Wednesday, April 9, 2025
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अमेरिका में भारतीय मसालों की सुगंध

कैलिफ़ोर्निया की एक कंपनी के एक ही स्रोत से लिए गए सुगंधित मसाले सदाजीविता के साथ ही भारतीय भोजन पाक कला और संस्कृति के बारे में समझ को विस्तार दे रहे हैं।

सना जावेरी कादरी द्वारा शुरू की गई डायस्पो‍रा कंपनी (इनसेट) गुलाबी लहुसन (ऊपर चित्र) जैसे खास स्वाद वाले मसालों के लिए सीधे किसानों के साथ काम करती है। कैलिफोर्निया में मुख्यालय वाली इस कंपनी द्वारा अमेरिका और अन्य स्‍थानों पर इन मसालों को उपभोक्ताओं को पहुंचाया जाता है। (फोटोग्राफः साभार डायस्पोरा कंपनी)

सना जावेरी कादरी के लिए- प्रगति हल्दी, बिंदु काली सरसों और नंदिनी धनिया और अन्य दक्षिण एशियाई मसाले भोजन में स्वाद का तड़का लगाने भर वाले स्वादिष्ट पाउडर से बढ़कर हैं। कादरी मसालों की इस दुनिया को शानदार अंतरराष्ट्रीय कारोबार के अवसर के रूप में देखती हैं। कादरी डायस्पोरा कंपनी की संस्थापक और सीईओ हैं। इस कंपनी का मुख्यालय कैलिफ़ोर्निया में है और यह पूरे अमेरिका और उससे आगे, स्वादिष्ट मसालों को किसानों से सीधे खरीद कर उपभोक्ताओं तक पहुंचाती है।

डायस्पोरा कंपनी हानिकारक रसायनों से रहित मसालों की बिक्री में निपुण है और कंपनी को इस बात का गर्व है कि वह बाजार में जाने से पहले हर फसल में संदूषण की सावधानी से जांच करती है।

इस कंपनी के मसाले एक ही स्रोत के होते हैं, जिसका मतलब है कि डायस्पोरा कंपनी की पैकेजिंग में आने वाली सभी धनिया, मिर्ची और सरसों की उपज एक ही खेत में हुई है। इस तरह से मसालों की खरीद से कादरी और उनकी टीम को हर मसाले की गुणवत्ता केअलावा यह सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है कि किसानों को उनके काम के लिए उचित भुगतान मिल सके। हर साल अपनी भारत यात्रा  के दौरान कादरी निजी तौर किसानों से अपने संबंधों को बनाए रखने के लिए हर उस खेत पर जाती हैं जिनके साथ उनकी कंपनी काम करती है। वह उनके खेतों की उपज के कारोबार के काम में उनके साथ निकटता से काम करती हैं और बिना कीटनाशकों के इस्तेमाल के मसालों के उत्पादन के तरीके खोजने में उनकी मदद करती हैं।

डायस्पोरा कंपनी के लिए मणिपुर में शिवथेई मिर्च उगाने वाले जिनोरिन एंगकांग ने 2021 में वोग पत्रिका के एक लेख में कहा, ‘‘सना ज्यादा लाभ का मार्जिन देती हैं। वह हमें एकमुश्त भुगतान करती हैं और साथ ही वह मिर्च के बीच रतालू, सोया और धान जैसी स्वदेशी खेती के तरीकों को भी अपनाती हैं।’’

डायस्पोरा कंपनी पूरे भारत से अपने मसाले मंगवाती है। कश्मीरी मिर्च और केसर उत्तर भारत से आते हैं, जबकि भारत के पूर्वी इलाकों से शिवथेई मिर्च और नगा पहाडि़यों से गुड़हल और दूसरी चीजें आती हैं। बिंदु काली सरसों देश के मध्य क्षेत्र से, बराका इलायची दक्षिण से जबकि नंदिनी धनिया पश्चिम से आता है।

इनके प्रयासों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है और बड़े पैमाने पर प्रसंशा प्राप्त की है। फूड और वाइन ने डायस्पोरा कंपनी के बारे में लिखा है, ‘‘राशन की दुकानों में मिलने वाली हल्दी की तुलना अगर इस हल्दी से की जाए तो फर्क दिन और रात का है। आपको इस जैविक रूप से और एक ही स्रोत से ली गई हल्दी के बारे में जानने की जरूरत है।’’ वोग पत्रिका में तमार एडलर ने लिखा है, ‘‘डायस्पोरा कंपनी की प्रगति हल्दी इतनी सुगंध वाली है कि आप पर इसका नशा छा जाए। अरण्य कालीमिर्च पके हुए फल की तरह महकती है और स्वाद धुएं, चॉकलेट और संतरे की तरह महसूस होता है।’’ द इनफेचुएशन फूड वेबसाइट की समीक्षक डायना त्सुई लिखती हैं, ‘‘इन मसालों और आमतौर से सुपरमार्केट से खरीदे गए मसालों के स्वाद में बहुत अंतर होता है। इनका जायका यकीनन तेज होता है और बहुत कुछ उन पौधों जैसा ही होता है जहां से वे लाए जाते हैं।’’

कादरी ने स्पैन को बताया कि अहम प्रशंसा उत्साहवर्धक होती है सकारात्मक प्रचार के बिना कंपनी वहां नहीं होती, जहां आज खड़ी है- लेकिन कंपनी की उपलब्धियों की व्यापक प्रशंसा का गहरा महत्व भी है। वह कहती हैं, ‘‘अब हम अपने को संस्कृतियों के रुपातंरक, एक शिक्षक और दक्षिण एशिया के श्रेष्ठतम उत्पादक किसानों के प्रवक्ता के रूप में देखते हैं। यह सब हमारे मिशन की सेवा का हिस्सा है।’’ उनका कहना है, ‘‘अधिक दिखने का मतलब और अधिक बेहतर मसाले, अपने किसानों की और प्रभावी सेवा और यह हमारे लिए नॉर्थ स्टार है।’’

कादरी का जन्म मुंबई में हुआ और वह वहीं पली-बढ़ीं। 2012 में वह कैलिफोर्निया के पोमोना कॉलेज में फूड और विजुअल आर्ट के अध्ययन के लिए अमेरिका गईं। चार साल बाद, सैन फ्रांसिस्को स्थित एक ग्रॉसरी स्टोर में काम करते हुए कादरी को अमेरिकी खाद्य संस्कृति में हल्दी के इस्तेमाल के बढ़ते चलन का अहसास हुआ- खासतौर पर एक लोकप्रिय कॉफी पेय में इसके इस्तेमाल का। उनका ध्यान अमेरिका में इस्तेमाल होने वाली हल्दी में मुंबई के मुकाबले बहुत कम खुशबू की तरफ भी गया। इस बारे में और जानकारी के लिए कादरी ने भारत लौटने का फैसला किया।

उन्होंने भारतीय खेतों में घूमते हुए महीनों बिताए और केरल स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ स्पाइस रिसर्च में बातचीत की। वह इस मुलाकात को जीवन बदलने वाली घटना मानती हैं। उन्होंने 2017 में सिर्फ एक उत्पाद- प्रगति हल्दी के साथ डायस्पोरा की शुरुआत की -जिसे उन्होंने प्रभु कासरनेनी के एक ही खेत से लिया था।

कादरी लिखती हैं, ‘‘बड़ा स्वप्न अब निश्चित रूप से नए, स्वादिष्ट और वाकई उचित मसाला कारोबार के रूप में आगे बढ़ने लगा था।’’

डायस्पोरा कंपनी का विकास और उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलता अपने आप में एक बानगी है। आज कंपनी में भारत के अलावा, अमेरिका, इंगलैंड और सऊदी अरब के एक दर्जन से ज्यादा कर्मचारियों की टीम काम कर रही है। वे 150 से अधिक खेतों में उत्पादित दर्जनों किस्म के मसाले बेचते हैं।

कंपनी का जोर सदाजीवी एवं जैविक कृषि और किसानों से सीधा संपर्क बढ़ाने के अलावा रासायनिक प्रदूषण और मसाला कारोबार से आमतौर पर संबद्ध ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने पर है। डायस्पोरा कंपनी की अमेरिका में बढ़ती लोकप्रियता ने भारतीय भोजन पकाने की कला और संस्कृति के बारे में जानकारी और समझ को विकसित किया है। अमेरिका, विश्व में मसालों का सबसे बड़ा उपभोक्ता और आयातक है।

कादरी के लिए, डायस्पोरा कंपनी की व्यापक सफलता एक खंडित अतीत के ज्ञान और एक बेहतर भविष्य के सपने के साथ शुरू हुई। वह कंपनी की वेबसाइट पर लिखती हैं, ‘‘इस समुदाय में रहने का मतलब अपने उस क्षेत्र की संस्कृति और विरासत के साथ गहराई से जुड़ना है, जहां से हम अपना उत्पाद मंगाते हैं और समय के साथ सीख हासिल करते रहे हैं।’’ वह लिखती हैं कि, ‘‘इससे मेड इन साउथ एशिया का मतलब जटिल और कहीं गहरा बन गया है, यह हमें तय करना है कि हम अपनी आजादी, अपने संघर्ष और भोजन के जरिए अपने डायस्पोरा की कहानी कैसे बयान करते हैं।’’

माइकल गलांट एक लेखक, संगीतकार और उद्यमी हैं और न्यू यॉर्क में रहते हैं।

टैगोर राष्ट्रीय सांस्कृतिक अनुसंधान फेलोशिप

टैगोर नेशनल फ़ेलोशिप फ़ॉर कल्चरल रिसर्च योजना का उद्देश्य संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले विभिन्न संस्थानों और देश में पहचाने गए अन्य सांस्कृतिक संस्थानों को सशक्त और पुनर्जीवित करना है, ताकि विद्वानों/शिक्षाविदों को इन 38 संस्थानों से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और वे पारस्‍परिक हितों की परियोजनाओं पर काम कर सकें। संस्थानों में नई ज्ञान पूंजी डालने के उद्देश्य से, इस योजना में इन विद्वानों/शिक्षाविदों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी परियोजनाओं में उपयोग करने के लिए संस्थानों के विशिष्ट संसाधनों का चयन करें और उन शोध कार्यों को करें, जो इन संस्थानों के मुख्य उद्देश्यों से संबंधित हैं। यह भी उम्मीद की जाती है कि शोध कार्य संस्थान को एक नई रचनात्मक धार और अकादमिक उत्कृष्टता के साथ समृद्ध करेगा।

टैगोर राष्ट्रीय सांस्कृतिक अनुसंधान फेलोशिप योजना के दिशानिर्देशों के अनुसार, पात्र लाभार्थियों को पहले से ही पर्याप्त संख्या में छात्रवृत्ति/फेलोशिप प्रदान की जाती है, अर्थात एक वर्ष में अधिकतम 25 विद्वान और 15 फेलो।

टैगोर नेशनल फेलोशिप फॉर कल्चरल रिसर्च की योजना के तहत चयनित विद्वानों/फेलो द्वारा किए गए शोध कार्य की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए, उनके आवेदनों के साथ-साथ छमाही प्रगति रिपोर्ट की जांच सबसे पहले संबंधित प्रतिभागी संस्थान की संस्था स्तरीय खोज-सह-जांच समिति (आईएलएसएससी) द्वारा की जाती है। इसके बाद, इन आवेदनों और प्रगति रिपोर्टों को मंत्रालय द्वारा विधिवत गठित सचिव (संस्कृति) की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय चयन समिति (एनएससी) के समक्ष अपनी संस्तुति देने के लिए रखा जाता है।

यह जानकारी केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री श्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने आज राज्य सभा में एक लिखित उत्तर में दी।

“भारतीय संस्कृति बिना कोई नुकसान किए, लगातार समृद्ध हो रही है- श्री सुरेश सोनी

नई दिल्ली। एडवांस्ड स्टडी इंस्टीट्यूट ऑफ एशिया (एएसआईए), एसजीटी यूनिवर्सिटी के सहयोग से ‘प्रोजेक्ट मौसम’ के तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) द्वारा आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेमिनार ‘मानसून: सांस्कृतिक और व्यापार प्रभाव का क्षेत्र’ के समापन सत्र के दौरान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सह-सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी ने ज़ोर देकर कहा कि यूरोपीय प्रभाव के उलट, भारतीय संस्कृति ने बिना किसी विनाश का कारण बने, स्थानीय परंपराओं को समृद्ध किया है। उन्होंने कहा कि यही वजह है कि इन क्षेत्रों में भारत के प्रति सम्मान आज भी कायम है। आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी,  प्रोजेक्ट मौसम के निदेशक डॉ. अजित कुमार  और एसजीटी विश्वविद्यालय में अनुसंधान निदेशक, एएसआईए, प्रोफेसर अमोघ राय भी सत्र में मौजूद थे।

अपने संबोधन के दौरान, श्री सुरेश सोनी ने नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपॉल की दक्षिण एशिया की यात्रा के दौरान, भारत की पहली यात्रा का जिक्र किया। वह एक ऐसा अनुभव था जिसने उन पर अमिट छाप छोड़ी। नायपॉल ने इस यात्रा के दौरान जो कुछ देखा उससे बेहद प्रभावित होकर, उन्होंने दिल्ली में एक बैठक के दौरान अपने विचार साझा किए। उन्होंने देखा कि भारत के बारे में दुनिया की धारणा काफी हद तक पिछले 250 वर्षों में तैयार की गई कहानियों पर आधारित है। उन्होंने कहा कि इन धारणाओं का अधिकांश भाग भारत के वास्तविक सार को सामने लाने में विफल रहा है। हांलाकि उन्होंने तर्क दिया कि अगर पिछले 2500 वर्षों के लेखन को सामने लाया जाए, तो उनसे भारत की अधिक प्रामाणिक और सूक्ष्म छवि उजागर हो सकेगी, जो इसकी समृद्ध सांस्कृतिक और दार्शनिक विरासत को दर्शाती है।

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत के अंतर्संबंध और प्रभाव उस दर्शन में गहराई से निहित हैं, जो वैदिक काल से प्रचलित है। वैदिक युग के बाद से जीवनशैली में विविधता के बावजूद, एक समग्र परिप्रेक्ष्य हमारे समाज में एक अंतर्निहित एकता को दर्शाता है। उन्होंने विस्तार से बताया कि वैदिक प्रार्थनाएं विश्व कल्याण के दर्शन का प्रतीक हैं, जो एक ऐसी दृष्टि को बढ़ावा देती है जो लौकिक सीमाओं से परे भी फैली हुई है। जब हम भारत के प्रभाव, खासकर दक्षिण पूर्व एशिया पर बात करते हैं,  हमें इस क्षेत्र और उससे परे भी भारत के सांस्कृतिक प्रभाव को देखना चाहिए। श्री सोनी ने जीवन के विभिन्न पहलुओं की परस्पर संबद्धता पर प्रकाश डालते हुए भारत के इतिहास और दर्शन को समझने के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण रखने की वकालत की। उदाहरण के लिए, उन्होंने दर्शाया कि कैसे वाणिज्य देवत्व के साथ जुड़ा हुआ है, जो एक ऐसे वैश्विक दृष्टिकोण को दर्शाता है, जहां सभी तत्व आपस में जुड़े हुए हैं। उन्होंने इस एकीकरण के अवतार के रूप में मंदिर वास्तुकला को विस्तार से बताया और विस्तार से विश्लेषण किया कि कैसे यह प्रतीकात्मक रूप से मानवता के विकास का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें मौलिक प्रवृत्ति से लेकर कला, सौंदर्यशास्त्र, आध्यात्मिकता और अंततः निर्गुण (निराकार निरपेक्ष) तक शामिल हैं।

उन्होंने आग्रह करते हुए कहा कि भारत के ऐतिहासिक आख्यान में लुप्त कड़ियों को उजागर किया जाना चाहिए, क्योंकि उनमें इसके दर्शन की गहराई को उजागर करने की क्षमता है। उन्होंने तर्क दिया कि यह भारत के इतिहास लेखन को एक नया आयाम प्रदान करेगा। श्री सोनी ने मूल क्षेत्रों की काव्य भाषा को संरक्षित करने के महत्व पर भी जोर दिया, क्योंकि यह एक सांस्कृतिक अनुगूंज का प्रतीक है, जिसे बनाए रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह सम्मेलन सही दिशा में उठाया गया एक कदम है, क्योंकि यह भारत की गहन सांस्कृतिक और दार्शनिक विरासत की खोज और समझ की सुविधा प्रदान करता है।

समापन सत्र के दौरान पेपर प्रस्तुतकर्ताओं को पुरस्कार प्रदान किये गये। मानद उल्लेख पुरस्कार डॉ. सहेली चटराज को उनके पेपर ‘झेंग हीज़ वॉयजेस अक्रॉस द सीज़: कनेक्टिंग ट्रेड रूट्स इन एशिया एंड अफ्रीका’ के लिए दिया गया। सर्वश्रेष्ठ पेपर प्रस्तुतिकरण पुरस्कार कीर्तना गिरीश को उनके पेपर ‘हार्मोनीज ऑफ हाइब्रिड कल्चर: द रोल ऑफ साउथ इंडियन म्यूजिक इन शेपिंग साउथ ईस्ट एशियन कल्चरल लैंडस्केप्स’ के लिए दिया गया। सर्वश्रेष्ठ पेपर पुरस्कार जूही माथुर को उनके पेपर, ‘मल्टीफेसेटेड रामायण इन साउथ ईस्ट एशियन हिस्ट्री ऑफ मास्क इन रामायण प्लेज़ ‘ के लिए प्रदान किया गया। अंत में, प्रोजेक्ट मौसम के निदेशक डॉ. अजित कुमार ने धन्यवाद ज्ञापन दिया। उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया में समुद्री व्यापार के विविध विषय पर विचारों के व्यावहारिक आदान-प्रदान पर बात की, जिसमें सदियों से इस क्षेत्र को आकार देने वाले सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों पर ज़ोर दिया गया।

कश्मीर में शिवरात्रि

हमारा देश सांस्कृतिक दृष्टि से एक समृद्ध देश है। इसकी वैविध्यपूर्ण संस्कृति हमारे विभिन्न त्योहारों और पर्वों में झलकती है।यहाँ होली, दीवाली, दशहरा, पोंगल, महाशिवरात्रि, क्रिसमस, ईद इत्यादि अनेक त्योहार मनाए जाते हैं।भारतवासी ये त्योहार पूर्ण उत्साह और धूमधाम से मनाते हैं। हमारे इन सभी त्योहारों और पर्वों में महाशिवरात्रि का त्यौहार विशेष महत्व रखता है। हिन्दू-कैलेंडर के अनुसार यह त्योहार प्रतिवर्ष फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। शिवरात्रि अथवा महाशिवरात्रि भगवान शिव पर आस्था रखने वाले भक्तजनों के लिए एक बहुत बड़ा दिन होता है। महाशिवरात्रि न केवल भारत में, अपितु नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी मनाई जाती है।

कश्मीर में शिवरात्रि को ‘हेरथ’ कहते हैं और यह त्योहार वहाँ के सभी त्योहारों में अपना एक विशेष महत्व रखता है।मनाने की विधि भी तनिक भिन्न और अनूठी है।घाटी से पंडितों के निर्वासन के बावजूद कश्मीरी पंडित, जो जहां भी हैं, पूर्ण उत्साह,आस्था और श्रद्धा के साथ इस पर्व को मनाते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ‘हेरथ’ शब्द संस्कृत शब्द हर-रात्रि यानी शिवरात्रि से निकला है। एक मान्यता यह भी है कि यह फारसी शब्द हैरत का अपभ्रंश है। कहते हैं, कश्मीर घाटी में पठान शासन-काल के दौरान कश्मीर के तत्कालीन तानाशाह पठान गवर्नर जब्बार खान ने कश्मीरी पंडितों को फरवरी में यह पर्व मनाने से मना कर दिया था। अलबत्ता उसने यह पर्व जून-जुलाई में मनाने की अनुमति दी थी। खान को पता था कि इस पर्व का हिमपात के साथ जुड़ाव है। शिवरात्रि पर जो गीत गाया जाता है, उसमें भी शिव-उमा की शादी के समय सुनहले हिमाच्छादित पर्वतों की खूबसूरती का वर्णन किया जाता है। इसलिए उसने जानबूझकर इसे गर्मी के मौसम में मनाने की अनुमति दी लेकिन गवर्नर समेत सभी लोग उस समय हैरत में पड़ गये जब उस वर्ष कश्मीर में जुलाई में भी भारी बर्फबारी हो गयी। तभी से इस पर्व को कश्मीरी में हैरत यानी  ‘हेरथ’ कहते हैं।(आगे इस कहानी को और विस्तार से समझाया गया है।)

एक और जनश्रुति भी प्रचलित है कि एक दिन दक्ष प्रजापति ने महायज्ञ रचाया।   इस यज्ञ में शंकर को नहीं बुलाया गया। शंकर की पत्नी सती से अपने पति का  यह अपमान सहा न गया।वह हवन-कुण्ड में कूद गयी। तब शिव ने पुनर्विवाह न करने का निश्चय किया।उधर, सती ने हिमालय के पर्वतों में एक बार फिर जन्म लिया। वयस्क होने पर उसने शंकर को पाने के लिए घोर तपस्या की। बहुत समय व्यतीत हो जाने के पश्चात शंकर ने हिमालय-पुत्री पार्वती को तपस्या में और निमग्न रखना उचित नहीं नहीं समझा। वे उस जंगल में गये  जहां पार्वती तपस्या कर रही थी। ज्योंही उन्होंने जंगल में प्रवेश किया और पार्वती को देखा तो उनके मुंह से सहसा निकल पड़ा : ‘हे रते!’ पार्वती ने जब यह सुना, तो उसने आनंदित होकर आँखें खोलीं और उसकी पहली नजर पास में रखे हुए हुए कलश पर पड़ी  जिनसे कुछ ‘बटु’(ब्रह्मचारी) पैदा हुए। ये ‘बटु’ बाद में वटुकनाथ भैरव कहलाये, जिनकी पूजा शिवरात्रि के दिन होती है। शिवरात्रि के लिए कश्मीरी शब्द ‘हेरथ’ ‘हे रते!’ शब्द का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है।

कश्मीर में प्रायः हर कश्मीरी पंडित के घर में एक पूजागृह हुआ करता था जिसे ‘ठोकुर कुठ’(ठाकुर-द्वारा) कहा जाता था। शिवरात्रि की पूजा यहीं पर होती है।शिवरात्रि से कई दिन पहले पूरे घर की साफ-सफाई करके पूजास्थल पर शिव और पार्वती के दो बड़े कलश समेत बटुक भैरवनाथ और पूरे शिव परिवार समेत करीब दस कलशों की स्थापना की जाती है। पहले कुम्हार खास तौर पर इस पूजा के लिए मिट्टी के कलश बनाते थे लेकिन अब पीतल या अन्य धातुओं के कलश रखे जाते हैं। फूल मालाओं से सजे कलश के अंदर पानी में अखरोट रखे जाते हैं।अखरोट को चार वेदों का प्रतीक माना जाता है। कश्मीर में हेरथ अर्थात् शिवरात्रि का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णपक्ष की द्वादशी/त्रयोदशी को मनाया जाता है जबकि शेष भारत में अगले दिन यानी चतुर्दशी को महाशिवरात्रि मनाई जाती है। कश्मीरी विद्वान अगनिशेखर के अनुसार “कश्मीर की शैवी परंपरा में शिवरात्रि के अवसर पर प्रमुख रूप से ‘वटुक भैरव’ की ही पूजा होती है। वटुक भैरव के साथ-साथ शक्ति और अन्य भैरवों की पूजा त्रयोदशी से विसर्जन तक चार-पाँच दिनों तक नियमित रूप से चलती है।

फाल्गुन मास की इन विशेष तिथियों का शिव के ‘हर’ रूप से जोड़कर नाम लिया जाता है। जैसे ‘हुर्य ओकदोह’  यानी हर-संबंधी प्रतिपदा, ‘हुर्य द्वितीया, हुर्य तृतीया इसी तरह हर तिथि के साथ ‘हुर्य’ उपसर्ग लगता है। त्रयोदशी के दिन निश्चित मुहूर्त पर विशेष कर प्रदोषकाल अर्थात् सन्ध्या के समय वटुक भैरव की विस्तृत पूजा शुरू की जाती है। पूरे भारत में महाशिवरात्रि पर प्रमुखता से देवी-पुत्र वटुकनाथ भैरव की पूजा शायद कश्मीरी पंडित ही करते होंगे।“ अगनिशेखरजी आगे कहते हैं: “कश्मीर के स्थानीय दुर्लभ ग्रंथ ‘नीलमतपुराण’ में फाल्गुन मास में शिवरात्रि मनाए जाने के नियम, पदार्थ और विधि के बारे में जानकारी मिलती है। शिवरात्रि के अवसर पर उपवास, पूजा और भक्तिपूर्वक रात्रि-जागरण में गीत, नृत्य व संगीत से इसे भरपूर उत्सव की तरह मनाने के स्पष्ट निर्देश हैं। एक जगह (श्लोक ५३१-५३३) तो यहाँ तक लिखा है कि भले ही सालभर आप अपनी इच्छानुसार महादेव शंकर की पूजा करें या न करें, फाल्गुन की कृष्ण चतुर्दशी को उनकी पूजा अवश्य करें:

”तस्मिन् मासे ध्रुवं पूज्यो देवः चतुर्दशीम्” (श्लोक ५३२)”

चूँकि वटुकनाथ जल कुम्भ से प्रकट हुए थे  इसलिए यहां महाशिवरात्रि के दिन जलकुम्भ (मिट्टी का कलशरूपी बर्तन, जिस में अखरोट तथा अन्य सूखे मेवे डाले जाते हैं) की पूजा होती है। साथ ही वटुकनाथ के अन्य सहकारी भैरव (जिन को कश्मीरी में ‘सनिवारी’ कहते है) की पूजा भी शास्त्रोक्त विधि के अनुसार की जाती हैं।  सनिवारि का शाब्दिक अर्थ है सात भैरव बताया जाता है जो जलकुंभ के आमने-सामने मिट्टी के छोटे-छोटे सात बर्तनों के रूप में रखे जाते हैं। पूजा-स्थल पर वटुक भैरव का मांगलिक कलश सजता है। पूजा के दौरान इस वटुकराज भैरव के कलश में जल, अखरोट, मिश्री, दूध और फूल चढाए जाते हैं। फिर ”रामगोड” (शिव ही का रूप) छोटे घड़े को स्थापित किया जाता है। इसी क्रम में वैष्णव ऋषियों के रूप में एक पात्र ‘डुलिज’ तथा दीया और रतनदीप आदि कई पात्र अपने-अपने निश्चित स्थान पर रखे जाते हैं। प्रत्येक पात्र को गेंदे की फूलमालाओं से, सिन्दूर के तिलक से, मौली और बेलपत्र से सश्रद्धा सजाया जाता है। शिवरात्रि अर्थात त्रयोदशी या द्वादशी-त्रियोदशी से अमावस्या तक प्रतिदिन वटुकनाथ भैरव और इनके अन्य सहकारी भैरवों की पूजा पूरी श्रद्धा के साथ की जाती है।सभी पात्रों का जल नियमित रूप से बदला जाता है। अमावस्या के दिन वटुक-भैरव के कलश को वितस्ता के किनारे पर ले जाकर पूजा में चढ़ाई गयी सामग्री का विसर्जन किया जाता है। इस के बाद कलश रूपी बर्तन/गगरी को गृहस्वामी अपने घर लाते हैं। घर के पहले से बंद दरवाजे को खटखटाया जाता है। दरवाजे के भीतर(गृहस्वामिनी) और बाहर वाले(गृहस्वामी) व्यक्ति के बीच यह वार्तालाप होता है :

कौन हैं ?
मैं हूं रामब्रोर।
क्या ले कर आये हो?
अन्न, धन और रोजगार।
साक्षी कौन है?
भैरवरूप बटुकनाथ।

इसके बाद दरवाजे को खोला जाता है। घर के सभी सदस्य प्रसन्न होकर कलश में डाले गये अखरोटों को तोड़ कर प्रसादस्वरूप खाते हैं। बाद में अपने सगे-सम्बन्धियों को नैवेदय-स्वरूप ये अखरोट बांटे जाते हैं। विशेषकर विवाहिता बहनों और बेटियों को अनिवार्य रूप से अखरोट प्रसाद के तौर पर भेजे जाते हैं।

पूर्व में कहा जा चुका है कि महाशिवरात्रि को कश्मीरी में ‘हेरथ’ कहते हैं। हेरथ के अगले दिन एक अनुष्ठान और होता है जिसे ‘सलाम’ कहते हैं।‘सलाम’ का प्रयोजन अथवा इस रीति की क्या पृष्ठभूमि है?यह जानना ज़रूरी है।

1817 के आसपास जबारखान नाम का एक अफगान कश्मीर का हुक्मरान हुआ करता था।एक दिन इस हुक्मरान का मनचला बेटा कश्ती पर सवार होकर जेहलम नदी की सैर कर रहा था।एक घाट पर उसने देखा कि कुछ बालाएँ खड़ी हैं जिन में से एक सुंदर-बाला मिट्टी से अपने हाथ धो रही थी। कश्ती पर सवार अफगान हुकुमरान के साहबजादे ने मन में सोचा कि यदि मैं मिट्टी होता तो मुझे इस बाला के कोमल शरीर को छूने का मौक़ा मिलता। साहबजादा लडकी को घूरते हुए धीरे-धीरे आगे निकल गया।लड़की ने फब्ती कसी “तुझे कोढ हो!” प्रभु की कृपा से ऐसा ही हुआ।खानजादे को कोढ़  की बीमारी लगी।वैद्य-हकीम कोढ़ को ठीक करने में असमर्थ रहे।

जबारखान को जब पता चला कि उस का बेटा कन्या के अपवचन/शाप से पीड़ित हुआ है तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और उस कन्या को दरबार में पेश किया गया।डर के मारे कन्या ने साहबजादे की करतूत/बुरी नजर के बारे मे जानकारी दी।कन्या को कत्ल करने का हुक्म जारी किया गया।कन्या ने निवेदन किया कि यदि मेरे ‘पुलहोर’(घास की जूती) को जला कर उस की राख को कोढ़ पर मला जाय तो निश्चित ही कुष्ठ-रोग ठीक हो जाएगा।कन्या के कहने पर ऐसा ही किया गया तो खान के बेटे का कोढ़ ठीक हो गया।कन्या से जब इस वाक्-सिद्धि के बारे में पूछा गया तो उत्तर मिला कि जब ‘हेरथ’ के दौरान बर्फ से मन्त्र-पूजा की जाती है तो वाक्-सिद्धि प्राप्त होजाती है।जबारखान ने कश्मीरी पंडितओ की इस मंत्र-शक्ति को समूल नष्ट करने की ठान ली तथा हेरथ/महाशिवरात्रि को आषाढ़-मास में मनाने का फरमान जारी कर दिया क्योंकि इस महीने में न तो हिमपात ही होगा और न कोई मन्त्र-सिद्धि ही होगी।आदेश का कठोरतापूर्वक पालन कराया गया।

कश्मीरी पंडितों को विवश होकर आषाढ़ मास की कृष्ण-त्रयोदशी की रात्रि को हेरथ/महाशिवरात्रि की पूजा करनी पड़ी।सभी शिवभक्तों के मन-प्राण अवसादग्रस्त और व्यथित थे।सजल नेत्रों से शिव/आशुतोष का भजन-पूजन कर रहे थे।उधर, भैरव और उनके स्वामी देवाधिदेव महादेव अपने भक्तों की सुध लेने के लिए प्रयासरत थे।प्रभु की लीला देखिए! सारी रात हिमपात हुआ।प्रातःकाल लोग बर्फ देखकर आश्चर्यचकित हुए।बर्फ गिर रही थी और थमने का नाम न्हीं ले रही थी। चहुँ ओर तबाही का दृश्य था।फसल से भरपूर खेत-खलिहान बर्फ में समो गये थे जिन्हें देख-देख जनता त्राहि-त्राहि करने लगी।जबारखान को लोग कोसने लगे।मारे खौफ और अकुलाहट के अफगान शासक जबारखां अपने दरबारियों से इस दैवी आपदा/त्रासदी का समाधान ढूंढने के लिए मशविरा करने लगा।तय किया गया कि तुरंत भगवान् शिव के पास जाकर माफी मांगी जाए जो इस समय पंडित-घरों में विराजमान हैं। पंडितों/हिन्दुओं के घर जा-जाकर शासक जबार खां ने ‘सलाम’ किया तथा अपने किये की माफी मांगी। शेष मुसलमानों ने भी ऐसा ही करते हुए पण्डित घरों के द्वार पर जा-जाकर भगवान् शिव एवं पार्वती-माता को सलाम करते हुए माफी मांगी।कहते हैं, कुछ देर के बाद ही बर्फ का गिरना बन्द हो गया। तबसे ‘हेरथ’ के दूसरे दिन पण्डितों के घर जाकर गैर-हिन्दुओं द्वारा ‘सलाम’ करने की प्रथा/रीति जारी है।अब तो पंडित भी एक-दूसरे को इस दिन ‘सलाम’ कहकर अभिवादन करते हैं।

जबारखां की इस क्रूरता पर ताना कसते हुए आज भी कश्मीर में ये उक्ति प्रचलित है:-“वुछतोन यि जबार जंद्ह, हारस ति कोरुन वन्द्ह” अर्थात ‘इस जबार फटीचर की औकात तो देखो,आषाढ़ में भी(प्रभु ने)जाड़ा कर दिया।‘

अंत में अग्निशेखरजी की इन पंक्तियों को उद्धृत करना अनुचित न होगा: “शिवरात्रि, वास्तव में, कश्मीरी पंडितों का सबसे बड़ा पर्व है। यह पर्व इनके दार्शनिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक डीएनए/धरोहर का बहुमूल्य हिस्सा है। पारंपरिक दृष्टि से वे इसे विषम से विषमतर स्थिति में भी मनाते आए हैं और आज भी उसी श्रद्धानत भाव से मनाते हैं। इसे वे ‘रीथ पालुन” कहते हैं अर्थात् घर में चाहे किसी की मृत्यु तक भी क्यों न हो जाए, वे अविच्छिन्न रूप से इस रीति का पालन करेंगे ही करेंगे। ‘वटुक/गगरी’ भरेंगे ही क्योंकि ‘हेरथ’ सृष्टि के कल्याण की रात्रि है।  शिव और शक्ति के सम्मिलन की रात्रि है। दोनों के विवाह की रात्रि है।“

आशा की जानी चाहिए कि इस बार की शिवरात्रि कश्मीरी पंडितों के लिए सुख-समृद्धि का नूतन संदेश लेकर आएगी।

DR.S.K.RAINA
2/537 Aravali Vihar(Alwar)
Rajasthan 301001
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होली पर राष्ट्रीय बाल कविता प्रतियोगिता के प्रति अच्छा रुझान

कोटा  / होली पर राष्ट्रीय बाल कविता प्रतियोगिता के प्रति अच्छा रुझान देखने को मिल रहा है। राजस्थान सहित उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा राज्यों से अब तक 48 साहित्यकारों और बच्चों की कविताओं की प्रविष्टियां प्राप्त हो चुकी हैं।
बाल साहित्य लेखन को बढ़ावा देने के लिए प्रतियोगिता का आयोजन संस्कृति, साहित्य, मीडिया फोरम कोटा एवं समरस संस्थान साहित्य सृजन भारत गांधीनगर की कोटा इकाई के संयुक्त तत्वावधान में किया जा रहा है। इच्छुक प्रतियोगी टाइप की हुई अपनी प्रविष्ठि व्हाट्सअप नंबर 9413350242 अथवा 94146 61688 पर 28 फरवरी तक भेज सकते हैं।
फोरम के संयोजक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने बताया कि प्रतियोगिता 10 वर्ष आयु तक के बच्चे, 10 से  18 वर्ष आयु के किशोर बच्चें,19 से 35 वर्ष आयु के नवोदित युवा रचनाकार 35 वर्ष आयु से ऊपर महिला  एवं पुरुष रचनाकार पांच वर्गों  में आयोजित की जा रही है। प्रथम तीन वर्ग में जन्म तिथि का प्रमाण पत्र भेजना आवश्यक होगा। सभी श्रेणियों में प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वाले प्रतियोगियों को पुरस्कृत किया जाएगा। प्राप्त रचनाओं का एक संकलन प्रकाशित किया जाएगा।
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हमारी संस्कृति का आधार ही प्रेम है…

प्रेम जो गूंगे को वाचाल , पत्थर को मोम, राक्षस को मानव , पशु को देव, मनुष्यत्व को देवत्व तक पहुंचा दे, ईर्ष्या को मिटाकर हृदय में सरसता की गुलाबी सुगंध बिखेर दे, जीवन में फागुनी बहार ला दे,उल्लास और उत्साह की असीमित उर्मियों से मन को तरंगायित कर दे,वही  तो प्रेम है।जीवन का प्राण है ।आधार है। भारतीय चिंतन का पोषक है और है मानवीय संवेदनाओं का चरमोत्कर्ष। जहां कोई अपना -पराया ,छोटा- बड़ा अमीर-गरीब,जड और चेतन नहीं। चेतना का विस्तृत हो जाना ही प्रेम का सर्वोच्च रूप है।
 “रसो वै स:” और ब्रह्मानंद सहोदर उसी प्रेम को कहा गया है। जो रस रूप होकर हर जगह,हर रूप में दृष्टिगोचर और जीवन में साकार रुप में प्रतिफलित होने लगता है, और तब कृष्ण दीवानी मीरा कह उठती हैं-
“हे री !मैं तो प्रेम दीवानी , मेरो दरद न जाने कोय।”
ब्रज की गोपियां गाने लगती हैं –
 “कोऊ माई लहै री गोपालहिं।
दधि को नाम स्याम सुंदर रस ,बिसरि गयो ब्रज बालहिं।।”
कृष्ण को यमुना के पुलिन (किनारे,तट)याद आने लगते हैं।
“ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहिं।
हंस सुता की सुंदर कगरी,अरू कुंजन की छांही।।”
 परंतु वही दैवीय प्रेम आत्मिक पवित्रता को छोड़कर जब मात्र दैहिक धरातल तक सीमित हो जाता है ,तब कैसा वीभत्स और कुत्सित हो जाता है, यह वर्तमान जगत् को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। प्रेम के उसी दैवीय रुप को ही रहने दें, वही वंदनीय है,श्लाघनीय है। सदियों से जिसे कवियों ने अपना स्वर दिया है।
शायर गुलज़ार जी के शब्दों में-
 “प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।”
डॉक्टर अपर्णा पाण्डेय
साहित्यकार, कोटा

55वें विश्व पुस्तक मेले पर विशेषः हिंदी पुस्तकों का बाजार बढ़ा है

हिंदी के प्रकाशक लेखकों को रॉयल्टी देने में आनाकानी करते हैं। हिसाब नहीं देते। बिना कॉन्ट्रैक्ट के किताबें छापते हैं। इसका असर पुस्तक मेले में दिखाई देता है क्योंकि अच्छे लेखक नहीं जुड़ते और गुणवत्ता में कमी दिखाई देती है। जब तक पुस्तकों की खरीद बिक्री में भ्रष्टाचार रहेगा हिंदी का प्रकाशन फल फूल नहीं सकता। हिंदी पट्टी में पुस्तक मेला संस्कृति बढ़ी है पर अच्छी किताबों को पाठकों तक पहुंचना एक चुनौती है।

नई आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण के बाद देश में पिछले तीन दशकों में काफी बदलाव देखने को मिले हैं, इसका असर न केवल भारतीय समाज पर पड़ा, बल्कि संस्कृति पर भी पड़ा है, जिसके कारण देश में पुस्तक संस्कृति भी प्रभावित हुई है। अब ब्लॉग, इंटरनेट, ऑनलाइन पत्रकारिता, सोशल मीडिया तथा रील संस्कृति के उभार के कारण भी पुस्तक संस्कृति पर असर पड़ा है। 2014 के बाद देश में दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के बाद हिंदी पट्टी में धार्मिकता और सांप्रदायिकता के विस्तार का असर भी पठन पाठन पर पड़ा है। अब राष्ट्रवादी सरकार भारतीय ज्ञान परंपरा की तरफ लौटने की बात कर रही है, जिसके कारण हिंदी प्रकाशन में पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियां भी दिखाई देने लगी है। हिंदी के प्रकाशकों ने भी अब हिंदुत्ववादी साहित्य को भी छापने में दिलचस्पी दिखाई है।

एक जमाना था जब विश्व पुस्तक मेले में ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’, जैसी किताबें प्रदर्शित नहीं होती थीं लेकिन अब ऐसी किताबें खुलेआम धड़ल्ले से बिक रही हैं। इतना ही नहीं अब गोडसे, वीर सावरकर, गोलवलकर ही नहीं अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी और स्मृति ईरानी आदि पर किताबें भी हिंदी में काफी प्रकाशित होने लगी हैं, जिसे विश्व पुस्तक मेले में देखा जा सकता है। साथ ही साथ धार्मिक पुस्तकों के स्टॉल भी पहले की तुलना में अधिक दिखाई देने लगे हैं लेकिन यह हिंदी प्रकाशन की एक तस्वीर है। इसकी एक दूसरी तस्वीर भी है, जिसमें हिंदी की प्रगतिशील परंपरा और धर्मनिरपेक्ष परंपरा की किताबें भी छपती हैं और मेले में उन्हें भी देखा जा सकता है।

देश में साक्षरता दर और उच्च शिक्षा में दाखिला दर के बढ़ने से अब हिंदी में पाठकों का एक नया वर्ग भी सामने आया है। हालांकि यह वर्ग टीवी और सोशल मीडिया के प्रभाव में है लेकिन वह हिंदी की तरफ उन्मुख हुआ है। हालांकि उसकी रुचियां पहले की तुलना में बदली हैं। अंग्रेजी में जिस तरह चेतन भगत, देवदत्त पटनायक आदि को पढ़ने की एक उत्सुकता युवा पीढ़ी में देखी गई थी वैसे ही एक युवा पीढ़ी हिंदी की दुनिया में भी विकसित हुई है जो लोकप्रिय साहित्य को पढ़ना चाहती है और यही कारण है कि हिंदी के प्रकाशन जगत में पल्प लिटरेचर का भी प्रकाशन हुआ है। इसी से बेस्ट सेलर लेखकों की एक नई धारा विकसित हुई है। हालांकि इसके पीछे प्रकाशकों के प्रचार तंत्र की रणनीति अधिक है क्योंकि वे इस तरह किताबें अधिक बेच पा रहे हैं। पिछले दस पंद्रह सालों में लिट् फेस्ट हिंदी पट्टी में अधिक होने लगे हैं और उससे भी हिंदी में एक नया पाठक वर्ग विकसित हुआ है। यह अलग बात है कि उसका असर पुस्तक संस्कृति पर पड़ा है।

परंतु हिंदी में अब भी कुछ ऐसे प्रकाशक हैं, जो गंभीर और समकालीन साहित्य भी छाप रहे हैं। राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, नई किताब, ग्रंथ शिल्पी, प्रकाशन संस्थान, संवाद प्रकाशन अनामिका पब्लिशर एवं सेतु प्रकाशन। राजपाल एंड संस ने भी काफी ऐसी किताबें छापी हैं, जिसमें गंभीर साहित्य को पढ़ा जा सकता है। पिछले 20-25 वर्षों में हिंदी की दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में युवा लेखक और लेखिकाएं भी सामने आए हैं। इन सारे प्रकाशनों ने अब अपना ध्यान इन पर केंद्रित करना शुरू किया है। इसके अलावा दलित साहित्य और वाम साहित्य भी काफी छपने लगा है।

यह अलग बात है कि अब पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस जैसी संस्था नहीं रही, जिसने एक जमाने में बड़ी संख्या में रूसी और वामपंथी साहित्य को प्रकाशित किया था लेकिन अब भी लेफ्ट वर्ल्ड, गार्गी प्रकाशन, जनचेतना जैसे छोटे प्रकाशकों ने काफी मात्रा में वाम साहित्य को प्रकाशित किया है।

हिंदी की दुनिया में अब समाज विज्ञान की भी काफी किताबें छपने और बिकने लगी हैं। नई पीढ़ी अब समाज विज्ञान की किताबों को हिंदी में पढ़ना चाहती है। एक जमाना था जब समाज विज्ञान की अधिकतर किताबें अंग्रेजी में हुआ करती थीं। लेकिन अब स्थिति बदली है। इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाज शास्त्र की किताबें आने लगी हैं लेकिन अंग्रेजी की तुलना में बहुत कम हैं। हिंदी में पत्रकारिता और दलित तथा स्त्री विमर्श की काफी किताबें आई हैं। लेकिन हिंदी के प्रकाशक लेखकों को रॉयल्टी देने में आनाकानी करते हैं। हिसाब नहीं देते। बिना कॉन्ट्रैक्ट के किताबें छापते हैं। इसका असर पुस्तक मेले में दिखाई देता है क्योंकि अच्छे लेखक नहीं जुड़ते और गुणवत्ता में कमी दिखाई देती है। जब तक पुस्तकों की खरीद बिक्री में भ्रष्टाचार रहेगा हिंदी का प्रकाशन फल फूल नहीं सकता। हिंदी पट्टी में पुस्तक मेला संस्कृति बढ़ी है पर अच्छी किताबों को पाठकों तक पहुंचना एक चुनौती है।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का 55 वां मेला इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि यह 21 वीं सदी के 25 वर्ष गुजरने पर आयोजित हुआ। इन ढाई दशकों में हिंदी की दो नई पीढ़ी सामने आ गई है। साहित्य की दुनिया में बड़ा बदलाव दिख रहा है। कविता कहानी की भाषा और शिल्प में भी बदलाव दिख रहा है तो विषय वस्तु में भी बदलाव नजर आ रहा है। दलित और स्त्री समुदाय से काफी संख्या में लेखक, लेखिकाएं सामने आए हैं और युवा लेखकों की भी फौज आई है। हिंदी के नए प्रकाशकों की संख्या भी बढ़ी है। हिंदी युग्म और रूंख प्रकाशन जैसे नए प्रकाशकों ने युवा वर्ग को आकर्षित किया है। ये नई हिंदी के लेखक हैं, जिनका कंटेंट बीसवीं सदी के लेखकों से अलग है। हिंदी में बाज़ार भी हावी हुआ है, लिट् फेस्ट का चलन बढ़ा है, कॉरपोरेट का प्रवेश हुआ है, इसलिए पारंपरिक साहित्य कम छप रहा है जो आठवें, नौवें दशक तक छपता था। अब नए लेखक नई जीवन शैली की कहानियां लेकर आ रहे हैं। ये आईआईटी, प्रबंधन, मेडिकल की दुनिया की कहानियां हैं, जिसमें प्रेम और ब्रेकअप पहले की तरह नहीं है। अब इन कहानियों की स्त्रियां बेबाक, खुली और आत्मनिर्भर हैं। ये नई स्त्री है।

यह पीढ़ी उदय प्रकाश, अखिलेश और कुमार अम्बुज, देवी प्रसाद के बाद की पीढ़ी है जो इंटरनेट और वेब पत्रिकाओं से निकली है। रेख्ता, कविता कोश, हिंदी समय, हिंदवी, समालोचन, जानकी पुल, सदानीरा जैसे ब्लॉग पढ़ कर निकली है। क्योंकि अब हिंदी की पत्र पत्रिकाओं में साहित्य कम छपता है। प्रकाशकों ने इस परिघटना को ध्यान में रखकर किताबें छपना शुरू किया है। हिंदी में अंग्रेजी के पेंग्विन जैसे प्रकाशकों ने भी काफी किताबें छापना शुरू किया है। अब हिंदी में अमृतलाल नागर, भीष्म साहनी, भगवती चरण वर्मा, यशपाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे बड़े लेखकों के बड़े उपन्यास की परंपरा खत्म हो गई है। हिंदी के प्रकाशक अब भी उपन्यास प्रकाशित करना पसंद करते हैं क्योंकि वह बिकता है। लेकिन पिछले 20 साल में विनोद कुमार शुक्ल, दूधनाथ सिंह, मंजूर एहतेशाम जैसे उपन्यास लिखने वाले लोग नहीं हैं। अब साहित्य में भी फ़ास्ट फ़ूड कल्चर विकसित हुआ है। पेपर बैक किताबों का आवरण और साइज़ भी बदला है। प्रोडक्शन की दृष्टि से किताब पहले से बेहतर निकल रहे हैं लेकिन अधिकतर साहित्य कविता, कहानी उपन्यास तक सीमित है। राजकमल, सेतु, ग्रंथ शिल्पी, गार्गी प्रकाशन, प्रकाशन संस्थान जैसे प्रकाशकों ने विदेशी साहित्य के अनुवाद और समाज विज्ञान की किताबें छापी हैं परंतु  इनकी कीमत बहुत ज्यादा हो गई है।

इससे पता चलता है की हिंदी की दुनिया में किस तरह की पुस्तक संस्कृति विकसित हो रही है। 21वीं सदी के पूर्वार्ध में अब किस तरह की किताबें छप रही हैं, जो पिछली सदी से अलग हैं। हिंदी में अब किस तरह किन किन विषयों की किताबें आ रही हैं, जो पहले नहीं थीं या अब हिंदी का पाठक वर्ग पहले से बदल रहा है। इस पुस्तक मेले में दिखा कि साहित्य की दुनिया में कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, डायरी, यात्रा संस्मरण की किताबें तो छपी रही हैं साथ ही ज्ञान, विज्ञान की भी किताबें काफी छपने लगी हैं। हिंदी के प्रकाशनों के अब दो टारगेट ग्रुप हैं एक तो युवा वर्ग और दूसरा समाज विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी के संसार को विकसित करना। अब हिंदी में रोमिला थापर, चारू गुप्ता जैसे इतिहासकारों की भी किताबें सामने आई हैं तथा कंवल भारती, हितेंद्र पटेल, मणिन्द्र ठाकुर, रामशंकर सिंह, शुभनित कौशिक, अशोक पांडेय जैसे लोगों ने हिंदी में एक नया विमर्श खड़ा किया है। जाहिर है हिंदी का बाज़ार बढ़ा है।

साभार- https://www.nayaindia.com/ से

सर्वोदय कवि घनश्याम प्रजापति “दंगल”

घनश्याम प्रजापति “दंगल” का जन्म एक जुलाई, 1923 ई. तदनुसार सं० 1980 वि० में कप्तानगंज के सन्निकट पटखौली बाबू में हुआ था जो कप्तानगंज से 6 किमी. और तहसील मुख्यालय हर्रैया  और जिला मुख्यालय बस्ती से 17- 17  किमी. दूरी पर स्थित है । इनके पिता का नाम श्री जगेश्वर और माता का नाम श्रीमती मलिका रानी था । दंगल जी की शिक्षा दीक्षा मिडिल तक हुई थी।

बचपन से ही से बड़े यायावरी प्रवृत्ति के थे और इसीलिए वे सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से आचार्य नरेन्द्रदेव के साथ रहने लगे थे। वहां के बाद ये वर्धा, रनियवा”, पवनार, साबरमती आदि आश्रमों में रहकर बिनोवा जी और  गांधी जी के व्यक्तित्व से वहुत प्रभावित हुए। ये सदैव खादी का कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा पहनते थे। ये प्राइमरी विद्यालय के प्रधानाध्यापक भी रहे। कप्तान गंज ब्लाक के करचोलिया फार्म में इन्होंने अपना आवास बना रखा था, जहां विभिन्न प्रकार के पेड़ – पौधों से  दिव्य वाटिका एवं आश्रम जैसा अनुभूति मिलती रही है। इसे बाद में उनके उत्तरजीवियों ने संभाल न सके और अब एक वीरान जंगल की शक्ल में दंगल जी के अतीत का बयान करता रहता है।

श्रीराम बाजपेई  के संरक्षण में रहकर इन्होंने स्काउटिंग का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। धूमधाम कर लौटने के बाद दंगल जी महाकवि ‘द्विजेश’ जी  सानिध्य में आये और जनपद के बहुचर्चित छन्दकर सुकवि रामचरित्र ‘पावन’ का स्नेह भी इन्हें मिला।वालचर संस्थाओं में तमाम पुरस्कार जीतने के कारण उन्होंने अपना उप नाम “दंगल” रखा।

उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्यिक निर्देशिका 1991,पृष्ठ 42 के अनुसार दंगल जी की निम्नलिखित रचनाएं प्रकाशित हुई हैं –

घर आंगन 1982, वसुंधरा 1982 ,कुल मर्यादा 1980 और नारी मर्यादा 1983।

दंगल जी गद्य के अच्छे साहित्यकार हैं इनकी जो भी पुस्तकें अब तक प्रकाशित हुई हैं, उनमे गद्य कृतियाँ ही है,किन्तु छन्दों के क्षेत्र में भी यह बहुचर्चित हैं। कवि  सम्मेलनों में दंगल जी के हास्य प्रधान लतीफे दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लेते हैं। छन्दो के ऊपर उनकी एक पुस्तक “काव्य कंचनी” अभी शीघ्र ही छपी है। उसके कुछ छन्द यहाँ प्रस्तुत है-

गोरी गोरी गंवई की भोरी भोरी छौरी सब
रस की कमोरी घोरी बोरी रग राती है।
लपकि लपकि अलकाली लटी गालन पै
सुधा को चुराने मानो झूमि झापि जाती है।
सुकटि नवेली सारी सारी में जरी की तारी
तारों बीच तारिका सी रस बरसाती है।
उझकि उझकि गौरी बीनती मधुक मधु
‘दंगल’ गनो का चित चंचल बनाती है।।
– (काव्य-कंचनी से )

महुवा बीनती हुई गंवई की गौरी का चित्र ‘ दंगल’ जी ने बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उसी प्रकार से पुन एक छन्द प्रस्तुत है –

आया ऋतुराज दिया मन में अपार मोद
भ्रमर विशोर छुम छुम लगे छूने।
सजी है बनाली मंजु बल्लरी  विलास किये
तरुवर पूजन पै कुंज लगे झूमने ।
पिक औ पपीहा बोलि मन को चुरावे कहीं
चाँदनी ध्वल धरा धाम लगी चूमने ।।
भोरी भोरी वयसि किशोरी रसभोरी भई
“दंगल” किशोर संग संग लगी घूमने  ।।
-(काव्य-कंचनी से)

     दंगल जी का जीवन यायावरी जीवन है। एक स्मृति का छन्द देखिये-

सुधे वीणा करों में लिये नित मै
सुख दुख के स्वरों में बजाता रहा।
सतरंगे सुनहरे क्षणिक रंग मे
तन माया रंगे गीत गाता रहा ।
दिन बीत गये प्रिये केतिक पर
मैं भूल लिए दुहराता रहा ।
परवाह न की रवि सोम कला
अपने मन दीप जाता रहा।।
-(काव्य-कंचनी से)

 दंगल जी के इन छन्दों में जीवन की अनुभूतिया टपकती हुई दिखायी पड़ती है। चूंकि दंगल जी एक गद्यकार के रूप में बहुचर्चित हैं, इसलिए इनके छन्दो में भी खड़ी बोली भाषा तथा भोजपुरी के शब्द यत्र-तत्र विखरे हुए दिखाई पडते हैं। दंगल जी आधुनिक चरण के बड़े ही सुहृदीयी छन्दकार हैं। इनका अध्यापकी जीवन, परिधान आदि अपने में अनूठा है। अपने सादगी, व्यवहार कुस्ता, कर्मठता और सत्यनिष्ठा के कारण ये राष्ट्रपत्ति पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं। महमूदपुर का प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय इन्हीं की देन है। अपने मुस्कराते हुए चेहरे से दंगल जी जैसे ही मंच पर पधारते हैं, श्रोता और दर्शक चहचहा उठते हैं। यह वर्तमान पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत हैं।

प्राइमरी स्कूल महमूदपुर की स्थापना 1966 में हुई थी और इसका प्रबंधन शिक्षा विभाग द्वारा किया जाता है। यह ग्रामीण क्षेत्र में स्थित है। यह उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के बस्ती सदर ब्लॉक में स्थित है। स्कूल में कक्षा 1 से 5 तक की पढ़ाई होती है। स्कूल सह-शिक्षा वाला है और इसमें कोई प्री-प्राइमरी सेक्शन संलग्न नहीं है। स्कूल में सरकारी भवन है। इसमें शिक्षण के लिए 5 कक्षा-कक्ष हैं। स्कूल में एक खेल का मैदान है। स्कूल में एक पुस्तकालय है और इसकी लाइब्रेरी में 99 किताबें हैं।

विजय मनोहर तिवारी होंगे माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के कुलगुरु

भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल के कुलगुरु का पद पिछले कई महीने से खाली था लेकिन अब कुलगुरु के नाम की घोषणा होने से फाइनली यूनिवर्सिटी को अपना वाइस चांसलर मिल गया है। पिछले साल सितंबर, 2024 में केजी सुरेश की रिटायर होने के बाद से ही यूनिवर्सिटी में यह पद रिक्त था। इसके बाद से ही इस पद के लिए कई नामों की चर्चा चल रही थी। हालांकि, अंत में सीएम की ओर से विजय मनोहर तिवारी के नाम पर मुहर लगाई गई है। रिपोर्ट के मुताबिक, 15 सितंबर 2024 को केजी सुरेश की जगह जन संपर्क आयुक्त सुदामा पी खाड़े को कुलगुरु का प्रभार सौंपा गया था।   इनका कार्यकाल चार वर्ष की अवधि का होगा। विजय मनोहर तिवारी इससे पहले  सूचना आयुक्त के पद पर भी रह चुके हैं। कुलगुरु बनने की दौड़ में आशीष जोशी, विकास दवे, अनिल कुमार सौमित्र और विजय मनोहर तिवारी थे। विजय मनोहर तिवारी के नाम पर सरकार ने मुहर लगा दी है।

गणित में एम. एस. – सी. उपा‌ध‌िधारी विजयमनोहर तिवारी ने एक वर्ष कॉलेज में गणित का अध्यापन किया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता वि. वि. भोपाल से प्रथम श्रेणी में प्रथम पत्रकारिता स्नातक की उपाध‌ि  प्राप्त की । ‘ नईदुनिया ‘ और ‘ सहारा – समय ‘ न्यूज चैनल में रिपोर्टिंग के बाद संप्रति ‘ दैनिक भास्कर ‘ में विशेष संवाददाता रहे । चार पुस्तकें – ‘ सहरिया ‘, ‘ एक साध्वी की सत्ता – कथा ‘, ‘ हरसूद 30 जून ‘, ‘ प्रिय पाकिस्तान ‘ प्रकाशित हुई । ‘ हरसूद 30 जून ‘ के लिए ‘ भारतेंदु हरिश्‍चंद पुरस्कार ‘ मिला ।

उनकी प्रमुख पुस्तकों में शामिल हैं:
“उफ़! ये मौलाना: इंडिया फाइट्स कोरोना”: यह पुस्तक 2020 में प्रकाशित हुई थी और इसे पाठकों से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है।
“एक साध्वी की सत्ता कथा”: 2008 में प्रकाशित इस पुस्तक में एक साध्वी के जीवन और संघर्षों का वर्णन है।
“राहुल बारपुते”: 2010 में प्रकाशित यह पुस्तक प्रसिद्ध पत्रकार राहुल बारपुते के जीवन पर आधारित है।
“हरसूद 30 जून”: 2009 में प्रकाशित इस पुस्तक में हरसूद शहर के विस्थापन की कहानी है।
“जागता हुआ कस्बा”: 2022 में प्रकाशित इस पुस्तक में कस्बाई जीवन की संवेदनाओं और इतिहास के साये का वर्णन है।
“सहरिया”: 2009 में प्रकाशित इस पुस्तक में मध्य प्रदेश के सहरिया जनजाति की सांस्कृतिक इतिहास का विवरण है।
“हिंदुओं का हश्र: इतिहास से गायब अनकही कहानियाँ”: यह पुस्तक भारतीय इतिहास में हिंदुओं की अनकही कहानियों पर प्रकाश डालती है।

कोर्ट ड्रामा लीगली वीर 7 मार्च को सिनेमाघरों में आएगी

बहुप्रतीक्षित कानूनी थ्रिलर लीगली वीर का हिंदी 7 मार्च 2025 को रिलीज़ होने के लिए पूरी तरह तैयार है। फिल्म में मुख्य भूमिका में नज़र आने वाले वीर रेड्डी दर्शकों के लिए एक गहरी अदालत-कक्षीय ड्रामा लेकर आ रहे हैं, जिसमें न्याय, पश्चाताप और व्यक्तिगत परिवर्तन की गूढ़ थीम बुनी गई है।

हाल ही में रिलीज़ हुए लीगली वीर के हिंदी पोस्टर ने दर्शकों को अपने प्रभावशाली दृश्यों से मंत्रमुग्ध कर दिया है। पोस्टर में वीर रेड्डी वकील की पोशाक में गंभीर अभिव्यक्ति के साथ नज़र आ रहे हैं, जो उनके किरदार के सार को दर्शाता है—एक ऐसा व्यक्ति जो महत्वाकांक्षा और कर्तव्य के बीच उलझा हुआ है। बैकग्राउंड में फिल्म के कुछ महत्वपूर्ण दृश्यों को दिखाया गया है, जो इसकी रोमांचक कहानी की झलक प्रदान करता है।

फिल्म का निर्देशन रवि गोगुला ने किया है, जबकि शांथम्मा मलिकिरेड्डी ने इसे प्रोड्यूस किया है और अनिल साबले सह-निर्माता हैं। लीगली वीर एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो विदेश से लौटता है और अपने अतीत से जुड़े भावनात्मक संघर्ष का सामना करता है। न्याय की खोज में वह एक जूनियर वकील की हत्या के मामले में उलझ जाता है, जहाँ छुपे हुए सच और अनपेक्षित गठबंधन उसकी तकदीर तय करते हैं।

वीर रेड्डी के लिए यह प्रोजेक्ट बेहद व्यक्तिगत है। वॉशिंगटन, डी.सी. में रहने वाले रेड्डी को इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा अपने बीमार पिता की देखभाल करने के दौरान मिली। उनके पिता के निधन ने लीगली वीर के पीछे की सबसे बड़ी प्रेरणा के रूप में काम किया। रेड्डी कहते हैं, “मैं कुछ ऐसा बनाना चाहता था जो मेरे पिता की उपस्थिति को हमेशा मेरे साथ बनाए रखे।”

हिंदी रिलीज़ के साथ, लीगली वीर का उद्देश्य एक व्यापक दर्शक वर्ग तक पहुंचना है और यह दिखाना है कि आम नागरिक किस तरह से जटिल कानूनी प्रणाली से जूझते हैं। 7 मार्च को अपने कैलेंडर पर निशान लगाएँ, क्योंकि लीगली वीर न्याय और संघर्ष की इस प्रेरणादायक कहानी को देशभर के सिनेमाघरों में लेकर आ रहा है।h

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