Tuesday, November 26, 2024
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इतिहास में ज़हर घोलने का षडयंत्र

बिहार में जन्मे ब्रितानी पत्रकार और विचारक जॉर्ज ऑरवेल के नाम से एक कथन है – “लोगों को मिटाने का सबसे कारगर उपाय यह है कि उनकी अपने इतिहास की समझ को मिटा दिया जाए।” प्राचीन भारत के इतिहास को लेकर कुछ ऐसा ही खेल चल रहा है। हमारे प्राचीन इतिहास के लिखित प्रमाण कम मिलते हैं। इसी का लाभ उठाकर इस काल के शासकों और ब्राह्मणों को हूण और इस्लामी लुटेरों और आक्रांताओं जैसा असहिष्णु बताकर बौद्ध धर्म की विरासत के विनाश का ठीकरा उनके सिर फोड़ने के प्रयास चल रहे हैं ताकि हिंदुओं और बौद्धों के बीच बैरभाव की दीवार खड़ी हो सके।

इसकी शुरुआत पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धर्म का विध्वंसक बता कर की जाती है। वह नौवें और अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ का सेनापति था जिसकी हत्या करके ईसा पूर्व 185 में गद्दी पर बैठा था। कुछ बौद्ध ग्रंथों में उसे बौद्ध भिक्षुओं का संहारक और स्तूपों का विनाशक बताया गया है। इसका पहला उल्लेख तीसरी से पाँचवीं सदी के बीच लिखे गए बौद्ध जातक अशोकावदान में मिलता है। कहा गया है कि पुष्यमित्र ने पटना के पास कुक्कुटाराम विहार पर चढ़ाई करके बौद्ध भिक्षुओं का संहार किया और चला गया। वहाँ से स्यालकोट जाकर उसने हर भिक्षु के सिर के लिए 100 रोमन दीनार देने का ऐलान किया। परंतु वहाँ रहने वाले एक जैन मुनि ने दीनारों के लालच में अपनी माया से भिक्षुओं के सिर रचने शुरू कर दिए। पता चलने पर उसे मारने निकले पुष्यमित्र और उसकी सेना को कृमिशा नाम के बौद्ध यक्ष ने पहाड़ से कुचल कर मार डाला।

बौद्ध महायान शाखा के आठवीं सदी के ग्रंथ मंजुश्रीमूलकल्प में कहा गया है कि गोमिमुख नाम के राजा ने कश्मीर से पूरब क्षेत्रों में स्थित विहारों और भिक्षुओं का विनाश किया। अंत में वह उत्तरी क्षेत्र में पहाड़ी चट्टानें गिरने से सेना समेत साथ मारा गया। सत्रहवीं सदी के तिब्बती लामा तारानाथ ने भी अपने बौद्ध धर्म के इतिहास में लिखा है कि पुष्यमित्र नाम के ब्राह्मण राजा ने मध्य देश से जालंधर तक अनेक विहारों को जलाकर बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला जिसके कारण मध्य और उत्तर भारत से बौद्ध धर्म का लोप हो गया।

बौद्ध ग्रंथों में पुष्यमित्र शुंग की बौद्ध धर्म विरोधी हिंसा के इन उल्लेखों को लेकर कई समस्याएँ हैं। सर्वप्रथम तो ये ग्रंथ पुष्यमित्र के काल से 400 से 1700 साल बाद के हैं। दूसरे, इनमें आए हिंसा की घटनाओं के वर्णन में बड़ा अंतर है। ऊपर से यक्ष, दानव और कुम्भांडों का उल्लेख इन्हें ऐतिहासिक की जगह पौराणिक ही सिद्ध करता है। तीसरे, अशोकावदान में जिन रोमन दीनारों का ईनाम देने की बात कही गई है वे पुष्यमित्र के समय चलन में ही नहीं थे।

चौथे, पुष्यमित्र के ब्राह्मण होने का कोई प्रमाण नहीं है। अशोकावदान ने तो उसे मौर्यवंश का ही आखिरी राजा बताया है। हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने उसके लिए अनार्य शब्द का प्रयोग किया है। पाँचवीं और सबसे बड़ी समस्या यह है कि अभिलेखीय प्रमाण और चीनी बौद्ध यात्रियों के यात्रा संस्मरण पुष्यमित्र का बौद्ध विरोधी होना साबित नहीं करते। न ही शुंग कालीन किसी ऐसे हिंदू मंदिर या मठ के अवशेष मिलते हैं जिन्हें पुष्यमित्र या उसके वंशजों ने बौद्ध विहारों को तोड़कर बनाया हो। बौद्ध धर्म का भारत से लोप होने के दो बड़े कारण हो सकते हैं। पहला बौद्ध धर्म और दर्शन में कोई ऐसी प्रमुख विशेषता न होना जो उसे हिंदू धर्म और दर्शन से विशिष्ट और आकर्षक बना सके। दूसरा हूणों और इस्लामी आक्रांताओं के हमले जिन्होंने बौद्ध विहारों को ध्वस्त किया और भिक्षुओं को मार भगाया।

भरहुत और साँची के स्तूप बौद्ध स्तूपकला के उत्कृष्टतम नमूने माने जाते हैं। भरहुत के स्तूप का शिल्प और शिलालेख बताता है कि वह पुष्यमित्र के शासनकाल में बना था। उसी के शासनकाल में साँची के स्तूप का विस्तार हुआ था और उसका पाषाण परकोटा बना था। बोधगया के महाबोधि मंदिर से मिले एक शिलालेख में राजा ब्रह्ममित्र की रानी नागदेवी और राजा इंद्राग्निमित्र की रानी कुरंगी से मिले दान का उल्लेख है। ये दोनों राजा शुंगकालीन माने जाते हैं। मथुरा से मिला शिलालेख बताता है कि पुष्यमित्र के सामंत धनभूति ने वहाँ के एक बौद्ध संघाराम के लिए तोरण द्वार और परकोटे का दान किया। पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र का तो अमात्य ही बौद्ध भिक्षु था। स्पष्ट है कि ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच जिस वैरभाव का इतिहास गढ़ा जा रहा है वह कभी था ही नहीं।

अभिलेखों से तो यह साबित होता है कि स्तूपों और विहारों के लिए दान करने वालों में अधिकतर लोग हिंदू थे और वे स्तूपों और विहारों में उसी तरह जाते थे जैसे आजकल सिख गुरुद्वारों और मुस्लिम पीरों की दरगाहों पर जाते हैं। इसीलिए चीन से आने वाले बौद्ध यात्रियों फा ह्यान, हुआन त्सांग और इत्सिंग ने अपने यात्रा संस्मरणों में न पुष्यमित्र की हिंसा का कोई उल्लेख किया है और न हिंदुओं और बौद्धों के बैरभाव का।

आजकल कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने नालंदा महाविहार के विध्वंस का इतिहास बदलने का अभियान छेड़ रखा है। उनका कहना है कि नालंदा के रत्नोदधि, रत्नसागर और रत्नरंजक नाम के पुस्तकालयों को बख़्तियार ख़िल्जी ने नहीं बल्कि एक ब्राह्मण भिखारी ने जलाया था। इस रोचक घटना का उल्लेख दो बौद्ध लामाओं ने अपने इतिहास ग्रंथों में किया है। तारानाथ ने अपने बौद्ध धर्म के इतिहास में लिखा है कि भिक्षुओं ने विहार में भिक्षा लेने आए दो तीर्थिक साधुओं पर गंदा पानी डाल कर उनपर कुत्ते छोड़ दिए। इससे नाराज़ होकर एक ने बारह साल सूर्यसाधना की और सिद्धि पाकर पुस्तकालयों को हवन की राख छिड़क कर जला दिया।

तीर्थिक शब्द ग़ैर बौद्ध जैन और आजीवक भिक्षुओं और गोरखपंथी साधुओं के लिए प्रयोग में आता था। सुम्पा खान्पो ने भी अपने इतिहास ग्रंथ में लगभग यही किस्सा दोहराया है। तारानाथ का इतिहास नालंदा विध्वंस के 500 साल बाद, 1608 में लिखा गया था और सुम्पा खान्पो का 1748 में। दोनों लामा कभी भारत नहीं आए और दोनों के इतिहास सुनी-सुनाई बातों पर आधारित हैं। इसलिए एक अकेले तीर्थिक साधु का हज़ारों भिक्षुओं और रक्षकों के होते हुए लाखों किताबों वाले पुस्तकालय की तीन इमारतों को अपनी सिद्धि के बल से जला कर भस्म कर देना साफ़ तौर पर किंवदन्ती है इतिहास नहीं।

दिलचस्प बात यह है कि तुर्क विध्वंस से खंडहर बने नालंदा में 1234 में रहकर गए लामा धर्मस्वामी ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया है। धर्मस्वामी ने नालंदा के पुस्तकालय का भी उल्लेख नहीं किया जो संभवतः उनके समय तक जलकर भस्म हो चुका था। उस समय नालंदा में बचे भिक्षुओं की देखभाल बोधगया के राजा बुधसेन कर रहे थे और जयदेव नाम के एक ब्राह्मण के दान से विहार चलता था। तुर्कों ने इस बात से नाराज़ होकर जयदेव को पकड़ लिया था और उसे मारने की धमकी दी थी। चारों और तुर्क लुटेरों का आतंक छाया था। विक्रमशिला और ओदंतपुरी को पूरी तरह और नालंदा के अधिकतर भाग को ध्वस्त कर दिया गया था।

तुर्क लुटेरों और ख़ासकर बख़्तियार ख़िल्जी की लूटपाट और हिंसा का दूसरा और सबसे प्रामाणिक उल्लेख फ़ारसी इतिहासकार मिन्हाज अल-सिराज की तबक़ात-ए-नासिरी से मिलता है। अल-सिराज ने 1260 में लिखी इस क़िताब में बताया है कि विहारों को किले समझकर हमले करने वाले बख़्तियार ने किस तरह बौद्ध भिक्षुओं को सिरमुंडे ब्राह्मण समझकर उनका कत्ले-आम किया और इमारतों से धन-दौलत की जगह पुस्तकें मिलने पर उन्हें नष्ट कर दिया। उसके द्वारा ध्वस्त किए गए विहारों में विक्रमशिला और ओदंतपुरी के नाम तो हैं पर नालंदा का नाम नहीं है और न ही पुस्तकालय जलाने का ज़िक्र है। इसी आधार पर तर्क दिया जा रहा है कि बख़्तियार ने नालंदा और उसके पुस्तकालयों को ध्वस्त नहीं किया। पर यह सही नहीं है। क्योंकि नालंदा में रहकर गए बौद्ध लामा धर्मस्वामी ने अपने संस्मरण में तुर्क लुटेरों के आक्रमणों से हुई नालंदा महाविहार की दुर्दशा का विस्तार से वर्णन किया है।

उनके बाद तारानाथ और सुम्पा खान्पो ने भी तुर्क हमलों से नालंदा की दुर्दशा की बात दोहराई है। इसलिए केवस अल-सिराज द्वारा नालंदा के नाम का उल्लेख न करने भर से सिद्ध नहीं होता कि बख़्तियार ने नालंदा पर हमला नहीं किया। ऐसा कैसे हो सकता है कि विहार लूटने निकला लुटेरा ओदंतपुरी को लूटकर उससे केवल पाँच मील दूर पड़ने वाले सबसे बड़े और संपन्न विहार को लूटे बिना लौट गया हो? धर्मस्वामी, तारानाथ और सुम्पा खान्पो इन तीन लामाओं के विवरणों से सिद्ध हो जाता है कि नालंदा का विनाश तुर्कों ने ही किया। जिन तुर्क लुटेरों ने मंदिरों, स्तूपों और भिक्षुओं को नहीं छोड़ा वे भला पुस्तकालयों को क्यों बख़्शेंगे?

पुरातत्व के साक्ष्य बताते हैं कि नालंदा महाविहार में भयानक आग लगी थी। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि महाविहार की दुर्दशा तुर्क लुटेरों के हमलों से हुई जिन्होंने भिक्षुओं को निर्दयता से मारा और स्तूपों और मंदिरों का विध्वंस किया। अल-सिराज ने लिखा है कि विक्रमशिला और ओदंतपूरी का विनाश बख़्तियार ख़िल्जी ने किया। पुस्तकें भी नहीं छोड़ीं। नालंदा महाविहार और ओदंतपुरी विहार एक-दूसरे से लगभग सटे हुए थे। ऐसे में यह मानना कितना तर्कसंगत है कि नालंदा में और सारा विध्वंस तो तुर्कों या बख़्तियार ख़िल्जी ने किया पर पुस्तकालयों को कोई गोरखपंथी साधु जला गया?

कोई राय बनाने से पहले यह याद रखना भी ज़रूरी है कि नालंदा महाविहार की स्थापना हिंदू सम्राट कुमारगुप्त ने की थी किसी बौद्ध ने नहीं! उसके बाद उसे 200 गाँवों का दान देकर आय का स्थिर स्रोत सम्राट हर्षवर्धन ने बनाया जो सर्वधर्मसमभाव रखते थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत था जिसे सीखना अनिवार्य था। विहार में बौद्ध वाङ्मय के साथ-साथ तर्कशास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, खगोल और अथर्ववेद भी पढ़ाए जाते थे। वेद-वेदांगों, शास्त्रों, पुराणों और साहित्यिक कृतियों की अधिकतर दुर्लभ पांडुलिपियाँ इसके रत्नोदधि पुस्तकालय में थीं। महाविहार में बुद्ध के साथ-साथ विष्णु, सूर्यदेव और शिव के मंदिर भी थे। अपने अंतिम दिनों में यह जयादित्य नाम के एक ब्राह्मण के दान पर चलता था और दान देने वालों में अधिकतर हिंदू थे। बौद्ध और हिंदू आचार्यों के बीच मुखर शास्त्रार्थों के विवरण तो ख़ूब मिलते हैं परंतु आपसी हिंसा और आगज़नी का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। इन तथ्यों के आलोक में हिंदू-बौद्ध दुश्मनी का इतिहास गढ़ना कितना सही है यह आप सोचिए!

(लेखक बीबीसी के पूर्व संपादक हैं)
साभार- दैनिक जागरण से

गुलजार, राखी, व अजय विस्वास और विवाह की त्रासदी

गुलज़ार से विवाह करने से पहले राखी ने अजय बिस्वास नामक एक बांग्ला फिल्म डायरेक्टर से विवाह की थी। लेकिन दो ही सालों बाद राखी की पहली विवाह टूट गई। विवाह टूटने के बाद गुलज़ार और राखी की नज़दीकियां बढ़ी। जहां राखी गुलज़ार साहब की मल्टी टैलेंटेड शख्सियत पर फिदा थी तो वहीं गुलज़ार राखी जी की खूबसूरती के दीवाने थे। दोनों के बीच प्यार हुआ, इकरार हुआ। और आखिरकार 15 मई 1973 के दिन राखी और गुलज़ार की विवाह हो गई। वो विवाह बहुत धूमधाम से हुई थी। फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े स्टार्स उस विवाह में शरीक हुए। सभी ने नवदंपत्ति को भविष्य के लिए शुभकामनाएं दी।

दिसंबर 1973 में राखी जी ने बेटी मेघना को जन्म दिया। लेकिन बेटी के जन्म के लगभग एक साल बाद ही राखी और गुलज़ार ने अलग होने का फैसला कर लिया। लेकिन वो सब यूं ही नहीं हुआ था। उससे पहले बहुत कुछ हुआ था। इतना कुछ कि वो राखी जी के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं था। आज गुलज़ार साहब का जन्मदिन है। 18 अगस्त 1934 को अविभाजित भारत के पंजाब राज्य के दीना में गुलज़ार साहब का जन्म हुआ था। इनका असली नाम संपूरण सिंह कालरा है। गुलज़ार इनका पैन नेम है। चलिए, गुलज़ार और राखी के तलाक की वो दुखद कहानी जानते हैं।

विवाह से पहले ही गुलज़ार ने राखी के सामने ये शर्त रख दी थी कि विवाह के बाद वो फिल्मों में काम नहीं करेंगी। गुलज़ार का मानना था कि शादीशुदा महिलाओं को फिल्मों में काम नहीं करना चाहिए। उस वक्त तो राखी ने भी गुलज़ार की वो शर्त स्वीकार कर ली थी। लेकिन उनके मन में ये उम्मीद थी कि अगर किसी और की नहीं, तो कम से कम गुलज़ार उन्हें अपनी फिल्मों में तो काम करने ही देंगे। लेकिन वो हुआ नहीं। राखी जी के कहने के बावजूद गुलज़ार ने उन्हें अपनी किसी फिल्म में कास्ट नहीं किया। जबकी विवाह होने के बावजूद राखी के पास फिल्मों के ऑफर्स की कोई कमी नहीं थी।

राखी जब गुलज़ार से बताती कि उन्हें फिल्मों के ऑफर्स आ रहे हैं तो गुलज़ार वो सुनकर क्षुब्ध हो जाते। गुलज़ार की प्रतिक्रिया देखकर राखी ने उस वक्त आने वाले हर ऑफर को ठुकरा दिया। राखी उसे ही अपनी नियति मान चुकी थी। वो मान चुकी थी कि अब वो फिल्मों में कभी काम नहीं कर पाएंगी। लेकिन फिर एक ऐसी रात आई जिसके बाद सबकुछ बदल गया। राखी और गुलज़ार के तलाक की नींव उस रात पड़ गई। साथ ही साथ राखी का फिल्मों में वापसी का रास्ता भी तैयार हो गया।

गुलज़ार उन दिनों कश्मीर में थे। वो अपनी फिल्म आंधी की शूटिंग वहां कर रहे थे। पूरी यूनिट के साथ-साथ राखी भी गुलज़ार के साथ कश्मीर गई थी। एक रात शूटिंग निपटाने के बाद फिल्म की पूरी टीम पार्टी कर रही थी। फिल्म के हीरो संजीव कुमार ने उस दिन कुछ ज़्यादा ही पी ली। संजीव इतना ज़्यादा नशे में थे कि जब हीरोइन सुचित्रा सेन ने अपने रूम में जाने को कहा तो संजीव कुमार ने उनकी बाजू पकड़ ली। संजीव कुमार कह रहे थे कि अभी कोई कहीं नहीं जाएगा। सब यहीं रहेंगे और मौज करेंगे। सुचित्रा सेन को संजीव कुमार की वो हरकत एकदम नागवार गुज़री। वो संजीव कुमार पर भड़क गई।

लेकिन संजीव कुमार नशे में इतना डूबे थे कि उन पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। वो सुचित्रा सेन की बाजू छोड़ने को तैयार ही नहीं हुए। सुचित्रा सेन की आंखों में आंसू आ गए। जब गुलज़ार को पूरा मामला पता चला तो वो सुचित्रा सेन को छुड़ाने आए। और किसी तरह उन्होंने सुचित्रा सेन को संजीव कुमार से छुड़ा लिया। गुलज़ार खुद सुचित्रा सेन को उनके कमरे में छोड़ने गए। सुचित्रा सेन को छोड़कर जब गुलज़ार अपने रूम में वापस आ रहे थे तो उन्हें वहां से निकलते हुए राखी ने देख लिया।

चूंकि राखी को पता नहीं था कि थोड़ी देर पहले क्या हुआ था तो उन्हें अपने पति को एक दूसरी औरत के रूम से रात के समय बाहर निकलते देखना बहुत खराब लगा। राखी ने गुलज़ार से सवाल किया कि वो इस समय सुचित्रा सेन के कमरे में क्या कर रहे थे? गुलज़ार ने राखी को पूरा मामला समझाने की कोशिश की। लेकिन राखी का गुस्सा शांत नहीं हुआ। उन्हें ये बात बुरी लगी थी कि गुलज़ार सुचित्रा सेन को उनके कमरे में छोड़ने गए ही क्यों। राखी की इस बात पर गुलज़ार को गुस्सा आ गया। और उन्होंने राखी को एक ज़ोरदार थप्पड़ जड़ दिया। राखी के लिए वो थप्पड़ किसी सदमे से कम नहीं था।

अब आती है अगली सुबह। राखी अभी भी गुलज़ार के रात के थप्पड़ की वजह से सदमे में थी। तभी उन्हें पता चला कि नामी फिल्मकार यश चोपड़ा उन्हें और गुलज़ार को तलाशते हुए कश्मीर आए हैं। दरअसल, यश चोपड़ा राखी को अपनी अगली फिल्म कभी-कभी में कास्ट करना चाहते थे। और उसके लिए यश चोपड़ा को गुलज़ार साहब से परमिशन लेनी थी। यश चोपड़ा होटल आकर गुलज़ार और राखी से मिले। उन्होंने अपनी फिल्म के बारे में कुछ बातें बताई। और इससे पहले कि वो गुलज़ार से राखी को अपनी फिल्म में काम करने की परमिशन मांगते, राखी जी बोल पड़ी,”मैं इस फिल्म में काम करना चाहती हूं।”

ज़ाहिर है, राखी का फिल्म में काम करने की बात कहना, वो भी बिना विचार-विमर्श किए, गुलज़ार को ज़रा भी अच्छा नहीं लगा। उस दिन गुलज़ार और राखी ने अलग होने का फैसला कर लिया। हालांकि दोनों ने ये भी तय किया कि वो तलाक नहीं लेंगे। क्योंकि तलाक की वजह से उनकी बेटी मेघना पर बुरा असर पड़ेगा। मुंबई आने के बाद दोनों अलग रहने लगे। लेकिन अलग होने के बाद भी दोनों का रिश्ता पति-पत्नी जैसा ही रहा। कहने का मतलब, राखी भले ही फिल्मों में फिर से काम करने लगी हों। लेकिन वो और गुलज़ार अब भी एक-दूजे को पति-पत्नी ही मानते थे।

एक इंटरव्यू में राखी ने कहा था कि गुलज़ार अक्सर फोन करके उनसे कहते थे,”मैंने कुछ दोस्तों को घर बुलाया है। लेकिन मेरे घर में खाना नहीं है। तुम जल्दी से झींगा करी बनाकर भिजवा दो। चूंकि गुलज़ार को मेरे हाथ की खीर भी बहुत अच्छी लगती है तो वो आए दिन खीर मंगवाते रहते हैं। साथ ना रहकर भी वो एक-दूजे से कभी अलग नहीं हुए।

साभार- https://www.facebook.com/kissatvreal से
” #gulzar #Rakheegulzar #gulzarrakheemarriage

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और केंद्रीय बैंक: समझदारी का ‘आविष्कार’ से मेल!

केंद्रीय बैंक बहुत सावधानी से AI को अपने काम के साथ जोड़ रहे हैं. वो अपने काम को बेहतर बनाने में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की संभावनाओं को स्वीकार करते हुए इससे जुड़े ख़तरों को लेकर भी सतर्क हैं. {Excerpt}

दुनिया भर में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस उल्लेखनीय गति से आगे बढ़ रहा है और ये बहुत से अहम सेक्टरों में दाख़िल हो रहा है. वित्तीय क्षेत्र के साथ इसका एकीकरण तो विशेष रूप से उल्लेखनीय है. इसकी वजह से केंद्रीय बैंक भी इस उभरती हुई तकनीक को धीरे धीरे अपना रहे हैं. वैसे तो शुरुआती संकेत ऐसे थे कि ये संस्थाएं AI को अपनाने को लेकर अनिच्छुक थीं. पर अगर हम बारीक़ी से हालिया गतिविधियों की पड़ताल करें, तो पता चलता है कि AI को बहुत सतर्कता के साथ अपनाया जा रहा है.

केंद्रीय बैंक ये मानते हैं कि, अगर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का ज़िम्मेदारी से इस्तेमाल किया जाए, तो ये एक क्रांतिकारी औज़ार है. इस वक़्त AI पर केंद्रीय बैंकों का ध्यान निगरानी और रिसर्च पर है, जो ये दिखाता है कि वो सतर्क और व्यवहारिक रवैया अपना रहे हैं, जो तकनीकी आविष्कारों से नज़दीकी से जुड़ा है.

दुनिया भर में केंद्रीय बैंक AI को लागू करने के लिए सक्रियता से प्रयोग कर रहे हैं. वैसे तो केंद्रीय बैंकों को इसका शुरुआती उपयोगकर्ता नहीं कहा जा सकता. लेकिन, जैसे जैसे इसके लाभ स्पष्ट होते जा रहे हैं, वैसे वैसे केंद्रीय बैंक भी उन्हें अपनाते जा रहे हैं. ये किसी भी नई तकनीक के साथ होता ही है. केंद्रीय बैंकों का ये सतर्कता और उम्मीद जगाने वाला रवैया, आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में उनकी अहम भूमिका को ही रेखांकित करता है. क्योंकि उन्हें पता है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की एक भी गड़बड़ी का बहुत व्यापक असर हो सकता है.

केंद्रीय बैंकों का ये सतर्कता और उम्मीद जगाने वाला रवैया, आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में उनकी अहम भूमिका को ही रेखांकित करता है. क्योंकि उन्हें पता है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की एक भी गड़बड़ी का बहुत व्यापक असर हो सकता है.

मिसाल के तौर पर भारत, AI के विकास में लंबी छलांगें लगा रहा है. भारत का रिज़र्व बैंक, AI और मशीन लर्निंग (ML) को मौद्रिक नीति बनाने, रिसर्च और डेटा के प्रबंधन में इस्तेमाल कर रहा है. AI के औज़ार बैंकिंग के आंकड़ों की समझ बेहतर बनाते हैं. वो पारंपरिक तरीक़ों का मशीन लर्निंग से मेल करके बेहतर पूर्वानुमान लगाते हैं और नेचुरल लैंग्वेज प्रॉसेसिंग का इस्तेमाल ऑडिट रिपोर्ट के वर्गीकरण और विनियमन के विश्लेषण के लिए करते हैं. रिज़र्ब बैंक मीडिया के जज़्बात का इस्तेमाल भी करता है ताकि संवाद के असर का मूल्यांकन कर सके और खाद्य वस्तुओं की ऑनलाइन क़ीमत से महंगाई दर का अंदाज़ा लगा सके.

इसी तरह, यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ECB) भी एथेना नाम के AI टूल के ज़रिए आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल का अगुवा बना है. एथेना, नेचुरल लैंग्वेज प्रॉसेसिंग (NLP) का इस्तेमाल करके ख़बरों के लेख और बैंकों के दस्तावेज़ों का विश्लेषण करता है, चलनों की पहचान करता है और अलग अलग डेटा की तुलना करता है. एथेना से निगरानी करने वाले लगभग पचास लाख दस्तावेज़ों की समीक्षा एक ही निगरानी व्यवस्था से कर पाते हैं, जिसे दस्तावेज़ों के प्रकार का मूल्यांकन करने, विषयों के पायदान के मुताबिक़ डेटा का वर्गीकरण करने, चलन वाले विषयों की पहचान करने, जज़्बात के विश्लेषण करने और जिन संस्थानों की निगरानी की जा रही है उनकी ख़ास शिनाख़्त के मुताबिक़ उन्हें सुझाव देने के लिए ख़ास तौर पर तैयार किया गया है.

इसी तरह, अमेरिका के फेडरल रिज़र्व ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इन्क्यूबेटर कार्यक्रम की शुरुआत की है, ताकि भुगतान और आर्थिक व्यवस्था के दबाव सह पाने के सालान परीक्षण से जुड़े व्यापक डेटा की समीक्षा की जा सके. NLP जैसी छोटी पहलों का इस्तेमाल, संपत्ति के स्थानीय रिकॉर्ड का मूल्यांकन करने के लिए भी किया जा रहा है.

इस वक़्त, केंद्रीय बैंक जिस तरह आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें देखकर ये कहा जा सकता है कि वो AI को रिसर्च के विश्लेषण और कुछ विशेष मामलों में निगरानी के लिए कर रहे हैं, न कि बेहद अहम निर्णय प्रक्रिया में. ये चलन AI को लागू करने के मौजूदा चलन के अनुरूप ही है, जो निर्णय लेने की मुख्य प्रक्रिया में इस तकनीक को लागू करने को लेकर सावधानी वाला रुख़ अपनाने का परिचायक है.

दुनिया भर के केंद्रीय बैंक, सतर्कता के साथ साथ व्यवहारिक तरीक़े से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को अपना रहे हैं और इस तरह वो इसकी कुशलता की संभावनाओं को स्वीकार करने के साथ साथ इससे जुड़े जोखिमों को लेकर सतर्क हैं. AI पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता से केंद्रीय बैंकों के तकनीकी तौर पर नाकाम रहने या फिर सटीक जानकारी न होने की आशंका पैदा होगी, जिससे मौद्रिक नीति के प्रबंधन और असरदार तरीक़े से वित्तीय स्थिरता बनाए रखने की उनकी क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा. इसके अलावा, AI के सिस्टमों की जटिलता से ऐसे नतीजे भी निकल सकते हैं, जिनकी अपेक्षा ही नहीं की गई. फिर इनके ऐसे अनअपेक्षित परिणाम भी सामने आ सकते हैं, जो वित्तीय बाज़ारों और स्थिरता पर विपरीत प्रभाव डाल सकते हैं. केंद्रीय बैंकों का ये रुख़ दिखाता है कि वो आविष्कार को खुले दिल से स्वीकार करने को तो तैयार हैं, पर वित्तीय ढांचे के भीतर स्थिरता और सुरक्षा बनाए रखने को लेकर भी प्रतिबद्ध हैं.

यूरोपीय केंद्रीय बैंक इस संतुलित नज़रिए की सबसे बड़ी मिसाल है. उनका AI औज़ार एथेना इंसान की निगरानी क्षमता की जगह लेने के बजाय उसे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होता है.

यूरोपीय केंद्रीय बैंक इस संतुलित नज़रिए की सबसे बड़ी मिसाल है. उनका AI औज़ार एथेना इंसान की निगरानी क्षमता की जगह लेने के बजाय उसे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होता है. ECB का ज़ोर देकर ये कहना है कि वो किसी भी व्यवस्था में ‘इंसान को शामिल रखने’ की अहमियत बनाए रखना चाहता है. सुपरवाइज़रों को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से तैयार डेटा की व्याख्या करने, उसका मूल्यांकन करने और फीडबैक मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी दी गई है. इससे बार बार सीखने की ऐसी प्रक्रिया को मज़बूती मिलती है, जिसमें मशीन की कुशलना को इंसान के निर्णय कर पाने की क्षमता से जोड़ा गया है.

इसी तरह ब्राज़ील का केंद्रीय बैंक भी AI के मामले में सधी हुई सतर्कता के साथ आगे बढ़ रहा है. ब्राज़ील का केंद्रीय बैंक आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की संभावनाओं के दोहरे मिज़ाज को स्वीकार करता है: एक तरफ़ तो इससे कुशलता के मामले में काफ़ी लाभ होंगे और दूसरी तरफ़ इसमें जोखिम भी हैं. विशेष रूप से वित्तीय फ़र्ज़ीवाड़े की आशंका है. AI को लागू करने की बेहद सावधानी भरी प्रक्रिया को अपनाकर ब्राज़ील का केंद्रीय बैंक इसके लाभ लेने के साथ साथ इसके जोखिमों को कम से कमतर करने का प्रयास कर रहा है, जो सावधानी भरी अपेक्षा वाला रुख़ है.

केंद्रीय बैंकिंग की प्रक्रिया में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को लागू करने से नैतिकता की अहम चिंताएं भी पैदा होती हैं, जिनका असर मानव के श्रम, डेटा की निजता और निर्णय प्रक्रिया के पूर्वाग्रह का शिकार होने की आशंकाएं शामिल हैं. पारंपरिक रूप से केंद्रीय बैंकों द्वारा नियमन और जोखिमों का प्रबंधन पेशवेर लोग करते हैं. हालांकि, रेगटेग के आविष्कार- ब्लैकरॉक जैसी कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तकनीकी समाधान- ये संकेत देते हैं कि आगे चलकर ये ज़िम्मेदारियां आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस उठा सकता है. इससे रोज़गार के भविष्य और ऐसे व्यापक बदलाव के परिणामों को लेकर नैतिकता वाले सवाल खड़े होते हैं.
डेटा की निजता भी एक अहम चिंता है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के सिस्टम, सीखने के अपने जज़्बे की वजह से प्रशिक्षण के लिए डेटा के व्यापक भंडार का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें अक्सर संवेदनशील जानकारियां होती हैं. इसका एक परेशान करने वाला पहलू ये है कि AI के सिस्टम ऐसे डेटा को दोबारा इस्तेमाल करके सार्वजनिक कर सकते हैं, जिसका पता लगाया जा चुका है या जिसे सुरक्षित माना जा चुका है. इससे अनजाने में केंद्रीय बैंकों के भीतर डेटा के लीक होने की आशंका पैदा होती है, जिससे गोपनीयता पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है. यही नहीं, जेनेरेटिव आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस निजी डेटा का संभावित इस्तेमाल करके एक जोखिम पैदा कर सकता है, बर्ताव के चलन से पहचानों का पता लगा सकता है और इस तरह निजता के अधिकारों में सेंध लगा सकता है.

AI की निर्णय प्रक्रिया में पूर्वाग्रह भी नैतिकता की एक अहम दुविधा खड़ा करता है. केंद्रीय बैंकों का आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस वाला सिस्टम अगर पूर्वाग्रह वाले आंकड़ों पर प्रशिक्षित किया जाता है, तो इससे ग़लत पूर्वानुमान और नीतिगत फ़ैसले हो सकते हैं.

AI की निर्णय प्रक्रिया में पूर्वाग्रह भी नैतिकता की एक अहम दुविधा खड़ा करता है. केंद्रीय बैंकों का आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस वाला सिस्टम अगर पूर्वाग्रह वाले आंकड़ों पर प्रशिक्षित किया जाता है, तो इससे ग़लत पूर्वानुमान और नीतिगत फ़ैसले हो सकते हैं. जैसे कि ब्याज दरें तय करना, मौजूदा पूर्वाग्रहों को जारी रखना और फिर इनसे अनुचित परिणाम निकल सकते हैं. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को प्रशिक्षित करने के लिए अगर पूर्वाग्रह वाले डेटा का इस्तेमाल किया जाता है, तो फिर वो ऐसे फ़ैसले ले सकते हैं, जिनसे कमज़ोर तबक़ों के साथ होता आ रहा ऐतिहासिक भेदभाव आगे भी जारी रह सकता है. अगर, प्रशिक्षण वाले डेटा में पहले के पूर्वाग्रह दिखाई देते हैं, जैसे कि अमीर अभ्यर्थियों को तरज़ीह देना या फिर कुछ ख़ास मुहल्लों को क़र्ज़ न देना, तो AI के सिस्टम ऐसे ही पूर्वाग्रह भरे फ़ैसले लेना सीख लेंगे.

नैतिकता के ये सवाल साइबर सुरक्षा तक भी जाते हैं. क्योंकि, इन सिस्टमों के हैक हो जाने का ख़तरा भी होता है. इसके अतिरिक्त पारदर्शिता की चुनौती भी है. क्योंकि, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से लिए गए फ़ैसलों को जनता को समझाना बुनियादी तौर पर मुश्किल हो सकता है. AI को ट्रेनिंग देने के लिए, असली आंकड़ों के बजाय बनावटी डेटा का इस्तेमाल करने से ये मामले और पेचीदा हो जाते हैं, जिससे आर्थिक पूर्वानुमानों के और बिगड़ जाने का अंदेशा पैदा होता है.

ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जो केंद्रीय बैंक आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करेंगे, वो उन केंद्रीय बैंकों से बेहतर स्थिति में होंगे जो इनका उपयोग नहीं करेंगे. ये ख़याल न व्यवहारिक है. और न ही सही है कि केंद्रीय बैंकों को अपने काम में तेज़ी से AI का उपयोग शामिल करना चाहिए. ये बात जगज़ाहिर है कि तमाम देशों के आर्थिक परिदृश्य अलग अलग हैं, उनके सांस्कृतिक माहौल जुदा हैं और विनियमन की स्थितियां भी भिन्न भिन्न। हैं. ऐसे में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के उनके समाधान भी निश्चित रूप से अलग ही होंगे.

यहां ये बात समझना ज़रूरी है कि केंद्रीय बैंकों द्वारा AI का उपयोग करने को इन फ़ासलों की रौशनी में बारीक़ी से देखना पड़ेगा. ख़ास ज़रूरतों और हर देश के अपने जोखमों का व्यापक अध्ययन किए बग़ैर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को अपनाने की होड़ में शामिल होने से ऐसी जटिलताएं पैदा हो सकती हैं, जो पहले कभी देखी सुनी नहीं गईं. इसीलिए, केंद्रीय बैंकों को अपने अपने संदर्भों पर सावधानी से विचार करना चाहिए, दुनिया के बेहतरीन उदाहरणों से सीखने के साथ साथ अपनी ख़ास परिस्थितियों के मुताबिक़ AI को ढालना चाहिए.

भारत में DEPA 2.0 (डेटा एम्पावरमेंट ऐंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर) के तहत एक रहस्यमय प्रयोग कॉन्फिडेंशियल कंप्यूटिंग रूम (CCRs) का है. इस पहल का मक़सद AI के मॉडलों को प्रशिक्षित करने के लिए हार्डवेयर से संरक्षित माहौल में संवेदनशील डेटा का सुरक्षित प्रबंधन करना है, जहां निजता और सुरक्षा बनाए रखी जानी है.

2021 में अपनी शुरुआत के बाद से ही रिज़र्व बैंक की निगरानी में DEPA ने बैंकों और वित्तीय कंपनियों समेत 415 संस्थाओं को इसमें शामिल किया है. CCR का ये पायलट प्रोजेक्ट क़र्ज़ देने वालों, तकनीकी सुविधाएं देने वालों और सॉफ्टवेयर विक्रेताओं के साथ सहयोग करके इसके असरदार होने और केंद्रीय बैंकों द्वारा वित्तीय स्थिरता के प्रबंधन में केंद्रीय भूमिका का मूल्यांकन करने का प्रयास कर रहा है, जिससे AI को अपने काम में शामिल करने जैसे कोई व्यापक बदलाव को बेहद महत्वपूर्ण बन गया है. ऐसे परिवर्तनों को व्यापक अर्थव्यवस्था या देशों की वित्तीय स्थिरता से कोई छेड़छाड़ करने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए. अपने कामों में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करने को लेकर सावधानी से फूंक फूंककर क़दम उठाना ये दिखाता है कि केंद्रीय बैंकों को इन संभावित जोखिमों का बख़ूबी अंदाज़ा है और वो वित्तीय व्यवस्था में एक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता को जानते समझते हैं.

केंद्रीय बैंकों के AI का इस्तेमाल करने के जोखिमों की तादाद का अंदाज़ा लगाना निश्चित रूप से एक जटिल मसला है. ऊपर जिन उदाहरणों की चर्चा की गई है, उनसे ये तो साफ है कि नैतिकता की तमाम दुविधाएं खड़ी होती हैं. लेकिन, ये सैद्धांतिक चिंताएं व्यवहारिक दुनिया में क्या असर डालती हैं? केंद्रीय बैंक बहुत से अहम काम करते हैं. मिसाल के तौर पर नीतिगत निर्णय लेने और आर्थिक स्थिति की वास्तविक तस्वीर पेश करने के लिए उनके द्वारा किए जाने वाले व्यापक रिसर्च को ही लें. इस मामले में AI का इस्तेमाल तुलनात्मक रूप से कम विवादास्पद है. सिम्युलेशन के लिए, अलग अलग परिस्थितियों के मॉडल तैयार करने के लिए और कई आर्थिक और वित्तीय स्थितियों को समझने के लिए AI का इस्तेमाल किया जा सकता है.

हालांकि, जब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को ज़्यादा अहम कामों के समाधान और निर्णय लेने वाले के तौर पर देखा जाता है, तो हालात नाटकीय रूप से बदल जाते हैं. केंद्रीय बैंक धन की आपूर्ति और ब्याज दरों को नियंत्रित करते हैं, ताकि महंगाई को नियंत्रित रखा जा सके. मुद्रा को स्थिर रखते हुए टिकाऊ आर्थिक विकास किया जा सके. केंद्रीय बैंक किसी भी देश की मुद्रा जारी रखने और उसके विनियमन का भी विशेषाधिकार रखते हैं, ताकि मौद्रिक व्यवस्था में स्थिरता और विश्वास को बनाए रख सकें. इन मामलों में AI को शामिल करना अधिक विवादास्पद बन जाता है. AI द्वारा स्वायत्त रूप से इन कामों का प्रबंधन करने का विचार तो परेशान करने वाला है. पर, ऐसे फ़ैसलों की जटिलताओं और बारीक़ियों को स्वीकार करना अहम है.

AI द्वारा स्वायत्त रूप से इन कामों का प्रबंधन करने का विचार तो परेशान करने वाला है. पर, ऐसे फ़ैसलों की जटिलताओं और बारीक़ियों को स्वीकार करना अहम है.

सबसे अहम बात ये समझना है कि किन कामों को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से कुशल बनाया जा सकता है और कहां पर मानवीय निर्णय प्रक्रिया की जगह AI नहीं ले सकता. ये एक ऐसा नाज़ुक संतुलन है, जिसके लिए सोच-समझकर संतुलित तरीक़ा अपनाना चाहिए, ताकि AI मानवीय विद्वता में मददगार बने, न कि उसकी जगह ले. कंप्यूटिंग की अपनी तमाम क्षमताओं के बावजूद, AI के पास मानवीय जटिलताओं, ऐतिहासिक संदर्भों और नैतिकता के उन विचारों को समझने की क़ुव्वत नहीं है, जो इनसे जुड़े फ़ैसले लेने के लिए आवश्यक हैं. इन मामलों में दांव पर बहुत कुछ लगा है- कोई भी ग़लत क़दम उठा तो पूरी अर्थव्यवस्था तबाह हो सकती है. ऐसे में परिचर्चा किसी आविष्कार की कुशलता की नहीं है; ये उन बुनियादी सिद्धांतों का सवाल है, जो हमारी आर्थिक व्यवस्थाओं को चलाते हैं और उनको बिना किसी इंसानी निगरानी और फ़ैसले लेने के अधिकार के एल्गोरिद्म के हवाले करने के संभावित जोखिमों का है.

कुल मिलाकर, केंद्रीय बैंक AI को परिवर्तनकारी औज़ार के तौर पर देखते हैं. शर्त ये है कि इन्हें ज़िम्मेदारी से लागू किया जाएगा, तो इससे उनका काम बेहतर होगा. केंद्रीय बैंकों को ये बात बख़ूबी पता है कि किसी संभावित ख़तरे से निपटने के लिए कड़े नियमों और निगरानी की ज़रूरत है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को मानवीय विशेषज्ञता को बेहतर बनाने में इस्तेमाल करके, केंद्रीय बैंक इस नई तकनीक का लाभ लेने के साथ साथ वित्तीय व्यवस्था की अक्षुण्णता और स्थिरता को बनाए रखना चाहते हैं.
इस वक़्त केंद्रीय बैंक के काम में AI का उपयोग निगरानी और रिसर्च के इर्द गिर्द घूम रहा है, जो तकनीक के विकास और इस पर विश्वास के मौजूदा स्तर को लेकर सतर्क मगर व्यवहारिक रवैये को दिखाता है. हालात को देखते हुए यूरोपीय संघ (EU) द्वारा ‘इंसान को शामिल रखने’ वाला नज़रिए न्यायोचित लगता है. हालांकि, केंद्रीय बैंकिंग में AI को लागू करने का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है और ये तकनीकी तरक़्क़ी और AI की क्षमताओं में विश्वास के उभरते आयामों से जुड़ा है. हालांकि पूरी दुनिया के केंद्रीय बैंक अभी बड़ी तस्वीर पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. वो ये समझने का प्रयास कर रहे हैं कि ये नई तकनीकें किस तरह, उत्पादकता, रोज़गार, संपत्ति और आमदनी पर असर डालेंगी.
साभार- https://www.orfonline.org/hindi/ से 

4 द‍िन ‘जेल’ में काटे, 5 द‍िन भूखे रहे; नारायण मूर्ति

इंपोसिस के संस्थापक और दिग्गज ँभारतीय कारोबारी एन नारायण  मूर्ति ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी मिशन द्वारा न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में आयोजित विशेष कार्यक्रम में अपने 120 घंटे भूखे रहने वाला किस्सा सुनाते हुए बताया कि किस तरह उन्होंने 4 दिन जेल में काटे और पाँच दिन भूखे रहे। .

उन्होंने  बताया क‍ि वह एक बार ट्रेन से सफर कर रहे थे. उस दौरान वह एक लड़की से बात करने लगे. कुछ देर बार देखा कि उसका पत‍ि कुछ पुलिस वालों के साथ वहां पहुंच गया. बात 70 के दशक की है. विदेश में नौकरी करते हुए एन नारायण मूर्ति (NR Narayana Murthy) ने यूरोप घूमने का फैसला किया. अपने कर‍ियर की शुरुआत में उन्‍हें यह आइड‍िया था क‍ि घूमने का फैसला अब नहीं ल‍िया तो घूम नहीं पाएंगे और दुनिया को समझ नहीं पाएंगे. बस फ‍िर क्‍या वो न‍िकल पड़े सैर पर, लेकिन हिचहाइकिंग के जरिये. पश्चिमी देशों में  हिचहाइकिंग यानी लिफ्ट लेकर फ्री में ट्रैवल करने का तरीका होता है।नारायण मूर्ति  ने अपनी कहानी एक ट्रैवलर पत्रिका के साथ शेयर की है. उन्‍होंने बताया कि कैसे उन्‍होंने अपनी सैलरी से 5,000 यूएस डॉलर बचाए थे, जिनमें से उन्‍होंने 450 अमेरिकी डॉलर अपने पास रखे और बाकी दान कर द‍िये. बचाए गए 450 डॉलर में से कुछ बचाए तो कुछ से जरूरी सामान खरीदकर वह सैर सपाटा करने न‍िकल गए. इस दौरान लिफ्ट लेकर अपना सफर पूरा क‍िया.

यूरोप के कई शहर घूमते हुए मूर्ति निश पहुंचे जो अब सर्बिया में है, उस समय यह यूगोस्लाविया था तब. वहां खाने के लिए रेस्तरां गए तो खाना नहीं मिला. वह शनिवार की रात थी. अगले दिन संडे था. मूर्ति बताते हैं कि फिर वह सोफिया एक्सप्रेस में सवार हुए. उनकी सीट के ठीक सामने युवा जोड़ा बैठा था. मूर्ति को अंग्रेजी, फ्रेंच और रूसी भाषा अच्छी तरह बोलनी आती थी तो वह लड़की से बात करने लगे. कुछ देर बार देखा कि लड़का कुछ पुलिस वालों के साथ वहां पहुंच गया और कुछ बातचीत करने लगा. अगले ही पल मैंने खुद को धक्का खाते, ट्रेन से धकेल के ले जाते पाया. कुछ ही देर में 8 बाई 8 के कमरे में खुद को बंद पाया.

सुबह से शाम हो गई लेक‍िन यहां भी खाने को कुछ नहीं मिला. मुझे लगा अब मैं नहीं जी पाऊंगा… मुझे गुरुवार को बाहर निकाला गया. मूर्ति के अनुसार तब मुझे ईस्ट और वेस्ट यूरोप के बीच का अंतर समझ में आया. वेस्ट में तरक्की थी खुले विचारों के थे जबकि ईस्ट में वामपंथ का दबदबा था. इस तरह मैं पूरे 120 घंटे भूखा रहा. उस भूख ने मुझे कन्फ्यूज लेफ्टिस्ट से धुर कैप्टलिस्ट बना दिया. मेरी सोच बदल गई. मुझे पूंजीवाद की अहमियत समझ आई, मैंने समझा कि देश के लिए पूंजीवादी जरूरी है, ऐसे व्यवसायी जरूरी हैं जो जॉब्स का सृजन करें और यह देश की तरक्की के लिए जरूरी है. नारायण मूर्ति ने अपने इसी टेलीफोनिक इंटरव्यू के अंत में कहा और शायद इसी घटना ने मुझे इंफोसिस का आईडिया भी दिया.

इंफोस‍िस का शेयर मंगलवार को आधा प्रत‍िशत की तेजी के साथ 1873 रुपये पर बंद हुआ. इसके साथ ही कंपनी का मार्केट कैप बढ़कर 7,77,898 करोड़ रुपये हो गया है. शेयर का 52 हफ्ते का हाई लेवल 1,903 रुपये और लो लेवल 1,352 रुपये है.

साभार- ज़ी न्यूजं से 

विनिर्माण क्षेत्र में बदलती भारत की तस्वीर

भारत में आज भी देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास कर रही है और वह अपने रोजगार के लिए सामान्यतः कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। इसके बावजूद, देश की कुल अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान केवल 16-18 प्रतिशत के आसपास बना रहता है। अब यदि देश की 60 प्रतिशत आबादी देश के सकल घरेलू उत्पाद में केवल 16-18 प्रतिशत तक का योगदान दे पा रही है, तो स्वाभाविक रूप से इस क्षेत्र में गरीबी तो बनी ही रहेगी। हालांकि, यह स्थिति अब धीरे-धीरे बदल रही है, क्योंकि हाल ही के वर्षों में भारत के विनिर्माण क्षेत्र का योगदान देश के सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ता जा रहा है। इसके चलते ग्रामीण इलाकों के नागरिक शहरी क्षेत्रों में स्थापित विनिर्माण इकाईयों में रोजगार के नए अवसर प्राप्त करने के उद्देश्य से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

विनिर्माण क्षेत्र में कई नए क्षेत्र उभरकर सामने आए हैं, जैसे रक्षा क्षेत्र, दवा क्षेत्र, सेमी-कंडक्टर निर्माण क्षेत्र, और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत में स्वदेशी रक्षा क्षेत्र में उत्पादन की मात्रा 1.27 लाख करोड़ रुपए की रही है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 16.7 प्रतिशत अधिक है। यह भारत सरकार द्वारा देश में उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकारी नीतियों और प्रयासों की प्रभावशीलता को दर्शाता है। वर्तमान में रक्षा क्षेत्र में उत्पादन करने वाली इकाइयों में सरकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा संयुक्त प्रयास किए जा रहे हैं। इस दौरान सरकारी क्षेत्र की कंपनियों का योगदान 79.2 प्रतिशत रहा है, जबकि निजी क्षेत्र की कंपनियों का योगदान 20.8 प्रतिशत रहा है।

दूसरी ओर, रक्षा क्षेत्र में भारत में निर्मित उत्पादों की अन्य देशों में भारी मांग उत्पन्न हो रही है और निर्यात लगातार बढ़ रहा है। वित्तीय वर्ष 2023-24 में 21,083 करोड़ रुपए के मूल्य का निर्यात भारत से विभिन्न देशों में किया गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 32.5 प्रतिशत अधिक है। यह भारत में रक्षा के क्षेत्र में हुए कुल उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत है। निर्यात में यह वृद्धि न केवल वैश्विक रक्षा बाजार में भारत के बढ़ते पदचिन्हों को दर्शाती है, बल्कि आत्मनिर्भरता और नवाचार के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को भी दर्शाती है।

रक्षा क्षेत्र की तरह ही, हाल ही में भारत ने उत्पादन के कई नए क्षेत्रों में प्रवेश किया है। कुछ वर्ष पूर्व तक दवा निर्माण के क्षेत्र में उपयोग किए जाने वाले API (ऐक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रीडीयंट) का लगभग पूरा आयात चीन से होता था। कोरोना महामारी के दौरान भारत को यह एहसास हुआ कि यदि चीन इस कच्चे माल का निर्यात कम कर दे या बंद कर दे, तो भारत में दवा उद्योग की इकाइयों का निर्माण ठप्प पड़ जाएगा। इसके बाद केंद्र सरकार ने API के उत्पादन को भारत में ही करने का निर्णय लिया। आज स्थितियाँ बदल गई हैं और API का निर्माण भारत में ही होने लगा है। भारत अब API के उत्पादन के क्षेत्र में विश्व में तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया है।

भारत की वैश्विक API उद्योग में 8 प्रतिशत की हिस्सेदारी हो गई है, और यहां 500 से अधिक प्रकार के API का उत्पादन किया जा रहा है। भारतीय दवा उद्योग में तेज वृद्धि देखने को मिल रही है और आज यह देश के सकल घरेलू उत्पाद में 1.72 प्रतिशत का योगदान देने लगा है। दवा उद्योग देश में रोजगार के करोड़ों अवसर भी निर्मित कर रहा है। भारतीय दवा उद्योग के वर्ष 2024 के अंत तक 6,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2030 तक 13,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। वर्ष 2013-14 के बाद से वर्ष 2021-22 तक भारतीय दवा निर्यात में 103 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। जेनेरिक दवाओं के वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत हो गई है, जिससे भारत को “विश्व का फार्मेसी हब” भी कहा जाने लगा है।

लगभग 4 वर्ष पूर्व, वैश्विक स्तर पर ऑटोमोबाइल विनिर्माण के क्षेत्र में सेमीकंडक्टर की उपलब्धता में भारी कमी आई थी, जिससे वाहनों के उत्पादन को घटाना पड़ा। इसके बाद केंद्र सरकार ने भारत को सेमीकंडक्टर निर्माण का वैश्विक हब बनाने का संकल्प लिया। भारत में सेमीकंडक्टर का बाजार 2,400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है, जो वर्ष 2025 तक बढ़कर 10,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक हो सकता है। केंद्र सरकार ने सेमीकंडक्टर विनिर्माण इकाइयों की स्थापना को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वैश्विक तकनीकी फर्मों से भारत में सेमीकंडक्टर उद्योग लगाने के लिए सीधे चर्चा की है।

काउंटरपोइंट रिसर्च और इंडिया इलेक्ट्रॉनिक्स एंड सेमीकंडक्टर एसोसिएशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत का सेमीकंडक्टर बाजार वर्ष 2026 तक लगभग 6,400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा, जो वर्ष 2019 के बाजार से तीन गुना अधिक होगा। इसी प्रकार, भारत में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भी अत्यधिक शोध चल रहा है, ताकि आने वाले समय में भारत इस क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सके। अमेरिका की कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियां बैंगलोर में आकर इस क्षेत्र के इंजीनियरों की भर्ती भी कर रही हैं।

कुल मिलाकर, अब यह कहा जा सकता है कि भारत विनिर्माण क्षेत्र के कई ऐसे क्षेत्रों में कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है, जिनमें कभी भारत का प्रभुत्व नहीं था। इससे भारत में रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित हो रहे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों पर नागरिकों का दबाव भी कम हो रहा है।

प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009

मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

अब समान नागरिक संहिता और एक देश एक चुनाव अधिक दूर नहीं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस पर लगातार ग्यारहवीं बार राष्ट्र को संबोधित करते हुए अपनी भविष्य की राजनीति की पटकथा लिख दी और साथ ही सभी अराजक तत्वों व राजनीतिक शत्रुओं को स्पष्ट संदेश दिया कि भारत की विकास यात्रा रुकने वाली नहीं है। प्रधानमंत्री के तेवरों से स्पष्ट है कि सीटें कम हो जाने के बाद भी उनके  संकल्प थमने वाले नहीं हैं अपितु वह अपने सभी संकल्पों को नये कलेवर के साथ पूर्ण करने की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। प्रधानमंत्री के संबोधन से उन सभी दलों व नेताओं के सपने चकनाचूर हो गये हैं गये हैं जो यह सोच रहे थे कि सहयोगी दलों की सहायता से टिकी सरकार अब गिरी तो तब गिर ही जाएगी। प्रधानमंत्री ने लाल किले से उन सभी ताकतों व उनके इको सिस्टम को हिलाकर रख दिया है जो येन केन प्रकारेण मोदी सरकार को गिराना चाहते हैं।

भारत के विरेधी दल कभी किसान आंदोलन के सहारे, कभी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के सहारे अराजकता फैला कर मोदी सरकार को गिराना चाहते हैं किंतु अभी तक यह सभी प्रयास एक के बाद एक धराशायी होते रहे हैं। अब घोर निराशा व हताशा में डूबा विपक्ष हर छोटी बड़ी बात में प्रधानमंत्री मोदी को ही जिम्मेदार बताने लगा है और भारत में बंगला देश जैसे हालत  बनाने की धमकी दे रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन सभी षड्यंत्रों से पूरी तरह परिचित हैं तभी उन्होंने विरोधियों के सभी पैंतरों का अपने 98 मिनट लम्बे स्वाधीनता दिवस संबोधन में दो टूक उत्तर दिया। प्रधानमंत्री ने विदेशी शक्तियों को स्पष्ट संदेश दिया – भारत  की शक्ति से किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम बुद्ध का देश हैं, यह वस्तुतः चीन व अमेरिका के लिए था ।प्रधनमंत्री ने अपने संबोधन में पाकिस्तान का नाम तक नही लिया और बांग्लादेश के हिंदुओं के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि बांग्लादेश शीघ्र ही  भारत के साथ विकास यात्रा में  शामिल होगा। प्रधानमंत्री संबोधन देते हुए किसी भी प्रकार के दबाव में नहीं दिख रहे थे और उनका स्पष्ट लक्ष्य था, विकसित भारत 2047 जिसके लिए वह 24 घंटे अनवरत बिना रुके, बिना थके देश के विकास के लिए राष्ट्र प्रथम की भावना से  कार्य करने के लिए संकल्पवान हैं।

प्रधानमंत्री ने राष्ट्र की विकास यात्रा में सहभागी बन रहे सभी  समाज के सभी क्षेत्रों और वर्गों को छुआ। गांव, गरीब, किसान, युवा, महिला व सेना के जवान सहित सभी की चिंता करते हुए कई महत्वपूर्ण घोषणाएं करते हुए सरकारी योजनाओं का संक्षिप्त खाका भी प्रस्तुत किया।

समान नागरिक संहिता – प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन से यह भी स्पष्ट कर दिया कि सरकार अब समान नागरिक संहिता पर आगे बढ़ने जा रही है । प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं, संविधान की भावना और  सुप्रीम कोर्ट के आदेशों व समय -समय पर की गई टिप्पणियों का उल्लेख करते हुए कहा कि देश में भेदभाव वाले कानून अब नहीं रह सकते। उन्होंने वर्तमान सिविल कोड को सांप्रदायिक बताते हुए कहा कि देश ऐसे किसी कानून को बर्दाश्त नहीं कर सकता जो धार्मिक आधार पर विभाजन का कारण बने। उन्होंने कहाकि देश को ऐसे भेदभावकारी कानूनों से मुक्ति लेनी ही होगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई आदेशों में देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का निर्देश दिया है।प्रधानमंत्री ने जिस प्रकार से समान नागरिक संहिता पर बल दिया है उससे यह भी साफ हो गया है कि अब समान नागरिक संहिता जल्द ही कानून बनने जा रही है क्योंकि उत्तराखंड विधानसभा इसे पहले ही लागू कर चुकी है जबकि गुजरात में प्रस्तावित है तथा कई  और राज्य अब समान नागरिक संहिता लागू करने की ओर बढ़ रहे हैं।

प्रधानमंत्री ने स्पष्ट संकेत कर दिया है कि अब धार्मिक आधार पर अलग -अलग कानूनों के दिन लदने वाले हैं। जो कानून देश को धर्म के आधार पर देश को बांटते हैं, जो ऊँच नीच का कारण बन जाते हैं ऐसे कानूनों का आधुनिक समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता अतः अब देश मे सेक्युलर सिविल कोड होना चाहिए।  समान नागरिक संहिता पर प्रधानमंत्री मोदी के विचारों व संकल्पों से इंडी गठबंधन हिल गया है और  विभिन्न मीडिया प्लेटफार्मों पर इंडी सदस्यों द्वारा इसकी कड़ी निंदा प्रारम्भ हो गई।

प्रधानमंत्री ने यूनिवर्सल सिविल कोड को सेकुलर सिविल कोड के रूप में प्रस्तुत कर मुस्लिम परस्त राजनीति करने वाले खेमे में खलबली मचा दी है।अब सेकुलर शब्द पर एक नई बहस छिड़ गई है।  भाजपा के चुनावी संकल्पों में समान नागरिक संहिता एक प्रमुख विषय रहा है वहीं विपक्ष इसे अल्पसंख्यक विरोधी बताता रहा है। वहीं इस बार प्रधानमंत्री ने सेकुलर शब्द के माध्यम से एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास किया है   जिसने न सिर्फ समान नागरिक संहिता को बल दिया है वरन विपक्ष को भी नि:शब्द करने का प्रयास किया है।  इन बातों से यह भी संकेत मिल रहा है कि आगामी दिनों में अल्पसंख्यक, समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द भी गायब हो जायेंगे और उसकी जगह पंथनिरपेक्ष जैसे शब्दों का समावेश हो जायेगा। समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष शब्द के विरुद्ध  सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी लंबित है।

संविधान के नीति निर्देशक तत्व में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू हो। सुप्रीम कोर्ट ने भी 1985,1995, 2003 और 2015 में महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई के दौरान स्पष्ट रूप से कहा कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री के संबोधन से यह तय हो गया है कि आगामी समय में एक देश एक चुनाव के साथ ही समान नागरिक संहिता लागू होकर रहेगी और वक्फ कानून में संशोधन भी होकर ही रहेगा। प्रधानमंत्री न्यायिक सुधार के प्रति और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई  के प्रति भी गंभीर हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि अब भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग रुकने वाली नहीं है अपितु अब यह और अधिक तीव्र होने जा रही है।

प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से बांग्ला देश हिन्दुओं की सुरक्षा पर गहरी चिंता व्यक्त की और बांग्लादेश को कड़ा संदेश भी दिया। प्रधानमंत्री ने यह भी बता दिया है  कि अब रिफार्म नहीं रुकने वाले हैं और भारत बहुत ही जल्द दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक  शक्ति बनकर उभरेगा। उन्होंने 2036 में भारत में आयोजित हो सकने वाले ओलिंपिक खेलों का भी उल्लेख किया।

विपक्ष युवाओं और रोजगार को लेकर काफी राजनीति करता है, प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में युवाओं के लिए कई सौगाते दी हैं जिसमे मेडिकल के क्षेत्र में 75हजार सीटें बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।प्रधानमंत्री का संकल्प है कि देश का विकास इतना तीव्र हो कि कोई भी  बेरोजगार न रहे।

प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

फोन नं. – 9198571540

नीता बाजपेयी के नृत्य और विवेक अग्रवाल के किस्सों की एक यादगार शाम

नीता बाजपेई एक अंतरराष्ट्रीय गोल्ड मेडलिस्ट भरतनाट्यम नृत्यांगना है। कृष्ण जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में रविवार 18 अगस्त 2024 को चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई द्वारा मृणालताई हाल, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट, गोरेगांव में आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य की विशेष प्रस्तुति दी। देश विदेश में कथक नृत्य की प्रस्तुतियां कर चुकीं नीता बाजपेयी बीस साल बाद मंच पर उतरी थीं। फिलहाल उनकी तैयारी अच्छी थी। ख़ूबसूरत भाव भंगिमाओं के साथ जोशीले अंदाज़ में की गई उनकी विशिष्ट प्रस्तुति श्रोताओं को इतनी मनमोहक लगी कि लोगों ने खड़े होकर तालियों से उनकी हौसला अफ़ज़ाई की।

कथाकार पत्रकार विवेक अग्रवाल की अब तक 32 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने 11 उपन्यास लिखे हैं। इनमें सात उपन्यास अंडरवर्ल्ड पर हैं। विवेक ने अपने कहानी संग्रह ‘रक्त गंध’ से ‘नन्हीं मां’ कहानी का पाठ किया। इस कहानी में यूं तो अंडरवर्ल्ड की दुनिया थी मगर जिस कुशलता से विवेक ने इसमें प्रकृति और परिंदों को शामिल किया था उसने कहानी को असरदार और हृदयस्पर्शी बना दिया। सहज सरल भाषा और आत्मीय शैली में पेश की गई यह कहानी श्रोताओं को बहुत पसंद आई। विवेक का पढ़ने का अंदाज़ भी अच्छा था। कहानी पाठ के बाद श्रोताओं के साथ अंडरवर्ल्ड की दुनिया पर उनका महत्वपूर्ण संवाद हुआ।

‘धरोहर’ के अंतर्गत डॉ मधुबाला शुक्ल ने कालजयी कथाकार #यशपाल की कहानी #फूलों_का_फ्राक का वाचन किया। पुरातन संस्कारों में जकड़ी 5 वर्ष की एक मासूम लड़की की इस दास्तान ने श्रोताओं को विचलित कर दिया। इस अवसर पर मुंबई के रचनाकार जगत से अनूप सेठी, सुमनिका सेठी, अलका अग्रवाल, अजित राय, अमर त्रिपाठी, अनिल गलगली, आर एस रावत, संजीव शुक्ला, कृष्णा उपाध्याय, अविनाश प्रताप सिंह, सविता दत्त और हरि राम द्विवेदी उपस्थित थे।
काव्य पाठ के सत्र में गुरुग्राम से पधारी कवयित्री विभा रश्मि ने कुछ चुनिंदा कविताओं के साथ एक लघुकथा का पाठ किया। प्रतीक माहेश्वरी, महेश साहू, ताज मोहम्मद सिद्दीक़ी, क़मर हाजीपुरी, अंबिका झा, कृष्णा गौतम, गुलशन मदान, भारतेंदु विमल और संगीता बाजपेयी ने अपने कविता पाठ से आयोजन को समृद्ध किया।

अमृतलाल नागर : हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा !

कहना बहुत कठिन है कि अमृतलाल नागर का दिल लखनऊ में धड़कता था कि लखनऊ के दिल में अमृतलाल नागर धड़कते थे। ‘हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा’ की इबारत दरअसल नागर जी पर ऐसे चस्पा होती है गोया लखनऊ और नागर जी दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों। हिंदी ही क्या समूचे विश्व साहित्य में कोई एक लेखक मुझे ऐसा नहीं मिला जिस की सभी रचनाओं में सिर्फ़ एक ही शहर धड़कता हो…….एक ही शहर की कहानी होती हो फिर भी वह कहानी सब को ही अपनी ही कहानी लगती हो और कि पूरी दुनिया में छा जाती हो। लिखने को लखनऊ को अपनी रचनाओं में बहुतेरे लेखकों ने रचा है प्रेमचंद से ले कर श्रीलाल शुक्ल, कामतानाथ तक ने। मैं ने खुद भी। पर जैसा नागर जी ने रचा है, वैसा तो न भूतो, न भविष्यति। और उस लखनऊ में भी चौक। चौक ही उन की कहानियों में खदबदाता रहता है ऐसे जैसे किसी पतीली में कोई भोज्य पदार्थ। आते तो वह बनारसी बाग और सिकंदर बाग तक हैं पर लौट-लौट जाते हैं चौक। जैसे करवट में वह जाते तो कोलकाता भी हैं पर बताते लखनऊ और चौक ही हैं। यहीं की यादें हैं। खत्री परिवार की तीन पीढियों की इस कथा में जो बदलाव के कोलाहल का कोलाज वह रचते हैं वह अप्रतिम है। उस अंगरेज मेम के यूज एंड थ्रो की जो इबारत एक अविरल देहगंध की दाहकता और रंगीनी के रंग में रंगते और बांचते हैं, जिस शालीनता और संकेतों की मद्धिम आंच में उसे पगाते हैं, वह देहयात्रा अविस्मरणीय बन जाती है।
गोमती से बरास्ता गंगा नाव यात्रा से कोलकाता पहुंचने के बीच उस नौजवान खत्री के साथ रंगरेलियां मनाती रेजीडेंसी में तैनात किसी बडे़ अंगरेज अफ़सर की वह अंगरेज मैम कोलकाता पहुंच कर कैसे तो उसे न सिर्फ़ पहचानने से कतराती है बल्कि तिरस्कृत भी करती है तो नौकरी की आस में आया यह नौजवान कैसे तो टूट जाता है। फिर वह लखनऊ की यादों और संपर्कों की थाह लेता है। बूंद और समुद्र नागर जी का महाकाव्यात्मक उपन्यास है। पर समूची कथा लखनऊ के चौक में ही चाक-चौबस्त है।
 बूंद और समुद्र की ताई विलक्षण चरित्र है। ताई के बडे अंधविश्वास हैं। बहुत कठोर दिखने वाली ताई बाद में पता चलता है कि भीतर से बहुत कोमल, बहुत आर्द्र हैं। वनकन्या, नंदो, सज्जन, शीला, महिपाल, कर्नल आदि तमाम पात्र बूंद और समुद्र में हमारे सामने ऐसे उपस्थित होते हैं गोया हम उन्हें पढ़ नहीं रहे हों, साक्षात देख रहे हों। बिल्कुल किसी सिनेमा की तरह। फ़िल्म, रेडियो और फ़िल्मी गानों से तर-बतर मिसेज वर्मा का चरित्र भी तब के दिनों में रचना नागर जी के ही बूते की बात थी। मिसेज वर्मा न सिर्फ़ फ़िल्मों और फ़िल्मी गानों से प्रभावित हैं बल्कि असल ज़िंदगी में भी वह उसे आज़माती चलती हैं। शादी करना और उसे तोड़ कर फिर नई शादी करना और बार-बार इसे दुहराना मिसेज वर्मा का जीवन बन जाता है। कोई बूंद कैसे तो किसी समुद्र में तूफ़ान मचा सकती है यह बूंद और समुद्र पढ़ कर ही जाना जा सकता है। पांच दशक से भी अधिक पुराना यह उपन्यास लखनऊ के जीवन में उतना ही प्रासंगिक है  जितना अपने छपने के समय था।
अमृत और विष वस्तुत: एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। अरविंद शंकर इस उपन्यास में लेखक पात्र है। लखनऊ के अभिजात्य वर्ग की बहुतेरी बातें इस उपन्यास में छ्न कर आती हैं।
नागर जी कोई भी उपन्यास अमूमन बोल कर ही लिखवाते थे। उन का उपन्यास लिखते-लिखते जाने कितने लोग लेखक संपादक हो गए। मुद्राराक्षस उन्हीं में से एक हैं। अवध नारायन मुदगल जो बाद में सारिका के संपादक हुए। ऐसे और भी बहुतेरे लोग हैं। बूंद और समुद्र तो उन्हों ने अपने बच्चों को ही बोल कर लिखवाया। इस की लंबी दास्तान नागर जी के छोटे पुत्र शरद नागर ने बयान की है। कि कैसे रात के तीसरे पहर जब यह उपन्यास लिखना खत्म हुआ जो शरद नागर को ही बोल कर वह लिखवा रहे थे, तब घर भर को जगा कर यह खुशखबरी बांटी थी, नागर जी ने। बा को भी सोते से जगाया था और बताया था बिलकुल बच्चों की तरह कि आज बूंद और समुद्र पूरा हो गया। नागर जी असल में फ़िल्मी कथा-पटकथा लिख चुके थे। सारा नरम गरम देख चुके थे। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके थे सो जब वह बोल कर लिखवाते थे तो ऐसे गोया वह दृश्य उन के सामने ही घटित हो रहा है बिलकुल किसी सिनेमा की तरह।
 नागर जी तो कई बार चिट्ठियां तक बोल कर लिखवाते थे। ऐसे ही उन की एक और आदत थी कि वह जब कोई उपन्यास लिखते थे तो उस को लिखने के पहले जिस विषय पर लिखना होता था उस विषय पर पूरी छानबीन, शोध करते थे। कई बार किसी अखबार के रिपोर्टर की तरह जांच-पडताल करते गोया उपन्यास नहीं कोई अखबारी रिपोर्ट लिखनी हो। नाच्यो बहुत गोपाल हो या खंजन नयन। उन्हों ने पूरी तैयारी के साथ ही लिखा।सुहाग के नूपुर पौराणिक उपन्यास है जब कि शतरंज के मोहरे ऐतिहासिक। पर इन दोनों उपन्यासों को भी पूरी पड़ताल के बाद ही उन्हों ने लिखा।
ये कोठे वालियां तो इंटरव्यू आधारित है ही। गदर के फूल लिखने के लिए भी वह जगह-जगह दौड़ते फिरे। मराठी किताब का एक अनुवाद भी उन्हों ने पूरे पन से किया था- आंखों देखा गदर। नागर जी ने आकाशवाणी लखनऊ में नौकरी भी की और बहुतेरे रेडियो नाटक भी लिखे। नाटकों में वैसे भी उन की गहरी दिलचस्पी थी। नागर जी ने इसी लखनऊ में कई छोटे-मोटे काम किए। मेफ़ेयर के पास डिस्पैचर तक के काम किए। बाद के दिनों में वह पूर्णकालिक लेखक हो गए।
1985 की बात है उन्हों ने एक बार बताया था कि राजपाल प्रकाशन वाले उन्हें हर महीने चार हज़ार रुपए देते हैं और साल के अंत में रायल्टी के हिसाब में एडजस्ट कर देते हैं। तब के दिनों में नागर जी के कई उपन्यास विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगे पडे़ थे। वह चौक में तब शाह जी की हवेली में किराएदार थे। और सोचिए कि हिंदी का यह इतना बड़ा लेखक लखनऊ में या कहीं और भी अपना एक घर नहीं बना सका। किराए के घरों में ही ज़िंदगी बसर कर ली। उन को पद्म भूषण भी मिला ज़रुर था पर अंतिम समय में उन के इलाज के लिए इसी मेडिकल कालेज में सिफ़ारिशें लगानी पड़ी थीं। और वह सिफ़ारिशें भी नाकाम रहीं थीं। तब जब कि नागर जी जन-जन के लेखक थे। उन के जाने के बाद लखनऊ क्या अब हिंदी जगत के पास भी कोई एक लेखक नहीं है जिसे देख कर लोग दूर से ही पहचान लें कि देखो वह हिंदी का लेखक जा रहा है। या किसी लेखक के घर का पता आप पूछें तो कोई आप को उस के घर तक पहुंचा भी आए। घर पहुंचाना तो दूर वह उस लेखक को ही न जानता हो। लेखक पाठक का वह जो रिश्ता था वह अब बिसर गया है। जनता लेखक से और लेखक जनता से कट चुका है। कह सकते हैं आप कि अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वो मधुशाला!
जापान में शेक्सपीयर को ले कर एक सर्वे हुआ था। एक जापानी से पूछा गया कि शेक्सपीयर यहां क्यों इतना लोकप्रिय हैं? तो उस जापानी का सीधा सा जवाब था – क्यों कि शेक्सपीयर जापानियों के बारे में बहुत अच्छा लिखते हैं। नागर जी के बारे में भी यह बात कही जा सकती है। क्यों कि नागर जी भी भले लखनऊ को ही अपनी कथावस्तु बनाते थे, पर वह कथा तो सभी शहरों की होती थी। उन से एक बार मैं ने पूछा था कि, ‘आप गांव के बारे में भी क्यों नहीं लिखते?’ वह बोले, ‘अरे मैं नागर हूं, गांव के बारे में मुझे क्या मालूम? फिर कैसे लिखूं?’
 करवट में देह प्रसंगों को ले कर एक बार मैं ने उन से संकोचवश ज़िक्र किया और पूछा कि, ‘ यह दृश्य रचना कैसे संभव हुआ आप के लिए?’ पान कूंचते हुए वह मुस्‍कुराए और बोले, ‘क्या हम को एकदम बुढऊ समझते हो? अरे हमने भी दुनिया देखी है और तरह-तरह की? तुम लोग क्या देख-भोग पाओगे जो हमने देखी-भोगी है।’ कह कर वह फिर अर्थपूर्ण ढंग से मुस्‍कुराए।
वह अकसर सब के बारे में बहुत विनय और आदर भाव रखते थे पर पता नहीं क्यों जब कभी श्रीनारायण चतुर्वेदी की बात आती तो वह भड़क जाते। एक श्रीनारायण चतुर्वेदी और दूसरे महंगाई दोनों से वह बेतरह भड़कते। नागर जी से पहली बार मैं 1979 में मिला था। तब विद्यार्थी था। पिता जी के साथ दिल्ली घूमने जा रहा था। तब गोरखपुर से दिल्ली की सीधी ट्रेन नहीं हुआ करती थी। लखनऊ आ कर ट्रेन बदलनी होती थी। सुबह गोरखपुर से आया। रात को काशी विश्वनाथ पकड़नी थी। वेटिंग रूम में बैठे-बैठे मैं ने पिता जी से कहा कि मैं नागर जी से मिलने जाना चाहता हूं। पिता जी ने अनुमति दे दी। मैं स्टेशन से बाहर निकला। एक टेलीफ़ोन बूथ पर जा कर टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में नागर जी का नंबर ढूंढा। नंबर मिलाया। नागर जी ने खुद फ़ोन उठाया। उन से मिलने की इच्छा जताई और बताया कि गोरखपुर से आया हूं। स्टेशन से बोल रहा हूं। उन्हों ने स्टेशन से आने के लिए बस कहां मिलेगी बताया और कहा कि बस चौक चौराहे पर रुकेगी वहां उतर कर ऐसे-ऐसे चले आना मेरा घर मिल जाएगा। मैं चौक चौराहे पर उतर कर जब नागर जी के बारे में पूछने लगा तो हर कोई नागर जी का पता बताने लगा। जैसे होड़ सी लग गई। और अंतत: एक सज्जन नहीं माने मुझे ले कर नागर जी के घर पहुंचा आए। दोपहर हो चली थी। नागर जी ऐसे ठठा कर मिले जैसे कितने जन्मों से मुझे जानते हों। अपने बैठके में बिठाया। हाल चाल पूछा। फिर पूछा कैसे आना हुआ। मैं उन से कहना चाहता था कि आप से मिलने आया हूं पर मुंह से निकला आप का इंटरव्यू करना चाहता हूं। वह अचकचाए, ‘इंटरव्यू?’ फिर बोले,’ ठीक है। ले लो इंटरव्यू।’ मैं ने इंटरव्यू शुरु किया बचकाने सवालों के साथ। पर वह जवाब देते गए। थोड़ी देर बाद बोले, ‘बेटा थोड़ी जूठन गिरा लो फिर इंटरव्यू करो।’ मैं उन का जूठन गिराने का अभिप्राय समझा नहीं। तो वह बोले, ‘अरे दो कौर खा लो।’ असल में मैं खुद भूख से परेशान था। पेट में मरोड़ उठ रही थी। छूटते ही बोला, ‘हां-हां।’ शरद जी की पत्नी को नागर जी ने बुलाया और कहा कि कुछ जूठन गिराने का बंदोबस्त करो। वह जल्दी ही पराठा सब्जी बना कर ले आईं। खा कर उठा तो वह बोले, ‘दरअसल बेटा तुम्हारे चेहरे पर लिखी भूख मुझ से देखी नहीं जा रही थी।’ मैं झेंप गया।
इंटरव्यू ले कर जब चलने लगा तो वह बडे मनुहार से बोले, ‘ बेटा यह इंटरव्यू छपने भेजने के पहले मुझे भेज देना। फिर जब मैं वापस ठीक कर के भेजूं तब ही कहीं छपने भेजना। सवाल तो तब मेरे कच्चे थे ही लिखना भी कच्चा ही था। यह तब पता चला जब नागर जी ने वह इंटरव्यू संशोधित कर के भेजा। दंग रह गया था वह बदला हुआ इंटरव्यू देख कर। एक सुखद अनुभूति से भर गया था तब मैं। समूचे इंटरव्यू की रंगत बदल गई थी।
अपने कच्चेपन की समझ भी आ गई थी। नागर जी द्वारा संशोधित वह इंटरव्यू आज भी मेरे पास धरोहर के तौर पर मौजूद है। और छपा हुआ भी। एक बार फिर उन से मिला लखनऊ आ कर। तब प्रेमचंद पर कुछ काम कर रहा था। संपादन मंडल में उन्हों ने न सिर्फ़ अपनी भागीदारी तय की, अपना लेख दिया बल्कि जैनेंद्र कुमार के लिए भी एक चिट्ठी बतौर सिफ़ारिश लिख कर दी। नागर जी की तरह जैनेंद्र जी को भी दिल्ली के दरियागंज में सब लोग जानते थे। नेता जी सुभाष मार्ग पर राजकमल प्रकाशन के पास ही उन के बारे में पूछा। वहां भी सब लोग जैनेंद्र जी के बारे में बताने को तैयार। एक आदमी वहां भी मिला जो जैनेंद्र जी के घर तक मुझे पहुंचा आया। जैनेंद्र जी बहुत कम बोलने वाले लोगों में थे। नागर जी की चिट्ठी दी तो मुस्‍कुराए। कहा कि जब यह चिट्ठी ले कर आए हैं तो ‘न’ करने का प्रश्न कहां से आता है?’ उन्हों ने भी सहमति दे दी संपादक मंडल के लिए। लिखने की बात आई तो वह बोले, ‘इतना लिख चुका हूं प्रेमचंद पर कि अब कुछ लिखने को बचा ही नहीं। बात कर के जो निकाल सकें, निकाल लें। लिख लें मेरे नाम से।’ खैर, नागर जी से चिट्ठी पत्री बराबर जारी रही।
एक बार गोरखपुर वह गए। संगीत नाटक अकादमी के नाट्य समारोह का उद्घाटन करने। मुझे ढूंढते फिरे तो लोगों ने बताया। जा कर मिला। बहुत खुश हुए। बोले, ‘तुम मेरे शहर में मिलते हो आ कर तो मुझे लगा कि तुम्हारे शहर में मैं भी तुम से मिलूं।’ यह कह कर वह गदगद हो गए।
जब मेरा पहला उपन्यास दरकते दरवाजे छपा तब मैं दिल्ली रहने लगा था। 1983-84 की बात है। यह उपन्यास नागर जी को ही समर्पित किया था। उन्हें उपन्यास देने दिल्ली से लखनऊ आया। मिल कर दिया। वह बहुत खुश हुए। थोड़ी देर पन्ने पलटते रहे। मैं उन के सामने बैठा था। फिर अचानक उन्हों ने मेरी तरफ देखा और बोले, ‘इधर आओ!’ और इशारा कर के अपने बगल में बैठने को कहा। मैं संकोच में पड़ गया। फिर उन्हों ने लगभग आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘यहां आओ!’ और जैसे जोड़ा, ‘यहां आ कर बैठो!’ मैं गया और लगभग सकुचाते हुए उन की बगल में बैठा। और यह देखिए आदेश देने वाले नागर जी अब बिलकुल बच्चे हो गए थे। मेरे कंधे से अपना कंधा मिलाते हुए लगभग रगड़ते हुए बोले, ‘अब मेरे बराबर हो गए हो !’ मैं ने कुछ न समझने का भाव चेहरे पर दिया तो वह बिलकुल बच्चों की तरह मुझे दुलारते हुए बोले. ‘अरे अब तुम भी उपन्यासकार हो गए हो ! तो मेरे बराबर ही तो हुए ना !’ कहते हुए वह हा-हा कर के हंसते हुए अपनी बाहों में भर लिए। आशीर्वादने लगे, ‘खूब अच्छा लिखो और यश कमाओ !’ आदि-आदि।
बाद के दिनों में मैं लखनऊ आ गया स्वतंत्र भारत में रिपोर्टर हो कर। तो जिस दिन कोई असाइनमेंट दिन में नहीं होता तो मैं भरी दुपहरिया नागर जी के पास पहुंच जाता। वह हमेशा ही धधा कर मिलते। ऐसे गोया कितने दिनों बाद मिले हों। भले ही एक दिन पहले ही उन से मिल कर गया होऊं। हालां कि कई बार शरद जी नाराज हो जाते। कहते यह उन के लिखने का समय होता है। तो कभी कहते आराम करने का समय होता है। एकाध बार तो वह दरवाजे से ही लौटाने के फेर में पड़ जाते तो भीतर से नागर जी लगभग आदेश देते, ‘ आने दो- आने दो।’ वह सब से ऐसे ही मिलते थे खुल कर। सहज मन से। सरल मन से बतियाते हुए। उन से मिल कर जाने क्यों मैं एक नई ऊर्जा से भर जाता था। हर बार उन से मिलना एक नया अनुभव बन जाता था। उन के पास बतियाने और बताने कि जाने कितनी बातें थीं। साहित्य,पुरातत्व,फ़िल्म, राजनीति, समाज, बलात्कार, मंहगाई। जाने क्या-क्या। और तो और जासूसी उपन्यास भी।
शाम को विजया उन की नियमित थी ही। विजया मतलब भांग। खुद बडे़ शौक से घोंटते। जो भी कोई पास होता उस से एक बार पूछ ज़रुर लेते। किसी के साथ ज़बरदस्ती नहीं करते। एक बार मुझे पीलिया हो गया। महीने भर की छुट्टी हो गई। कहीं नहीं गया। नागर जी के घर भी नहीं। उन की एक चिट्ठी स्वतंत्र भारत के पते से आई। लिखा था क्या उलाहना ही था कि बहुत दिनों से आए नहीं। फिर कुशल क्षेम पूछा था और लिखा था कि जल्दी आओ नहीं यह बूढ़ा खुद आएगा तुम से मिलने। अब मैं तो दफ़्तर जा भी नहीं रहा था। यह चिट्ठी विजयवीर सहाय जो रघुवीर सहाय के अनुज हैं उन के हाथ लगी। वह बिचारे चिट्ठी लिए भागे मेरे घर आए। बोले, ‘कहीं से उन को फ़ोन कर ही सूचित कर दीजिए नहीं नाहक परेशान होंगे।’ मेरे घर तब फ़ोन था नहीं। टेलीफ़ोन बूथ से फ़ोन कर उन्हें बताया तो उन्हों ने ढेर सारी हिदायतें कच्चा केला, गन्ना रस, पपीता वगैरह की दे डालीं।
उन दिनों वह करवट लिख रहे थे। बाद में बताने लगे कि, ‘उस में एक नए ज़माने का पत्रकार का भी चरित्र है जो तुम मुझे बैठे -बिठाए दे जाते हो इस लिए तुम्हारी तलब लगी रहती है।’ वास्तव में वह अपने चरित्रों को ले कर, उपन्यास में वर्णित घटनाओं को ले कर इतने सजग रहते थे, कोई चूक न हो जाए, कोई छेद न रह जाए के डर से ग्रस्त रहते थे कि पूछिए मत। करवट में ही एक प्रसंग में अंगरेजों के खिलाफ एक जुलूस का ज़िक्र है। पूरा वर्णन वह लिख तो गए पर गोमती के किस पुल से होते हुए आया वह जुलूस इस को ले कर उन्हें संशय हो गया। फिर उन्हें याद आया कि हरेकृष्ण अवस्थी भी उस जुलूस में थे। वही हरेकृष्ण अवस्थी जो विधान परिषद सदस्य रहे हैं और कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी। नागर जी ने वह पूरा अंश अवस्थी जी को एक चिट्ठी के साथ भेजा और अपना संशय बताया और लिखा कि इस में जो भी चूक हो उसे दुरुस्त करें। अवस्थी जी राजनीतिक व्यक्ति थे। जवाब देने में बहुत देर कर बैठे। पर जवाब दिया और जो भी चूक थी उसे बताया और देरी के लिए क्षमा मांगी।
नागर जी ने उन्हें जवाब में लिखा कि देरी तो बहुत हो गई पर चूंकि बिटिया अभी ससुराल नहीं गई है, घर पर ही है। इस लिए कोई देरी नहीं हुई है। पुल तो वही था जो नागर जी ने वर्णित किया था पर कुछ दूसरी डिटेल में हेर-फेर थी। जिसे अवस्थी जी ने ठीक करवा दिया। इस लिए भी कि अवस्थी जी ने इस जुलूस में खुद भी अंगरेजों की लाठियां खाई थीं। नागर जी रचना को बिटिया का ही दर्जा देते थे। बिटिया की ही तरह उस की साज-संभाल भी करते थे। और ससुराल मतलब प्रकाशक। नागर जी का एक उपन्यास है अग्निगर्भा। दहेज को ले कर लिखा गया यह उपन्यास अनूठा है। कथा लखनऊ की ही है। लेकिन इस की नायिका जिस तरह दहेज में पिसती हुई खम ठोंक कर दहेज और अपनी ससुराल के खिलाफ़ अचानक पूरी ताकत से खड़ी होती है वह काबिले गौर है। पर सोचिए कि अग्निगर्भा जैसा मारक और दाहक उपन्यास लिखने वाले नागर जी खुद व्यक्तिगत जीवन में दहेज से अभिशप्त रहे। क्या हुआ कि उन दिनों उन्हें लगातार दो -तीन लखटकिया पुरस्कार मिल गए थे। व्यास सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और बिहार सरकार का भी एक लखटकिया सम्मान। मैं ने उन से मारे खुशी के कहा कि चलिए अब जीवन कुछ आसान हो जाएगा। सुनते ही वह कुपित हो गए। बोले, ‘खाक आसान हो जाएगा?’ पोतियों की शादी करनी है। जहां जाते हैं लोग मुंह बड़ा कर लेते हैं कि आप के पास तो पैसा ही पैसा है। अग्निगर्भा के लेखक की यह बेचैनी और यातना मुझ से देखी नहीं गई। फिर मुझे उन का ही कहा याद आया।
एक बार एक इंटरव्यू में उन से पूछा था कि, ‘क्या साहित्यकार भी टूटता है?’ तो नागर जी पान की गिलौरी मुंह में दाबे धीरे से बोले थे, ‘साहित्यकार भी आदमी है, टूटता भी होगा।’ उन का वह कहा और यह टूटना अब मैं देख रहा था। उन को बेतरह टूटते मैं ने एक बार फिर देखा जब बा नहीं रहीं थीं। बा मतलब उन की धर्मपत्नी। जिन को वह अक्सर बात बात में कहते, ‘बुढिया कहां गई? अभी आती होगी।’ वगैरह-वगैरह कहते रहते थे। उसी बुढिया के न रहने पर इस बूढे को रोता देखना मेरे लिए दुखदाई हो गया था तब। तब मैं भी रो पड़ा था। करता भी क्या उन को अपने जीवन में मैं ने पहली बार फूट-फूट कर रोते देखा था। कोई 72-73 वर्ष की उम्र में वह रो रहे थे। तेरही के बाद एक दुपहरिया गया तो वह फिर फूट पडे। रोते-रोते अचानक बा के लिए वह गाने लगे, ‘तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नहीं होता।’ अदभुत था यह। पतियों के न रहने पर बिलखते-रोते तो मैं ने बहुतेरी औरतों को देखा था पर पत्नी के न रहने पर बिलखते रोते मैं पहली बार ही इस तरह किसी पुरुष को देख रहा था। यह पुरुष नागर जी थे। नागर जी ही लोक लाज तज कर इस तरह रो सकते थे। रोते-रोते कहने लगे- मेरा ज़्यादतर जीवन संघर्ष में बीता। बुढिया ने बच्चों को भले चने खिला कर सुला दिया पर कभी मुझ से कोई उलाहना नहीं दिया। न कभी किसी से कुछ कहने गई, न किसी के आगे हाथ पसारा। कह कर वह फिर उन की याद में रोने लगे।
मैं ने तब स्वतंत्र भारत में ही नागर जी की इस व्यथा को रेखांकित करते हुए एक भावांजलि लिखी। जो संडे को संपादकीय पेज पर छ्पी थी। बाद में यही भावांजलि नागर जी के एक इंटरव्यू के साथ कोलकोता से प्रकाशित रविवार में बाक्स बन कर छपी। अब शरद नागर फिर मुझ पर बेतरह नाराज। कहने लगे, ‘पहले आप ने स्वतंत्र भारत में यह सब लिखा तो वह उसे पढ़ कर रोते रहे। अब किसी तरह स्थिर हुए तो अब रविवार पढ़ – पढ़ कर रो रहे हैं। ऐसा क्यों कर रहे हैं आप? बंद कीजिए यह सब !’ मैं निरुत्तर था। और देखिए कि बा के जाने के बाद नागर जी सचमुच इस कदर टूट गए थे कि जल्दी ही खुद भी कूच कर गए। वह शायद पीढियां उपन्यास पूरा करने के लिए ही अपने को ढो रहे थे। 74 वर्ष की उम्र में उन का महाप्रयाण सब को तोड़ देने वाला था। उन के 75 वर्ष में अमृत महोत्सव की तैयारियां थीं। जैसे बा के जाने पर नागर जी कहते रहे थे कि, ‘ज़्यादा नहीं भगवान से बस यही मांगा था कि दो-तीन साल का साथ और दे देते !’ ठीक वैसे ही शरद नागर अब बिलख रहे थे कि बस अमृत महोत्सव मना लिए होते…..!’ खैर।
नागर जी जैसे लोग हम तो मानते हैं कि कभी मरते नहीं। वह तो अभी भी ज़िंदा हैं, अपने तमाम-तमाम पात्रों में। अपनी अप्रतिम और अनन्य रचनाओं में। इस लखनऊ के कण-कण में। लखनऊ के लोग अब उन्हें भले बिसार दें तो भी वह बिसरने वाले हैं नहीं। चौक में होली की जब भी बात चलती है, नागर जी मुझे लगता है हर होली जुलूस में खडे़ दीखते हैं अपनी पूरी चकल्लस के साथ। वहां के कवि सम्मेलनों का स्तर कितना भी क्यों न गिर जाए नागर जी की याद के बिना संपन्न होता नहीं। चौक में उन की हवेली को स्मारक का दर्जा भले न मिल पाया हो पर चौक के वाइस चांसलर तो वह आज भी हैं। हकीकत है यह। सोचिए कि एक बार जब उन्हें एक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बनाने का प्रस्ताव रखा गया तो उन्हों ने उस प्रस्ताव को ठुकराते हुए यही कहा था कि मैं अपनी चौक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर ही ठीक हूं। क्या उस चौक में उन का दिल अब भी धडकता न होगा? उन के परिवार के लोग भी अब चौक छोड़ इंदिरा नगर, विकास नगर और मुंबई भले रहने लगे हैं पर उन के पात्र? वह तो अभी भी वही रहते हैं। बूंद और समुद्र की ताई को खोजने की ज़रूरत नहीं है न ही करवट के खत्री बंधुओं की न अग्निगर्भा के उस नायिका को, नाच्यो बहुत गोपाल की वह ब्राह्मणी भी अपने सारे दुख सुख संभाले मिल जाएगी आप को इसी लखनऊ के चौक में।और जो सच कहिए तो मैं भी वही गाना चाहता हूं जो नागर जी बा के लिए कभी गा गए हैं, ‘तुम मेरे पास होते गोया जब कोई दूसरा नहीं होता !’ लेकिन यह तो हमारी या हम जैसे कुछ थोडे़ से लोगों की बात है। खामखयाली वाली। एक कड़वा सच यह है कि इस लखनऊ में लेखन की जो त्रिवेणी थी उस की अजस्र धारा में भीगे लोग अब कृतघ्न हो चले हैं। नागर जी की याद में यह शहर तभी जागता है जब उन के परिवारीजन उन की जयंती और पुण्‍य-तिथि पर कोई आयोजन करते हैं। यही हाल भगवती चरण वर्मा का भी है कि जब उन के परिवारीजन उन की जयंती व पुण्‍य-तिथि पर कोई आयोजन करते हैं तब शहर उन की याद में भी जाग लेता है।
अब बचे यशपाल जी। उन के बेटे और बेटी में सुनते हैं कि उन की रायलटी को ले कर लंबा विवाद हो गया और फिर वह लोग देश से बाहर रहते हैं। उन की पत्नी प्रकाशवती पाल भी इलाज के लिए सरकारी मदद मांगते हुई सिधार गईं। सो यशपाल जी को उन की जयंती या पुण्‍य-तिथि पर कोई फूल माला भी नहीं नसीब होती इस शहर में कभी। तब जब कि वह सिर्फ़ लेखक ही नहीं क्रांतिकारी भी थे। और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी के दल में। दुर्गा भाभी के साथ प्रकाशवती पाल भी उस यात्रा में साझीदार थीं और राज़दार भी जिस में भगत सिंह को अंगरेज वेष-भूषा में ट्रेन से निकाल कर ले गई थीं। ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले/वतन पर मरने वालों का बस यही बाकी निशां होगा !’ शायद हम लोग झूठ ही गाते रहे हैं। नहीं अभी वर्ष 2003 में यशपाल और भगवती चरण वर्मा की जन्मशती थी। यह कब निकल गई लखनऊ ने या हिंदी जगत ने जाना क्या? अभी नागर जी की भी जन्मशती करीब है, कोई चार साल बाद। देखना होगा कि कौन सा बाकी निशां होगा! यह कौन सा झूठा सच है मेरे लखनऊ वालो, हिंदी वालो! आखिर कृतघ्नता की भी कोई हद होती है दोस्तो! एक फ़िल्मी गाने के सहारा ले कर ही जो कहूं तो ‘जो तुम पर मिटा हो उसे ना मिटाओ !’ सचमुच गुजरात से उन के पूर्वज भले आए थे यहां पर नागर जी तो लखनऊ पर मर मिटे। बात यहां तक आई कि एक समय वह तस्लीम लखनवी तक बन बैठे। तो मसला वही था कि हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा! आखिर इस तस्लीम लखनवी की याद को लखनऊ भी तस्लीम [स्वीकार] कर ले तो आखिर हर्ज़ क्या है!
साभार  https://sarokarnama.blogspot.com से

विष्णु शर्मा ‘ हरिहर’ की दो पुस्तकों का विमोचन

कोटा / अखिल भारतीय साहित्य परिषद की ओर से आज श्री करणी नगर विकास समिति के आश्रय भवन के दिवा संगम हाल में साहित्यकार विष्णु शर्मा ‘ हरिहर’ की ” एक पगडंडी की पीर दोहा संग्रह एवं त्रिवेणी हाइकु संग्रह पुस्तकों का महाप्रभु जी बड़े मंदिर के अधिष्ठाता विनय कुमार जी महाराज के सानिध्य में विमोचन किया गया।
कार्यक्रम में विनय कुमार महाराज सहित मुख्य अथिति साहित्यकार एवम् न्यायिक मजिस्ट्रेट बीना जैन, अध्यक्ष समाज सेवी प्रवीण भंडारी, लेखक विष्णु शर्मा ने अपने विचार व्यक्त किए। समीक्षक विजय जोशी ने कृति परिचय प्रस्तुत किया। संचालन रामेश्वर शर्मा ‘ रामू भैया ‘ ने किया। कार्यक्रम में जनसंपर्क विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक, साहित्यकार जितेंद्र ‘ निर्मोही ‘, प्रेम चंद शास्त्री, वीना अग्रवाल, डॉ.मनीषा शर्मा सहित अन्य साहित्यकार और गणमान्य नागरिक मौजूद रहे। आरंभ में स्थितियों द्वारा मां शारदे की पूजा अर्चना और वंदना के साथ कार्यक्रम की शुरुआत की गई।

सिएटल वाशिंगटन में मना इंडिया डे परेड

सिएटल (अमेरिका)
माइक्रोसॉफ्ट और अमेजन कंपनियों के प्रधान कार्यालय सिएटल में होने के कारण यहाँ भारतीय मूल के लोगों की संख्या अब लाख से ऊपर पहुँच चुकी है , एक ख़ास बात यह भी कि वे मध्यम वर्गीय अमेरिकी से कहीं अधिक संपन्न हैं. भारत वंशियों के प्रभाव को देखते हुए कुछ ही महीने पूर्व भारत सरकार ने यहाँ कॉन्सुलेट कार्यालय खोला है.
इसी के साथ यहाँ पहली बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इंडिया डे परेड का आयोजन हुआ .

आज पहली बार बेलव्यू का पूरा इलाक़ा भारत माता की जय और वन्दे मातरम् से गुंजायमान हो गया . परेड में हिस्सा लेने के लिए केवल सिएटल ही नहीं दूर दराज से भी भारतीय मूल के लोग आए.
आयोजन के बारे में विशेष बात यह थी कि बिलिनेयर बिल गेट्स से ले कर सिएटल, रेडमंड, बेलव्यू, मर्सर आईलैंड, एवरेट शहरों के मेयर और शेरिफ़ भी कार्यक्रम देखने के लिए पहुँचे. सिएटल में भारत के हर कोने से आ कर कार्यरत हैं और यहाँ हर प्रान्त के लोगों ने अपने अपने सांस्कृतिक संगठन बनाये हुए हैं जिसके कारण यहाँ गणपति, दीपावली, होली , डांडिया से लेकर बिहु और पोंगल जैसे पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाये जाते हैं .

इसलिए इंडिया डे परेड में कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक सभी राज्यों के फ़्लोट थे और इन राज्यों के सांस्कृतिक जीवन की रोचक झांकियाँ देखने को मिलीं.
कॉन्सुलेट जनरल प्रकाश गुप्ता ने केवल चार महीने के कार्यकाल में इतना बड़ा आयोजन कर लिया यह बड़ी उपलब्धि है.