Tuesday, November 26, 2024
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महिलाएँ ही कर रही है महिला कानूनों का दुरुपयोग

देश की विभिन्न अदालतें महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग पर निरंतर चिंता जाहिर कर रही है परंतु इसके बावजूद ऐसे कानूनों के गलत इस्तेमाल का सिलसिला कायम है। अदालतों की चेतावनी के बाद भी कुछ महिलाओं के द्वारा कानून का दुरुपयोग उस मानसिकता की परिणति है जिसे ‘छद्म नारीवाद’ कहते हैं ।
झारखंड उच्च न्यायालय ने धारा 498 ए के दुरुपयोग पर  टिप्पणी करते हुए कहा था कि-” असंतुष्ट पत्नियां आईपीसी की इस धारा का उपयोग ढाल के रूप में नहीं बल्कि एक हथियार के रूप में कर रही हैं। इस घातक प्रवृत्ति का बढ़ना कई प्रश्नों को खड़ा करता है। नारीवाद का यह स्वरूप ‘साम- दाम- दंड -भेद ‘की नीति में विश्वास रखता है और जिसका उद्देश्य अंततोगत्वा प्रभुत्व की प्राप्ति करना है।
नारीवाद का आरंभ महिला सशक्तिकरण के प्रथम अध्याय के रूप में हुआ था ,जो सामाजिक व्यवस्था के सुचारू विकास और संतुलन के लिए बेहद जरूरी भी था क्योंकि तत्कालीन समय में महिलाएं हासिये पर धकेल दी गई थीं और वह अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की खामियों से लड़ रही थीं। इस कालावधि में भारत में दहेज -प्रथा एक बड़ी चुनौती बन चुकी थी, जिससे निपटने के लिए ‘दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961’ पारित हुआ। फिर समय परिवर्तित हुआ और लड़कियां पहले की तुलना में ज्यादा सजग ,शिक्षित, मुखर और अपने अधिकारों के प्रति जागृत हुईं। इसी बीच ‘छद्म नारीवाद’ ने भारत में घुसपैठ की । इस विचारधारा ने प्रभुत्व पर जोर दिया। नतीजतन विवाह प्रभुत्व प्राप्ति का पर्याय बन गया और उसमें शस्त्र बने महिला सुरक्षा संबंधी कानून। कुछ समय पहले मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि-‘ आजकल आई पी सी हिंदू विवाह अधिनियम और घरेलू हिंसा ने महिलाओं की सुरक्षा संबंधी अधिनियम 2005 के तहत परिवार न्यायालय एवं अदालत में पति एवं परिवार के सदस्यों के खिलाफ पांच मामलों का एक पैकेज दायर किया जा रहा है।’
दर असल यह कटु सत्य है कि , कुछ महिलाएं अपने अधिकारों के नाम पर निर्दोषों को जेल पहुंचा रही हैं। उनके हौसले इसलिए बुलंद है क्योंकि वह भली-भांति जानती है कि उनके कहने भर से पुलिस और मीडिया तथा अन्य लोग, पुरुष को ही अपराधी घोषित कर देंगे । वह  यह भी जानती है कि जब तक न्यायालय से पुरुष को न्याय मिलेगा तब तक उस का आत्मबल पूरी तरह टूट चुका होगा जो  अपने आप में ही उस महिला की जीत होगी।  पुलिस, मीडिया तथा आम जनता के एक तरफ़ा सोच ने पुरुषों के छवि को खलनायक के रूप में इस तरहगढ़ रखा है कि उनकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है। जबकि सत्य सिद्ध होने से पहले ही केवल पुरुष को पुरुष होने के नाम पर अपराधी मान लेना उन्हें आतंकित और भयभीत किए हुए हैं।
विचारणीय है कि कोई भी कानून,  सुरक्षा और विकास के लिए होती है न कि शक्ति का दुरुपयोग करने के लिए। समाज में किसी को भयभीत करने,प्रतिशोध लेने अथवा निरर्थक ही प्रताड़ित करने के लिए तो विल्कुल भी नहीं।
यदि कोई प्रतिशोध लेने के नीयत से हथियार बना कर  कानूनों का इस्तेमाल करता है तो उन पुरुषों और परिवार के सदस्यों को  सामाजिक तिरस्कार, बदनामी तथा असहनीय पीड़ा को सहन करनी पड़ती है। बरसों पहले नोएडा की एक युवती ने कथित तौर पर, दहेज मांगे जाने पर भरे मंडप से शादी से इनकार करके मीडिया में छा गई थी। उनकी बात को बिना किसी विचार के संपूर्ण सत्य मान लिया गया था। उसके द्वारा लिखी गई झूठी पटकथा  ने रातों- रात फेमस बना दिया औरउ उस व्यक्ति का जीवन तहस-नहस कर दिया जिससे उसकी शादी होने वाली थी । जब कोर्ट का फैसला आया तो तस्वीर बिल्कुल उल्टी थी। नायिका बन चुकी युवती के संबंध में कोर्ट ने दहेज के आरोपों को बनावटी कहानी ठहराया। जो कानून को हथियार बनाकर उस लड़के से बदला ले रही थी थी।
यह कोई एकलौती घटना नहीं है बल्कि आए दिन ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं और कानून का दुरूपयोग लोमड़ी महिलाएं तथा उनके पीछे खड़े बहुरुपिये पुरुष अपने प्रतिशोध का हथियार बना कर कर रहे हैं। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रायः परिवार टूट रहे हैं। परिवारों का विखंडन होने से बच्चे मानसिक रूप से और आत्मिक रूप से कमजोर हो रहे हैं।  इतना ही नहीं वल्कि वास्तविक रूप से प्रताड़ित महिलाएं जिन्हें इस कानून और अधिनियम की सख्त आवश्यकता होती है वह वंचित रह जाती हैं।  कैसे विश्वास किया जाए कि कौन ढोंगी है और कौन सच्चा? परखना बड़ा मुश्किल है। अतः कानून का इस्तेमाल सुरक्षा के लिए  ढाल के रूप में किया जाए प्रतिशोध के लिए हथियार न बनाया जाए।
-डॉ  सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ स्वतंत्र लेखिका
अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)

व्यंग्य की फुहारों से भीगे चित्रनगरी के श्रोता

चित्रनगरी संवाद मंच का माहौल ऐसा लग रहा था जैसे घर परिवार के सदस्य गपशप के लिए साथ बैठे हों। अपने विशिष्ट चुटीले अंदाज़ में संचालन करते हुए कवि सुभाष काबरा ने शुरुआत में ही वातावरण को इतना रसमय बना दिया कि हंसते मुस्कुराते, ठहाके लगाते कब दो घंटे गुज़र गए पता ही नहीं चला।
जाने माने कवि-व्यंग्यकार डॉ संजीव निगम की व्यंग्य रचना उनकी जीवनसंगिनी शशि निगम ने उन्हीं के अंदाज़ में पेश की और कुछ रोचक प्रसंग साझा किये। शशि जीने कहा- “संजीव थे” यह मैं कभी नहीं कह सकती। मैं कहती हूँ – “संजीव हैं” और मैं हमेशा उनकी मौजूदगी महसूस करती हूँ।
नवभारत टाइम्स में ‘खाली पीली’ स्तम्भ लिखने वाले सुप्रसिद्ध कवि व्यंगकार यज्ञ शर्मा के सुपुत्र उन्मेष शर्मा ने अपने पिताजी की मधुर स्मृतियों का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने हमें शब्दों को बरतने का सलीक़ा सिखाया। उन्मेष ने बड़े सुरुचिपूर्ण तरीके से पिता यज्ञ शर्मा की व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया। श्रोताओं की मांग पर उन्होंने बच्चों पर लिखी हुई यज्ञ जी की चर्चित कविता का भी पाठ किया।
रविवार 11 अगस्त 2024 को केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट गोरेगांव मुम्बई के मृणालताई हाल में आयोजित चित्रनगरी संवाद मंच के इस कार्यक्रम में फरीदाबाद से पधारी शायरा मीनाक्षी जिजीविषा विशेष रूप से मौजूद थीं। उन्होंने कुछ चुनिंदा शेर और दो ख़ूबसूरत ग़ज़लें सुनाकर अपनी गहरी छाप छोड़ी।
‘धरोहर’ के अंतर्गत कवि राजेश ऋतुपर्ण ने कथाकार सूरज प्रकाश द्वारा अनूदित चार्ली चैपलिन की आत्मकथा का एक मार्मिक अंश पेश किया जिसकी श्रोताओं ने बहुत तारीफ़ की। कवि महेश दुबे ने समय और समाज के ज्वलंत सवालों पर एक महत्वपूर्ण व्यंग्य रचना का पाठ करके बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया। शैली के साथ ही उनका कथ्य भी सराहनीय था। ठाणे से पधारे व्यंग्यकार महेश साहू के व्यंग्य लेख में ऐसी रोचकता थी कि श्रोताओं ने तालियां बजाकर उनकी हौसला अफ़ज़ाई की। कवि रमेश शर्मा के समसामयिक दोहों को श्रोताओं ने पसंद किया। संचालक सुभाष काबरा और संयोजक देवमणि पांडेय ने भी व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया।
इस अवसर पर हॉल में कई मशहूर रचनाकार उपस्थित थे। इनमें मधु अरोड़ा, शशि शर्मा, विवेक अग्रवाल, मनजीत सिंह कोहली, नवीन चतुर्वेदी, उदयभानु सिंह, यशपाल सिंह यश, आर एस रावत, दमयंती शर्मा, अमर त्रिपाठी, सविता दत्त, अनीश मलिक, नुसरत खत्री, अफ़ज़ल खत्री, और क़मर हाजीपुरी का समावेश था।

रक्षा बन्धन का महत्व् एवं मुहुर्त

रक्षाबंधन का  पर्व 19 अगस्त 2024 को मनाया जाएगा. इस दिन सावन का आखिरी सोमवार भी पड़ रहा है. रक्षाबंधन के दिन सावन सोमवार के साथ इस बार कई शुभ योग बन रहे हैं. हालांकि इस बार सावन माह की पूर्णिमा पर भद्रा का साया है. ऐसे में रक्षाबंधन के त्योहार पर भद्रा भी रहेगी. इसलिए भद्राकाल का समय और शुभ मुहूर्त जानना जरूरी है.

धार्मिक शास्त्रों में भद्रा के समय में शुभ कार्य नहीं करना चाहिए. 18 अगस्त 2024 की रात 2 बजकर 21 मिनट पर भद्रा की शुरुआत होगी और इसका समापन 19 अगस्त 2024 को दोपहर में 1 बजकर 24 मिनट पर होगा. इस समय तक राखी बांधने के लिए शुभ समय नहीं है. इसके बाद ही अपने भाई की कलाई पर राखी बांध सकते है.

सावन पूर्णिमा तिथि 19 अगस्त को सुबह 03 बजकर 44 मिनट पर शुरू होगी और 19 अगस्त को देर रात 11 बजकर 55 मिनट पर समाप्त होगी. पंचांग के अनुसार 19 अगस्त 2024 दिन सोमवार को रक्षाबंधन मनाई जाएगी. हालांकि इस दिन भद्रा का साया रहेगा. भद्रा योग के समय में राखी नहीं बांधी जाती है. इस साल राखी बांधने का शुभ मुहूर्त दोपहर 1 बजकर 26 मिनट से शाम 6 बजकर 25 मिनट तक रहेगा.

सावन मास की पूर्णिमा तिथि यानि रक्षाबंधन 19 अगस्त 2024 की सुबह से लेकर रात 8 बजकर 40 मिनट तक सर्वार्थ सिद्धि योग बना रहेगा. इसके साथ ही रक्षाबंधन पर शोभन योग का निर्माण होगा. शोभन योग 20 अगस्त को 12 बजकर 47 मिनट तक रहेगा. वहीं, धनिष्ठा नक्षत्र का संयोग बन रहा है. इस योग का संयोग 20 अगस्त को 05 बजकर 45 मिनट तक है. इस योग में शुभ कार्य करने पर हर मनोकामना पूरी होती है.

सावन पूर्णिमा पर राखी बांधने का सही समय दोपहर 01 बजकर 32 मिनट से लेकर 04 बजकर 20 मिनट तक है, इसके बाद प्रदोष काल में शाम 06 बजकर 56 मिनट से लेकर 09 बजकर 08 मिनट तक है, इन दोनों समय में अपनी सुविधा अनुसार, बहनें अपने भाइयों को राखी बांध सकती हैं.

पौराणिक कथाओं के अनुसार, द्रौपदी ने श्री कृष्ण को सबसे पहले राखी बांधी थी. कहा जाता है कि भगवान कृष्ण की उंगली सुदर्शन चक्र से कट गई थी, जिसे देख द्रौपदी ने खून रोकने के लिए अपनी साड़ी से कपड़े का एक टुकड़ा फाड़कर चोट पर बांधा था. उस समय भगवान कृष्ण ने हमेशा द्रौपदी की रक्षा करने का वादा किया था. वहीं, जब द्रौपदी को सार्वजनिक अपमानित किया जा रहा था, तब श्री कृष्ण ने अपना ये वादा पूरा किया था.

रक्षा बन्धन – जिसे लोकभाषाओं में सलूनो, राखी और श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने के कारण श्रावणी भी कहा जाता है – हिन्दुओं का एक लोकप्रिय त्यौहार है | इस दिन बहनें अपने भाई के दाहिने हाथ पर रक्षा सूत्र बाँधकर उसकी दीर्घायु की कामना करती हैं | जिसके बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है | सगे भाई बहन के अतिरिक्त अन्य भी अनेक सम्बन्ध इस भावनात्मक सूत्र के साथ बंधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से भी ऊपर होते हैं |

कहने का अभिप्राय यह है की यह पर्व केवल भाई बहन के ही रिश्तों को मज़बूती नहीं प्रदान करता वरन जिसकी कलाई पर भी यह सूत्र बाँध दिया जाता है उसी के साथ सम्बन्धों में माधुर्य और प्रगाढ़ता घुल जाती है | यही कारण है कि इस अवसर पर केवल भाई बहनों के मध्य ही यह त्यौहार नहीं मनाया जाता अपितु गुरु भी शिष्य को रक्षा सूत्र बाँधता है, मित्र भी एक दूसरे को रक्षा सूत्र बांधते हैं | भारत में जिस समय गुरुकुल प्रणाली थी और शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे उस समय अध्ययन के सम्पन्न हो जाने पर शिष्य गुरु से आशीर्वाद लेने के लिये उनके हाथ पर रक्षा सूत्र बाँधते थे तो गुरु इस आशय से शिष्य के हाथ में इस सूत्र को बाँधते थे कि उन्होंने गुरु से जो ज्ञान प्राप्त किया है सामाजिक जीवन में उस ज्ञान का वे सदुपयोग करें ताकि गुरुओं का मस्तक गर्व से ऊँचा रहे | आज भी इस परम्परा का निर्वाह धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है | पुत्री भी पिता को राखी बांधती है कई जगहों पर पिता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये | वन संरक्षण के लिये वृक्षों को भी राखी बाँधी जाती है |

इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपाकर्म होता है | उत्सर्जन, स्नान विधि, ऋषि तर्पण आदि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | प्राचीन काल में इसी दिन से वेदों का अध्ययन आरम्भ करने की प्रथा थी | विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था | हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है | ऋग्वेदीय उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा से एक दिन पहले सम्पन्न किया जाता है | जबकि सामवेदीय उपाकर्म श्रावण अमावस्या के दूसरे दिन प्रतिपदा तिथि में किया जाता है | उपाकर्म का शाब्दिक अर्थ है “नवीन आरम्भ” | इस दिन ब्राहमण लोग पवित्र नदी में स्नान करके नवीन आरम्भ अथवा नई शुरुआत के प्रतीक के रूप में नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं | इसी दिन अमरनाथ यात्रा भी सम्पन्न होती है | कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग पूरा होता है |

अलग अलग राज्यों में इस पर्व को अलग अलग नामों से जाना जाता है – जैसे उड़ीसा में यह पर्व घाम पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है, तो उत्तराँचल में जन्यो पुन्यु (जनेऊ पुण्य) के नाम से, तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा बिहार में कजरी पूर्णिमा के नाम से इस पर्व को मनाते हैं | वहाँ तो श्रावण अमावस्या के बाद से ही यह पर्व आरम्भ हो जाता है और नौवें दिन कजरी नवमी को पुत्रवती महिलाओं द्वारा कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है तथा अनेक प्रकार से पूजा अर्चना की जाती है जो कजरी पूर्णिमा तक चलती है |

उत्तरांचल के चम्पावत जिले के देवीधूरा में इस दिन बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ कहते हैं | इस युद्ध में घायल होने वाला योद्धा भाग्यवान माना जाता है और युद्ध के इस आयोजन की समाप्ति पर पुरोहित पीले वस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में आकर योद्धाओं पर पुष्प व अक्षत् की वर्षा कर उन्हें आशीर्वाद देते हैं | इसके बाद योद्धाओं का मिलन समारोह होता है | गुजरात में इस दिन शंकर भगवान की पूजा की जाती है |

महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा और श्रावणी दोनों कहा जाता है तथा समुद्र के तट पर जाकर स्नानादि के पश्चात् वरुण देव की पूजा करके नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधा जाता है | रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है | इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और या राखी केवल भगवान को बांधी जाती है | चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है |

इस दिन राजस्थान में कई स्थानों पर दोपहर में गोबर मिट्टी और भस्म से स्नान करके शरीर को शुद्ध किया जाता है और फिर अरुंधती, गणपति तथा सप्तर्षियों की पूजा के लिये वेदी बनाकर मंत्रोच्चार के साथ इनकी पूजा की जाति है | पितरों का तर्पण किया जाता है | उसके बाद घर आकर यज्ञ आदि के बाद राखी बाँधी जाती है | तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा तथा अन्य दक्षिण भारतीय प्रदेशों में यह पर्व “अवनि अवित्तम” के नाम से जाना जाता है तथा वहाँ भी नदी अथवा समुद्र के तट पर जाकर स्नानादि के पश्चात् ऋषियों का तर्पण करके नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | कहने का तात्पर्य यह है की रक्षा बन्धन के साथ साथ इस दिन देश के लगभग सभी प्रान्तों में यज्ञोपवीत धारण करने वाले द्विज लगभग एक ही रूप में उपाकर्म भी करते हैं |

श्री भागवत परिवार द्वारा प्रकाशित राममय भारत का लोकार्पणम्

मुंबई। मुंबई के ठाकुर कॉलेज के सभागृह में श्री  भागवत परिवार व ठाकुर एजुकेशन ट्रस्ट द्वारा आयोजित राममय भारत ग्रंथ का लोकार्पणम् एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया।

इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित जाने माने अध्यात्मिक गुरु श्री भूपेन्द्र भाई पण्ड्या,  ने वाल्मिकी रामायण और तुलसी  की रामचरित मानस का सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि ये राम के चरित्र की महत्ता है कि देश में 230 रामायण हैं। हर प्रांत हर भाषा के लोगों ने राम को अपनी दृष्टि से देखा और उनकी महिमा का वर्णन किया। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि वाल्मिकी और तुलसी ने सनातन हिंदू संस्कृति और सामाजिक प्रतिबध्दता के साथ जो रामचरित गाया है वह मनुष्य की अपने ही प्रति श्रध्दा की प्रस्तुति है।

उन्होंने कहा कि अगर तुलसी ने राम चरित मानस न लिखा होता तो हम आज गुलामी के शिकार तो होते ही ह्म अपने धर्म को भी नहीं बचा पाते। तुलसी दास ने ये संदेश दिया कि हमें अपनों से नहीं लड़ना है बल्कि अपनी बुराईयों से लड़ना है।

वाल्मिकी रामायण का उल्लेख करते हूए भूपेन्द्र भाई ने कहा कि वाल्मिकी के राम हमें सिखाते हैं कि हमें अपने लक्ष्य को पूरा किए बगैर उससे पीछे नहीं हटना है। उन्होंने कहा कि हम अपना शौर्य भूल चुके हैं। दुनिया ने हमारी अहिंसा को हमारी कमजोरी मान लिया है जबकि हम अहिंसक हैं नपुंसक नहीं।  उन्होंने एक रोचक किस्से के साथ समझाया कि आज हिंदू समाज की स्थिति कैसी है। उन्होंने कहा कि एक गाय को कुछ लोमड़ियों ने घेर लिया जब गाय ने अपने सींग से लोमड़ियों को भगाने का उपक्रम किया तो  लोमड़ियों ने गाय पर आरोप लगाया कि वह हिंसा कर रही है, वह नफरत फैला रही है। इस दुष्प्रचार से गाय शांत हो गई। लेकिन कुछ ही देर में लोमड़ियों के झुंड ने गाय को नोचना शुरु कर दिया और उसकी जान ले ली। उन्होंने कहा कि हिंदू समाज आज उसी  गाय की तरह नफरती और हिंसक लोमड़ियों से गिरा हुआ है। हिंदू समाज को अपनी शक्ति पहचाननी होगी। हिंदू समाज को राम के  व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर अपनी संस्कृति और मूल्यों को बचाना होगा।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि  श्री पीयूष गोयल ने कहा कि हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत को पुनर्स्मरण करने में ये ग्रंथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। उन्होंने कहा कि राम सबके लिए प्रेरक हैं। नरेंद्र मोदी पूरी सरकार को रामराज्य की तरह चला रहे हैं। नरेन्द् मोदीजी के नेतृत्व में देश के धार्मिक स्थानों का पुनरोध्दार किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि विकास और विरासत दोनों एक साथ हों तभी विकास सार्थक होता है। प्रधान मंत्री श्री मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में तीन गुना तेजी से देश के विकास को गति देंगे।
श्री पराग संघानी ने कहा कि राम मय भारत एक अद्भुत ग्रंथ है और इस ग्रंथ की विषय वस्तु को लेकर पूरे देश के स्कूल और कॉलेजों मे ंसेमिनार आयोजित किए जाने चाहिए ताकि नई पीढ़ी को हमारी संस्कृति, हमारी विरासत और राम जैसे चरित्र की विशेषताओँ की जानकारी मिले। उन्होंने कहा कि हमें राममय भारत के साथ ही राममय विश्व की भी कल्पना करना होगी।

कार्यक्रम में   पीपी सबानी विश्वविद्यालय, सूरत  के प्रोवोट कुलपति श्री पराग संघानी,  ठाकुर कॉलेज के ट्रस्टी श्री वीके सिंह, जितेंद्र सिंह, प्रभात प्रकाशन के श्री प्रभात कुमार  व महाराष्ट्र राज्य  हिंदी अकादेमी के  अध्यक्ष श्री शीतला प्रसाद दुबे विशेष  अतिथि के रूप में उपस्थित थे।

डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय ने तुलसीदास के जीवन के कई जाने अनजाने व रोचक पहलुओं के बारे में जानकारी दी।

 
इस अवसर पर श्री वीरेन्द्र याज्ञिक ने राममय भारत ग्रंथ के प्रकाशन की भूमिका और इसके महत्व पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम का संचालन मुंबई विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष श्री करुणा शंकर उपाध्याय ने किया।

इस अवसर पर राममय भारत ग्रंथ के संपादन से जुड़े डॉ. रतन शारदा, श्रीमती पूनम बुधिया, डॉ. निर्मला पेड़ीवाल का सम्मान श्री पीयूष गोयल ने किया।

कार्यक्रम में वाणी याज्ञिक और नेहा शर्मा ने श्री रामचंद्र क़पालु भजमन पर सुंदर नाट्य प्रस्तुति दी।

श्री भागवत परिवार के सभी ट्रस्टियों,शुभचिंतकों,सदस्यों,कार्यक्रम के संयोजक सर्वश्री शिव कुमार सिंघल,श्री सत्य नारायण पाराशर,श्री पंकज जी टिब्रेवाल,संयोजक मंडल के सभी सदस्यों ने इस आयोजन को सफल व यादगार आयोजन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

“मैला आँचल” के सत्तर साल

फणीश्वरनाथ रेणु जी की यह अमर कृति “मैला आँचल” आज  से 70 साल पहले, 9 अगस्त 1954 ही के दिन पहली बार प्रकाशित हुई थी।

यह उपन्यास मुझे इतना प्रिय है कि लगभग हमेशा ही सिरहाने या फिर एक हाथ की दूरी पर ही रहता है। जिससे जब चाहूँ, उठाकर कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दूँ। और हर बार उतना ही आनन्द आता है। इसे धीरे-धीरे पढता हूँ, बचपन में मिलने वाली किसी मिठाई की तरह। धीरे-धीरे चुभलाते हुए। इस डर के साथ कि कहीं जल्दी से ख़त्म न हो जाए।

जब-जब पढ़ो तो हर बार यही लगता है कि अगर इसकी ऑब्जेक्टिविटी को छोड़ दिया जाए तो आज सत्तर सालों बाद भी कुछ नहीं बदला।
वही कोलाज, कैनवस व पृष्ठभूमि।
इसका मेरीगंज गाँव, वहाँ की राजनीति, कमला मैया, गाँव के ताल-तलैया, नदी-नाले, पोखर सब कुछ अपने से लगते हैं।
मठ के सेवादास, रामदास, लक्ष्मी ब्राह्मणटोली के जोतखी काका, सहदेव मिसर, नामलरैन मिसर, राजपूत टोली या सिपाहियाटोली’के ठाकुर रामकृपाल सिंघ, शिवशक्कर सिंघ, हरगौरी कायस्थ टोली या कैथ टोली’ के मुखिया तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद मल्लिक और उनकी बेटी कमली यादव टोली के खेलावन सिंह यादव, कालीचरण इसके अलावा चन्ननपट्टी से अपनी मौसी के यहाँ आया बालदेव डॉक्टर प्रशांत कुमार, ममता, प्यारू, लबड़ा सुमरितदास, बावनदास, बिरंचीदास, खलासी जी…..इत्यादि सब

एक-एक किरदार सब अपने से लगते हैं। जैसे लगता है अभी किवाड़ खोलकर कोई किरदार इनमें से सामने आ खड़ा होगा। नजर दौड़ाएंगे तो अपने आसपास इन्हीं में से किसी ने किसी को किसी ने किसी रूप में पाएंगे।  पगले मार्टिन और उसकी परी सी मेम, गन्ही महातमा से लेकर जमहिर लाल, जयपरगास बाबू से लेकर फटाक से बम फोड़ देना वाला मस्ताना भगत सिंह तक…सब अंदर तक रच बस गए हैं। भाषा, नाद, बिंब, शिल्प, ध्वनि सब कुछ ऐसा है कि जैसे लोक जीवन का कोई चलचित्र चल रहा हो और उसके मुख्य पात्र हम ही हैं।

सुरंगा-सदाबृज की कथा..विदापत की नाच…आह ! अखाड़े में शोभन मोची की ताल काटती हुई ढोल…ढाक-ढिन्ना, ढाक-ढिन्ना..या फिर संथाल टोली में बजता हुआ डिग्गा डा-डिग्गा, डा-डिग्गा…और मादल का स्वर रिं-रिग्गा, रिं-रिग्गा…कहीं पर परिष्कृत भाषा मनमोहक लगेगी तो कहीं पर बिल्कुल ठेठ गँवईं भाषा पर मंत्र मुग्ध हो जाएंगे।
हालांकि कहा तो इसे रेणु का आंचलिक उपन्यास जाता है, लेकिन इसका फलक इतना विस्तृत है कि आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे। रेणु जी का दृष्टिकोण इतना सूक्ष्म और विस्तारवादी है कि इन्होंने उसमें क्या-क्या नहीं समाहित कर दिया है। इसमें उन्होंने इतिहास विज्ञान, मनोविज्ञान सब कुछ तो कवर किया ही है।
जब विज्ञान की बात करेंगे तो एक तरफ तो थायराइड, थाइमस, प्युटिटरी ग्लैंड्स के हॉर्मओन के हेर-फेर और दूसरी तरफ कालाआजार के ब्रह्मचारी टेस्ट की बात करते हैं। तो कहीं एक एंटीबॉडी टेस्ट डब्ल्यू. आर. (W.R.) वॉशरमैन टेस्ट या वॉशरमैन रिएक्शन के बारे में बताते हैं। तो कहीं, वेदांत भौतिकवाद सापेक्षवाद और मानवतावाद की बात करते हैं। इसमें वे एटॉमिक या न्यूक्लियर एक्सप्लोजन की बात करते हैं, उसके बाद होने वाले ‘न्यूक्लियर विंटर’ की और सभी जीवित प्राणियों की वाष्प बनकर उड़ जाने की भी बात।
कहीं टेस्ट ट्यूब बेबी की और लैब में प्रयोग में आने वाले गिनी पिग की भी।
जब मनोविज्ञान की बात आएगी तो हिस्टीरिया, फोबिया, काम-विकृति, हठ-प्रवृत्ति का भी जिक्र आएगा।  सोशलिज्म या कम्युनिज्म की बात होगी तो रिएक्शनरी, डिमोरलाइज़्ड, और मार्क्स के दर्शन डायलेक्टिकल मˈटिअरिअलिज़म्‌ (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद) के साथ-साथ लाल सलाम कामरेड की भी बात होगी।  मिट्टी और मनुष्य से इतनी गहरी मोहब्बत किसी लेबोरेटरी में नहीं बनती। सोचता हूँ कि रेणूजी का फलक कितना विस्तृत रहा होगा।
इसी बात को उन्होंने इस किताब की भूमिका में लिख रखा है:
“इसमें फूल भी हैं शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी है, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”
हम भी इसके दामन से बढ़ नहीं पाए और आज इसके प्रकाशन के 70 सालों बाद भी हम जैसे पाठकगण “मैला आँचल” के उसी दमन में लिपटे हुए खुद को खेलते-कूदते, पलते-बढ़ते हुए पाते हैं।आईआईटी कानपुर के छात्रों द्वारा निर्मित हिंदी साहित्य सभा (https://hindisahityasabha.in/) में मैला आंचल के बारे में कहा गया है

सुमित्रानंदन पंत जी की कविता थी ‘भारत माता’ जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं
“भारत माता ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल…”फणीश्वरनाथ रेणु की मैला आँचल भारत माता के उसी धूल भरे आँचल की कहानी है। मैला आँचल को ‘गोदान’ के बाद हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास भी माना जाता है। सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास ने आँचलिकता की नयी विधा को जन्म दिया। रेणु एक गांव की कहानी के माध्यम से स्वातंत्र्योत्तर भारत के गांवों में जन्मे राजनैतिक चेतना व अंतर्विरोध को दर्शाते हैं। भारत की स्वतंत्रता इस उपन्यास को दो खंडो में बांट देती है और गांधीजी की हत्या के साथ ही उपन्यास अपने अंत की ओर पहुंचता है, और साथ ही पतन होता है उस आदर्श राजनीति का जिसका उन्होंने कभी स्वप्न देखा था। सामान्य लोगों में राजनीति पहुंचती तो है पर उसमें निष्ठा, आचरण, गंभीरता सब समाप्त हो जाती है।

कहानी उत्तर पूर्वी बिहार के कोसी नदी के शोक से ग्रसित पूर्णिया जिले के एक छोटे से गांव मेरीगंज में अस्पताल खुलने और उसके पश्चात यहाँ के लोगों और उनके साथ होती घटनाओं पर आधारित है। गांव के लोग अंधविश्वासी हैं, उनमें जातिगत भेदभाव अत्यधिक है,उनकी शिक्षा, मानसिकता और बुनियादी सुविधाओं पर पिछड़ेपन की छाप है।

“गाँव के लोग बड़े सीधे दीखते हैं; सीधे का अर्थ यदि अनपढ़, अज्ञानी और अंधविश्वासी हो तो वास्तव में सीधे हैं वे।”

प्रारम्भ में तीन किरदार प्रमुख रूप से सामने आते हैं। बालदेव, डॉक्टर प्रशान्त, दासी लक्ष्मी। बालदेव जी कांग्रेस के कार्यकर्ता है, जो जेल भी जा चुके है। गांव में उनका बहुत मान सम्मान है और ऐसा माना जाता है कि वो हर बात सोच समझ के करते है। लक्ष्मी महंत सेवादास की दासी है। कम उम्र में अनाथ होने के बाद से ही मठ पर उसका शोषण होता रहा। किन्तु इन सब के बावजूद वो एक बेहद समझदार और व्यवहार कुशल महिला है। बालदेव जी लक्ष्मी की मदद करते है, जो मन ही मन लक्ष्मी के लिए आकृष्ट होते है और दोनों का प्रेम बेहद पवित्र होता है।

डॉक्टर प्रशांत कुमार भी एक अनाथ बच्चा था लेकिन उसे एक आश्रम में संरक्षण मिला । वह डॉक्टरी पूरी कर विदेश में संभावनाएं तलाशने के स्थान पर अपने देश मे रहकर पिछड़े गांववालों की मलेरिया, काला अज़ार और हैज़ा जैसी बीमारियों का इलाज ढूंढने का निर्णय लेता है। पर गांव वालों की असल बीमारी तो गरीबी और जहालत है। निर्धन और विवश किसानों की स्थिति जानवरों से भिन्न नहीं है।

“बैलों के मुँह मे जाली का ‘जाब’ लगा दिया जाता है। गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है- मूँह में जाली का ‘जाब’… लेकिन खम्हार का मोह! यह नहीं टूट सकता।”

परन्तु समय के साथ किसानों में जागरण होना प्रारंभ होता है और स्थिति में परिवर्तन की आशाएं जाग जाती हैं। भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का आगमन होता है। बालदेव विरोध के लिए गांधीजी के चरखा कर्घा के माध्यम से आत्मनिर्भरता लाने के प्रयास करता है तो कालीचरण सोशलिस्ट क्रान्ति की राह अपनाता है। इसी प्रकार अन्य दल भी प्रवेश करते हैं।

“गाँव में तो रोज़ नया-नया सेंटर खुल रहा है- मलेरिया सेंटर, काली टोपी सेंटर, लाल झंडा सेंटर, और अब एक चरखा सेंटर!”

परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात यह सब उलझ कर रह जाता है। वामनदास की कहानी इसी उलझन को दर्शाती है। वह व्यथित है, गांधीजी से अपने प्रश्नों के उत्तर चाहता है। उसने अपना पूरा जीवन जिस कांग्रेस के लिए कार्य करते हुए जिनका विरोध किया, अंततः वह पार्टी उन्हीं सब कुरीतियों और षड्यंत्रों का शिकार बन कर रह जाती है।

बाकी राजनैतिक दल भी मात्र सत्ता के लोभी बनकर रह जाते हैं, और जातिगत जोड़ घटाव शेष रह जाता है।

बावनदास सोचता है, अब लोगों को चाहिए की अपनी अपनी टोपी पे लिखवा लें – भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन!… कौन काजकर्ता किस पार्टी का है, समझ में नहीं आता। इन सब द्वंद में उलझे प्रत्येक किरदार की अपनी समस्याएँ हैं अपनी उलझने हैं अपनी कहानी है जो सब कभी एक दूसरे से विपरीत हैं तो कभी साथ साथ चलती हैं। सभी मिलकर अंततः आँचल को उपन्यास का मुख्य नायक बना देती हैं।

रेणु की भाषा लेखन के बिल्कुल नये रूप को जन्म देती है। उसमें चित्र है, लोक गीत हैं, कविताएँ है, ढोलक और अन्य वाद्य यंत्रों की झंकार है, चिड़ियों की चहचहाहट है और गाँवों की मिठास है। रेणु ने संथाल और मैथिल परगना के जिस लोक का निर्माण किया है वहाँ शब्दों को जैसे बोला जाता है वैसे ही कथानक में उतारा है।

इस उपन्यास के द्वारा ‘रेणु’ जी ने पूरे भारत के ग्रामीण जीवन का चित्रण करने की कोशिश की है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत इसका सहज, सरल और उसी परिवेश का होना है | उन लोकगीतों ने इस उपन्यास को अमर कर दिया है, जो आज के परिवेश में कहीं खो गए है। भारत को जानने के लिये यह उपन्यास बहुत अहम स्थान रखता है।

कवि! तुम्हारे विद्यापति के गान हमारी टूटी झोपड़िया में मधुरस बरसा रहे हैं…

यह उपन्यास को पढ़के आप इसके पात्रों के साथ डूबने उतरने लगते है और स्वयं को उसी ग्रामीण परिवेश में महसूस करने लगते है, जो हम में से बहुत कम लोगों ने जिया है और यही कारण है जो इस उपन्यास को एक असीम कृति बना देता है।

साहित्यकार बी.एल.आच्छा: आलोचना, लघुकथा और व्यंग्य में पहचान के सशक्त हस्ताक्षर

परंपरागत, आधुनिक और समकालीन साहित्यिक परिवेश और संदर्भों को विस्तार दे कर सृजनकार साहित्य के कैनवास पर व्यंग्य विधा से लेखन शुरु करने वाले राजस्थान के  बी. एल. आच्छा ने व्यंग्यकार के रूप में राष्ट्रीय पहचान बनाई, मगर समालोचक के रूप में आपके कार्यों ने आपको देशव्यापी ख्याति प्राप्त हुई । आप कवि और श्रेष्ठ लघुकथाकार भी हैं। लघुकथा समीक्षा को ले कर देश के लघुकथाकारों की समीक्षा पुस्तकें काफी चर्चित हुई।
‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी  के उपन्यास’ पुस्तक कई दृष्टियों  से महत्वपूर्ण है।अतीत के पुनर्सृजन, भावात्मक इतिहास, नव्य यथार्थ, ऐतिहासिक शोध, सामयिक विचार और नूतन स्थापत्य के आयोजन में द्विवेदी जी के उपन्यासों की अर्थवत्ता प्रासंगिक महत्व रखती है। संस्कृति के मानवतावादी पक्ष उनमें गहरे हैं और बदलती लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की पक्षधरता भी गहरी है। इनके  उपन्यासों पर समीक्षा पुस्तक भी खासी  चर्चा में रहीं। इस समीक्षा पुस्तक में उपनिषद काल से लेकर आधुनिक काल को समेटा गया है। इतिहास के चित्र ही नहीं, समकाल के लिए प्रबोधक संकेत आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों का प्रगतिशील संदर्भ है।
इसी प्रकार रामदरश मिश्र के उपन्यास पर ‘जल टूटता हुआ’ की पहचान’ पुस्तक में आंचलिकता के सन्दर्भ सहित सभी पक्षों पर समग्र विश्लेषण किया गया है । ‘सर्जनात्मक भाषा और आलोचना’ पुस्तक में सामाजिक सरोकारों की कृति और उसकी भाषा से पहचान। इसी परिप्रेक्ष्य में कतिपय कविताओं, कहानियों, उपन्यासों का विश्लेषण इस पुस्तक में प्रायोगिक तौर पर हुआ है। आप हिंदी की गद्य और पद्य दोनों विधाओं के शिल्पी हैं।  लघुकथा विधा की समीक्षा पर इन्होंने व्यापक कार्य किया है। ‘हिन्दी की कालजयी लघुकथाएं ‘ (संपादक-मधुदीप) और ‘लघुकथा: इक्कीसवीं  सदी के दो दशक’ (डॉ-नीरज सुधांशु) पुस्तकों में भारतेन्दु  से लेकर सन 2020 तक की 132 चयनित लघुकथाओं की व्यावहारिक समीक्षा उल्लेखनीय है । शीर्षस्थ  लघुकथाकारों पर विस्तृत आलेखों के साथ समीक्षा सन्दर्भित आलेख भी प्रकाशित हुए हैं।
समीक्षा अथवा आलोचना में इनकी दृष्टि कृति और उसकी भाषिक चेतना पर केन्द्रित रहती है।  “सृजन का अंतर्पाठ “और “कृति की राह से” पुस्तकों में सत्तर कृतियों या लेखकों के सृजन  कर्म की समीक्षा समाहित हैं।
साहित्य सृजन की कृतियों की कुछ बानगी इनकी उक्त साहित्यिक यात्रा के साथ प्रसंगवश उल्लेखित हैं। फिर भी इनकी प्रकाशित कृतियों पर एक नज़र डालते हैं तो ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास’ ,’सर्जनात्मक भाषा और आलोचना’ , “जल टूटता हुआ” की पहचान’ , ‘सृजन का अंतर्पाठ: रचनात्मक समीक्षा ‘ , ‘कृति की राह से’ (सृजन समीक्षा), ‘आस्था के बैंगन ‘(व्यंग्य), ‘पिताजी का डैडी संस्करण’ (व्यंग्य), ‘मेघदूत का टी. ए. बिल’ (व्यंग्य ), हिन्दी की कालजयी लघुकथाएं (संकलन में 85 पृष्ठों की भूमिका) और लघुकथाएं: इक्कीसवीं सदी के दो दशक (95 पृष्ठों में समीक्षात्मक भूमिका) शामिल हैं। इन्होंने विभिन्न विषयों पर 150 से ज्यादा शोध पत्र और लघुकथाएं लिखी हैं। इन्होंने  ‘सृजन संवाद ‘लघुकथा विशेषांक प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन (संस्कृति विभाग, मध्य प्रदेश शासन) का संपादन भी किया है। देश की ख्यातनाम पत्र – पत्रिकाओं में आपके आलेख, साक्षात्कार, रचनाएं निरंतर प्रकाशित होते हैं।
 रचनाकार को उनके श्रेष्ठ लेखन और कृतियों के लिए विभिन्न प्रतिष्ठित अकादमियों और संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया गया है। राजस्थान  और मध्यप्रदेश कुछ साहित्य अकादमियों एवं संस्थाओं से आपको प्राप्त सम्मान में डॉक्टर देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार,  पं.नंद दुलारे वाजपेयी आलोचना  पुरस्कार, डॉ. संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, लघुकथा समालोचना सम्मान , शताब्दी सम्मान , साहित्य गरिमा समिति सम्मान  और आचार्य कृष्णदत्त स्मृति व्यंग्य विधा सम्मान शामिल हैं।
देश के प्रसिद्ध समालोचक, वयंग्वकार और लघुकथाकार  बी. एल. आच्छा का जन्म 5 फखरी 1950 को  राजसमंद जिले के देवगढ़ मदारिया में पिता स्व. गणेश लाल आच्छा और माता धापूबाई आच्छा के आंगन में हुआ। आपकी स्कूली शिक्षा देवगढ़ (जिला राजसमंद)में हुई और उच्च शिक्षा के तहत मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से  हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की।  एक वर्ष तक राजकीय महाविद्यालय जालोर में अध्यापन कार्य किया । मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग के अंतर्गत 42 वर्षों तक हिन्दी विषय में प्राध्यापक रह कर सेवानिवृत्त हुए। सेवा निवृत्ति के पश्चात आप वर्तमान में चेन्नई में रह कर साहित्य साधना में लगे हुए हैं।
 संपर्क :
 टॉवर  -27  फ्लैट-701
 नॉर्थ टाउन, स्टीफेंशन रोड पेरंबूर
 चेन्नई 600012 (तमिलनाडु)
 मोबाइल- 09425083335
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

रामचरितमानस लोगों को जीवन मंत्र देता है : प्रो. संजय द्विवेदी

कोलकाता 12 अगस्त। तुलसीदास का साहित्य लोकमंगल और लोकहित का साधक है । तुलसी लोकजीवन में पैठे हैं। उनका साहित्य आत्म दैन्य से जूझते व्यक्ति के लिए संजीवनी का काम करता है  – ये उद्गार हैं भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक एवं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि, भोपाल के पूर्व कुलपति प्रो. संजय द्विवेदी के जो सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय द्वारा आयोजित ‘तुलसी जयंती समारोह’ में बतौर प्रधान वक्ता बोल रहे थें ।
   प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि कविता तुलसी को पाकर महान हो गई। उन्होंने तुलसी के मानस को जीवन जीने का सहारा बताया। तुलसी का मानस गिरमिटिया मजदूरों के जीवन संघर्षों में संबल बना। वह उच्चत्तम सनातन मूल्यों की स्थापना करता है। समारोह की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी ने कहा कि तुलसी का रामचरितमानस अपनी 450 वीं जयंती पर भी आचार, विचार और व्यवहार की सीख देता है । यह लोकजीवन की आचार संहिता है । उन्होंने रीतिकालीन कवियों नन्ददास, पद्माकर और बिहारी की कविताओं से तुलना करते हुए मानस को संस्कार की सुंदर पाठशाला कहा ।
समारोह का शुभारम्भ सेठ सूरजमल जालान बालिका विद्यालय की छात्राओं द्वारा प्रस्तुत मंगलाचरण ‘गाइए गणपति जग वंदन’ के  समूह गायन से हुआ।  छात्राओं ने प्रभु श्रीराम की स्तुति हरिगीतिका छंद में ‘श्री रामचंद्र कृपालु भजमन’ और सोहर छंद में ‘आज अवधपुर आनंद नहछू’ पदों की सांगीतिक प्रस्तुति कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। अतिथियों का स्वागत प्रो. राजश्री शुक्ला, भरत कुमार जालान, महावीर बजाज, सागरमल गुप्त, अरुण मल्लावत, विश्वभर नेवर एवं अनुराधा जालान ने किया। स्वागत भाषण दिया पुस्तकालय की मंत्री श्रीमती दुर्गा व्यास ने। समारोह का कुशल संचालन किया डॉ. कमल कुमार ने तथा पुस्तकालय के अध्यक्ष भरत कुमार  जालान ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
कार्यक्रम में महानगर के प्रतिष्ठित साहित्यकार और विभिन्न महाविद्यालयों, विद्यालयों के प्राध्यापक, शोधार्थी, विद्यार्थी और तुलसी प्रेमियों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति रही जिनमें प्रमुख हैं– विनोद खेतान, दीपक खेमका, अजयेंद्रनाथ त्रिवेदी, विजय कुमार पांडेय, रिंकू पयासी महानंद, ओमप्रकाश मिश्र, राज्यवर्द्धन, अल्पना नायक, राजकुमार शर्मा, मीतू कानोडिया, बंशीधर शर्मा, डॉ. शालिग्राम शुक्ला, अविनाश गुप्ता, आर. पी. सिंह, रमाकांत सिन्हा, सर्वदेव तिवारी, रविन्द्र तिवारी, नंदलाल रोशन, डॉ. आर. एस. मिश्र, गोविंद जैथेलिया, सत्यप्रकाश राय, अनिल राय, जीवन सिंह, कामायनी पांडेय, दिव्या प्रसाद, परमजीत पंडित, दीक्षा गुप्ता, शुभांगी उपाध्याय इत्यादि।
कार्यक्रम को सफल बनाने में पुस्तकाध्यक्ष श्रीमोहन तिवारी, राहुल उपाध्याय, दिनेश शर्मा, भागीरथ सारस्वत, विवेक तिवारी, धीरज कुमार तथा राहुल दास आदि की सक्रिय भूमिका रही।

चंबल साहित्य संगम संस्था द्वारा डॉ. सिंघल सहित 6 साहित्यकारों का सम्मान

कोटा । चंबल साहित्य संगम कोटा की ओर से आज सकतपुरा में आयोजित एक कार्यक्रम  में  पांच साहित्यकारों का माल्यार्पण कर, श्रीफल, नगद राशि और प्रशस्ति पत्र प्रदान कर ” सूफी काकीमुद्दीन शाह स्मृति आइनाश्री सम्मान – 2024″ से सम्मान किया गया। कोटा से साहित्यकार  कुंवर जावेद, डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, नागपुर से जमील अंसारी ‘ जमील ‘,जोधपुर से वाजिद हसन क़ाज़ी, भीलवाड़ा से  हाफिज अली अंसारी को सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम में पुस्तक चर्चा के साथ हलीम आईना की पुस्तक ” आइना बोलता है” का विमोचन किया गया। कार्यक्रम के अध्यक्ष अम्बिका दत्त चतुर्वेदी , मुख्य अथिति समाज सेवी नेवा लाल गुर्जर, विशिष्ठ अतिथि डॉ. अनीता वर्मा ने अपने विचार रखे। संस्था के महासचिव हलीम आईना ने सूफी हकीमुद्दीन शाह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला। इस मौके पर आयोजित काव्य गोष्ठी में   मुकुट मणि राज, विश्व मित्र दाधीच,किशन लाल वर्मा, चांद शेरी , डॉ. कृष्णा कुमारी सहित कई कवियों ने काव्यपाठ किया । संचालन बद्री लाल दिव्य और विजय जोशी ने संयुक्त रूप से किया।

भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुकूल हो भारतीय शिक्षा : डी राम कृष्ण राव

अयोध्या।  मूल्य आधारित शिक्षा से ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण संभव है। जीवन निर्माण करने वाली शिक्षा ही आने वाली पीढ़ियों को भारतीय इतिहास ,ज्ञान और भारत बोध कराने के सहायक होगी। शिक्षा एक महा मंत्र है जिसके द्वारा समाज के विकास की गति और प्रगति सुनिश्चित की जाती है ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 पूरे शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन के लिए अग्रसर है ।

उक्त बातें विधा भारती द्वारा साकेत निलयम – अयोध्या में आयोजित तीन दिवसीय अखिल भारतीय मंत्री समूह की कार्यशाला का उदघाटन करते हुये विद्या भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डी राम कृष्ण राव ने कही उन्होने कहा की अभी तक भारत में शिक्षा कैसी हो इसपर रणनीति बनती थी लेकिन अब शिक्षा में भारत कैसा हो इसपर कार्य हो रहा है। वर्तमान समय में शिक्षा केवल सूचनाओं का संकलन मात्र नहीं है। बच्चे सूचनाओं के माध्यम से अपने अनुभव के आधार पर नवीन ज्ञान का सृजन करते है । भारत का ज्ञान वैश्विक स्तर पर भारत को ज्ञान गुरु बनाने की ओर अग्रसर है।

उक्त कार्यशाला में देश भर से अनेक शिक्षाविद, चिंतक, विचारक और विधा भारती के क्षेत्र और प्रांत स्तर के सभी मंत्री प्रतिभाग कर रहे है । विशेष रूप से कार्यशाला मे उपस्थित गोविन्द चन्द्र महंत, यतीन्द्र शर्मा , अवनीश भटनागर , श्रीराम अरावकार , हेमचन्द्र सहित अन्य उपस्थित थे।

भवदीय

डॉ. सौरभ मालवीय

मंत्री,  पूर्वी  उत्तर प्रदेश क्षेत्र

मो – 8750820740

हिंदी सिनेमा ने बदल दी महिला सशक्तिकरण की दिशा

सिनेमा मनोरंजन का एक प्रभावी साधन है ! मानवीय प्रवृत्तियों को प्रभावित करने की ताकत भी सिनेमा में है ! मनोरंजन के साथ-साथ संवेदना का सजीव वर्णन सिनेमा में मिलता है! समाज की मानवीय भावनाओं का जो महत्व है  वही सिनेमा की असल बुनियाद है ! इसी समाज का अभिन्न  अंग नारी है और इसी कारण भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व सिनेमा में नारी पात्र करते रहे हैं ! इस सिनेमा ने नारी का जो चित्रण किया है उससे पता चलता है कि जो सिनेमा पुरुष केंद्रित हुआ करती थी वह अब नारी की समस्या ,नारी का शोषण, नारी का अस्तित्व , नारी का अधिकार, नारी का विद्रोह तथा नारी के विविध रूपों को लेकर बनने लगा है ! आज नारी को केंद्र में रखकर बन रही फिल्म नारी जीवन की सार्थकता को नए अर्थों में तलाशती रही है जो महिला सशक्तिकरण की दिशा में  सफलतम प्रयास है!
महिला सशक्तिकरण महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक और व्यक्तिगत स्तर पर सशक्त बनाने की प्रक्रिया है! इसका उद्देश्य महिलाओं को अपने जीवन के सभी पहलुओं पर नियंत्रण प्रदान करना तथा उन्हें पुरुषों के समान अवसर प्रदान करना है!
 महिला सशक्तिकरण को अभिव्यक्ति देने की दिशा में “मदर इंडिया “और “बंदिनी “जैसी फिल्मों के माध्यम से हिंदी सिनेमा ने अपना योगदान देने की पहल की थी किंतु अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक ( 1976 से 1985) के उपलक्ष में गुलजार निर्मित फिल्म “मीरा” में नायिका एक स्वतंत्र मन, मस्तिष्क के साथ आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाली स्त्री का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है ! जब वह कहती है-‘ मैं आत्मा हूं शरीर नहीं, मैं भावना हूं किसी समाज का विचार नहीं!’ ओज, अस्तित्व और महिला शक्ति का जो रूप एवं मुखर व्यक्तित्व दिखाई देता है समस्त रोम- रोम स्त्री शक्ति का जागृत हो उठता है! उसमें निहित दुर्गा और काली की संपूर्ण शक्तियां अपने स्वातंत्र्य के साथ नायकत्व को ग्रहण कर बढ़ने लगती हैं !
बाद के वर्षों में अर्थ ,अस्तित्व, मिर्च-मसाला,एवं लज्ज’ सहित  ऐसी अनेक फिल्में बनी ! इस वर्ष प्रदर्शित ‘आर्टिकल 370 ‘में यामी गौतम सशक्त  पात्र निभाती दिखीं ! कुछ प्रमुख फिल्मों का उल्लेख करते हुए हिंदी सिनेमा ने स्त्री विमर्श की पड़ताल कर दी है !
हिंदी सिनेमा के हर दशक में कुछ ऐसी फिल्में बनी जिसमें महिलाओं के मन में झांकने की पहल  की गयी है ! वी.शांताराम, अय्यूब खान, बिमल राय, गुरुदत्त राज , ऋषिकेश मुखर्जी , केतन मेहता एवं वेनेगल समेत कई निर्देशकों ने महिला पात्रों को दर्शाया है!
महिला पात्रों को इस तरह से गढ़ने को लेकर श्याम वेनेगल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘महिला को मां, पत्नी, बहन के पारंपरिक अंदाज में सिनेमा में देवी बनाकर दिखाया जाता रहा है! लोगों ने उसे आसानी से अपना भी लिया था पर चुनौती तब महसूस हुई जब उस धारणा को तोड़ने का प्रयास किया गया! फिल्म ‘कुत्ते’ और ‘खुफिया’ में तब्बू ने जो रोल निभाए वह पहले अभिनेताओं के लिए लिखे गए थे बाद में उन्हें स्त्री पात्रों में बदल दिया गया ! इसके पीछे विशाल की अपनी सोच है ! वह कहते हैं कि -‘पुरुष शारीरिक तौर पर मजबूत लग सकते हैं लेकिन वास्तव में महिलाएं भावनात्मक तौर पर बेहद सशक्त होती हैं! हां यह जरूरी नहीं की महिला निर्देशक ही सिर्फ महिलाओं पर अच्छी फिल्में बनाती हैं! पुरुष फिल्मकारों में भी संवेदनशीलता से महिलाओं के मुद्दे उठाने की इच्छा शक्ति दिखती है! विमल राय से लेकर ऋषिकेश मुखर्जी, पिता गुलजार और संजय लीला भंसाली तक में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं!
राजकुमार संतोषी ने वर्ष 2000 में प्रदर्शित फिल्म ‘लज्जा’ की टैगलाइन बनाई -‘जब आंसू रुकते हैं तब क्रांति होती है !’ फिल्म में समानांतर चलती चार कहानियों में सभी स्त्री पात्र सशक्त हैं ,जो दहेज, कन्या भ्रूण हत्या एवं स्वयं के साथ अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना जानती हैं! लज्जा स्त्री का गुण है पर इसे उसकी कमजोरी समझाना गलत होगा !जब स्त्री मुखर हो उठती है तो पूरा समाज मौन रहकर उसकी बात को सुनने पर विवश हो जाता है!
—  डॉ  सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ स्वतंत्र लेखिका, अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)