अगर इस तरह के उपहार देना या अहसान जता कर पत्रकार को खरीदा जा सकता है तो वे अपने उस इंडियन एक्सप्रेस अखबार के बारे में क्या कहना चाहेंगी जो कि सरकार द्वारा ‘उपकृत’ करते हुए दी गई जमीन पर बने दफ्तर से चल रहा है? क्या केंद्र सरकार ने बहादुर शाह जफर मार्ग की अरबों रुपए की यह जमीन कौड़ियों के भाव अखबारों को देकर उन्हें खरीद लिया था? यह कहना है हिंदी अखबार 'नया इंडिया' के कॉलमनिस्ट 'विनम्र' का। हम आपके साथ विनम्र का कॉलम ज्यों का त्यों शेयर कर रहे हैं…
खुद पत्रकार होने के बावजूद अपना मानना है कि इस बिरादरी से ज्यादा पाखंडी कोई और हो ही नहीं सकता है। ऐसा लगता है कि पत्रकार यह मानकर चलते हैं कि समाज ने उन्हें खुद तमाम गलत काम करने, नियम तोड़ने, बिना बारी के काम करवाने की छूट देने के साथ ही यह अधिकार भी दिया हुआ है कि वे इन्हीं सब के लिए किसी को भी कटघरे में खड़े करने के लिए स्वतंत्र है।
दशकों से यह सब देखता आया हूं पर अब लगता है कि पानी सिर से गुजरने लगा है। हाल ही में खोजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने एक बड़ा खुलासा किया कि किस तरह से एस्सार कंपनी नेताओं, पत्रकारों को गिफ्ट में मंहगे सेलफोन बांटती थीं। उन्हें जरुरत पड़ने पर टैक्सी उपलब्ध करवाती थी। उनके सेलफोन के बिल अदा करती थी। उन्हें अपने खर्च पर सैर करवाती थी। इसे बहुत बड़ा खुलासा मानते हुए कुछ चैनलों ने तो इसे लेकर अपनी स्टोरीज चला दी।
इस खबर के बाद दो पत्रकारों ने इस्तीफे दे दिए और तीसरे को उसके संगठन की ओर से कारण बताओं नोटिस जारी कर दिया गया। यह सब देखकर मेरी समझ में नहीं आया कि इस पाखंड पर तरस खाते हुए हंसा जाए या आंसू बहाए जाए। आम पाठक को यह सब भले ही नया लग रहा हो पर जो भी व्यक्ति इस व्यवसाय में है वह इस खुलासे पर अपना सिर पीट लेगा।
अपना अनुभव है कि दशकों से पत्रकारों को उपहार मिलते आ रहे हैं। उन्हें निजी कंपनियां ही नहीं सरकार तक उपकृत करती आयी हैं। प्रेस कान्फ्रेंस में मंहगे उपहार मिलते हैं। सरकारी क्षेत्र की कंपनियां उन्हें अपने प्लांट की विजिट करवाती हैं। पांच सितारा होटलों में ठहराती हैं। रात को दारु के साथ बढ़िया भोज करवाती हैं। चलते समय मंहगे उपहार देती हैं। उन्हें हवाई जहाज से लाया ले जाया जाता है। इसमें नया क्या है?
इंडियन एक्सप्रेस सबसे ज्यादा खुलासे करता है। रितु सरीन, देश की जानी मानी खोजी पत्रकार मानी जाती है। उन्हें भी पता है कि चौंकाने वाली रिपोर्ट कहां से व कैसे आती है। अगर इस तरह के उपहार देना या अहसान जता कर पत्रकार को खरीदा जा सकता है तो वे अपने उस इंडियन एक्सप्रेस अखबार के बारे में क्या कहना चाहेंगी जो कि सरकार द्वारा ‘उपकृत’ करते हुए दी गई जमीन पर बने दफ्तर से चल रहा है? क्या केंद्र सरकार ने बहादुर शाह जफर मार्ग की अरबों रुपए की यह जमीन कौड़ियों के भाव अखबारों को देकर उन्हें खरीद लिया था?
क्या बदले में इंडियन एक्सप्रेस अखबार सरकार की चाकरी कर चरण वंदना करने लगा था? आपातकाल के दौरान तो इंडियन एक्सप्रेस को सबसे पहले निशाना बनाया गया था। मुझे तो लगता है कि यह सब लिखकर इस अखबार ने अपने पूर्व संपादक शेखर गुप्ता को ही निशाना बनाया है जो कि एनडीटीवी व इंडियन एक्सप्रेस में ‘वॉक द टॉक’ साक्षात्कार करते थे। वे इस स्तंभ में कमोबेश तमाम राजनेताओं व उद्योगपतियों से बेहद सहज होकर बात करते हैं उनसे जनसंपर्क करते हुए नजर आते थे। वे उन्हें कभी बेचैन करने वाले सवाल नहीं पूछते थे। पूरा मामला ही अपने को जनसंपर्क का ही हिस्सा लगता हैं।
जिस इंडियन एक्सप्रेस ने कभी सरकारें उखाड़ दीं। इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी को नहीं बख्शा, उसी एक्सप्रेस में ‘पोंटी चड्ढ़ा’ का यह इंटरव्यू छपता है कि अब वे शराब के व्यापार से इतर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ करके दिखाना चाहते हैं। पोंटी के बारे में इतनी सकारात्मक जानकारी दी गई थीं मानो कि वे भावी अन्ना हजारे हों। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार में पोटीं सरीखी शख्सियत के साक्षात्कार छपने को क्या कहा जाएं? इसमें एक भी सवाल या जानकारी ऐसी नहीं थी जो कि उनके व्यक्तित्व या व्यवसाय के असली दो नबंरी पक्ष को उजागर करती हो।
एस्सार कंपनी द्वारा पत्रकारों व नेताओं को ‘रिश्वत’ देने के खुलासे वाली इस खबर को पढ़ने के बाद तो यही लगता है कि जैसे पोंटी ने उस इंटरव्यू के बदले अपने माल में कोई बड़ा शोरुम रिपोर्टर को उपहार में दे दिया हो। खुद रितू भी संडे व इंडियन एक्सप्रेस में रहते हुए सरकारी मंत्रालयों व निजी कंपनियों के प्रायोजित दौरों पर जा चुकी हैं, क्या उन्हें कभी यह लगा कि उन्होंने उन पर हुए खर्च का अहसान कैसे चुकाया? क्या अपने दिल पर हाथ रखकर वे यह कह सकती हैं कि उन्होंने खुद कभी कोई उपहार नहीं लिया? पत्रकार को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ नहीं उठाया?
अगर उनके मापदंड से चला जाए तो पत्रकारों से ज्यादा भ्रष्ट तो कोई हो ही नहीं सकता है। वे सरकार से रहने के लिए मकान लेते हैं। सीजीएचएस के जरिए स्वास्थ सेवाएं लेते हैं। अच्छे स्कूलों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर बच्चों का दाखिला करवाते हैं। एक समय था जब कि टेलीफोन के लिए मारा-मारी होती थी, तब उन्हें बिना बारी के फोन भी मिलता था। रितू सरीन ने भी जरुर लिया होगा। रेलवे व विमान में बिना बारी के टिकट भी आरक्षित करवाया होगा। कैंलेडर, डायरियां भी ली होंगी। इस अहसान का बदला उन्होंने कैसे चुकाया? आज वे तमाम पत्रकारों को हमाम में खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं, खुद भी क्या उसमें नहीं खडी होगी?
इस संबंध में एक घटना याद आ जाती है। श्याम खोसला जाने माने पत्रकारों में गिने जाते थे। वे ट्रिब्यून के दिल्ली स्थित ब्यूरो के चीफ थे। हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर सरीखे राज्यों में उनकी तूती बोलती थी। उनकी एक आदत थी कि वे भी रितू सरीन की तरह सामने वाले को आइना दिखाने की कोशिश में लगे रहते थे। प्रेस कान्फ्रेंस में मिले सजावटी कागज में लिपटे अपने गिफ्ट का तो कवर फाड़कर उसे कार में रख लेते पर अगर दफ्तर में कोई डायरी या कैंलेडर लेकर आता दिख जाता तो तपाक से कहते कि यह किसने दिया? फिर रिपोर्टर द्वारा भेजी जाने वाली खबर को ध्यान से पढ़ते कि कहीं उसने उपहार देने वाले को उपकृत तो नहीं किया है।
एक बार ओम प्रकाश चौटाला की प्रेस कान्फ्रेंस में उन्होंने सवाल किया कि अगर आपकी सरकार बन गई तो आप पत्रकारों के लिए क्या करेंगे? इस पर चौटाला ने उनकी ओर हिकारत से देखते हुए कहा कि खोसलाजी, आप तो वरिष्ठ पत्रकार हैं। दशकों से हरियाणा कवर कर रहे हैं। आपको इस तरह के सवाल पूछने शोभा नहीं देता है। आपको तो इन युवा पत्रकारों को बताना चाहिए कि सरकारें आपके लिए क्या करती आयी हैं। पता चला कि खोसला ने अपनी दोनों बेटियों को सरकारी अनुकंपा से भविष्य बना लिया था। सीएम कोटे से एक का आर्कीटेक्चर में व दूसरी का मेडिकल या इंजीनियरिंग में दाखिला करवा लिया था।
यह सब लिखने का यह अर्थ नहीं है कि मैं इसका समर्थक हूं कि पत्रकारों या नेताओं को उपकृत करना सही है। क्या हम लोग जब परिवार समेत शिमला या गोवा घूमने जाते हैं तो वहां सरकारी अतिथिगृह बुक करवाने की कोशिश नहीं करते हैं? क्या एक्सप्रेस समूह ने कभी ऐसी किसी सुविधा का लाभ नहीं उठाया? क्या आम नेता किसी कंपनी के अतिथिगृह, हवाई जहाज या वाहन का इस्तेमाल नहीं करता है? अगर गडकरी भी परिवार सहित कहीं ठहर गए तो इसमें इतना हंगामा क्यों? खबर तो यह होनी चाहिए थी कि इस अहसान का उन्होंने बदला कैसे चुकाया? मंत्री बनने के बाद एस्सार की उन्होने क्या मदद की, तब तो खबर होती।
इस रिपोर्ट में जो नैतिकता का पाठ पढ़ाया गया है, उसे पढ़कर सारिका में कभी छपी एक लघु कथा याद आ जाती है। दशहरा का दिन था। भीड़ रावण को आग लगाने के लिए आगे बढ़ी। तभी रावण चिल्लाया, खबरदार! मुझे वही आग लगाए जिसने दूसरों की मां-बहन को बुरी नजर से न देखा हो। भीड़, ठिठक कर रुक गई। लगा कि आज तो रावण बिना जले ही रह जाएगा। अचानक एक आदमी आगे बढ़ा, और उसने रावण को आग लगा दी। वह जन्मजात अंधा था।
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विनम्र उनका लेखन नाम है।)
साभार- नया इंडिया से
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