Saturday, November 23, 2024
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समस्याएं कांग्रेस हो गई और कांग्रेस समस्या हो गई!

कांग्रेस का राज 30 साल पहले कैसा था और आज कैसा है इसका अंदाज़ा आपको देश के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार स्व. शरद जोशी के इस व्यंग्य लेख से हो जाएगा-ये लेख स्व. जोशी ने 36 साल पहले वर्ष 1977 में लिखा था।

कांग्रेस को राज करते करते तीस साल बीत गए । कुछ कहते हैं, तीन सौ साल बीत गए । गलत है ।सिर्फ तीस साल बीते । इन तीस सालों में कभी देश आगे बढ़ा , कभी कांग्रेस आगे बढ़ी । कभी दोनों आगे बढ़ गए, कभी दोनों नहीं बढ़ पाए। फिर यों हुआ कि देश आगे बढ़ गया और कांग्रेस पीछे रह गई। तीस सालों की यह यात्रा कांग्रेस की महायात्रा है। वह खादी भंडार से आरम्भ हुई और सचिवालय पर समाप्त हो गई।

पूरे तीस साल तक कांग्रेस हमारे देश पर तम्बू की तरह तनी रही, गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही, बर्फ सी जमी रही। पूरे तीस साल तक कांग्रेस ने देश में इतिहास बनाया, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा और विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा। पोस्टरों, किताबों ,सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह है कि देश के जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा रहा। रेडियो, टीवी डाक्यूमेंट्री, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों में, गरज यह कि दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूँज थी और वह कांग्रेस की थी। कांग्रेस हमारी आदत बन गई। कभी न छूटने वाली बुरी आदत। हम सब यहाँ वहां से दिल दिमाग और तोंद से कांग्रेसी होने लगे। इन तीस सालों में हर भारतवासी के अंतर में कांग्रेस गेस्ट्रिक ट्रबल की तरह समा गई।

 

जैसे ही आजादी मिली कांग्रेस ने यह महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुरदुरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है। इसलिए कांग्रेस ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाए, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए। अंग्रेजों की जेल में कांग्रेसी के साथ बहुत अत्याचार हुआ था। उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था। अगर आजादी के बाद अच्छी क्वालिटी की कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे-तकिये भरे गए। और कांग्रेसी उस पर विराज कर, टिक कर देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे। देश में समस्याएँ बहुत थीं, कांग्रेसी भी बहुत थे।समस्याएँ बढ़ रही थीं, कांग्रेस भी बढ़ रही थी।

 

एक दिन ऐसा आया की समस्याएं कांग्रेस हो गईं और कांग्रेस समस्या हो गई। दोनों बढ़ने लगे। पूरे� तीस साल तक देश ने यह समझने की कोशिश की कि कांग्रेस क्या है? खुद कांग्रेसी यह नहीं समझ पाया कि कांग्रेस क्या है? लोगों ने कांग्रेस को ब्रह्म की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा। जो दाएं नहीं है वह कांग्रेस है।जो बाएँ नहीं है वह कांग्रेस है। जो मध्य में भी नहीं है वह कांग्रेस है। जो मध्य से बाएँ है वह कांग्रेस है। मनुष्य जितने रूपों में मिलता है, कांग्रेस उससे ज्यादा रूपों में मिलती है। कांग्रेस सर्वत्र है। हर कुर्सी पर है। हर कुर्सी के पीछे है। हर कुर्सी के सामने खड़ी है। हर सिद्धांत कांग्रेस का सिद्धांत है है। इन सभी सिद्धांतों पर कांग्रेस तीस साल तक अचल खड़ी हिलती रही।

 

तीस साल का इतिहास साक्षी है कांग्रेस ने हमेशा संतुलन की नीति को बनाए रखा। जो कहा वो किया नहीं, जो किया वो बताया नहीं,जो बताया वह था नहीं, जो था वह गलत था। अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से। सत्य की नीति पर चली, पर सच बोलने वाले से सदा नाराज रही। पेड़ लगाने का आन्दोलन चलाया और ठेके देकर जंगल के जंगल साफ़ कर दिए। राहत दी मगर टैक्स बढ़ा दिए। शराब के ठेके दिए,� दारु के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही।

 

हिंदी की हिमायती रही अंग्रेजी को चालू रखा। योजना बनायी तो लागू नहीं होने दी। लागू की तो रोक दिया। रोक दिया तो चालू नहीं की। समस्याएं उठी तो कमीशन बैठे, रिपोर्ट आई तो पढ़ा नहीं। कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास है। समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को शिकायत का मौका नहीं दिया। नारा दिया तो पूरा नहीं किया। प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया, पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को। दोनों के बीच खुद खड़ी हो गई । तीस साल तक खड़ी रही।

 

एक को बढ़ने नहीं दिया।दूसरे को घटने नहीं दिया। आत्मनिर्भरता पर जोर देते रहे, विदेशों से मदद मांगते रहे। 'यूथ' को बढ़ावा दिया, बुड्द्धों को टिकेट दिया। जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया। जो केंद्र में बेकार था उसे राज्य में भेजा, जो राज्य में बेकार था उसे उसे केंद्र में ले आए। जो दोनों जगह बेकार थे उसे एम्बेसेडर बना दिया। वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा।� एकता पर जोर दिया आपस में लड़ाते रहे। जातिवाद का विरोध किया, मगर अपनेवालों का हमेशा ख्याल रखा। प्रार्थनाएं सुनीं और भूल गए। आश्वासन दिए, पर निभाए नहीं। जिन्हें निभाया वे आश्वश्त नहीं हुए। मेहनत पर जोर दिया, अभिनन्दन करवाते रहे। जनता की सुनते रहे अफसर की मानते रहे।शांति की अपील की, भाषण देते रहे। खुद कुछ किया नहीं दूसरे का होने नहीं दिया। संतुलन की इन्तहा यह हुई कि उत्तर में जोर था तब दक्षिण में कमजोर थे। दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गए।

 

तीस साल तक पूरे, पूरे� तीस साल तक, कांग्रेस एक सरकार नहीं, एक संतुलन का नाम था। संतुलन, तम्बू की तरह तनी रही, गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही बर्फ सी जमी रही पूरे� तीस साल तक। कांग्रेस अमर है। वह मर नहीं सकती। उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएँगे। जब तक पक्षपात ,निर्णयहीनता ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता। कांग्रेस कायम रहेगी। दाएं, बाएँ, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी। इस देश में जो भी होता है अंततः कांग्रेस होता है। जनता पार्टी भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी। जो कुछ होना है उसे आखिर में कांग्रेस होना है। तीस नहीं तीन सौ साल बीत जाएँगे, कांग्रेस इस देश का पीछा नहीं छोड़ने वाली।।।

 

साभारः व्यंगकार स्व. शरद जोशी के संकलन "जादू की सरकार" के "तीस साल का इतिहास" से

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राहुल गाँधी को इन्दौर कलेक्ट की क्लीन चिट

 कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इंदौर की आमसभा में किसी भी तरह से चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं किया है। उन्होंने अपने भाषण में धर्म की बात जरूर की थी, लेकिन इससे दो धर्मो के प्रति वैमन्यस्ता का माहौल बने ऐसा प्रतीत नहीं होता। यह खुलासा इंदौर कलेक्टर आकाश त्रिपाठी ने मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी जयदीप गोविंद को भेजी गई रिपोर्ट में किया है। उन्होंने रिपोर्ट के साथ आमसभा में राहुल गांधी द्वारा दिए गए भाषण की सीडी भी भेजी है।

 

इंदौर कलेक्टर की रिपोर्ट और सीडी मिलने के बाद निर्वाचन आयोग ने इसे विशेष वाहक के हाथ से दिल्ली भेज दिया। उल्लेखनीय है कि भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर ने मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी कार्यालय में शिकायत दर्ज कराई थी कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इंदौर की जनसभा को संबोधित करते हुए धार्मिक समुदायों के बीच घृणा की भावना एवं जनता के बीच भ्रम फैलाकर आचार संहिता का सरेआम उल्लंघन किया है।

 

तोमर ने अपनी शिकायत में कहा कि गांधी ने जनसभा में कहा कि मैं मुजफ्फरनगर गया था वहां एक आईबी अधिकारी ने मुझे बताया कि यहां दस-पंद्रह मुसलमान ल़़डके हैं। उनके भाई-बहनों को मारा गया है और पाकिस्तान उनसे संपर्क कर रहा है। तोमर ने अपनी शिकायत में यह भी कहा था कि इस भाषषण से न सिर्फ चुनाव आयोग की आदर्श संहिता का उल्लंघन हुआ है बल्कि गांधी ने साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़का कर आईपीसी की धारा 153 एक का भी अपराध किया है

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मलेशिया के एक हिन्दू की शानदार पहल

मलेशिया में रहने वाले उथया शंकर का जन्म हिंदू परिवार में हुआ लेकिन बचपन में वे अकसर चर्च जाते थे और कभी-कभी मस्जिद में भी खेलते भी थे।  वे कहते हैं कि अलग अलग धर्मों के लोगों से मिलने में बहुत मज़ा आता था। लेकिन 90 का दशक आते आते चीज़ें बदलने लगीं।  संबंधित समाचार ईसाई ईश्वर को कह सकते हैं अल्लाह: मलेशियाई पीएम मलेशिया: मुसलमानों के अलावा कोई ना कहे अल्लाह संकट के बीच ओबामा नहीं जाएंगे मलेशिया और फिलीपींस अब 41 साल के हो चुके उथया बताते हैं, “लोगों ने एक दूसरे के धार्मिक स्थानों पर जाना बंद कर दिया। राजनीतिक फ़ायदे के लिए मलेशिया की राजनीतिक पार्टियों ने समानताओं की जगह धार्मिक भेदों पर ज़ोर देना शुरु कर दिया।”  इसलिए 2010 में उन्होंने एक ऐसा मंच बनाने की सोची, जिसमें मलेशिया के सभी लोग धर्म और नस्ल की बात खुलकर कर सकें। वे टूर का आयोजन करते हैं जिसमें युवाओं को अलग अलग धार्मिक स्थलों पर ले जाया जाता है- मस्जिद, मंदिर, चर्च सभी जगह।

कुछ दिन पहले ही उथया कुछ युवाओं और छात्रों को कुआला लंपुर के हिंदू मंदिर में लेकर गए थे, जहाँ उन्होंने हर मूर्ति के बारे में लोगों को बताया।  परज़ूएस जेम्स भारतीय मूल के ईसाई हैं और इस टूर का हिस्सा बने। वे इससे पहले कभी किसी मस्जिद में नहीं गए थे।  वे कहते हैं, “मुझे शर्म महसूस हुई कि दूसरे धर्मों के बारे में इतनी कम जानकारी है। मैं पहले सोचता था कि सिर्फ़ मुसलमान ही मस्जिद में जा सकते हैं।”

इस टूर का हिस्सा रहे 27 साल के रेनर के पिता चीनी बौद्ध हैं और माँ ईसाई। रेनर कहते हैं, “दूसरों के धर्मों के बारे में मुझे कुछ पता नहीं था। मुझे नहीं लगता कि हमें अपने दोस्तों से इसके बारे में बात करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।”  28 साल की नोर आर्लीन मुसलमान हैं और उनका परिवार मलेशिया, चीनी और पुर्तगाली मूल का है। वे इस टूर के तहत चीनी बौद्ध मंदिर गई और हिंदू और मुसलमान लोगों के साथ मिलकर वहाँ अगरबत्ती जलाई।  वहीं 21 साल के अज़्ज़ाम सयाफ़िक सिख गुरुद्वारा देखकर काफ़ी हैरान हुए- खास़कर वहाँ खुली जगह और कमरे के बीचों बीच रखे गुरु ग्रंथ साहब को देखकर।  वे कहते हैं, “ये काफ़ी कुछ मस्जिद जैसा था। मैं हमेशा से ही मुस्लिम स्कूल में पढ़ा हूँ। यूनिवर्सिटी में जाकर पहली बार मैने दूसरी नस्ल और धर्म से दोस्त बनाए।”  उथया शंकर तुरंत ही ये सारी तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अपना संदेश फैलाने का ये बढ़िया माध्यम है।

पर्यवेक्षकों का कहना है कि नस्लीय और धार्मिक मतभेद बढ़ रहे हैं, ऐसे समय में उथया शंकर का अभियान काबीले तारीफ़ है।  सात फ़ीसदी भारतीय दो तिहाई मलेशियाई लोग भूमिपुत्र कहलाते हैं जो मूलत वहीं के हैं, एक चौथाई चीनी मूल के लोग हैं और सात फ़ीसदी भारतीय मूल के। सबसे ज़्यादा मुसलमान हैं जिसके बाद हिंदू, ईसाई और बौद्ध समुदाय के लोग।  लेकिन मलेशिया में धार्मिक आज़ादी की क्या सीमा है, इसका नमूना भी मिल जाता है। मिसाल के तौर पर मस्जिद के पास धार्मिक मामलों के विभाग के एक पोस्टर लगा है कि मलेशिया में सिर्फ़ सुन्नी इस्लाम का पालन किया जा सकता है और शिया इस्लाम के खिलाफ़ 1996 से ही फ़तवा है।

हालांकि प्रधानमंत्री नजीब रज़ाक ने वन मलेशिया नाम का अभियान चलाया था जिसे भारतीय हिंदू, ईसाई , बौद्ध और चीनी वोट जुटाने का एक असफल अभियान माना जाता है।  आयोजकों को उम्मीद है कि ज़्यादा से ज़्यादा युवा ये संदेश फैलाएँगे कि मलेशियाई लोगों में बहुत सी आपसी समानताएँ हैं।

 

साभारः बीबीसी हिन्दी से

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एक भारतवंशी ने चुनौती दी ब्रिटिश संसद को

लंदन। सदस्यता लेने से वंचित किए जाने से नाराज भारतीय मूल के अरबपति ब्रिटिश कारोबारी रमिंदर सिंह रैंगर ने हाउस ऑफ लॉड्‌र्स को अदालत में घसीट लिया है। भारतवंशी रैंगर का आरोप है कि गलत, झूठी और भेदभावपूर्ण जानकारियों के जरिये उन्हें दो बार हाउस आफ लॉर्ड्‌स की सदस्यता लेने से रोक दिया गया।

लंदन के द संडे टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, रैंगर ने हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर जानना चाहा है कि गैर राजनीतिक सदस्यता वाले पीपुल्स पीयर्स के रूप में उनकी नियुक्ति को दो बार क्यों रोका गया। पीपुल्स पीयर्स को ब्रिटिश संसद के ऊपरी सदन हाउस ऑफ लॉड्‌र्स में २००० में स्थापित किया गया था।

एक्सपोर्ट कंपनी सन मार्क लिमिटेड के मालिक रैंगर की संपत्ति ९.५ करोड़ पौंड (५८४ करोड़ रुपए) बताई जाती है। वह प्रिंस चार्ल्स ट्रस्ट के अलावा कई सामाजिक कार्यों में योगदान देते रहे हैं। उनके वकील ने हाई कोर्ट से कहा कि रैंगर अब ब्रिटिश लोगों के लिए और ज्यादा करना चाहते हैं। जुलाई, २००७ में उनकी पहली याचिका दूसरे दौर तक गई थी जबकि अगस्त, २०१० में दूसरी बार इसे तुरंत ही खारिज कर दिया गया। रैंगर का आरोप है कि हाउस ऑफ लॉड्‌र्स की नियुक्ति समिति में उनके खिलाफ दुष्प्रचार अभियान चलाया जा रहा है।

 

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अब भी व्यापक चुनाव सुधारों की दरकार

पूर्व चुनाव आयुक्त टी एन शेषन द्वारा शुरु की गई चुनाव सुधार प्रक्रिया के पश्चात भारत में संपन्न होने वाले संसदीय,विधानसभा व स्थानीय स्तर के चुनावों में हालांकि काफी सुधार हुआ है। जो चुनाव आयोग पहले कभी राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों के प्रति नरम रवैया अपनाता नज़र आता था वही चुनाव आयोग अब चुनाव आचार संहिता की धजिजयां उड़ाने वाले उम्मीदवारों पर स ती बरतते देखा जा रहा है। राजनैतिक पार्टियां अब चुनावों से पूर्व आचार संहिता लागू होने के पश्चात आयोग व उनके अधिकारियों से भयभीत नज़र आने लगी है।  परिणामस्वरूप निश्चित रूप से चुनावों के दौरान होने वाले भारी शोर-शराबे में अंतर देखा जा रहा है। पोस्टर,पैंपलेट,बैनर,बिल्ले तथा अन्य प्रचार सामग्री भी पहले से कम इस्तेमाल होती देखी जा रही है। चुनावों में प्रयोग में आने वाले उम्मीदवारों के प्रचार वाहन भी पहले से कम और सीमित हो गए हैं। गोया अब कोई भी राजनैतिक दल चुनावों में इस प्रकार की मनमानी करने से घबराने लगा है जैसी मनमानी चुनाव सुधार प्रक्रिया लागू होने से पूर्व किया करते थे।

परंतु अब भी हमारे देश के चुनाव संचालन में तमाम ऐसी ख़ामियां हैं जिनमें व्यापक सुधार किए जाने की ज़रूरत है। इनमें दो बातें खासतौर पर ऐसी हैं जिनपर भारतीय निर्वाचन आयोग को न केवल नज़र रखने की ज़रूरत है बल्कि इन विषयों पर नियम बनाए जाने की भी आवश्यकता है। इनमें एक तो यह कि चुनाव आयोग प्रत्येक राजनैतिक दल तथा प्रत्याशी के चुनावी खर्च तथा उसे चुनाव हेतु प्राप्त होने वाली फंडिंग पर चुनाव पूर्व से लेकर चुनाव संचालन तथा चुनाव के बाद तक की गतिविधियों पर पूरी नज़र रखे। और दूसरा यह कि निर्वाचन आयोग देश के किसी भी राजनैतिक दल व प्रत्याशी को इस बात की कतई इजाज़त न दे कि कोई भी दल अथवा प्रत्याशी अपने चुनाव प्रचार में धर्म,जाति,धर्मस्थान,क्षेत्रवाद व भाषा आदि के मुद्दे उठा सके। यदि इन दो सुधारों को निर्वाचन आयोग स ती से लागू करता है तो ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में चुनावों में आर्थिक भ्रष्टाचार में तो कमी आएगी ही साथ-साथ चुनावों के माध्यम से चुनाव के दौरान उठने वाले मंदिर-मस्जिद अथवा सांप्रदायिकता व जातिवाद जैसे मुद्दों का उछलना यदि बंद नहीं तो कम ज़रूर हो जाएगा।

हालांकि चुनावी खर्च को लेकर निर्वाचन आयोग ने पहले से ही अपनी निर्देशावली बना रखी है जिसके तहत प्रत्याशियों,राजनैतिक दलों को चुनाव उपरांत अपने खर्च व आमदनी का ब्यौरा आयोग को देना पड़ता है। परंतु यह व्यवस्था न तो पारदर्शी है न ही विश्वसनीय। राजनैतिक दल व नेता भले ही कानून के निर्माता, देश के रखवाले, संविधान तथा संसदीय व्यवस्था के संरक्षक व संचालक क्यों न नज़र आते हों परंतु हकीकत तो इसके विपरीत ही है। मेरे विचार से इन्हीं तथाकथित कानून के रखवालों द्वारा ही सबसे अधिक कानून का उलंघन भी किया जाता है।

यही वर्ग नियम व कानून की धज्जियां उड़ाने का सबसे अधिक जि़ मेदार है। यह राजनैतिक वर्ग सत्ता में हो या विपक्ष में इन्हें भलीभांति यह मालूम है कि कागज़ी ख़ानापूर्ति किस प्रकार की जानी है। निर्वाचन आयोग को संतुष्ट करने वाले कागज़ात किस प्रकार तैयार किए जाने हैं। आयोग को हिसाब देते समय बाकायदा लेखाकार तथा कानूनी विशेषज्ञों की सहायता ली जाती है। उसके पश्चात तैयार किए गए फर्ज़ी दस्तावेजों के माध्यम से आयोग को उम्मीदवारों द्वारा यह समझा दिया जाता है कि उन्होंने आयोग के नियमों,निर्देशों तथा चुनाव आचार संहिता के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया। इतना ही नहीं बल्कि कई 'चतुर' प्रत्याशी तो ऐसे भी होते हैं जो अपने चुनाव में होने वाले निर्धारित खर्च में बची हुई रकम का भी ख़ुलासा कर देते हैं। जबकि हकीकत में निर्वाचन आयोग के समक्ष दिए गए चुनावी खर्च संबंधी हिसाब-किताब तथा चुनाव पर हुए वास्तविक खर्च में ज़मीन-आसमान का अंतर होता है। और यहीं से शुरु होता है भ्रष्टाचार का वह खेल जोकि आज हमारे देश को दीमक की तरह खाए जा रहा है।

 

हमारे देश में लोकसभा के चुनाव से लेकर विधानसभा, नगर निगम, नगरपालिका, सरपंच व ग्राम प्रधान तक के चुनावों में बड़े पैमाने पर फुज़ूलखर्ची होते देखी जा सकती है। गऱीबों की बस्तियों में नकद पैसे बांटना,शराब के बल पर वोट लेना, आटा,आलू,मिट्टी का तेल जैसी सस्ती सामग्री बंटवाकर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसी हरकतें चुनाव प्रत्याशी द्वारा अक्सर की जाती हैं। पिछले दिनों हरियाणा में हुए नगर निगम चुनावों के दौरान तो यहां तक सुनने को मिला कि अपने पक्ष में अधिक से अधिक मतदान कराने हेतु बाकायदा एजेंट नियुक्त किए गए जिन्हें कुछ इस प्रकार की 'स्कीमÓ बताई गई। यदि कोई एजेंट सौ वोट अमुक प्रत्याशी के पक्ष में डलवाता है तो उसे एक स्कूटर भेंट की जाएगी। और पांच सौ वोट डलवाने पर उसे एक कार तोहफे में दी जाएगी। इसी प्रकार किसी प्रत्याशी के जुलूस में शामिल होने के लिए 200 रुपये प्रति व्यक्ति की दर से नकद पैसे बांटे जाने का समाचार प्राप्त हुआ।

मतदान के दिन सौ रुपये से लेकर एक हज़ार रुपये प्रति वोट तक की कीमत लगाए जाने जैसी शर्मनाक बातें सामने आईं। खरीदने व बेचने का यह खेल केवल मतदाताओं तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि नगर निगमों में धन बल के बूते पर बनने वाले मेयर ने कई निर्वाचित सभासदों को भी मात्र अपने धन की बदौलत अपने पक्ष में कर लिया। इसी सौदेबाज़ी को यदि आप विधानसभा स्तर पर परिवर्तित कर के देखें तो देश के विभिन्न राज्यों में ऐसे नज़ारे देखने को मिलेंगे जबकि मंत्री बनने अथवा किसी दूसरे महत्वपूर्ण पद को प्राप्त करने के लिए किसी दल का प्रत्याशी किसी दूसरे दल के प्रति आस्थावान दिखाई देने लगता है। यह सब आिखर भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है? खुद हरियाणा राज्य में ही पिछले विधानसभा चुनावों में यह नज़ारा देखा जा चुका है जबकि एक राजनैतिक दल के कई विधायक अपने पार्टी प्रमुख को अकेला छोड़कर सत्तारुढ़ दल से जा मिले और सभी विधायकों को 'स मानितÓ पद भेंट स्वरूप दिए गए।

 

निर्वाचन आयोग को संतुष्ट करने वाले नेतागण बखूबी जानते हैं कि चुनावों के दौरान हैलाकॉप्टर से लेकर कारों तक के नाजायज़ इस्तेमाल को कैसे जायज़ करार देना है। उन्हें पता है कि चुनावी यात्रा को किस प्रकार सरकारी यात्रा में परिवर्तित करना है। इसी प्रकार चुनावी खर्च,आमदनी तथा चंदे आदि के हिसाब-किताब किस प्रकार चुनाव आयोग के समक्ष रखने हैं। इन्हें यह सबकुछ बखूबी मालूम है। भला हो टी एन शेषन का जिन्होंने चुनाव प्रक्रिया में सुधार की शुरुआत कर भारत में होने वाले चुनावों को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया अन्यथा हमारे देश की चुनाव व्यवस्था तो इतनी लचर व बेढंगी थी कि धनवान व बाहुबली व्यक्ति बड़ी ही आसानी से चुनाव को न केवल अपने पक्ष में कर सकता था बल्कि मतगणना की मेज़ तक पर उस की मनमानी चल सकती थी। परंतु निश्चित रूप से अब कम से कम उतनी अंधेरगर्दी नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। इसके बावजूद अब भी चुनावी चंदे के नाम पर पिछले दरवाज़े से भारी-भरकम फ़ंडिंग किए जाने का सिलसिला जारी है।

 

यह फ़ंडिंग केवल देश के उद्योगपत्तियों व व्यवसायियों के माध्यम से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी की जाती है। चुनाव आयोग को चाहिए कि जिस प्रकार आयोग चुनाव के उपरांत राजनैतिक पार्टियों से व उम्मीदवारों से चुनावी आय-व्यय पर हिसाब लेता है। उसी प्रकार आयोग को चाहिए कि चुनाव पूर्व भी वह समस्त प्रत्याशियों से उनके चुनावी खर्च के हिसाब-किताब,उसकी आय के स्त्रोत तथा चुनावी बजट के संबंध में जानकारी हासिल करे। इस संबंध में अरविंद केजरीवाल द्वारा गठित आम आदमी पार्टी द्वारा जो शुरुआत की गई है वह निश्चित रूप से सराहनीय है।

 

इसी प्रकार निर्वाचन आयोग को चुनाव में सांप्रदायिकता और धर्म-जाति आदि मुद्दे उछालने पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। चुनावों में धर्म, जाति, मंदिर-मस्जिद तथा वर्ग-भेद जैसे मुद्दे उठने पर धर्म,जाति तथा वर्ग के आधार पर समाज में धु्रवीकरण बड़ी आसानी से हो जाता है। परंतु इस प्रकार के भावनात्मक मुदें का चुनावों में प्रयोग होने के परिणामस्वरूप क्षेत्र के विकास संबंधी मुद्दे गौण हो जाते हैं। नतीजतन हमारा देश इन्हीें सांप्रदायिक व जातिवाद संबंधी फुज़ूल की बातों में उलझ कर रह जाता है। लिहाज़ा निर्वाचन आयोग ने जहां चुनाव प्रक्रिया में व चुनाव आचार संहिता में अब तक विभिन्न प्रकार के बदलाव व सुधार किए हैं वहीं उपरोक्त प्रमुख विषयों को भी उसे अपनी चुनाव सुधार प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहिए।

       

तनवीर जाफरी

1618, महावीर नगर,

अंबाला शहर। हरियाणा

फोन : 0171-2535628

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बिग बॉस के खिलाफ इन्दौर के न्यायालय में परिवाद दायर

सिखों की पगड़ी का मजाक बनाना बिग बॉस के लिए मुसीबत बन गया है। इंदौर जिला न्यायालय ने कलर चैनल पर दिखाए गए सीजन-6 के एपीसोड को आधार मानते हुए परिवादी गगनदीप सिंह भाटिया का परिवाद स्वीकार करते हुए केस चलाने के अनुमति दे दी है। साथ ही निचली अदालत द्वारा परिवाद को खारिज करने के आदेश को गलत ठहराया है। परिवादी गगनदीप सिंह व वकील इंद्रजीत सिंह भाटिया को 21 नवंबर को निचली अदालत में उपस्थित रहने के आदेश भी दिए।

शनिवार को इंदौर जिला कोर्ट के न्यायाधीश आरपी शर्मा की कोर्ट ने विवादित एपीसोड की सीडी देखते हुए आदेश पारित किया। आदेश में लिखा गया है कि यह स्पष्ट है कि इससे सिख समाज की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची है। परिवाद ग्राह्य किया जाता है।

गौरतलब है कि 19 अक्टूबर 2012 को दिखाए गए शो में पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू ने महिला कलाकारों को पग़ि़डयां पहनाकर घूमाया था। इसपर अभिनेता सलमान खान ने टिप्पणी की थी कि यह भी 'सन ऑफ सरदार' का एक रूप है। फिर अजय देवगन ने कहा कि यह तो 'डॉटर ऑफ सरदार' हैं। इस वाक्ये के बाद अजय देवगन, सलमान खान, संजय दत्त और सोनाक्षी सिन्हा हंसने लगे थे। इसे कोर्ट ने धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने वाला कृत्य माना है।

निचली अदालत ठीक से करे अवलोकन

निचली अदालत के न्यायाधीश आशुतोष शुक्ला के समक्ष युवा सिख मोर्चा के अध्यक्ष गगनदीपसिंह भाटिया की ओर से एडवोकेट इंद्रजीत सिंह भाटिया ने परिवाद पेश किया। यहां से परिवाद यह कहते हुए खारिज कर दिया गया था कि महिलाएं पग़़डी नहीं पहनती, इसका कोई पुख्ता सबूत नहीं है।

अदालत ने निचली कोर्ट को आदेश दिए कि वह बिगबॉस के उक्त एपीसोड की सीडी ठीक से देखे और अवलोकन करे। परिवादी कोई अतिरिक्त सबूत पेश करना चाहे तो उसे भी सुना व देखा जाए। प्रकरण की सुनवाई भी जारी रखी जाए।

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ये खबर मोरारी बापू और रमेश भाई ओझा को जरुर शर्मिंदा करेगी!

ये खबर देश के दो महान संतों मोरारी बापू और भूपेंद्र भाई पंड्या को ज़रुर शर्मिंदा करेगी और हो सकता है मुकेश अंबानी की माँ श्रीमती कोकिलाबेन अंबानी को भी शर्मिंदा करे कि देश के सबसे बड़े उद्योगपति जिनका पूरा खानदान शाकाहारी है, वे अब देश भर में लोगों को माँसाहार सहजता से उपलब्ध हो उसके लिए चिकन रेस्त्राँ कोलने जा रहे हैं।

 

इस खबर के शीर्षक में हमने मोरारी बापू और रमेश भाई ओझा का नाम इसलिए लिया है कि दोनों ही संत अंबानी परिवार के प्रिय संत हैं और मोरारी बापू ने तो अंबानी परिवार द्वारा कॉर्पोरेट घरानों के लिए रामचरित मानस पर विशेष कथा तक की थी जिसमें आम आदमी को आने की अनुमति नहीं थी।

 

हमको उम्मीद है कि इन दोनों संतों में इतना स्वभिमान और आत्म गौरव बाकी है कि वे इस खबर पर शर्मिंदा ही नहीं होंगे बल्कि सार्वजनिक रूप से मुकेश अंबानी के इस कारोबार पर शर्मिंदगी जाहिर करेंगे। अगर ये दोनें संत अफ़सोस जाहिर नहीं करते हैं तो फिर ये मान लेना चाहिए कि हजारों लोगों के बीच अपने कथा कार्यक्रम के दौरान मोरारी बापू और रमेश भाई ओझा कथा सुनाने के लिए कथा करते हैं, और अंबानी जैसे घरानों के लोगों को अपनी कथा में आमंत्रित कर उनका महिमा मंडन करते हैं। काश! मोरारी बापू और रमश भाई ओझा मुकेश अंबानी पर पने प्रभाव का उपयोग कर मुकेश अंबानी से देश में गौ-वंश को बचाने के लिए कुछ करवा पाते तो देश के करोड़ों किसानों को नया जीवन मिल सकता था।

देश के प्रमुख अंग्रेजी दैनिक टाईम्स ऑफ इंडिया ने खबर दी है कि देश के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी अब नॉनवेज यानी चिकन रेस्त्रां चेन खोलने जा रहे हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआइएल) के पोर्टफोलियो में एक कारोबार और जुड़ जाएगा। रिलायंस अपने चिकन रेस्त्रां चेन को ब्रिटेन स्थित कंपनी के साथ गठबंधन करके शुरू करेगी।

कंपनी को इस बिजनेस में ग्रोथ नजर आ रही है। भारत में क्विक सर्विस रेस्त्रां (क्यूएसआर) का कारोबार प्रति वर्ष 30 फीसद की तेजी से बढ़ रहा है। हालांकि, मजे की बात यह है कि रिलायंस के मालिक मुकेश अंबानी खुद शाकाहारी हैं और यह उनकी जीवनशैली से बिल्कुल भिन्न है। इससे साफ होता है कि व्यक्तिगत रूप से मुकेश इसमें सीधे तौर पर हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

भारत में चिकन प्रेमियों के लिए यह अच्छी खबर हो सकती है। रिलायंस इस चेन का नाम 'चिकन केम फस्ट' दिया है जोकि सीधे केएफसी को टक्कर देगा। दुनिया में चिकन रेस्त्रां चेन में केएफसी को सबसे ज्यादा पॉपुलर माना जाता है। छपी खबर के मुताबिक, आरआईएल ने टू सिस्टर्स फूड इंडिया (टीएसएफआई) में 45 फीसद शेयर लिए हैं। टीएसएफआई ब्रिटेन की तीसरी सबसे बड़ी फूड कंपनी है जोकि पोल्ट्री, रेट मीट, मछली और बेकरी तथा रिटेल चेन को फ्रोजन प्रोडक्ट सप्लाई करती है।

आरआईएल ने इस कंपनी में रिलायंस रिटेल के जरिए हिस्सेदारी खरीदी है लेकिन लेनदेन की राशि का खुलासा नहीं किया गया है। ब्रिटेन की कंपनी के मालिक का नाम रंजीत सिंह बोपरन है। कारोबार की शुरुआत में दोनों कंपनियां फूट आउटलेट को फ्रोजन और चिल्लड फूड को सप्लाई करेंगे। इसके बाद चिकन केम फस्ट के साथ 7,000 करोड़ रुपये के फूड सर्विस मार्केट पर अपनी पकड़ मजबूत करेगी। टूएसएफजी की ब्रिटेन में 36 मैन्युफैक्चरिंग साइट हैं, आठ नीदरलैंड, 5 आयरलैंड और 1 पोलैंड में है।

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इस बार दीपावली पर 149 वर्ष पुराना संयोग

दीपावली पर इस बार १४९ साल बाद धन लक्ष्मी योग बन रहा है। इस योग में धन की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी के पूजन का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस संयोग में लक्ष्मी को प्रसन्न करने से निरंतर धन-धान्य की प्राप्ति होती है। पंचग्रही योग सिद्घांत के अनुसार ऐसा योग ५०० साल में केवल तीन बार ही बनता है। इससे पहले २९ अक्टूबर १८६४ में ऐसा संयोग बना था। अगला योग १६ नवंबर २१६१ में बनेगा।

उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं.अमर डब्बावाला का कहना है कि  स्थिर लग्न में की गई महालक्ष्मी की पूजा सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इस लग्न में पूजन से माता की कृपा हमेशा बनी रहती है। अर्थात निरंतर धन आगमन का योग बना रहता है। नक्षत्र मेखला की गणना के अनुसार इस बार प्रदोष काल में वृषभ लग्न आ रहा है। लग्न के द्वितीय स्थान में बृहस्पति एकादश अधिपति होकर अपने कारक स्थान यानी धन स्थान पर बैठे हैं। मिथुन राशि में पदस्थ बृहस्पति व्यावसायिक लाभ की दृष्टि से श्रेष्ठ माने जाते हैं। यह योग धन लक्ष्मी योग कहलाता है।

वृषभ लग्न में करें पूजन

ज्योतिष के अनुसार दीपावली पर प्रदोषकाल के दौरान वृषभ लग्न में शाम ६.२३ बजे से ७.५८ बजे तक महालक्ष्मी का पूजन करना अतिशुभ होगा। हालांकि प्रदोष काल के बाद भी अर्धरात्रि तक माता लक्ष्मी का पूजन किया जा सकता है।

शाम तक अमावस्या

इस बार अमावस्या शनिवार रात ८.१२ बजे से शुरू होकर रविवार को दीपावली की शाम ६.२३ बजे तक रहेगी। डब्बावाला ने बताया, शास्त्रों में कहा गया है कि किसी भी पर्व पर अमावस्या का स्पर्श काल मुहूर्त के अंदर ३५ मिनट भी रहता है तो उसे अर्धरात्रि तक मान्य किया जा सकता है। 

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आचार्य तुलसीः अहिंसा एवं शांति के आदर्श

आचार्य तुलसी जनशताब्दी शुभारंभ ( 5 नवम्बर, 2013) के अवसर पर विशेष

आचार्य श्री तुलसी की जन्मषताब्दी के शुभारंभ के साथ मूल्यवान सौ वर्श के उजालों से रू-ब-रू होने का दुर्लभ अवसर सामने आ रहा है। एक ऐसी रोषनी जो निरन्तर सम्पूर्ण मानवता का पथदर्षन करती रही है और उनका स्मरण एक बार पुनः मानवता को नई ऊर्जा से अभिप्रेरित करने को तत्पर है।  क्योंकि आचार्य तुलसी एक ऐसा नाम हैं, जो वर्तमान जैन परम्परा में ही नहीं अपितु, समग्र अध्यात्म जगत् में अप्रतिम, अग्रिम और देदीप्यमान है। इसीलिये वे अध्यात्मधरा के उज्ज्वल नक्षत्र, मानवता के मसीहा, समाज सुधारक व युग पुरुष से उपमित हुए। उनके विरल व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व में कुछ विलक्षण विचारों का संग्रहण था। भारत के उच्च मानवीय एवं नैतिक मूल्यों को पुनः एक बार जाग्रत होते और कायाकल्पित होकर परम वैभव के साथ संसार में श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजित करने का अवसर देने के संकल्प के साथ जन्मषताब्दी की सम्पूर्ण योजनाओं को उस महापुरुश के सपनों के अनुरूप आकार दिया जा रहा है।

आज राष्ट्र के विकास में आचार्य तुलसी के विचारों की प्रासंगिकता और सार्वकालिकता हमें स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है। सम्पूर्ण विश्व का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में यदि ’’तुलसी विचार’’ का पाथेय समाज के पास होगा तो भारतीय समाज एक बड़े दिशा भ्रम का शिकार होने से बचा रह सकता है। यह आचार्य तुलसी का राष्ट्रवादी चिंतन ही था जिसने राष्ट्रीय निर्माण की प्रक्रिया में ना केवल उत्प्रेरक की भूमिका का निर्वाह किया अपितु आने वाली अनेकों पीढ़ियों को राष्ट्र प्रेम एवं नैतिक आस्था के अमूल्य उपहार से प्रेरित भी किया।

बीसवीं शताब्दी में भारत में जिन स्वनाम धन्य महापुरुषों ने जन्म लिया उनमें आचार्य तुलसी का विशिष्ट स्थान है। आत्मिक प्रकाश से आलोकित उनका भव्य शानदार व्यक्तित्व जादुई प्रभाव से युक्त था। जो भी उनके सम्पर्क में आता, उनसे प्रभावित हुए बिना न रहता। उनकी चमत्कारी व्यक्तित्व, व्यापक अध्ययन, गहरी अन्तर्दृष्टि, वर्तमान के साथ भूत और भविष्य को देखने की सामथ्र्य, आत्म-विश्वास, आत्मसंयम, एकाग्रता, शांत स्वभाव, अदम्य साहस, निर्भीकता, तार्किकता, उत्कृष्ट प्रवचन क्षमता, प्रेम-भाव आदि देश-काल की सीमाओं को लॉंघ कर मानव-मात्र को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त थे। निःसंदेह उनमें एक आध्यात्मिक गुरु बनने एवं दिग्भ्रमित मानवता को सार्वभौम एकता एवं आत्म-विकास का दिव्य सन्देश देने की अद्भुत क्षमता थी।

आचार्य तुलसी का सम्पूर्ण साहित्य जीवन के समस्त शुभों का एकीकृत संकलन है, जिसमें जीवन के विविध पक्ष अपनी सार्थक भूमिका में प्रेरणास्पद रूपाकार ग्रहण करते हैं। जीवन की सार्थक दिशा तय करने में इससे अधिक ऊर्जास्पद सहायक साहित्य ढूँढना दुष्कर है। मन, शरीर, आत्मा को सबल बनाने का संदेश देने वाला यह साहित्य और इसके नायक का जीवन जाग्रत, अनादि और नैतिक भारत का प्रत्यक्ष चित्र है।
 ग्यारह वर्श की उम्र में संयम मार्ग पर अग्रसर होना और यौवनावस्था की दहलीज यानी मात्र 22 वर्ष की वयःक्रम में तेरापंथ धर्मशासन की आचार्य वासना को संभालना कोई साधारण बात नहीं थी। ऐसे क्षणों में साधारणतः नेतृत्व की नैया कैसे-कैसे आरोह-अवरोहों से गुजरती है यह तो वही जान सकता है जो अनुभव-जन्य-भोगी होता है। किन्तु आचार्य तुलसी का व्यक्तित्व जन्म से ही कुछ असाधारण विशेषताओं से प्रतिबद्ध था। कुशाग्रबुद्धि, चतुरता, श्रद्धा व समर्पण भाव उनके सहज गुण थे। इसलिये आपके आचार्य पदारोहण उपरान्त भी अपने गुरु अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी के प्रति अगाध श्रद्धा व आदर्श भाव था। वे पल-पल उनकी स्मृति करते और दुष्कर क्षणों को त्वरित आसान पाते व पथ स्वतः प्रशस्त हो जाता। फलतः नन्हे-नन्हे कंधों पर सौंपा गया समूचे गण का भार वे बखूबी से वहन कर सके तथा सारना-वारना में भी वे एक महान् सिद्धहस्त धर्म नेता सिद्ध हुए।

आचार्य तुलसी के युग को ‘नैतिक मूल्यों की स्थापना का युग’ या ‘नया-युग’ कहा जा सकता है। सचमुच समय अपनी करबट पलट रहा था। लोग शिक्षा, दीक्षा की समीक्षा कर उसे तर्क की कसौटी पर कस कर निदान पाने को उद्यत थे। फिर धर्म क्षेत्र इससे कैसे अछूता रह सकता था? केवल बाह्य क्रिया-काण्ड व उपासना ने लोगों के दिलों-दिमाग को आन्दोलित ही नहीं किया, उनकी धारणाएं घृणा में बदलती जा रही थी। धर्म से विमुखता परिलक्षित हो रही थी और ऐसे धर्म से लोगों का विश्वास उठता जा रहा था।

मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, उपाश्रय, धर्म-स्थानक, देवालयों एवं संतसमागमों में पहुंच कर साधना-सेवा कर लेने मात्र से धार्मिकपन की पहचान बना लेना, एक बाना बन गया था। क्योंकि उस धार्मिक प्रेरणा, उपासना व क्रिया-कांड का व्यवहार्य जीवन के साथ कोई सरोकार दृष्टिगत नहीं हो रहा था। भीतर व बाहर का यह अलग-अलग धर्म! दोहरी नीति वाला यह कैसा धर्म? यह कैसी धार्मिकता?
आचार्य श्री तुलसी परिस्थिति के प्रवीण पारखी व विशेषज्ञ थे। उन्होंने सत्य-तथ्य को तत्काल पकड़ा तथा अणुव्रत के माध्यम से एक ऐसा आदर्श धर्म-पथ प्रस्तुत किया, परोसा कि वह सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय और सर्वजन स्वीकाराय साबित हुआ। नैतिक, प्रामाणिक, चारित्रिक व मानवोचित मूल्यों को अंगीकार करने, उन्हें प्रतिष्ठापित करने हर कोई सक्रिय बनते गये। अतः अणुव्रत-दर्शन ने धर्म की उस रूढ़ परिभाषा को वस्तुतः निरस्त कर दिया।

‘निज पर “ाासन फिर अनुषासन’ का उद्घोश देने वाले आचार्य श्री तुलसी ने अपने उद्बोधनों में, प्रवचनों में कहा- धर्म की उपासना व क्रियाकांड निःश्रेयस तक पहुंचने का एक पक्ष हो सकता है किन्तु यह समीचीन नहीं है। उन्होंने धर्म के यथार्थ बिन्दुओं को उजागर किया। नैतिकता के तहत सौहार्दता, सद्व्यावहारिकता, सार्वभौमता, सहअस्तित्वता और भाईचारा आदि हर व्यक्ति की दैनन्दिनी में घुल-मिल जाए। ऐसे में एक सच्चे धार्मिक व्यक्तित्व का निर्माण होगा। धर्म की यह नयी व्याख्या लोगों के दिलों छू गयी।

अणुव्रत आन्दोलन आचार्य श्री तुलसी का एक असाम्प्रदायिक अवदान है। उसकी बुनियाद संयम पर आधारित है। अणुव्रत का घोष है- ‘संयमः खलु जीवनम्’-संयम ही जीवन है। अणुव्रत का यह संयम शब्द उन पांच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) द्वारा पोषित है जिनके अनुसरण में नैतिकता व आध्यात्मिकता की साधना निहित है।

अणुव्रत, भारतीय जन जीवन को निकट लाने में शत-प्रतिशत सफल रहा है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या जैन क्यों न हो। ऊँच-नीच, रंग-भेद तथा वर्ग-जाति इत्यादि भावना से ऊपर उठ कर सिर्फ मानव धर्म प्ररूपण की प्रधानता रही है अणुव्रत में। ऐसे में सहस्रों लोग जो अपने आपको धर्म से अलग मानते थे, नास्तिक मानते थे वे अणुव्रत को अपना कर, सच्चे धार्मिक बने हैं। अणुव्रत का विशाल समाज बना है।

आचार्य श्री तुलसी के इन मानवतावादी अवदानों ने, उनके उदात्त दृष्टिकोण ने जन-मन को आपस में जोड़ा है। समन्वय की धवल-धारा ने लोगों के कलुषित विचारों को धोया है। आचार्य श्री तुलसी के समन्वयमूलक, स्याद्वादी और अनेकान्तयुक्त विचारों के तहत ही भारत सरकार ने उन्हें दो बार राष्ट्रीय एकता समिति में ससम्मान सदस्य मनोनीत किया और इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय एकीकरण पुरस्कार-1992 का सम्मान भी उन्हें प्रदान किया।
जैन जगत् के विभिन्न आम्नायों में अमुक विचार सरणी, मान्यताओं व परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में विविधता का बोलबाला है।

 आचार्य श्री तुलसी ने उन विभिन्न विचारों की एकरूपता के लिये जीवनपर्यन्त अथक प्रयास किया। इसका परिणाम व फलश्रुति भी देखी गयी-‘भगवान महावीर की पच्चीससौवीं निर्वाण जयन्ती’ पर देश की राजधानी दिल्ली में-उस अवसर पर भव्य समारोह का आयोजन हुआ जिसमें जैन धर्म के चारों सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्यों व अग्रज महानुभावों ने बड़े सौहार्द भाव से सम्मिलित होकर एक आचार, एक विचार, एक चिन्ह और एक ध्वज-तले उस अलौकिक समारोह को बड़े गर्व से मनाया और अपने आराध्यदेव भगवान महावीर को श्रद्धांजलि अर्पित की। यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं थी। आचार्य तुलसी की उसी समन्वयक रीति व मुक्ति ने यह कार्य किया। उसी नीति को आपने थामे रखा और समय-समय पर जैन सम्प्रदाय के अगुवाओं को अपनी बलवती प्रेरणा, उद्बोधन व मार्गदर्शन प्रदान किया। उन बैठकों में जैन एकता तथा सांवत्सरिक एकरूपता साधने के लिये खुल कर चिन्तन-मन्थन चला। आपने अपने निस्पृह व्यक्तित्त्व का परिचय प्रस्तुत किया। किन्तु, खेद है कि आचार्यवर की उदार एवं उदात्त सोच का अभी तक अंकन नहीं किया गया।

आचार्य तुलसी आशावादी थे। निराशा नाम का शब्द उनके शब्दकोश में था ही नहीं। अतः अन्ततः वे समन्वय सम्बन्धी कार्यों के लिये जूझते रहे। आचार्यश्री न केवल जैन सम्प्रदायों की विचारधाराओं को एक करने में जुटे रहे बल्कि समस्त भारतीय ही नहीं, समूची अन्तर्राष्ट्रीय जनमेदिनी को भी जोड़ने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। उनके समक्ष आत्म धर्म के अतिरिक्त समाज धर्म, राष्ट्र धर्म और देशातीत धर्म का विस्तृत मंच था। इसका उम्दा उदाहरण है-पंजाब समस्या के समाधान में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका और इस हेतु राजीव गाँधी व लोंगोवाला को प्रेरित करना। इसी तरह सन् 1994 में भारतीय संसद में आये गतिरोध के परिष्कार में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

जीसस क्राइस्ट के शब्दों में- ‘आध्यात्मिक दृष्टि से शांति स्थापित करना और भौतिक दृष्टि से शांति की प्रतिष्ठापना में रात-दिन का अंतर है।’ भौतिकता की दृष्टि में युद्ध व शांति दोनों अपने-अपने स्वार्थों से जुड़े हैं, इसीलिए इन दोनों को अलग कर पाना कठिन है। इसीलिए आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से शांति स्थापित करने का जो बीड़ा उठाया था उसका पथ आध्यात्मिकता रहा। वे स्थायी शांति की चाह रखते थे। आचार्य तुलसी ने अहिंसा के दर्शन की व्याख्या की है। उनका संपूर्ण जीवन अहिंसा का पर्याय है। उन्होंने लगभग एक लाख किलोमीटर की पद-यात्रा की है। पद-यात्रा का उद्देश्य गाँव-गाँव, शहर-शहर अहिंसा एवं नैतिकता की रक्षा करना और लोगों की उसके प्रति आस्था बढ़ाना रहा। आचार्य तुलसी का अहिंसा दर्शन प्राणि-मात्र की हिंसा तक की ही व्याख्या नहीं करता अपितु पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, वनस्पति, पृथ्वी, जल, पर्यावरण आदि भी उसमें समाहित हैं।

तत्कालीन भौतिक जगत अनेक समस्याओं में उलझा हुआ था, अशांति और अराजकता की चपेट में था और आचार्य तुलसी का प्रयास समाज में शांति की स्थापना करने, अहिंसा की चेतना का जागरण करने एवं नैतिक मूल्यों का विकास करने एवं राष्ट्र में सौहार्द, सद्भावना एवं शांति स्थापित करने की दिशा में निरंतर गतिशील रहता था। तुलसी के अवदानों का आकलन एवं अनुभव कर यह कहना न्यायोचित एवं तर्कसंगत है कि वे शांति एवं सांप्रदायिक सद्भाव के पर्याय थे।

आचार्य तुलसी अध्यात्म की भूमिका पर खड़े होकर शांति एवं सद्भाव का मार्ग प्रस्तुत करते रहे। उस कालजयी व्यक्तित्व की जन्मषताब्दी मनाते हुए हमारा संकल्प शांति एवं सद्भाव की स्थापना हो और इसके लिए जहाँ एक ओर हिंसा तथा संपत्ति और सत्ता की बुराइयों को रोकना होगा वहीं दूसरी ओर इस सच्चाई को भी स्वीकार करना होगा कि मानव जाति का हित संघर्ष में नहीं, वरन् उन सामान्य हितों में है जिनसे राष्ट्रों के बीच सहभागिता बढ़े तथा हितों की ओर वे प्रयाण कर सके। आचार्य तुलसी की मंगलकारी भावना आज भी विश्व में शांति सद्भावना पैदा कर मंगलमय जीवन का भविष्य निर्धारित करने का सक्षम माध्यम हो सकती है।

प्रेषकः
(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोनः 22727486, 9811051133

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जम्मू कश्मीर के अंतिम महाराजा हरि सिंह के राज्य प्रशासन का मूल्याँकन

भारत के विभिन्न हिस्सों में १९४७ से पहले अलग अलग प्रकार की शासन व्यवस्थाएँ प्रचलित थीं । कुछ हिस्सों में , जिसे उन दिनों ब्रिटिश भारत कहा जाता था , शासन व्यवस्था भारत सरकार अधिनियम १९३५ के तहत चलती थी । उन हिस्सों में जिन्हें "भारतीय रियासतें " कहा जाता था , वहाँ शासन व्यवस्था की आनुवांशिक पद्धति थी । इन भारतीय रियासतों में भी कुछ स्थानों पर आंशिक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था भी प्रचलित थी । रियासतों से भी ब्रिटिश सरकार की भी कुछ सन्धियाँ थीं , जिनके अनुसार ब्रिटिश सरकार की भी यहाँ की शासन व्यवस्था में कुछ दख़लन्दाज़ी थी । लेकिन १५ अगस्त १९४७ के बाद ब्रिटिश सरकार की ब्रिटिश भारत से भी सत्ता समाप्त हो गई और भारतीय रियासतों से सन्धियाँ भी समाप्त हो गईं । उसके बाद पूरे भारत में एक प्रकार की ही शासन पद्धति स्थापित करने के प्रयास शुरु हो गये । भारतीय रियासतें और ब्रिटिश भारत के प्रान्त सभी एक साथ संविधान सभा में पूरे भारत के लिये एक संविधान बनाने के लिये एकजुट हुये । इस एकजुटता को ही वैधानिक भाषा में रियासतों का भारत में विलय कहा गया ।
                          

ज़ाहिर है नई शासन व्यवस्था और पुरानी शासन व्यवस्था में कुछ काल के बाद तुलना की जाये । यदि यह तुलना अकादमिक दृष्टि से या फिर प्रशासन को बेहतर बनाने के लिये की जाये तो इस पर किसी को एतराज़ नहीं हो सकता । लेकिन जम्मू कश्मीर में , जिस प्रकार वहाँ के पूर्व शासक महाराजा हरि सिंह की , नकारात्मक छवि बनाने का प्रयास किया जा रहा है , उससे इस विषय में किये जा रहे अधिकांश अध्ययन पूर्वाग्रह ग्रस्त होते जा रहे हैं । इन पूर्वाग्रहों के कारण उन के शासन काल को इतिहास का काला अध्याय कहा जा रहा है । अत: उनके शासन काल का निष्पक्ष अध्ययन और भी ज़रुरी हो गया है । यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये की महाराजा अपने राज्य को जिस जनकल्याणकारी अवधारणा के अनुसार ढालना चाहते थे , उसमें ब्रिटिश सरकार भी अडंगे लगाती रहती थी । अंग्रेज़ों को लगता था कि भारतीय रियासतों का प्रशासन यदि  बेहतर हो गया , तो लोग उसकी तुलना अन्य प्रान्तों , जो ब्रिटिश सरकार द्वारा शासित थे , से करने लगेंगे । हिन्दी के एक प्रसिद्ध उपन्यास , कथा सतीसर , का एक पात्र कहता है,"महाराजा हरि सिंह का प्रशासन प्रगतिशील प्रशासन के तौर पर याद किया जाता है । वे अपनी प्रजा के लिये और भी कितना कुछ करना चाहते थे , लेकिन"महाराजा के ऊपर यह जो ललमुंहा रेज़ीडेंट रहता है ,न रहता , तो राजा अपनी प्रजा के लिये क्या न करता—-।" ( कथा सतीसर ३६६)
                            

जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह का शासन काल प्रगतिवादी और जनकल्याणकारी ही कहा जा सकता है , विशेष कर यदि उसकी तुलना उस समय की अन्य रियासतों के शासन से की जाये । राज्य के सामाजिक उत्थान , शैक्षिक विकास , औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में उनका विशेष योगदान है।

१ वेश्यावृत्ति पर प्रतिबन्ध– वेश्यावृत्ति शायद ऐसा पेशा है , जिसका उल्लेख मानव सभ्यता के विकास के साथ ही मिलना शुरु हो जाता है । राजशाही सरकारों में तो वेश्यावृत्ति को कहीं कहीं राज्यश्रय भी प्राप्त होता था ।  क्योंकि अनेक राजा व्यसनी और चरित्रहीन प्रकार के होते थे । लेकिन महाराजा हरि सिंह रियासतों में से शायद पहले ऐसे शासक थे , जिन्हेंने अपने राज्य से वेश्यावृत्ति को समाप्त करने का निश्चय किया । उन्होंने १९२५ में राज्य सत्ता संभालते ही वेश्यावृत्ति को राज्य भर में प्रतिबन्धित कर दिया था । दंड संहिता में इस बात का प्रावधान किया गया कि नाबालिग़ लड़की से यौन सम्बध बनाना , चाहे ये सम्बध नाबालिग की इच्छा से ही क्यों न बनाये गये हों , दंडनीय अपराध माना जायेगा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये रणवीर दंड संहिता की धारा २७२,२७८और २७९ को संशोधित भी किया गया।

२ बाल विवाह पर रोक — बाल विवाह भी इस देश में पुराने काल से प्रचलित है । यह प्रथा भारतीय समाज के भीतर कैंसर के समान फैली हुई है । अभी , जब प्रगति और शिक्षा प्रसार की इतनी बातें की जाती हैं , बाल विवाह को पूरी तरह रोका नहीं जा सका है । राजस्थान में अक्षय तीज के अवसर पर हजारों की संख्या में बाल विवाह होते हैं । जम्मू कश्मीर भी शेष देश की तरह इस बीमारी का शिकार था । बाल विवाह से लड़कियों  की जिन्दगियां तबाह हो रहीं थीं । बाल विवाह के उपरान्त किसी छोटी बच्ची के पति की यदि किसी वजह से मृत्यु हो जाती थी , तो वह वेचारी सारी उम्र विधवा का जीवन जीने के लिये अभिशप्त हो जाती थी । १९२८ में महाराजा हरि सिंह ने बाल विवाह को अपराध घोषित कर दिया । नये नियमों के अनुसार विवाह के लिये कन्या की उम्र १४ और वर की १८ साल निर्धारित की गई । बाद में इसमें भी संशोधन करके यह उम्र कन्या के लिये १६ साल और वर के लिये २१ साल निर्धारित कर दी गई ।

परम्परागत समाज ने इस का बहुत विरोध किया , लेकिन महाराजा टस से मस नहीं हुये । डोगरी की प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मा सचदेव के ही एक पात्र के शब्दों में,"पहले तो थाली में लिटाकर लड़की ब्याह दी जाती थी , दूल्हा भी दो तीन साल का रहता था । फिर महाराजा हरि सिंह ने क़ानून बनाया कि लड़की चौदह की और लड़का अठारह का होने पर ही शादी होनी चाहिये । (जम्मू जो कभी शहर था १००)

स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना– राज्य में निष्पक्ष न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये १९२८ में ही महाराजा हरि सिंह ने उच्च न्यायालय की स्थापना की । भारतीय रियासतों में शायद यह पहली रियासत थी , जिसने अपने राज्य में उच्च न्यायालय की स्थापना की थी । महाराजा की न्यायप्रियता का एक उदाहरण देना समुचित होगा । जम्मू के कर्ण नगर में स्वर्गीय राम नाथ शास्त्री के पिता शम्भू नाथ ने ज़मीन ख़ाली करने से इन्कार कर दिया । शासन ने सार्वजनिक हित के लिये इस जमीन का अधिग्रहण किया था । बाक़ी निवासियों ने ज़मीन ख़ाली कर दी थी । शास्त्री के पिता इस राजाज्ञा के खिलाफ महाराजा के खिलाफ मुकद्दमा करना चाहते थे । लेकिन न्यायालय भला महाराजा के खिलाफ अभियोग कैसे सुन सकता था ? महाराजा ने अपने खिलाफ यह मुकद्दमा दर्ज करने की अनुमति ही नहीं दी बल्कि अपना पक्ष स्वयं न्यायालय में उपस्थित किया । महाराजा यह मुकद्दमा हार गये , लेकिन उन्होंने राज्य में न्यायप्रियता और निष्पक्षता की नई मिसाल क़ायम कर दी ।
(Excelsior 23/9/2013/J.P.Singh retired col)
                      

दरअसल किसी भी राज्य की प्रशासनिक श्रेष्ठता की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि उसकी न्यायपालिका कितनी निष्पक्ष है । रियासतों में जहाँ सब कुछ राजा की भृकुटी पर ही निर्भर करता था और वहाँ प्रशासन में  शक्तियों के विभाजन की कल्पना करना भी कठिन था , वहीं महाराजा हरि सिंहने पिछली सदी के दूसरे दशक में ही उच्च न्यायालय की स्थापना करके स्वतंत्र न्यायपालिका की दिशा में एक नई शुरुआत की ।

जाति आधारित भेदभाव समाप्त– महाराजा हरि सिंह ने राज्य के सभी मंदिर हरिजनों के लिये भी खोल दिये । शुरु में ब्राह्मणों ने इस का विरोध किया , लेकिन महाराजा ने इसकी चिन्ता नहीं की । ३१ अक्तूबर १९३२ (१९३१?) को हरिजनों के लिये भी मंदिर प्रवेश की अनुमति दिये जाने के विरोध में जम्मू के रघुनाथ मंदिर के पुजारियों ने त्यागपत्र दे दिये । लेकिन महाराजा अपने निर्णय पर अडिग रहे । सभी सार्वजनिक स्थानों यथा विद्यालयों ,मंदिरों , कुओं में दलितों को जाने का अधिकार मिला ।

 १९३१ में लंदन में गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिये महाराजा हरि सिंह भी गये हुये थे । वहाँ हिन्दु समाज में व्याप्त अस्पृश्यता की समस्या पर चिन्तन करने वाले भीम राव आम्बेडकर भी आये हुये थे । ऐसा कहा जाता है कि हरि सिंह की आम्बेडकर से हिन्दु समाज की इन कुरीतियाँ पर लम्बी बातचीत हुई । वे आम्बेडकर की हिन्दु समाज की इन भीतर की कमज़ोरियों को लेकर चिन्ता से अत्यन्त प्रभावित हुये । उन्होंने आम्बेडकर को आश्वासन दिया कि वे अपनी रियासत में इन बीमारियों को दूर करेंगे । लन्दन से वापिस आकर उन्होंने हरिजनों के लिये मंदिरों समेत सभी सार्वजनिक स्थानों के दरवाज़े खोल दिये ।

सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान वर्जित– हिमाचल प्रदेश सरकार ने दो साल पहले सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान न करने का कानून पारित किया था । यह आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी बहुत ही प्रगतिवादी और साहसिक कार्य माना जा रहा है । लेकिन कल्पना करिये जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह ने बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में ही राजाज्ञा द्वारा नाबालिगों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान को प्रतिबन्धित किया । हरि सिंह का यह कार्य , दरअसल राज्य की प्रगति को लेकर उनकी भीतरी सोच को प्रतिबिम्बित करता है।

 राजधर्म– भारतीय परम्परा में राजतिलक के समय का एक विधान है । राजतिलक हो जाने पर राजा घोषणा करता है कि मैं राजा होने के कारण दण्ड से ऊपर हूँ । कोई मुझे दण्ड नहीं दे सकता । तब पुरोहित उस के सिर पर पलाश से प्रहार करता हुआ सार्वजनिक रुप से घोषणा करता है कि धर्म तुम्हें दंड दे सकता है । तुम धर्म से ऊपर नहीं हो । महाराजा हरि सिंह का राजतिलक  २५ फ़रवरी १९२५ ( या ९ जुलाई?) को हुआ । अपने राजतिलक के अवसर पर अपने पहले सम्बोधन में महाराजा ने इस धर्म का अर्थ स्पष्ट किया । उन्होंने कहा , "न्याय ही मेरा धर्म है । मैं जन्म से चाहे हिन्दू हूँ लेकिन शासक के नाते मेरा कोई मज़हब नहीं है । न्याय ही मेरा मज़हब होगा ।

मेरी प्रजा की प्रसन्नता ही मेरी प्रसन्नता होगी । अपनी प्रजा के कल्याण में ही मेरा कल्याण निहित होगा ।जो मुझे अच्छा लगता है , मैं उसे अच्छा नहीं मानूँगा । जो मेरी प्रजा को अच्छा लगता है , मैं उसे ही अच्छा मानूँगा ।"(daily Excelsior 23/9/2012 Col J.P.Singh) आज जिस को पंथ निरपेक्षता कहा जाता है और जिसे किसी भी प्रगतिशील और कल्याणकारी प्रशासन की धुरी माना जाता है , उस पंथ निरपेक्षता को हरि सिंह ने स्वेच्छा से राज्य के प्रशासन का मूलाधार घोषित किया ।

विधवा पुनर्विवाह–    भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विधवा का जीवन नारकीय जीवन से कम नहीं है । बाल विवाह के कारण विधवाओं की संख्या अन्य किसी समाज की तुलना में कहीं ज्यादा भी है । सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता नहीं है और यदि कोई इक्का दुक्का विधवा विवाह हो भी जाता है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है । यह ठीक है कि विधवा स्त्रियों के विवाहों की संख्या में वृद्ध हुई है , लेकिन अभी भी समाज में उसे हैरत की नजर से ही देखा जाता है ।   लेकिन  हिन्दू समाज में , खासकर तथाकथित सवर्ण जातियों में विधवा विवाह आज भी सामाजिक मान्यता की प्रतीक्षा में है । महाराजा हरि सिंह अपने समय के प्रगतिशील शासक थे । हिन्दु समाज की भीतरी बुराइयों को समाप्त करने के लिये जहां उन्होंने राज्य में सामाजिक संगठनों को प्रोत्साहित किया वहीं कानून का सहारा भी लिया । उन्होंने अपने राज्य में विधवा विवाह को वैधानिक मान्यता प्रदान कर एक नई शुरुआत की । उन  दिनों विधवा का पुनर्विवाह डोगरा समाज में निंदनीय माना जाता था । राजपूतों एवं ब्राह्मणों में तो यह पूरी तरह वर्जित था । लेकिन हरि सिंह ने १९३१ में एक राजाज्ञा द्वारा विधवा विवाह की अनुमति प्रदान कर दी ।

 कन्या मारना अपराध– भारत पर विदेशी मुसलमानों के आक्रमण और देश के अनेक हिस्सों पर कब्जा कर लेने के बाद देश में इन आक्रमणकारियों से लम्बा संघर्ष शुरु हुआ । मध्य एशिया व अरब के ये आक्रमणकारी पराजित क्षेत्रों में औरतों के साथ बहुत ही अपमानजनक व्यवहार करते थे । जिस के कारण अनेक क्षत्रिय जातियों ने लडकी को जन्म के समय ही मारना शुरु कर दिया । धीरे धीरे राजपूतों में जन्म लेते ही लडकी मार देने की इस कुरीति को परिवार व वंश के सम्मान के साथ जोड कर देखा जाने लगा । राजस्थान व उत्तरी भारत में यह प्रथा ज्यादा प्रचलित थी ।

पंजाब में कूका आन्दोलन के पर्वतक सद् गुरु राम सिंह ने पंजाब में बार बार अपने शिष्यों को निर्देश दिया है कि "कुडी मार" परिवारों के साथ कोई सम्बध न रखें । इस से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि कुछ दशक पहले तक यह कुप्रथा कितनी विद्यमान थी । गांवों में जन्म लेते ही कन्या को मारने का काम दाई ही सरलता से निपटा देती थी । रियासतों में यह बीमारी और भी भयानक थी ।  महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य में इसे अपराध घोषित किया और इसे करने वाले को सौ रुपया जुर्माना निश्चित किया । उस समय एक ऐसे प्रदेश में जहाँ , क्षत्रिय वंशों की ही भरमार थी , इस प्रकार का क़ानून बनाना बड़े साहस का काम था । लेकिन हरि सिंह ने इसे करके दिखाया । उस समय इस प्रकार का क़ानून बनाना साहसिक कार्य ही कहा जा सकता है ।

सती प्रथा पर प्रतिबन्ध– सती प्रथा भारत के अनेक हिस्सों में चिरकाल से प्रचलित रही है । कुछ विद्वान मानते हैं कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती ने , उस समय हवन कुंड में कूद कर आत्मदाह कर लिया था , जब दक्ष ने सती के पति का अपमान किया था । प्रथा जितनी भी पुरानी क्यों न हो , इसे रोकने के प्रयास भी होते रहे हैं । ब्रिटिश काल में बंगाल प्रेसिडेंसी में इसे कानून की सहायता से बन्द करवाने के प्रयास राजा राम मोहन राय ने किये थे , जिसके फलस्वरुप १८२९ में सरकार ने सती होने को प्रतिबन्धित करते हुये कानून बनाया । लेकिन परम्परा के नाम पर इस कानून का विरोध करने वालों ने इस कानून को प्रिवी कौंसिल तक में चुनौती दी । लेकिन वहां पराजित हुये और इस प्रकार १९३२ में यह कानून वहां लागू हो सका । लेकिन इससे इतना अन्दाजा तो लगाया ही जा सकता है कि शास्त्रों का आधार लेकर पुरातन पंथी विरोध का स्वर कितना ऊंचा कर सकते थे । ऐसी हालत में रियासतों में स्त्री के पक्ष में इस प्रकार की व्यवस्था करने के बारे में तो कोई सोच भी नहीं सकता था । लेकिन महाराजा हरि सिंह ने प्रिवी कौंसिल में निर्णय हो जाने के एक साल बाद ही १९३३ में अपने राज्य में सती प्रथा को बन्द कर दिया और इसमें सहायता करने वालों को अपराधी घोषित किया ।

ऐसा नहीं कि राज्य में इसका विरोध नहीं हुआ । यद्यपि जम्मू संभाग में यह प्रथा बहुत ज़्यादा प्रचलित नहीं थी , फिर भी इसको शास्त्र सम्मत बताने वालों ने सैद्धान्तिक आधार पर इसका विरोध किया । लेकिन महाराजा हरि सिंह इस विरोध को नकारते हुये अपने निश्चय पर दृढ़ रहे ।
१० प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य– महाराजा हरि सिंह जानते थे कि यदि राज्य को आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरुप विकसित करना है तो उसके लिये राज्य में सर्वसाधारण को बिना किसी भेदभाव के शिक्षित करना अनिवार्य है ।

यदि राज्य में निरक्षरता विद्यमान रहेगी तो राज्य विकास के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकेगा । प्रथमिक शिक्षा विकास की आधारभित्ती बन सकती है । लेकिन यह प्रथमिक शिक्षा केवल लडकों तक सीमित नहीं रहनी चाहिये । इसका लाभ लडके और लडकियों को समान रुप से मिलना चाहिये । जम्मू कश्मीर जैसे राज्य में जहां मुसलमानों की जनसंख्या बहुत ज्यादा थी और मुसलमान आम तौर अपनी लडकियों को स्कूल में भेजना ठीक नहीं समझते , लडकियों को साक्षर बनाना और भी जरुरी है । महाराजा जानते थे कि राज्य में प्राथमिक पाठशालाओं की स्थापना मात्र और प्राथमिक शिक्षा की सुविधा प्रदान कर देने मात्र से रूढिवादी समाज लडकियों को स्कूल भेजना शुरु नहीं कर देगा । इसलिये उन्होंने राज्य में लड़के और लड़कियों , दोनों के लिये ही प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी । अब बच्चों को प्राथमिक स्तर तक स्कूल भेजना अनिवार्य हो गया था । इतना ही नहीं , उन्होंने अनाथ बच्चों के लिये पाँच सौ छात्रवृत्तियाँ सृजित कीं । इससे राज्य में एक नये साक्षरता आन्दोलन की शुरुआत हुई ।

 साहूकारों से मुक्ति–हरि सिंह ने लोगों को साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिये क़ानून बनाये।

राज्य प्रजा अधिनियम– दरअसल राज्य के विकास और उसके आधुनिकीकरण की परम्परा महाराजा प्रताप सिंह के शासन काल में ही स्थापित हो गई थी । महाराजा हरि सिंह ने उसे और आगे बढाया । अब जम्मू कश्मीर , खासकर कश्मीर घाटी शेष देश से कटी हुई नहीं रही थी , बल्कि सडकों के माध्यम से देश के बाकी हिस्सों से जुड गई थी । मौसम के लिहाज से अंग्रेजों को घाटी का जलवायु अपने देश के अनुकूल ही लगता था । गुलमर्ग अंग्रेज पर्यटकों का अड्डा ही बन गया था । अनेक अंग्रेज घाटी में जमीन खरीद कर राज्य के स्थायी निवासी बनना चाहते थे । महाराजा हरि सिंह जानते थे कि यदि प्रभावशाली अंग्रेज राज्य में सम्पत्ति अर्जित कर रहने लगे तो यह राज्य भी परोक्ष रुप से अंग्रेजों का उपनिवेश ही बन जायेगा । इस को रोकने के लिये उन्होंने १९२७ में राज्य के स्थायी निवासी होने का अधिनियम पारित किया । इसके लिये स्टेट सब्जैक्ट शब्द का इस्तेमाल किया गया । एक राजाज्ञा में स्टेट सब्जैक्ट को पारिभाषित किया गया । इस अधिनियम के अनुसार राज्य में सम्पत्ति राजाज्ञा में पारिभाषित स्टेट सब्जैक्ट ही खरीद सकता था । १९२७ के अधिनुयम में राज्य के स्थानीय लोगों को अतिरिक्त सुविधाएँ भी दी गईं । इस क़ानून से , उन दिनों जब ब्रिटेन का सूर्य अस्त नहीं होता था , महाराजा ने किसी सीमा तक राज्य की , ब्रिटिश कालोनी बन जाने से रक्षा की । इस क़ानून के कारण ही श्रीनगर की डल झील में हाउस बोट का निर्माण और प्रचलन शुरु हुआ , जिसका इस्तेमाल उन दिनों ज़्यादातर अंग्रेज़ ही करते थे । हाउस बोट ज़मीन की परिभाषा में नहीं आता था ।

अस्पृश्यता समाप्ति अभियान–  अस्पृश्यता हिन्दु समाज का भीतरी कैंसर है । इसे समाप्त करने के लिये मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन से लेकर बीसवीं शताब्दी के महात्मा ज्योतिबा फुले और भीम राव आम्बेडकर समेत अनेक समाज सुधारकों ने प्रयास किया । महात्मा गान्धी , डा० केशव राम बलिराम हेडगवार ने तो इसे समाप्त करने के लिये बाकायदा संगठनों के माध्यम से व्यवहारिक प्रयोग किये । कालान्तर में आम्बेडकर के प्रयासों से भारतीय संविधान में भी अस्पृश्यता को नकारा गया । महाराजा हरि सिंह भी समाज से इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिये प्रयत्नशील थे। उन्होंने १९३२ में ही क़ानून बनाकर राज्य में अस्पृश्यता समाप्त की और अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया ।

 बेगार प्रथा की समाप्ति– जम्मू कश्मीर के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में सामान ढोने एवं सरकारी कार्य निपटाने के लिये बेगार प्रथा का प्रचलन था । इसके अनुसार किसी एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान पहुंचाना प्रजा के लिये अनिवार्य कर्तव्य था और इसके लिये कोई पारिश्रामिक भी नहीं दिया जाता था । बेगार प्रथा एक प्रकार से निरीह प्रजा का शोषण करने की सामन्तवादी पद्धति थी । महाराजा हरि सिंह ने अपने शासन काल में राज्य से बेगार की इस बेकार प्रथा को समाप्त किया और इसे अपराध घोषित किया । यदि किसी से काम करवाया जाना अनिवार्य हो तो उसको उसका पारिश्रामिक देना भी अनिवार्य किया गया । अपने समय में यह क़दम , ख़ासकर किसी रियासत में ,सचमुच क्रान्तिकारी ही कहा जायेगा ।

विकास कार्य– महाराजा हरि सिंह जानते थे कि राज्य के विकास की धुरी , संरचनात्मक ढांचे का निर्माण और राज्य में उद्योगों का विकास ही है । १९३२ में हरि सिंह ने जम्मू में तवी पर और अखनूर में चिनाव पर दो लौह सेतु बनवाये । १९३५ में राज्य में पहला बिजली घर स्थापित किया । १९३६ में जम्मू कश्मीर बैंक की स्थापना की । १९४० में उन्होंने जम्मू,श्रीनगर और कोटली में तीन हस्पतालों की स्थापना की । उन्होंने लाहौर के मैडीकल कालिज में जम्मू कश्मीर के पाँच छात्रों के लिये स्थान आरक्षित करवाने के लिये कालिज को राज्य की ओर से प्रतिवर्ष पाँच लाख रुपये का अनुदान देना शुरु किया । १९४० में ही राज्य बिरोजा फैक्टरी स्थापित की । १९४१ में श्रीनगर एम्पोरियम की स्थापना की गई । १९४५ में रणवीर सिंह पुरा में चीनी मिल की स्थापना की ।

 संसदीय प्रणाली की स्थापना– १९३४ में राज्य में विधान सभा की स्थापना कर महाराजा ने राज्य में लोकतंत्रीय प्रणाली की शुरुआत की । प्रजा सभा के लिये बाकायदा चुनाव करवाये गये । और महाराजा के खिलाफ आन्दोलन चलाने वाली पार्टी मुस्लिम कान्फ्रेंस के मिर्ज़ा अफ़ज़ल बेग को राज्य मंत्रिमंडल में राजस्व मंत्री के तौर पर शामिल किया गया । उन दिनों रियासतों में राज्य प्रशासन के खिलाफ आन्दोलन चलाने वालों को दंडित करने की परम्परा थी , उन्हें मंत्री बनाने की नहीं । लेकिन हरि सिंह ने राज्य में लोकतांत्रिक प्रणाली को मज़बूत करने के लिये अपने विरोधियों को भी मंत्रिमंडल में शामिल किया ।

औरतों की ख़रीद फ़रोख़्त पर पाबन्दी– औरतों की खरीद फरोख्त की परम्परा पुरानी है । यह परम्परा औरत को सम्पत्ति समझने की मानसिकता से ही उत्पन्न होती है । औरतों के दलाल परिवारों की गरीबी का लाभ उठा कर माता पिता से उनकी जवान लडकियों को सस्ते में खरीद लेते थे और फिर उनको विवाह करवाने के इच्छुक अधेडों को बेच देते थे या वेश्याओं के चकले पर भेज देते थे । नेपाल से लेकर कश्मीर तक के पहाडी क्षेत्रों में यह धंधा ज्यादा चलता था । उन दिनों कश्मीर , विशेषकर बल्तीस्तान से औरतों को ले जाकर दूसरे प्रान्तों में बेच देने का धन्धा दलाल करते थे । कोलकाता , चेन्नै में इन औरतों की अच्छी क़ीमत मिल जाती थी । १९२९ में  हरि सिंह ने कश्मीर से औरतों को ले जाने पर पाबन्दी आयद की । ऐसा करने वालों को जेल की सजा तीन साल से बढाकर सात साल करने के अतिरिक्त कोड़े मारे जाने का भी प्रावधान किया ।

पंचायत प्रणाली- महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य में सत्ता का विकेन्द्रीयकरण करने के लिये काफी अरसा पहले से ही पग उठाने शुरु कर दिये थे । राज्य में पंचायत व्यवस्था की शुरुआत इसका प्रमाण है । वैसे तो भारतीय समाज में पंचायत की अवधारणा बहुत पुरानी है और सामाजिक स्तर पर पंचायतें समाज में व्यवस्था स्थापन का कार्य करती रही हैं , लेकिन प्रशासकीय स्तर पर पंचायतों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये पहल महाराजा हरि सिंह ने ही की । उन्होंने ग्राम स्तर पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने के लिये राज्य में पंचायत प्रणाली की स्थापना की । महात्मा गान्धी जिस ग्राम स्वराज्य की कल्पना करते थे , उसके मूल में पंचायती व्यवस्था ही थी । हरि सिंह ने उसी दिशा में पहल की थी ।
१९. व्यक्तिगत व सार्वजनिक सम्पत्ति का अन्तर– हरि सिंह की व्यक्तिगत सम्पत्ति , उसके स्रोतों और राजकीय सम्पत्ति में स्पष्ट अन्तर था । महाराजा राजकीय कोष का उपयोग व्यक्तिगत कार्यों के लिये नहीं करता था ।

२०.  कर्मचारी चयन पद्धति गुणवत्ता पर आधारित– महाराजा के शासनकाल में राज्य में सरकारी नौकरियों में नियुक्तियाँ केवल मेरिट पर आधारित थीं । १९३५ में ही महाराजा ने कर्मचारियों के निष्पक्ष चयन के लिये लोक सेवा आयोग का गठन कर दिया था । राज्य के उपमुख्यमंत्री रहे देवी दास ठाकुर उस समय का वर्णन करते हुये लिखते हैं ,"आटोक्रेटिक सरकार की और चाहे कितनी भी कमियाँ क्यों न रही हों , राज्य प्रशासन में कर्मचारी चयन में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं होता था । यदि था तो वह नगण्य ही था । चयन का आधार केवल मेरिट ही था ।"(देवी दास ठाकुर पृष्ठ ६९)
२१.  भ्रष्टाचार की स्थिति– वैसे तो किसी भी प्रशासन में बिल्कुल भ्रष्टाचार नहीं होता , यह नहीं कहा जा सकता । लेकिन महाराजा हरि सिंह के प्रशासन में भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते हुये देवी दास ठाकुर लिखते हैं,"आज़ादी के बाद जितना भ्रष्टाचार फैला है , महाराजा के शासन में उससे कहीं कहीं कम था । यदि था भी तो सम्बधित पक्ष पर   तुरन्त कार्यवाही होती थी ।"( देवी दास ठाकुर ६९)

२२. सामाजिक कुरीतियाँ के खिलाफ संघर्ष- हिन्दु समाज की अनेक रूढ़िवादी मान्यताएँ उसके विकास में बाधा बन रही थीं । महाराजा जानते थे कि सामाजिक परिवर्तन केवल क़ानून से नहीं लाया जा सकता । महाजनों सेन गता स: पन्था । राजपूतों में उन दिनों हल चलाने की परम्परा नहीं थी । वे स्वयं खेती नहीं करते थे । इसलिये ज़मीन के मालिक होते हुये भी उनकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी । हरि सिंह ने उदाहरण उपस्थित करने के लिये स्वयं खेत में हल चलाया , ताकि अन्य राजपूत उनका अनुसरण करें ।

पद्मा सचदेव की एक पात्र कहती है,"पहले ये राजपूत भूखे मर जाते थे पर हल नहीं चलाते थे, फिर जब महाराजा हरि सिंह ने गद्दी सँभाली , तब उन्होंने देखा , जिनके घर का कोई भी फ़ौज में नहीं है , उनका तो घर नहीं चलता । इसलिये महाराजा हरि सिंह ने पहले ख़ुद हल पकड़ी , ताकि राजपूतों को हल चलाने में शर्म न आये । तब जाकर राजपूतों का संकोच कम हुआ । देखो क्या अकल लड़ाई महाराजा ने । मैंने तो सुना है महारानी तारामती रोटी लस्सी लेकर खेत में ख़ुद गई थी । (जम्मू जो कभी शहर था १००) इसी उपन्यास में एक अन्य जगह महाराजा का मूल्याँकन करते हुये पात्र कहते हैं,"परषोत्तमा ने कहा, महाराजा तो थे लाखों में एक । कितनी ही कुरीतियाँ को दूर किया । छोटी लड़कियों की शादी के खिलाफ क़ानून बनाया । लड़की की आयु कम से कम चौदह और लड़के की अठारह होनी ही चाहिये । पैदा होते ही लड़की मार देने पर सौ रुपया जुर्माना चलाया । तब तो रुपया देखने को भी नहीं मिलता था ।

सुग्गी ने कहा , ये राजपूत सिर्फ फ़ौज में जाते थे । ज़मीनों पर खेती नहीं करते थे । चाहे भूखे मर जायें । महाराजा ने ख़ुद खेत में हल चलाकर ये रस्म तोड़ी । महारानी तारादेवी खेत में खाना लेकर भी गई थीं । हरिजनों को मंदिरों में आने के लिये दरवाज़े खोल दिये । पंडित नाराज़ होकर नौकरियाँ छोड़ गये पर महाराजा अपनी बात पर अटल रहे । उनके गुणों के बखान कोई कम हैं क्या ? ( जम्मू जो कभी शहर था १८६)  अरे सुग्गी , आज वही महाराजा हरि सिंह , हमारे सिरों का ताज , बम्बई में देस निकाला भोग रहा है । कभी कभी तो मन करता है कि नेहरु के साथ जाकर लड आऊँ ।( जम्मू जो कभी शहर था १००)

पंथ निरपेक्ष नीति– महाराजा हरि सिंह प्रशासन में पूरी तरह पंथ निरपेक्ष थे । उन्होंने अपने व्यक्तिगत विश्वासों , आस्थाओं और पूजा पद्धति को कभी प्रशासन पर भारी नहीं पड़ने दिया । वे सही अर्थों में पंथ निरपेक्ष थे । शासक के नाते उन्होंने सत्ता संभालते समय ही न्याय को अपना धर्म घोषित कर दिया था । उनके लिये यह केवल घोषणा मात्र नहीं थी , बल्कि उनका गहरा विश्वास इसमें परिलक्षित होता था । शेख अब्दुल्ला का महाराजा पर सबसे बडा दोषारोपण यही है कि विभाजन के दिनों में जम्मू में मुसलमानों को भगाने में उनका हाथ था ।

वे अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार में लिखते हैं,"इधर हम कश्मीर में क़बायलियों को पीछे धकेलने में व्यस्त थे, उधर जम्मू में महाराजा हरि सिंह सांप्रदायिकता की आग को भड़काने के लिए ख़ूब हाथ-पैर मार रहे थे… जम्मू पहुँचकर महाराजा और महारानी तारा देवी ने खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचना शुरू किया। अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए उन्होंने जम्मू के उग्रवादी हिंदुओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सधे हुए सदस्यों में घातक हथियार वितरित किये और उन्हें मुसलमानों का सफाया करने की उत्तेजना दिलाते रहे। ऐसी ही एक टोली की निगरानी प्रोफेसर बलराज मधोक कर रहे थे। उन्होंने ऊधमपुर और रियासी में मुसलमानों के ख़ूने-नाहक से खूब हाथ रँगे।' (पृष्ठ 433-434)
                               
 शेख अब्दुल्ला जानबूझकर भूल रहे हैं कि यदि महाराजा सचमुच अपनी प्रजा के बारे में हिन्दु और मुसलमान के नजरिये से सोच रहे होते तो रियासत का जनसांख्यिकी अनुपात बदलने के लिये उन्हें १९४७ का इन्तज़ार करने की ज़रुरत न होती । यह काम वे १९२७ से ही शुरु कर सकते थे । रियासत के बाहर के लोगों के आने के लिये वे दरवाज़े खोल देते तो आसानी से जनसंख्या का अनुपात बदला जा सकता था । लेकिन महाराजा ने इसके विपरीत १९२७ में रियासती प्रजा का क़ानून बना कर बाहर वालों के लिये रियासत में आने के दरवाज़े बन्द किये । इसी क़ानून के कारण घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक के रुप में रह सके ।

कहने का अभिप्राय यह है कि महाराजा रियासत के लोगों का विभाजन हिन्दु मुसलमान के आधार पर नहीं करते थे । यदि उनका शासन अच्छा था तो दोनों वर्गों के लिये समान रुप से अच्छा था और यदि बुरा था तो दोनों वर्गों के लिये समान रुप से बुरा था । हिन्दु मुसलमान को अलग अलग नजरिये से देखने की राजनीति शेख ने स्वयं १९३१ में शुरु की थी , जिसका ख़ामियाज़ा बाद में सभी को भुगतना पड़ा । जहाँ तक जम्मू में विभाजन के बाद हुये दंगों का प्रश्न है , इसकी आग में तो सारा पंजाब ही झुलस रहा था ।

जम्मू संभाग की सीमा तो पंजाब के स्यालकोट , रावलपिंडी , गुजराँवाला इत्यादि से लगती है । इसलिये पंजाब की आग की चपेट में जम्मू भी आ गया , इस पर उन दिनों की हालत को देखते हुये आश्चर्य नहीं किया जा सकता । इसलिये जम्मू के दंगों के लिये महाराजा हरि सिंह को लपेटना है , तब तो पंजाब -दिल्ली में हुये दंगों के लिये पंडित नेहरु और कांग्रेस को भी दोषी मानना होगा । महाराजा को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने १९४६-४७ में , जब पाकिस्तान बनाये जाने की बात लगभग पक्की हो गई थी , तब भी रियासत के मुसलमानों से भेदभाव नहीं किया । रियासत की सेना के मुसलमान सैनिक पाकिस्तान समर्थक तत्वों से साँठगाँठ कर रहे हैं , ऐसी अफ़वाहें रियासत में फैलनी शुरु हो गईं थीं । महाराजा चाहते तो उन्हें अपदस्थ कर सकते थे । लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया । इसका बाद में उन्हें नुक़सान भी उठाना पड़ा । परन्तु संकट की उस घड़ी में भी उन्होंने पंथ निरपेक्षता का राजधर्म , जिसकी प्रतिज्ञा उन्होंने राजतिलक के समय की थी , नहीं छोड़ा ।
                      

महाराजा हरि सिंह के शासन काल के मात्र कुछ क्षेत्रों की शासन व्यवस्था और उससे जुड़े चिन्तन की यहाँ चर्चा की गई है । उनके प्रशासन की ये उपलब्धियाँ लोक सम्पर्क विभाग की प्रचार सामग्री पर आधारित नहीं है , बल्कि ठोस तथ्यों पर आधारित है । उपरोक्त विवेचन की पृष्ठभूमि में ,जहां तक प्रशासन का ताल्लुक है, महाराजा हरिसिंह स्वयं अपने राज्य के प्रशासन के बारे में क्या कहते हैं यह जान लेना भी आवश्यक है। अगस्त 1952 में उन्होंने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को जो चिट्ठी लिखी थी उसमें उन्होंने उल्लेख किया है। महाराजा के अनुसार, “राजगद्दी संभालते ही मैंने अपनी प्रजा की हालत को सुधारने और सरकार को प्रगतिवादी लोकतांत्रिक तरीके से स्थापित करने के प्रयास किये । मैंने ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के कर्जे माफ किये ताकि किसानों की सामाजिक और आर्थिक दशा में सुधार हो सके ।

इस प्रकार के कुछ कानूनों पर तो हिन्दुओं ने विरोध भी दर्ज कराया । उनके अनुसार मैं मुसलमानों की उन्नति के लिये हिन्दुओं के हितों का बलिदान कर रहा हूं । मैंने अपने राज्य में उद्योग स्थापित किये और शिक्षा के लिये प्रावधान किया । मैंने लोगों की सहायता के लिये चिकित्सा की सुविधायें मुहैया करवायीं । शायद तब तक किसी भी रियासत ने ऐसा नहीं किया था । उन दिनों मुसलमान पिछड़े माने जाते थे इसलिये मैंने उनको शिक्षा प्रदान करने के लिये विशेष प्रयास किये । मैं अपने राज्य प्रशासन को सुसंगठित करने के लिये और प्रजा को सुशासन देने के लिये अत्यंत उत्साह में था इसलिये मैंने ब्रिटिश भारत से योग्य और असंदिग्ध निष्ठा वाले लोगों को प्रधानमंत्री, मंत्री और विभिन्न विभागों के अध्यक्ष नियुक्त किया । उनमें से हरिकृष्ण कौल , मिर्जा सर जाफ़िर अली, बी.आर.मेहता, वजाहत हुसैन,सर अब्दुस शम्स खान,लाल गोपाल मुखर्जी, सर एन गोपाल स्वामी आयंगर, सर बी.एन.राऊ प्रमुख हैं ।

इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे राज्य का प्रशासन , संगठन एवं निपुणता में ब्रिटिश  भारत के कुछ प्रांतों से भी बेहतर था।———————————–​मैं अपना प्रशासन मंत्रिमंडल की सलाह पर ही चलाता था । न तो मैंने उनके काम में कभी दखलंदाजी की और ना ही उन्हें दिशा-निर्देश दिये। इसलिये यदि आज मेरे राज्य के प्रशासन में कमियां गिनाई जा रही हैं तो उसकी जिम्मेदारी अकेले मुझ पर ही नहीं डाली जा सकती । —————–उल्लेखनीय है कि 1938 से लेकर 1943 तक 6 वर्षों के लिये तो श्री एन.गोपाल स्वामा आयंगर ही प्रधानमंत्री थे । वे आज भी इस बात की गवाही देंगे कि उन्होंने समय-समय पर जो नीतियां लागू की और निर्णय लिये मैंने कभी भी उनमें दखल अंदाजी नहीं की।————-

मैंने तो 1945 में ही स्वयं को केवल एक संविधानिक मुखिया रखने का निर्णय कर लिया था । तब मैंने सर तेज बहादूर सप्रू और कैलाशनाथ हकसर की हाजिरी में राज्य के प्रधानमंत्री बी.एन राऊ से चर्चा की थी कि राज्य में पूरी तरह जिम्मेदार लोकतांत्रिक सरकार स्थापित कर ली जाय और राज्य के विभिन्न संभागों को स्वायत्ता दे दी जाय । केंद्रीय सरकार में इन संभागों के प्रतिनिधियों और एक न्यायिक सलाहकार बोर्ड हो और मेरी भूमिका इसमें संवैधानिक मुखिया की ही रहे । मुझे पता था कि ब्रिटिश सरकार इसे पसंद नहीं करेगी लेकिन इसके बावजूद मैं इसे लागू करने के लिये तैयार था । मतभेद केवल इसी बात को लेकर था कि श्री बी.एन.राऊ इसे तुरंत 15 दिनों में ही लागू करना चाहते थे जब कि मेरा कहना था कि इस योजना को 6 महीनों के बीच लागू किया जाना चाहिये ताकि इसकी भली-भांति तैयारी हो सके । यह योजना किसी तरह सार्वजनिक हो गयी, स्थितियां कठिन होती गयीं और कुछ देर बाद ही बी.एन .राऊ पद त्याग कर चले गये।—————–

मेरी रियासत का वित्तीय प्रशासन पूरी तरह से आधुनिक सिद्धांतो पर संचालित किया जाता था । मेरा व्यक्तिगत खर्चा सख्ती से सीमा में ही था और वह राज्य के बजट से बाहर था । राज्य के वित्त और मेरे व्यक्तिगत वित्त को रेखांकित करने के लिये बहुत स्पष्ट सीमाएं थी। इसलिये मेरे राज्य में एक सुसंगठित और सक्षम कार्यपालिका थी , लोकतांत्रिक विधि से चुनी गयी विधान पालिका थी और स्वतंत्र न्यायपालिका थी । एक जन कल्याणकारी राज्य के दायित्व के नाते शिक्षा, चिकित्सा और अन्य मदों के लिये सुनिश्चित नीति थी। जिन योग्य न्यायधीशों और प्रशासकों ने समय समय पर मेरे राज्य में कार्य किया है वे इस बात की गवाही देंगे।———————————

​उन दिनों भारतीयों रियासतों के शासकों का मूल्यांकन उनकी प्रजा की हालत और उसके भावों से किया जाता था और मैं बिना किसी खंडन के भय से पूरी तरह से कह सकता हूं कि मेरे राज्य के लोग पूरी तरह संतुष्ट थे। मेरे खिलाफ या मेरे राज्य के प्रशासन के खिलाफ असंतोष का कोई कारण नहीं था।"( जावेद आलम )।
                        

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि स्वतंत्र स्रोतों से महाराजा के प्रशासन और उसकी नीतियों को लेकर जो निष्कर्ष निकाले गये हैं , वे लगभग महाराजा के अपने बयान से मेल खाते हैं । महाराजा अपने समय के योग्य प्रशासकों में से एक थे । उनकी प्रशासन पद्धति लोक प्रशासन के आधुनिक सिद्धांतों पर टिकी हुई थी ।

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