Thursday, July 4, 2024
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अमेरिका में पढ़ाई: भ्रामक जानकारी से बचें

एजुकेशनयूएसए सलाहकार से जानिए कि अमेरिका में अध्ययन की तैयारी करते समय किस तरह से सही विकल्पों का चयन करें।

विद्यार्थियों को विश्वसनीय सूचना स्रोतों का इस्तेमाल करना चाहिए जैसे कि अमेरिका में उच्च शिक्षा के एजुकेशनयूएसए जैसे आधिकारिक स्रोत का। इसके अलावा सही विकल्प के चयन के लिए दाखिला अधिकारियों से बात करनी चाहिए और आवेदन के लिए विश्वविद्यालयों की सूची शॉर्टलिस्ट करनी चाहिए। (फोटोग्राफः साभार आस्‍था विर्क सिंह)

एजुकेशनयूएसए सलाहकार के रूप में अपने लगभग 10 वर्षों में मैंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में आवेदन और दाखिले के संबंध में विद्यार्थियों की कई शंकाओं का समाधान किया है। हालांकि विद्यार्थियों की बहुत सारी ऑनलाइन जानकारी तक पहुंच है, लेकिन अक्सर उन्हें गलत जानकारियां होती हैं। एजुकेशनयूएसए केंद्रों में हम सक्रिय रूप से अपना समय आम मिथकों को दूर करने और यह सुनिश्चित करने में बिताते हैं कि विद्यार्थियों को विश्वसनीय जानकारी हासिल हो सके।

आइए कुछ मिथकों पर करीब से नज़र डालते हैं :

मिथक: अमेरिका में अध्ययन के लिए केवल आईवी लीग या उच्च रैंक वाले कॉलेजों को चुनना चाहिए।

तथ्य: हालांकि आईवी लीग संस्थान प्रतिष्ठित हैं और अकादमिक उत्कृष्टता का लंबा इतिहास समेटे हैं, लेकिन वे ही सफलता का एकमात्र रास्ता नहीं हैं। अमेरिका में तमाम अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों से बहुत-से विद्यार्थी आगे बढ़ते हैं और अपने लक्ष्य को हासिल करते हैं।

अमेरिका में लगभग 4000 एक्रेडिटेड कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं और हरेक में अनूठे पाठ्यक्रम, संसाधन और अवसर उपलब्ध हैं। कॉलेज चुनते समय, अपनी प्राथमिकताओं को परिभाषित करना और उसके हिसाब से पाठ्यक्रम, स्थान, कैंपस संस्कृति और वित्तीय सामर्थ्य जैसे कारकों पर विचार करना आवश्यक है। संभव है कोई चीज़ जो किसी एक विद्यार्थी के लिए सही हो, वह दूसरे के लिहाज से उपयुक्त न हो। लेकिन अमेरिकी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में जो विविधता और लचीलापन होता है, उससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि हर विद्यार्थी को अपनी आकांक्षाओं और प्राथमिकताओं के अनुरूप पाठ्यक्रम उपलब्ध हो जाता है।

विद्यार्थियों को जानकारी हासिल करने के लिए विश्वसनीय स्रोतों जैसे अमेरिकी उच्च शिक्षा से जुड़े आधिकारिक स्रोत एजुकेशनयूएसए, और दाखिला अधिकारियों के अलावा, मौजूदा और पूर्व विद्यार्थियों से बातचीत करके विवेकपूर्ण तरीके से आवेदन योग्य विश्वविद्यालयों को शॉर्टलिस्ट करना चाहिए।

मिथक: अमेरिका में उच्च शिक्षा काफी महंगी है।

तथ्य: अमेरिकी विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थियों को फंडिंग के लिए कई तरह के स्रोत उपलब्ध कराते हैं। हालांकि, विश्वविद्यालयों में फंडिंग नीतियां अलग-अलग हो सकती हैं।

संस्थान प्रतिस्पर्धी योग्यता आधारित छात्रवृत्ति और आवश्कता आधारित वित्तीय सहायता के रूप में आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं। कई विश्वविद्यालय अनुदान, फेलोशिप और वर्क-स्टडी प्रोग्राम भी उपलब्ध कराते हैं।

छात्रवृत्तियां मेरिट पर आधारित होती हैं और यह विद्यार्थियों को उनके आवेदन, शैक्षणिक योग्यता और समग्र प्रोफाइल पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद प्रदान की जाती हैं। एक बार आवेदन करने के बाद विद्यार्थियों को विशिष्ट विषय, ऑनर्स कॉलेज या अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए निर्धारित छात्रवृत्ति के लिए स्वत: ही विचारयोग्य समझा जा सकता है। वे खेल या संगीत से जुड़ी खास छात्रवृत्तियों के लिए भी आवेदन दे सकते हैं।

आर्थिक सहायता विद्यार्थी की योग्यता और आर्थिक ज़रूरत के हिसाब से प्रदान की जाती है। विद्यार्थियों को इस प्रकार की सहायता के लिए पात्र होने की अपनी ज़रूरत को प्रदर्शित करना होगा।

विद्यार्थियों को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि संस्थान किस प्रकार का है, क्योंकि उसी से वहां पढ़ाई की कुल लागत को निर्धारित किया जाता है। सरकारी विश्वविद्यालय और कम्युनिटी कॉलेजों में पैसा कम खर्च होता है जबकि प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पैसा अधिक खर्च होता है, लेकिन फंडिंग की मात्रा भी अधिक होती है। सावधानीपूर्व योजना बनाने और शोध के साथ विद्यार्थी अमेरिका में उच्च शिक्षा के लिए किफायती विकल्प पा सकते हैं।

मिथक: लिबरल आर्ट डिग्री दूसरे डिग्री पाठ्यक्रमों के मुकाबले अतिरिक्त महत्व नहीं रखतीं और इसमें कलात्मक फोकस ज्यादा होता है।

तथ्य: लिबरल आर्ट की डिग्री विद्यार्थियों को विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान और मानविकी सहित शिक्षा के व्यापक फलक से परिचित कराती है। यह शिक्षा सामाजिक ज़िम्मेदारी, बौद्धिक एवं व्यावहारिक कौशल के हस्तांतरण की सशक्त भावना को पोषित करती है जिससे क्रिटिकल थिंकिंग, संवाद, समस्या समाधान और अनुकूलन कौशल का विकास होता है जिसे विभिन्न उद्योगों में नियोक्ता काफी महत्व देते है।

लिबरल आर्ट की डिग्री शिक्षा, व्यवसाय, सरकार, संचार, गैरलाभकारी संगठनों और तमाम दूसरे क्षेत्रों में विविध किस्म के कॅरियर के अवसर प्रदान कर सकती है। लिबरल आर्ट ग्रेजुएट अपने कॅरियर की संभावनाओं को सशक्त बनाने के लिए आगे की शिक्षा प्राप्त करते हैं या विशिष्ट क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल करते हैं। इस विशाल दुनिया में इस तरह का व्यापक ज्ञान इस विषय के ग्रेजुएटों को तमाम तरह की जटिलताओं, विविधताओं और बदलावों से निपटने के लिए तैयार करता है।

मिथक: मैं विद्यार्थी वीज़ा पर अध्ययन करने के दौरान अमेरिका में पूर्णकालिक तौर पर रोज़गार कर सकता हूं।

तथ्य: अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी अमेरिका में मुख्य रूप से इसलिए होते हैं कि वे जिस संस्थान में पंजीकृत होते हैं, उन्हें वहां अपने चुने गए विषय की पढ़ाई करनी होती है और उन पर पूर्णकालिक पाठ्यक्रम की कक्षाओं का भार होता है।

विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के दाखिले से पहले उन्हें फंडिंग का सबूत देना होता है जिससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि विद्यार्थी पैसे की चिंता किए बिना अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे सकते हैं। हालांकि, विद्यार्थी व्यावहारिक प्रशिक्षण के अवसरों का लाभ उठा कर अपने शैक्षणिक ज्ञान को बढ़़ा सकते हैं। एफ-1 विद्यार्थियों के पास ऑफ कैंपस रोज़गार के सीमित अवसर होते हैं, जैसे करिकुलर प्रैक्टिकल ट्रेनिंग (सीपीटी) या ऑप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग (ओपीटी)। ऐसे विद्यार्थियों के लिए विश्वविद्यालय के डेजिगनेटेड स्कूल ऑफिशियल (डीएसओ) से प्राधिकृत होने की ज़रूरत होती है, और विद्यार्थियों को अमेरिकी नागरिकता और आव्रजन सेवा (यूएससीआईएस) से निर्धारित खास प्रक्रियाओं का पालन करना होता है। विद्यार्थियों को ऑन और ऑफ कैंपस व्यावहारिक प्रशिक्षण के बारे में अगर और अधिक जानकारी लेनी है तो वे इस लिंक पर जाकर उसे प्राप्त कर सकते हैं। https://studyinthestates.dhs.gov/students/work/working-in-the-united-states

एफ-1 वीज़ा पर विद्यार्थी शैक्षणिक वर्ष के दौरान कैंपस में अंशकालिक और अधिकृत अंतराल के दौरान पूर्णकालिक काम कर सकते हैं लेकिन आमतौर पर कैंपस के बाहर इसकी इजाजत नहीं होती। विद्यार्थियों के लिए अमेरिका आने के अपने मूल मकसद को ध्यान में रखना, सही मार्गदर्शन के लिए डीएसओ के संपर्क में बने रहना और रोज़गार और व्यावहारिक प्रशिक्षण के अवसरों के लिए बने नियमों का पालन करना महत्वपूर्ण है।

मिथक: वीज़ा गारंटी देने वाले एजेंटों को पैसा देने से विद्यार्थी वीज़ा सबसे आसान तरीके से हासिल किया जा सकता है।

तथ्य: पैसा लेकर विद्यार्थी वीज़ा दिलाने का भरोसा देने वाले एजेंटों या व्यक्तियों को पैसे देना अनैतिक है।

अमेरिकी विद्यार्थी वीज़ा के लिए आवेदन प्रक्रिया में आवश्यक दस्तावेज जमा करना, साक्षात्कार में हिस्सा लेना, और पढ़ाई के लिए दाखिला, आर्थिक क्षमता और पढ़ाई पूरी होने के बाद अपने देश लौटने के इरादे को जाहिर करना, जैसी पात्रताएं शामिल हैं। विद्यार्थियों के लिए अपने चुने हुए विश्वविद्यालयों के साथ सीधे संपर्क में रहना और वीज़ा प्राप्त करने के लिए निर्धारित आधिकारिक प्रक्रियाओं का पालन करना महत्वपूर्ण है।

अपने आवेदन में दी गई जानकारी के लिए आवेदक सिर्फ स्वयं ही ज़िम्मेदार है। अगर उनके आवेदन में कोई झूठी जानकारी दी गई है या फिर कोई जाली दस्तावेज लगाया गया है तो इससे उन्हें स्थायी रूप से अमेरिकी वीज़ा के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है। एजंकेशनयूएसए इंडिया भारत में अमेरिकी दूतावास और कांसुलेटों के सहयोग से विद्यार्थियों के लिए मु़फ्त वीज़ा सूचना सत्र आयोजित करता है। हम विद्यार्थियों को इन सत्रों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वीज़ा आवेदन प्रक्रिया के बारे में ताजा अपडेट के लिए विद्यार्थी https://www.ustraveldocs.com/in/ पर भी जा सकते हैं।

आस्था विर्क सिंह यूएस-इंडिया एजुकेशनल फाउंडेशन (यूएसआईईएफ), नई दिल्ली में एजुकेशनयूएसए की सीनियर एडवाइज़र हैं।

साभार- spanmag.com/hi/ से 

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छत्तीसगढ़ के चार्ली चैप्लिन नत्थू दादा कई फिल्मों मे काम करने के बावजूद मुफलिसी में गाँव लौट गए

बॉलीवुड एक ऐसी दुनिया है जो अपने पहलू में हज़ारों-लाखों खुशनुमा कहानियां समेटे हुए है। लेकिन इसी बॉलीवुड के दामन में जाने कितनी वो कहानियां भी मौजूद हैं जो बहुत दर्द और तकलीफ भरी हैं। यहां कितने ही ऐसे कलाकार हैं जिनकी कामयाबी के सूरज को दुनिया सलाम करती है। और जाने कितने ऐसे भी हुए हैं जिनकी पहचान का सूर्य जब अस्त हुआ तो किसी ने उनकी तरफ एक नज़र देखना भी गंवारा ना समझा।

ये कहानी है छत्तीसगढ़ के चार्ली चैपलिन कहलाए जाने वाले छोटे कद के नत्थू दादा की। नत्थू दादा तो आज इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन उनकी कहानी यहां ज़रूर है जो बताती है कि फिल्म इंडस्ट्री भले ही सामने से कितनी ही चमचमाती और जगमगाती नज़र आए। लेकिन इसके पीछे की ग़रीबी और ग़ुमनामी बेहद खौफनाक है।

नत्थू दादा का जन्म का जन्म छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के रामपुर में हुआ था। इनका पूरा नाम था नत्थू रामटेके। बताया जाता है कि नत्थू दादा का जन्म 29 मई 1950 में हुआ था। इनका परिवार अच्छा-खासा बड़ा था। नत्थू दादा के छह भाई थे और दो बहनें थी। सवा साल की उम्र तक नत्थू दादा का शारीरिक विकास दूसरे बच्चों की ही तरह था। लेकिन फिर अचानक इनके माता-पिता को महसूस हुआ कि उनकी बाकी संतानों के उलट नत्थू का कद ज़रा भी नहीं बढ़ रहा है। डॉक्टरी जांच कराई गई तो पता चला कि नत्थू दादा के शरीर में उन हार्मोन्स की बहुत ज़्यादा कमी है जो शारीरिक विकास की प्रक्रिया को पूरा करते हैं। नत्थू का कद दो फीट ही रह गया। पर चूंकि इनका मानसिक विकास एकदम सामान्य था तो इन्होंने शिक्षा सामान्य ढंग से ही पाई।

स्कूल के दिनों से ही नत्थू को लोकनृत्य एंव लोक नाट्य कला में दिलचस्पी होने लगी। इनके एक शिक्षक ने भी इन्हें आदिवासी नृत्य कलाओं को सीखने एंव नृत्य कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के लिए खूब प्रेरित किया। हालांकि इनके पिता को इनका ये सब करना पसंद नहीं आता था। उन्हें फिक्र रहती थी कि जाने उनके इस बेटे का भविष्य कैसा रहेगा। पिता की चिंता उस वक्त और अधिक बढ़ गई जब दसवीं क्लास के बाद नत्थू ने आगे पढ़ने से मना कर दिया। नत्थू ने कहा कि अब वो फिल्मों में काम करने मुंबई जाएंगे। लेकिन अचानक मुंबई जाने का ख्याल नत्थू दादा के ज़ेहन में आया कैसे? इसके पीछे भी एक बड़ी ही दिलचस्प कहानी है। चलिए वो कहानी भी जानते हैं।

ये साल 1969 की बात है। नत्थू दादा हाईस्कूल की पढ़ाई कर रहे थे। पास के ज़िले दुर्ग में एक कुश्ती प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था जहां देश के कई नामी पहलवान आए थे। उन पहलवानों में सबसे बड़ा आकर्षण थे दारा सिंह। नत्थू दादा दारा सिंह को देखने के लिए दुर्ग पहुंच गए। जैसे-तैसे भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए नत्थू दादा कुश्ती रिंग के करीब पहुंचे। वहां दारा सिंह को देखकर नत्थू दादा उत्साहित हो गए और मज़ाक-मज़ाक में उन्हें चैलेंज करने लगे। नत्थू दादा चिल्ला रहे थे,”जो मैं कर सकता हूं तुम वो नहीं कर सकते।”

दारा सिंह को नत्थू दादा की बात मज़ाक लगी और उन्होंने मज़ाक-मज़ाक में ही नत्थू का चैलेंज स्वीकार करके उन्हें रिंग में बुला लिया। रिंग में आने के बाद नत्थू दादा तेज़ी से दारा सिंह के पैरों के बीच से घुसकर दूसरी तरफ निकल गए। ये देखकर दारा सिंह की हंसी छूट गई और उन्होंने सबके सामने अपनी हार स्वीकार कर ली। उन्होंने नत्थू दादा को अपनी गोद में उठा लिया। वहां मौजूद लोगों की भीड़ भी हंस-हंसकर लोट-पोट हो गई।

दारा सिंह ने नत्थू दादा से काफी बात की। उसी बातचीत के दौरान नत्थू दादा ने दारा सिंह को बताया कि मैं भी यहां नाटकों और लोकनृत्यों मे ंकाम करता हूं। क्या आप मुझे मुंबई में किसी फिल्म में काम दिला सकते हैं। तब दारा सिंह ने कहा कि फिक्र मत करो। मैं जल्दी ही तुम्हें मुंबई बुलाऊंगा। वो इवैंट खत्म हुआ और दारासिंह वापस मुंबई लौट गए। नत्थू महीनों तक दारा सिंह के बुलावे का इंतज़ार करते रहे। लेकिन उन्हें मुंबई आने का कोई न्यौता नहीं मिला। और आखिरकार नत्थू दादा ने एक बड़ा कदम उठाने का फैसला कर लिया।

नत्थू दादा ने वो क्या बड़ा कदम उठाया था उसकी जानकारी देने से पहले एक बात और है जो हम आपको बताना चाहते हैं। और वो ये कि कई जगहों पर दावा किया जाता है कि दारा सिंह नत्थू दादा को अगले दिन खुद अपने साथ मुंबई ले गए थे। जबकी छत्तीसगढ़ के नामी लेखक शिवानंद कामड़े ने नत्थू दादा पर जो अपनी किताब ‘छत्तीसगढ़ का चार्ली चैपलिन’ लिखी है उसके मुताबिक नत्थू दादा ने कई दिनों तक दारा सिंह के बुलावे का इंतज़ार किया था। और जब उन्हें दारा सिंह का कोई न्यौता नहीं मिला तो उन्होंने खुद मुंबई जाने का फैसला कर लिया।

जेब में मात्र 19 रुपए लेकर नत्थू दादा बिना किसी जान-पहचान के पहुंच गए मुंबई। शुरुआत में मुंबई की सड़कों पर ही रात गुज़ारनी पड़ी। कई दफा तो भूखे पेट ही सोना पड़ा। फिर एक दिन ये कई किलोमीटर पैदल चलकर पहुंच गए आरके स्टूडियो। वहां कड़े जतन करने के बाद आखिरकार इनकी मुलाकात राज कपूर साहब से हो गई। और चूंकि उन दिनों राज कपूर मेरा नाम जोकर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे तो जोकर के रोल के लिए उन्हें कुछ बौने कलाकारों की ज़रूरत थी। राज कपूर ने पहली ही नज़र में नत्थू दादा को चुन लिया। और जब राज कपूर को पता चला कि नत्थू दादा के पास रहने की भी जगह नहीं है तो उन्होंने अपने बंगले के ही पिछले हिस्से में मौजूद एक छोटा सा कमरा नत्थू दादा को रहने के लिए दे दिया।

मेरा नाम जोकर जैसी बड़ी फिल्म से करियर शुरू करने का नत्थू दादा को बहुत फायदा मिला। बौने कलाकार के तौर पर नत्थू दादा इंडस्ट्री में मशहूर हो गए। अपने करियर में नत्थू दादा ने लगभग डेढ़ सौ फिल्मों में काम किया। इनमें अधिकतर हिंदी थी। कुछ पंजाबी व अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्में भी थी। नत्थू दादा ने धर्मात्मा, खोटे सिक्के, अनजाने में, अजूबा, कच्चे हीरे, टैक्सी चोर, महालक्ष्मी और ज्योति बने ज्वाला जैसी फिल्मों में काम किया। लेकिन इतनी फिल्मों में काम करने के बावजूद नत्थू दादा कभी भी पैसे नहीं कमा पाए। लिहाज़ा मुंबई में उन्होंने जितना भी वक्त बिताया, कड़े संघर्षों में ही बिताया।

लेखक शिवानंद कामड़े जी ने जो किताब नत्थू दादा के जीवन पर लिखी है उसके मुताबिक इनकी आखिरी फिल्म सन 1982 में आई धर्मकांटा थी। उस फिल्म में राजेश खन्ना, राज कुमार, जितेंद्र, वहीदा रहमान और अमज़द खान जैसे नामी सितारे थे। इसी फिल्म के एक दृश्य की शूटिंग के वक्त नत्थू दादा पीठ के बल गिर पड़े और इनका करियर खत्म हो गया। दरअसल, एक सीन में अमज़द खान को नत्थू दादा को फेंकना था और एक दूसरे कलाकार को नत्थू दादा को लपकना था। लेकिन उस कलाकार से चूक हो गई और नत्थू दादा काफी ऊंचाई से ज़मीन पर आ गिरे। इनकी रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट लग गई। और चूंकि मुंबई में इनका कोई नहीं था तो मजबूरी में इन्हें वापस अपने गांव रामपुर लौटना पड़ा।

रामपुर लौटने के कुछ महीनों बाद जब नत्थूदादा फिर से स्वस्थ हुए तो उन्होंने मुंबई फिर से जाने का इरादा अपने माता-पिता के सामने ज़ाहिर किया। लेकिन इनके माता-पिता ने इन्हें मुंबई नहीं जाने दिया और पास के एक गांव की लड़की चंद्रकला से इनका विवाह करा दिया। शुरुआत में तो नत्थू दादा अपनी पत्नी से बात भी नहीं करते थे। लेकिन बाद में पत्नी के प्यार ने इन्हें पिघला दिया और इन्होंने मुंबई जाने कि बजाय परिवार के साथ रहने का फैसला कर लिया। लेकिन इसी दौरान इनके पिता की मौत हो गई। नतीजा ये हुआ कि इनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा।

इनकी पत्नी चंद्रकला ने पांच बच्चों को जन्म दिया। तीन बेटियां व दो बेटे। बच्चों के जन्म के बाद तो मुसीबतें और ज़्यादा बढ़ गई। ऐसे में नत्थू दादा ने फिल्म निर्माण की कोशिश की। इन्होंने गुदगुदा और दो फुट का छोरा छह फुट की छोरी नाम की दो वीडियो फिल्में प्रोड्यूस करने की कोशिश भी की। लेकिन पैसे की भयंकर तंगी के चलते ये फिल्में कभी पूरी नहीं बन पाई। नत्थू दादा मुसीबतों में फंसते चले गए। मजबूरी में इन्होंने काम की तलाश शुरू की। मदद के लिए नत्थू दादा ने सरकार का रुख भी किया। कई नाट्य मंडलियों से काम मांगा। लेकिन कहीं से कोई सहयोग नहीं मिला।

आखिरकार नत्थू दादा को एक रिज़ॉर्ट में तीन सौ रुपए महीने की तनख्वाह पर काम करना पड़ा। साथ ही साथ छोटे-मोटे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ये जोकर बनकर लोगों को हंसाते और पैसा कमाते। उससे भी इन्हें घर चलाने में थोड़ी मदद मिल जाती थी। बाद में छत्तसीगढ़ सरकार ने इन्हें बच्चों के मनोरंजन के लिए राजनांदगांव के चौपाटी इलाके में दो हज़ार रुपए महीना की एक अस्थाई नौकरी भी दी। हालांकि इससे केवल गुज़ारा भर ही हो पाता था।

नत्थू दादा के बारे में एक बात जो आपको बेहद अनोखी और बेहद दिलचस्प लगेगी वो ये कि नत्थू दादा राजनीति में भी अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। नत्थू दादा ने अपनी पत्नी चंद्रकला रामटेके को सरपंच का चुनाव लड़ाया था। हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिल पाई थी। 2003 के छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में नत्थू दादा ने राजनांदगांव सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा था। उस वक्त काफी चर्चाएं हुई थी की नत्थू दादा के प्रचार के लिए कुछ फिल्मी सितारे मुंबई से राजनांदगांव आ सकते हैं। हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ। ना ही नत्थू दादा वो चुनाव जीत सके।

बाद में नत्थू दादा बीजेपी से जुड़ गए और चुनावों के दौरान वो बीजेपी के प्रत्याशियों के पक्ष में जनता से वोट मांगते नज़र आते। चुनाव प्रचार तक तो नत्थू दादा के जीवन में थोड़ी उत्सुकता आती थी। लेकिन प्रचार खत्म होने के बाद फिर वही गरीबी और नीरसता। थोड़ी-बहुत खेती ज़रूर थी। लेकिन उससे केवल पेट भरने तक का ही सहारा था। और ज़्यादा उम्मीद उस खेती से नहीं की जा सकती थी। मुफलिसी का आलम ये था कि नत्थू दादा के घर पर एक शौचालय तक नहीं था। और इसी बेतहाशा गरीबी से लड़ते हुए ही 28 दिसंबर 2019 को नत्थू दादा ये दुनिया छोड़कर चले गए। लेकिन अपने पीछे नत्थू दादा एक बड़ी अफसोसनाक और दुखभरी कहानी भी छोड़ गए।

साभार  https://www.facebook.com/kissatvreal से
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मीडिया की दुनिया में आए बदलाव और समाधान

पत्रकारिता समाज का दर्पण होती है, जो समाज में घटित घटनाओं को उजागर करती है और लोगों को जागरूक करती है। भारतीय संस्कृति में प्रथम पत्रकार के रूप में ऋषि नारद माने जाते है। वे देवताओं और मानवों के बीच, देवताओं और दानवों के बीच संवाद का माध्यम थे। वर्तमान समय में पत्रकारिता ने तकनीकी और सैद्धांतिक दृष्टिकोण से बहुत प्रगति की है। आज की पत्रकारिता बहुत बदल गई है फिर भी ऋषि नारद की पत्रकारिता ध्रुव तारे के समान उच्च आदर्शो का पथ प्रदर्शक है। आज की पत्रकारिता चुनोतियों से परिपूर्ण कंटकाकीर्ण मार्ग है, फिरभी समाधान का मार्ग खोजना होगा।

देवर्षि नारद की पत्रकारिता में उच्च आदर्श थे
1. सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता : नारद मुनि सत्य के प्रति समर्पित थे। वे सत्य की खोज में हमेशा तत्पर रहते थे और देवताओं तथा मनुष्यों को सत्य जानकारी प्रदान करते थे। एक आदर्श पत्रकार की तरह, वे किसी भी प्रकार की जानकारी को तटस्थता और निष्पक्षता से प्रस्तुत करते थे। उदाहरण के लिए, जब प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु द्वारा सताया जा रहा था, तब नारद ने प्रह्लाद के प्रति अपनी सहानुभूति और समर्थन व्यक्त किया। उन्होंने सत्य का समर्थन किया, चाहे स्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो।

आरोप: वर्तमान में पत्रकारिता पर असत्य तथ्यहीन बातों के प्रसार और पक्षपाती होने के आरोप लगते है। ये आरोप कुछ मात्रा में सत्य भी दिखते है।
समाधान: पत्रकारों को सत्य और निष्पक्षता के प्रति प्रतिबद्ध रहना चाहिए इसके लिए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और अन्य निगरानी संस्थाओं को सशक्त करने की आवश्यकता है। पत्रकारों को प्रशिक्षण और विकास कार्यक्रमों के माध्यम से भी इसके लिए तैयार किया जाए।

2. जनकल्याण: नारद मुनि का उद्देश्य सदैव जनकल्याण रहा है। जब उन्होंने देखा कि भगवान राम सीता की तलाश में दुःखी हैं, तो उन्होंने सबरी और श्रीराम के मिलन की भूमिका निभाई। इससे श्रीराम को सीता की खोज में महत्वपूर्ण मार्गदर्शन मिला। नारद मुनि ने अपने संवाद और मार्गदर्शन के माध्यम से समाज के कल्याण का प्रयास किया।

आरोप: आज की पत्रकारिता में पक्षपात और व्यावसायिक हित भी देखे जाते हैं। कई बार समाचार संस्थाएँ अपने आर्थिक लाभ के लिए समाचारों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करती हैं। इससे जन कल्याण की आशा धुंधली हो जाती है।

समाधान: जो मीडिया हाउस सामाजिक सरोकार के विषयों को उठाते है उनका प्रोत्साहन किया जाए। किसी मीडिया हाउस की रिपोर्टिंग के कारण जनहानि या समाज पर कुप्रभाव पर भी निगरानी रखी जाए।

3. सूचना का सही समय पर प्रसार: नारद मुनि की एक विशेषता यह थी कि वे सूचनाओं को सही समय पर प्रसारित करते थे। जब दुर्योधन और पांडवों के बीच महाभारत युद्ध की तैयारी चल रही थी, तब नारद मुनि ने युद्ध के संभावित परिणामों की जानकारी पांडवों को दी। उन्होंने इस महत्वपूर्ण जानकारी को सही समय पर देकर पांडवों को तैयार होने में मदद की।

आरोप: आज की पत्रकारिता पर आरोप लगता है कि वे युद्ध, आतंकी घटनाओं, सर्च ऑपरेशन, आतंकियों पर कार्यवाही के समय सूचनाओं का प्रसारण करके समाज कंटको को अप्रत्यक्ष सहायता पहुंचाते है जैसे मुम्बई हमले के समय देखा गया था।

समाधान: पत्रकारों का समय समय पर प्रबोधन किया जाए
भारतीय पत्रकार स्वयं राष्ट्रहित पर चिंतन करके कुछ आदर्श स्वयं तय करे। राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर निगरानी की कोई कमेटी भी बनाई जाए तो पत्रकारिता की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय हित समय संतुलन स्थापित करे।

4. विश्वसनीयता: नारद मुनि की सूचनाएं हमेशा विश्वनीय होती थी जिसे देव और दानव समान रूप से मानते थे। उनकी निष्पक्षता ने उन्हें एक भरोसेमंद सूचना-स्रोत बनाया। उदाहरण के लिए, वे शिव और विष्णु के बीच संतुलन बनाकर रखते थे और किसी भी पक्षपात से दूर रहते थे।

आरोप: आजकल सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज़ और गलत सूचना का प्रसार एक गंभीर समस्या बन चुका है। कई बार पत्रकारों को राजनीतिक दबाव और सेंसरशिप का सामना करना पड़ता है, जिससे स्वतंत्र पत्रकारिता प्रभावित होती है। पत्रकारिता संस्थानों पर वित्तीय दबाव और कॉर्पोरेट प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जिससे समाचार की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

समाधान: समचसर सत्यापन के लिए मजबूत तंत्र विकसित किया जाए, तकनीकी उपयोग से फेक न्यूज पर रोकथाम के तंत्र विकसित किया जाए। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कड़े कानून बने। स्वतंत्र मीडिया हाउस की स्थापना को प्रोत्साहित किया जाए। सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों से आर्थिक सहायता के बिना स्वतंत्रता सुनिश्चित किया जाए। विज्ञापन और सामग्री के बीच स्पष्ट विभाजन रखा जाना चाहिए।

5. धर्म और नैतिक शिक्षा: नारद मुनि ने हमेशा धर्म और नैतिकता का प्रचार किया। उन्होंने विभिन्न राजाओं और संतों को धार्मिक शिक्षा दी। उदाहरण के लिए, उन्होंने राजा युधिष्ठिर को धर्म और नीति की महत्वपूर्ण बातें सिखाईं। उन्होंने समाज में नैतिक मूल्यों और धार्मिक आचरण को स्थापित करने का प्रयास किया।

आरोप: वर्तमान में पत्रकारों द्वारा धर्म और नैतिकता की अपेक्षा करना कठिन है। फिरभी अनेक पत्रकार है जिन्होंने नैतिकता के उदाहरण दिए है।

समाधान: पत्रकार समाज का हिस्सा है। वे न केवल सूचनाओं का सम्प्रेषण करते है वरन समाज के अवचेतन मनःस्थिति के निर्माण में महत्वपूर्ण साधन है, इसलिए पत्रकारिता को विशेष रूप से सजग रहकर कार्य करना वाहिये।

6. समीक्षात्मक दृष्टिकोण: नारद मुनि की पत्रकारिता में घटनाओं का विश्लेषण और समीक्षा महत्वपूर्ण थी। वे घटनाओं को केवल रिपोर्ट नहीं करते थे, बल्कि उनका गहन विश्लेषण भी करते थे। उदाहरण के लिए, जब देवताओं और असुरों के बीच संघर्ष हुआ, तब नारद मुनि ने इसका गहन विश्लेषण किया और सभी को उचित सलाह दी।

आरोप: अनेक बार पत्रकारों की रिपोर्टिंग से समाज मे वैमनस्य बढ़ा है। जैसे रोहित वेमुला की घटना का सत्य 8 वर्ष बाद न्यायालय के माध्यम से आया जबकि मीडिया ने उस समय समाज के एक वर्ग को पीड़क और दूसरे को पीड़ित सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया था।

7. तेज और सक्रियता (Swiftness and Proactivity): नारद मुनि हमेशा समय पर और तुरंत सूचना पहुँचाने के लिए प्रसिद्ध थे। वे किसी भी घटना की जानकारी जल्द से जल्द संबंधित व्यक्तियों तक पहुँचाते थे, जो आज के तेज़-तर्रार पत्रकारिता के लिए एक आदर्श है। जैसे, वे दक्ष यज्ञ के समय शिव को बुलाने के लिए तुरंत वहाँ पहुँचे।

8. लोककल्याण (Public Welfare): नारद मुनि का हर कार्य लोककल्याण के उद्देश्य से होता था। वे सूचनाओं का आदान-प्रदान इसलिए करते थे ताकि समाज में सत्य और धर्म की स्थापना हो सके। वे संघर्ष को समाप्त करने और शांति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।

9. साहस (Courage): नारद मुनि ने हमेशा निर्भीक होकर सत्य का प्रचार किया, चाहे उसके परिणाम कितने भी कठिन क्यों न हों। यह गुण एक आदर्श पत्रकार में होना आवश्यक है, जो सच को सामने लाने के लिए किसी भी प्रकार के भय से मुक्त हो।

देवर्षि नारद की पत्रकारिता और वर्तमान की पत्रकारिता में बहुत बदलाव भी है, उनमें से कुछ बदलाव तकनीकी के कारण है, आइए देखते है

1. सूचना का स्वरूप बदल गया: प्राचीन काल में सूचनाएँ मौखिक रूप में प्रसारित होती थीं, जबकि आज ये डिजिटल और प्रिंट माध्यमों में होती हैं, वीडियो फोटो ग्राफिक्स पोस्टर अनेक रूपों में सूचना सम्प्रेषण होता है।
2. तकनीकी उपयोग: नारद मुनि की पत्रकारिता में कोई तकनीकी उपकरण नहीं थे, जबकि आज के पत्रकारों के पास अनेक तकनीकी साधन हैं जैसे कैमरा, कंप्यूटर, इंटरनेट, आदि।
3. प्रभाव और पहुँच: नारद मुनि की पत्रकारिता का प्रभाव सीमित था, जबकि आज की पत्रकारिता का प्रभाव वैश्विक है।
4. प्राप्ति का तरीका: नारद मुनि के समय में सूचनाएँ स्वयं उनके पास पहुँचती थीं या वे खुद उसे एकत्रित करते थे। आज के पत्रकारों को सूचनाएँ इकट्ठा करने के लिए विभिन्न स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है।

निष्कर्ष: देवऋषि नारद के आदर्श आज की पत्रकारिता के लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं। सत्य, निष्पक्षता, और न्याय की उनकी शिक्षा को अपनाकर हम वर्तमान चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। पत्रकारिता को एक पवित्र और जिम्मेदार पेशे के रूप में बनाए रखने के लिए, पत्रकारों को नारद मुनि के उच्च आदर्शों का पालन करना चाहिए और पत्रकारिता के मूल्यों को पुनः स्थापित करना चाहिए। साथ ही, प्रौद्योगिकी और सामाजिक परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाते हुए, पत्रकारिता को और भी सशक्त और प्रभावी बनाना होगा।

 

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यहीं पर बोधि वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध को हुई थी केवल्य ज्ञान की प्राप्ति

(बुध्द जयंती पर विशेष)

देश के बिहार राज्य में स्थित बौद्ध गया शहर में बना महाबोधि मंदिर बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र और पवित्र स्थानों में माना जाता है। यहीं वह स्थान है जहां पर बोधि वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध को केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यह मंदिर वास्तुकला व बौद्ध धर्म की परम्पराओं का सुन्दर नमूना है। विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोग यहां आध्यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं। 19 वीं सदी में ब्रिटिश पुराविद् कनिंघम तथा भारतीय पुराविद् डॉ. राजेन्द्र लाल के निर्देशन में 1883 ई. में यहां खुदाई की गई और काफी मरमत के बाद मंदिर के पुराने वैभव को स्थापित किया गया। ऐतिहासिक एवं धार्मिक बौद्ध मंदिर को वर्ष 2002 ई. में यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत सूची में शामिल कर इसे विश्व विरासत घोषित किया गया। यहां देश के ही नहीं पूरे विश्व के पर्यटक खास कर बौद्ध मत में विश्वास रखने वाले धार्मवलम्बी बड़ी संख्या में यहां आते हैं। यह मंदिर विश्व के मानचित्र पर अपना विशेष धार्मिक महत्व रखता है।

मंदिर का निर्माण सम्राट अशोक द्वारा किया गया था। मंदिर में भगवान बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में भव्य मूर्ति स्थापित है। जनश्रुति के अनुसार यह मूर्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग लगी है जो प्राचीन अवशेष है। मंदिर के दक्षिण दिशा में 15 फीट ऊँचा अशोक स्तम्भ नजर आता है जो कभी 100 फीट ऊँचा था। मंदिर पेगोडानुमा बहुअलंकृत आर्य एवं द्रविड शैली में 170 फीट ऊँचा है।

मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किये थे। मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की सात फीट ऊँची लाल बलुआ पत्थर की विराजन मुद्रा में मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के चारों ओर लगे विभिन्न रंगों के पताके मूर्ति को आकर्षक बनाते हैं। मूर्ति के आगे बलुआ पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हैं, जिन्हें धर्म चक्र परिवर्तन का प्रतीक माना जाता है। यहां बुद्ध ने पहला सप्ताह बिताया था। परिसर में स्थित बौद्धी वृक्ष एवं खड़ी अवस्था में बनी बुद्ध की मूर्ति स्थल को अनिमेश लोचन कहा जाता है। यह चैत्य मंदिर के उत्तर-पूर्व में बना है जहां बुद्ध ने दूसरा सप्ताह व्यतीत किया था। इस स्थल पर 16 जनवरी 1993 में को श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंधे प्रेमादास द्वारा सोने का जंगला एवं सोने की छतरी का निर्माण करा कर इसे आकर्षक स्वरूप प्रदान किया। मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है जहां काले पत्थर का कमल का फूल बुद्ध का प्रतीत बना है जहां बुद्ध ने तीसरा सप्ताह बिताया था।

छत विहीन भग्नावशेष स्थल रत्न स्थान पर बुद्ध ने चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। जनश्रुति के अनुसार बुद्ध यहां गहन चिन्तन में लीन थे तब उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली थी। प्रकाश की किरणों के इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे पताके में किया जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर स्थित अजयपाल वटवृक्ष के नीचे बुद्ध ने पाँचवां सप्ताह व्यतीत किया था। मंदिर के दांई ओर स्थित मुचलिंद सरोवर जो चारों तरफ से वृक्षों से घिरा है और सरोवर के मध्य में बुद्ध की मूर्ति स्थापित है जिसमें विशाल सर्प को बुद्ध की रक्षा करते हुए बताया गया है। यहां बुद्ध ने छठा सप्ताह व्यतीत किया था। परिसर के दक्षिण-पूर्व में स्थित राजयातना वृक्ष के नीचे बुद्ध ने सातवां सप्ताह व्यतीत किया था।

बौद्ध गया घूमने का सबसे अच्छ समय अप्रैल-मई में आने वाली बुद्ध जयंति का अवसर है जब यहां सिद्धार्थ का जन्मदिन विशेष उत्साह एवं परम्परा के साथ मनाया जाता है। इस दौरान मंदिर को हजारों मोमबत्तियों से सजाया जाता है तथा जलती हुई मोमबत्तियों से उत्पन्न दृश्य मनुष्य के मानस पटल पर अंकित हो जाता है।

बौद्ध गया में 1934 ई. में बना तिब्बतियन मठ, 1936 में बना बर्मी विहार तथा इसी से लगा थाईमठ, इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर, चीनी मंदिर एवं भूटानी मठ पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल हैं। बौद्ध गया में स्थित पुरातात्विक संग्रहालय अपने आप में बेजोड़ है।

राजगीर
राजगीर बौद्ध गया के समीप होने से सैलानियों को यहीं से राजगीर दर्शन का कार्यक्रम बनाना चाहिए। राजगीर वैभार, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी, सोनगिरी, पंच पहाड़ियों से घिरा बिहार का विश्व प्रसिद्ध धार्मिक एवं प्राकृतिक स्थल है। राजगीर पटना के दक्षिण-पश्चिम दिशा में 102 कि.मी. दूरी पर तथा नालन्दा से दक्षिण दिशा में 15 कि.मी. दूरी पर स्थित है। यहां भगवान गौतम बुद्ध एवं महावीर स्वामी उपदेश देते थे। यहां पर करीब एक हजार फीट ऊँची खूबसूरत पंच पहाड़ी दर्शनीय है।

वैभार पहाड़ी पर पूर्व की ओर गर्म जल के झरने एवं 22 कुण्ड बने हैं जिनमें सप्तधारा, ब्रह्मकुण्ड तथा सूर्यकुण्ड प्रमुख हैं। इसी पहाड़ी पर 81 ग् 68 फीट वर्गाकार फीट का जरासंघ अखाड़ा भी दर्शनीय है। इसी पहाड़ी पर गरम जल के झरने से एक कि.मी. दूर स्थित मनियार मठ तथा पर्वत के ऊपर स्थित सप्तवर्णी गुफा स्थित है। चट्टानों से बनी गुफा सकरी लम्बी गुफा है जहां बुद्ध की मृत्यु के बाद पहली सभा की गई थी। रित्नगिरी पर्वत पर 103 फीट व्यास का तथा 120 फीट ऊँचा संगमरमर से बना विश्व शांति स्तूप प्रमुख आकर्षण है। स्तूप के ऊँपर चारों ओर विभिन्न मुद्राओं में भगवान बुद्ध की सुनहरी प्रतिमाएं लगी हैं। स्तूप का निर्माण जापान बौद्ध संघ के अध्यक्ष फूजी ने करवाया था। यहां वेणुवन एवं वीरायतन संग्रहालय भी देखने योग्य है।

नालन्दा
राजगीर से 13 कि.मी. दूरी पर स्थित है नालन्दा। यहां शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना सम्राट अशोक के समय में की गई जो शिक्षा का एक महान केन्द्र बना। यहां विदेशों से भी विद्यार्थी शिक्षा के लिए आते थे। माना जाता है कि नालन्दा विश्वविद्यालय विश्व का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। चीनी यात्री हेनसांग ने स्वयं यहां 12 वर्ष रह कर शिक्षा प्राप्त की। आज यहां पर्यटकों के लिए इसके अवशेष के रूप में छात्रों के रहने का स्थल, मठ, स्तूप, दर्शनीय हैं। विश्वविद्यालय के मध्यम में स्मारक दीवार, बाग, व्याख्यान भवन, डॉरमेट्री, चिन्तन कक्ष, कुआं, महाविहार, आर्ट गैलेरी एवं पुरातत्व संग्रहालय दर्शनीय हैं। सरकार ने यहां 1956 ई. में पाली अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया जिसे ‘नव नालन्दा महाविहार’ कहते है।

यहां पाली एवं बौद्ध शिक्षण की स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्रदान की जाती है। यहां इन्दिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय भी संचालित है। बड़गाँव नामक स्थान पर एक सुन्दर मंदिर एवं जलाशय भी दर्शनीय हैं। यह स्थान पटना के निकट होने से यहीं से इसके भ्रमण का कार्यक्रम बनाया जा सकता है।

पावापुरी
नालन्दा से 5 कि.मी. दूर तथा पटना से 80 कि.मी. दूर पश्चिम दिशा में रांची मार्ग पर स्थित है, जैनियों का प्राचीन तीर्थ पावापुरी। बताया जाता है कि जब भगवान महावीर स्वामी के शरीर की पवित्र भस्म को उनके भक्तों ने उठा लिया था, स्थिति ऐसी बन गई कि भस्म खत्म हो गई तब लोगों ने भस्म से छुई मिट्टी को ही साथ ले गये। वह स्थान जल्द ही एक खड्डे में बदल गया और वहां से जल धारा बह निकली। इसी याद में यहां कमल सरोवर का निर्माण किया गया। यह सरोवर पुष्पों से खूबसूरत नजर आता है। यहां बने मंदिर में भगवान महावीर के पद चिन्ह की छाया पूज्यनीय है। इसके निकट ही पीर मखदूम शाह की समाधि भी बनी है।
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

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श्रीनगर के हब्बाकदल क्षेत्र में स्थित गणपतयार मंदिर

(वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
घुमावदार सूंड वाले, विशालकाय शरीर वाले, करोडों सूर्यों के समान चमकने वाले हे मेरे प्रभु, आप सदैव मेरे सारे कार्य बिना विघ्न के पूरा करने की कृपा करें

कश्मीर के प्राचीन मंदिरों की जब चर्चा होती है तो श्रीनगर के हब्बाकदल क्षेत्र में स्थित गणपतयार मंदिर का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।इस मंदिर के आसपास का सारा इलाका ही ‘गणपतयार’ नाम से जाना जाता है।इस मंदिर की प्राचीनता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी डायरी में इस मंदिर की दिव्यता और श्रेष्ठता का उल्लेख किया है।हर युग में श्रीनगर शहर में रहने वाले कश्मीरी पंडितों की आस्था और श्रद्धा का यह प्रधान केंद्र रहा है।

मेरी ननिहाल गणपतयार में ही हुआ करती थी और मुझे याद है कि आये दिन ननिहाल जाते समय इस मंदिर में माथा टेकना मैं भूलता नहीं था।कहा जाता है कि कश्मीर में अफगान शासन के दौरान इस मंदिर में स्थापित गणेशजी की मूर्ति को विधर्मी तोड़ना चाहते थे, लेकिन कश्मीरी पंडितों ने मूर्ति को नदी वितस्ता (झेलम) में फेंक दिया।मूर्ति को बाद में लगभग 90 साल बाद डोगरा शासन के दौरान झेलम नदी से निकाला गया।

1990 में पंडितों के घाटी से विस्थापन के बाद अन्य मंदिरों की तरह गणपतयार मंदिर की दशा भी शोचनीय हो गयी।मुझे याद है सायंकाल इस मंदिर में धूमधाम से गणेशजी की आरती होती थी और भजन गाये जाते थे।भक्तजनों में बड़ा उत्साह होता था।इस सब को 1990 के बाद विराम लग गया ।

कश्मीरी पंडित नेता श्री अश्विनीकुमार चरंगू 9 दिसम्बर 20 को श्रीनगर के इस मंदिर में गए थे और वहां से मुझे मंदिर के कतिपय सुंदर और बहुमूल्य चित्र भेजे।इन चित्रों को देख मेरा रोम-रोम पुलकित हुआ और मुझे लगा जैसे मैं भी अश्विनीजी के साथ गणपतयार मंदिर में पहुंच गया हूँ और विघ्नहर्ता गणेशजी के दर्शनों का लाभ ले रहा हूँ।पूछने पर अश्विनीजी ने फोन पर बताया कि इस मंदिर की सुरक्षा के लिए सीआरपीएफ के जवान नियत किये गए हैं और वे जवान ही सुबह-शाम मंदिर में आरती-पूजा-अर्चना का पावन कार्य सम्पन्न करते हैं।धन्य हैं हमारे वीर सैनिक जो हमारे मंदिरों की सुरक्षा भी कर रहे हैं और श्रद्धानुसार सेवाकार्य भी कर रहे हैं।

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राष्ट्रीय सार्वजनिक पुस्तकालय दिवस -2024 के अवसर पर पक्षियोx के लिए बांधे परिण्डे , युवा पाठको ने लिया गोद

डॉ शशि जैन को ”बेस्ट पब्लिक लाईब्रेरीयन ऑफ दी यीअर- 2024” से सम्मान

बुक डोनेशन ड्राईव मे वरिष्ठ कथाकार ,समीक्षक एवं आलोचक विजय जोशी ने पुस्तकालय को विभिन्न विधाओ की 501 पुस्तके भेंट की |

        कोटा। राजाराम मोहन रॉय की 252 वी जयंती को राजकीय सार्वजनिक मण्डल पुस्तकालय कोटा मे राष्ट्रीय सार्वजनिक पुस्तकालय दिवस के रूप मे मनाया गया | इस अवसर पर “सुधिजन विमर्श” कार्यक्रम का आयोजन किया गया | कार्यक्रम के मुख्य अतिथि विजय जोशी वरिष्ठ कथाकार , समीक्षक एवं आलोचक , अध्यक्षता डॉ राजेश गौत्तम सचिव राजस्थान दृष्टिहीन निःशक्त जन सेवा समिति , विशिष्ट अतिथि डॉ प्रीतिमा व्यास पुस्तकालयाध्यक्ष अकलंक महाविधालय , रजनीश नागर संरक्षक राजस्थान दृष्टिहीन निःशक्त जन सेवा समिति, नरेंद्र शर्मा स्वयसेवक अस्थायी असमर्थ पुस्तकालय सेवा मौजूद रहे | गेस्ट ऑफ ऑनर डॉ शशि जैन रही | पुस्तकालय प्रशासन द्वारा इस अवसर पर डॉ शशि जैन के सार्वजनिक पुस्तकालय के क्षेत्र मे अमूल्य योगदान के लिए”बेस्ट पब्लिक लाईब्रेरीयन ऑफ दी यीअर- 2024” से सम्मानित किया गया |

बुक डोनेशन ड्राईव मे वरिष्ठ कथाकार ,समीक्षक एवं आलोचक विजय जोशी ने पुस्तकालय को विभिन्न विधाओ की 501 पुस्तके भेंट की | इस अवसर पर जोशी ने कहा की यह अवसर ऐसा हे जिसमे साहित्यिक समुदाय को सार्वजनिक पुस्तकालय कर्मियों को सम्मानित करना चाहिए तथा पुस्तकालयो को समृद्ध करने के लिए पुस्तके भेट करनी चाहिए | पुस्तकालय मंदिर हे तो पुस्तकालयाध्यक्ष उस मंदिर का पुजारी हे |

डॉ राजेश गौत्तम ने कहा की नेत्रहीन होने के नाते मे विश्वास से कह सकता हूँ कि कोटा पुस्तकालय ब्रेल साहित्य , ओड़ीयों बुक्स तथा असीस्टीव टेक्नोलोजी मे राजस्थान मे श्रेष्ठतम स्थान पर विराजित हे | इस अवसर डॉ प्रीतिमा व्यास ने बताया की वर्तमान सार्वजनिक पुस्तकालय शोध के लिए अतुलनीय कार्य कर रहा हे यहा से कई देशी विदेशी शोधार्ती अपना शोध कार्य कर रहे हे | नागर ने बताया की मे राजस्थान दृष्टिहीन निःशक्त जन सेवा समिति का संरक्षक होने के साथ गर्व से यह बात कह सकता हूँ कि यह पुस्तकालय दृष्टिबाधित पुस्तकालय सेवा मे देश मे अग्रणी पंक्ति मे स्थान रखता हे तथा यहाँ का “वॉयस डोनेशन इनीशिएटीव” अंतराराष्ट्रीय रूप से ख्यात हे |

इस अवसर पर भाषा एवं पुस्तकालय विभाग के निर्देशों की पालना मे पक्षियों के लिए परिण्डे बांधे गए तथा इस पुस्तकालय के 21 युवा पाठको ने लिया इन परिण्डो को गोद लिया और आश्वस्त किया की वह नित्य पार्टी उनकी देखभाल करेंगे |इन युवाओ मे जीतेन्द्र मीणा, अनुराग मीणा.सचिन मीणा,प्रवीण मीणा, सुरेन्द्र सैनी,दिलखुश गुर्जर, ललित मीणा,अरूण कूमार,अर्जुन परमार, निखिल राठौर,लोकेश गुर्जर, विनय प्रतापसिंह, रिंकु मीणा, -रुकमणी मीणा, सानिघ्य व्यास, आकाश कुमार रवि, धर्मेष अग्रवाल,क्षितिज सोलंकी एवं नीतू शामिल हे |

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अभूतपूर्व अच्युत सामंत

अच्युत सामंत एक जाना-पहचाना नाम है। घर-घर में लोग उन्हें प्यार करते हैं क्योंकि जिस इंसान ने मात्र 4 साल की शैशव उम्र में अपने पिता को खो दिया, विधवा मां और 7 भाई-बहनों के साथ पूरी गरीबी में अपना जीवन बिताया, फिर उसने 25 साल की उम्र में कीट एंड कीस जैसी अनोखी शैक्षिक संस्था शुरू की और उसकी गुणवत्ता को दुनिया तक पहुंचने में कामयाब हुआ । अच्युत सामंत की समर्पित जनसेवा की चर्चा कंधमाल लोकसभा संसदीय क्षेत्र के आसपास के लोगों के बीच हो रही है।

प्रख्यात शिक्षाविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और सांसद अच्युत सामंत शिक्षा के माध्यम से गरीबी उन्मूलन के लिए काम कर रहे हैं। अपने काम के कारण, अच्युत सामंत ओडिशा में एक घरेलू प्रियदर्शी नाम है। लगभग 31 वर्षों से वे अपनी निस्वार्थ समाज सेवा के बदौलत देश-विदेश के विभिन्न स्थानों पर सबके चहेते बन गये हैं। वे लगभग एक वर्ष के लिए बीजू जनता दल के राज्यसभा सांसद और 5 वर्ष के लिए कंधमाल संसदीय लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए हैं। वर्तमान लोकसभा आम चुनाव में वे कंधमाल लोकसभा संसदीय क्षेत्र से बीजद सांसद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। आइये जानते हैं उनके बारे में विस्तार से …

प्रश्न: आपने हाल ही में दूसरी बार लोकसभा उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन पत्र दाखिल किया है। शपथ पत्र में आपने बताया है कि आपके पास कोई विशेष संपत्ति नहीं है। 2019 में भी आपने जो हलफनामा दिया था उसमें कोई खास संपत्ति नहीं थी। क्या आपकी संपत्ति  बढ़ नहीं रही है?
उत्तर: वास्तव में, मैंने शपथ पत्र में जो बताया है वह बिल्कुल सच है। दो वैश्विक संस्थानों,कीट-कीस के अलावा और भी कई संस्थान मेरे द्वारा स्थापित किये गये हैं, लेकिन आज तक मेरे नाम पर कोई जमीन, घर, सोना या एक भी कार आदि नहीं है। मेरी मृत्यु तक कोई भी उपरोक्त संपत्ति मेरे नाम नहीं कर सकेगा।

प्रश्न: आपने घर, जमीन, सोना या कोई संपत्ति अपने नाम क्यों नहीं किया?
उत्तर: शुरू से ही मैंने खुद को सरल, शुद्ध, ईमानदार , सत्यनिष्ठ और पूरी तरह से निष्ठावान बनाया है। ये भगवान जगन्नाथ के आशीर्वाद से ही संभव हो पाया है। भौतिकवादी संसार का लोभ, वासना, माया और मोह मुझे छू नहीं सकती। इसलिए मैं जगन्नाथ का आभारी हूँ। मैं किराये के मकान में अकेला रहता हूँ। मेरी ज़रूरतें काफी कम हैं।

प्रश्न: फिर आप कैसे सब-कुछ करते हैं?
उत्तर: मेरी दिनचर्या बहुत सरल है। आपको शायद यकीन न हो। पिछले 31 वर्षों से मैं एक किराये के घर में रह रहा हूँ जिसमें कभी रसोई नहीं हुई है। 1992 से 2008 तक मैं हमेशा स्वर्गीय प्रद्युम बल के घर पर दोपहर का भोजन करता था। मैं इतने सालों से अपनी मामी शाश्वती बाल के हाथ का बना खाना खा रहा हूँ। 2009 से, मेरी छोटी बहन इति के घर पर मां स्थायी रूप से रह रही थी, इसलिए मैं हर दिन इति के घर पर दोपहर का भोजन और रात का खाना खाता हूं। अधिकांश दिन मैं मठ, मंदिर जाता हूँ जहाँ मुझे कुछ धार्मिक भोजन मिलता है और मैं अपना काम-काज चलाता हूँ। इस प्रकार मेरा जीवन जीने का तरीका बहुत सरल है। आरामदायक जीवन क्या होता है, यह मैंने नहीं जाना या अनुभव नहीं किया।

प्रश्न: आपने अपने लिए कुछ नहीं किया, क्या अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर कुछ नहीं किया?
उत्तर: मेरे छह और भाई-बहन हैं। सचमुच वे सब इतने अच्छे हैं कि उन्होंने मुझसे कभी कोई आशा नहीं की; न ही मैंने उन्हें कुछ दिया है। यदि आप दूसरों से पूछें तो आप समझ सकते हैं कि मेरी तीन बहनें जो मलकानगिरी, बालेश्वर और केंदुझर में रहती हैं, बहुत निम्न मध्यम वर्ग से भी नीचे की स्थिति में जी रही हैं। मेरे दो भाई भी नौकरी करते हैं। बड़ी बात यह है कि मेरे द्वारा स्थापित इन दोनों संस्थानों में मेरे परिवार का कोई भी सदस्य कार्यरत नहीं है। यहां तक कि मेरे दो भाइयों के दो बेटे और बेटियां भी अन्य कंपनियों में छोटे कर्मचारी के रूप में काम कर रहे हैं।

प्रश्न: आप जो चाहते थे वह कर सकते थे। कुछ भी नहीं किया गया है।
उत्तर: मेरे पिता बहुत गरीब थे। मैं बहुत गरीब पृष्ठभूमि से आता हूं। अगर मैंने अपने द्वारा स्थापित संस्था से पैसा लेकर राज्य में और राज्य के बाहर संपत्ति बनाई होती तो मेरी अंतरात्मा को यह मंजूर नहीं होता। लेकिन आज मैंने उस पैसे से 80 हजार आदिवासी बच्चों को नेक, जिम्मेदार और चरित्रवान इंसान बनाया है। यह मेरी संपत्ति है। लोगों का प्यार ही मेरा खजाना है। मुझे और क्या संपत्ति चाहिए?

प्रश्न: क्या कोई अन्य संपत्ति है जिसके बारे में आप उत्साहित हैं?
उत्तर: मेरी सबसे बड़ी संपत्ति पूरे देश के लोगों का प्यार है, आत्मीयता है। मेरी सबसे बड़ी संपत्ति सरल, शुद्ध, परोपकारी और परोपकारी मेरी संवेदनशील भावना है, जो जगन्नाथ ने मुझे प्रदान की है। यह मुझे और अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित करती है।

प्रश्न: कार्तिक पांडियन ने हाल ही में एक बैठक में आपकी सेवा भावना की काफी सराहना की।
उत्तर: हाँ। दरअसल कार्तिक पांडियन ने मेरे दिल की बात कही। मैं 31 साल से समाज सेवा कर रहा हूं। अब जब मैं सांसद बन गया हूं तो मैंने समाज सेवा को और व्यापक बना दिया है। भले ही मैं पिछले 6 साल तक राज्यसभा और लोकसभा में सांसद रहा, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने किसी से कोई एक चॉकलेट या पैसा लिया हो। मैंने आज तक किसी से कोई अनैतिक सामग्री स्वीकार नहीं की है और जीवनभर जानबूझ कर किसी से स्वीकार नहीं करूंगा।

प्रश्न: आपने अपने जीवन में कौन -सी संपत्ति अर्जित की है?
उत्तर: मैं केवल गरीबों, लाचारों, उपेक्षित मरहूम और भूखे लोगों को खुले हृदय और मन से निस्वार्थ दान देता हूं और अपने संस्थान की भलाई और आध्यात्मिक तरीके से लोगों की भलाई के लिए भगवत कर्म करता हूं। मैं पिछले 31 वर्षों से समाज और लोगों के लिए प्रतिदिन 18-18 घंटे काम कर रहा हूं। मेरे मन में उस काम के प्रति बहुत सम्मान है। सिर्फ मुझे ही नहीं, बल्कि जो भी इस तरह काम करेगा, उसे भी आदर और सम्मान दिया जाएगा।

जाने माने शायर राजेश रेड्डी का ये शेर अच्युत सामंत पर एकदम सटीक बैठता है….
आप इन हाथों की चाहें तो तलाशी ले लें
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं

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नोबेल पुरस्कार विजेता ब्राजीली कवयित्री मार्था मेरिडोस की अमर कविता

कुछ रचनाएँ लेखकों और कवियों को अमर कर देती है। बहुत कम शब्दों में कई बार कवि ऐसी बात कह जाते हैं जो हजारों शब्दों से भी नहीं समझाई जा सकती। नोबेल पुरस्कार विजेता ब्राजीली कवियत्री मार्था मेरिडोस ने अपनी कविता “You Start Dying Slowly” – अप धीरे धीरे मरने लगते हैं में मनुष्य के व्यक्तित्व के शुष्क पहलुओं को बहुत ही कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुत किया है।

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:…
– करते नहीं कोई यात्रा,
– पढ़ते नहीं कोई किताब,
– सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ,
– करते नहीं किसी की तारीफ़।

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप:…
– मार डालते हैं अपना स्वाभिमान,
– नहीं करने देते मदद अपनी और न ही करते हैं मदद दूसरों की।

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:…
– बन जाते हैं गुलाम अपनी आदतों के,
– चलते हैं रोज़ उन्हीं रोज़ वाले रास्तों पे,
– नहीं बदलते हैं अपना दैनिक नियम व्यवहार,
– नहीं पहनते हैं अलग-अलग रंग, या
– आप नहीं बात करते उनसे जो हैं अजनबी अनजान।

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप…
– नहीं महसूस करना चाहते आवेगों को, और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को,
-वे जिनसे नम होती हों आपकी आँखें, और करती हों तेज़ आपकी धड़कनों को।

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:…
-नहीं बदल सकते हों अपनी ज़िन्दगी को,
-जब हों आप असंतुष्ट अपने काम और परिणाम से,
– अग़र आप अनिश्चित के लिए नहीं छोड़ सकते हों निश्चित को,
– अगर आप नहीं करते हों पीछा किसी स्वप्न का,
– अगर आप नहीं देते हों इजाज़त खुद को,
-अपने जीवन में कम से कम एक बार,
-किसी समझदार सलाह से दूर भाग जाने की..
तब आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं..

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साहित्य के गलियारों में बदले हुए नाम / उपनाम

याद आता है कि अपने साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसा बहुत बार हुआ है कि साहित्यकार छद्म नाम से लिखा करते थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र को पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा जाता है। उन्होंने ‘रसा’ नाम से गजलें लिखीं। कुछ ने तो दो-तीन नामों का भी प्रयोग किया। जयशंकर प्रसाद भी पहले ‘झारखंडी’ और ‘कलाधर’ के नाम से लिखते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सुकवि किंकर’ और ‘कल्लू अल्हैत’ नाम से लिखा। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘व्योमकेश शास्त्री’ और ‘बैजनाथ द्विवेदी’ नामों का प्रयोग किया। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘रसिकेंद्र’ और ‘मधुप’ उपनाम से सृजन किया। इसी तरह, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, ‘त्रिशूल’, ‘तरंगी’ उपनाम से प्रतिष्ठित हुए। जगन्नाथ दास आज भी ‘रत्नाकर’ और ‘जकी’ नाम से जाने जाते हैं। शरद जोशी शुरूआत में छद्म नामों से अखबारों और पत्रिकाओं में लिखते थे

नागार्जुन ने ‘यात्री’ के नाम से बहुत कविताएं लिखीं। अज्ञेय ने भी ‘कुट्टीचातन’ नाम से निबंध लिखे तो पाण्डेय बैचेन शर्मा उग्र ने अष्टावक्र नाम से कहानियां लिखी डॉ रामविलास शर्मा का अगिया बैताल आज भी चर्चा में बना हुआ है |अमृतलाल नागर ने तस्लीम लखनवी छद्मनाम से पत्र -पत्रिकाओं ,में लेखन किया | आश्चर्य की बात यह है कि उन्हें असली नाम के मुकाबले इस नाम से लिखने पर अधिक पारिश्रमिक मिलता था। लेकिन इन उपनामों और छद्म नामों में लेखन के बाद भी आज इन साहित्यकारों की पहचान उनके मुख्य नाम से ही होती है।

कहने का मतलब यह कि इनके नाम बदलने के पीछे कोई स्वार्थ नहीं था। दूसरी ओर, यह जगजाहिर तथ्य है कि प्रख्यात लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने बार-बार कहे जाने पर भी अपना सरनेम ‘वाल्मीकि’ नहीं बदला और एक अदद घर के लिए दर-दर भटकते रहे।नाम परिवर्तन किसी भी व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है और किसी भी दूसरे व्यक्ति को इस बात पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

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13 साल की मासूम उम्र में मात्र 13 रुपये लेकर मुंबई आए थे प्रकाश मेहरा

मात्र 13 साल की उमर में तब 13 रुपये लेकर वो अभिनेता बनने के लिए घर से मुंबई भाग आये। लेकिन गुजारा करना आसान नहीं था, भूखे पेट स्टेशन पर सोये, छोटे-मोटे काम कर गुजारा किया। फिर जैसे-तैसे सिनेमा में आये और सितारों को चाय-पानी परोसने जैसे छोटे-मोटे काम किये। वह काबिलियत और किस्मत के धनी थे, तभी तो सितारों को चाय परोसते-परोसते वह पहले प्रोडक्शन कंट्रोलर बने और फिर डायरेक्टर को असिस्ट करने लगे। उनकी झोली में पहली मूवी आई, जिसका नाम ‘हसीना मान जाएगी’ (1968) है। शशि कपूर और बबीता की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट हो गई और बतौर निर्देशक प्रकाश मेहरा छा गये। फिर उन्होंने 1971 में फिल्म ‘मेला’ और 1972 में ‘समधी’ बनाई। ये फिल्में भी जबरदस्त तरीके से सफल रहीं। मात्र पांच सालों में प्रकाश मेहरा सिनेमा के बेहतरीन निर्देशकों में शुमार हो गये।

फिर आई ‘जंजीर’ की बारी, हालांकि, शायद ही आपको पता हो कि पहले प्रकाश मेहरा ‘जंजीर’ में धर्मेंद्र को कास्ट करना चाहते थे। लिकन फिर एक्टर प्राण ने उन्हें अमिताभ को लेने की सलाह दी। प्रकाश अपना घर और बीवी के गहने गिरवी रखकर यह फिल्म बना रहे थे। उस वक्त अमिताभ बच्चन पर फ्लॉप का टैग लग चुका था। फिर भी उन्होंने रिस्क लेकर अमिताभ को इस फिल्म में कास्ट किया। सिनेमा से जुड़े कई हस्तियों ने प्रकाश मेहरा को बिग बी को न कास्ट करने की सलाह दी। मगर वह पीछे नहीं हटे और कैसे भी करके फिल्म की शूटिंग स्टार्ट की। शुरू में लगा कि मूवी नहीं चलेगी, लेकिन जब आई तब इतिहास रच दिया। फिर ‘लावारिस’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘नमक हलाल’, ‘हेरा फेरी’ जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाले प्रकाश मेहरा का 17 मई 2009 को निमोनिया और मल्टीपल ऑर्गन फेलर की वजह से निधन हो गया था।

साभार- https://www.facebook.com/share/p/JdvZigY5BcDYenTq/?mibextid=xfxF2i  से 

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