Tuesday, March 11, 2025
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वाट्सअप पर नई सुविधा

बुधवार से वॉट्सएप का वॉइस कॉलिंग फीचर सभी यूजर के लिए शुरू हो गया है। वाइस कॉलिंग शुरू करने के लिए पहले वेबसाइट से एप्लीकेशन डाउनलोड करना पड़ रही थी, वहीं कुछ यूजर 'इनवाइट' ऑप्शन के जरिए इस फीचर्स को शुरू करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन अब यह बिना 'इनवाइट' के ही शुरू हो गई है। बस आपको अपने फोन में वॉट्सएप को अपडेट करना होगा।
 
इंटरनेट डेटा पैक के खर्चे में वॉट्सएप कॉलिंग के जरिए देश-दुनिया में कहीं भी कॉल किया जा सकता है। इसमें औसतन 1 मिनट बात करने पर 1 एमबी डेटा खर्च होता है। विभिन्न नेटवर्क प्रदाता कंपनियों के 2जी और 3जी डेटा पैक के अनुसार कॉलिंग की दर 80 पैसे प्रति मिनट से लेकर 3 रुपए प्रति मिनट तक हो सकती है।
 
एपल फोन यूजर को अभी भी इंतजार
 
वॉट्सएप ने कुछ समय पहले वॉइस कॉलिंग फीचर को टेस्टिंग के तौर पर शुरू किया था। कुछ यूजर्स को ये फीचर दिया गया था। जिन यूजर के पास कॉलिंग फीचर था, वे अपने अन्य वॉट्सएप फ्रेंड्स को कॉल कर इनवाइट भेज सकते थे। हालांकि ये इनवाइट सिस्टम सभी यूजर्स के लिए काम नहीं कर रहा था। नए अपडेशन के बाद यह फीचर सभी एंड्रॉयड मोबाइल पर दे दिया गया है, लेकिन अभी ये आईफोन और विंडोज फोन पर उपलब्ध नहीं है।
 
ऐसे करें वाइस कॉलिंग शुरू
 
– आप पहले से वॉट्सएप का इस्तेमाल कर रहे हैं तो गूगल प्ले स्टोर से इसे अपडेट करें।
 
– इससे आपके वॉट्सएप पर कॉल की सुविधा आ जाएगी।
 
– वॉट्सएप अपडेट करने के बाद अपने वॉट्सएप को फिर से चलाएं।
 
– उसके बाद वॉट्सएप स्क्रीन पर चैट और कॉल का अलग-अलग ऑप्शन आ जाएगा।
 
– आप चैट करते हैं, उसी तरह वीडियो कॉल भी कर सकते हैं।
 
– फोन बने हुए लोगो पर क्लिक करने से वीडियो कॉल हो जाएगा।

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आज जरूरत है महावीर की समाज-व्यवस्था

भगवान महावीर सदियों पहले जन्में, वे जैन धर्म के मौलिक इतिहास की परम्परा में अंतिम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर प्रभु महावीर के अनेक नाम हैं। उन्हें सन्मति, महत्ति वीर, महावीर, वर्द्धमान, प्रभृति अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है। भगवान महावीर के नामकरण संस्कार के समय राजा सिद्धार्थ द्वारा ‘वर्द्धमान’ नाम रखा गया था। कल्पसूत्र में अन्यत्र उल्लेख है कि भय-भैरव के उत्पन्न होने पर भी अचल रहने वाले, परीषह एवं उपसर्ग को शांति और क्षमा से सहन करने में सक्षम, प्रिय और अप्रिय प्रसंगों में समभावी संयम युक्त तथा अतुल पराक्रमी होने के कारण देवताओं ने ‘श्रमण-भगवान महावीर’ नाम रखा।

महावीर का संपूर्ण जीवन भी विचित्र घटनाओं से परिपूर्ण था। जन्म के समय से लेकर मुनि धर्म स्वीकार करने के तीस वर्ष में उन्होंने जिन नामों से प्रसिद्धि प्राप्त की थी, वे उनके जीवन की विशेष घटनाओं से जुड़े हुए हैं। तीस वर्ष की आयु में उन्होंने मुनि धर्म अंगीकार किया एवं पूर्ण रूप से अकिंचन, अपरिग्रही एवं यथाजात रूप धारण किया और घोर तप में लीन हो गए। इसके बारह वर्ष के पश्चात् जब महावीर की आयु बयालीस वर्ष थी विहार में जृंभिका ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के तट पर अपने अत्यंत उग्र तप एवं पुरुषार्थ को कार्यान्वित करते हुए उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और अरहंत बन गए। तीस वर्ष तक आत्मधर्म रूप आत्मविज्ञान का उपदेश देकर जगत के जीवों को स्वभाव रूप होने का मार्ग बताया और 72 वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्धालय में जा विराजे। वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा बन गए।

भगवान महावीर एक युगद्रष्टा लोकनायक थे। दलित और पीडि़त मानवता के मसीहा, सत्य, प्रेम और अहिंसा के अग्रदूत, सामाजिक शोषण और कुरीतियों के सुधारक एवं अत्याचार, अनाचार और भ्रष्टाचार के प्रखर विरोधी एवं मानवता के दिव्यदूत थे।

महान क्रांतिकारी के रूप में भगवान महावीर सुविख्यात हैं। आज के युगों में समस्याओं का समाधान, भगवान महावीर द्वारा निर्देशित मार्ग में ही खोजा जा सकता है, दूसरा कोई विकल्प नजर नहीं आता।

महावीर ने जीवनानुभव और विवेक से सत्यानुवेषण किया। स्वयं आंखों से देखकर, अनुभवों की गहराइयों में जाकर। उनका संपूर्ण जीवन त्याग, समर्पण और निष्ठा का जीवंत उदाहरण है।

भारतीय संस्कृति के कण-कण में महावीर की अनुगूंज है। महावीर ने अहिंसा के आदर्श को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने एक संपूर्ण अहिंसक जीवनशैली प्रस्तुत की। वे युगदर्शी थे, शाश्वतदर्शी थे, वे कोरे युगद्रष्टा नहीं थे। क्योंकि युगद्रष्टा केवल सामयिक सत्य को देखता है जबकि महावीर ने शाश्वत सत्य को देखा जो त्रैकालिक सत्य होता है। यही कारण है कि उन्होंने भारतीय समाज को जिस गहराई से उपदेश दिया उसमें त्रैकालिक सत्य की सहज ही सुगंध व्याप्त थी। महावीर ने कर्मकांडों को आध्यात्मिक रूप दिया। 

उन्होंने समता धर्म की स्थापना की जिसके दो मुख्य फलित हैं- अहिंसा और अपरिग्रह। उस युग की समाज-व्यवस्था में धन की भांति मनुष्य का भी परिग्रह होता था और उस पर मालिक का पूर्ण अधिकार रहता। बिका हुआ आदमी दास होता था और उस पर मालिक का पूर्ण अधिकार रहता। भगवान महावीर ने इस प्रथा को हिंसा और परिग्रह-दोनों दृष्टियों से अनुचित बताया और जनता को इसे छोड़ने के लिए प्रेरित किया। दास-प्रथा-उन्मूलन, अपरिग्रह, मानवीय एकता, स्वतंत्रता, समानता, सापेक्षता, सहअस्तित्व आदि समता के विभिन्न पहलुओं की मूलधारा भगवान महावीर के वचनों तथा प्रयत्नों में खोजी जा सकती है। उन्होंने जन-भाषा में अपनी बात कही और उनकी बात सीधी जनता तक पहुंची। जनता ने उसे अपनाया, पर कोई भी पुराना संस्कार एक साथ नहीं टूट जाता। ढाई हजार वर्षों के बाद हम अनुभव कर रहे हैं कि महावीर-वाणी के वे सारे स्फुलिंग आज महाशिखा बनकर न केवल भारतीय समाज को, किन्तु समूचे मानव-समाज को प्रकाश दे रहे हैं।
भगवान महावीर भारत-भूमि पर अवतरित ऐसे महापुरुष थे, जिनके व्यक्तित्व मंे विकास की ऊंचाई एवं विचारों की गहराई एक साथ संक्रांत थी। उनका अपार्थिव चिंतन जहां आज हिंसा से आक्रांत भूली भटकी मानवता को नया दिशा-दर्शन दे रहा है वहीं स्वस्थ समाज की संरचना का आधारभूत भी बन रहा है। 

 आचार्य श्रीमद् इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी म.सा. के निकट रहकर मैंने महावीर को सूक्ष्मता से समझा, अहिंसा के दर्शन को समझा और भारतीय समाज में महावीर के महत्व को आत्मसात् किया। महावीर की अहिंसा न केवल जैन इतिहास में नया चिंतन प्रस्तुत करती है, अपितु भारतीय विचारधारा में भी नई सोच पैदा करने की सामथ्र्य रखती है।

चेतना के प्रकाशपुंज चरम तीर्थंकर भगवान महावीर ने ‘अहिंसा परमोधर्मः’ कहकर सबको जीवन में हिंसा से दूर रहने एवं समता मूलक समाज की स्थापना करने का शाश्वत संदेश दिया है। अहिंसा का पालन करने पर सत्य का साक्षात्कार स्वतः ही हो जाता है। अतः यह अहिंसा हमारी मुक्ति और मोक्ष का साधन/युक्ति मानी जाती है। अहिंसा का अर्थ है- मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा न कर, सबसे साथ दया का व्यवहार करना। यह दया ही हमारे धर्म का मूल है।

आज इस भौतिकवादी दौड़ में विश्व शक्ति के पीछे पागल है। वह तृष्णा का गुलाम/दास बनकर ही रह गया है। अतः उसे आत्मिक सुख, संतोष नहीं, मानसिक शांति नहीं। उसे यह जीवन बहुत दूभर, भारयुक्त और कठिन लगने लगा है। वह ज्ञान, विवेक, संस्कार, चारित्र तथा अहिंसा का मूलमंत्र भूल गया है। संयम तथा अहिंसा की साधना उसको कठिन लगने लगी है। वह योगी नहीं, भोगी बनने पर उतारू और यही भोगलिप्सा उसे विनाश के कगार पर ले आई है। आवश्यकता है महावीर की समाज व्यवस्था को अपनाने की। उसी व्यवस्था को अपनाकर हम स्वस्थ समाज की संरचना कर सकते हैं। 
मृत्यु से डरने वाला तथा कष्ट से घबराने वाला व्यक्ति थोड़ी सी यातना की संभावना से ही विचलित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति हिंसात्मक परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देते हैं, जो व्यक्ति कष्ट सहिष्णु होते हैं, वे विषम और जटिल स्थिति में भी अन्याय और असत्य के सामने झुकने की बात नहीं सोचते। ऐसे ही व्यक्ति अहिंसात्मक प्रतिकार में सफल होते हैं। ऐसे ही व्यक्ति महावीर की समाज व्यवस्था को साकार कर सकते हैं।
भगवान महावीर ने कहा-‘जीओ और जीने दो।’ जीवन में यदि मानव शान्ति चाहता है तो उसे घर-घर जाकर अहिंसा का अलख जगाना होगा, अहिंसा पालन का अभियान छेड़ना होगा। गांव-गांव में अहिंसा को स्थापित कर उसके प्रति समर्पित होना होगा, तभी हमारा जीवन सार्थक एवं सफल माना जाएगा। जन-जन में अहिंसा के प्रति आस्था पैदा करने एवं महावीर की समाज व्यवस्था को स्थापित करने के लिए ही सुखी परिवार अभियान का उपक्रम शुरू किया गया है। सुखी परिवार अभियान महावीर की समाज व्यवस्था की स्थापना का सशक्त माध्यम है। प्रस्तुति- ललित गर्ग

प्रेषकः

(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
पफोनः 22727486, 9811051133

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तीन राज्यों के एनएसएस अधिकारियों को डॉ.चन्द्रकुमार जैन ने दिया प्रभावी प्रशिक्षण

राजनांदगांव। संस्कारधानी के प्रखर वक्ता और शासकीय दिग्विजय अग्रणी महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के राष्ट्रपति सम्मानित प्रोफ़ेसर डॉ.चन्द्रकुमार जैन, ने उच्च शिक्षा से जुड़े तीन राज्यों के राष्ट्रीय सेवा योजना अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रभावी व्याख्यान दिया। युवा कार्यक्रम एवं खेल मंत्रालय, भारत सरकार, राष्ट्रीय सेवा योजना क्षेत्रीय केंद्र भोपाल,राजीव गांधी राष्ट्रीय युवा विकास संस्थान तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ शासन के उच्च शिक्षा विभाग  के मार्गदर्शन में, इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय,रायपुर द्वारा आयोजित इस पांच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में डॉ.जैन को अतिथि वक्ता और विषय विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित किया गया था। कृषि विश्व विद्यालय के कुलपति डॉ.एस.के.पाटिल तथा रासेयो के राज्य संपर्क अधिकारी और उप सचिव डॉ.समरेंद्र सिंह  वि.वि.के रासेयो समन्वयक डॉ.आर.एन.गांगुली सक्षम मार्गदर्शन में आयोजन यादगार बन गया। रासेयो के विद्यार्थियों ने अपने अधिकारियों की देखरेख में पूरे आयोजन की बागडोर अपने हाथों में लेकर उसकी कामयाबी का इतिहास रच दिखाया। इनमें प्रथम वर्ष से पीएचडी तक के विद्यार्थी शामिल थे। 

हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के संचालक और प्रख्यात पत्रकार रमेश नैयर, छत्तीसगढ़ बाल आयोग की अध्यक्ष श्रीमती शताब्दी पाण्डे, शासन के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी रहे प्रखर चिंतक सुशील त्रिवेदी  सहित चुनिंदा ख्यातिप्राप्त अतिथि वक्ताओं ने इस प्रशिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में मार्गदर्शन दिया। डॉ.जैन ने राज्य संपर्क अधिकारी डॉ.समरेंद्र सिंह, विषय विशेषज्ञ डॉ.आर.पी.अग्रवाल की ख़ास मौजूदगी में रासेयो प्रशिक्षकों को जीवन शैली,आतंरिक द्वंद्व और उसके समाधान पर सरस, सार्थक और अत्यंत उपयोगी टिप्स दिए। प्रारम्भ में डॉ.शिवाजी लिमजे ने प्रतिभागी अधिकारियों को डॉ.चन्द्रकुमार जैन का परिचय देते हुए उनकी बहुआयामी उपलब्धियों की विशेष चर्चा की। 

आयोजन के केन्द्रीय विषय सामाजिक सद्भाव, राष्ट्रीय एकता एवं मानवाधिकार को ध्यान में रखते हुए डॉ.जैन ने बड़े सुलझे हुए अंदाज़ में कहा कि राष्ट्रीय सेवा योजना व्यक्तित्व निर्माण और देश सेवा का बहुत बड़ा मंच है। यह राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय जागरण की अहम कड़ी है। लिहाज़ा, रासेयो अधिकारी हमारे स्वयं सेवक छात्र-छात्राओं की सोच को रचनात्मक बनाने वाली जीवन शैली की प्रेरणा दें। इससे उनकी जीवन ऊर्जा को सार्थक निवेश की दिशा मिलेगी। उसकी सामाजिक उपयोगिता बढ़ेगी और उनके सेवा कार्यों को नई पहचान मिलेगी। डॉ.जैन ने कई उदाहरण, सूक्तियों, दृष्टान्तों  के माध्यम से स्पष्ट किया कि मन के अनुकूल न होने या प्रतिकूल हो जाने पर मानसिक संघर्ष की स्थिति कैसे बनती है। ऎसी स्थिति में समस्या से अपने व्यक्तित्व को विभाजित होने से बचाना और समस्या को ही विभाजित करके उसे बड़ी से छोटी बना देना सचमुच बड़ी कला है। डॉ.जैन ने तर्कपूर्ण शैली में पूरी दृढ़ता के साथ कहा कि ज़िंदगी के सवालों से कहीं ज्यादा उसके ज़वाब हैं, बशर्ते हम तिल को ताड़ बनाने के बदले अपनी टीस के कारणों को ताड़ने में महारथ हासिल कर लें। इससे समाधान के द्वार खुद जाएंगे। 
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टीवी पर आने वाले सब गँवार होते जा रहे हैं

कोई भी टीवी चैनल लगाकर देखिये।आजकल "तू तड़ाक" से बोलने वाला समझता है कि उसने शायद बाज़ी मार ली। मगर वह यह नहीं जानता कि दर्शक उसकी बेहयाई पर मन ही मन हंस रहे होते हैं।प्रायः हर चैनल पर आजकल ऐसा ही हो रहा है। कोई किसी को बोलने ही नहीं देता ।

एंकर के साथ-साथ दर्शक भी विवश! वाद विवाद न हुआ शब्दों की कुश्ती हुयी।तू तू मैं मैं की इस जुबांदराज़ी को देख शांत रहने वाले हमारे घरों का माहौल भी बिगड़ने लगा है।समय आ गया है जब एंकर स्वविवेक का इस्तेमाल कर चूँ चूँ या अनर्गल बोलने वाले पैनलिस्ट का माइक बन्द कर दें ताकि दूसरे भद्रजन की बात को ध्यान से तो सुना जाय।सरकार भी चाहे तो इस बारे में कोई कारगर उपाय सुझा सकती है।

शिबन कृष्ण रैणा
अलवर

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किस खतरे का संकेत है पत्रकारों की ये चुप्पी

देश फिर ऐसे दौर से गुजर रहा है, जब अक्सर सुनने को मिलता है कि पत्रकार चुप क्यों हैं। खासकर धार्मिक और सामुदायिक अनर्थ के मामले में सत्ता के खिलाफ उनकी आवाज नहीं उठती। और तो और खुद पत्रकारों के मुंह से पत्रकारों की "चुप्पी" के बारे में सुनने को मिलता है। यह सच्चाई है कि बेधड़क लिखने-बोलने वाले पत्रकार घट गए हैं। पर इसके लिए जिम्मेदार आखिर कौन है?

इस संदर्भ में मुझे कुलिश जी का एक दृष्टांत स्मरण होता है। कुलिश जी कहते थे – पत्रकार जब-तब अपनी आजादी को लेकर बहुत चिंतित होते हैं। लेकिन सौ बात की एक बात यह है कि कितने लोगों ने लिखा और उनका लिखा छप नहीं सका? 

इसके विरल उदाहरण ही मिलेंगे। आप लिखें जो जरूरी और सार्थक समझते हैं। जो लिखते हैं कभी कोई उनका हाथ नहीं पकड़ता। कोशिशें होंगी, तब भी आप लिखेंगे; अगर ईमानदार अनुभूति है, छपने से आपका लिखा सचमुच रोका गया तो आप अपनी राह खोज लेंगे। इसलिए कहता हूं, पहले लिखने का साहस तो दिखाइए। बगैर लिखे न लिखने के कारण ढूंढ़ना आसान होता है, लिखना नहीं।

अपनी बात के समर्थन में वे खुद की एक आपबीती सुनाते थे। तब कुलिश जी "राष्ट्रदूत" में रिपोर्टर थे। नवंबर 1955 में जब सोवियत नेता ख्रुशचेव और बुल्गानिन भारत आए तो तफरीह के लिए जयपुर की राह पकड़ी। जयपुर की मुख्य सड़कों पर रंगाई-पुताई हुई। 

मगर मजा यह रहा कि राजप्रमुख और जयपुर के पूर्व महाराजा मानसिंह ने रूसी मेहमानों के प्रवास के नाम पर सरकारी खजाने से राजमहल में भी रंग-रोगन करवा लिया। 

कुलिश जी ने इस पर दो टिप्पणियां "घुमक्कड़" नाम से छपने वाली डायरी में लिख दीं। तब भी उनका हाथ तो किसी ने नहीं पकड़ा, पर उन पर पहरा जरूर बैठ गया। कुलिश जी बताते थे, स्तंभ लिखने के वक्त एक वरिष्ठ सहयोगी उनकी बगल में आकर बैठ जाते थे। जाहिर था, वे मालिकों के कहे का पालन भर कर रहे थे।

तब से कुलिश जी पहरे में लिखने की उस विवशता का तोड़ तलाशने में लग गए। अंतत: उधार के पांच सौ रूपए जुटाकर खुद का अखबार शुरू किया। बाकी दास्तान तो अब "पत्रिका" का इतिहास हो चुकी है।

इसका मतलब यह कतई न लें कि उनकी हिदायत हर पत्रकार को अपना-अपना अखबार निकाल लेने की थी। उनका संकेत इतना भर था कि लिखने वाला लिखता है और न लिखने वाला न लिखने के कारण खोजता है। 

उनकी यह बात मुझे जब-तब खयाल आती रहती है, खासकर तब जब लोग न लिखने के "घुटन भरे" माहौल की चर्चा बढ़-चढ़ कर करते हैं। कभी-कभी लोग मौजूदा परिवेश को आपातकाल तक जा जोड़ते हैं। मुझे कुलिश जी के उक्त हवाले की रोशनी में ऐसी बातें अतिरंजना में लिपटी प्रतीत होती हैं।

(साभार : राजस्थान पत्रिका)

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भगवान महावीर पर डॉ.चन्द्रकुमार जैन की प्रेरक वार्ता का प्रसारण दो अप्रैल को

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राजनांदगांव। प्रखर वक्ता, साहित्यकार और शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय के राष्ट्रपति सम्मानित प्राध्यापक डॉ.चन्द्रकुमार जैन की वार्ता का प्रसारण दो अप्रैल को दोपहर 12 बजे होगा। 'अहिंसा और अनेकांत के प्रखर दृष्टा – भगवान महावीर' विषय पर एकाग्र इस वार्ता में डॉ.जैन ने विश्व शान्ति के परिप्रेक्ष्य में महावीर स्वामी के दर्शन की प्रासंगिकता और आवश्यकता पर रोचक शैली में प्रकाश डाला है। वार्ता, प्रसार भारती के विशेष कार्यक्रम के अंतर्गत आकाशवाणी रायपुर पर सुनी जा सकती है। उल्लेखनीय है कि डॉ.जैन ने प्रसार भारती की सॉफ्टवेयर स्कीम के अंतर्गत छत्तीसगढ़ के अंगराग पर केंद्रित धारावाहिक प्रसारण सहित आकाशवाणी में अब तक अपनी प्रस्तुति का शतक भी पूर्ण कर संस्कारधानी को गौरवान्वित किया है। 
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बुढ़ौती में तीरथ

कहते हैं कि अंग्रेजों ने जब रेलवे लाइनें बिछा कर उस पर ट्रेनें चलाई तो देश के लोग उसमें चढ़ने से यह सोच कर डरते थे कि मशीनी चीज का क्या भरोसा, कुछ दूर चले और  भहरा कर गिर पड़े। मेरे गांव में एेसे कई बुजुर्ग थे जिनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने जीवन में कभी ट्रेन में पैर नहीं रखा। नाती – पोते उन्हें यह कर चिढ़ाते थे कि फलां के यहां शादी पड़ी है। इस बार तो आपको ट्रेन में बैठना ही पड़ेगा। इस पर बेचारे बुजुर्ग रोने लगते। दलीलें देते कि अब तक यह गांव – कस्बा ही हमारी दुनिया थी… अब बुढ़ापे में यह फजीहत क्यों करा रहे हो…। 

 हां यह और बात है कि उन बुजुर्गों का जब संसार को अलविदा कहने का समय आया तो उनकी संतानों ने किसी तरह लाद – फांद कर उन्हें कुछेक तीर्थ करा देने की भरसक कोशिश की। अपने देश की प्रतिभाओं का भी यही हाल है। राजनीति , क्रिकेट और फिल्म जगत को छोड़ दें तो दूसरे क्षेत्रों की असाधारण  प्रतिभाएं इसी बुढ़ौती में तीरथ करने की विडंबना से ग्रस्त नजर आती है।  बेचारे की जब तक हुनर सिर पर लेकर चलने की कुवत होती है, कोई पूछता नहीं। यहां तक कि कदम – कदम पर फजीहत और जिल्लतें झेलनी पड़ती है।  लेकिन जब पता चले कि बेचारा काफी बुरी हालत में है… व्हील चेयर तक पहुंच चुका है  या अाइसीयू में भर्ती है  और दुनिया से बस जाने ही  वाला है तो तुरत – फुरत में कुछ सम्मान वगैरह पकड़ा देने की समाज – सरकार में होड़ मच जाती है। राष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़े पुरस्कार की घोषणा होते ही नजर के सामने आता है … एक बेहद  निस्तेज थका हुआ चेहरा…। सहज ही मन में सवाल उठता है … यह पहले क्यों नहीं हुआ। क्या अच्छा नहीं होता यह पुरस्कार उन्हें तब मिलता जब तक वे इसकी महत्ता को समझ – महसूस कर पाने में सक्षम थे। 

एक प्रख्यात गायक की जीवन संध्या में बैंक बैलेंस को लेकर अपने भतीजे के साथ विवाद हुआ। मामला अदालत तक गया। मसले का हल निकालने के लिए उस गायक ने किस – किस के पास मिन्नतें नहीं की। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हां यह और बात है कि दिल पर भारी बोझ लिए उस शख्सियत ने जब दुनिया को अलविदा कहा तो उनकी शवयात्रा को शानदार बनाने में समाज ने कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। एक और मुर्धन्य गायक को जब जीवन संध्या पर सरकार द्वारा पुरस्कार की घोषणा का पता चला तो वे बेहद उदास हो गए और हताशा में कहने लगे… क्यों करती है सरकार यह सब…मेरी दो तिहाई जिंदगी तो दो पैसे कमाने की कोशिश में बीत गई… अब इन पुरस्कारों का क्या मतलब। बुढ़ौती में तीरथ की विडंबना सिर्फ उच्च स्तर की प्रतिभाओं के मामले में ही नहीं है। छोटे शहरों या कस्बों में भी देखा जाता है कि आजीवन कड़ा संघर्ष करने वाली  प्रतिभाएं सामान्यतः उपेक्षित ही रहती है। समाज उनकी सुध तभी लेता है जब वे अंतिम पड़ाव पर होती है। वह भी तब जब उनकी सुध लेने या सहायता की कहीं से पहल हो। मदद का हाथ बढ़ाने  वालों को लगे कि इसमें उनका फायदा है। अन्यथा असंख्य समर्पित प्रतिभाओं को तो जीवन – संघ्या पर भी वह उचित सम्मान नहीं मिल पाता, जिसके वे हकदार होते हैं। 

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और दैनिक जागरण से जुड़े हैं। 
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तारकेश कुमार ओझा, भगवानपुर, जनता विद्यालय के पास वार्ड नंबरः09 (नया) खड़गपुर ( पश्चिम बंगाल) पिन ः721301 जिला पश्चिम मेदिनीपुर संपर्कः 09434453934 

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केजरीवाल के आदेश पर दिल्ली सचिवालय के बाहर मज़दूरों पर बर्बर लाठी चार्ज

​25 मार्च को दिल्ली में मज़दूरों पर जो लाठी चार्ज हुआ वह दिल्ली में पिछले दो दशक में विरोध प्रदर्शनों पर पुलिस के हमले की शायद सबसे बर्बर घटनाओं में से एक था। ध्यान देने की बात यह है कि इस लाठी चार्ज का आदेश सीधे अरविंद केजरीवाल की ओर से आया था, जैसा कि मेरे पुलिस हिरासत में रहने के दौरान कुछ पुलिसकर्मियों ने बातचीत में जिक्र किया था। कुछ लोगों को इससे हैरानी हो सकती है क्योंकि औपचारिक रूप से दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के मातहत है। लेकिन जब मैंने पुलिस वालों से इस बाबत पूछा तो उन्हों ने बताया कि रोज-ब-रोज की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिल्ली पुलिस को दिल्ली के मुख्यमंत्री के निर्देशों का पालन करना होता है, जबतक कि यह केन्द्र सरकार के किसी निर्देश/आदेश के विपरीत नहीं हो। ‘आप’ सरकार अब मुसीबत में पड़ चुकी है क्योंकि वह दिल्ली के मजदूरों से चुनाव में किए वायदे पूरा नहीं कर सकती। और दिल्ली के मजदूर ‘आप’ और अरविन्द केजरीवाल द्वारा उनसे किए गए वायदे को भूलने से इनकार कर रहे हैं। मालूम हो कि बीती 17 फरवरी को, दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लर्निंग के छात्रों ने खासी तादाद में वहां पहुंचकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया। इसके बाद, 3 मार्च को डीएमआरसी के सैकड़ों ठेका कर्मचारी केजरीवाल सरकार को अपना ज्ञापन देने गए थे और वहां उन पर भी लाठीचार्ज किया गया।

इस महीने की शुरुआत से ही विभिन्न मजदूर संगठन, यूनियनें, महिला संगठन, छात्र एवं युवा संगठन दिल्ली में 'वादा न तोड़ो अभियान' चला रहे हैं, जिसका मकसद है केजरीवाल सरकार को दिल्ली के गरीब मजदूरों के साथ किए गए उसके वायदों जैसे कि नियमित प्रकृति के काम में ठेका प्रथा को खत्म करना, बारहवीं तक मुफ्त शिक्षा, दिल्ली सरकार में पचपन हजार खाली पदों को भरना, सत्रह हजार नये शिक्षकों की भर्ती करना, सभी घरेलू कामगारों और संविदा शिक्षकों को स्थायी करना, इत्यादि की याद दिलाना और इसके बाद सरकार को ऐसा करने के लिए बाध्य करना। 25 मार्च के प्रदर्शन की सूचना केजरीवाल सरकार और पुलिस प्रशासन को पहले से ही दे दी गयी थी और पुलिस ने पहले से कोई निषेधाज्ञा लागू नही की थी। लेकिन 25 मार्च को जो हुआ वह भयानक था और क्योंकि मैं उन कार्यकर्ताओं में से एक था जिन पर पुलिस ने हमला किया, धमकी दी और गिरफ्तार किया, मैं बताना चाहूंगा कि 25 मार्च को हुआ क्या था, क्यों हजारों मजदूर, महिलाएं और छात्र दिल्ली सचिवालय गए, उनके साथ कैसा व्यवहार हुआ और किस तरह मुख्य धारा के मीडिया चैनलों और अखबारों ने मजदूरों, महिलाओं और छात्रों पर हुए बर्बर दमन को बहुत आसानी से ब्लैक आउट कर दिया?
25 मार्च को हजारों मजदूर, महिलाएं और छात्र दिल्ली सचिवालय क्यों गए?

​जैसा पहले बताया जा चुका है, कई मजदूर संगठन अरविन्द केजरीवाल को उन वायदों की याद दिलाने के लिए पिछले एक महीने से दिल्ली में 'वादा न तोड़ो अभियान' चला रहे हैं जो उनकी पार्टी ने दिल्ली के मजदूरों से किए थे। इन वायदों में शामिल हैं नियमित प्रकृति के काम में ठेका प्रथा खत्म करना; दिल्ली सरकार में पचपन हजार खाली पदों को भरना; सत्रह हजार नये शिक्षकों की भर्ती करना और संविदा शिक्षकों को स्थायी करना; सभी संविदा सफाई कर्मचारियों को स्थायी करना; बारहवीं कक्षा तक स्कूली शिक्षा मुफ्त करना; ये वे वायदे हैं जो तत्काल पूरे किए जा सकते हैं। हम जानते हैं कि सभी झुग्गीवासियों के लिए मकान बनाने में समय लगेगा; फिर भी, दिल्ली की जनता के सामने एक रोडमैप प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इसी तरह, हम जानते हैं कि बीस नये कॉलेज उपलब्ध कराने में समय लगेगा; हालांकि केजरीवाल मीडिया से कह चुके हैं कि कुछ व्यक्तियों ने दो कॉलेजों के लिए जमीन दी है और उन्हें यह जरूर बताना चाहिए कि वो जमीनें कहां हैं और राज्य सरकार इन कॉलेजों का निर्माण कब शुरू करने जा रही है। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने अपने किसी वायदे को पूरा नहीं किया। उन्होंने दिल्ली के फैक्टरी मालिकों और दुकानदारों से किए वायदे तत्काल पूरे किए! और उन्होंने ठेका मजदूरों के लिए क्या किया? कुछ भी नहीं, सिवाय केवल सरकारी विभागों के ठेका मजदूरों के बारे में एक दिखावटी अन्तरिम आदेश जारी करने के, जो कहता है कि सरकारी विभागों/निगमों में काम करने वाले किसी ठेका कर्मचारी को अगली सूचना तक बर्खास्त नहीं किया जाएगा। हालांकि, कुछ दिनों बाद ही अखबारों में खबर आयी कि इस दिखावटी अन्तरिम आदेश के मात्र कुछ दिनों बाद ही दर्जनों होमगार्डों को बर्खास्त कर दिया गया! इसका साधारण सा मतलब है कि अन्तरिम आदेश सरकारी विभागों में ठेका मजदूरों और दिल्ली की जनता को बेवकूफ बनाने का दिखावा मात्र था। इन कारकों ने दिल्ली के मजदूरों के बीच संदेह पैदा किया और इसके परिणामस्वरूप विभिन्न ट्रेड यूनियनों, महिला संगठनों, छात्र संगठनों ने केजरीवाल को दिल्ली की आम मजदूर आबादी से किए गए अपने वायदों की याद दिलाने के लिए अभियान चलाने के बारे में सोचना शुरू किया।

इसलिए, 3 मार्च को डीएमआरसी के ठेका मजदूरों के प्रदर्शन के साथ वादा न तोडो अभियान की शुरुआत की गयी। उसी दिन, केजरीवाल सरकार को 25 मार्च के प्रदर्शन के बारे में औपचारिक रूप से सूचना दे दी गयी थी और बाद में पुलिस प्रशासन को इस बारे में आधिकारिक तौर पर सूचना दी गयी। पुलिस ने प्रदर्शन से पहले संगठनकर्ताओं को किसी भी प्रकार की निषेधाज्ञा नोटिस जारी नहीं की। लेकिन, जैसे ही प्रदर्शनकारी किसान घाट पहुंचे, उन्हें मनमाने तरीके से वहां से चले जाने को कहा गया! पुलिस ने उन्हें सरकार को अपना ज्ञापन और मांगपत्रक सौंपने से रोक दिया, जोकि उनका मूलभूत संवैधानिक अधिकार है, जैसेकि, उन्हें सुने जाने का अधिकार, शान्तिपूर्ण एकत्र होने और अभिव्यक्ति का अधिकार।

25 मार्च को वास्तव में क्या हुआ?
दोपहर करीब 1:30 बजे, लगभग 3500 लोग किसान घाट पर जमा हुए। आरएएफ और सीआरपीएफ को वहां सुबह से ही तैनात किया गया था। इसके बाद, मजदूर जुलूस की शक्ल में शान्तिपूर्ण तरीके से दिल्ली सचिवालय की ओर रवाना हुए। उन्हें पहले बैरिकेड पर रोक दिया गया और पुलिस ने उनसे वहां से चले जाने को कहा। प्रदर्शनकरियों ने सरकार के किसी प्रतिनिधि से मिलने और उन्हें अपना ज्ञापन देने की बात कही। प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली सचिवालय की ओर बढ़ने की कोशिश की। तभी पुलिस ने बिना कोई चेतावनी दिए बर्बर तरीके से लाठीचार्ज शुरू कर दिया और प्रदर्शनकारियों को खदेड़ना शुरू कर दिया। पहले चक्र के लाठीचार्ज में कुछ महिला मजदूर और कार्यकर्ता गंभीर रूप से घायल हो गयीं और सैकड़ों मजदूरों को पुलिस ने दौड़ा लिया। 

हालांकि, बड़ी संख्या में मजदूर वहां बैरिकेड पर रुके रहे और अपना 'मजदूर सत्याग्रह' शुरू कर दिया। यद्यपि पुलिस ने कई मजदूरों को वहां से खदेड़ कर भगा दिया, फिर भी, लगभग 1300 मजदूर वहां जमे हुए थे और उन्होंने अपना सत्याग्रह जारी रखा था। लगभग 700 संविदा शिक्षक सचिवालय के दूसरी ओर थे, जो प्रदर्शन में शामिल होने आए थे, लेकिन पुलिस ने उन्हें प्रदर्शन स्थल तक जाने नहीं दिया। इसलिए उन्होंने सचिवालय के दूसरी तरफ अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखा। मजदूर संगठनकर्ता बार-बार पुलिस से आग्रह कर रहे थे कि उन्हें सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन देने दिया जाए। पुलिस ने इससे सीधे इनकार कर दिया। तब संगठनकर्ताओं ने पुलिस को याद दिलाया कि सरकार को ज्ञापन देना उनका संवैधानिक अधिकार है और सरकार इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य है। इसके बाद भी, पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन सौंपने नहीं दिया। तकरीबन डेढ़ घंटे इंतजार करने के बाद मजदूरों ने पुलिस को अल्टीमेटम दिया कि यदि आधे घंटे में उन्हें जाने नहीं दिया गया तो वे सचिवालय की ओर बढ़ेंगे। जब आधे घंटे के बाद पुलिस ने उन्हें सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन सौंपने नहीं दिया, इसके बाद पुलिस ने फिर से लाठीचार्ज किया। इस बार लाठीचार्ज ज्यादा बर्बर तरीके से हुआ।

​मैं पिछले 16 वर्ष से दिल्ली के छात्र आंदोलन और मज़दूर आंदोलन में सक्रिय रहा हूं और मैं कह सकता हूं कि मैंने दिल्ली में किसी प्रदर्शन के विरुद्ध पुलिस की ऐसी क्रूरता नहीं देखी है। महिला मज़दूरों और कार्यकर्ताओं को और मज़दूरों के नेताओं को खासतौर पर निशाना बनाया गया। पुरुष पुलिसकर्मियों ने निर्ममता के साथ स्त्रियों की पिटाई की, उन्हें बाल पकड़कर सड़कों पर घसीटा, कपड़े फाड़े, नोच-खसोट की और अपमानित किया। किसी के लिए भी यह विश्वास करना मुश्किल होता कि किस तरह अनेक पुलिसकर्मी स्त्री मज़दूरों और कार्यकर्ताओं को पकड़कर पीट रहे थे। कुछ स्त्री कार्यकर्ताओं को तब तक पीटा गया जब तक लाठियां टूट गयीं या स्त्रियां बेहोश हो गयीं। मज़दूरों पर नजदीक से आंसू गैस छोड़ी गयी।

सैकड़ों मज़दूर इसके विरोध में शांतिपूर्ण सत्याग्रह के लिए ज़मीन पर लेट गये, फिर भी पुलिसवाले उन्हें पीटते रहे। आखिरकार मज़दूरों ने वहां से हटकर राजघाट पर विरोध जारी रखने की कोशिश की लेकिन पुलिस और रैपिड एक्शमन फोर्स ने वहां भी उनका पीछा किया और फिर से पिटाई की। पुलिस ने 17 कार्यकर्ताओं और मज़दूरों को गिरफ्तार किया जिनमें से एक मैं भी था। मेरे एक साथी, युवा कार्यकर्ता अनन्त को हिरासत में लेने के बाद भी मेरे सामने पीटा जाता रहा। पुलिस ने उसे भद्दी-भद्दी गालियां दीं। हिरासत में अन्य कार्यकर्ताओं और मज़दूरों के साथ भी ऐसा ही बर्ताव जारी रहा। लगभग सभी गिरफ्तार व्यक्ति घायल थे और उनमें से कुछ को गंभीर चोटें आयी थीं।

चार स्त्री कार्यकर्ता शिवानी, वर्षा, वारुणी और वृशाली को हिरासत में लिया गया था और पिटायी में भी उन्हें खासतौर से निशाना बनाया गया था। वृशाली की उंगलियों में फ्रैक्चिर है, वर्षा के पैरों पर बुरी तरह लाठियां मारी गयीं, शिवानी की पीठ पर कई पुलिस वालों ने बार-बार चोट की और उनके सिर में भी चोट आयी और वारुणी को भी बुरी तरह पीटा गया। चोटों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वारुणी और वर्षा को जमानत पर छूटने के बाद 27 मार्च को फिर से अरुणा आसफअली अस्पाताल में भर्ती कराना पड़ा। स्त्री कार्यकर्ताओं को पुलिस वाले लगातार गालियां देते रहें। पुलिसकर्मियों ने स्त्री कार्यकर्ता को जैसी अश्लील गालियां और अपमानजनक टिप्परणियों का निशाना बनाया जिसे यहां लिखा नहीं जा सकता। कार्यकर्ताओं और विरोध प्रदर्शन करने वालों के सम्मान को कुचलने की पुरानी पुलिसिया रणनीति का ही यह हिस्सा था।

गिरफ्तार किये गये 13 पुरुष कार्यकर्ता भी घायल थे और उनमें से 5 को गंभीर चोटें आयी थीं। लेकिन उन्हें चिकित्सा उपचार के लिए 8 घंटे से ज्यादा इंतजार कराया गया जबकि उनमें से दो के सिर की चोट से खून बह रहा था। आईपी स्टेंट पुलिस थाने में रहने के दौरान कई पुलिस वालों ने हमें बार-बार बताया कि लाठी चार्ज का आदेश सीधे मुख्यपमंत्री कार्यालय से दिया गया था। साथ ही, पुलिस की मंशा शुरू से साफ थी : वे विरोध प्रदर्शनकारियों की बर्बर पिटाई करना चाहते थे। उन्होंने हमसे कहा कि इसका मकसद सबक सिखाना था।

अगले दिन 4 स्त्री साथियों को जमानत मिल गयी और 13 पुरुष कार्यकर्ताओं को दो दिन के लिए सशर्त जमानत दी गयी। आई पी स्टेट पुलिस थाने को जमानतदारों और गिरफ्तार लोगों के पते सत्यापित करने के लिए कहा गया। पुलिस गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को 14 दिन की पुलिस हिरासत में लेने की मांग कर रही थी। प्रशासन की मंशा साफ है : एक बार फिर कार्यकर्ताओं की पिटाई और यंत्रणा। पुलिस लगातार हमें फिर से गिरफ्तार करने और हम पर झूठे आरोप मढ़ने की कोशिश में है। जैसा कि अब पुलिस प्रशासन की रिवायत बन गयी है, जो कोई भी व्यवस्था के अन्याय का विरोध करता है उसे 'माओवादी'', ''नक्सलवादी'', ''आतंकवादी'' आदि बता दिया जाता है। इस मामले में भी पुलिस की मंशा साफ है। इससे यही पता चलता है कि भारत का पूंजीवादी लोकतंत्र कैसे काम करता है। खासतौर पर राजनीति और आर्थिक संकट के समय में, यह व्यंवस्था की नग्न बर्बरता के विरुद्ध मेहनतकश अवाम के किसी भी तरह के प्रतिरोध का गला घोंटकर ही टिका रह सकता है। 25 मार्च की घटनायें इस तथ्य की गवाह हैं।

आगे क्या होना है?
शासक हमेशा ही यह मानने की ग़लती करते रहे हैं कि संघर्षरत स्त्रियों, मज़दूरों और छात्रों-युवाओं को बर्बरता का शिकार बनाकर वे विरोध की आवाज़ों को चुप करा देंगे। वे बार-बार ऐसी ग़लती करते हैं। यहां भी उन्होंने वही ग़लती दोहरायी है। 25 मार्च की पुलिस बर्बरता केजरीवाल सरकार द्वारा दिल्ली के मेहनतकश ग़रीबों को एक सन्देश देने की कोशिश थी और सन्देश यही था कि अगर दिल्ली के ग़रीबों के साथ केजरीवाल सरकार के विश्वासघात के विरुद्ध तुमने आवाज़ उठायी तो तुमसे ऐसे ही क्रूरता के साथ निपटा जायेगा। हमारे घाव अभी ताजा हैं, हममें से कई की टांगें सूजी हैं, उंगलियां टूटी हैं, सिर फटे हुए हैं और शरीर की हर हरकत में हमें दर्द महसूस होता है। लेकिन, इस अन्याय के विरुद्ध लड़ने और अरविंद केजरीवाल और उसकी 'आप' पार्टी की घृणित धोखाधड़ी का पर्दाफाश करने का हमारा संकल्प और भी मज़बूत हो गया है।

ट्रेडयूनियनों, स्त्री संगठनों और छात्र संगठनों तथा हज़ारों मज़दूरों ने हार मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने घुटने टेकने से इंकार कर दिया है। हालांकि उनके बहुत से कार्यकर्ता अब भी चोटिल हैं और हममें से कुछ ठीक से चल भी नहीं सकते,फिर भी उन्होंने दिल्ली भर में भंडाफोड़ अभियान शुरू कर दिये हैं। केजरीवाल सरकार ने दिल्ली की मज़दूर आबादी के साथ घिनौना विश्वासघात किया है जिन्हों ने 'आप' पर बहुत अधिक भरोसा किया था। दिल्ली की मेहनतकश आबादी आम आदमी पार्टी की धोखाधड़ी के लिए उसे माफ नहीं करेगी। मेरे ख्याल से आम आदमी पार्टी का फासीवाद, कम से कम थोड़े समय के लिए, भाजपा जैसी मुख्‍य धारा की फासिस्ट पार्टी से भी ज्यादा खतरनाक है, और मैंने 25 मार्च को खुद इसे महसूस किया। और इसका कारण साफ है। जिस तरह कम से कम तात्कालिक तौर पर छोटी पूंजी बड़ी पूंजी के मुकाबले अधिक शोषक और उत्पीड़क होती है, उसी तरह छोटी पूंजी का शासन, कम से कम थोड़े समय के लिए बड़ी पूंजी के शासन की तुलना में कहीं अधिक उत्पीड़क होता है और आप की सरकार छोटी पूंजी की दक्षिणपंथी पापुलिस्टस तानाशाही का प्रतिनिधित्व करती है, और बेशक उसमें अंधराष्ट्रवादी फासीवाद का पुट भी है। 25 मार्च की घटनाओं ने इस तथ्य को साफ जाहिर कर दिया है।

जाहिर है कि केजरीवाल घबराया हुआ है और उसे कुछ सूझ नहीं रहा। और इसीलिए उसकी सरकार इस तरह के कदम उठा रही है जो उसे और उसकी पार्टी को पूरी तरह नंगा कर रहे हैं। वह जानता है कि दिल्ली की ग़रीब मेहनतकश आबादी से किये गये वादे वह पूरा नहीं कर सकता है, खासकर स्था‍यी प्रकृति के कामों में ठेका प्रथा खत्मा करना, क्योंकि अगर उसने ऐसा करने की कोशिश भी कि, तो वह दिल्लीं के व्यापारियों, कारखाना मालिकों, ठेकेदारों और छोटे बिचौलियों के बीच अपना सामाजिक और आर्थिक आधार खो बैठेगा। 'आप' के एजेंडा की यही खासियत है : यह भानुमती के पिटारे जैसा एजेंडा है (साफ तौर पर वर्ग संश्रयवादी एजेंडा) जो छोटे व्यापारियों, धनी दुकानदारों, बिचौलियों और प्रोफेशनल्स/स्‍वरोजगार वाले निम्न बुर्जुआ वर्ग के अन्य हिस्सों के साथ ही झुग्गीवासियों, मज़दूरों आदि की मांगों को भी शामिल करता है। यह अपने एजेंडा की सभी मांगों को पूरा कर ही नहीं सकता, क्यों कि इन अलग-अलग सामाजिक समूहों की मांगें एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। आप की असली पक्षधरता दिल्लीं के निम्न बुर्जुआ वर्ग के साथ है जो कि आप के दो महीने के शासन में साफ जाहिर हो चुका है। 'आप' वास्तव में और राजनीतिक रूप से इन्हीं परजीवी नवधनाढ्य वर्गों की पार्टी है। 'आम आदमी' की जुमलेबाजी सिर्फ कांग्रेस और भाजपा से लोगों के पूर्ण मोहभंग से पैदा हुए अवसर का लाभ उठाने के लिए थी। चुनावों होने तक यह जुमलेबाजी उपयोगी थी। जैसे ही लोगों ने 'आप' के पक्ष में वोट दिया, किसी विकल्प के अभाव में, अरविंद केजरीवाल का असली कुरूप फासिस्ट चेहरा सामने आ गया।

आंतरिक तौर पर भी, केजरीवाल धड़े और यादव-भूषण धड़े के बीच जारी सत्ता संघर्ष के चलते 'आप' की राजनीति नंगी हो गयी है। इसका यह मतलब नहीं कि अगर यादव धड़े का वर्चस्व होता, तो दिल्ली के मेहनतकशों के लिए हालात कुछ अलग होते। यह गंदी आंतरिक लड़ाई 'आप' के असली चरित्र को ही उजागर करती है और बहुत से लोगों को यह समझने में मदद करती है कि 'आप' कोई विकल्प़ नहीं है और यह कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, सीपीएम जैसी पार्टियों से कतई अलग नहीं है। खासतौर पर, दिल्ली के मज़दूर इस सच्चाई को समझ रहे हैं। यही वजह है कि 25 मार्च को ही पुलिस बर्बरता और केजरीवाल सरकार के विरुद्ध दिल्ली के हेडगेवार अस्पताल के कर्मचारियों ने स्वत:स्फू्र्त हड़ताल कर दी थी। दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन के मज़दूरों, अन्य अस्पतालों के ठेका मज़दूरों, ठेके पर काम करने वाले शिक्षकों, झुग्गीवासियों और दिल्ली के ग़रीब विद्यार्थियों और बेरोजगार नौजवानों में गुस्सा सुलग रहा है। दिल्ली का मज़दूर वर्ग अपने अधिकार हासिल करने और केजरीवाल सरकार को उसके वादे पूरे करने के लिए बाध्य करने के लिए संगठित होने की शुरुआत कर चुका है। मज़दूरों को कुचलने की केजरीवाल सरकार की बौखलाहट भरी कोशिशें निश्चित तौर पर उसे भारी पड़ेंगी।

मज़दूर, छात्र और स्त्री संगठनों ने दिल्ली के विभिन्न मेहनतकश और ग़रीब इलाकों में अपना भंडाफोड़ अभियान शुरू कर दिया है। अगर 'आप' सरकार दिल्ली के ग़रीब मेहनतकशों से किये गये अपने वादे पूरे करने में नाकाम रहती है और हजारों स्त्रियों, मज़दूरों और छात्रों पर किये गये घृणित और बर्बर हमले के लिए माफी नहीं मांगती है तो उसे दिल्ली के मेहनतकश अवाम के बहिष्कार का सामना करना होगा। 25 मार्च को हम पर, दिल्ली के मज़दूरों, स्त्रियों और युवाओं पर की गयी हरेक चोट इस सरकार की एक घातक भूल साबित होगी।

इस बर्बर लाठीचार्ज से जुड़ी अन्‍य फोटो, वीडियो व न्‍युज कवरेज को देखने के लिए इस लिंक पर जायें – http://www.mazdoorbigul.net/archives/7076

(लेखक  मज़दूर बिगुल के संपादक है और मज़दूर दस्ता और इतिहास विभाग, दिल्ली वि‍श्वविद्यालय में शोध छात्र हैं) 

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‘भारतीय भाषाओं की रक्षा और राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करना होगा’

हैदराबाद। उच्च शिक्षा और शोध संस्थान की स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर केंद्रीय हिंदी निदेशालय और स्टेट बैंक ऑफ़ हैदराबाद के सहयोग से आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी “मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' : अर्धशती समारोह” का उद्घाटन करते हुए प्रख्यात साहित्यकार, वर्तमान सांसद और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने कहा कि भाषा और साहित्य के माध्यम से विचारों को श्स्स्वत जीवन प्राप्त होता है इसलिए किसी जीवित समाज की पहचान उसकी राष्ट्रभाषा और जातीय साहित्य से होती है. उन्होंने आगे कहा कि यदि विचारों को खत्म कर दिया जाय तो सब कुछ अपने आप खत्म हो जाएगा. विचारशून्यता के कारण ही आज देश भर में अराजकता फ़ैल रही है. उन्होंने खेदपूर्वक कहा कि इस देश में भाषा के नाम पर अराजकता फैलाई जा रही है. डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने जोर देकर कहा कि हिंदी देश की आत्मा है, एकता का सूत्र है. उन्होंने यह भी कहा कि कुछ स्वार्थी लोग देश की आत्मा पर पत्थर रखकर बैठे हुए हैं. अंग्रेज तो इस देश को छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन अंग्रेजी भक्ति के रूप में वे अपनी मानसिकता यहीं छोड़ गए. आज हम सब उसी मानसिकता से लड़ रहे हैं. हमें पहचानना होगा कि भारतीय भाषाएँ हिंदी की ताकत हैं. हिंदी में संवेदना है, लालित्य है, अपनत्व है. उन्होंने सबसे अपील की कि भारतीय भाषाओं को बचाएँ, संस्कृति को बचाएँ और देश को बचाएँ तथा संविधान की भावना के अनुरूप हिंदी को व्यवहारिक अर्थ में भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने के संघर्ष और आंदोलन चलाएँ क्योंकि राष्ट्रभाषा से हमारी राष्ट्रीय पहचान जुड़ी है.

‘मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ के अर्धशती समारोह का बीजभाषण देते हुए प्रो. देवराज (आचार्य एवं अध्यक्ष, अनुवाद विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा) ने कहा कि किसी भी कवि को दरवाजा खोलकर जनता के बीच आकर खड़ा होना चाहिए और पाठक को भी कविता में जो अनेक पाठ छिपे हुए हैं उण पर ध्यान देना चाहिए. 'अंधेरे में' कविता में अनेक पाठ हैं. इसमें अपनी निजी भाषा की खोज है, जनता के व्यक्तित्व की खोज है. जनता अपने आपको आत्मीयता, निजीपन और निजता के साथ अभिव्यक्त करना चाहती है. 'अंधेरे में' का एक पाठ संभावना का पाठ भी है और साथ ही संकल्प का दर्शन भी. उन्होंने आक्रोशपूर्वक कहा कि यथास्थितिवादी व्यवस्थाओं ने पिछले दशकों में बंदूक के सामने बंदूक खड़ी कर दी जिससे सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश अंधेरे से ग्रस्त हो गया; अतः आज व्यवस्था पर पुनर्विचार आवश्यक है. अपनी सांस्कृतिक संपत्ति को पहचानने की आवश्यकता है. आज हमारे सामने सांस्कृतिकता को खोजने और पहचानने का संकट है. थोपे गए सभ्यता संघर्ष में हमें मानवीय सभ्यता और संस्कृति को बचाना होगा. उन्होंने कहा कि ये सभी बातें 'अंधेरे में' अंतर्निहित हैं जो उसकी प्रासंगिकता और पुनर्पाठ का आधार हैं.

उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ 50 वर्ष पूर्व अर्थात 1964 में हैदराबाद से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई थी और तब से अब तक यह कविता समीक्षकों के बीच निरंतर चर्चा का विषय बनी रही है. 

उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात साहित्यकार, वरिष्ठ शिक्षाविद एवं गढ़वाल विश्वविद्यालय, उत्तराखंड के पूर्व प्राचार्य डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ ने अत्यंत भावभीने स्वर में अपील की कि हिंदी को अपनाएँ और सभी भारतीय भाषाओं का आदर करें क्योंकि यह हमारे देश की संप्रेषणीयता का प्रतीक है. डॉ. अरुण ने अपना गीत ‘मौत ने मुझसे कहा मैं तुमको लेने आ रही हूँ’ सुनाकर समाँ बाँध दिया.

बतौर सम्मान्य अतिथि विश्वविख्यात कला संग्राहक एवं कला समीक्षक पद्मश्री जगदीश मित्तल, विशेष अतिथि डॉ. विष्णु भगवान शर्मा [सहायक महाप्रबंधक राजभाषा, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद], दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सह-सचिव के. वेंकटेश्वर राव, संगोष्ठी संयोजक सी. एस. होसगौडर और संगोष्ठी निदेशक प्रो. ऋषभदेव शर्मा मंचासीन थे. इन सभी ने ‘एक’ कविता पर केंद्रित इस त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के महत्व पर प्रकाश डालते हुए हिंदी के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ पर चर्चा की.

चिरक इंटरनेश्नल के बाल कलाकारों ने इस अवसर पर 'अंधेरे में' का मंचन किया जिसका नाट्य निर्देशन डॉ. मंजु शर्मा और जयश्री जाजू ने किया. दर्शकों ने बाल कलाकारों की प्रस्तुति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की. 

इस अवसर पर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की मासिक पत्रिका ‘स्रवंति’ के संगोष्ठी विशेषांक का लोकार्पण भी किया गया. इस अंक में हरिशंकर परसाई, शमशेर बहादुर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी, गजानन माधव मुक्तिबोध, नामवर सिंह, रामविलास शर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, देवीशंकर अवस्थी और विष्णु खरे के दस्तावेजी आलेखों को सम्मिलित किया गया जो ‘अंधेरे में’ के पुनर्पाठ में सहायक हैं.

‘मुक्तिबोध : व्यक्ति और रचनाकार” विषयक पहले विचार सत्र की अध्यक्षता 'भास्वर भारत' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने की तथा मुख्य अतिथि के रूप में बी. जे. आर. डिग्री कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. घनश्याम उपस्थित रहे. डॉ. साहिराबानू बी. बोरगल ने मुक्तिबोध के जीवन और व्यक्तिव पर प्रकाश डाला तो डॉ. गोरखनाथ तिवारी ने उनके साहित्यिक प्रदेय पर समीक्षात्मक चर्चा की.  

 “अंधेर में : पुनर्पाठ” शीर्षक दूसरे विचार सत्र की अध्यक्षता प्रो. देवराज ने की तथा मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. एम. वेंकटेश्वर उपस्थित रहे. इस सत्र में डॉ. बलविंदर कौर ने “अंधेरे में : कथ्य विश्लेषण”, डॉ. मृत्युंजय सिंह ने “अंधेरे में का वैशिष्ट्य : स्थापत्य का विशेष संदर्भ” और डॉ. बी. बालाजी ने “मुक्तिबोध और अंधेरे में : वाया नया ज्ञानोदय” विषयक तीन विचारोत्तेजक शोधपत्र प्रस्तुत किए.

इस समारोह का दूसरा दिन अत्यंत विचारोत्तेजक और मौलिक सूझ से परिपूर्ण रहा. यह एक विस्मयकारी अनुभव था कि इस अवसर के लिए अलग-अलग अनुवादकों ने मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का 12 अलग-अलग भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया है. इन समस्त अनुवादों का लोकार्पण पहले दिन डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने किया तथा दूसरे दिन अनुवादकों ने अपन्रे अनुवाद अनुभव पर चर्चा की जिस पर खुला परिसंवाद चला. उल्लेखनीय है कि ‘अंधेरे में’ का अनुवाद तेलुगु में डॉ. भागवतुल हेमलता ने, कन्नड में साहेबहुसैन जहागीरदार और डॉ. एस. टी. मेरावाडे ने, तमिल में डॉ. जी. नीरजा ने, मलयालम में डॉ. श्याम प्रसाद ने, मराठी में मेघा आचार्य ने, राजस्थानी में डॉ. मंजु शर्मा ने, उर्दू में डॉ. सैयद मासूम रज़ा ने, बांग्ला में प्रो. देवराज ने, ओडिया और ब्रजभाषा में विजेंद्र प्रताप सिंह ने, मणिपुरी में डॉ. ई. विजयलक्ष्मी ने तथा कॉकबरक में डॉ. मिलन जमातिया ने किया है.

समारोह के तीसरे दिन दो समांतर सत्रों में 60 से अधिक शोधार्थियों ने शोधपत्र प्रस्तुत किए. इन सत्रों की अध्यक्षता तेलंगाना विश्वविद्यालय से संबद्ध डॉ. प्रवीणा राज और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय से संबद्ध डॉ. करन सिंह ऊटवाल ने की तथा प्रो. एम. वेंकटेश्वर और डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह विशेषज्ञ के रूप में उपस्थित रहे.

उल्लेखनीय है कि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के निदेशक प्रो. ऋषभदेव शर्मा को उनकी सुदीर्घ हिंदी सेवा और साहित्य सृजन के लिए हैदराबाद स्थित प्रतिभा प्रकाशन की ओर से ‘सुगुणा साहित्य पुरस्कार 2015’ से सम्मानित भी किया गया. इस अवसर पर पुरस्कार-संयोजक डॉ. एम. रंगैय्या ने पुरस्कृत साहित्यकार के व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय दिया.

इस संगोष्ठी में भाग लेने के लिए हैदराबाद के अतिरिक्त तेलंगाना तथा आंध्रप्रदेश के दूरदराज इलाकों से आए 200 से अधिक साहित्य प्रेमी, पत्रकार, विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक, शोधार्थी एवं छात्र उपस्थित रहे।

प्रस्तुति : डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा
प्राध्यापक
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
खैरताबाद, हैदराबाद – 500 004
मोबाइल – 0984998634

 

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म.प्र. के मालवा के मूल निवासी थे पं. मालवीय

मरणोपरांत भारत रत्न पाने वाले मदन मोहन मालवीय के परिवार की जड़ें मध्‍यप्रदेश के मालवा से जुड़ी हैं। उनके परदादा प्रेमधर मालवीय मालवा की मिट्टी में ही पले और बढ़े। 1819 में मुस्लिमों के शासनकाल में श्री गौड़ ब्राम्हण परिवार के साथ शासक अन्याय करने लगे थे। इससे तंग आकर प्रेमधर यूपी में बस गए, लेकिन परिवार का मालवा से लगाव था, इसलिए सरनेम मालवीय ही रखा।

यह बात महामना की पड़पोती वसुंधरा ओहरी ने बताई। वे इंदौर की बहू हैं और बीते 25 सालों से मनोरमागंज में रहती हैं। वे कहती हैं मालवीय जी को भारत रत्न मिलने की खुशी पूरे परिवार को है। यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि यह सम्मान देने का फैसला देरी से हुआ, गर्व इस बात का है कि उनकी देशभक्ति को सराहा गया।

वसुंधरा बताती हैं बचपन में हमें माता-पिता मालवीय जी के किस्से सुनाते थे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए वे खुद को सबसे बड़ा भिखारी बोलते थे। पैसा एकत्र करने के लिए उनके आत्मसम्मान को कई बार ठेस भी पहुंची, लेकिन उन्होंने कभी बुरा नहीं माना। उनका रहन-सहन सादा था, लेकिन विचार उच्च रहते थे।

पेशे से वकील थे, लेकिन देश की खातिर उन्होंने वकालत छोड़ दी। वसुंधरा कहती हैं महामना से प्रेरित होकर मेरी मां चिंता उपाध्याय आजादी के आंदोलन से जुड़ी और जेल भी गई। मां हमसे हमेशा कहती थी कि काम ऐसा करो कि जमाना हमारी मिसाल दे। खुद के लिए जीना जिंदगी नहीं है।

 

साभार- दैनिक नईदुनिया से 

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