आचार्य तुलसी जनशताब्दी शुभारंभ ( 5 नवम्बर, 2013) के अवसर पर विशेष
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भारत की मिट्टी के कण-कण में महापुरुषों के उपदेश की प्रतिध्वनियाँ हैं। चाणक्य, आर्यभट्ट, विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर के भारत का इतिहास विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। स्वर्णिम इतिहास की इसी पवित्र श्रृंखला में एक नाम है- अहिंसा के अग्रदूत, मानवता के मसीहा, अणुव्रत अनुशास्ता, आचार्य तुलसी का।
आप भारतीय-दर्शन एवं अध्यात्म के प्रतिनिधि संतपुरुश एवं साकार विश्व चेतना का साकार स्वरूप थे, जिनकी वाणी में तेज, हृदय में जिज्ञासाओं का महासागर विद्यमान था। उनकी सत् साहित्य सादृश्य जीवनशैली में संजीवनी-सा प्रभाव था। आचार्य तुलसी के मानसिक वैचारिक गुणों के अमृत घट से भारत ही नहीं, अपितु संसार ने भी पाया ही पाया है। उन्होंने देश व दुनियां के दिग्भ्रमित लोगों को नवजीवन, नई सोच, नई दिशा दी। सचमुच तेजस्वी जीवन के धनी गौरवशाली ज्ञान गरिमा के प्रेरक युगपुरुष थे, आचार्य तुलसी। उन्होंने भारत की रग-रग में नैतिक मूल्यों की प्रतिश्ठा की, अहिंसा-षांति व राष्ट्र-चेतना का संचार किया। समाज सुधारक, राष्ट्र चेतना के उन्नायक अध्येता-ज्ञाता-कीर्ति पुरुष आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व व ज्ञान आभा से देश ही नहीं सारा संसार आलोकित हुआ था। आचार्यजी की जन्म “ाताब्दी का शुभारंभ एक बार फिर से आचार्य तुलसी जीवन शैली व उपदेशों को जीवंत करने एवं उनसे प्रेरणा लेने का अवसर हैं।
आचार्य तुलसी राष्ट्रसंत थे। देश की महान धरोहर थे। राष्ट्रीय एकता एवं साम्प्रदायिक सौहार्द के पक्षधर थे। उनका प्रकाण्ड पांडित्य उन्हें स्वामी विवेकानंद और डॉ. राधाकृष्णन के समान स्तर पर प्रतिष्ठित करता है। उनका स्वयं का परिचय उन्हीं के शब्दों में इस विराटता के साथ मुखर हुआ कि मैं सबसे पहले मनुष्य हूँ फिर जैन हूँ, फिर तेरापंथ का आचार्य हूँ।
आचार्य तुलसी का जन्म बीसवीं शताब्दी में सन् 1914, अक्टूबर 20 को हुआ। मात्र ग्यारह वर्ष की अल्पावस्था में वे तेरापंथ के अष्टम आचार्य कालूगणी के पास दीक्षित हुए, अर्थात जैन मुनि बने। 11 वर्षों तक मेधावी छात्र के रूप में अध्ययन कर गुरु कालूगणी द्वारा 22 वर्षों की उभरती जवानी में आचार्य पद को प्राप्त हुए।
प्रथम स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त 1947) पर आपने ‘असली आजादी अपनाओ’ का शंखनाद किया। 1949 मार्च 2, में उन्होंने 34 वर्ष की आयु में अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया। हरितक्रांति, सत्याग्रह, भूदान की तरह अणुव्रत आंदोलन में लोकतंत्र की उज्ज्वल कल्पना निहित है। अणुव्रत दर्शन व्यक्ति को नैतिक बनाने की आचार संहिता है। आचार्य तुलसी के अणुव्रत की आवाज राष्ट्रपति भवन से लेकर गरीब की झोपड़ी तक गूँजी। इस नैतिक क्रांति को निरंतर प्रज्ज्वलित रखने के लिए आपने पूरे देश में कन्याकुमारी से कोलकाता तक लगभग एक लाख किमी की पदयात्राएँ की। उनका व्यक्तित्व पुरुषार्थ की परम पर्याय था। वे सृजनशील चेतना के धनी थे। पद और सम्मान की आसक्ति से ऊपर उठ उन्होंने 18 फरवरी 1994 को अपने आचार्य पद का विसर्जन कर विश्व के इतिहास में एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया, जो वर्तमान युग के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है।
वे एक महान धर्मगुरु के साथ समाज सुधारक भी थे। गाँधी के बाद आचार्य तुलसी ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन से समूचे देश और दुनिया को प्रभावित किया। कहा जाता है कि लीक से हट के चलने वाला व्यक्ति प्रतिभाशाली होता है। समाज-सुधारक एवं राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष आचार्य तुलसी ने राष्ट्रीय चेतना स्पंदित की और अंधविश्वासी, रूढ़िवादी समाज को नई दिशा दी। तुलसीजी ने अपने अध्यात्म ज्ञान व आत्मशक्ति से भारतवासियों में आत्मबल का संचार किया। विलक्षण व्यक्तित्व के धनी आचार्य तुलसी का नाम व काम भारत ही नहीं, अपितु संसार में भी अमर है और रहेगा।
आचार्य तुलसी का नाम इसलिये यादगार बना, क्योंकि वे निरन्तर गतिमान रहे और चरेवैति-चरेवैति उनके जीवन का आदर्ष था, यह आदर्ष इसलिये बना क्योंकि शोषण सेवा की ओट ले रहा था, हिंसा अहिंसा के वस्त्र पहन रही थी, अधर्म धर्म के मन्दिर में निवास कर रहा था और साम्प्रदायिकता उन्माद बन रही है।
इसलिए वे रूके नहीं और इसीलिए चलते रहे क्योंकि उन्हें वैमनस्य के सागर का गरल पीना था- शंकर बनकर। साम्प्रदायिकता के चण्डकोष को शांत करना था- महावीर बनकर। साम्प्रदायिकता के उन्माद में कोई ऐसा नहीं था , जो अंगुली उठाकर कह सके-”धर्म सम्प्रदाय से बड़ा है“ इसलिए वे निरन्तर मानवता के कल्याण के संकल्प को लेकर गतिमान रहे।
आजादी के बाद आचार्य तुलसी ने जब देखा कि जनमानस अशांति, असंतोष और विलासितापूर्ण जीवन की ओर बढ़ रहा है। इस कारण असली आजादी का आनंद कोसों दूर चला जा रहा है। तब उन्होंने सदाचार, सादगी नैतिकता एवं आजादी के मूल धेय को आत्मसात करवाने के लिए अणुव्रत आंदोलन की शुरुआत की। यह आचार्य तुलसी का राश्ट्र को महान् अवदान है। कृष्णमृग अभयारण्य के रूप में विख्यात ताल छापर से स्फूटित अणुव्रत रूपी चिंतन ने सरदारशहर की धरा पर आंदोलन का स्वरूप प्राप्त कर व्यक्ति, क्षेत्र, काल विशेष की सीमा से परे सार्वभौम और सर्वग्राही पहचान बना ली है। क्योंकि इसके द्वारा आज की समस्याओं का समाधान प्राप्त होता है एवं स्वस्थ समाज व देश की संरचना के लिए इसका होना आवश्यक प्रतीत हो रहा है।
आचार्य तुलसी ने न केवल अणुव्रत आंदोलन की शुरुआत की अपितु इसके माध्यम से नैतिकता व सदाचार की आवाज घर-घर पहुंचाई। उनका मानना था व्यक्ति से समाज बनता है और समाज से देश। यदि अच्छे समाज व देश का निर्माण करना है तो सर्वप्रथम व्यक्ति को अच्छा बनाना होगा। व्यक्ति के सुधरते ही समाज व देश अपने आप अच्छे बन जाएंगे। इसलिए उनके कथन के अनुसार ही अणुव्रत आंदोलन सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं सुधारने को कहता है। समाज व राष्ट्र के जीवन को ऊंचा उठाना है तो पहले स्वयं को उठाने की चर्चा करता है।
आचार्य तुलसी अणुव्रत आन्दोलन के कार्यक्रमों को लेकर नंगे पांव गांव-गांव घूमते और लोगों को अच्छा बनने के लिए कहते। न कौशल का प्रदर्शन, न रणनीति का चक्रव्यूह। सब कुछ साफ-साफ। बुराई छोड़ो, नशा छोड़ो, मिलावट मत करो, भेदभाव मत रखो, धर्म सम्प्रदाय से बड़ा है, लोक जीवन में शुद्धता आये, राष्ट्रीय चरित्र बने। अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी सुबह से शाम तक गांवों के लोगों से मिलते, प्रवचन करते हैं। एक-एक व्यक्ति को समझाते । लाखों-करोड़ों लोगों से सम्पर्क साधा और स्वस्थ समाज संयोजना, पर्यावरण और प्रदूषण निरोध, लोकतंत्र शुद्धि अभियान, व्यसन मुक्ति आन्दोलन, राष्ट्रीय एकता उद्बोधन, अहिंसा सार्वभौम, जीवन विज्ञान शिक्षा योजना जैसे सार्वभौम एवं सार्वकालिक उद्देष्यों से प्रेरित किया। ये सभी बिन्दु यही कहते कि मनुष्य के जीवन में नैतिकता आए। नैतिकता का अर्थ है मनुष्य के उत्कृष्टतर होते जाने की अभिलाषा। शिक्षा का लक्ष्य होता है चरित्र निर्माण और चरित्र निर्माण का अन्तिम लक्ष्य है सेवा और उत्थान। यही उत्कृष्टता की सीढ़ियां हैं।
आचार्य तुलसी कहते थे कि केवल अणुव्रत (संकल्पों) को स्वीकारने वाला ही अणुव्रती नहीं है। जिसने अणुव्रत को समझ लिया वह भी अणुव्रती है। अणुव्रत को समझने का अर्थ है यह समझना कि अच्छा क्या है, बुरा क्या है? और जिस दिन जो यह समझ लेता है, उसी दिन वह बुराई से दूर और अच्छाई के नजदीक होने की ओर प्रथम कदम बढ़ाता है।
उस समय मनुष्य का मानस वैज्ञानिक अवनति से, आचरण की अपरिपक्वता से, अनौचित्य को साग्रह ग्रहण करने की प्रवृत्ति से विचलित था, वह युग साधारण मनुष्य का युग था। जिसमें विशिष्ट देवपुरुष नहीं साधारण मनुष्य ही युग धर्म की स्थापना कर सकता था और आचार्य तुलसी ने एक साधारण संतपुरुश बनकर ही असाधारण काम किया।
आचार्य तुलसी के समय में समूचा राष्ट्र पंजों के बल खड़ा नैतिकता की प्रतीक्षा कर रहा था, कब होगा वह सूर्योदय जिस दिन घर के दरवाजों पर ताले नहीं लगाने पड़ेंगे। महिलाएं अकेली भी सुरक्षित महसूस करेंगी। खाने को शुद्ध सामग्री मिलेगी। सामाजिक जीवन में विश्वास जगेगा। मूल्यों की राजनीति कहकर कीमत की राजनीति चलाने वाले राजनेता नकार दिये जायेंगे।
भारतीय जीवन से नैतिकता इतनी जल्दी भाग रही थी कि उसे थामकर रोक पाना किसी एक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं था। सामूहिक जागृति लानी थी। यह सबसे कठिन था पर यह सबसे आवश्यक भी था। और इसी आवष्यक असंभव लगने वाले काम को आचार्य तुलसी ने संभव कर दिखाया।
ईश्वर में आस्था परिश्रम का विकल्प नहीं हो सकता। नैतिक उत्थान की चाह, संकल्पों का विकल्प नहीं हो सकती। एक स्वस्थ समाज का स्वप्न जागरण का विकल्प नहीं होता। इसीलिये आचार्य श्री तुलसी कहते थे कि प्रभु तक पहुंचने के लिए प्रभु बनना होगा।
प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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