ऋषि दयानन्द की दृष्टि में जो आचार्य/शिक्षक/अध्यापक
गुरू की महिमा अनंत है
एकल श्री हरि वनवासी विकास ट्रस्ट, भाईंदर क्षेत्रीय समिति द्वारा नंदउत्सव का आयोजन
मुंबई।
भायंदर स्थित माहेश्वरी भवन में धूमधाम से सम्पन्न हुआ, इस आयोजन में बड़ी संख्या में राजस्थानी सम्माज की उपस्थिति रही।कार्यक्रम में मुंबई के प्रसिद्ध उद्योगपतियों एवं समाजसेवियों की सपरिवार उपस्थिति रही। कार्यक्रम का शुभारंभ (मुख्य यजमान) मुंबई के प्रसिद्ध उद्योगपति रामप्रकाश बूबना एवं उनकी पत्नी शारदा बूबना , एवं अन्य मुख्य अतिथियों सत्यनारायण काबरा, अमरचंद रांधड़,कैलाश अग्रवाल, अरुण गोयल, सतीश अग्रवाल, विमल अग्रवाल,अमृतलाल गोयल के कर कमलों द्वारा बालगोपाल कृष्ण के अभिषेक एवं पूजन से किया गया।
कार्यक्रम के अगले चरण में कलाकारों द्वारा कृष्ण जन्म का सुंदर चित्रण मंच पर किया गया, उसके अलावा सम्पूर्ण कृष्ण लीला, कालिया मर्दन, गोवर्धन पर्वत पूजा, महारास का मनमोहक मंचन किया गया ,बाल कृष्ण द्वारा मटकी फोड़कर नंदउत्सव संपन्न किया गया ,कार्यक्रम में कृष्ण राधिका के नृत्य, सुमधुर भजनों एवं मंच पर कलाकारों की प्रस्तुति ने सम्पूर्ण प्रांगण को कृष्णमय कर दिया, उपस्थित अतिथियों एवं अन्य गणमान्यों ने नंदोत्सव का आनंद लिया।
एकल श्री हरि वनवासी विकास ट्रस्ट के अध्यक्ष नंदू पोद्दार ने आये हुए सभी अतिथियों एवं समाज बंधुओं का स्वागत किया। संस्था के उपाध्यक्ष रमेश कोठारी, अनिल गोयल, मुकेश मित्तल योगेश राजगढ़िया, ओमप्रकाश गुप्ता ,कार्याध्यक्ष डॉ सुशील अग्रवाल,महासचिव संजय गर्ग, सहसचिव सुधीर सोंथालिया, कमलकिशोर अग्रवाल, कोषाध्यक्ष संपत अग्रवाल, महिला अध्यक्ष सुमन कोठारी ,प्रचार प्रमुख संदीप सराफ आदि ने उत्सव का संयोजन अदभुत कौशल के साथ किया ,संस्था के संरक्षक डॉ निरंजन अग्रवाल एवं डॉ संजीव गुप्ता का योगदान भी सराहनीय रहा। कार्यक्रम में मनोरंजन प्रस्तुतिकरण रचना इवेंट द्वारा किया गया , सभी अतिथियों का स्वागत शाल एवं पुष्पगुच्छ द्वारा किया गया गौरतलब है कि– एकल देश का एक मात्र ऐसा समाजसेवी संगठन है । जिसका मुख्य उद्देश्य एकल अभियान के पंचमुखी शिक्षा में से एक मूल्याधारित संस्कार शिक्षा के द्वारा सुदूर, पर्वतीय , जनजातियों, वनांचलों में बसे वन -बंधुओं के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक उत्थान के लिए कार्य करना है और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयास करना है । कार्यक्रम का मंच संचालन राजेश डिडवानिया ने किया।
इस कार्यक्रम में संस्था के अन्य सभासदों जयकिशन सोमानी, सतीश बंका, रवि गाड़िया, रमाकांत पोद्दार, मनोज तोलम्बिया, अनिल देवड़ा, गौतम सारस्वत,कमल मूंधड़ा,बजरंग चौहान, अजय लालगड़िया,नवलकिशोर अग्रवाल, कैलाश गाड़ोदिया का सहयोग भी सराहनीय रहा। कार्यक्रम में विधायक गीता जैन एवं पूर्व विधायक नरेंद्र मेहता ने भी कृष्ण दर्शन का लाभ लिया। नंदोत्सव का समापन महाप्रसाद के साथ किया गया।
अंग्रेजों ने किया सिखों को सनातन से लड़ाने का षड्यंत्रः डॉ. इकबाल सिंह
सनातन, जैन, बौद्ध और सिख, इन सभी की माँ एक है, लेकिन अंग्रेजों ने सिख और सनातन में फूट डालने का षड्यंत्र कर समाज में भेद पैदा किया। ये बातें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष डॉ. इकबाल सिंह लालपुरा जी ने नई दिल्ली में आयोजित सिख गुरुओं की राष्ट्रीय दृष्टि नामक पुस्तक के लोकार्पण में कही। उन्होंने कहा कि गुरुग्रंथ साहिब में लिखा है कि प्रथम गुरु नानक देव जी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। इसलिए गुरु केवल सिखों के नहीं, पूरे भारत के हैं।
सिख साहित्य के अनुपम विद्वान रहे स्व. राजेंद्र सिंह जी की लिखी तथा संकलित पुस्तक सिख गुरुओं की राष्ट्रीय दृष्टि का लोकार्पण आज बुधवार, 4 सितम्बर 2024 को सरदार दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय में संपन्न हुआ। पुस्तक का लोकार्पण राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष डॉ. इकबाल सिंह लालपुरा जी, दिल्ली सिख गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमिटी के मुख्य सलाहकार सरदार परमजीत सिंह चंडोक जी ने किया तथा पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. जगबीर सिंह जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
इस अवसर पर परमजीत सिंह चंडोक जी ने कहा कि गुरुओं ने मानवता का संदेश दिया और खालसा पंथ की स्थापना की। देश में पहली बार ऐसी सरकार आई है, जो गुरुओं के दिवसों का उत्सव आयोजित कर रही है। देश की स्वाधीनता के 75 वर्षों में पहली बार इसी सरकार ने करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलकर वहाँ तक आम जन की पहुँच को सुगम बनाया।
पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. जगबीर सिंह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि बंदा बहादुर और राजा रणजीत सिंह तक हम एक रहे हैं। बाद में अंग्रेजों ने हमें अलग करने का षड्यंत्र किया। उन्होंने काहन सिंह नाभा जैसे लोग खड़े किये, जिन्होंने आधे-अधूरे उद्धरणों से फूट डालने का कार्य किया। यह पुस्तक इन सभी षड्यंत्रों का उन्मूलन करती है।
इस पुस्तक का मूल भाव है कि सिख समाज भारत का एक अभिन्न अंग रहा है। प्रथम गुरु नानकदेव जी ने भारत को एक समग्र इकाई के रूप में प्रस्तुत किया था। वे पूरे भारत को एक समग्र रूप में देखते थे और तदनुरूप ही उन्होंने विधर्मी आक्रांताओं और उनके अत्याचारों का वर्णन किया। आज के विभाजनकारी दौर में गुरु नानकदेव की शिक्षाओं का पुनर्स्मरण करने की आवश्यकता है। इस बात को ध्यान में रख कर ही प्रस्तुत पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक के लेखक स्व. राजेंद्र सिंह जी सिख साहित्य के अप्रतिम विद्वान थे और उहोंने श्रीराम जन्मभूमि मामले में सर्वोच्च न्यायालय में गवाही देते हुए सिख साहित्य में श्रीराम जन्मभूमि का उल्लेख होने के प्रमाण प्रस्तुत किये थे।
इस लोकार्पण कार्यक्रम में जीवन के विविध आयामों में समाज के लिए उल्लेखनीय योगदान के लिए सिख समाज के 14 महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्वों को सम्मानित भी किया गया।
.श्री यदविंदर सिंह (शहीद ए आजम भगत सिंह के प्रपौत्र) अध्यक्ष, ऑल इंडिया भगत सिंह ब्रिगेड : इन्होंने शहीद ए आजम भगत सिंह की जेल डायरी का प्रकाशन मै. संधु एंड आर्गेनाइजेशन के प्रयास से प्रकाशित पुस्तक का लोकार्पण मार्च 2014 में माननीय श्री नरेंद्र मोदी और स्वामी रामदेव की उपस्थिति में किया गया। श्री ए आजम भगत सिंह की जब डायरी का हिंदी अवतरण 2028 में (प्रभात प्रकाशन द्वारा) का विमोचन केंद्रीय मंत्री रवि शंकर द्वारा किया गया।
श्रीमती रंजीत कौर धर्म पत्नी स्वर्गीय राजेंद्र सिंह जी जिन्होंने अपने पति के साथ गुरुओं की राष्ट्रीय दृष्टि पुस्तक के सृजन में तन, मन, धन से सहयोग किया।
.डॉ. हरबंस कौर निदेशक सिख इतिहास एवं गुरबाणी फोरम (DSGMC) : इन्होंने पंजाबी में 30 पुस्तके लिखी, इनकी 12 पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं इनके 100 शोध लेख प्रकाशित हुए है। लगभग 12 टी वी कार्यक्रमों में इन्होंने भाग लिया है। इन्हे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। कुछ एक के नाम प्रस्तुत हैं पंजाब एकेडमी अवार्ड, बाबा बंदा बहादुर सिंह मेमोरियल अवार्ड और अन्य पुरस्कार।
.श्री इंद्र देव सिंह मुसाफिर, (सुप्रसिद्ध व्यवसायी): आप फुटवियर के व्यवसाई हैं । मुसाफिर फुटवियर से संबंधित सरकारी काउंसिल के सदस्य रह चुके हैं।
.जस्टिस गुरिंदर सिंह (से नि) दिल्ली हाई कोर्ट : आप दिल्ली है कोर्ट में न्यायाधीश रहे हैं। बड़ी निष्ठा और न्याय के पथ पर आपका योगदान स्मरणीय है।
पद्मश्री जितेंद्र सिंह शंटी, संस्थापक शहीद भगत सिंह सेवा दल : शांति जी का जीवन उन सभी की सेवा में तत्पर है जिन्हें उनकी आवश्यकता है। शंटी जी लावारिश मृतकों के अंतिम संस्कार करता के रूप में प्रसिद्ध हैं। कोरिया काल में उनके द्वारा जो पीढ़ित मानवता की सेवा उन्होंने की वह अद्वितीय है। उन्होंने 4400 मृतकों का अंतिम संस्कार कर अपने कर्तव्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।
श्री गुरमीत सिंह लेखक एवं ज्योतिषी : आप का अंक शास्त्र और ज्योतिष ज्ञान का लाभ आम जनता को बराबर मिलता रहता है। युवा नेता रणधीर सिंह कालेर : आप संगरूर में बहुत सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए है। अर्जुन पाल सिंह मारवाह: आप एक समाजसेवी हैं तथा लाजपत नगर में पार्षद के रूप में आम जनता को सेवाएं दे रहे हैं।
राजा भोज एवं उनकी भोजशाला अतीत से वर्तमान तक
कौन थे राजाभोज?
यह प्रश्न हृदय को द्रवित करता है। आप इतिहास के छात्रों से भी यह प्रश्न करेंगे तो उन्हे खिलजियों-मुगलों का पूरा खानदान रटा होगा लेकिन अधिकांश ठिठक जाएंगे कि भोज कौन थे, कहाँ के शासक थे। राजाभोज मुहावरों और किंवदंतियों तक में इस तरह समाविष्ट हैं कि आज की पीढ़ी उन्हें मिथक और काल्पनिक तक मानने लगी है। इसलिए रेखांकित करें और अपनी पीढ़ी को भी सजग करें कि मध्यभारत के विशाल परिक्षेत्र पर शासन करने वाले राजाभोज परमार या पंवार वंश के नवें शासक थे।
राजा भोज की वाग्देवी
अब दूसरे प्रश्न अर्थात बात राजा भोज की वाग्देवी की कर लेते हैं। जानते हैं कि राजा भोज और विद्या की देवी सरस्वती का सह-सम्बंध कैसा था? मेरुतुंगाचार्य द्वारा विरचित प्रमुख जैन ग्रंथ प्रबंध चिंतामणि के अनुसार धारानगरी में जहाँ वर्तमान भोजशाला स्थित है, राजाभोज ने इसी स्थान पर माता सरस्वती का अनेक बार दर्शन और साक्षात्कार प्राप्त किया है। क्या यही कारण है कि जैसे ही हम भोजशाला के भीतर प्रवेश करते हैं, यह पाते हैं कि मुख्य द्वार के पास दाहिनी दीवार पर काली पाषाण शिला के ऊपर कूर्मशतकम अथवा पारिजात मंजरी नाटक के प्रथम दो अंक खुदे हुए हैं जिनमें पर्यटक आसानी से ओम सरस्वतयै: नम: का अवलोकन कर सकते हैं। राजा भोज और माता सरस्वती के इस भक्तिपूर्ण सम्बंध को इस बात से भी समझा जा सकता है कि भोजशाला के बाहर ही एक छोटा कुँआ है, जिसे अक्लकूप अथवा सरस्वती कूप कहा जाता है। आज भी जनसाधारण की यह धारणा है कि इस कुएं का पानी पीकर जड़बुद्धि व्यक्ति भी विद्वान हो जाते हैं, सरस्वती के उपासक बन जाते हैं। इस जनमान्यता से स्पष्ट भी होता है कि यह परमारवंशीय शासक न केवल स्वयं अध्येता था अपितु विद्यानुरागियों, विद्वानों, कवियों, शोधकर्ताओं, अभियंताओं, वैज्ञानिकों आदि के संरक्षक भी थे।
भोजशाला को कभी भारत के महत्वपूर्ण रहे शिक्षा संस्थानों में गिना जाता है। यह भी प्रामाणित है कि यहाँ कभी भव्य सरस्वती प्रतिमा अथवा वाग्देवी स्थापित रही होंगी। प्राचीन साहित्य में देवी सरस्वती विद्याधारी, वीणावादिनी, भारती, महाविद्या तथा महावाणी आदि सहित वाग्देवी भी पर्याय के रूप में उल्लेखित है। भोजशाला के मुख्य गर्भगृह में वाग्देवी की श्वेत संगमरमर की प्रतिमा स्थापित थी जो मध्यकाल में आक्रांता द्वारा हटवा दी गई थी। अभी अवशेष स्वरूप एक दीवार पर सफेद संगमरमर का कमल फूल उकेरा देखा जा सकता है।
राजा भोज की चर्चित वाग्देवी की प्रतिमा अभंगलास्य मुद्रा में है जिसे मकराना के संगमरमर से बनवाया गया था। इस प्रतिमा में उत्तर और दक्षिण भारतीय मूर्तिकला के विशिष्ट लक्षणों का समाहार है। प्राप्त प्रतिमा के चार हाथों में से आगे के दो हाथों का आधा भाग खंडित और लुप्त है। सिर पर मुकुट, कंधे तक लटकते हुए कानों में कुंडल, कंठ में मोतियों का हार, वक्षस्थल पर मुक्ता जट्ट पट्टी और उनकी कटि भी चारों ओर से अलंकृत है। इस प्रतिमा में देवी की सेवा में 5 प्रधान आकृतियां भी उत्कीर्णित हैं विशेष रूप से उनकी बाई ओर अपने हाथों में एक माला लिए हुए एक उड़ती हुई नारी की आकृति गढी गयी है। प्रतिमा रूप में वाग्देवी देवी ध्यान अवस्था में हैं। उनका मुख सुंदर तथा शांत है। यह प्रतिमा चार फुट ऊँची, नौ इंच मोटी तथा दो फीट चार इंच चौडी है जिसके निर्माण व स्वरूप में जैन शिल्पकला का प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
इस विवेचना के पश्चात हम तीसरे और महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आगे बढ़ते हैं कि भोजशाला विवाद क्या है? राजा भोज जिनका कि राज्यकाल वर्ष 1010 1055 ई. माना जाता है, उन्होंने वर्ष 1034 ई. में धार नगर में सरस्वती सदन भोजशाला निर्माण करवाया एवं यहाँ पर वाग्देवी प्रतिमा की स्थापना की थी। समय बदल गया तथा वर्ष 1305 से 1401 ई. के मध्य धार ने सबसे पहले मुस्लिम आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी का आघात सहा। राजाभोज की विरासत को नष्ट करने का वृतांत यहीं से आरंभ होता है जबकि वर्ष 1269 में कमाल मौलाना नाम का फ़क़ीर धार आया जोकि यहाँ पर 36 वर्ष तक रहा था।
कमाल मौला की मौत के कई दशकों बाद वर्ष 1456 में महमूद खिलजी द्वारा भोजशाला परिसर में ही मौलाना कमालुद्दीन का मकबरा व दरगाह को बनवा दिया गया। कमाल मौला मस्जिद के बगल में चार इस्लामी मकबरे और हैं। इनमें प्रमुख है कमालुद्दीन चिश्ती धारवी (1238-1330) की दरगाह, जिसको मालवा सल्तनत के दौरान बनवाया गया था। ध्यान रहे कि इन मस्जिदों दरगाहों का निर्माण भारतीय शिक्षा के प्रतिमानों और विरासतों पर हुआ है, बिलकुल वैसे ही जैसे विष्णु स्तम्भ का कुतुबमीनार में परिवर्तन कर पास के सत्ताईस हिन्दू और जैन मंदिरों को नष्ट कर दिल्ली में कुव्वत-उल-इस्लाम मसजिद बनवाई गई थी। मेरा स्पष्ट मानना है कि धार की भोजशाला का विध्वंस नालंदा विश्वविद्यालय के बख्तियार खिलजी द्वारा किए गए नाश जैसा ही पापपूर्ण और घृणित कार्य था। जिसके बाद सूफी सूफी की रट और उनके योगदानों की पाठ्यपुस्तकों में रेलमपेल, सोचिए कि क्यों है?
जैसा कि वक्तव्य के आरंभ में मैंने बताया था कि धार नगरी में वर्ष 1875 में पुरातत्व विभाग के श्री के.के.लेले आदि को खुदाई करते हुए वाग्देवी की खण्डित की गयी जो प्रतिमा प्राप्त हुई थी उसे तत्कालीन भोपावर स्टेट के पोलिटिकल एजेंट मेजर किनकेड के द्वारा वर्ष 1880 ई. में लंदन ले जाया गया। वर्ष 1909 ई. में धार रियासत द्वारा एन्शीएंट मान्यूमेंटएक्ट को लागू कर भोजशाला को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया। वर्ष 1934 में इस स्थान पर अवैध कब्जे हटवा कर यहाँ भोजशाला नाम की पट्टिका धार प्रशासन द्वारा लगवा दी गई।
धार नागरी के जागरूक नागरिकों के इस गुण्डागर्दी के विरोध में अपना स्वर उठाना आरंभ कर दिया था। वर्ष 1952 से इतिहास शोध, साक्ष्य संकलन के माध्यम से सनातन मान्यता ने अपनी विरासत पर दावा किया और भोज उत्सव मनाना आरंभ किया। भोजशाला में सरस्वती जन्मोत्सव की यह शुरुआत केशरीमल सेनापति, प्रेमप्रकाश खत्री, बसंतराव प्रधान, ताराचंद अग्रवाल आदि इतिहास के प्रति जागरुक नागरिकों ने की। 29 नवंबर 1952 को भोजशाला को भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया। 1988 को भोजशाला मे एक प्रतिमा पाई गई जो धार संग्रहालय को सौंप दी गई है। 1994 को सनातन मतावलंबियों ने भोजशाला पर अपना दावा प्रस्तुत करते हुए सभी घरों पर केसरिया ध्वज लहरा दिए।
12 मई 1997 को ही प्रशासन द्वारा यह निर्णय लिया गया कि प्रति शुक्रवार दोपहर एक से तीन बजे तक मुस्लिम समुदाय के लोग नमाज पढ़ सकते है, प्रति वसंत पंचमी को हिन्दू समुदाय के लोग प्रार्थना कर सकते हैं शेष दिन यह स्थान संग्रहालय की तरह जन अवलोकनार्थ सशुल्क खोला जाएगा। विरासत सनातन योद्धा व अध्येता भोज की और साप्ताहिक प्रवेश का अधिकार मुसलमानों को जबकि हिंदुओं के लिए साल का केवल एक दिन? इस निर्णय पर पुरातत्व विभाग द्वारा 5 फरवरी 1998 को मुहर लगा दी गई, यह असंतुलित निर्णय था जिसमें प्राधिकारी को ही बेदखल कर दिया गया था इसलिए असंतोष बढ़ाना ही था।
इन घटनाक्रमों के दृष्टिगत यह महत्वपूर्ण है कि एएसआई सर्वेक्षण करें और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे। पूजा और नमाज के अधिकार पर तो बाद में निर्णय होता रहेगा, पहले यह तो साफ साफ सामने आ जाए कि राजा भोज की विरासत को कब क्यों और किसने नष्ट किया है? भोजशाला मैं स्वयं गया हूँ, मैंने अनेक यंत्रों, अभिलेखों, स्तंभों और देवी-देवताओं की आकृतियों को स्वयं देखा है और प्रथम दृष्टया ही यह साफ हो जाता है कि भोजशाला राजा भोज की ही विरासत है।
प्राचीन भारतीय गणित जिसने पूरी दुनिया को राह दिखाई
प्राचीन भारतीय गणित एक समृद्ध और महत्वपूर्ण विषय है जिसने आधुनिक गणित के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यहाँ कुछ मुख्य बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है:
1. शून्य और दशमलव प्रणाली का विकास:
- प्राचीन भारतीय गणितज्ञों ने शून्य (0) का आविष्कार किया, जो गणित में एक क्रांतिकारी कदम था।
- इसके साथ ही, दशमलव प्रणाली (Decimal System) की खोज भी भारत में हुई, जिसने गणना को सरल और सटीक बना दिया।
2. आयुर्वेद और खगोलशास्त्र में गणित का प्रयोग:
- भारतीय गणित का उपयोग न केवल गणनाओं के लिए बल्कि आयुर्वेद और खगोलशास्त्र में भी होता था।
- उदाहरण के लिए, सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ में ग्रहों की गति, समय की गणना और खगोलीय घटनाओं का गणितीय वर्णन किया गया है।
3. प्रसिद्ध गणितज्ञ:
- आर्यभट्ट: उन्होंने आर्यभटीय नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें पाई (π) के मूल्य का उल्लेख किया गया और त्रिकोणमिति की नींव रखी।
- ब्रह्मगुप्त: उन्होंने शून्य के उपयोग और ऋणात्मक संख्याओं के नियमों की व्याख्या की।
- भास्कराचार्य: उनके द्वारा लिखित “लीलावती” और “बीजगणित” ग्रंथों में गणित के कई महत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन है।
4. बीजगणित और त्रिकोणमिति:
- भारतीय गणितज्ञों ने बीजगणित और त्रिकोणमिति के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- उन्होंने ज्या (Sine) और कोज्या (Cosine) जैसे त्रिकोणमितीय कार्यों का आविष्कार किया, जो आज भी उपयोग में हैं।
5. सिद्धांत और सूत्र:
- भारतीय गणित में कई महत्वपूर्ण सिद्धांत और सूत्रों का विकास किया गया, जिनका उपयोग आधुनिक गणित में भी होता है।
- उदाहरण के लिए, आर्यभट्ट ने त्रिभुज के क्षेत्रफल का सूत्र और पाई (π) के सन्निकट मान का वर्णन किया।
6. गणित का समाज पर प्रभाव:
- प्राचीन भारतीय गणित ने व्यापार, वास्तुकला, और खगोलशास्त्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- इसके अलावा, भारतीय गणित के सिद्धांतों का उपयोग मध्यकालीन इस्लामी गणितज्ञों और बाद में यूरोपीय गणितज्ञों द्वारा भी किया गया, जिससे वैश्विक गणितीय विकास हुआ।
प्राचीन भारतीय गणित का इतिहास अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है। इसकी समृद्ध धरोहर आज भी विश्व भर के गणितज्ञों के लिए अनुसंधान का विषय है।
शीतल देवी और राकेश कुमार: सफलता पर साधा निशाना
भारत के पैरा-एथलीट वैश्विक मंच पर देश को लगातार गौरवान्वित कर रहे हैं। पेरिस में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले पैरा-एथलीटों में शीतल देवी और राकेश कुमार का प्रदर्शन भी शामिल था, जिन्होंने मिश्रित टीम कंपाउंड ओपन तीरंदाजी स्पर्धा में कांस्य पदक जीता। उनकी जीत पैरा खेलों में भारत की बढ़ती विरासत में एक और अध्याय जोड़ती है!
शीतल देवी का सफर
शीतल देवी का जन्म 10 जनवरी, 2007 को जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में हुआ था। उन्होंने अपने अतुलनीय सफर से दुनिया को मंत्रमुग्ध कर दिया है। बिना हाथों के जन्म लेने के बावजूद उन्होंने दिखा दिया है कि महानता हासिल करने की राह में शारीरिक सीमाएं कोई बाधा नहीं हैं। उनका प्रारंभिक जीवन चुनौतियों से भरा था, लेकिन 2019 में उस समय एक महत्वपूर्ण क्षण आया जब भारतीय सेना ने एक सैन्य शिविर में उनकी प्रतिभा की पहचान की। उनकी क्षमता को देखते हुए उन्होंने उन्हें शैक्षिक सहायता और चिकित्सा देखभाल की सुविधा प्रदान की।
जानेमाने कोच कुलदीप वेदवान की देखरेख में शीतल ने कठोर प्रशिक्षण की शुरुआत की और इसने उन्हें दुनिया की एक अग्रणी पैरा-तीरंदाज बना दिया। उनकी उपलब्धियां खुद बयां करती हैं: 2023 के एशियाई पैरा खेलों में व्यक्तिगत एवं मिश्रित टीम स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक, 2023 के विश्व तीरंदाजी पैरा चैम्पियनशिप में रजत पदक और एशियाई पैरा चैम्पियनशिप में कई पुरस्कार। शीतल की कहानी साहस, दृढ़ता और अपनी क्षमताओं में अटूट विश्वास की कहानी है।
राकेश कुमार: प्रतिकूलता से उत्कृष्टता तक
राकेश कुमार का जन्म 13 जनवरी, 1985 को जम्मू-कश्मीर के कटरा में हुआ था। वह लचीलेपन की ताकत का एक अन्य उदाहरण हैं। साल 2010 में एक दु:खद दुर्घटना में राकेश कमर से नीचे के हिस्से में लकवाग्रस्त हो गए, जिससे उन्हें व्हीलचेयर पर रहना पड़ा। उसके बाद के कुछ साल उनके लिए निराशा से भरे रहे। मगर 2017 में उस दौरान उनके जीवन में एक नया मोड़ आया, जब उन्हें श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में तीरंदाजी से परिचित कराया गया।
कोच कुलदीप कुमार के मार्गदर्शन में राकेश को तीरंदाजी के प्रति नया जुनून मिला। आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने खुद को इस खेल के लिए समर्पित कर दिया और जल्द ही रैंक में ऊपर उठते हुए भारत के शीर्ष पैरा तीरंदाजों में शामिल हो गए। उनकी उपलब्धियों में 2023 विश्व तीरंदाजी पैरा चैम्पियनशिप में मिश्रित टीम स्पर्धा में स्वर्ण पदक और 2023 एशियाई पैरा खेलों में शानदार प्रदर्शन शामिल है। राकेश का सफर महानता हासिल करने के लिए दुर्गम बाधाओं को पार करने की कहानी है।
पेरिस 2024 पैरालिंपिक
पेरिस 2024 पैरालिंपिक शीतल देवी और राकेश कुमार दोनों के करियर में एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ। मिश्रित टीम कंपाउंड ओपन तीरंदाजी स्पर्धा में भाग लेते हुए इन दोनों को दुनिया के कुछ सर्वश्रेष्ठ पैरा तीरंदाजों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। पोडियम तक का उनका सफर धैर्य, दृढ़ संकल्प और लगातार उत्कृष्टता से ओतप्रोत था।
शीतल और राकेश ने इटली के एलेनोरा सार्टी और माटेओ बोनासिना के खिलाफ कांटे की टक्कर में कांस्य पदक हासिल किया। भारतीय तीरंदाजों ने दबाव के बावजूद काफी संयम दिखाया, अंतिम सेट में चार परफेक्ट 10 लगाए और पीछे से आकर पदक झटक लिया। उनके प्रदर्शन ने न केवल पोडियम पर जगह पक्की की, बल्कि 156 अंकों के पैरालिंपिक रिकॉर्ड की बराबरी भी की। यह उनके कौशल और एकाग्रता का प्रमाण है।
सरकारी सहायता: सफलता का एक महत्वपूर्ण स्तंभ
पेरिस 2024 पैरालिंपिक में शीतल देवी और राकेश कुमार की सफलता भारत सरकार द्वारा प्रदान किए गए व्यापक समर्थन के बिना संभव नहीं होती। दोनों एथलीटों को टारगेट ओलंपिक पोडियम स्कीम (टीओपीएस) के तहत वित्तीय सहायता मिली। इसमें प्रशिक्षण पर होने वाला खर्च, उपकरणों की खरीद और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं के लिए यात्रा शामिल थी। शीतल को थाईलैंड, यूएई, चेक गणराज्य, चीन और फ्रांस में प्रशिक्षण के लिए विदेश जाने के छह अवसर मिले, जबकि राकेश को विशेष उपकरण एवं व्हीलचेयर जैसी सुविधाओं के साथ मदद मिली। एसएआई सोनीपत में राष्ट्रीय कोचिंग शिविर में इन दोनों एथलीटों ने प्रशिक्षण लिया और उसने उनके कौशल को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रेरणा की विरासत
शीतल देवी और राकेश कुमार द्वारा पेरिस 2024 पैरालिंपिक में कांस्य पदक जीतना न केवल भारत के लिए एक जीत है, बल्कि यह उम्मीद एवं दृढ़ता का एक ताकतवर संदेश भी है। महज 17 वर्ष की उम्र में शीतल भारत की सबसे कम उम्र की पैरालिंपिक पदक विजेता बन गईं, जबकि 39 वर्षीय राकेश ने अपनी उपलब्धियों की प्रभावशाली सूची में पैरालिंपिक पदक भी जोड़ लिया। उनकी कहानियां खेल की दुनिया से परे हैं, जो विपरीत परिस्थितियों का सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए प्रेरणा के रूप में काम करती हैं। उनकी विरासत एथलीटों की पीढ़ियों को बड़े सपने देखने और हरसंभव उसकी सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करती रहेगी।
वैज्ञानिकों ने शास्त्रीय और क्वांटम गुरुत्व को जोड़ने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है
शोधकर्ताओं ने गुरुत्वाकर्षण और क्वांटम यांत्रिकी के शास्त्रीय सिद्धांत को एकीकृत करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए अपनी गणना के माध्यम से गुरुत्वाणु – गुरुत्वाकर्षण की काल्पनिक मात्रा और गुरुत्वाकर्षण संपर्क के बल की मध्यस्थता करने वाले प्राथमिक कण- के शोर से प्रेरित अनिश्चितता का संबंध पाया। जबकि शास्त्रीय भौतिकी नियमों और समीकरणों का एक समूह है जो बताता है कि सामान्य वस्तुएं कैसे व्यवहार करती हैं और क्वांटम भौतिकी परमाणुओं और छोटी वस्तुओं की दुनिया का वर्णन करती है।
एस.एन. बोस नेशनल सेंटर फॉर बेसिक साइंसेज में खगोल भौतिकी (आईआईए) और उच्च ऊर्जा भौतिकी विभाग के श्री सोहम सेन और प्रो. सुनंदन गंगोपाध्याय स्थलीय प्रणालियों में क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के संकेत खोजने में लगे हुए हैं, जो गुरुत्वाकर्षण के पूर्ण क्वांटम सिद्धांत की बेहतर समझ विकसित करेगा। यह वो मौलिक समस्या है जो अल्बर्ट आइंस्टीन के समय से अनसुलझी है।
क्वांटम गुरुत्व (क्यूजी) सैद्धांतिक भौतिकी का एक क्षेत्र है जो क्वांटम यांत्रिकी के सिद्धांतों के अनुसार गुरुत्वाकर्षण का वर्णन करता है। यह ऐसे वातावरण से संबंधित है जिसमें न तो गुरुत्वाकर्षण और न ही क्वांटम प्रभावों को नजरअंदाज किया जा सकता है, जैसे कि ब्लैक होल या न्यूट्रॉन सितारों जैसी कॉम्पैक्ट खगोलीय वस्तुएं।
यह पहले दिखाया गया है कि जब गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र को क्वांटम यांत्रिक रूप से व्यवहार किया जाता है, तो यह एलआईजीओ के इंटरफेरोमीटर जैसे गुरुत्वाकर्षण तरंग डिटेक्टरों की भुजाओं की लंबाई में उतार-चढ़ाव या शोर उत्पन्न करता है।
इस शोर की विशेषताएं गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की क्वांटम स्थिति पर निर्भर करती हैं। इस मौलिक शोर का पता लगाना गुरुत्वाकर्षण के परिमाणीकरण और गुरुत्वाकर्षण और क्वांटम सिद्धांत के बीच की कड़ी गुरुत्वाणु के अस्तित्व के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण होगा।
इस तरह के कार्यों को आगे बढ़ाते हुए, प्रोफेसर गंगोपाध्याय और श्री सोहम सेन ने क्वांटम गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से गिरने वाले पिंडों के भाग्य की जांच की है। उनकी गणना से गुरुत्वाकर्षण के शोर से प्रेरित स्थिति और गति चर के बीच एक अनिश्चितता संबंध प्राप्त हुआ है।
अनिश्चितता का संबंध एक सच्चे क्वांटम गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को इंगित करता है और गणना स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि परिमाणित गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के साथ कण की स्वतंत्रता की डिग्री का सही युग्मन है।
प्रोफेसर सुनंदन गंगोपाध्याय ने कहा, “सामान्यीकृत अनिश्चितता सिद्धांत की हमारी व्युत्पत्ति इस अर्थ में मजबूत है कि परिणाम गुरुत्वाकर्षण की क्वांटम प्रकृति को ध्यान में रखकर प्राप्त किया गया था।”
जब अपोलो 11 के यात्री चन्द्रमा से धरती पर आकर रहे एल्युमीनियम कोच में!
पांच जुलाई 1969 को चंद्रमा के लिए अपनी उड़ान से ठीक पहले, अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और माइकल कोलिंस, अपनी प्रेस कॉंफ्रेस में खुद को संवाददाताओं से अलग-थलग रखने के लिए एक बॉक्स जैसी संरचना में बैठे। यह संरचना अंतरिक्ष यात्रियों को प्रीफ्लाइट अवधि में किसी भी तरह की संक्रामक बीमारी के संपर्क से बचाने के एक विस्तृत डिजाइन का हिस्सा थी।
चंद्रमा पर पहला मानव मिशन भेजने की तैयारी में जुटे वैज्ञानिक इस बात को लेकर संशय में थे कि चंद्रमा की सतह पर जीवन मौजूद है या नहीं दरअसल, वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे क्योंकि पिछले अपोलो मिशन के चालक दल ने सांस और त्वचा संक्रमण जैसी छोटी-मोटी बीमारियों की शिकायत की थी जिसकी वजह शायद एक्सपोज़र हो सकता था या नहीं भी। और इस तरह से लूनर क्वारेंटीन प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई जिसमें चंद्रमा के नमूनों के संपर्क में आए उन तीन अंतरिक्ष यात्रियों, क्रू और वैज्ञानिकों को लंबे और सख्त क्वारेंटीन में रखा जाना था। यह क्वारेंटीन इतना सख्त था कि राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को भी प्रीफ्लाइट अवधि में अंतरिक्ष यात्रियों की मेजबानी करने से मना कर दिया गया था।
लूनर क्वारेंटीन प्रोजेक्ट में यह सुनिश्चित करने के लिए बहुत-से तरीके, उपकरण और सुविधाएं शामिल थीं कि अपोलो अंतरिक्ष यात्रियों, चालक दल और वैज्ञानिकों को जहरीले रसायनों और अज्ञात बायोलॉजिकल जीवों के संपर्क से बचाया सके, भले ही इसके आसार बहुत कम रहे हों।
पहली और सबसे खास बात चंद्रमा के नमूनों को संभालने के लिए जरूरी उपकरण और संसाधन थे। ह्यूस्टन, टेक्सास स्थित मानव अंतरिक्ष यान केंद्र को अब जॉनसन स्पेस सेंटर के रूप में जाना जाता है और यह लूनर रिसीविंग लैब में चंद्रमा से नमूनों को प्राप्त करने का सुविधा केंद्र बन चुका है। इस लैब में क्रू रिसेप्शन क्षेत्र, सैंपल ऑपरेशंस एरिया और प्रशासन और सहायता क्षेत्र शामिल थे। अपोलो 11 अंतरिक्ष यात्रियों, उनके सहायक कर्मचारी और वास्तविक अपोलो कमांड मॉड्यूल को इसी स्वागत क्षेत्र में क्वारेंटीन की समयावधि में सबसे अलग रखा गया था।
अपोलो के अंतरिक्ष यात्री 24 जुलाई 1969 को प्रशांत महासागर में भेजे गए और उन्हें तुरंत ही क्वारेंटीन कर दिया गया। उन्हें राफ्ट और फ्लोटेशन गेयर की मदद से निकाला गया जिन्हें कीटाणुरहित करने के लिए समुद्र में डुबोया गया था। क्रू को हेलीकॉप्टर से उठाया गया था। क्वारेंटीन को सफल बनाने के लिए जरूरी था कि प्रशांत क्षेत्र में कमांड मॉड्यूल से ह्यूस्टन में लूनर रिसीविंग लैब तक पहुंचने के दौरान उन्हें अलग-थलग रखा जाए। इस तरह से एक मोबाइल क्वारेंटीन सुविधा को डिजाइन किया गया।
अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्री क्वारेंटीन सुविधा में उपलब्ध इंटरकॉम के माध्यम से राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से बात करते हुए (दाएं)। (फोटोग्राफ: साभार नासा)
क्रू के सदस्य हेलीकॉप्टर से सीधे यूएसएस हॉर्नेट पर बने क्वारेंटीन सुविधा केंद्र पर उतरे। यह क्वारेंटीन सुविधा पूरी तरह से एक एल्मुनियम ट्रैवल ट्रेलर था जिसे अलग-थलग रहने की इकाई के रूप में संशोधित किया गया था। यह संरचना एयरटाइट थी जिसे आसानी से सडक़ से ले जाया जा सकता था और इसमें पर्यावरण नियंत्रण प्रणाली को बिजली उपलब्ध कराने के लिए डीजल जनरेटर और बैटरी लगाई गई थी। इससे 27 जुलाई को वायु मार्ग से ह्यूस्टन पहुंचाया गया और फिर इसे लूनर रिसीविंग लैब के क्रू रिसेप्शन एरिया में रखा गया।
क्वारेंटीन सुविधा की रसोई में ट्रेलर के अंदर और बाहर वस्तुओं को लाने ले जाने के लिए परिशोधन यानी डीकंटेमिनेशन लॉक मौजूद था। कमांड मॉड्यूल से कंटेनर, चंद्रमा के नमूने, फिल्म और दूसरे उपकरण ह्यूस्टन के लिए भेजे गए थे। क्वारेंटीन योजना में अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा लाए गए करीब 21.55 किलोग्राम चंद्रमा के नमूने को चंद्रमा की दूसरी सामग्रियों और पृथ्वी के जीवों और सामग्रियों से संदूषित होने के खतरे से बचाने के लिए उसे पूरी तरह से अलग-थलग रखने की जरूरत थी।
अपोलो 11 मिशन 16 से 24 जुलाई यानी आठ दिनों तक चला। अंतरिक्ष यात्रियों को 10 अगस्त को उनके क्वारेंटीन अवधि से मुक्त कर दिया गया। इस दौरान, आर्मस्ट्रॉंग ने पांच अगस्त को क्वारेंटीन में रहते हुए अपना जन्मदिन मनाया।
लूनर क्वारेंटीन प्रोग्राम अपोलो 11 मिशन के साथ शुरू हुआ। इसके बाद के चंद्र मिशनों में न केवल लैंडिंग के बाद बल्कि प्री-लॉंच क्वारेंटीन की व्यवस्था भी की गई जिसे हेल्थ स्टेबलाइजेंशन प्रोग्राम के रूप में जाना गया। इस तरह का पहला प्रोग्राम अपोलो 14 मिशन के साथ लागू किया गया।
समकालीन हेल्थ स्टेबलाइजेशन प्रोग्राम के तहत क्रू के सदस्य और उनके निकट संपर्कों को क्वारेंटीन से गुजरना होता है और रोगजनकों से बचने के लिए लॉंच से पहले उन्हें टीका लगवाना होता है। यह सभी अंतरिक्ष उड़ान मिशनों के लिए अनिवार्य है। उदाहरण के लिए इंटरनेश्नल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) के चालक दल को 14 दिवसीय प्रीफ्लाइट प्रोग्राम से गुजरना होता है जिसमें क्वारेंटीन और टीकाकरण के अलावा गैर चालक दल के सदस्यों के साथ सीमित और नियंत्रित संपर्क शामिल होता है।
अब जबकि मंगल ग्रह की खोज एक प्रमुख लक्ष्य है ऐसे में नासा की ग्रह सुरक्षा नीतियां इस तरह से तैयार की गई हैं जिससे कि जिम्मेदारी के साथ सौर मंडल में आगे की खोज को प्रोत्साहित किया जा सके, साथ ही पृथ्वी और दूसरे अंतरिक्ष निकायों को किसी भी तरह के क्रॉस कटेंमिनेशन से बचाया जा सके। इसके अतिरिक्त, 1958 में गठित एक अंतर्राष्ट्रीय निकाय, अंतरिक्ष अनुसंधान समिति बाहरी अंतरिक्ष में मानव मिशनों और वैज्ञनिक अनुसंधान के दूसरे क्षेत्रों से संबंधित प्रक्रियाओं के बारे में एक गाइडलाइन प्रस्तुत करती है। समिति के सिद्धांत और गाइडलाइंस, मंगल पर प्रारंभिक मानव मिशनों के बारे में पूर्व स्थापित नजरिए को ही संस्तुत करते हैं जो “मंगल के पर्यावरण और वहां संभावित जीवन के बारे में कम जानकारी के अलावा वहां के माहौल में मानव सहायता प्रणालियों के कामकाज के अनुरूप” निर्धारित की गई हैं। अपोलो 11 मिशन के दौरान प्रक्रियाओं में बरती गई सावधानी और अनुभवों ने भविष्य के मानव मिशनों के लिए दिशानिर्देशों की नींव तैयार की है।
राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने 24 जुलाई 1969 को, अंततोगत्वा मध्य प्रशांत के रिकवरी एरिया में यूएसएस हॉर्नेट पर सवार होकर अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्रियों का स्वागत किया। अपोलो 14 के बाद लूनर क्वारेंटीन प्रोजेक्ट को बंद कर दिया गया क्योंकि वैज्ञानिक निष्कर्षों में चंद्रमा से मिले नमूनों में किसी भी तरह की जैविक गतिविधि के सबूत नहीं पाए गए थे और न ही चंद्रमा से लाई गई सामग्री को मानव जीवन या मानव जीवन जैसी दूसरी स्थितियों के लिए नुकसानदेह पाया गया था। अपोलो 15, 16 और 17 के चालक दल के सदस्य इस अनुभव से वंचित रह गए।