Tuesday, November 26, 2024
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‘सॉफ्टवेयर’ इंजीनियर से ‘सेल्फ अवेयर’ साधिका का नया सफर

दीक्षार्थी कु.प्रगति कोटड़िया के संकल्प पर�डॉ.चन्द्रकुमार जैन की आत्मीय चर्चा�

राजनांदगांव। संस्कारधानी के संस्कार,सुलझे हुए विचार और आत्मकल्याण को व्यवहार में उतारने का अडिग संकल्प लेकर मुमुक्षु कु.प्रगति कोटडिया दो मार्च को श्री कैवल्यधाम तीर्थ,कुम्हारी में श्री जैन भागवती दीक्षा ग्रहण करेंगी। कम्प्यूटर साइंस में बी.ई.की उपाधि प्राप्त प्रगति का चिंतन अब जीवन और जगत के वास्तविक स्वरूप और आत्मा की धुन के स्थायी आनंद की खोज की तरफ रुख कर रहा है। वह 'सॉफ्टवेयर' इंजीनियर से आगे बढ़कर अब पल-पल 'सेल्फ अवेयर' रहकर जीने और स्वयं की पहचान करने की कठिन व चुनौतीपूर्ण डगर पर चलने के लिए तैयार है। प्रगति शहर के प्रतिष्ठित कोटडिया परिवार के श्री प्रभात कोटडिया व श्रीमती ममता कोटडिया की सुपुत्री हैं।

मात्र 25 वर्ष की युवावस्था में जीवन के इस अहम मोड़ पर महाभिनिष्क्रमण दीक्षा अंगीकार करने के लिए प्रस्तुत दीक्षार्थी कु.प्रगति के संकल्प पर प्रोफ़ेसर डॉ.चन्द्रकुमार जैन ने ख़ास चर्चा व मंथन किया। उसके अनुसार कु.प्रगति का स्पष्ट मंतव्य है कि साधना का मार्ग कठिन है, लेकिन सहज और सरल मार्ग पर तो सभी चलते हैं। मनुष्य जीवन की जिम्मेदारी उससे बड़ी है। मिट्टी से घड़ा बनने की यात्रा में मिट्टी के जीवन में न जाने कितनी वेदना के कितने पड़ाव आते हैं, जिन्हें शांत भाव से सहकर मिट्टी अंततः विशेष पात्रता अर्जित करती है। वह जल धारण करने के योग्य बन जाती है। जीवन नदी में बहने वाली मिटटी की तरह नहीं, दर्द सहकर एक घट में बदलकर किसी की बुझाने वाली मिट्टी बन जाए तो कोई बात बने।�

गौरतलब है कि कु.प्रगति ने यह पूछने पर कि सूर्य का ताप जब धरती को आग उगलने के लिए विवश कर देगा, दूसरे मौसम भी जब अपना विकराल रूप दिखाएंगे तब तुम अपने कोमल पांवों से चलकर और सब कुछ सहकर कैसे रह पाओगी, उत्तर मिला कि जिस प्रकार कुम्भकार के हाथों पूरी श्रद्धा के साथ खुद को सौंपकर और सारे कष्ट सहकर मिट्टी घड़े में परिवर्तित हो जाती है, उसी तरह मेरा अडिग विशवास है कि ' मैं भी अपने पूज्य गुरु भगवंतों के आशीष और पूजनीय गुरूवर्या के चरणों में स्वयं को पूर्णतःसमर्पित कर, अनुकूल-प्रतिकूल हर मौसम और हर माहौल में रहकर,सब कुछ सहकर अपनी साधना पूर्ण करने में अवश्य सफल होउंगी।' �स्मरणीय है कि परम विदुषी साध्वी, मरुधर ज्योति श्री मणिप्रभा श्रीजी म.सा.चरणों में कु.प्रगति अपना सर्वस्व समर्पित करने जा रहीं हैं।�

मुमुक्षु प्रगति ने इस सवाल पर कि आज विज्ञान के असीम विस्तार और सुख-साधनों की आश्चर्यकारी बढ़ोतरी के बावजूद सुख-वैभव के सपनो से दूर संन्यास और पांच महाव्रत की दुरूह राह अपनाने का सबब क्या है, प्रगति ने सहज भाव से उत्तर दिया कि वास्तविक और अनंत सुख तो हमारी आत्मा में बसा है। बाहर के सुख साधन तो दिखते हैं,लेकिन आत्मा के अनंत वैभव को खोजना पड़ता है। बाहरी सुख धन से मिल सकता है, किन्तु आत्मा का सुख तो केवल धुन से पाया जा सकता है। प्रगति ने कहा – 'मैं अब आत्मा की उसी खोज की राह पर अपनी धुन में चल पड़ी हूँ। अपना दीप खुद बनने और जीवन में ही जीवन में मर्म को पाने की यात्रा मुझे सहर्ष स्वीकार है। मैं जानती हूँ मार्ग आसान नहीं है, बाधाएं आयेंगीं, संयम को कसौटी पर भी रखना पडेगा, फिर भी मेरा मन कहता है कि प्रभु की कृपा और गुरूवर्या के आशीष से मैं अपने मन को हर हाल में नियंत्रित कर लूंगी। मुझे विश्वास है कि मेरी साधना को सबका आशीष मिलता रहेगा।'�

उल्लेखनीय है कि दीक्षा का मूल अर्थ सत्य की खोज है। लेकिन यह खोज जब बाहर से भीतर की तरफ प्रवेश करती है तब सम्पूर्ण जीवन रूपांतरण का नया अध्याय शुरू होता है। दीक्षार्थी अपने विशुद्ध चैतन्य की खोज में निकला हुआ एक अन्तर्यात्री होता है। इसी अंतरयात्रा पर निकलीं कु.प्रगति दृढ़ता पूर्वक कहतीं हैं कि परम सत्य को पाने के लिए साधु जीवन एक महान अवसर है। उनमें उत्सुकता व जिज्ञासा के साथ-साथ पूरी लगन से उस सत्य को पाने की अडिग निष्ठा स्पष्ट दिखती है। प्रगति को मंगल कामनाएं।

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होली के आध्यात्मिक रंग

भारतवर्ष की ख्याति पर्व-त्यौहारों के देश के रूप में है। इन पर्व-त्यौहारों की श्रृंखला में होली का विशेष महत्व है। होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलनेवाला है। यह पर्व शिशिर ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का प्रतीक है। वसंत के आगमन के साथ ही फसल पक जाती है और किसान फसल काटने की तैयारी में जुट जाते हैं। वसंत की आगमन तिथि फाल्गुनी पूर्णिमा पर होली का आगमन होता है, जो मनुष्य के जीवन को आनंद और उल्लास से प्लावित कर देता है।

होली का पर्व मनाने की पृष्ठभूमि में अनेक पौराणिक कथाएं एवं सांस्कृतिक घटनाएं जुड़ी हुई हैं। पौराणिक कथा की दृष्टि से इस पर्व का संबंध प्रह्लाद और होलिका की कथा से जोड़ा जाता है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप नास्तिक थे तथा वे नहीं चाहते थे कि उनके घर या पूरे राज्य में उन्हें छोड़कर किसी और की पूजा की जाए। जो भी ऐसा करता था, उसे जान से मार दिया जाता था। प्रह्लाद को उन्होंने कई बार मना किया कि वे भगवान विष्णु की पूजा छोड़ दे, परंतु वह नहीं माना। अंततः उसे मारने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किए, परंतु सफल नहीं हुए। हिरण्यकश्यप की बहन का नाम होलिका था, जिसे यह वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि मंे नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ जाए ताकि प्रह्लाद जलकर राख हो जाए। होलिका प्रह्लाद को लेकर जैसे ही आग के ढेर पर बैठी, वह स्वयं जलकर राख हो गई, भक्त प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। बाद में भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध किया। उसी समय से होलिका दहन और होलिकोत्सव इस रूप में मनाया जाने लगा कि वह अधर्म के ऊपर धर्म, बुराई के ऊपर भलाई और पशुत्व के ऊपर देवत्व की विजय का पर्व है। 

एक कथा यह भी प्रचलित है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्टों का दमन कर गोपबालाओं के साथ रास रचाया, तब से होली का प्रचलन शुरू हुआ। श्रीकृष्ण के संबंध में एक कथा यह भी प्रचलित है कि जिस दिन उन्होंने पूतना राक्षसी का वध किया, उसी हर्ष में गोकुलवासियों ने रंग का उत्सव मनाया था। लोकमानस में रचा-बसा होली का पर्व भारत में हिन्दुमतावलंबी जिस उत्साह के साथ मनाते हैं, उनके साथ अन्य समुदाय के लोग भी घुल-मिल जाते हैं। उसे देखकर यही लगता है कि यह पर्व विभिन्न संस्कृतियों को एकीकृत कर आपसी एकता, सद्भाव तथा भाईचारे का परिचय देता है। फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन लोग घरों से लकडि़यां इकट्ठी करते हैं तथा समूहों में खड़े होकर होलिका दहन करते हैं। होलिका दहन के अगले दिन प्रातःकाल से दोपहर तक फाग खेलने की परंपरा है। प्रत्येक आयुवर्ग के लोग रंगों के इस त्यौहार में भागीदारी करते हैं। इस पर्व में लोग भेदभाव को भुलाकर एक दूसरे के मुंह पर अबीर-गुलाल मल देते हैं। पारिवारिक सदस्यों के बीच भी उत्साह के साथ रंगों का यह पर्व मनाया जाता है।

जिंदगी जब सारी खुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार देती है।  होली हमारे देश का एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है। अध्यात्म का अर्थ है मनुष्य का ईश्वर से संबंधित होना है या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना। इसलिए होली मानव का परमात्मा से एवं स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का पर्व है। असल में होली बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। आनंद और उल्लास के इस सबसे मुखर त्योहार को हमने कहाँ-से-कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। कभी होली के चंग की हुंकार से जहाँ मन के रंजिश की गाँठें खुलती थीं, दूरियाँ सिमटती थीं वहाँ आज होली के हुड़दंग, अश्लील हरकतों और गंदे तथा हानिकारक पदार्थों के प्रयोग से भयाक्रांत डरे सहमे लोगों के मनों में होली का वास्तविक अर्थ गुम हो रहा है। होली के मोहक रंगों की फुहार से जहाँ प्यार, स्नेह और अपनत्व बिखरता था आज वहीं खतरनाक केमिकल, गुलाल और नकली रंगों से अनेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं और मनों की दूरियाँ भी। हम होली कैसे खेलें? किसके साथ खेलें? और होली को कैसे अध्यात्म-संस्कृतिपरक बनाएँ। होली को आध्यात्मिक रंगों से खेलने की एक पूरी प्रक्रिया आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रणित प्रेक्षाध्यान पद्धति में उपलब्ध है। इसी प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत लेश्या ध्यान कराया जाता है, जो रंगों का ध्यान है। होली पर प्रेक्षाध्यान के ऐसे विशेष ध्यान आयोजित होते हैं, जिनमें ध्यान के माध्यम से विभिन्न रंगों की होली खेली जाती है। 

यह तो स्पष्ट है कि रंगों से हमारे शरीर, मन, आवेगों, कषायों आदि का बहुत बड़ा संबंध है। शारीरिक स्वास्थ्य और बीमारी, मन का संतुलन और असंतुलन, आवेगों में कमी और वृद्धि-ये सब इन प्रयत्नों पर निर्भर है कि हम किस प्रकार के रंगों का समायोजन करते हैं और किस प्रकार हम रंगों से अलगाव या संश्लेषण करते हैं। उदाहरणतः नीला रंग शरीर में कम होता है, तो क्रोध अधिक आता है, नीले रंग के ध्यान से इसकी पूर्ति हो जाने पर गुस्सा कम हो जाता है। श्वेत रंग की कमी होती है, तो अशांति बढ़ती है, लाल रंग की कमी होने पर आलस्य और जड़ता पनपती है। पीले रंग की कमी होने पर ज्ञानतंतु निष्क्रिय बन जाते हैं। ज्योतिकेंद्र पर श्वेत रंग, दर्शन-केंद्र पर लाल रंग और ज्ञान-केंद्र पर पीले रंग का ध्यान करने से क्रमशः शांति, सक्रियता और ज्ञानतंतु की सक्रियता उपलब्ध होती है। प्रेक्षाध्यान पद्धति के अन्तर्गत ‘होली के ध्यान’ में शरीर के विभिन्न अंगों पर विभिन्न रंगों का ध्यान कराया जाता है और इस तरह रंगों के ध्यान में गहराई से उतरकर हम विभिन्न रंगों से रंगे हुए लगने लगा।

यद्यपि आज के समय की तथाकथित भौतिकवादी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, स्वार्थ एवं संकीर्णताभरे वातावरण से होली की परम्परा में बदलाव आया है । परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की खुशी और मस्ती को प्रभावित भी किया है, लेकिन आज भी बृजभूमि ने होली की प्राचीन परम्पराओं को संजोये रखा है । यह परम्परा इतनी जीवन्त है कि इसके आकर्षण में देश-विदेश के लाखों पर्यटक ब्रज वृन्दावन की दिव्य होली के दर्शन करने और उसके रंगों में भीगने का आनन्द लेने प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं ।

    बसन्तोत्सव के आगमन के साथ ही वृन्दावन के वातावरण में एक अद्भुत मस्ती का समावेश होने लगता है, बसन्त का भी उत्सव यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । इस उत्सव की आनन्द लहरी धीमी भी नहीं हो पाती कि प्रारम्भ हो जाता है, फाल्गुन का मस्त महीना । फाल्गुन मास और होली की परम्पराएँ श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बद्ध हैं और भक्त हृदय में विशेष महत्व रखती हैं। श्रीकृष्ण की भक्ति में सराबोर होकर होली का रंगभरा और रंगीनीभरा त्यौहार मनाना एक विलक्षण अनुभव है। मंदिरों की नगरी वृन्दावन में फाल्गुन शुक्ल एकादशी का विशेष महत्व है । इस दिन यहाँ होली के रंग खेलना परम्परागत रूप में प्रारम्भ हो जाता है । मंदिरों में होली की मस्ती और भक्ति दोनों ही अपनी अनुपम छटा बिखेरती है।
    इस दिव्य मास और होली के रंग में अपने आपको रंगने के लिये भक्तगण होली पर सुदूर प्रान्तों एवं स्थानों से वृन्दावन आकर आनन्दित होते हैं। उनकी वृन्दावन तक की यात्रा कृष्णमय बनकर चलती हैं और उसमें भी होली की मस्ती छायी रहती है। रास्ते भर बसों में गाना-बजाना, होली के रसिया और गीत, भक्ति प्रधान नृत्य, कभी-कभी तो विचित्र रोमांच होने लगता है । वृन्दावन की पावन भूमि में पदार्पण होते ही भक्तों की टोलियों का विशेष हृदयग्राही नृत्य बड़ा आकर्षक होता है । लगता है, बिहारीजी के दर्शनों की लालसा में ये इतने भाव-विह्वल हैं कि जमीन पर पैर ही नहीं रखना चाहते । कोई किसी तरह की चिन्ता नहीं, कोई द्वेष और मनोमालिन्य नहीं, केवल सुखद वातावरण का ही बोलबाला होता है। होली को सम्पूर्णता से आयोजित करने के लिये मन ही नहीं, माहौल भी चाहिए और यही वृंदावन आकर देखने को मिलता है।
दरअसल मनुष्य का जीवन अनेक कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ है। वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता है। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल बना रहता है। ऐसे ही क्षणों में होली जैसे पर्व उसके जीवन में आशा का संचार करते हैं। जर्मनी, रोम आदि देशों में भी इस तरह के मिलते-जुलते पर्व मनाए जाते हैं। गोवा में मनाया जाने वाला ‘कार्निवाल’ भी इसी तरह का पर्व है, जो रंगों और जीवन के बहुरूपीयपन के माध्यम से मनुष्य के जीवन के कम से कम एक दिन को आनंद से भर देता है। होली रंग, अबीर और गुलाल का पर्व है। परंतु समय बदलने के साथ ही होली के मूल उद्देश्य और परंपरा को विस्मृत कर शालीनता का उल्लंघन करने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। प्रेम और सद्भाव के इस पर्व को कुछ लोग कीचड़, जहरीले रासायनिक रंग आदि के माध्यम से मनाते हुए नहीं हिचकते। यही कारण है कि आज के समाज में कई ऐसे लोग हैं जो होली के दिन स्वयं को एक कमरे में बंद कर लेना उचित समझते हैं।

सही अर्थों में होली का मतलब शालीनता का उल्लंघन करना नहीं है। परंतु पश्चिमी संस्कृति की दासता को आदर्श मानने वाली नई पीढ़ी प्रचलित परंपराओं को विकृत करने में नहीं हिचकती। होली के अवसर पर छेड़खानी, मारपीट, मादक पदार्थों का सेवन, उच्छंृखलता आदि के जरिए शालीनता की हदों को पार कर दिया जाता है। आवश्यकता है कि होली के वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात किया जाए और उसी के आधार पर इसे मनाया जाए। होली का पर्व भेदभाव को भूलने का संदेश देता है, साथ ही यह मानवीय संबंधों में समरसता का विकास करता है। होली का पर्व शालीनता के साथ मनाते हुए इसके कल्याणकारी संदेश को व्यक्तिगत जीवन में चरितार्थ किया जाए, तभी पर्व का मनाया जाना सार्थक कहलाएगा।

संपर्क 
-(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25, आई0पी0 एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोन: 22727486 मो. 9811051133

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माफियाओं ने दिलवाया था सचिन को भारत रत्न

पूर्व हॉकी खिलाड़ी व पूर्व केंद्रीय मंत्री असलम शेर खान के एक बयान ने नया विवाद खड़ा दिया है। उन्होंने गुरुवार को एक समारोह के दौरान कहा कि भारत रत्न तो 'हॉकी के जादूगर' मेजर ध्यानचंद को मिलना चाहिए था, लेकिन यह सचिन तेंडुलकर को मिला। तेंडुलकर को भारत रत्न केवल इसलिए मिला, क्योंकि मुंबई के उद्योगपति, माफिया और बड़े-बड़े लोग उनका समर्थन कर रहे थे। क्रिकेट तो सिर्फ मुंबई का खेल है। सचिन दो दशक तक भारत नहीं बल्कि रिकॉर्ड बनाने के लिए क्रिकेट खेला। यदि विराट कोहली को भी लगातार 20 साल टीम में रखने का आश्वासन दे दिया जाए तो वह भी सचिन के बराबर शतक और रिकॉर्ड बना लेगा।

एक समारोह में कानपुर पहुंचे असलम शेर खान ने कहा कि ध्यानचंद को भारत रत्न केवल इसलिए नहीं मिला क्योंकि वे गरीब थे। खेल के नाम पर क्रिकेट को बढ़ावा दिया जा रहा है। सब कुछ स्पॉन्सर्स के पैसे पर चल रहा है। विदेशी कोचों को करोड़ों रुपए दिए जा रहे हैं।

हॉकी की बुरी हालत पर खान ने निराशा जाहिर करते हुए खान ने कहा कि इस खेल का रेप कर दिया गया है। इसने खुद को बचाने की कोशिश की लेकिन किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया और यही कारण रहा कि हॉकी खत्म सी हो गई है। यूरोपीय देशों ने साजिश के तहत इसके नियमों में बदलाव किए लेकिन भारत-पाक के लोग इसे नहीं भांप सके। यदि समय पर इसका विरोध किया जाता तो आज हम किसी अलग मुकाम पर होते। हॉकी कुदरती घास पर खेली जानी चाहिए। यह समय की मांग है। सरकार भी हॉकी पर कोई चर्चा नहीं करती। पीएम मोदी को झाड़ू की जगह हॉकी उठाना चाहिए और इसको बढ़ावा देने पर काम करना चाहिए।

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‘इमेज एण्ड इफेक्टिव स्पीकिंग’ पर डॉ.चन्द्रकुमार जैन की प्रस्तुति 1 मार्च को

राजनांदगांव। शिक्षण, प्रबंधन, व्यवसाय और निजी जीवन में भी सधे हुए अंदाज़ में बोलने की कला के बढ़ते दायरे और अहमियत को ध्यान में रखते हुए जाने-माने वक्ता, प्रशिक्षक, शिक्षाविद और राष्ट्रपति सम्मानित शासकीय दिग्विजय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राध्यापक डॉ.चन्द्रकुमार जैन अपना लोकप्रिय प्रेसेंटेशन देंगे। महाराष्ट्र के गोंदिया में स्वामी विवेकानंद की स्मृति को समर्पित प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान के अलावा नागपुर में आयोजित कार्यक्रम में डॉ.जैन पहली मार्च, रविवार को 'इमेज एण्ड इफ्फेक्टिव पब्लिक स्पीकिंग' पर आधारित प्रभावशाली प्रस्तुति में समझायेंगे कि किस तरह प्रभावी जन-सम्बोधन, सुलझी हुई अभिव्यक्ति और समयोचित संवाद से व्यक्तित्व निर्माण के साथ-साथ संस्था की छवि में निखार लाया जा सकता है। आमंत्रित लगभग डेढ़ हजार श्रोताओं के समक्ष डॉ.जैन के प्रेजेंटेशन का विविध माध्यमों से प्रसारण भी किया जायेगा। 

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श्री प्रभु ने दुस्साहस दिखाया रेल्वे में सुधार का

जैसी कि अपेक्षा थी, रेलवे बजट में आम लोगों की कुछ चिंताओं-समस्याओं पर ध्यान दिया गया है। रेल बजट में सरकार ने लोकलुभावन तौर-तरीकों से हटते हुए एक बड़ा बदलाव किया है और जुलाई 2014 में लाई गई कुछ अव्यावहारिक परियोजनाओं के मद्देनजर नई योजनाओं से परहेज करते हुए कोई नई ट्रेन शुरू नहीं करने का निर्णय लिया है। ऐसा इसलिए, ताकि पूर्व घोषित योजनाओं को पूरा किया जा सके और अनावश्यक घोषणाओं से बचा जा सके। रेल किरायों को यथावत रखा गया है। इनमें कुछ कटौती की अपेक्षा थी, क्योंकि वर्ष 2014 में जुलाई से दिसंबर के बीच तेल कीमतों में गिरावट आई है। इस मामले में एक स्पष्ट वक्तव्य ज्यादा अच्छा रहता। ऐसा प्रतीत होता है कि किराये में आठ प्रतिशत की वृद्धि की जा सकती थी, लेकिन तेल की कीमतों में कमी के कारण इससे बचा गया और कुल मिलाकर यह रहा कि किराये में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वैसे आने वाले दिनों में किराये में कमी की मांग उठ सकती है और तब हो सकता है कि रेलमंत्री को उस पर विचार करना पड़े।

रेल बजट में सरकार ने गंभीरता दिखाई है और क्षमता निर्माण की चुनौती पर ध्यान देकर सही काम किया है। इसके परिणामस्वरूप परिवहन लागत को घटाने में रेलवे को काफी मदद मिलेगी। अवमूल्यन में कमी लाने के लिए 10,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो कि एक मुश्किल लक्ष्य है। रेलमंत्री ने योजना बजट में 52 फीसद से अधिक की वृद्धि की है। इसी तरह कुल बजटीय समर्थन 33 प्रतिशत बढ़ गया है। इसके अलावा आंतरिक राजस्व सृजन का लक्ष्य 50 फीसद से भी अधिक रखा गया है, जबकि न तो यात्री किराए और न ही माल भाड़े में उल्लेखनीय वृद्धि की गई है। सीमेंट, कोयला, खाद्यान्न्, कच्चे लोहे आदि की ढुलाई के लिए मामूली वृद्धि की घोषणा की गई है।

रेलवे के आधुनिकीकरण और उसकी क्षमता को बढ़ाने और मजबूत करने के लिए कई बड़े कदम उठाए गए हैं। खर्च मूल्यांकन की शुरुआत किए जाने से जहां बर्बादी को रोकने में मदद मिलेगी, वहीं दूसरी ओर इससे रेलवे को अतिरिक्त आंतरिक राजस्व जुटाने में भी मदद मिलने की उम्मीद की जा सकती है। रेल मंत्री ने आगामी 5 वर्षों में रेलवे में 8,56,000 करोड़ रुपए निवेश किए जाने की बात कही है। रेलवे की आवश्यकताओं और उसकी प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए यह सही दिशा में कदम है। आगामी दो वर्षों में 9 रेलवे रूट पर 200 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से ट्रेन चलाए जाने की योजना कोई आसान काम नहीं है। रेल रूटों और कोचों की स्थिति को देखते हुए यह व्यावहारिक नहीं दिखता। हां, इतना अवश्य है कि यदि ऐसा हो पाता है तो देश की तरक्की की दिशा में यह एक बड़ा कदम होगा।

जम्मू-कश्मीर में चालू परियोजनाओं में आंशिक सफलता मिलने के बावजूद परियोजनाएं बहुत विलंबित है और आने वाले समय के संदर्भ में इन्हें पूरा कर पाना कठिन चुनौती है। इसलिए और भी, क्योंकि ये परियोजनाएं उस स्तर पर पहुंच गई हैं, जहां काम पूरा करना सबसे कठिन है।

देश के विभिन्न हिस्सों और लोगों को जोड़ने में रेलवे एक बहुत ही महत्वपूर्ण और गतिशील भूमिका का निर्वहन कर रही है। भारत में औद्योगीकरण की दिशा में इसकी महती भूमिका है। यह भारत सरकार की सर्वाधिक उत्पादक इकाई कही जा सकती है जिसमें लाखों की संख्या में लोगों को रोजगार मिला हुआ है। यह देश की विशाल आबादी की दिन-प्रतिदिन की जरूरतों और आम लोगों की परिवहन आवश्यकताओं के मद्देनजर बड़ी भूमिका निभाती है। भूमि उपयोग और ऊर्जा के कुशल उपयोग के मामले में रेलवे सबसे बेहतर है।

इन सबके बावजूद रेलवे कुछ विरोधाभासों से भी घिरी हुई है। पिछले रेलमंत्री के शब्दों में, ऐसा शायद ही कोई बिजनेस हो, जिसके पास 125 करोड़ की संख्या में ग्राहक आधार हो और जिसकी शत प्रतिशत बिक्री अग्रिम भुगतान के आधार पर होती हो, लेकिन बावजूद इसके रेलवे आज भी फंड के अभाव से जूझ रही है। अभी हाल की ही बात करें तो सैम पित्रोदा और अनिल काकोदकर समिति ने आगामी दस वर्षों में इसमें 7-8 लाख करोड़ रुपए की राशि निवेश किए जाने की आवश्यकता जताई थी। वर्ष 2008-09 में जहां कुल बजटीय समर्थन 7,600 करोड़ रुपए था, वहीं 2014-15 में यह बढ़कर 30,100 करोड़ रुपए पहुंच गया। गत पांच वर्षों में रेलवे के पास मौजूद अतिरिक्त राशि लगभग खत्म हो गई और नए राजस्व का सृजन भी नहीं हो सका। संपत्तियों के अवमूल्यन के कारण रेलवे की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है।

रेलवे के समक्ष अपनी सामाजिक बाध्यताएं पूरी करने की चुनौती हमेशा रहती है। रेलवे की जिम्मेदारी सस्ता परिवहन उपलब्ध कराना है। इसके लिए तीस हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी की जरूरत होती है। अपने देश में चीन और जापान की तुलना में यात्री किराए की दरें क्रमश 2.8 तथा 9.3 गुना कम हैं। पिछले सात वर्ष में कामकाजी खर्च तीन गुना तक बढ़ गए हैं।

रेलवे से एक सामान्य व्यक्ति की सुनिश्चित सीट, सुरक्षा, साफ-सफाई की अपेक्षा होती है। पुख्ता आर्थिक संसाधनों के बिना यह सब उपलब्ध कराना आसान काम नहीं है। डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर के माध्यम से ट्रैक क्षमता का सही इस्तेमाल वर्षों पहले अपेक्षित था। अब जब 2019 में यह योजना धरातल पर उतर आएगी तो भी बात नहीं बनेगी। आठ प्रतिशत की विकास दर से कदमताल मिलाने के लिए रेलवे को इसके अलावा भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। एफडीआई उन योजनाओं-परियोजनाओं में मददगार हो सकती है, जहां से लाभ की आशा है, लेकिन दीर्घकाल में रेलवे को अपना बुनियादी ढांचा खुद ही मजबूत करना होगा। हमारा चयन इस तरह होना चाहिए कि रेलवे और निवेशक, दोनों के लिए लाभ की स्थिति उभरे। आधुनिकीकरण, तकनीक का समावेश, संपत्तियों के इस्तेमाल में सुधार और उत्पादकता में वृद्धि वे क्षेत्र हैं, जिनके बिना काम नहीं चलने वाला। मानवशक्ति सबसे बड़ा संसाधन है, पर उसे और कार्यकुशल बनाने की जरूरत है।

-लेखक रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्‍य हैं।

 

साभार- दैनिक नईदुनिया से 

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भारतीय रेल को पटरी पर लाएंगे श्री सुरेश प्रभु

पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट (सीए) रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने अपने पहले रेल बजट में बेहतरीन वित्तीय प्रबंधन का कौशल दिखाया है।  रेलवे के लिए नया आईटी विजन का प्रस्ताव रेल मंत्री ने रखा है। इसके लिए रेल में तकनीकी विकास के लिए नए विचारों के लिए कायाकल्प नाम से एक इनोवेशन परिषद बनाने की तैयारी है। चलती गाड़ियों में बर्थ की उपलब्धता की आनलाइन सूचना के लिए एक वेब पोर्टल शुरू किया जा रहा है। माल डिब्बों में पार्सल कहां है। इसके लिए नई तकनीक शुरू होगी। वेबसाइट पर घर बैठे इसकी जानकारी मिलेगी।
उन्होंने बजट में केंद्र सरकार के दूसरे मंत्रालयों, सरकारी उपक्रमों और राज्यों से वित्तीय सहायता हासिल का फार्मूला सुझाया है। प्रभु ने पहली बार एलआईसी व पेंशन फंड से कर्ज लेने का रास्ता तैयार किया है। रेल मंत्री के रोडमैप से रेलवे के विकास की पटरी पर सरपट दौड़ने आस जगी है। सुरेश प्रभु ने रेल बजट 2015-16 योजना बजट का आकार एक लाख करोड़ से अधिक रखा है। जो कि गत वर्ष की बजट की अपेक्षा 52 फीसदी अधिक है। रेल मंत्री केंद्र सरकार से 40,000 करोड़ रुपये बजटीय सहायता प्राप्त करने में सफल रहे है।
 
पिछले रेल बजट में रेलवे को महज 31,000 करोड़ रुपये मिले थे। प्रभु रेलवे के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए पहली बार भारतीय जीवन बीमा निगम, पेंशन फंड, वित्तीय संस्थानों से 34,791 करोड़ रुपये का कर्ज लेने की योजना बनाई है। यह कर्ज 30 सालों के लिए होगा। जबकि डीजल पर सेस के जरिए प्रभु 1645 करोड़ रुपये जुटाएंगे। पीपीपी के जरिए रेलवे के खाते में 5781 करोड़ रुपये आएंगे। इतना ही नहीं नई रेलवे लाइन बिछाने, लाइनों का अमान परिवर्तन, विद्युतीकरण, दोहरी, तिहारी और चौथी लाइनों को बिछाने के लिए राज्यों के साथ स्पेशल परपज व्हीकल (कंपनी) बनाया जाएगा। कई राज्यों ने रेल मंत्री को आश्वासन दिया है कि वह रेल परियोजनाओं के लिए भूमि व 50 फीसदी धन देने को तैयार हैं। सुरेश प्रभु ने कोयला, ऊर्जा, खनन, इस्पात, वाणिज्य मंत्रालयों को नई लाइनें बिछाने में निवेश के लिए तैयार कर लिया है।
 
प्रभु के फार्मूले के तहत उक्त मंत्रालय की ओर से किए गए निवेश को रेलवे ब्याज सहित तय समय पर वापस करेगी। इससे मंत्रालयों व रेलवे दोनों को फायदा होगा और रेलवे की आय में भारी बढ़ोत्तरी होगी। ध्यान देने की बात यह है कि रेल मंत्री रेलवे के लेखाकंन प्रणाली (एकाउंट सिस्टम) में सुधार कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर की लेखाकंन व्यवस्था लागू होने पर विश्व बैंक, एडीबी, जायका आदि से रेलवे को कर्ज मिलने का रास्ता साफ होगा। पैसे का जुगाड़ हासिल करने के बाद सुरेश प्रभु रेल संरक्षा, रेल ट्रैक की क्षमता, नई रेल लाइनें आदि परियोजनाओं पर तेजी से अमल किया जा सकेगा।  कोच-इंजन-वैगन का उत्पादन बढ़ेगा। इसके अलावा पीपीपी मोड में 50 स्टेशनों का नवीनीकरण करने की योजना है।
 

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बजट 2015: अन्य देशों से भारत की तुलना

सन् 2014 में नई सरकार के चुनाव के साथ ही, भारत के विकास पर विश्व की पैनी नज़र है। इस सरकार से बहुत अधिक अपेक्षाएँ हैं। देखा जा रहा है की अब भारत की तुलना विश्व के अन्य बड़े देशों जैसे; अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ, कनाडा आदि से की जा रही है। ये भी देखा जा रहा है की लोगों ने बेहतर रणनीति बनाने के लिए विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं की तुलना भारत की अर्थव्यवस्था से करना प्रारंभ कर दिया है। यहाँ कुछ ऐसे मुख्य बिंदु प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिनका ध्यान आप इस तरह की तुलना करने के दौरान रख सकते हैं।

  • कर-निर्धारण: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के अनुसार कर द्वारा भारत का राजस्व सकल घरेलू उत्पाद का 19.8%4 है। यह चीन जैसे अन्य विकासशील बाज़ारों से सकल घरेलू उत्पाद के औसत 27%4 से काफी कम है। विशेष रूप से कहा जाए तो, जब देश अधिक धनवान होते हैं तब कर से प्राप्त राजस्व में अत्यधिक वृद्धि होती है। अमेरिका के लिए यह 31.5%4 और ब्रिटेन में 37.6%4 है। रूस सकल घरेलू उत्पाद का 34%4 राजस्व कर से प्राप्त करता है जबकि ब्राज़ील लगभग 38%4 प्राप्त करता है। भारत अपना ध्यान अधिक से अधिक लोगों को कर के दायरे में लाने में केंद्रित कर रहा है। भारत का ध्यान वस्तु एवं सेवा कर (वसेक) या जीएसटी जैसे प्रभावी प्रक्रिया के कार्यान्वयन पर भी केंद्रित है।
  • रक्षा व्यय: रक्षा व्यय धन की वह राशि होती है जिसे सरकार एक वर्ष में अपनी सेना पर खर्च करती है। विश्व बैंक सांख्यिकी यह बताती है कि भारत ने सन् 2012-13 में सकल घरेलू उत्पाद का 2.4%1 रक्षा खर्चों के लिए आवंटित किया था। इसमें रक्षा मंत्रालय, अन्य सरकारी एजेंसियों, सभी रक्षा परियोजनाओं, और सैन्य तथा अंतरिक्ष गतिविधियों पर किए गए खर्च शामिल हैं। अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि भारतीय प्रतिरक्षा व्यय विश्व में 9वें स्थान पर आता है। देश की रक्षा तैयारियों को बढ़ावा देने की बात ध्यान में रखते हुए, भारत ने मुख्य रक्षा परियोजनाओं पर महँगे खर्च किए हैं। अपने उन संघर्षों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका सकल घरेलू उत्पाद का 3.8%1 प्रतिरक्षा पर खर्च करता, जिनमें वह शामिल है। चीन ने 2.1%1आवंटित किया जबकि रूस ने सैन्य खर्च के रूप में सकल घरेलू उत्पाद का 4.2%1 अलग रखा।
  • आधारभूत ढांचागत व्यय: आर्थिक विकास के लिए आधारभूत ढांचागत विकास एक मुख्य सहायक होता है। सड़क, जल और वायु मार्ग को समाविष्ट करने वाला लॉजिस्टिक आधारभूत ढाँचा रीढ़ की एक ऐसी हड्डी होता है जिसके सहारे देश आगे बढ़ता है। विश्व बैंक का एक तुलनात्मक डेटा यह बताता है कि भारत में कुल 40 लाख 60 हज़ार किलोमीटर लम्बी सड़कों का 53.8%1भाग की पक्का है। अमेरिका और चीन में यह आँकड़ा 60%1 से भी ऊपर है। यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी 72.6%1 सड़कें पक्की हैं। 1हालाँकि, इस संख्या को बढ़ाने के लिए सरकार नीतियाँ बना रही है। इससे युवाओं में रोज़गार को भी बढ़ावा मिलेगा।
  • समाज कल्याण व्यय: भारत अधिकतर उद्योग और व्यापारों के लिए आर्थिक सहायता देने में सहज होता है। लेकिन विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं के साथ तुलना किए जाने पर यह पता चलता है कि समाज कल्याण व्यय में भारत बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है। महा भुखमरी, बाल श्रम, अगम्य स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यय आदि कुछ ऐसे कारक हैं जिनकी तुलना विश्व के शीर्ष देशों से किया जाना भारत नज़रअंदाज करता है। भारत सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 8%1 समाज कल्याण पर खर्च करता है। यह औद्योगीकृत देशों के औसत खर्च 14%1 की तुलना में बहुत कम है, जबकि दक्षिण आफ्रीका और ब्राज़ील दोनों भारत के खर्च का लगभग दुगुना खर्च करते हैं। विश्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार, स्वास्थ्य सेवाओं के लिए प्रति व्यक्ति किया जाने वाला खर्च भारत के लिए केवल 61 डॉलर रहा। चीन में यह 335 डॉलर और अमेरिका तथा अन्य धनी देशों में यह 8,9001 डॉलर है।
  • वित्तीय घाटा: वित्तीय घाटा पैसे की उस कमी को कहते हैं जिसका सामना सरकार को आय के सभी साधनों को ध्यान में रखते हुए अपने सभी खर्चों के लेखांकन के बाद करना होता है। रिपोर्ट यह बताती हैं कि भारत का वित्तीय घाटा पूरे साल के बजट अनुमान को पार कर चुका है। सन् 2013 के अंत में 95.2%2 की तुलना में 2014 के अंत में वित्तीय घाटा 2014-15 के अनुमान का 100.2%2 था। हालाँकि, वर्तमान सरकार वित्तीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 4.1%2 तक सीमित रखने का अपना प्रयास जारी रख रही है। यह पिछल 7 सालों में सबसे निचले स्तर पर होगा। इसकी सहायता के लिए भी सरकार बहुत से कदम उठा रही है।
  • चालू खाते का घाटा : मूल रूप से समझें तो, जब किसी देश द्वारा आयात किए गए सामान और सेवाओं की मात्रा उसके द्वारा निर्यात किए गए सामान और सेवाओं से अधिक होती है तब, यह चालू खाते का घाटा कहलाता है। भारत में चालू खाते का घाटा अधिकाधिक रूप से कच्चे तेल की वैश्विक कीमत पर निर्भर होता है। मुख्य रूप से, अमेरिका द्वारा शेल गैस के भारी उत्पादन और इराक, इरान, सउदी अरब और रूस द्वारा आपूर्ति में की जाने वाली वृद्धि के कारण, विश्व में तेल की कीमतों में गिरावट देखी जा रही है। रिपोर्ट यह बताती हैं कि वित्तीय वर्ष 2015 में भारत के लिए चालू खाते का घाटा गिरकर 1.4%3 पर आ सकता है। यही रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि आगामी तिमाही में, सात साल के बाद पहली बार भारत चालू खाते में अधिकता का स्वाद भी चख सकता है।

स्रोत — कोटक सिक्युरिटीज़
प्रेषक – प्रवीण कुमार Praveen <cs.praveenjain@gmail.com>

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जमीन छीन लीजिए पर संवाद तो कीजिए

भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने आते ही जिस तरह भूमि अधिग्रहण को लेकर एक अध्यादेश प्रस्तुत कर स्वयं को विवादों में डाल दिया है, वह बात चौंकाने वाली है। यहां तक कि भाजपा और संघ परिवार के तमाम संगठन भी इस बात को समझ पाने में असफल हैं कि जिस कानून को लम्बी चर्चा और विवादों के बाद सबकी सहमति से 2013 में पास किया गया, उस पर बिना किसी संवाद के एक नया अध्यादेश और फिर कानून लाने की जरूरत क्या थी? इस पूरे प्रसंग में साफ दिखता है कि केन्द्र सरकार के अलावा कोई भी पक्ष इस विधेयक के साथ नहीं है। हिन्दुस्तान के विकास के सपनों के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार से इतनी तो उम्मीद की ही जाती है कि वह बहुमत के अंहकार के बजाय जनमत के सम्मान का रास्ता अख्तियार करे। प्रधानमंत्री और उनके मंत्री इस मामले में एक रणनीतिक चूक का शिकार हुए हैं। जिसके चलते पूरे देश में भ्रम, निराशा और आक्रोश का वातावरण बन गया है। शायद सरकार के आकलन में कुछ भूल थी जिसके चलते किसी स्तर पर भी संवाद किए बिना इस बने-बनाए कानून से छेड़खानी की गई।

खाली जमीनों का कीजिए उपयोगः
    केंद्र सरकार इस विषय में संवादहीनता के आरोप से नहीं बच सकती, भले ही वह सत्ता की ताकत और अपने मैनेजरों के कुशल प्रबंधन से विधेयक को पास भी करा ले जाए। जाहिर तौर पर इस विधेयक का विरोध करने वाले लोग विकास विरोधी ही कहे जाएंगे और सरकार उन्हें विकास के रास्ते में रोड़े अटकाने वाले पत्थरों के रूप में ही आरोपित करना चाहेगी। लेकिन जहां छह करोड़ परिवारों के पास आज भी इंच भर जमीन नहीं है, वहां ऐसी बातें चिंता में डालती हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस देश में लड़ा गया सबसे बड़ा युद्ध महाभारत, दुर्योधन के द्वारा पांडवों को पांच गांव भी न देने की महाजिद के चलते शुरू हुआ था। दुर्योधन अपनी सत्ता की अकड़ में श्री कृष्ण से कहता है कि “हे केशव मैं युद्ध के बिना सूर्ई की नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा। ” भारत की सरकार 1894 के अंग्रेजों के काले कानून को 2013 में बदल पाई और अब फिर वह इतिहास को पीछे ले जाने की तैयारी है। देश में आज भी तमाम उद्योगों के नाम पर आरक्षित 50 हजार एकड़ भूमि खाली पड़ी है। कुल कृषि योग्य भूमि का 20 प्रतिशत बंजर पड़ी है। इन जमीनों के बजाय नई सरकार बहुउपयोगी और सिंचित भूमि का अधिग्रहण करने को लालायित है। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या किसानों के हित और देश के हित अलग-अलग हैं? यह सच्चाई सबको पता है कि किस तरह सार्वजनिक कामों के लिए जमीनों का अधिग्रहण कर उनका लैंड यूज चेंज किया जाता है। 2010-11 में जो सवाल उठे थे, वे आज भी जिंदा हैं। सिंगूर, नंदीग्राम और भट्टापारसाल से लेकर मथुरा तक ये कहानियां बिखरी पड़ी हैं। सरकार ने हालात न सम्भाले तो टप्पल किसान आंदोलन जैसी स्थितियां दोबारा लौट सकती हैं।

इतनी हड़बड़ी में क्यों है सरकारः
            वर्ष 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून के समय श्रीमती सुषमा स्वराज, श्री विनय कटियार और रविशंकर प्रसाद ने संसद में जो कुछ कहा था, वे भाषण फिर से सुने जाने चाहिए और भाजपा से पूछा जाना चाहिए कि उनके सत्ता में रहने के और विपक्ष में रहने के आचरण में इतना द्वंद्व क्यों है? जिस कानून को बने साल भर नहीं बीता उस पर अध्यादेश और उसके बाद एक नया कानून लाने की तैयारी सरकार की विश्वसनीयता और हड़बड़ी पर सवाल खड़े करती है। एक साल के भीतर ही नया कानून लाने की जरूरत पर सवाल उठ रहे हैं। सरकार के प्रबंधकों को इस व्यापक विरोध की आशंका जरूर रही होगी। बावजूद इसके किसानों को साथ लेने की कोशिश क्यों नहीं की गई? यह एक बड़ा सवाल है। सरकार का कहना है कि उसने कई गैर-भाजपा राज्यों के सुझावों पर बदलाव करते हुए यह अध्यादेश जारी किया है। सवाल यह उठता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने विरोधी राजनीतिक दलों के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की सलाह पर इतनी मेहरबान क्यों है कि उसे अपनी छवि की भी चिंता नहीं है। दिल्ली का चुनाव इन्हीं अफवाहों और भ्रमों के बीच हारने के बावजूद बीजेपी खुद को कॉरपोरेट और उद्योगपतियों के समर्थक तथा किसानों और आम आदमियों के विरोधी के रूप में स्थापित क्यों करना चाहती है?  यह आश्चर्य ही है कि लोगों को भरोसे में लिए बिना कोई राजनीतिक दल अपनी छवि को भी दांव पर लगाकर विकास की राजनीति करना चाहे। ऐसे विकास के मायने क्या हैं, जिसका लोकमत विरोधी हो? जिन कांग्रेसी और अन्य दलों के मित्रों के सुझाव पर भाजपा सरकार यह अध्यादेश लाई है, वे सड़क पर सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं।

भूमि अधिग्रहण तो ठीक भूमि-वितरण पर भी सोचिएः
   किसी भी भूमि अधिग्रहण के पहले, जिस सार्वजनिक सर्वेक्षण की वकालत पुराना कानून करता है, उसे हटाना भी खतरनाक है। इस कानून की स्टैंडिंग कमेटी की चेयरमैन रहीं श्रीमती सुमित्रा महाजन आज लोकसभा की अध्यक्ष हैं। जाहिर तौर पर 2013 में बने कानून के प्रभावों का साल-दो साल अध्ययन करने के बाद सरकार किसी नये कानून की तरफ लोगों से व्यापक विमर्श के बाद आगे बढ़ती तो कितना अच्छा होता। इस देश में भूमि अधिग्रहण की घटनाएं अनेक बार हुई हैं, विकास के नाम पर लगभग छह करोड़ लोगों का विस्थापन आजादी के बाद हुआ है। लेकिन, आप देखें तो केवल 17 प्रतिशत लोगों का हमारी सरकारें पुनर्वास कर सकी हैं। भाखड़ा नांगल बांध से लेकर नर्मदा के विस्थापित आज भी अपने बुनियादी अधिकारों के लिए मोहताज हैं। आजादी के बाद ऐसी स्थितियां हमें बताती हैं कि आज भी आखिरी आदमी सत्ताधीशों की चिंताओं से बहुत दूर है। देश में भूमिहीनों की एक बड़ी संख्या के बाद भी भूमि सुधार की दिशा में सरकारों ने बहुत कम काम किया है। सरकारें भूमि अधिग्रहण पर बातें करती हैं लेकिन भूमिहीनों को भूमि वितरण के सवाल पर खामोशी ओढ़ लेती हैं। जनहित क्या सिर्फ अमीरों को जमीन देना है या गरीबों को जमीनों से महरूम रखना?  संसद में एक समय श्री विनय कटियार और श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि 70 या 80 नहीं बल्कि 100 प्रतिशत किसानों की सहमति होने पर ही भूमि का अधिग्रहण किया जाना चाहिए। क्या राजनीति सत्ता में होने की अलग है और विपक्ष में होने की अलग?

क्या सरकारें ही देशहित में सोचती हैः
 किसानों की आत्महत्याओं की निरंतर खबरों के बीच सरकार बता रही है कि कब, किसकी सरकार के समय कितने अध्यादेश आए थे। आखिर इस तरह के कुतर्कों का मतलब क्या है?  आप हजार अध्यादेश लाएं वह एक संवैधानिक व्यवस्था है, किंतु क्या ये अध्यादेश बहुत जरूरी था, क्या इसके पक्ष में जनमत है? इन प्रश्नों का विचार जरूर करना चाहिए। या फिर जनमत बनाने की ओर बढ़ना चाहिए। केंद्र के एक माननीय मंत्री कहते हैं कि “हमारा बहुमत है, हम कानून पास करेंगे।” सत्ता की ऐसी भाषा न तो लोकतांत्रिक है, न ही स्वीकार्य। इसी तरह की देहभाषा और वाचालता जब यूपीए के मंत्री दिखाते थे, तो देश ने उसे दर्ज किया और समय पर प्रतिक्रिया भी की। हमारे वर्तमान राष्ट्रपति स्वयं ही एक अनुभवी राजनेता हैं। वे केंद्र की बहुमत प्राप्त सरकार को यह आगाह कर चुके हैं कि वह अध्यादेशों से बचे और लोगों की सहमति से कानून बनाए। बेहतर होगा कि सरकार इस पूरे मामले पर लोगों से सुझाव मांगे क्योंकि इस सरकार ने वोट अच्छे दिनों के लिए मांगे थे। अगर सरकार के किसी कदम से समाज के किसी वर्ग में यह आशंकाएं भी पैदा हो रही हैं कि वह उनके खिलाफ कानून बना रही है तो प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी है कि वे अपने ‘मन की बात’ लोगों से सीधे करें, न कि संसद के फ्लोर मैनेजर के भरोसे देश को छोड़ दें। यह कैसे माना जा सकता है कि सरकारें ही राष्ट्रहित में सोचती हैं? अगर ऐसा होता तो सरकारों के खिलाफ इतने बड़े-बड़े आंदोलन न खड़े होते और सरकारें न बदलतीं।

   आज देश में लगभग 350 जगहों पर भूमि को लेकर टकराव दिख रहे हैं। एक जमाने में भाजपा ने खुद स्पेशल एकॉनोमिक जोन का विरोध किया था। सेज के नाम पर लगभग सात राज्यों में 38 हजार 245 हेक्टेयर जमीन सरकार ने किसानों से ली, उनमें से ज्यादातर खाली पड़ी हैं। पुनर्वास और उजड़ते किसानों की चिंताओं के बावजूद सरकारें एक सरीखा चरित्र अख्तियार कर चुकी हैं। जिनमें अच्छे दिनों की उम्मीदें दम तोड़ रही हैं। 1947 में जहां 20 करोड़ लोग खेती पर निर्भर थे, वहीं आज 70 करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं। ऐसे में अगर शरद यादव राज्यसभा में यह कहते हैं कि “खेती से बड़ा कोई उद्योग नहीं है” तो हमें इस बात पर विवाद नहीं करना चाहिए। बेहतर होगा कि हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री स्वयं आगे आकर देश के किसानों और आमजन की शंकाओं का समाधान करें। देश उनके मुंह से सुनना चाहता है कि आखिर यह कानून कैसे लोगों का उद्वार करेगा? वे कहेंगे तो लोग जमीनें छोड़ सकते हैं, लेकिन शर्त है कि सरकार संवाद तो करे।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
 
-संजय द्विवेदी, 
अध्यक्षः जनसंचार विभाग,
 माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, 
प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 09893598888

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सविष्कार (आईफास्ट-2015) आज से, भोपाल में जुटेंगे देशभर के वैज्ञानिक, टेक्नोक्रेट और शोधार्थी

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान करेंगे तीन दिवसीय आयोजन का उद्घाटन

भोपाल। मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद, विद्यार्थी कल्याण न्यास और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संयुक्त तत्वावधान में मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (मैनिट) में 26 से 28 फरवरी तक सविष्कार (आईफास्ट-2015) का आयोजन किया जा रहा है। सविष्कार का उद्घाटन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान करेंगे। उद्घाटन समारोह का आयोजन 26 फरवरी को दोपहर 3:30 बजे मैनिट के विक्रम साराभाई हॉल किया जाएगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री भूपेन्द्र सिंह करेंगे। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि उच्च एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री उमाशंकर गुप्ता, छत्तीसगढ़ के उच्च एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री प्रेम प्रकाश पाण्डेय, फेडरेशन ऑफ मध्यप्रदेश चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री के अध्यक्ष रमेशचन्द्र अग्रवाल, मैनिट की अध्यक्ष डॉ. गीता बाली और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री श्रीहरि बोरिकर भी मौजूद रहेंगे। 

            अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय मंत्री आशीष चौहान ने बताया कि स्वदेशी प्रौद्योगिकी और वैज्ञानिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के लिए हो रहे सविष्कार में देशभर से वैज्ञानिक, औद्योगिक संस्थानों के प्रतिनिधि, युवा वैज्ञानिक और सरकार संस्थाएं भाग ले रही हैं। तीन दिन चलने वाले इस आयोजन में विभिन्न विषयों पर 15 सत्रों में 200 से अधिक रिसर्च पेपर प्रस्तुत किए जाएंगे। इसके साथ ही युवा वैज्ञानिक 11 थीम पर करीब 300 प्रोजेक्ट का प्रदर्शन करेंगे। प्रत्येक थीम में तीन श्रेष्ठ प्रोजेक्ट को औद्योगिक संस्थान पुरस्कार भी देंगे। वैज्ञानिक संस्थान इसरो और डीआरडीओ सहित मध्यप्रदेश का पर्यटन, कृषि और ऊर्जा विभाग भी अपनी उपलब्धियों के संबंध में प्रदर्शनी लगाएंगे। इस आयोजन में छत्तीसगढ़ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद भी सहभागी है।

            सविष्कार में ये रहेंगे शामिल : सविष्कार में भोपाल, गोवा, रायपुर, पटना, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और अगरतला सहित देश के अन्य एनआईटी अपने प्रोजेक्ट और तकनीकी पेपर प्रस्तुत करेंगे। तीन दिवसीय इस आयोजन में नवाचार एवं गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोत, समकालीन/परंपरागत भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का पुनरावलोकन, मैकेनिकल इंजीनियरिंग में नए रुझान, इलेक्ट्रीकल्स, इलेक्ट्रोनिकी, पर्यावरण, पर्यटन, वास्तुकला, कृषि और रसायन विज्ञान से संबंधित विषयों पर विशेषज्ञ अपने व्याख्यान प्रस्तुत करेंगे। इस दौरान विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का भी समाधान किया जाएगा। विशेषज्ञ के तौर पर एसटीपीआई के महानिदेशक डॉ. ओमकार राय, एनपीएल नईदिल्ली के वैज्ञानिक डॉ. आलोक मुखर्जी, मप्र पर्यटन के प्रबंध निदेशक अश्विनी लोहानी, ग्लोबल आईएनसी बैंगलूरू के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुहास गोपीनाथ, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की प्रो. कुसुमलता केडिया, टेकपीडिया अहमदाबाद के सीईओ हिरण्यमय महंता, सैफिया टेक्नोलॉजी भोपाल के प्रबंध निदेशक धनंजय पाण्डेय, इंडियन रेवेन्यू सर्विस के डायरेक्टर सुश्री संगीता गोडबोले, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल के कुलपति प्रो. बीके कुठियाला, भारतीय शिक्षण मण्डल नागपुर के अखिल भारतीय सह संगठन मंत्री मुकुल कानिटकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व विभाग के रवि अय्यर सहित अन्य विद्वान अपने विचार व्यक्त करेंगे।

            प्रदर्शनी में दिखेंगे नवाचार : देश का सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्थान इसरो और डीआरडीओ भी अपने नए आविष्कार एवं उपलब्धियों की प्रदर्शनी सविष्कार में लगाएंगे। बीईई, एसटीपीआई सहित मध्यप्रदेश के पर्यटन, कृषि, आईटी और ऊर्जा विभाग भी अपनी उपलब्धियों की प्रदर्शनी लगाएंगे। इसके साथ ही देशभर से आ रहे विज्ञान और तकनीक के विद्यार्थी अपने प्रोजेक्ट को प्रदर्शित करेंगे।
 

 
                                                                                                            मीडिया समन्वयक
                                                                                                                 रितेश बिरथरे
                                                                                                     (मोबाइल : 9584491526)

संपर्क
लोकेन्द्र सिंह 
Contact :
Department Of Mass Communication
Makhanlal Chaturvedi National University Of 
Journalism And Communication
B-38, Press Complex, Zone-1, M.P. Nagar,
Bhopal-462011 (M.P.)
Mobile : 09893072930
www.apnapanchoo.blogspot.in

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हे रेलवे के नीति – नियंताओं​! हमें मंजिल पर समय से पहुंचने वाली ट्रेनें ही दे दीजिए …!​!

चाचा , यह एलपी कितने बजे तक आएगी। 
पता नहीं बेटा, आने का राइट टेम तो 10 बजे का  है, लेकिन आए तब ना…। 
शादी – ब्याह के मौसम में बसों की कमी के चलते  अपने पैतृक गांव से शहर जाने के लिए मैने ट्रेन का विकल्प चुना तो स्टेशन मास्टर की यह दो टुक सुन कर मुझे गहरा झटका लगा।

दरअसल साल – दर साल रेलवे को पटरी पर लाने के तमाम दावों के बावजूद देश के आम रेल यात्री की कुछ एेसी ही हालत है। 

 नई सरकार में पदभार संभालने वाला हर मंत्री यही कहता है कि ट्रेनों को समय पर चलाना उनकी प्राथमिकता है। लेकिन वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है। पैसेंजर ट्रेनों का तो आलम यह कि इनके न छूटने का कोई समय है न पहुंचने का।  हर साल रेल बजट से पहले चैनलों पर राजनेताओं व विशेषज्ञों को बहस करते देखता हूं। … रेलवे की हालत अच्छी नहीं है। आधारभूत ढांचा मजबूत करने की जरूरत है… आप जानते हैं रेलवे यातायात का सबसे सस्ता माध्यम है…।  … आपको पता है रेलवे की एक रुपए की कमाई का इतना फीसद खर्च हो जाता है…।  लेकिन इसके लिए आप फंड कहां से लाइएगा… वगैरह – वगैरह। 
फिर बजट पेश होता है। इतनी नई ट्रेनें चली, इतने के फेरे बढ़े। संसद में कुछ सत्तापक्ष के माननीय बजट को संतुलित बताते हैं तो विरोधी खेमे के क्षेत्र विशेष की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं। शोर – शराबे के बीच बजट पारित। फिर कुछ दिनों तक  बजट में उपेक्षा का आरोप लगाते हुए कुछ खास क्षेत्रों में रेलवे ट्रैक पर प्रदर्शन और धीर – धीरे सब कुछ सामान्य हो जाता है। 

अब तक देखने में यही आया है कि जैसा रेलमंत्री का मिजाज वैसा निर्णय। 
 कई साल पहले एक इंजीनियर साहब रेल मंत्री बने, तो उन्होंने एेलान किया कि ट्रेनों में एेसा डिवाइस लगा देंगे कि टक्कर हो भी गई तो कैजुअलटी ज्यादा नहीं होगी। लेकिन अब तक सरकार इस पर विचार ही कर रही है। 
एक संवेदनशील कला प्रेमी नेत्री ने रेलमंत्रालय का कमान संभाला तो उन्होंने एेलान कर दिया कि  ट्रेनों में आपको संगीत सुनाएंगे। लेकिन मामला अब भी जहां का तहां…। 

एक ठेठ देहाती किस्म के जमीन से जुड़े राजनेता को रेल मंत्री का पद मिला तो उन्होंने घोषणा कर दी कि ट्रेनों में प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं , अब सब कुछ कुल्लहड़ में मिलेगा। अरसे से कुम्हारों के मुर्झाए चेहरे कुछ दिनों के लिए खिले जरूर , लेकिन जल्द ही हालत फिर बेताल डाल पर वाली…। 
मुंबई के 26-11 हमले के बाद तय हुआ कि सभी स्टेशनों को किले में तब्दील कर देंगे। स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरे लगेंगे और जवानों को अत्याधुनिक हथियार भी दिए जाएंगे। लेकिन कुछ समय बाद ही स्टेशनों का फिर वही चिर-परिचित चेहरा। ज्यादातर अत्याधुनिक मशीनें खराब। जबकि कुर्सियों पर बैठे जवान या तो ऊंघते हुए नजर आते हैं या फिर आपस में हंसी – मजाक करते हुए। 

हाल में एेलान हुआ कि अब टिकट के लिए यात्रियों को मगजमारी नहीं करनी पड़ेगी। स्टेशनों पर टिकट वेंडिंग मशीनें लगेंगी। मशीन के सामने खड़े होइए और जहां की चाहिए , टिकट लेकर चलते बनिए। 

लेकिन कुछ दिनों बाद ही मशीनें पता नहीं कहां चली गई  और टिकट काउंटरों पर वहीं धक्का –  मुक्की और दांतपिसाई की मजबूरी। 
कितनी बार सुना कि अब आरक्षण के मामले में अब दलालों की खैर नहीं। लेकिन महानगरों की तो  छोड़िए गांव – कस्बों तक में रेल टिकट दलालों के दफ्तर हाइटेक होते जा रहे हैं। 

न जाने कितनी बार सुना कि ट्रेनों की आरक्षण प्रणाली पारदर्शी होगी। एक सीमा से अधिक वेटिंग लिस्ट हुए तो अतिरिक्त कोच लगा कर सब को एडजस्ट किया जाएगा।  लेकिन खास परिस्थितयों में देखा जाता है कि नंबर एक की वेटिंग लिस्ट भी अंत तक कन्फर्म नहीं हो पाती। 
बीच – बीच में सुनते रहे कि अब रेल व यात्री सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी आरपीएफ या जीअारपी में किसी एक दो दी जाएगी। लेकिन महकमे में अब भी दोनों के जवान पूर्ववत नजर आते हैं।

इसलिए हे रेलवे  के नीति – नियंताओं…। हमें नहीं चाहिए हाइ स्पीड बुलेट ट्रेनें। हमारी रेल जैसी है वैसी ही ठीक है। हमें बस , इंसानों की तरह अपनी मंजिल तक समय पर पहुंचने लायक ट्रेनें ही दे दीजिए। 
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tarkeshkumarojha.blogspot.com से साभार
तारकेश कुमार ओझा, भगवानपुर, जनता विद्यालय के पास वार्ड नंबरः09 (नया) खड़गपुर ( पश्चिम बंगाल) पिन ः721301 जिला पश्चिमम मेदिनीपुर संपर्कः 09434453934 

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