे। कुछ ही लोगों को पता है कि अपने खाली समय में वह दृष्टिहीन बच्चों के लिए भी काम करती रही हैं और पैलोटाइन यूथ फोरम सोशल सर्विस कमेटी के साथ गरीबों के कल्याण के लिए भी प्रयासरत रही हैं।

तो क्या मानसी भी सुष्मिता सेन और लारा दत्ता की तरह ही मिस यूनिवर्स का ताज जीतकर भारत को गौरवान्वित करेंगी? जानने के लिए देखें लाइव प्रसारण, मिस यूनिवर्स 2013 का, शनिवार, 09 नवंबर, रात 11 बजे से सिर्फ जूम पर-भारत का नंबर 1 बॉलीवुड चैनल।

मिस यूनिवर्स 2013 का प्रसारण जूम पर होगा और इसे एमवे की आर्टिस्ट्री रेंज द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है। वहीं सॉलिटेयर पार्टनर-डिवाइन सॉलिटेयर्स, एसोसिएट प्रायोजक-स्ट्रीक्स हेयर कलर्स, लोरिआल पेरिस टोटल रिपेयर 5, फॉग फ्रेगरेंस बॉडी स्पे्र और फिलिप्स एलईडी है। आउटडोर पार्टनर-अलख है।

जूम मिस यूनिवर्स 2013 का प्राइम टाइम पुनः प्रसारण  रविवार, 10 नवंबर को रात 8.30 से शुरू होगा।

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इस्लाम, आतंकवाद और 1450 साल का इतिहास

इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना अर्थात् मोहर्रम शुरु होते ही पूरे विश्व में क़रबला की वह दास्तां दोहाराई जाती है जो लगभग 1450 वर्ष पूर्व इराक के करबला नामक स्थान में पेश आई थी। यानी हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के सदस्यों का तत्कालीन मुस्लिम सीरियाई शासक की सेना के हाथों मैदान-ए-करबला में बेरहमी से कत्ल किये जाने की दास्तां।

हालांकि इस घटना को 14 सदियां बीत चुकी हैं परंतु उसके बावजूद आज के दौर में जैसे-जैसे पूरे विश्व में इस्लाम रुसवा और बदनाम होता जा रहा है, जैसे-जैसे इस्लाम पर कट्टरपंथियों, आतंकवादियों, गैरइस्लामी व गैर इंसानी हरकतें अंजाम देने वालों का शिकंजा कसता जा रहा है वैसे-वैसे बार-बार पूरी दुनिया के गैर मुस्लिम समुदायों में खासतौर पर यह सवाल उठ रहा है कि वास्तव में इस्लामी शिक्षा है क्या? क्या इस्लाम इसी प्रकार आत्मघाती हमलावर तैयार करने, मस्जिदों, दरगाहों, स्कूलों, जुलूसों, भीड़ भरे बाज़ार तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों पर बेगुनाह लोगों की हत्याएं करने की शिक्षा देता है? यह सवाल भी उठता है कि हज़रत मोहम्मद उनके परिवार के सदस्यों व सहयोगियों ने क्या भविष्य में ऐसे ही इस्लाम की कल्पना की थी? आज दुनिया के मुसलमानों से प्रत्येक गैर मुस्लिम यह सवाल करता दिखाई देता है कि इस्लाम के नाम पर प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की दुनिया में कहीं न कहीं हत्याएं करने वाले लोग यदि मुसलमान नहीं तो आिखर वे किस विचारधारा का अनुसरण कर रहे हैं और यदि स्वयं को न केवल मुसलमान बल्कि 'सच्चा मुसलमान’ कहने वाले यह लोग मुसलमान नहीं फिर आिखर यह लोग हैं कौन? सवाल यह भी है कि इस्लाम की वास्तविक शिक्षा हमें इस्लामी इतिहास की किन घटनाओं से और किन चरित्रों से लेनी चाहिए?       

          

इसमें कोई दो राय नहीं कि मोहर्रम का महीना तथा इसी माह में दसवीं मोहर्रम को करबला में घटी घटना इस्लामी इतिहास की एक ऐसी घटना है जोकि इस्लाम के दोनों पहलुओं को पेश करती है। हज़रत इमाम हुसैन व उनका परिवार उस इस्लामी पक्ष का दर्पण है जिसे वास्तविक इस्लाम कहा जा सकता है। यानी त्याग, बलिदान, उदारवाद, सहनशीलता, समानता, भाईचारा, ज़ुल्म और असत्य के आगे सर न झुकाने व सर्वशक्तिमान ईश्वर के अतिरिक्त संसार में किसी को सर्वशक्तिमान न समझने जैसी शिक्षाओं को पेश करता है।

 

वहीं दूसरी ओर उसी दौर का सीरिया का शासक यज़ीद है जोकि इस्लाम का वह क्रूर व ज़ालिम चेहरा है जिसका अनुसरण करने वाले तथाकथित मुसलमान आज भी पूरे संसार में ज़ुल्म,अत्याचार तथा बेगुनाह व मासूम लोगों की हत्याएं करते आ रहे हैं। यज़ीद की सेना ने भी हज़रत इमाम हुसैन के सहयोगी व हज़रत मोहम्मदके 80 वर्षीय मित्र हबीब इब्रे मज़ाहिर से लेकर इमाम हुसैन के 6 महीने के दूध पीते बच्चे अली असगर तक को कत्ल करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की थी।

मुसलमान पिता की संतान होने के बावजूद ज़ालिम यज़ीद ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि क़रबला में जिन लोगों को कत्ल करने की उस ज़ालिम ने ठानी है वह इस्लाम धर्म के पैगंबर हज़रत मोहम्मद का ही परिवार है। और स्वयं यज़ीद भी हज़रत मोहम्मद के नाम का कलमा पढ़ता है। परंतु ज़ालिम यज़ीद ने इन बातों का लिहाज़ किए बिना तीन दिन के भूखे और प्यासे हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के पुरुष सदस्यों को बड़ी ही निर्दयता से करबला के तपते हुए रेतीले मैदान में कत्ल कर दिया। और परिवार की महिला सदस्यों को रस्सियों से बांधकर मुख्य मार्गों से पैदल अपने सीरियाई दरबार तक ले गया। इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी धर्म या संप्रदाय से जुड़ी किसी भी अत्याचार संबंधी घटना में ज़ुल्म व अत्याचार की वह इंतेहा नहीं देखी गई जोकि करबला के मैदान में देखी गई थी।

 

इतिहासकारों के अनुसार हज़रत हुसैन के 72 साथियों का कत्ल करने के लिए यज़ीद ने अपनी लाखों सिपाहियों की सेना करबला में फुरात नदी के किनारे तैनात कर दी थी। करबला की घटना क्यों घटी और किस प्रकार करबला की घटना से हम वास्तविक इस्लाम और अपहृत किए गए इस्लाम के दोनों चेहरों को बखूबी समझ सकते हैं, आईए संक्षेप में यह समझने की कोशिश करते हैं। हज़रत इमाम हुसैन जहां अपने समय में हज़रत मोहम्मदद्वारा निर्देशित इस्लामी सिद्धांतों का पालन करते हुए मानवतावादी इस्लाम को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे वहीं यज़ीद इत्तेफाक़ से सीरियाई शासक मुआविया के घर में पैदा होने वाला एक ऐसा दुष्ट शहज़ादा था जो व्यक्तिगत् तौर पर प्रत्येक इस्लामी शिक्षाओं का उल्लंघन करता था। उसमें शासक बनने के कोई गुण नहीं थे। वह निहायत क्रूर, दुष्ट, चरित्रहीन, बदचलन तथा अहंकारी प्रवृति का राक्षसरूपी मानव था। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह सीरिया की गद्दी पर बैठा तो उसने हज़रत मोहम्मदके नवासे इमाम हुसैन से बैअत तलब की यानी यज़ीद ने हज़रत मोहम्मदके परिवार से इस्लामी शासक के रूप में मान्यता प्राप्त करने का प्रमाण पत्र हासिल करना चाहा। इमाम हुसैन ने यज़ीद की गैर इस्लामी आदतों के चलते उसको इस्लामी राज्य का राजा स्वीकार करने से इंकार कर दिया।

 

इमाम हुसैन ने साफतौर पर यह बात कही कि यज़ीद जैसे बदकिरदार व्यक्ति को किसी इस्लामी राज्य का बादशाह स्वीकार नहीं किया जा सकता। हज़रत हुसैन यह बात भली-भांति जानते थे कि यदि उन्होंने यज़ीद के शासन को इस्लामी मान्यता दे दी और उसके हाथों पर बैअत कर उसे इस्लामी राज्य का शासक स्वीकार कर लिया तो भविष्य में इतिहास यज़ीद का चरित्र-चित्रण करते हुए यह ज़रूर लिखेगा कि यज़ीद सीरिया (शाम)का वह राजा था जिसे हज़रत मोहम्मदके नवासे और हज़रत अली व फातिमा के बेटे हज़रत हुसैन की ओर से मान्यता प्राप्त थी। और हज़रत इमाम हुसैन इन्हीं काले शब्दों का उल्लेख इस्लाम संबंधी इतिहास में नहीं होने देना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि यज़ीद को इस्लामी मान्यता प्राप्त राजा स्वीकार कर इस्लाम धर्म को बदनाम व कलंकित होने दिया जाए।

 

वे इस्लाम की साफ-सुथरी, चरित्रपूर्ण व उदार छवि दुनिया में पेश करना चाहते थे। वे हज़रत मोह मद, फातिमा तथा हज़रत अली द्वारा बताए गए इस्लामी सिद्धांतों का अनुसरण करते थे तथा स्वयं इन्हीं से प्राप्त इस्लामी शिक्षाओं के पैरोकार थे। दूसरी ओर ज़ालिम यज़ीद सत्ता और ताकत के नशे में चूर शराबी, जुआरी, व्याभिचारी तथा अय्याश प्रवृति का वह शासक था जो अपनी सत्ता शक्ति के नशे में इस कद्र चूर था कि उसे दो ही बातें स्वीकार थीं। या तो हज़रत हुसैन उसके हाथों पर बैअत कर उसे सीरिया के इस्लामी शासक के रूप में मान्यता दें अन्यथा उसके हाथों शहीद होने के लिए तैयार हो जाएं।

 

हज़रत इमाम हुसैन ने यज़ीद का बैअत संबंधी पहला संदेश आने के बाद कई स्तर पर वार्ताओं का दौर चलाकर उसे हर प्रकार से यह समझाने की कोशिश की कि वह इस्लामी राज्य का शासक बनने की अपनी जि़द छोड़ दे क्योंकि उसमें ऐसी योग्यता हरगिज़ नहीं है। परंतु यज़ीद ने हज़रत इमाम हुसैन की एक भी बात नहीं सुनी। और वह अपनी एक ही जि़द पर अड़ा रहा कि या तो हुसैन मेरे हाथों पर बैअत करें या फिर सपरिवार कत्ल होने के लिए तैयार हो जाएं। हिंसा को रोकने के लिए हज़रत इमाम हुसैन ने यज़ीद के समक्ष एक अंतिम प्रस्ताव यह भी रखा था कि वह अपने परिजनों के साथ मदीना छोड़कर हिंदुस्तान चले जाना चाहते हैं। परंतु यज़ीद जैसे दुष्चरित्र व्यक्ति को इस्लामी बादशाह के रूप में मान्यता देकर खुद जीवित रहना उन्हें कतई मंज़ूर नहीं था। यज़ीद ने हुसैन का यह प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं किया। उसकी बार-बार एक ही रट थी या तो इस्लामी स्वीकृति या फिर हुसैन की शहादत। और आिखरकार हुसैन ने असत्य के समक्ष घुटने न टेकते हुए अपनी व अपने पूरे परिवार की कुर्बानी देने का फैसला किया।                 

 

हज़रत इमाम हुसैन अपना पुश्तैनी घर मदीना छोड़कर इराक के करबला शहर में फुरात नदी के किनारे पहुंच गए। और दस मोहर्रम के दिन वे स्वयं, उनके भाई-बेटे, भतीजे, कई मित्र व सहयोगी यहां तक कि मात्र एक दिन पूर्व ही यज़ीद की सेना को छोड़कर हज़रत हुसैन की शरण में आया यज़ीद का ही सेनापति हुर व उसका पुत्र व गुलाम सभी शहीद कर दिए गए। परंतु दस मोहर्रम को दिन भर चलने वाले शहादत के सिलसिले के बावजूद तथा यजी़द की सेना द्वारा ज़ुल्म पर ज़ुल्म ढाने के बाद भी हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लामी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। इतिहास इस बात का गवाह है कि मुस्लिम समुदाय में आज भी कोई श स अपने बच्चों का नाम यज़ीद नहीं रखता। इतिहास आज भी करबला की घटना को मोहर्रम का महीना आने पर बार-बार दोहराता है जो इस्लाम के दोनों पहलुओं पर रोशनी डालता है। हिंदुस्तान के मशहूर शायर कुंवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर’ के शब्दों में

ज़िंदा इस्लाम को किया तूने। हक्क-ओ-बातिल दिखा दिया तूने।।

जी के मरना तो सबको आता है। मर के जीना सिखा दिया तूने।।

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