Wednesday, November 27, 2024
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माय होम इंडिया की पहल “सपनो से अपनों तक”

भोले बच्चे, दूसरों द्वारा दिखाए हुए भविष्य के झूठे सपनों से गुमराह हो कर अपना घर-परिवार छोड़ देते है लेकिन उसके बाद वही व्यक्ति जिन्होंने उन बच्चों को झूठे सपने दिखाए थे, उन मासूम बच्चो का निर्दयता से शोषण करते हैं। यह बच्चे एक बार जब अपने  घर से निकल कर बाहर की निर्दयी दुनिया देखते हैं तो प्रतिदिन साहस और कोशिश करने के बाद भी अपने घर लौट नहीं पाते। अबोध बच्चे प्रतिदिन अपनी गलती समझते हुए, अपने घर वापस जाने के लिए किसी की मदद की राह देखते हैं| पुलिस एवं NGO के द्वारा इन बच्चो को अमानवीय परिस्थितियों से छुडाने के पश्चात बच्चों से उनके परिवार के बारे में  मिली सूचना के आधार पे उनके परिवार को ढूंढा जाता ताकि यह बच्चे शीघ्र ही अपने घर वापस जा सकें| परिवार का पता लगने तक बच्चे बाल गृह में रखे जाते है और उनके परिवार को ढूँढने का निरंतर प्रयास किया जाता है। माय होम इंडिया बाल गृह के साथ मिल के इन बच्चों को उनके घर तक भेजने के अनुपम कार्य को पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ करता है एवं जब तक यह बच्चे बाल गृह में रहते हैं उस समय भी आवश्यक चिकित्सा, दवाइयां, जरूरत का सामान इत्यादि उनको प्रदान करके उनकी मदद करता है| इस कठिन समय में इन बच्चों को परिवार की कमी ना महसूस हो इसलिए माय होम इंडिया इन बच्चों के साथ अनेक पर्व भी मनाता है|

'माय होम इंडिया' द्वारा विगत एक वर्ष से कम समय में किये गए अथक प्रयास से उमेरखेड़ी , डोंगरी, मुंबई स्थित बाल गृह से १६६ बच्चो को एवं दिल्ली के बाल गृह से ४ बच्चों को उनके घर सुरक्षित पहुँचाया गया । 'माय होम इंडिया' यह मानता है कि सही वातावरण मिलने पर यह बच्चे राष्ट्रनिर्माण में अभूतपूर्व योगदान प्रदान कर सकते हैं लेकिन यही बच्चे सहीं ध्यान एवं मार्गदर्शन ना मिलने पर अपराध के रास्ते पे चल सकते हैं| इसलिए उन्हें वापस अपने घर पहंचा के अपने आत्मविकास का मौक़ा दे के 'माय होम इंडिया' उनके जीवन में एक सकारात्मक बदलाव का प्रयास कर रहा है| 'माय होम इंडिया' द्वारा किये गए इस प्रयास की अभूतपूर्व सफलता से प्रेरित हो कर 'माय होम इंडिया' ने आज इसे औपचारिक रूप से राष्ट्रिय स्तर पर एक परियोजना के रूप में प्रारम्भ किया| इस पहल का नाम, 'सपनो से अपनों तक' रखा गया है। इसके अंतर्गत उन् सभी बच्चो को उनके घर तक पुनः पहुचने का प्रयास किया जायेगा जो किसी कारणवश अपने घर से दूर हो गए थे ताकि उन्हें भी स्नेहपूर्ण वातावरण मिल सके और वह आगे जा के एक अच्छा नागरिक बनें न कि  पीड़ाओं से जूझता हुआ मुजरिम। ऐसे बच्चे जो कि अपने परिवार से बहुत समय से बिछड़ चुके हैं और जिनके माता पिता उनके मिलने की आस तक छोड़ चुके हैं ऐसे बच्चों को अपने परिवार से मिला के माय होम इंडिया उनके जीवन में एक नयी आशा के संचार का प्रयास कर रहा है|

माय होम इंडिया ने यह कार्यक्रम स्व. श्री एकनाथ जी ठाकुर, अध्यक्ष, सारस्वत बैंक को समर्पित था।

इस उपलक्ष्य पर मुख्य अतिथि के रूप में माननीया महिला एवं बाल विकास मंत्री, महाराष्ट्र, श्रीमती पंकजा मुंडे पालवे उपस्थित रहीं| आदरणीय राज्य मंत्री, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, महाराष्ट्र, श्रीमती विद्या ठाकुर एवं उपाध्यक्ष, सारस्वत बैंक श्री गौतम ठाकुर ने भी अतिथि के रूप में उपस्थित हो के कार्यक्रम की शोभा बढ़ायी। एवं विख्यात उद्योगपति,  श्री श्रीराम दांडेकर ने मंच की अध्यक्षता की|

सर्वप्रथम श्री सुनील देवधर जी ने सभी गणमान्य व्यक्तियों का परिचय कराया एवं उसके पश्चात “सपनो से अपनों तक” कार्यक्रम से परिचय कराते हुए बताया कि यह कार्यक्रम …राष्ट्र वाद को मजबूत करने का काम है.बाल गृह की अवस्था असहनीय है. इस अवसर पे उन्होंने यह भी कहा कि माय होमे इंडिया का नारा है बाल गृह जहां जहा माय होमे इंडिया वहा वहा, माय होमे इंडिया का लक्ष्य है अगले ५ वर्ष में देश के सारे बाल सुधार गृह खाली करा देंगे|

आदरणीय राज्य मंत्री, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, महाराष्ट्र, श्रीमती विद्या ठाकुर जी ने इस उपलक्ष्य पे कहा कि अपनो से अपनो को मिलाने का श्रेष्ठ काम माय होमे इंडिया कर रहा है| बाल गृह की कार्यशैली में सुधार लाने के ऊपर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि सरकार हर प्रयत्न करने के लिए एवं एसे कार्यों को अपना समर्थन के लिए कृतिबद्ध है|

आदरणीय श्री गौतम ठाकुर जी, उपाध्यक्ष, सारस्वत बैंक ने इस अवसर पे कहा कि हर कदम पर वो स्वयं और सारस्वत बँक माय होम इंडिया के साथ है |

इस अवसर पे माय हमे इंडिया ने ऐसे कई व्यक्तियों और टीम का सम्मान किया जिन्होंने इस पावन कार्य में अपना निरंतर सहयोग प्रदान किया है| इन में शामिल हैं L&T construction – health Centre का टीम , श्री दिनेश नंदवाना, डायरेक्टर, Vakrangi Software ltd., बाल गृह उमेर्खाड़ी, डोंगरी, मुंबई की टीम, समतोल फाउंडेशन के श्री विजय जाधव एवं श्री जे. बी. गिलासे, मुख्य अधिकारी, बाल कल्याण समिति, मुंबई | इन सभी महानुभावों के मूल्यवान सहयोग के लिए माय होम इंडिया इन सब का आभार प्रकट करता है| 

माननीया महिला एवं बाल विकास मंत्री, महाराष्ट्र, श्रीमती पंकजा मुंडे पालवे ने इस अवसर पे कहा कि वोह अपनी मिनिस्ट्री के माध्यम से जल बचाओ अन्दोलम से एवं बेटी बचावो आंदोलन से जुडी हुई हैं| और यह दोनों ही अगर आज नहीं बचाए गए तो हमारा देश ही नष्ट हो जाएगा| उन्होंने कहा कि वह स्वयं भी यह मानती हैं कि बच्चा अपने घर से ज्यादा कही और सुरक्षित नही होता | बच्चो को घर पहुंचाना एक पुण्य का काम है और माय होम इंडिया यह पुण्य कर्म कर रहा है और इस पावन उद्देश्य में उनकी मिनिस्ट्री ऐसे सभी कार्यों को प्रोत्साहन प्रदान करेगी |

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अग्रोहा धाम को सौ बड़े शहरों से हर साल मिलेंगे एक करोड़ रु.

अग्रवाल समाज के पितृ पुरुष महाराजा अग्रसेन की जन्म व कर्मभूमि अग्रोहा तीर्थ को समाज के पांचवें धाम के रूप में विकसित करने का निर्णय रविवार को अग्रोहा धाम हिसार में लिया गया। इंदौर अग्रवाल समाज की पहल पर देश के सौ बड़े शहरों द्वारा हर वर्ष एक करोड़ की सहयोग राशि देने का संकल्प पारित किया गया। इसकी शुरुआत कोटा से हुई।

अग्रोहा धाम विकास ट्रस्ट एवं इंदौर अग्रवाल समाज केंद्रीय समिति सहित पांच राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने इस संबंध में सुझाव दिए। इंदौर समिति के प्रमुख परामर्शदाता विनोद अग्रवाल ने कहा कि देश के सौ बड़े शहरों के अग्रवाल संगठन प्रति वर्ष एक-एक लाख अग्रोहा विकास ट्रस्ट को दें तो हर वर्ष एक करोड़ जमा हो सकते हैं।

इंदौर समिति के अध्यक्ष किशोर गोयल ने प्रस्ताव का अनुमोदन किया। कोटा के अग्रवाल संगठन ने हाथोहाथ एक लाख जमा भी करवा दिए। अग्रोहा धाम विकास ट्रस्ट के अध्यक्ष नंदकिशोर गोयनका ने कहा कि इससे अग्रवाल बंधुओं की भावना साकार होने में मदद मिलेगी। ट्रस्ट 250 बिस्तरों का एक अस्पताल व मेडिकल कॉलेज भी संचालित कर रहा है। इस पहल पर अमल शुरू होता है तो यहां अन्न् क्षेत्र, आवासीय संकुल का विस्तार, संगठन गतिविधियां और शक्तिपीठ के विकास सहित कई सेवा कार्य शुरू किए जा सकते हैं। संचालन संजय बाकड़ा ने किया। आभार राजेश बसंल ने माना।

ऐसा है अग्रोहा धाम 

हरियाणा के हिसार से 18 किमी दूर 27 एकड़ में फैला है अग्रोहा धाम। यहां पर अग्रवाल समाज की कुलदेवी महालक्ष्मी, महाराजा अग्रसेन का भव्य और आर्कषक मंदिर है। जमीन से 27 फीट नीचे वैष्णव देवी, तिरुपति बालाजी, बाबा अमरनाथ व भैरवनाथ का मंदिर है। हनुमानजी की 90 फीट ऊंची आकर्षक प्रतिमा है। यह स्थान अग्रवाल समाज का शक्तिपीठ कहा जाता है। यहां 51 सौ वर्ष पहले महाराजा अग्रेसन का शासन था।

साभार- http://naidunia.jagran.com/ से 

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आयोजन नए मिज़ाज की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का

हैदराबाद। विभिन्न विश्वविद्यालयों, संस्थानों और महाविद्यालयों में फरवरी-मार्च के महीने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों के होते हैं. इसलिए अगर विशाखपट्णम में भी हिंदी की कई संगोष्ठियाँ इस दौरान हो रही हैं तो यह सामान्य सी बात है. लेकिन अगर कोई राष्ट्रीय संगोष्ठी ऐसी हो जिसमें भाग लेने वाले विद्वान – अध्यक्ष और मुख्य अतिथि से लेकर प्रतिनिधि और प्रतिभागी तक – देश भर के दूर-पास के क्षेत्रों से अपने खर्चे पर आए, तो ऐसी संगोष्ठी को लीक से हटकर एक नए आरंभ के रूप में देखा ही जाना चाहिए. यही वह मुख्य बात है जिसने 1 और 2 मार्च 2015 को विशाखा हिंदी परिषद और केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी को विशिष्ट बना दिया.

’21वीं सदी में हिंदी : उपलब्धियाँ एवं संभावनाएँ’ विषयक इस द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की दूसरी विशेषता यह रही कि इसमें परंपरागत ढंग से आलेख वचन नहीं हुआ. बल्कि विभिन्न सत्रों में विशेषज्ञ मंडल ने संक्षेप में सत्र के विषय पर केंद्रित अपने विचार व्यक्त किए और बाद में उपस्थित प्रतिनिधियों ने खुली चर्चा में भाग लिया. इस प्रकार प्रत्येक सत्र एक परिसंवाद की तरह संपन्न हुआ जिसकी संपन्नता में उस सत्र के संचालक ने समन्वयक की भूमिका निभाई. निश्चय ही इसका श्रेय विशाखा हिंदी परिषद के अध्यक्ष प्रो. एस. एम. इकबाल और उनके आत्मीय साथी प्रो. एम. वेंकटेश्वर को जाता है. इन दोनों के प्रयास से यह पूरा कार्यक्रम अत्यंत जीवंत संवाद के रूप में संपन्न हुआ.

पहले दिन 10.30 बजे उद्घाटन सत्र आरंभ हुआ. इस अवसर पर प्रो. एस. एम. इकबाल के एक अन्य रोचक प्रयोग की भी खूब सराहना हुई. वह यह कि आयोजक संस्था की ओर से सब विद्वानों को उद्घाटन सत्र के लिए श्वेतवर्णी धोती-कुर्ता का सांस्कृतिक परिधान उपहार स्वरूप प्रदान किया गया – इस ड्रेस कोड को यथासंभव सभी ने प्रमुदित भाव से अंगीकार किया.

उद्घाटन सत्र में प्रो. जी. एस. एन. राजु (कुलपति, आंध्र विश्वविद्यालय, विशाखपट्णम), प्रो. चितरंजन मिश्र (प्रति-कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा), डॉ. उमर अली शाह (पीठाधिपति, विश्वविज्ञान विद्या आध्यात्मिक पीठम, पिठापुरम), डॉ. वी. रामाराव (सचिव एवं संरक्षक, एम. वी. आर. डिग्री एवं पी. जी. कॉलेज, गाजुवाका, विशाखपट्णम) और डॉ. एस. एम. इकबाल (संगोष्ठी संयोजक, अध्यक्ष, विशाखा हिंदी परिषद) मंचासीन हुए. प्रो. जी. एस. एन. राजु ने दीप प्रज्वलित करके संगोष्ठी का उद्घाटन किया. बीज वक्तव्य देते हुए प्रो. चितरंजन मिश्र ने कहा कि 21वीं सदी में हिंदी ने अब तक पिछली शताब्दी की तुलना में बड़ी तेजी से नई उपलब्धियाँ हासिल की है और साहित्य से लेकर तकनीक तक की भाषा के रूप में वह एक संभावनाशील सर्वसमर्थ भाषा सिद्ध हुई है. उन्होंने भाषा को राष्ट्रीयता और संस्कृति का प्रतीक बताते हुए यह भी कहा कि भीतर से सारा भारत देश सांस्कृतिक रूप से एक है तथा हिंदी भारतीय जीवन पद्धति का प्रतीक है. इसलिए भारतीयता को बचाना है तो भाषा को बचाना चाहिए. इस अवसर पर वरिष्ठ हिंदी सेवी, समीक्षक, कवि और अनुवादक प्रो. आदेश्वर राव को 'जीवन साफल्य पुरस्कार' से सम्मानित किया गया.

संगोष्ठी में दोनों दिन दो-दो विचार सत्र या परिसंवाद संपन्न हुए. पहला सत्र ‘साहित्य की पठनीयता : समस्याएँ और समाधान’ पर केंद्रित रहा. इसके समन्वयक प्रो. ऋषभदेव शर्मा (हैदराबाद) रहे. विषय के विविध पक्षों पर प्रो. चितरंजन मिश्र (वर्धा), प्रो. दिनेश चौबे (शिलंग), डॉ. पटनायक (भुवनेश्वर) और प्रो. के. वनजा (कोचीन) ने आधार वक्तव्य प्रस्तुत किए. ‘भारतीय साहित्य और अनुवाद’ शीर्षक दूसरे सत्र के समन्वयक रहे प्रो. एम. वेंकटेश्वर (हैदराबाद). इस सत्र में आधार वक्तव्य प्रो. आर. एस. सर्राजू (हैदराबाद), प्रो. शंकरलाल पुरोहित (भुवनेश्वर), प्रो. मोहनन (कोचीन) और डॉ. वेन्ना वल्लभराव (विजयवाडा) ने रखे. तीसरे सत्र का विषय था ‘नए गद्य रूपों की प्रासंगिकता’. इसका समन्वयन डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (हैदराबाद) ने किया और आधार वक्तव्य डॉ. रविकुमार (पटियाला), डॉ. के. वनजा (कोचीन) और डॉ. एम. वेंकटेश्वर (हैदराबाद) ने प्रस्तुत किए. चौथे सत्र में ‘देवनागरी लिपि बनाम रोमन लिपि’, ‘सोशल मीडिया’ तथा ‘सिनेमा की भाषा’ जैसे विविध पहलुओं पर खुली चर्चा प्रो. एम. वेंकटेश्वर (हैदराबाद) के सूत्रधारत्व में निष्पन्न हुई. विभिन्न चर्चाओं में प्रो. आदेश्वर राव (विशाखपट्णम), डॉ. कृष्ण बाबू (विशाखपट्णम), डॉ. अरविंद गुरु, डॉ. मंजरी गुरु (मंडला), डॉ. पूर्णिमा शर्मा (हैदराबाद), डॉ. बी. सत्यानारण (हैदराबाद), डॉ. राधा (हैदराबाद), डॉ. हेमलता (विशाखपट्णम), डॉ. सुमन (भुवनेश्वर), डॉ. दीपा गुप्ता (विशाखपट्णम) आदि ने सक्रिय भूमिका निभाई.

सभी चर्चाएँ अत्यंत सौहार्दपूर्ण वातावरण में तथा गहन अकादमिक गंभीरता के साथ संपन्न हुईं. कुल मिलाकर यह महसूस किया कि विविध प्रयोजनवती होकर नई सदी में हिंदी नए रूप में उभर रही है. हिंदी का यह नया रूप सब प्रकार की कट्टरताओं से मुक्त और अलग अलग प्रयोजनों के लिए अलग अलग रूप वाला तथा संप्रेषण को सर्वोपरि मानने वाला है.
यह विवरण अधूरा रहेगा अगर यह न बताया जाए कि अकादमिक चर्चाओं के अतिरिक्त एक ओर तो गंगा जमुनी कवि सम्मलेन और संगीत सभा तथा दूसरी ओर सिम्हाचलम, कैलाशगिरि, ऋषिकोंडा समुद्र तट और पोर्ट के पर्यटन के कारण यह संगोष्ठी सभी प्रतिनिधियों के लिए अविस्मरणीय बन गई. पिछले साल आए चक्रवाती तूफान हुदहुद की विनाशलीला के चिह्न मनुष्यों के मन और पर्यावरण के तन पर अभी भी शेष है – लेकिन यह वसंत उन पर हरियाली का परचम फैरता हुआ जिजीविषा का संदेश दे रहा है.  

दूसरे दिन दोपहर बाद ढाई बजे से समापन सत्र आरंभ हुआ. इस सत्र के मुख्य अतिथि आंध्र विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ. वी. उमा महेश्वर राव के साथ डॉ. एस. एल. पुरोहित (भुवनेश्वर), डॉ. दिनेश चौबे (शिलांग), डॉ. चितरंजन मिश्र (वर्धा) और संगोष्ठी-संयोजक डॉ. एस. एम. इकबाल मंचासीन थे. इस सत्र के संचालाक थे डॉ. एम. वेंकटेश्वर. अगले वर्ष फिर किसी और शहर में मिलने के संकल्प के साथ सब ने एक-दूसरे से विदा संदेशों का लेन-देन किया. प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने भरोसा दिलाया कि इस शृंखला का अगला आयोजन हैदराबाद में होगा.
 
चित्र परिचय :
1.    उद्घाटन सत्र में दीप प्रज्वलित करते हुए प्रो. जी. एस. एन. राजु (कुलपति, आंध्र विश्वविद्यालय, विशाखपट्णम). साथ में प्रो. एस. एम. इकबाल, प्रो. चितरंजन मिश्र, डॉ. उमर अली शाह और डॉ. वी. रामाराव.  

2.    परिसंवाद के दौरान प्रो. रविकुमार (माइक पर), प्रो. एम. वेंकटेश्वर, प्रो. के. वनजा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.

 

संपर्क

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,

खैरताबाद, हैदराबाद – 500 004

ईमेल – neerajagkonda@gmail.com  

 
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सादर 

नीरजा 

saagarika.blogspot.in

srawanti.blogspot.in

http://hyderabadse.blogspot.in

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सशक्तिकरण की अनोखी मिसाल- बस्‍तर की आदिवासी महिलायें

आदिवासी समाज में महिला पुरूष की साथी है। वह उसकी सहकर्मी है। उसकी समाज और परिवार में बराबर की भागीदारी है। जी हां बस्‍तर की आदिवासी महिलाएं हम शहरी महिलाओं की तरह अपने परिवार के पुरूष सदस्‍यों की मोहताज नहीं हैं। उन्‍हें बाजार से सब्‍जी-भाजी और सौदा मंगवाने से लेकर खेतों में हल चलाने तक के लिए अपने बेटे या पति का मुंह नहीं ताकना पड़ता है। वह हम शहरी महिलाओं से कई मायनों में बहुत ज्‍यादा समर्थ हैं। महिलाओं के सशक्तिकरण का प्रतीक अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस उनके जिक्र के बगैर पूरा नहीं हो सकता। ये न सिर्फ घर के कामकाज करती हैं, बाल-बच्‍चे पालती हैं बल्कि पूरे दिन खेतों में काम करती हैं। इनका पूरा साल खेतों में कभी निंदाई-गुड़ाई करते तो कभी, बीज बोते गुजरता है। बस्‍तर की आदिवासी महिलाओं के अधिकार असीमित हैं। वह घर से बाहर तक की पूरी व्‍यवस्‍था संभालती हैं और हर कदम पर पति उसके साथ होता है। बड़ी मेहनती हैं ये महिलाएं।

      इनके कामकाज का दायरा खेत-खलिहाल और हाट बाजार तक का है। और गांवों में दिन कटते देर नहीं लगती। इस तरह खेत का पूरा जिम्‍मा यही उठाती हैं। बीज लाना, उन्‍हें मूसलाधार बारिश में रोपना और कड़ी धूप में चौकीदारी करने के बाद काटना यह सब उन्‍हीं के जिम्‍मे है। यहां तक कि बाजार में इसे बेचने भी वही ले जाती हैं। ऐसी महिलाएं जो खेती नहीं करतीं, घर में बाड़ी में उगी सब्जियां और जंगली उत्‍पादों जैसे महुआ, टोरा, जलाऊ लकड़ी, लाख, आंवला, झाडू वगैरह को परिवार की आमदनी का जरिया बना लेती हैं। और इस पूरी कवायद में पति उसके साथ रहता है। जब महिला खेत में जूझ रही होती है तो पति घर में बच्‍चों की देखभाल में लगा रहता है। वह उनके लिए खाना पकाता है। बारिश से बचाव के लिए छत की मरम्‍मत जैसे छोटे-मोटे काम करता है। आंगन की बाड़ी में सब्जियों, फलों, लताओं की संभाल करता है और घर के बुजुर्गों की देखभाल करता है। हर कदम पर पारस्‍परिक सहयोग और महिला अस्मिता के सम्‍मान की अनूठी मिसाल हे बस्‍तर का आदिवासी समाज। इस समाज में महिला अपनी मर्जी की मालिक है। उसकी स्‍वायत्‍ता बल्कि अधिकारिता की बढि़या मिसाल तो यही है कि वह न केवल अपना जीवनसाथी खुद चुन सकती है बल्कि चाहे तो पहले उसे ठोंक-बजाकर परख सकती है। इस परंपरा को लमसेना कहा जाता है। इसके तहत शादी के योग्‍य युवक को युवती के घर में रहकर काम-काज में मदद करके अपनी योग्‍यता सिद्ध करनी पड़ती है। इस परीक्षा में फेल या पास करने का अधिकार पूरी तरह से युवती पर होता है। लमसेना बैठाने की यह परंपरा सरगुजा और मंडला के गोंड समाज में भी है।
      यही नहीं इससे पहले परिवार और घरेलू कामकाज के प्रशिक्षण के‍ लिए उन्‍हें घोटुल जाने की छूट है। विदेशी सिनेमाकारों ने हालांकि इस संस्‍था की नाइट क्‍लब से तुलना कर खासा बदनाम कर रखा है पर वास्‍तव में ऐसा है नहीं। यह आदिवासी नौजवानों के संस्‍कार गृह हैं। घर के कामकाज से निपटकर युवक-युवती रात में यहां जुटते हैं और किसी सयानी महिला की निगरानी में नाचते-गाते और कामकाज सीखते हैं। मन मिल गया तो शादी के साथ युवा जोड़े की घोटुल से विदाई हो जाती है। वे फिर उधर का रूख नहीं कर सकते। घोटुल अब बस्‍तर के परिवेश से गायब हो चले हैं। शहरी खासतौर पर मीडिया की दखलंदाजी ने इस संस्‍था को लुप्‍त होने पर मजबूर कर दिया है। पर आदिवासी युवती की निरपेक्ष स्थ्‍िाति की इससे बेहतर मिसाल और क्‍या हो सकती है?

आदिवासी युवतियों को अकेलेपन से भी डर नहीं लगता। बस्‍तर के सुदूर नक्‍सल प्रभावित इलाकों में ऐसी कई युवतियां हैं जिनके विख्‍यात परिवारों में अब जायदाद संभालने वाले नहीं रहे। पर वे वहां न केवल विरासत संभाल रही हैं बल्कि उनके परिवार की छत्रछाया की दरकार रखने वाले आदिवासियों को आसरा भी दे रही हैं। बड़े आदिवासी परिवारों की लड़कियां हैं गांव छोड़कर दिल्‍ली से लंदन तक कहीं भी बस सकती थीं। उनका समर्पण देखिए, जज्‍बा देखिए अपने लोगों के लिए स्‍नेह देखिए।

यह स्थिति तब है जब घने जंगलों के बीच बसे गांवों में सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती, जंगली जानवरों का खतरा मंडराता रहता है और अस्‍पताल में दवाइयों का पता नहीं रहता और स्‍कूल बदहाल हैं। यदि इन्‍हें शहरी लोगों से मामूली या बराबर की सुविधाएं मिल जाएं तो इनकी हिम्‍मत, इनका जज्‍बा और ताकत बोजड़ होगी यह तय मानिए।
 
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लेखिका वरिष्‍ठ पत्रकार हैं

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श्रीमती चारु हर्षद शेठ – महिला सशक्तिकरण का उदाहरण

बी ए तक शिक्षा प्राप्त श्रीमती चारु हर्षद शेठ का विवाह 4 मई 1974 को श्री हर्षद शेठ के साथ हुआ था । उनके शादी के बाद की जिंदगी 8’x 8’ के रूम से शुरू हुई । शादी के बाद स्कूल में नौकरी और ट्यूशन , दोनों पति पत्नी ने  कड़ी मेहनत से बच्चो को  इंग्लिश स्कूल में पढ़ाया । दो लड़की और एक लड़का,  खुशी हर हाल में ढूंढ लेते थे , न कोई शिकवा न शिकायते । मेहनत और नसीब से एक –एक बच्चे के जन्म के बाद भाग्य का एक –एक दरवाजा खुलता चला गया । पाँच लोगों का खुशहाल परिवार देख के शायद सबको खुशी मिलती थी ,ऐसा परिवार में खुशहाली  थी ।  

मगर किस्मत को खुशी मंजूर न थी । मुँह में निवाला आते – आते कुदरत ने निवाला छीन लिया। लड़का अतुल शायद उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती थी , 19 साल की भरी जवानी में भगवान को प्यारा हो गया , वो सदमा बर्दाश्त करना परिवार के बस के बाहर था । वसई में बहुत ही फैला हुआ कारोबार था और चारुबेन अपने पति का कारोबार में पहले से ही हाथ बटाती थी । दो लड़की थी , जिनकी समय से शादी हो गई । दोनों लड़कियों कभी लड़के की कमी महसूस नहीं होने दी । हमेशा परिवार की ताकत बन कर खड़ी रही । बाप के कंधे पर बेटे का जनाजा ,यह सदमा श्री हर्षत शेठ  से बर्दाश्त नहीं हो रहा था , ये गम उन्हे अंदर ही अंदर खाये जा रहा था और अगले पाँच साल में तो अचानक हार्ट अटेक आने से 2005 में इस संसार से अलविदा करके चले गए । 

यह दु:ख मानो  श्रीमती चारुबेन पर पहाड़ बन कर टूट पड़ा । उनकी दो बेटियों ने बाप की अर्थी को कंधा दिया और अग्नि संस्कार भी बेटियों ने करके बेटा होने का फर्ज़ अदा किया । हरेक पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है मगर श्रीमती चारुबेन की सफलता के पीछे उनके पति का हाथ है जिन्होने उन्हे पहले से ही अपने कारोबार में शामिल कर रखा था । पति के जाने के बाद श्रीमती चारुबेन की दोनों बेटियों प्रीति और बेला  उनकी ताकत बनी , जिन्होने हमेशा माँ का हौसला बढ़ाया । आज भी पति के जाने के 9 साल बाद भी वह अपना कारोबार अच्छी तरह संभाल रही है और हर हाल में खुश रहती है तथा दूसरों को खुशी बांटती है । वह कभी अपने को अकेला महसूस नहीं करती है । उनका मानना है कि वसई उनकी कर्मभूमि है और वो जो कुछ भी है वो वसई की ही देन है ।मैं  वसई ईस्ट सीनियर सिटिज़न असोशिएशन की सदस्य हूँ और आज मेरा  परिवार वसई ईस्ट सीनियर सिटिज़न असोशिएशन के सदस्य गण भी है । मैं असोशिएशन की आभारी हूँ जो उन्होने मुझे इस महिला दिवस पर मुख्य अतिथि बनाया है ।  

 

संपर्क
अशोक भाटिया
HON.SECRETARY 
VASAI EAST SENIOR CITIZEN'S ASSOCIATION(Regd)
A / 001 , VENTURE APARTMENT ,NEAR REGAL, SEC 6, LINK ROAD , VASANT NAGARI ,
VASAI EAST -401208
DIST – ( PALGHAR  MAHARASHTRA )
 MOB. 09221232130-07757073896

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रेल मंत्रालय द्वारा मेक इन इंडिया की शुरुआत

रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'मेक इन इंडिया॑  की पहल को आगे बढ़ाते हुए भारतीय रेलवे में दो बड़े एफडीआई प्रस्तावों को हरी झंडी दे दी है। सुरेश प्रभु ने बिहार में 2,400 करोड़ रुपए की लागत से डीजल और इलेक्ट्रिक इंजन कारखाना लगाने के बारे में दो बड़े प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) प्रस्तावों को हरी झंडी दे दी है। रेलवे ने अच्छे खासे विलंब के बाद मधेपुरा के इलेक्ट्रिक इंजन कारखाने व मरहोड़ा के डीजल इंजन कारखाने को लेकर चला आ रहा असमंजस समाप्त करते हुए ऊंचे मूल्य की संयुक्त उद्यम परियोजनाओं की वित्तीय बोली को अंतिम रूप दे दिया है। इसके लिए रेलवे ने बोली दस्तावेज की कई बार समीक्षा की।

 दोनों संयंत्रों के लिए वित्तीय बोली दस्तावेजों वाले प्रस्ताव के लिए आग्रह (आरएफपी) तैयार हैं और छांटी गई बोली लगाने वाली कंपनियों को इसकी सूचना दे दी गई है। मधेपुरा के प्रस्तावित इलेक्ट्रिक इंजन कारखाने के लिए चार वैश्विक कंपनियां अल्सटाम, सीमंस, जीई व बाम्बार्डियर का नाम छांटा गया है। वहीं मरहोड़ा के डीजल इंजन कारखाने के लिए दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों जीई व ईएमडी का नाम छांटा गया है। इन दोनों कारखानों की अनुमानित लागत 1,200-1,200 करोड़ रुपये है। अधिकारी ने बताया कि वित्तीय बोली 31 अगस्त को खोली जाएगी।

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मन डोलय रे मांघ फगुनवा,रस घोलय रे मांघ फगुनवा

अनुराग की मादक छाई छटा,अलि के मन को नशीला किया।
तितली बन नाच परी-सी चली,अनुशासन धर्म-का ढीला किया।
रंग देख पिकी हो विभोर उठी,विधि ने शिखी आँचल गीला किया
ऋतुराज पिता ने बड़े सुख से,जब मेदिनी का कर पीला किया।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भले ही विविध प्रकार से रंगों का उत्सव मनाया जाता है परंतु सबका उद्देश्य एवं भावना एक ही है। ब्रज मंडल में इस अवसर पर रास और रंग का मिश्रण देखते ही बनता है। बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और विभिन्न मंदिरों में पूजा अर्चना के पश्चात जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग 'बरसाना' आते हैं।

होलिका फाल्गुन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। इस दिन इस पर्व को वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कुछ स्थानों पर फाल्गुन पूर्णिमा के कुछ दिन पूर्व ही वसंत ऋतु की रंगरेलियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। वस्तुत: वसंत पंचमी से ही वसंत के आगमन का संदेश मिल जाता है। होलिकोत्सव को फाल्गुन-उत्सव भी कहते हैं। यह प्रेम, नव-सृजन और सदभावना का पर्व है। सड़क पर, गलियों में,गृह-द्वार पर धनी-निर्धन, जाति-पंक्ति का भेद मिट जाता है। इस प्रकार होली प्रेम,उल्लास और समानता का पर्व है। प्रह्लाद का अर्थ आनंद होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद अक्षुण्ण रहता है।

पहले होली का त्यौहार पाँच दिन तक मनाया जाता था इसके कारण पहले रंग पंचमी भी मनाई जाती थी। लेकिन अब यह दो दिन ही मनाया जाता है। वसंत के साथ ही प्रकट होते हैं- अनेक रंग के फूल, सुगंध, भौंरों के गुंजार और तितलियों के बहुरंगी विहार। सर्दी की विदाई  के साथ सुहानी धूप में जब सरसों के पीले फूलों की आमद होती है तब आती है ऋतुराज बसंत की बारी और महक उठती है फूलों की क्यारी। हर तरफ़ रंग घुलने लगते हैं, मस्ती के, हंसी के, मन मोहक गुलाल, अबीर कोई टोकाटाकी नहीं। बस गुलाल तो लगानी ही है।

समय के साथ अनेक चीज़ें बदली हैं लेकिन इस पर्व की मोहकता और मादकता की मिसाल नहीं। सभी इसका इंतज़ार करते हैं। आज भी भारत के गाँव में इस दिन जितना हो सके पुराने कपड़े पहनते हैं तथा धूल कीचड़ रंग गोबर काला जो भी हाथ लगे रंग देते हैं, कह देते हैं बुरा न मानों होली है। इन रंगों के घुलने के साथ ही तरोताज़ा रहती है साल भर होली की यादें प्यारी-सी हँसी, घूँघट से झाँकती प्रेयसी इसी इंतज़ार में निहारती है कि कब मुझे रंगेगा मेरा यार। भूल जाते हैं गम़ सब हो जाते हैं एकसार। ऐसा है होली का त्यौहार।

प्राचीन काल से अविरल होली मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं किया गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे और जहाँ आरा के बाग में होली के मेले भरते थे। भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी होली अथवा होली से मिलते-जुलते त्योहार मनाने की परंपराएँ हैं। कवियों और कलाकारों का सदाबहार विषय ऋतुराज वसंत केवल प्रकृति को ही नवीन नहीं करता भिन्न कलाकारों को भिन्न प्रकार की प्रेरणाओं से भी अभिभूत करता है। लोक साहित्य हो या इतिहास पुराण, चित्रकला या संगीत इस ऋतु ने हर कला को प्रभावित किया है। यहाँ तक कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है। इतिहास पुराण भी इसके उल्लेखों से बचे नहीं हैं। किंवदंतियों और हास्य कथाओं के ख़ज़ानों में भी इस पर्व का ज़ोरदार दख़ल है।

एक किंवदंती यह है कि जब पार्वती के लाख प्रयत्न के बाद भी भगवान भोलेनाथ प्रसन्न नहीं हुए तो नारद के कहने पर कामदेव को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा गया। कामदेव ने शंकर को रिझाने के लिए कई यत्न किए थे लेकिन भगवान शंकर ने रुष्ट होकर कामदेव को ही जला दिया ऐसे में संसार का सृजन चक्र ही रुक गया। रति ने अपने पति को जीवित करने के लिए भगवान को मनाया और कामदेव नि:शरीर जीवित हो गए। इस खुशी में भी होली मनाई जाती है।

हिरण्यकश्यपु की कहानी भी इससे जुड़ी हुई है। लाख मना करने पर भी प्रह्लाद ने भगवान विष्णु का नाम जपना नहीं छोड़ा। उधर हिरण्यकश्यपु भी महान प्रतापी था, उसने भगवान ब्रह्मा एवं शिव से ऐसे वरदान माँग रखे थे कि उसे कोई सामान्य नर, नारी, पशु या पक्षी कोई भी मार नहीं सकता था। ऐसी स्थिति में भगवान नृसिंह को उग्र रूप धारण करके विशेष समय, परिस्थिति और रूप में अवतरित हो कर भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए आना पड़ा।

कृष्ण और राधा की अनेक कथाओं के साथ होली और वसंतोत्सव के वर्णन मिलते हैं। गोकुल की ग्वालिनें अपने आराध्य कान्हा को रिझाने के लिए अनेक लीलाएँ रचा करती थी जिसमें रंग, गुलाल और जल क्रीडाएँ शामिल थीं। एक अन्य किंवदंती के अनुसार पूतना राक्षसी के वध की खुशी में भी होली मनाई जाती है। कृष्ण की जन्म और कर्म भूमि मथुरा वृंदावन ब्रज बरसाने और गोकुल में आज भी होली की धूम देखते ही बनती है।

होली के पर्व का सुंदर विवरण संस्कृत में दशकुमार चरित एवं गरूड पुराण में तथा हर्ष द्वारा रचित नाटक रत्नावली (जो सातवीं सदी में लिखा गया था) में मिलता है। उस समय इसे वसंतोत्सव के रूप में मदनोत्सव के रूप में मनाते थे। भवभूति, कालिदास आदि ने भी अपने महाकाव्यों में रंग रंगीली होली के बारे में दत्त चित्त हो कर वर्णन किया है।

होली पर अलग-अलग स्थान पर अपने किस्म की निराली परम्पराएं देखी  जा सकती हैं। मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फैंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है। पंजाब और हरियाणा में होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने होली के लिए  होला महल्ला शब्द का प्रयोग किया। गुरु जी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे। होला महल्ला का उत्सव आनंदपुर साहिब में छ: दिन तक चलता है। 

राजस्थान में भी होली के विविध रंग देखने में आते हैं। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली कजद जाति के लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। राजस्थान के सलंबूर कस्बे में आदिवासी 'गेर' खेल कर होली मनाते हैं। जब युवक गेरनृत्य करते हैं तो युवतियाँ उनके समूह में सम्मिलित होकर फाग गाती हैं। युवतियाँ पुरुषों से गुड़ के लिए पैसे माँगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी युवक-युवतियाँ अपना जीवन साथी भी चुनते हैं।

मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। शांति निकेतन में होली अत्यंत सादगी और शालीनतापूर्वक मनाई जाती है। प्रात: गुरु को प्रणाम करने के पश्चात अबीर गुलाल का उत्सव, जिसे 'दोलोत्सव' कहा जाता है, मनाते हैं। पानी मिले रंगों का प्रयोग नहीं होता। सायंकाल यहाँ रवींद्र संगीत की स्वर लहरी सारे वातावरण को गरिमा प्रदान करती है। भारत के अन्य भागों से पृथक बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण प्रतिमा का झूला प्रचलित है। इस दिन श्री कृष्ण की मूर्ति को एक वेदिका पर रख कर सोलह खंभों से युक्त एक मंडप के नीचे स्नान करवा कर सात बार झुलाने की परंपरा है।

मणिपुर में होली का पर्व 'याओसांग' के नाम से मनाया जाता है। यहाँ दुलेंडी वाले दिन को 'पिचकारी' कहा जाता है। याओसांग से अभिप्राय उस नन्हीं-सी झोंपड़ी से है जो पूर्णिमा के अपरा काल में प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। इसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पूजन के बाद इस झोंपड़ी को होली के अलाव की भाँति जला दिया जाता है। इस झोंपड़ी में लगने वाली सामग्री ८ से १३ वर्ष तक के बच्चों द्वारा पास पड़ोस से चुरा कर लाने की परंपरा है। याओसांग की राख को लोग अपने मस्तक पर लगाते हैं और घर ले जा कर तावीज़ बनवाते हैं। 'पिचकारी' के दिन रंग-गुलाल-अबीर से वातावरण रंगीन हो उठता है। बच्चे घर-घर जा कर चावल सब्ज़ियाँ इत्यादि एकत्र करते हैं। इस सामग्री से एक बड़े सामूहिक भोज का आयोजन होता है।

प्राचीन काल से अविरल होली मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं किया गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया।  मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे और जहाँ आरा के बाग में होली के मेले भरते थे। इसी तरह होली विश्व के कोने-कोने में उत्साहपूर्वक मनाई जाती है। भारत में यह पर्व अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक पक्षों के कारण हमारे संपूर्ण जीवन में रच बस गया है। यह पर्व स्नेह और प्रेम से प्राणी मात्र को उल्लसित करता है। इस पर्व पर रंग की तरंग में छाने वाली मस्ती जब तक मर्यादित रहती है तब तक आनंद से वातावरण को सराबोर कर देती है। सीमाएँ तोड़ने की भी सीमा होती है और उसी सीमा में बँधे मर्यादित उन्माद का ही नाम है होली।

होली का रंग-बिरंगा त्योहार हमारे देश का सबसे लोकप्रिय और प्रचलित त्योहार है। वस्तुत: यह त्यौहार मनाया जाने वाला उतना नहीं हैं, जितना कि खेला जाने वाला है। घर-घर और गली मोहल्लों में यह रंगीन त्यौहार इस प्रकार मुखरित होता है कि बच्चों से लेकर बुढ्ढ़े, नर-नारियों तक होली के रंग में सराबोर हो जाते हैं – इन रंग-बिरंगे चेहरों में हमारी भारतीय संस्कृति तथा हमारा भारतीय जीवन दर्शन मुखरित होता है। रंगों की अनेकता में हमारी सांस्कृतिक और दार्शनिक एकता का स्वरूप निहित है।

होली पर प्रयोग में आने वाला दूसरा रंग पीला होता है। प्राचीन काल में भारत में टेसू के फूलों से बनाया जाने वाला पीला रंग प्रचलित था। पीला रंग ज्ञान का प्रतीक है।ज्ञान हमारे मानसिक विकास का अग्रदूत है। ज्ञान हमें हमारे वास्तविक अस्तित्व का बोध कराता है और इंगित कराता है कि हमारे लिए क्या भला है और क्या बुरा? ज्ञान का प्रकाश अपार और अपरिमित होता है। खेतों में फूली हुई पीली सरसों हमारी समृद्धि के स्वप्न का केंद्र बिंदु है। पीला रंग पौरुष, शौर्य और निर्भीकता का भी परिचायक है। 

हरा रंग हमारी समृद्धि का परिचायक है। वर्षा काल में धरती पर दिखाई देने वाली हरियाली वृक्षावलियाँ प्रकृति की समृद्धि का आधार हैं। समृद्धि में ही विकास छिपा है और विकास में निहित है जीवन का अग्रगामी प्रगतिशील सोपान। शुभ और मांगलिक पर्वों पर हरे रंगों का प्रयोग हमारी अनादि संस्कृति का आधार है। घर में किसी नवजात शिशु के जन्म पर जच्चा हरी चूडियाँ पहनती हैं तथा अपनी और अपने शिशु की समृद्धि की कामना करती हैं।  हरा रंग मन के लिए लुभावना और आँखों के लिये सुखद लगता है। होली का हरा रंग समृद्धि का प्रतिनिधि माना जाता है।

रंगी गुलाल मे मिली हुई चमकती अबीर अपनी सफ़ेदी के कारण बड़ी भली लगती है। सफ़ेद रंग सतोगुण का प्रतीक है । पवित्रता का आधार है सदाचार जो जीवन को निर्मल बनाता है। निर्मलता हमें सत्कार्यों के लिए प्रेरणा देती है। सत्कार्य जीवन की विशाल उज्ज्वलता की नींव होते हैं। उज्ज्वलता हमारी महानता का सूचक हैं, महानता में ही अपार धैर्य व कर हम अपनी और अपने देश की ओर से शांति की कामना अभिव्यक्त करते हैं। शांति की इसी कामना की भूमि में सहअस्तित्व का बीजारोपण होता है, जिसमें पवित्रता, शांति, स्वच्छता, निर्मलता और सदाचार के सतोगुणी वृक्ष पुष्पपित एवं पल्लवित होते हैं।

अत: हम होली के इस पावन पर्व पर रंग-बिरंगे अबीर और गुलाल उड़ाकर तथा एक – दूसरे पर रंग डालकर आपस में परस्पर प्रसन्नता, शक्ति, ज्ञान, समृद्धि व शांति की कामना करते हैं। यह होली का एक अव्यक्त दार्शनिक पक्ष है,जो हमारे इस सांस्कृतिक पर्व के अवसर पर हमारे समक्ष साकार अवतरित होता है। हाँ,त्यौहार की खुशियों के साथ हमारे कुछ सामाजिक कर्तव्य भी हैं, जिन्हें अवश्य याद रखना चाहिए। हमारी संस्कृति में ही जल को देवता माना गया है. हम जल की पूजा करते हैं. जल के बिना हमारा कोई धार्मिक अनुष्ठान संपन्न नहीं होता. जल के प्रति श्रद्धा हमारे संस्कारों में है, इसलिए जल संरक्षण का ध्यान भी रखा जाना चाहिए।
     
होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह अश्लील गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं। लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं। ऐसे प्रयत्नों में सब को साथ देना होगा। 

निराला जी इस ऋतु में झूमकर कहते हैं –

हँसी के तार के होते हैं ये बहार के दिन।
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन।

हवा चली, गले खुशबू लगी कि वे बोले,
समीर-सार के होते हैं ये बहार के दिन।

और यह भी कि हमारी छत्तीसगढ़ी 'भाखा' भी तो होली पर झूमती-गाती कह उठती है –  

मन डोलय रे मांघ फगुनवा
रस घोलय रे मांघ फगुनवा
राजा बरोबर लगे मौर आमा
रानी सही परसा फुलवा
मन डोलय रे मांघ फगुनवा
रस घोलय रे मांघ फगुनवा
रस घोलय रे मांघ फगुनवा
हो मन डोलय रे मांघ फगुनवा

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प्राध्यापक,दिग्विजय पीजी कालेज,
राजनांदगांव। मो.9301054300 

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नौंवी कक्षा की छात्रा का आविष्कार नई जिंदगी देगा विकलांगों को

पटना की शालिनी कुमारी के एक इनोवेटिव आइडिया ने उसकी जिंदगी बदल दी है। मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाली शालिनी के आइडिया पर आधारित आविष्कार अगले महीने बाजार में उतरने जा रहा है, जिससे उसे लाखों की कमाई होने की उम्मीद है। राष्ट्रपति भवन में आयोजित इनोवेशन फेस्टेवल के दौरान शालिनी के आइडिया पर नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (एनआईएफ) की तरफ से तैयार किए गए एडजस्टेबल वॉकर को भी प्रदर्शित किया गया है। शालिनी ने 2011 में यह आइडिया सुझाया था तब वह हार्टमैन गर्ल्स स्कूल की नौवीं कक्षा की छात्रा थी। उसके दादा को दुर्घटना में चोट लगने के कारण चलने-फिरने में दिक्कत होती थी और वे वॉकर इस्तेमाल करते थे। लेकिन वे वॉकर से सीढिम्यां नहीं चढ़ पाते।

शालिनी ने इस समस्या का समाधान खोजा। उसने एक ऐसे वॉकर की कल्पना की जिसकी आगे की दो टांगे छोटी-बड़ी की जा सकती हों। उसने इसका डिजाइन तैयार किया और एनआईएफ की आइडिया प्रतियोगिता इग्नाईट में भेजा। उसे दो लाख रुपये का पहला पुरस्कार मिला। इसके बाद शालिनी के आइडिया पर एडजेस्टबल वॉकर तैयार किया गया।

पिछले साल यह तकनीक जब एनआईएफ ने नागपुर की एक कंपनी कबीरा सोल्यूशन को सौंपी गई तो तकनीक के आविष्कार के लिए शालिनी को एकमुश्त दो लाख की राशि प्रदान की गई। शालिनी और कंपनी के बीच हुए समझौते के तहत भविष्य में हर वॉकर की बिक्री पर कंपनी उसे सौ रुपये बतौर रायल्टी देगी। एनआईएफ के अनुसार कंपनी सात अप्रैल को वॉकर को व्यावसायिक रूप से बाजार में उतारने जा रही है। पहले चरण में दस हजार वॉकर उतारे जा रहे हैं। जिनकी बिक्री से शालिनी को दस लाख रुपये और मिलेंगे। बता दें कि सात मार्च को जब राष्ट्रपति ने जमीन से जुड़े आविष्कारकों को सम्मानित किया था तो उन्हें भी 25 हजार रुपये का सांतवना पुरस्कार दिया गया था। यह वॉकर जहां बुजुर्गों, बीमार लोगों के जीवन को बदल देगा वहीं शालिनी के करियर को भी इससे नया आयाम मिला है।

मेरे दिमाग में चल रहे हैं कई अनोखे आइडिया
राष्ट्रपति भवन में शालिनी ने बताया कि उसके मन में ऐसे कई और अनोखे आइडिया घूम रहे हैं। मसलन, वह बसों में सफर के दौरान छूट जाने वाले यात्रियों को खोजने के लिए कोई तकनीक विकसित करना चाहती हैं। लेकिन अभी वह अपना सारा ध्यान प्री-मेडिकल परीक्षा की तैयारी में दे रही है। ताकि अपने डॉंक्टर बनने के सपने को साकार कर सके।

-साभार- http://www.livehindustan.com/ से 

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फिल्मी दुनिया के इन गौभक्षियों को पहचानो

समाचार एजेंसी भाषा ने खबर दी है कि  फरहान अख्तर, आयुष्मान खुराना और रिचा चड्ढा समेत कई बॉलिवुड हस्तियों ने महाराष्ट्र में बीफ पर लगी पाबंदी का विरोध  करते हुए सोमवार को इसे 'मानवाधिकारों का उल्लंघन' बताया। राज्य में गोहत्या पर पाबंदी लगाने से जुड़ा बिल कई साल से अटका हुआ था। इसे सोमवार को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मंजूरी दे दी।

फिल्म डायरेक्टर ओनिर ने ट्विटर पर लिखा कि बीफ पर पाबंदी मानवाधिकारों का उल्लंघन है। मैं क्या खाऊं, यह सरकार तय नहीं कर सकती। लगता है कि भारत का 'लोकतांत्रिक' संविधान विविधता सुनिश्चित नहीं करता। बीफ पर पाबंदी इसका निराशाजनक परिचायक है। रिचा चड्ढा ने कहा कि मैं शाकाहारी हूं लेकिन गोमांस पर पाबंदी सांप्रदायिक राजनीति है।

स्टैंड अप कमीडियन वीर दास ने राजनेताओं पर निशाना साधते हुए कहा, 'प्रिय सरकार आइए, बीफ के साथ दांतों पर बैन लगाते हैं। हम उबली सब्जियों पर जी सकते हैं और इस तरह आपके नेता नफरत फैलाने वाला भाषण नहीं दे सकेंगे।' ऐक्टर रणवीर शौरी ने ट्विटर पर लिखा कि खाने पर पाबंदी लगाना बंद करें। शुक्रिया।

फरहान अख्तर ने ट्वीट किया – तो अब महाराष्ट्र में आपको किसी से शिकायत (बीफ) हो सकती है लेकिन आप किसी के साथ बीफ खा नहीं सकते (यू कैन हैव बीफ (शिकायत) विद समवन, बट यू कांट हैव बीफ विद समवन)।

आयुष्मान खुराना ने विशाल भारद्वाज की फिल्म 'कमीने' के तोतले किरदार से प्रेरणा लेते हुए लिखा, 'बीफ फाल बाद 'कमीने'।' 'कमीने' फिल्म में शाहिद कपूर का किरदार स को फ बोलता था।

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कश्मीरः इतिहास में अटकी सूईयां

 

 
  कश्मीर में भाजपा ने जिस तरह लंबे विमर्श के बाद पीडीपी के साथ गठबंधन की सरकार बनाई, उसकी आलोचना के लिए तमाम तर्क गढ़े जा सकते हैं। किसी भी अन्य राजनीतिक दल ने ऐसा किया होता तो उसकी आलोचना या निंदा का सवाल ही नहीं उठता, किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो महापाप हो गया। यहां तक कि कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी लग रहा है कि भाजपा के इस कदम से डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आत्मा को ठेस लगी होगी।

   यह समझना बहुत मुश्किल है कि भाजपा जब एक जिम्मेदार राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करते हुए विवादित सवालों से किनारा करते हुए काम करती है तब भी वह तथाकथित सेकुलर दलों की निंदा की पात्र बनती है। इसके साथ ही जब वह अपने एजेंडे पर काम कर रही होती है, तब भी उसकी निंदा होती है। यह गजब का द्वंद है, जो हमें देखने को मिलता है। अगर डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सम्मान और 370 की चिंता भाजपा को नहीं है तो उमर या फारूख क्या इस सम्मान की रक्षा के लिए आगे आएंगें? जाहिर तौर पर यह भाजपा को घेरने और उसकी आलोचना करने का कोई मौका न छोड़ने की अवसरवादी राजनीति है। क्यों बार-बार एक ऐसे राज्य में जहां भाजपा को अभी एक बड़े इलाके की स्वीकृति मिलना शेष है कि राजनीति में उससे यह अपेक्षा की जा रही है कि वह इतिहास को पल भर में बदल देगी।

साहसिक और ऐतिहासिक फैसलाः
    भाजपा का कश्मीर में पीडीपी के साथ जाना वास्तव में एक साहसिक और ऐतिहासिक फैसला है। यह संवाद के उस तल पर खड़े होना है, जहां से नई राहें बनाई जा सकती हैं। भाजपा के लिए कश्मीर सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं, एक भावनात्मक विषय है। भाजपा के पहले अध्यक्ष(तब जनसंघ) ने वहां अपने संघर्ष और शहादत से जो कुछ किया वह इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। भाजपा के लिए यह साधारण क्षण नहीं था, किंतु उसका फैसला असाधारण है। सरकार न बनाना कोई निर्णय नहीं होता। वह तो इतिहास के एक खास क्षण में अटकी सूइयों से ज्यादा कुछ नहीं है। किंतु साहस के साथ भाजपा ने जो निर्णय किया है, वह एक ऐतिहासिक अवसर में बदल सकता है। आखिर कश्मीर जैसे क्षेत्र के लिए कोई भी दल सिर्फ नारों और हुंकारों के सहारे नहीं रह सकता। इसीलिए संवाद बनाने के लिए एक कोशिश भाजपा ने चुनाव में की और अभूतपूर्व बाढ़ आपदा के समय भी की। यह सच है कि उसे घाटी में वोट नहीं मिले, किंतु जम्मू में उसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। यह क्षण जब राज्य की राजनीति दो भागों में बंटी है, अगर भाजपा सत्ता से भागती तो वहां व्याप्त निराशा और बंटवारा और गहरा हो जाता। भाजपा ने अपने पूर्वाग्रहों से परे हटकर संवाद की खिड़कियां खोलीं हैं। अलगाववादी नेता स्व.अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद लोन को अपने कोटे से मंत्री बनवाया है। यह बात बताती है कि अलगाववादी नेता भी लोकतंत्र का हमसफर बनकर इस देश की सेवा कर सकते हैं।

यहां पराजित हुआ है पाक का द्विराष्ट्रवादः
  कश्मीर की स्थितियां असाधारण हैं। पाकिस्तान का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत कश्मीर में ही पराजित होता हुआ दिखता है। हमने सावधानी नहीं बरती तो कश्मीर का संकट और गहरा होगा। आज सेना के सहारे देश ने बहुत मुश्किलों से घाटी में शांति पाई है। कश्मीर का इलाज आज भी हमारे पास नहीं है। देश के कई इलाके इस प्रकार की अशांति से जूझ रहे हैं किंतु सीमावर्ती कश्मीर में पाक समर्थकों की उपस्थिति और पाकिस्तान के समर्थन से हालात बिगड़े हुए हैं। कश्मीर के लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े बिना यहां कोई पहल सफल नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को जानते हैं कि वहां के लोगों की स्वीकृति और समर्थन भारत सरकार के लिए कितनी जरूरी है। हमारे पहले प्रधानमंत्री की कुछ रणनीतिक चूकों की वजह से आज कश्मीर का संकट इस रूप में दिखता है। ऐसे में भाजपा का वहां सत्ता में होना कोई साधारण घटना और सूचना नहीं है। घाटी और जम्मू के बेहद विभाजित जनादेश के बाद दोनों दलों की यह नैतिक जिम्मेदारी थी कि वे अपने-अपने लोगों को न्याय दें। केंद्र की सत्ता में होने के नाते भाजपा की यह ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी थी।

उन्हें क्यों है 370 पर दर्दः
जिन लोगों को 370 दर्द सता रहा है वे दल क्या भाजपा के साथ 370 को हटाने के लिए संसद में साथ आएंगें, जाहिर तौर पर नहीं। फिर इस तरह की बातों को उठाने का फायदा क्या है। इतिहास की इस घड़ी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ऐतिहासिक अवसर मिला है, जाहिर है वे इस अवसर का लाभ लेकर कश्मीर के संकट के वास्तविक समाधान की ओर बढ़ेंगें। संवाद से स्थितियां बदलें तो ठीक अन्यथा अन्य विकल्पों के लिए मार्ग हमेशा खुलें हैं। देश को एक बार कश्मीर के लोगों को यह अहसास तो कराना होगा कि श्रीनगर और दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जो उनके दर्द को कम करना चाहती है। जिसके लिए ‘सबका साथ-सबका विकास’ सिर्फ नारा नहीं एक संकल्प है। यह अहसास अगर गहरा होता है, घाटी में आतंक को समर्थन कम होता है, वहां अमन के हालात लौटते हैं और सामान्य जन का भरोसा हमारी सरकारें जीत पाती हैं तो स्थितियां बदल सकती हैं। आज कश्मीर के लोग भी भारत में होने और पाकिस्तान के साथ होने के अंतर को समझते हैं।
    
कोई भी क्षेत्र अनंतकाल तक हिंसा की आग में जलता रहे तो उसकी चिंताएं अलग हो जाती हैं। भारत सरकार के पास कश्मीर को साथ रखना एकमात्र विकल्प है। इसलिए उसे समर्थ और खुशहाल भी बनाना उसकी ही जिम्मेदारी है। 370 से लेकर अन्य स्थानीय सवालों पर विमर्श खड़ा हो, उसके नाते होने वाले फायदों और नुकसान पर संवाद हो। फिर लोग जो चाहें वही फैसला हो, यही तो लोकतंत्र है। भाजपा अगर इस ओर बढ़ रही है तो यह रास्ता गलत कैसे है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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