Tuesday, November 26, 2024
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प्रवीण प्रणव की पुस्तक ‘लिए लुकाठी हाथ’ पर चर्चा संपन्न

हैदराबाद,। “समीक्षा अपने आप में बेहद जटिल और ज़िम्मेदारी भरा काम है। कोई भी समीक्षा कभी पूर्ण और अंतिम नहीं होती। सच तो यह है कि किसी कृति की सबसे ईमानदार समीक्षा स्वयं रचनाकार ही कर सकता है। कोई समीक्षक किसी रचनाकार की संवेदना को जितनी निकटता से पकड़ता है, उसकी समीक्षा उतनी ही विश्वसनीय होती है।”

ये विचार वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर (उत्तर प्रदेश) की पूर्व कुलपति प्रो. निर्मला एस. मौर्य ने आखर ई-जर्नल और फटकन यूट्यूब चैनल की ऑनलाइन परिचर्चा में प्रवीण प्रणव (हैदराबाद) की सद्यःप्रकाशित समीक्षा-कृति ‘लिए लुकाठी हाथ’ की विशद विवेचना करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने बताया कि इस पुस्तक में लेखक ने ऋषभदेव शर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध आयामों को गहन अध्ययन के आधार पर उजागर किया है।

प्रो. मौर्य ने जोर देकर कहा कि ‘लिए लुकाठी हाथ’ में विवेच्य रचनाकार के साहित्य के ज्वलंत प्रश्नों से साक्षात्कार किया गया है और यह दर्शाया गया है कि मनुष्य, समाज, राजनीति, लोकतंत्र और संस्कृति पर गहन विमर्श इस साहित्य को दूरगामी प्रासंगिकता प्रदान करता है।

कार्यक्रम की अध्यक्ष प्रो. प्रतिभा मुदलियार (मैसूरु) ने कहा कि प्रवीण प्रणव ने अपनी पुस्तक ‘लिए लुकाठी हाथ’ के माध्यम से पाठकों को विशेष रूप से दक्षिण भारत के हिंदी साहित्य फलक पर कवि, आलोचक और प्रखर वक्ता के रूप में प्रतिष्ठित ऋषभदेव शर्मा के साहित्य की जनवादी चेतना, स्त्री पक्षीयता, प्रेम प्रवणता और सौंदर्य दृष्टि का सहज दिग्दर्शन कराया है।

‘लिए लुकाठी हाथ’ के लेखक प्रवीण प्रणव ने अपने बेहद सधे हुए वक्तव्य में यह स्पष्ट किया कि आलोचनात्मक लेखन करते हुए लेखक स्वयं को भी समृद्ध करता चलता है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक को लिखते हुए उन्होंने सटीक समीक्षा के लिए ज़रूरी वाक्-संयम सीखा और इससे वे  अपने लेखन को अतिवाद तथा अतिरंजना से बचा सके। अपनी रचना प्रक्रिया समझाते हुए प्रवीण प्रणव ने यह सुझाव भी दिया कि जिस दिन आप उतना लिखना सीख जाएँगे जितना वास्तव में ज़रूरी है, उस दिन आप सचमुच लेखक बन जाएँगे। उन्होंने विवेच्य पुस्तक के लिए मार्गदर्शन हेतु श्री अवधेश कुमार सिन्हा, प्रो. गोपाल शर्मा, प्रो. निर्मला एस. मौर्य और प्रो. देवराज का विशेष उल्लेख किया।

चर्चा का समाहार करते हुए ऋषभदेव शर्मा ने यह जानकारी दी कि ‘लिए लुकाठी हाथ’ के लेखक की निजी शैली को प्रो. देवराज ने ‘आत्मीय आलोचना’ तथा प्रो. अरुण कमल ने ‘जीवनचरितात्मक आलोचना’ कहा है।

कार्यक्रम का संचालन शोधार्थी संगीता देवी ने किया तथा संयोजिका डॉ. रेनू यादव ने आभार ज्ञापित किया।

लोकसंस्कृति के मर्मज्ञ साहित्यकार:डॉ. महेन्द्र भानावत

जीवन की मीठी चुभन ही लिखने की प्रेरणा देती है
देश के विभिन्न प्रांतों में ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में बार-बार पहुँच कर उनके माहौल में साथ रहना, संवाद करना, उनकी जीवनशैली, रहन-सहन, आस्था-विश्वास, धार्मिक परंपराएं, गीत-नृत्य-गायन परम्पराएं, वेशभूषा, खानपान, प्रकृति प्रेम, लोकानुरंजन के माध्यम को लम्बे समय तक देखना, विश्लेषणात्मक दृष्टि से समझना, सर्वेक्षण, मूल्यांकन करना, महसूस करना और लिख कर दस्तावेजीकरण करना आसान नहीं है।
भाषा की समस्या, घर का आराम छोडऩा, असुविधाओं का सामना और अजनबियों से तालमेल की दुविधा से दो चार होना पड़ता है। इन अंचलों की संस्कृति को सम्पूर्ण रूप से जानने के लिए बार-बार जाना पड़ता है। लक्ष्य होता है कि संस्कृति का कोई भी पक्ष अछूता न रह जाए। लोक संस्कृति के अध्ययन का यह कार्य जितना कठिन है उतना ही भी श्रमसाध्य है। इसे लोकसंस्कृति मर्मज्ञ डॉ. महेन्द्र भानावत से ज्यादा कौन जान सकता है जिन्होंने इसे किया और जिया है।
देश की आंचलिक लोकसंस्कृति खास कर जनजातीय संस्कृति पर लिखने वाले गिने-चुने लेखकों में राजस्थान में उदयपुर के ख्यातीनाम साहित्यकार और पत्रकार डॉ. महेन्द्र भानावत ने देश के विभिन्न प्रांतों में भ्रमण कर अथक परिश्रम कर वहां की कलाधर्मी जातियों, लोकानुरंजनकारी प्रवृत्तियों, जनजाति सरोकारों तथा कठपुतली, पड़, कावड़ जैसी विधाओं पर सृजन कर एक सौ से ज्यादा किताबें लिख कर देशव्यापी ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय पहचान खड़ी की है। इनका लोक साहित्य विश्व लोक साहित्य बन गया है।
साहित्य वारिधि, लोककला मनीषी, सृजन विभूति, लोकसंस्कृति रत्न, श्रेष्ठ कला आचार्य जैसे सम्मानों, स्वर्ण-रजत पदकों से सम्मानित डॉ. भानावत ने लोकसंस्कृति को स्वयं जा कर न केवल देखा वरन उनके साथ रह कर समझा, महसूस किया और एक सर्वेक्षक के रूप में गहन सर्वेक्षण भी किया है। लोक कलाओं के प्रचार और संरक्षण के लिए कठपुतली जैसी लोककला पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक प्रशिक्षण शिविर और कार्यशालाएं आयोजित की और देवीलाल सामर के साथ लोकानुरंजन मेलों के आयोजन की परम्परा आरम्भ की।
राजस्थान में कहानी-कथन की चार शैलियों कथा-कथन, कथा-वाचन, कथा-गायन तथा कथा-नर्तन जैसी शैलियों को लिपिबद्ध कर किताबोंं के रूप में उनका दस्तावेजीकरण भी किया। लोक प्रचलित कहानियों पर डॉ. भानावत बताते हैं कि राजस्थान में कहानी को ‘वात’ नाम से भी जाना जाता है। वात के साथ ‘ख्यात’ नाम भी प्रचलन में है। कुछ जातियों का काम ही कहानियाँ सुनाना रहा है। इन्हें बड़वाजी, रावजी अथवा बारैठजी कहते हैं, जो कहानियाँ सुनाने की एवज में यजमानों से मेहनताना स्वरूप नेग प्राप्त करते है।
कहानी का मजा पढऩे में नहीं, उसके सुनने तथा सुनाने में है। सुनाई जाने वाली कहानियाँ ही अधिक रसमय लगती हैं। कहानी चाहे कोई कहता हो, उसका हुंकारा अवश्य दिया जाता है। सुनने वालों में से किसी के द्वारा हुंकारा ‘हूँ’ कहकर दिया जाता है। हुंकारा देनेवाले को ‘हुंकारची’ कहते हैं। हुंकारा कहानी में जान लाता है और उसकी कथन-रफ्तार को बनाए रखता है। अत्यंत अजीबोगरीब तथा मीठी-मजेदार लगनेवाली ये लोककथाएँ निराश जीवन में आशा का संचार करती हैं तो कर्मशील बने रहने के लिए जाग्रत भी करती हैं। ज्ञान का भण्डार भरती हैं तो कल्पनाओं के कल्पतरु बन हमारी उत्सुकता और जिज्ञासा को शंखनाद देकर सवाया बनाती हैं।
 इन लोककथाओं में हास्य है तो विनोद भी; व्यंग्य है तो रुदन भी; जोश है तो उत्साह भी, सीख है तो उपदेश भी; कर्तव्य के प्रति समर्पण है तो मर-मिटने का जज्बा भी। इनके माध्यम से बच्चे अपनी स्मरणशक्ति, कल्पनाशक्ति और विचारशक्ति का संचयन करते हैं।
सैकड़ों लोकनृत्य देखने के बाद डॉ. भानावत की मान्यता है कि लोकनृत्य मुख्यत: समूह की रचना हैं। ये सामुदायिक रूप में ही फलते-फूलते एवं फलित होते हैं। कोई कबीला या जाति नृत्य विहीन नहीं है। पूरी प्रकृति लयबद्ध, रागबद्ध, संगीतबद्ध, समूहबद्ध है। सब थिरक रहे हैं। उसमें फिरकनी सी समूहबद्ध अल्हड़ता है। इन्हीं नृत्यों से प्रेरणा पाकर पं. नेहरू ने गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में नृत्योत्सव का शुभारम्भ किया। लोककला-संस्कृति का सर्वाधिक अध्ययन राजस्थान में हुआ है। लोक को हमारे यहां विविध रूपों, रंगों और ढंगों में देखा गया है किंतु भारतीयता के संदर्भ में यह लोक ही हमारे देश की असली पहचान है। यही सच्ची आत्मा और शरीर दोनों है।
इस दृष्टि से देश की संपूर्ण प्रदर्शनकारी कलाओं का परीक्षण किया जाए तो हमें लगेगा कि सामुदायिक क्षेत्र में केवल वे ही कलाएं रह गई हैं जो संस्कारों, आस्थाओं, परंपराओं और अनुष्ठानों के साथ जुड़ी हैं। लोकजीवन का अध्ययन पुरातत्व, इतिहास, राजनीति, धर्म, दर्शन, अर्थ, समाज, नाट्य, नृतत्व आदि को सांचों-सीखचों में बांट कर नहीं देखता। हमने बहुत सारी चीजें बांट रखी हैं। उनका सोच है कि राजस्थान में लोककलाओं की एक अकादमी या एक विश्वविद्यालय ही होना चाहिए।
लोक संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए लोककला, रंगायन, ट्राइब, रंगयोग, पर्यटन दिग्दर्शन, पीछोला, सुलगते प्रश्न जैसी शोध पत्रिकाओं का संपादन करने के साथ ही इन्होंने कई समाचार-पत्रों में स्तंभकार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। देश की 500 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में इनके दस हजार से अधिक आलेख छप चुके हैं। राजस्थान की संगीत नाटक अकादमी, राजस्थानी साहित्य भाषा, साहित्य संस्कृति अकादमी, जवाहर कला केंद्र, पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के सदस्य एवं फेलो रह चुके हैं।
साहित्यिक प्रकाशन :
जीवन के 6 दशकों में लिखी गई 100 से ज्यादा पुस्तकों में करीब एक दर्जन से अधिक पुस्तकें आदिवासी जीवन-संस्कृति पर लिखी। इस दृष्टि से राजस्थान के अलावा गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश तथा तमिलनाडु की खोज यात्राएं महत्वपूर्ण रहीं। राजस्थानी के लोकदेवता तेजाजी, पाबूजी, देवनारायण, ताखा-अम्बाव, काला-गोरा, राजस्थान के लोकदेवी-देवता तथा भीली लोकनाट्य गवरी पर स्वतंत्र पुस्तकें प्रकाशित हुई। बालसाहित्य की आधा दर्जन पुस्तकें भी आई। मेंहदी पर ‘मेंहदी राचणी’, मांडणों पर ‘मरवण मांडे मांडणा’ तथा लोकगीतों पर ‘काजल भरियो कूंपलो’ एवं ‘मोरिया आछो बोल्यो’ का पर्यटन साहित्य के रूप में प्रकाशन हुआ।
पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर से ‘राजस्थान के लोकनृत्य’, ‘गुजरात के लोकनृत्य’ तथा ‘महाराष्ट्र के लोकनृत्य’, देवस्थान विभाग राजस्थान, उदयपुर से ‘राजस्थान के लोकदेवी-देवता’ , आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल द्वारा ‘पाबूजी की पड़’ तथा ‘पांडवों का भारत,’ जवाहर कला केन्द्र, जयपुर द्वारा ‘लोककलाओं का आजादीकरण’, ट्राईबल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, उदयपुर द्वारा ‘उदयपुर के आदिवासी’ तथा ‘कुंवारे देश के आदिवासी’ तथा ‘जनजातियों के धार्मिक सरोकार’, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी में ‘कविराव मोहनसिंह’, नारायण सेवा संस्थान, उदयपुर द्वारा ‘मसखरी’, हिन्दी ग्रंथ अकादमी जयपुर द्वारा ‘भारतीय लोकमाध्यम’ और अंतर्राष्ट्रीय प्राकृत रिचर्स एवं शोध संस्थान, चैन्नई द्वारा ‘जैन लोक का पारदर्शी मन’ डॉ. भानावत की उल्लेेखनीय कृतियां हैं।
भारतीय नाट्य संघ, नई दिल्ली द्वारा प्रदत्त प्रोजेक्ट के अंतर्गत राजस्थान के लोकनाट्य विषयक शोधाध्ययन एवं रिपोर्ट लेखन, मणिपुर एवं त्रिपुरा की आदिवासी जीवन-संस्कृति का सर्वेक्षण-अध्ययन एवं रिपोर्ट लेखन, डॉ. मोतीलाल मेनारिया के निर्देशन में महाराणा जवानसिंह लिखित पदों का चार हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर पाठ संपादन कर ‘ब्रजराज-काव्य-माधुरी’ नाम से पुस्तक प्रकाशन, भारतीय लोककला मंडल, उदयपुर में निदेशक के दौरान- विविध लोकधर्मी कला-विधाओं पर करीब दो दर्जन पुस्तकों का प्रकाशन अन्य साहित्यिक उपलब्धियां इनकी झोली में हैं। इनकी पहली पुस्तक ‘राजस्थान स्वर लहरी’ भाग एक थी जबकि इसी क्रम में भाग दो तथा भाग तीन का संपादन अभी भी अप्रकाशित है। अनेक पुस्तकों का डॉ. भानावत ने संपादन भी किया है। विभिन्न पाठ्यक्रमों के किया पाठ लेखन का अवसर भी इन्हें मिला।
साहित्यिक- सांस्कृतिक सेवाएं :
भारतीय लोककला मण्डल, उदयपुर में शोध सहायक 1958-62 के दौरान राजस्थान के विभिन्न अंचलों के विविध पक्षीय लोककलाकारों के बेदला गांव में पन्द्रह-पन्द्रह दिन के चार प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन-संयोजन किया। उस समय इस प्रकार का यह संभवत: विश्व का पहला शिविर था। यहीं नागौर जिले के जीजोट गांव के नाथू भाट के कठपुतली दल को चिन्हित कर कलामण्डल में उसकी कला-कारीगरी का बारीकी से अध्ययन किया गया तथा परंपरागत अमरसिंह राठौड़ खेल की ही भावभूमि में कलामण्डल के कलाकारों द्वारा ‘मुगल दरबार’ नामक खेल की रचनाकर नवीन परिवेश दिया गया।
इसी कठपुतली खेल को रुमानिया में 1965 में आयोजित तृतीय अंतर्राष्ट्रीय कठपुतली समारोह में सरकार ने भारतीय प्रतिनिधि के रूप में प्रदर्शन के लिए भेजा जहां कलामंडल के दल को विश्व का सर्वोच्च प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। लोककला संग्रहालय की स्थापना एवं परिकल्पना सम्बन्धी सामग्री एकत्रीकरण तथा विविध विधाओं का संग्रह-प्रकाशन, समय-समय पर राष्ट्रीय लोककला संगोष्ठियों के आयोजन में ख्यात विद्वानों के आलेखों पर ‘लोककला : मूल्य और संदर्भ’ तथा ‘लोककला : प्रयोग और प्रस्तुति’ नामक दो पुस्तकों का संपादन-प्रकाशन डॉ. भानावत की विशिष्ट देन है। इसके अलावा कठपुतली कला पर राजस्थान के अध्यापकों एवं देश-विदेश के लोगों को विविध शैलियों में प्रशिक्षण-संयोजन, यूनीसेफ द्वारा प्रदत्त प्रोजेक्ट के तहत कठपुतली कला विषयक प्रशिक्षण, नाट्य-लेखन, मंचन एवं प्रकाशन तथा अखिल भारतीय कठपुतली समारोहों के आयोजन कर डॉ. भानावत ने पूरे देश के लोकविज्ञों का ध्यान आकर्षित किया है।
विशिष्ट व्याख्यान :
‘भक्तिकाल में मीरांबाई का स्थान’, आदिवासी परम्परा, परिवेश एवं चुनौतियां’ ‘भारतीय कला जगत पर राजस्थानी लोककलाओं का प्रभाव’, ‘राजस्थान के लोकगीतों में वसुधैव कुटुम्बकम का भाव-बोध’ , ‘मीरांबाई : नवीन खोज-दृष्टि’, ‘राजस्थान का रंगधर्मी वैविध्य’, ‘मांडणी कला’, ‘आदिवासी जीवनधारा और चुनौतियां’ विषय पर विशेष वक्तव्य, ‘आदिवासी जीवन संस्कृति के रखरखाव, एवं ‘सांस्कृतिक उन्नयन और लोकधारा’ आदि विषयों पर देशभर में आयोजित गोष्ठियों में शोध आलेखों का वाचन, व्याख्यान और प्रस्तुतिकरण करने की कला में डॉ. भानावत सर्वथा अतुलनीय ही हैं।
गौरव के पल :
एक साहित्यकार के लिए इससे बढक़र गौरव क्या होगा कि लोकसाहित्य-संस्कृति-कला के अछूते एवं अज्ञात विषयों पर सर्वाधिक लेखन एवं प्रकाशन के फलस्वरूप 50 से अधिक शोध-छात्रों ने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। देश-विदेश के एक हजार से अधिक व्यक्तियों को शोध-विषयों से संदर्भित मार्गदर्शन दिया। विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा प्रस्तुत शोधप्रबन्धों का मूल्यांकन एवं मौखिकी-परीक्षण करने का आपको मौका मिला। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केंद्रों से गत 40 वर्षों से साहित्य एवं लोकधर्मी विविध विधाओं पर आलेख, संस्मरण, परिचर्चा तथा काव्यपाठ का प्रसारण आपकी अन्यतम उपलब्धि है।
सम्मान एवं पुरस्कार :
लोक संस्कृति और साहित्य लेखन के लिए देश भर की अकादमियों, संस्थाओं, सरकारी और निजी प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा आपको लगभग 6 दर्जन पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा लोक साहित्य संस्कृति- कला विषयक योगदान हेतु 51 हजार रूपये का विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा भारतीय लोकसाहित्य संस्कृति-कला विषयक योगदान हेतु 2.50 लाख रूपये का लोकभूषण पुरस्कार, जोधपुर स्थापना दिवस 2022 पर पूर्व महाराजा गजसिंह द्वारा 51 हजार रूपये का मारवाड़ रत्न कोमल कोठारी पुरस्कार, संत मुरारी बापू द्वारा प्रतिस्थापित 51 हजार रूपये का श्री काग लोक साहित्य सम्मान, पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयुपर द्वारा शिल्पग्राम उत्सव के उद्घाटन पर दो लाख पच्चीस हजार रूपये का ‘डॉ. कोमल कोठारी लोककला पुरस्कार’, कोलकाता के विचार मंच द्वारा 51 हजार रूपये का ‘कन्हैयालाल सेठिया पुरस्कार’ सहित विभिन्न संस्थाओं द्वारा बोधि सम्मान, कला समय लोकशिखर सम्मान’, पं. रामनरेश त्रिपाठी नामित पुरस्कार’, ‘महाराणा सज्जनसिंह पुरस्कार’, ‘स्वर्ण पदक’, ‘साहित्य वारिधि’ कला रत्न, विभूषण सम्मान, ‘लोककला मनीषी अलंकरण’, ‘सृजन विभूति सम्मान’, ‘लोकसंस्कृति रत्न अलंकरण’, ‘श्रेष्ठ कला आचार्य अलंकरण’, ‘लोककला सुमेरु’ जैसे सम्मान एवं अलंकरण पाने वाले डॉ. भानावत एकमात्र अकेले ही हैं।
परिचय :
प्रसिद्ध साहित्यकार और लोक संस्कृति मर्मज्ञ डॉ. महेंद्र भानावत का जन्म राजस्थान में उदयपुर जिले के कानोड़ कस्बे में 13 नवम्बर 1937 को पिता स्व. प्रतापमल भानावत और माता स्व. डेलू बाई के आंगन में हुआ। आपने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और ‘राजस्थानी लोकनाट्य परम्परा में मेवाड़ का गवरीनाट्य और उसका साहित्य’ विषय पर पीएच.डी. की शिक्षा प्राप्त की। आपके तीन संतानें एक पुत्र डॉ. तुक्तक भानावत और दो पुत्रियां डॉ. कविता मेहता एवं डॉ. कहानी भानावत (मेहता) हैं।
बचपन में ही पिता का साया सर से उठ गया। आर्थिक विपन्नता इतनी थी कि गांव वाले तो क्या रिश्तेदार तक रुख नहीं मिलाते थे। मां ने हिम्मत नहीं हारी और हौंसला बनाए रखते हुए इन्हें और इनके बड़े भाई नरेन्द्र भानावत ने दोनों को पढ़ाया। मां कभी किसी के आगे झुकी नहीं और अपना स्वाभिमान बनाए रखा। इन्हीं गुणों को साथ लेकर डॉ. भानावत ने जैसे तैसे स्नातक कर उदयपुर में आजीविका के लिए काम ढूंढते बड़ी मुश्किल से भारतीय लोककला मण्डल में अवसर पाया। संस्था के संचालक देवीलाल सामर ने इनके गुणों को पहचान इन्हें योग्य से योग्यतर बनने के अनेक अवसर प्रदान किये। यहां भी कई परिस्थियों से गुजरने के बाद डॉ. भानावत अपना स्थान बना पाए।
समय गुजरता गया गांव वाले और रिश्तेदार भी पूछने लगे। बचपन में गांव के पोस्ट ऑफिस में जाकर डाक में आई पत्र- पत्रिकाएं पोस्टमैन के सहयोग से पढऩे लिखने और छपने की प्रेरणा पाई। बड़े भाई कविताएं लिखते थे और जब गर्मियों की छुट्टी में घर आते थे, वे सबको कविता सुनाते थे। यहीं से कविता सुनने और लिखने का बीजारोपण हुआ और चौथी कक्षा में पहली कविता लिखी। स्कूल की बाल सभाओं में कविता पढ़ते थे। उस समय के पत्र-पत्रिका में कविता छपने से हौंसला बढ़ा। कवि रूप में पहचान बनी। जीवन के उत्तराद्र्ध में अपने पुत्र डॉ. तुक्तक भानावत के सहयोग से पाक्षिक समाचारपत्र ‘शब्दरंजन’ की शुरूआत की और कई साहित्य एवं कला-संस्थानों में सदस्य के रूप में अपनी सक्रियता दिखाई। उम्र के लंबे पड़ाव पर आज भी डॉ. भानावत लेखन, शोध निर्देशन और पत्रकारिता में पूर्ण सक्रिय हैं।
संपर्क :
 904, आर्ची आर्केड कॉम्पलेक्स,
 राम लक्ष्मण वाटिका के पास, न्यू भूपालपुरा, उदयपुर-313001( राजस्थान )
मोबाइल : 9414165391/ 9351609040
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

मैं अकिंचन्य में श्रद्धा रखता हूँ : आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल

वे प्रवाद पुरुष थे। डॉ अग्रवाल भारतीय ज्ञान मीमांसा की भौतिक सम्पदाओं में से सहस्र वर्षों का शब्दामृत छान कर लाए थे। उन्होंने भारतीय संग्राहलयों को पुरातात्विक चित्र वीथिकाओं और ऐतिहासिक स्रोतों से गछ (पूर्ण) दिया। जिन दिनों वे मथुरा संग्रहालय पहुँचे थे।
उन दिनों को स्मृति में सहेजते हुए कृष्ण वल्लभ द्विवेदी ने कहा है कि इन युगल जिम्मेदारियों के हिमालय जैसे बोझ का वहन करके, उन दिनों जहाँ एक ओर रात और दिन पुरानी मूतियों, ठीकरों, सिक्कों, अभिलेखों आदि के साथ वह अपना माथा लड़ाया करते, वहाँ साथ ही साथ उतनी ही तन्मयता से जूझते रहते अनिश पाणिनीय ‘अष्टाध्यायी’ जैसी दुरूह व्याकरण-रचना के दंडकवन में से प्राचीन भारतीय इतिहास, भूगोल, समाज-व्यवस्था, राज्य-प्रणाली, कला-कौशल, धर्म-दर्शन-विषयक सामग्री के सूत्र खोज निकालने के हेतु भी जो कि उनके शोध-अनुसन्धान का निर्धारित विषय था !
यह रियासतों के विलय का दौर था। भारतीय इतिहास के अनगिनत स्रोतों को उनकी हवेलियों से संग्रहालयों की वीथिकाओं की ओर ले जाना था। डॉ अग्रवाल ने कई ऐसी जगहों पर पहुँच कर उन अमुक महत्वपूर्ण सामग्रियों का संग्रह किया। उन्होंने भारतीय संग्रहालयों का कायाकल्प कर दिया। अपनी अध्ययन यात्रा और इस हिस्टोरिकल रिवोल्यूशन में उन्होंने एक – एक करके अनेक इतिहास स्रोतों को भारत भूमि के हर क्षेत्र से एकत्रित किया। उन्हें संग्रालय के लिए किसी भी महत्वपूर्ण वस्तु का पता चलता, वे किसी भी दाम में इस वस्तु को खरीदने के लिए तत्पर रहते। यहाँ तक की कबाड़ बेचने वाले से भी! उन्होंने अपने सौन्दर्यवेत्ता आनंद कुमार स्वामी से भी प्रेरणा ली थी। उन दिनों आनंद कुमार स्वामी ने जिस तरह अमेरिका के बोस्टन म्यूजियम को डिजाइन किया था। पूरी दुनिया की विद्वत सभाओं में यह चर्चा आम हो गई थी।
डॉ अग्रवाल भारतीय संग्रहालयों की दीवार में कान लगाकर इतिहास का अनुशीलन किया। वे अपने अनुसंधान की परिधि से बहुत आगे निकल गए थे। हजारों वर्ष आगे। उन्होंने काशी के राजघाट में मिले मिट्टी के खिलौने पर जो सौंदर्यशास्त्रीय व्याख्या की है, वह सुंदरता को भी सुंदर बनाता है। जैसे गोस्वामी जी कहते हैं – सुंदरता कहु सुंदर करई।
वे मथुरा से होते हुए काशी आये थे। इसलिए काशी के शास्त्रीय वातावरण में भारतीय ललित कलाओं की बाट जोह सके। वे अपार विद्वता का भार वहन किए भी अपने अकिंचन्य के प्रति कितने सजग और सरल थे। कल उनका जन्मदिन था। मैं उनका सुधी पाठक, उनके जन्मदिन पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।

बंगलादेश जल रहा है, भारत का हिन्दू क्या करे ?

बंगलादेश जल रहा है, वहां के कट्टरपंथियों ने 27 जिलों में हिन्दू मंदिरों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और परिवारों को चुन चुन कर आग लगा दी है, पुरुषों को मारा जा रहा है, महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है। सैंकड़ों बंगलादेशी हिन्दू अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं और हजारों की संख्या में हिन्दू शरणार्थी बनकर भारत की ओर चल पडे़ हैं, जिन्हें सीमा सुरक्षा बल ने बंगलादेश की सीमाओं पर ही रोक दिया है। प्रश्न यह है कि क्या इन  सब घटनाक्रम से भारत के हिन्दू किसी सबक को सीख रहे हैं ?
शेख हसीना को अपदस्थ करने के लिए शुरू हुए इस आंदोलन को कट्टरपंथी मुसलमानों ने कब्जा लिया है और अब उनका निशाना वहां के हिन्दू हैं। *वे हर हिन्दू को मार रहे हैं, और ये हिंसा बिना जातिगत भेदभाव के हो रही है। बंगलादेशी हिन्दुओं के पास भारत में शरण लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है|* इन सबके पीछे जमाते इस्लामी है, जमाते इस्लामी से जुड़े लोग ट्रकों में भरकर विभिन्न हिन्दू बस्तियों में पहुंच रहे हैं। वे बस्तियों में आग लगा रहे हैं और भयभीत हिन्दुओं को मार रहे हैं। इतना ही नहीं, ऐसे फोटो भी सामने आए हैं, जिसमें हिन्दुओं को मारने के बाद उनके कपड़े उतारकर यह पुश्टि की जा रही है कि मरने वाला हिन्दू ही था। अराजकता अपने चरम पर है और मानवता वहां से पलायन कर चुकी है।
बंगलादेश में 2022 में हुई जनगणना के अनुसार वहां लगभग एक करोड़ तीस लाख हिन्दू हैं, जो उनकी कुल जनसंख्या का 7.95 प्रतिशत हैं। तो प्रश्न यह है कि *क्या भारत सरकार को उन हिन्दू परिवारों को बंगलादेश के कट्टरपंथियों के लिए ही छोड़ देना चाहिए या नागरिकता संशोधन बिल में किए गए प्रावधानों के अनुसार उनको भारत में शरण देनी चाहिए। यह ध्यान में रहना चाहिए कि पूरे विश्व में भारत ही एक हिन्दू बहुसंख्यक देश है, और हर परिस्थिति में हर हिन्दू की पहली और आखिरी आशा भी भारत ही है।*
प्रश्न यह भी है कि भारत में घुस आए लगभग तीन करोड़ बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठिए आखिर कब तक देश की सुरक्षा के लिए खतरा बने रहेंगें? भारत के लगभग हर जिले में पहुंचे इन बंगलादेशी मुस्लिमों कोे देश से बाहर खदेड़ने के लिए क्या भारत सरकार किसी ठोस योजना पर काम कर रही है? इसी प्रकार लगभग 40 हजार रोहिन्गया मुसलमानों के भारत में घुस आने की बात तो मोदी सरकार ने 2017 में राज्यसभा में मानी थी।
यह तो तय है कि बंगलादेश में हो रहे हिन्दुओं पर अत्याचार पर गैर भाजपा विरोधी दल, कथित रूप से धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी संगठन ना तो विरोध ही करेंगें और ना ही मोमबत्ती लेकर अपनी एकजुटता से हिन्दुओं को आश्वस्त करने का प्रयास ही करेंगें कि इस अराजक समय में वे भी बंगलादेशी हिन्दुओं के साथ हैं या वे जमाते इस्लामी जैसे कट्टरपंथी संगठनों का विरोध करते हैं उल्टे कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने तो यह कहकर कि जो बंगलादेश में हो रहा है, वो भारत में भी हो सकता है, आग में घी ड़ालने का ही काम किया है।
प्रश्न यह भी पूछा जा रहा है कि जो भारत, प्राण बचाकर निकली बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को शरण दे सकता है, क्या वह भारत बंगलादेश में अपनी जान बचाते हिन्दुओं- उनकी स्त्रियों और बच्चों को शरण नहीं दे सकता ? यह सवाल भावनात्मक जरूर है लेकिन यथार्थ की कठोर सच्चाई भी व्यक्त करता है। यह सरकार को ही तय करना है कि वो हिन्दुओं के मन में उठ रहे इस जटिल सवाल का प्रत्युत्तर कैसे देती है। *यह भी गौर करने लायक बात है कि जितनी बैचेनी भारत के हिन्दुओं में बंगलादेशी हिन्दुओं की लाचारी को लेकर है, उसका सौवां प्रतिशत भी भारत में अवैध रूप से घुस आए बंगलादेशी मुसलमानों के बीच में नहीं है। यह परिस्थिति चिंताजनक है।*
प्रश्न यह भी पूछा जा रहा है कि भारत के हिन्दू क्या करें? भारत के हिन्दू बंगलादेश के हिन्दुओं की सहायता के लिए सरकार के निर्णय और नीति पर आश्रित हैं, लेकिन *कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की चुनौती को अनसुना नहीं करना चाहिए । यह भारत में रहने वाले हर हिन्दू के लिए चेतावनी और कड़वी सच्चाई है कि यदि भारत के हिन्दुओं को बंगलादेश जैसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा तो वे अपनी जान बचाने के लिए कहां जाएंगे? इस प्रश्न का जवाब हर समाज को व्यक्तिगत और जातिगत सामाजिक सुरक्षा के अनुसार नहीं अपितु सामूहिक संस्कार की अभिव्यक्ति के अनुसार सोचना होगा।*
*सुरेन्द्र चतुर्वेदी, जयपुर*
*सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट*
*9 अगस्त 2024*

भारत में आर्थिक प्रगति हेतु सनातन संस्कृति के संस्कारों को जीवित रखना ही होगा

किसी भी देश में सत्ता का व्यवहार उस देश के समाज की इच्छा के अनुरूप ही होने के प्रयास होते रहे हैं। जब जब सत्ता द्वारा समाज की इच्छा के विपरीत निर्णय लिए गए हैं अथवा समाज के विचारों का आदर सत्ता द्वारा नहीं किया गया है तब तब उस देश में सत्ता परिवर्तन होता हुआ दिखाई दिया है। लोकतंत्र में तो सत्ता की स्थापना समाज के द्वारा ही की जाती रही है। साथ ही, किसी भी देश की आर्थिक प्रगति के लिए देश में शांति बनाए रखना सबसे पहली आवश्यकता मानी जाती है और देश में शांति स्थापित करने के लिए भी समाज का विशेष योगदान रहता आया है। समाज में विभिन्न मत पंथ मानने वाले नागरिक ही यदि आपस में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाएंगे तो देश में शांति किस प्रकार स्थापित की जा सकेगी।

भारत के नागरिकों में आज “स्व” के भाव के प्रति जागृति दिखाई देने लगी है और वे “भारत के हित सर्वोपरि हैं” की चर्चा करने लगे हैं। परंतु, भारत में तंत्र अभी भी मां भारती के प्रति समर्पित भाव से कार्य करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है, जिससे कभी कभी असामाजिक तत्व अपने भारत विरोधी एजेंडा पर कार्य करते हुए दिखाई दे जाते हैं और भारत के विभिन्न समाजों में अशांति फैलाने में सफल हो जाते हैं। अतः समाज के विभिन्न वर्गों के बीच यह जागरूकता फैलाने की आज महती आवश्यकता है कि भारत आज आर्थिक प्रगति के जिस मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ रहा है ऐसे समय में देश में शांति स्थापित करने की भरपूर आवश्यकता है। क्योंकि, देश में यदि शांति नहीं रह पाती है तो विदेशी संस्थान भारत में अपनी विनिर्माण इकाईयों को स्थापित करने के प्रति हत्तोत्साहित होंगे और देश की आर्थिक प्रगति विपरीत रूप से प्रभावित होगी।

भारत पिछले लगभग 2000 वर्षों के खंडकाल में से अधिकतम समय (लगभग 250 वर्षों के खंडकाल को छोड़कर) पूरे विश्व में एक आर्थिक ताकत के रूप में अपना स्थान बनाने में सफल रहा है और इसे सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। वर्ष 712 ईसवी में भारत पर हुए आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी भारत की आर्थिक प्रगति पर कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा था। परंतु, वर्ष 1750 ईसवी में अंग्रेजों (ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में) के भारत में आने के बाद से भारत की आर्थिक प्रगति को जैसे ग्रहण ही लग गया था। आक्रांताओं एवं अंग्रेंजों ने न केवल भारत को जमकर लूटा बल्कि भारत की संस्कृति पर भी बहुत गहरी चोट की थी और भारत के नागरिक जैसे अपनी जड़ों से कटकर रहने लगे थे। आक्रांताओं एवं अंग्रेजों के पूर्व भी भारत पर आक्रमण हुए थे, शक, हूण, कुषाण आदि ने भी भारत पर आक्रमण किया था परंतु लगभग 250/300 वर्षों तक भारत पर शासन करने के उपरांत उन्होंने अपने आपको भारतीय सनातन संस्कृति में ही समाहित कर लिया था। इसके ठीक विपरीत आक्रांताओं एवं अंग्रेजों का भारत पर आक्रमण का उद्देश्य भारत की लूट खसोट करने के साथ ही अपने धर्म एवं संस्कृति का प्रचार प्रसार करना भी था। आक्रांताओं ने जोर जबरदस्ती एवं मार काट मचाकर भारत के मूल नागरिकों का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनाया तो अंग्रेजों ने लालच का सहारा लेकर एवं दबाव बनाकर भारतीय नागरिकों को ईसाई बनाया। इन्होंने भारतीय नागरिकों के मन में सनातन हिंदू संस्कृति के प्रति घृणा पैदा की एवं अपनी पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत संस्कृति को बेहतर बताया। अंग्रेज भारतीय नागरिकों के मन में ऐसा भाव पैदा करने में सफल रहे कि पश्चिम से चला कोई भी विचार भारतीय सनातन संस्कृति के विचार से बेहतर है। जबकि आज इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिल रहे हैं कि पश्चिम द्वारा किए गए लगभग समस्त आविष्कारों के मूल में भारतीय सनातन संस्कृति की ही छाप दिखाई देती है और उन्होंने यह विचार भारतीय वेद, पुराण एवं उपनिषदों से ही लिए गए प्रतीत होते हैं।

कुछ विदेशी ताकतों द्वारा भारत में आज एक बार पुनः इस प्रकार के प्रयास किए जा रहे हैं कि हिंदू सनातन संस्कृति को मानने वाले हिंदू समाज को किस प्रकार आपस में लड़ाकर छिन्न भिन्न किया जाय। आज भारत में एक ऐसा विमर्श खड़ा करने का प्रयास हो रहा हैं कि देश में हिंदू हैं ही नहीं बल्कि सिक्ख हैं, दलित हैं, राजपूत हैं, जैन हैं आदि आदि। देश में जातियों के आधार पर जनसंख्या की मांग की जा रही है ताकि देश में प्रदान की जाने वाली समस्त सुविधाओं को हिंदू समाज की विभिन्न जातियों की जनसंख्या के आधार पर वितरित किया जा सके। जिससे अंततः देश में विभिन्न जातियों के बीच झगड़े पैदा हों और इस प्रकार भारत को एक बार पुनः गुलाम बनाए जाने में आसानी हो सके। विदेशी ताकतों द्वारा आज भारत के एकात्म समाज को टूटा फूटा समाज बनाए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। प्राचीन भारत में वनवासी थे, ग्रामवासी थे, नगरवासी थे, इस प्रकार त्रिस्तरीय समाज था। भारतीय समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ था ही नहीं। यह अंग्रेजों का षड्यंत्र था कि भारत में उन्होंने समाज को बांटो और राज करो की नीति अपनाई थी। अन्यथा हिंदू समाज तो भारत में  सदैव से एकात्म भाव से रहता आया है। किसी भी देश में क्रांति सत्ता से नहीं आती है बल्कि समाज द्वारा ही क्रांति की जाती है। जिस प्रकार का समाज होगा उसी प्रकार की सत्ता भी देश में स्थापित होगी। अतः किसी भी देश को विकास की राह पर जाने से रोकने के लिए उस देश की संस्कृति को ही समाप्त कर दो। ऐसा प्रयास आज पुनः विदेशी ताकतों द्वारा भारत में किया जा रहा है।

परंतु, अब एक बार पुनः भारत एक ऐसे खंडकाल में प्रवेश करता हुआ दिखाई दे रहा है जिसमें आगे आने वाले समय में विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में भारत की तूती पूरे विश्व में बोलती हुई दिखाई देगी। ऐसे में कुछ देशों द्वारा भारत की आर्थिक प्रगति को विपरीत रूप से प्रभावित करने के लिए कई प्रकार की बाधाएं खड़ी किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। परंतु, देश में निवासरत लगभग 80 प्रतिशत आबादी हिंदू सनातन संस्कृति की अनुयायी है एवं हिंदू समाज में व्याप्त लगभग समस्त जातियों, मत, पंथों को मानने वाले नागरिकों में त्याग, तपस्या,  देश प्रेम का भाव, स्व-समर्पण का भाव कूट कूट कर भरा है।

इसी कारण से यह कहा भी जाता है कि केवल हिंदू जीवन दर्शन ही आज पूरे विश्व में शांति स्थापित करने में मददगार बन सकता है। भारतीय जीवन प्रणाली अपने आप में सर्व समावेशक है। हिंदू सनातन धर्म का अनुपालन करने वाले नागरिक पशु, पक्षी,  वनस्पति, पहाड़, नदियों आदि में भी ईश तत्त्व का वास मानते हैं और उनकी पूजा भी करते हैं। हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों में पला बढ़ा नागरिक अपने विचारों में सहिष्णु होता है तथा सभी जीवों में प्रभु का वास देखता है इसलिए वह हिंसा में बिल्कुल विश्वास नहीं करता है।

इसी के चलते यह कहा जा रहा है कि विश्व के कई देशों में लगातार बढ़ रही हिंसा को नियंत्रित करने में हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायी ही सहायक हो सकते हैं। और फिर, हिंदू जीवन दर्शन का अंतिम ध्येय तो मोक्ष को प्राप्त करना है। इस अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से भी हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायी कोई भी काम आत्मविचार, मनन एवं चिंतन करने के उपरांत ही करता है। इस प्रकार, इनसे किसी भी जीव को दुखाने वाला कोई गल्त काम हो ही नहीं सकता है।

विश्व के कई देशों के बीच आज आपस में कई प्रकार की समस्याएं व्याप्त हैं, जिनके चलते वे आपस में लड़ रहे हैं एवं अपने नागरिकों को खो रहे हैं। यूक्रेन – रूस के बीच युद्ध एवं हमास – इजराईल के बीच युद्ध आज इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। बांग्लादेश में अशांति व्याप्त हो गई है। इसी प्रकार ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी, अमेरिका जैसे शांतिप्रिय देश भी आज विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित होते दिखाई दे रहे हैं। इसलिए, शांति स्थापित करने एवं आर्थिक विकास को गतिशील बनाए रखने के उद्देश्य से आज हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों को आज पूरे विश्व में फैलाने की महती आवश्यकता है।

प्रहलाद सबनानी

सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

‘बचा सोचना’

तुम्हें विदा कर लौट के आये, बचा सोचना.
कैसे    कैसे  मन    भरमाये, बचा सोचना.
धरा, गगन,घर,आँगन, नाते-रिश्ते,मुझ पर,
तुमने  कितने  चित्र बनाये,  बचा सोचना.
यह क्या  मैं  हूँ, मेरा मन है,  सोच रहा हूँ,
खालीपन  सूनापन  पाये,   बचा सोचना.
ऊबड़-खाबड़ पंथ अजाना, साँझ हो गयी,
सावन-भादों घन घिर आये, बचा सोचना.
मिला अनुग्रह, छूट गया सब,अपना क्या था,
अभिशापित जीवन घबराये, बचा सोचना.
सपने,सच,सुख,आशा,पाहुन,प्रिय से प्रियतर,
निबहुर  गये, नहीं बहुराये,   बचा सोचना.
तुम्हें विदा कर लौट के आये, बचा सोचना.
कैसे   कैसे  मन   भरमाये,  बचा सोचना.
पुणे, २६-१२-‘२१ ई०.
 डॉ मंगला सिंह (निवर्तमान रीडर )
उदित नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय पडरौना
जनपद -कुशीनगर

बांगलादेश से निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन की नजरों से बांग्लादेशी मुसलमानों का घिनौनापन और नंगा नाच

धार्मिक कट्टरपंथ का विरोध करने पर बांग्लादेश से निष्कासित लेखक तसलीमा नसरीन के उपन्यास ‘बेशरम’ का एक अंश जिसमें बांग्लादेश से विस्थापित एक हिन्दू लड़की की दर्दनाक कहानी है। इस उपन्यास में लेखक के बहुचर्चित उपन्यास ‘लज्जा’ के आगे की कहानी है जिसमें उन्होंने साम्प्रदायिक उन्माद और अत्याचारों के चलते विस्थापित हुए लोगों की अपनी जन्मभूमि, अपना घर छोड़कर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जीवन बिताने की मजबूरी और उनकी परिस्थितियों का बेहद मार्मिक वर्णन किया है। बांगालादेश में आज  इस्लाम के नाम पर नंगा नाच हो रहा है उसकी भयावहता की कल्पना लेखिका ने बांग्लादेश में रहते हुए 30 साल पहले ही कर ली थी। और कट्टरपंथियों की वजह से उन्हें बांग्लादेश छोड़कर भारत आना पड़ा।  

जीवन तो किसी से मुलाक़ात होने न होने में सीमाबद्ध नहीं होता। जीवन तो और बड़ा होता है। अब वह जीवन जैसा भी हो। अगर एक ही सोच से जीवन चलता तो जीवन पूरा होने से बहुत पहले ही थम जाता। माया ने कभी किसी के साथ प्रेम नहीं किया। बांग्लादेश में दो-एक लड़के उसे अच्छे लगते थे। उनमें से एक से शादी करने की इच्छा भी हुई थी। लेकिन वे लड़के उसके साथ दोस्त की तरह ही रहे, किसी ने उससे प्रेम करना नहीं चाहा। उस देश में हिन्दू-मुसलमानों की आपस में शादी नहीं होती, ऐसा नहीं था। ऐसी शादियाँ खूब हो रही हैं। लेकिन उसकी किस्मत में ऐसा नहीं बदा था। सुरंजन के जो दोस्त उसे बहुत पसन्द आते थे, वे सभी मुसलमान थे। माया को हैदर बहुत अच्छा लगता था। माया ने किसी को इस बात की भनक भी नहीं लगने दी थी। हैदर को भी नहीं। लेकिन हैदर ने माया को हमेशा उस नज़र से देखा, जिस नज़र से वह अपनी छोटी बहन को देखता था।

वह अक्सर कहता— क्यों रे छुटकी, तू इतनी बड़ी क्यों होती जा रही है रे! यह सुनकर उसका मन ख़राब हो जाता। माया ने देखा कि हिन्दू लोग काफ़ी डरपोक से थे, उनके चेहरों पर हमेशा दुश्चिन्ता के निशान होते थे। उसे कोई भी बहुत अकपट और साहसी नहीं दिखा। मुग्ध करनेवाला कोई चरित्र, नहीं, कोई भी नहीं मिला था। सम्भवत: सही व्यक्ति के साथ सही समय पर उसकी मुलाक़ात ही नहीं हुई थी। उसे काजल देबनाथ अच्छा लगता था, लेकिन वह तो शादीशुदा था। माया ने ग़ौर किया कि जिन्हें देखकर बहुत अच्छा लगता है, उनमें कुछ-न-कुछ समस्या रहती ही थी। या तो वे शादीशुदा होते या फिर वे किसी के प्रेम में पड़े होते, या फिर अनपढ़ होते, या समकामी या ऐसे ही कुछ होते। एकदम शुद्ध-सुन्दर किसी के साथ उसकी मुलाक़ात नहीं हुई थी। जिसमें कोई ऐब न हो, ऐसा कोई पुरुष क्या दुनिया में कहीं है, माया को यक़ीन नहीं होता।

माया ने यह जो शोभन बाबू को पसन्द किया, शोभन या सोबहान हिन्दू है या मुस्लिम, उसके यह न देखने का एक ही कारण था कि उसे भीतर से महसूस हुआ कि यह देखना अर्थहीन है। इनसान के रूप में एक व्यक्ति अच्छा हो सकता है, बुरा हो सकता है, यह अच्छा या बुरा होना धार्मिक विश्वासों पर निर्भर नहीं करता। वह खुद पूजा-पाठ करना कुछ भी नहीं छोड़ रही थी। सोबहान ने एक बार भी नहीं कहा कि पूजा क्यों कर रही हो। सोबहान ख़ुद धर्म को मानता है, उसे नहीं लगता। अगर वह मानता भी, तो भी नहीं लगता कि माया को कोई एतराज़ होता।

फ़िलहाल माया को ऐसा ही लग रहा है, अगर सचमुच वह मानता तो माया को ठीक से नहीं पता कि क्या होता! धर्म को माननेवाले मुसलमान किसी और के लिए भले ही हों, माया के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं थे। माया बांग्लादेश में इन्हीं लोगों के बीच बड़ी हुई थी। उसके लगभग सभी घनिष्ठ मित्र धर्म को मानते थे। धर्म को मानने के नाम पर उसने जो देखा, वह यह कि साल में दोनों ईदों पर नये कपड़े पहनकर मौज-मस्ती करना, अच्छा खाना खाना, दोस्तों के घर घूमने जाना और रोज़े के समय शौक़िया तौर पर दो-एक रोज़े रखना। बस। माया के दोस्तों का धर्मपालन बस इतना ही हुआ करता था। उसने अपनी किसी भी सहेली को नमाज पढ़ते नहीं देखा, बुर्का पहनना तो बिलकुल भी नहीं, सिर पर चुनरी ओढ़ते भी नहीं देखा। इतना-सा धर्मपालन करके ही वे लोग ख़ुद को मुसलमान कहते थे। वे सहेलियाँ हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध और ईसाई— सभी से समान भाव से मिलती थीं। माया खुद भी ऐसा ही करती थी। उसने कभी भी फ़र्क़ नहीं किया। फ़र्क करने की मानसिकता लेकर वह बड़ी नहीं हुई थी।

घर में हमेशा से एक ऐसा माहौल था, जहाँ धर्म कोई विषय ही नहीं था। इनसान की तरह इनसान बनना ही सबसे बड़ा काम था। माया तो इनसान-जैसी इनसान बनी ही थी। लेकिन उसे प्रतिदान में क्या मिला? उसे बबलू, रतन, बादल, कबीर, सुमन, ईमन और आज़ाद लोगों ने, उन मुसलमानों की औलादों ने क्या दिया था ? इन सबको माया पहचानती थी। ये सारे मोहल्ले के ही तो लड़के थे। नहीं, उसके जिन्दा रहने की तो बात नहीं थी। माया के शरीर के साथ उन्होंने जो जी में आया, वही किया था। लकड़बग्घों के झुंड को एक शरीर भर मांस अपनी जूद में मिल गया था। माया शर्म और नफ़रत से सिकुड़ी हुई थी। वह सिकुड़ी ही थी। वह क्यों ज़िन्दा बच गई? बचने के बाद उसकी इच्छा हुई थी, माया की अब भी इच्छा है कि वह एक-एक करके उन सभी का खून करेगी। दुष्कर्म, सामूहिक-दुष्कर्म तो आए दिन हो ही रहे हैं, समूची दुनिया में हो रहे हैं। बांग्लादेश में जैसा हो रहा है, भारत में भी वैसा ही हो रहा है। पुरुष बदमाश और ताक़तवर होता है; स्त्री निरीह और निर्बल— दुष्कर्म की वजह यही है। लेकिन मुसलमानों ने माया के साथ जो दुष्कर्म किया था, वह शक्ति और निर्बलता की घटना नहीं थी। वह मुसलमान और हिन्दू की घटना थी। माया की जगह पर उस दिन अगर कोई भी मुख निर्बल राधेया या रोकैया होती तो उनके साथ दुष्कर्म नहीं हुआ होता।

उन्होंने एक लड़की से बलात्कार नहीं किया था, उन्होंने एक हिन्दू से बलात्कार किया था। ‘हिन्दू’— यह शब्द कभी भी माया के शब्दकोश में नहीं था, वे लोग ही उसके शरीर पर यह शब्द खोदकर लिख गए थे। यह शब्द फिर माया के लिए केवल शब्द नहीं रह गया था। वह क्षोभ, जिद, अपमान, घृणा, लज्जा, मृत्यु, बलात्कार, खून, विषाद और हाहाकार में तब्दील हो गया था। माया इनसान थी, उसे वे थोड़े से मुसलमान सिर से पैर तक हिन्दू बना गए थे। तब से ही हिन्दुत्व का जो कुछ भी था इस संसार में, उसने सिर झुकाकर उसका वरण किया था। माया ने हिन्दू के रूप में जन्म नहीं लिया था। वह हिन्दू नहीं थी, उस दिन, उस बलात्कार वाले दिन वह हिन्दू बनी थी। वह सिर से पैर तक एक हिन्दू बन चुकी थी, जिसे अपने देश की बचपन और कैशोर्य की सारी स्मृतियों को पैरों से ठेलकर चले आने में जरा-सी भी दुविधा महसूस नहीं हुई थी। उसे लगा था कि उसके मुसलमान अच्छे दोस्त सभी बलात्कारी हैं, सभी धोखेबाज़ हैं, सभी हिन्दुओं से विद्वेष रखनेवाले हैं।

उसे अपना देश फिर अपना नहीं लगा। उसे लगा कि वह मुसलमानों का देश है। माया और कर भी क्या सकती थी! माया के लिए जख़्म पर कोई और मरहम लगाना सम्भव न हो सका। यह घाव भरनेवाला नहीं था। मन अगर सौ प्रतिशत जल जाए तो फिर दुनिया में उसका कोई इलाज नहीं है। जो मन जलकर राख हो जाता है, उसे उड़ा देना चाहिए। बांग्लादेश के आसमान में माया के जल चुके शरीर की राख नहीं उड़ी थी, वहाँ उड़ी थी जले हुए मन की राख। जिस शहर में उसने जन्म लिया था, वहाँ बिखेर आई थी वह राख। बिखेरते हुए उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह अब कभी भी इस नरक में नहीं लौटेगी। दो टुकड़ों में बँटा हुआ था उसका जीवन। उस दिन से उसने नया जन्म लिया था। वह हिन्दुओं के देश में, खुद के देश में लौटने के लिए छटपटा रही थी। यह काफ़ी हद तक ऐसा था कि नक़ली माँ को इतने दिनों तक माँ समझते रहे। समझदार होने पर पता चला कि असली माँ तो कहीं और है। माया इतने दिनों बाद नक़ली सब कुछ को पैरों से ठेलकर उस असली माँ की गोद में लौट रही थी। जिस दिन भारत की भूमि पर उसने पहला क़दम रखा था, उसने सुकून से आँखें मूँदी थीं।

बहुत साल बीत गए।

वह माया अब कहाँ है? उसकी आँखों के सामने सोबहान खड़ा था। भारतवर्ष में सोबहान से बेहतर किसी लड़के से उसकी मुलाक़ात नहीं हुई थी। नहीं, इसमें हिन्दू युवकों का दोष नहीं था कि उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, इसमें उसका भी दोष नहीं। परफेक्ट मैच से मुलाक़ात न होने का दोष किसी को नहीं दिया जा सकता। माया भाग्य में विश्वास नहीं करती, लेकिन कभी-कभी उसे लगता है कि भाग्य को मानने से बहुत सारी हताशाओं से मुक्ति मिल जाती है। भाग्य के जिम्मे सौंपकर काफी हद तक निश्चिन्त हुआ जा सकता है। सोबहान उसे अच्छा लगता है। अगर उसे पहले से पता होता कि शोभन असल में शोभन नहीं है, तो हो सकता है, वह खुद को शोभन को इतना पसन्द ही नहीं करने देती। उसे हालाँकि नहीं पता कि ऐसा करके वह क्या भला करती। उसके जीवन में और है भी क्या! लड़कियों के जीवन में पति और गृहस्थी ही सबसे बड़ी दौलत होती है। उसी दौलत को वह स्वेच्छा से त्यागने के लिए बाध्य हुई थी। कारण कि उस दौलत से उसका मन पूरी तरह उठ चुका था। कोई स्वस्थ व्यक्ति उस दौलत के साथ जीवन नहीं बिता सकता। मानसिक रूप से विकृत हो जाने से पहले ही माया खुद को वहाँ से हटा लाई थी।

यह शायद उसकी ज़िन्दगी की अन्तिम परीक्षा थी जिसके सम्मुख वह खड़ी थी। अपने बच्चे, शाँखा सिन्दूर सहित माँ के घर घूमने नहीं आई थी, वह पूरी तरह बोरिया-बिस्तर समेटकर आई थी। माया कितना भी यह भाव जताए कि जब तक उसकी इच्छा होगी, उसे अपनी माँ और बड़े भाई के घर में रहने का अधिकार है— भीतर ही भीतर उसे यह भी समझ में आ रहा था कि यह समाज उसे वह अधिकार नहीं दे रहा है। माया कहाँ रहेगी, किस घर में रहना उसे शोभा देगा, मानो हर रोज़ आँख में उँगली डालकर उसे यह बताया जा रहा था। नहीं, कोई कुछ भी कहे, वह अब किसी की नहीं सुनेगी। वह तलाक़ माँग रही है। भयावह मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए वह तलाक़ माँग रही है। शोभन या सोबहान के साथ किसी सम्बन्ध की वजह से नहीं।

काश! सोबहान को फूँक मारकर वह हिन्दू बना पाती, उसे सचमुच के शोभन में तब्दील कर पाती तो उसके अन्दर का क्षोभ शायद थोड़ा कम हो जाता। सोबहान से उसका यह सम्बन्ध और आगे बढ़ने पर माया दिन-ब-दिन किस गह्वर में जाएगी, ठीक उसे भी नहीं पता। सोबहान इतना अच्छा नहीं भी तो हो सकता था, माया सोचती है। सोबहान से मुक्ति पाने के लिए उसने उसका कोई कम अपमान नहीं किया था। उसे उस दिन की बात याद आ गई।

— शादी तो कर रहे हो। अपनी बीवी से तो प्यार करते हो, करते हो न?

सोबहान चुप रहा।

— हर रात बीवी के पास लौट जाते हो। अगर मैं कहूँ कि मत जाओ तो जाए बिना रह सकोगे?

सोबहान चुप।

— आज तुम बीवी को छोड़कर मेरे पास बैठे रहते हो। मुझे एक दिन भी न देखो तो तुम व्याकुल हो उठते हो। मेरे साथ शादी हो जाने के बाद भी तो तुम यही करोगे। किसी और को न देख पाने से व्याकुलता महसूस होगी।

सोबहान चुपचाप सब सुनता रहा।

उसके शरीर को धक्का देकर उसने कहा— तुम्हारी बीवी तो मुझसे कम उम्र की है। कम उम्र की लड़की को छोड़कर ज्यादा उम्र की लड़की की ओर तुम्हारे झुकाव की वजह? आदमी लोग तो कम उम्र की ढूँढ़ते हैं। सुनते हैं कि उससे अंग को आराम मिलता है।

अबकी बार सोबहान ने बिफरते हुए कहा— तुम अब रुकोगी भी?

— क्यों, रुकूँगी क्यों ?

— इसलिए कि तुम फ़ालतू बातें कर रही हो।

— फ़ालतू बातें जरूर हैं लेकिन बातें सच्ची तो हैं!

— नहीं, ये सब बातें सच्ची नहीं हैं।

— तो फिर बताओ, सच्ची बातें कौन-सी हैं? मुझे सच्ची बातें सुनने की बड़ी इच्छा हो रही है!

— क्यों?

— कारण कि मुझे सच्ची बातें कहीं भी नहीं सुनाई देतीं। कोई कहता ही नहीं।

— तुम बोलती हो?

— हाँ, मैं बोलती हूँ।

— किस तरह की, जरा सुनूँ तो!

— सचमुच सुनोगे?

— क्यों नहीं सुनूँगा?

— मैं माया हूँ।

— मुझे मालूम है, तुम माया हो।

— मेरे साथ पाँच मुसलमान लड़कों ने बलात्कार किया था। तुम्हारी जात के पाँच लड़के। मैं तो मर ही गई थी, पता नहीं किस तरह बच गई! मैं उस दिन से दुनिया के सारे मुसलमानों को हेट करती हूँ। यह है सच्ची बात।

— मुझ से भी हेट करती हो? — सोबहान ने शान्त स्वर में पूछा।

माया बोली— जिस दिन मुझे पता चला कि तुम मुसलमान हो, उस दिन से मैंने तुमसे नफ़रत करने की कोशिश की थी। नहीं कर पाई।

— क्यों?

— मुझे नहीं पता, क्यों! और सुनो, और भी सच सुन लो। सच का मतलब अगर अप्रिय सच समझ रहे हो तो फिर सुनो। देश से यहाँ चले आने के बाद हम जिस मकान में रहते थे, उस घर का एक व्यक्ति रात को मेरे बदन पर चढ़ बैठता था।

— क्या?

— और सुनो, मैंने उसे रोकने की कभी कोशिश नहीं की।

— क्यों?

— बाधा नहीं पहुँचाई, डर के मारे। मैं बहुत डरपोक हूँ। बहुत जघन्य डरपोक। मेरा मन टूटा हुआ था, मेरा शरीर टूटा हुआ था। एक टूटा, भंगुर, दुर्बल इनसान किसी को बाधा नहीं पहुँचा सकता।

सोबहान सिर झुकाए सुनता रहा।

— और सुनोगे?

माया का स्वर सप्तम में जा पहुँचा। स्वर में कम्पन होने लगा। साँसें तेज़ हो गई। आँखों से आँसू बह निकले। सीने में भयंकर तकलीफ़ शुरू हो गई। सीने की तकलीफ़ समूचे शरीर में फैलने लगी। उसके हाथ-पैर काँपने लगे।

— और सुनो, मैं रास्ते पर खड़ी हुई हूँ, जिस तरह वेश्याएँ सज-धजकर खड़ी होती हैं। हाँ, उसी तरह खड़ी हुई हूँ। कारण कि यह शरीर जब आदमियों, बदमाशों और शैतानों के लूटने-खसोटने के लिए ही है, जब मुझमें रोकने की ताक़त ही नहीं और जब शरीर बेचने का चलन है, तो फिर मैं क्यों नहीं बेचूँगी? पैसों के अभाव में पूरा परिवार तकलीफ़ उठा रहा है। माँ और पिताजी निरीह हैं। बड़े भाई का होना, न होना एक समान है। निकम्मा कहीं का! मैं इन्हीं वजहों से मजबूर हुई। मैंने शरीर बेचा। क्यों नहीं बेचूँगी? शरीर को विशुद्ध-पवित्र मैं किसके लिए रखूँ? और विशुद्ध-पवित्र की क्या संज्ञा है? तुम्हीं लोग तो कूद पड़ोगे, टच करोगे और फिर तुम्हीं लोग अनटच्ड शरीर की माँग करोगे, यह क्या बात हुई? अब यह कैसी ज़िद है, बताओ तो! मोहम्मद सोबहान, तुम्हारे पास जवाब है इसका? सोबहान सिर झुकाए बैठा रहा— माथे की नसों को उँगलियों से दबाए किंकर्तव्यविमूढ़…।

— क्यों जी, सिर दुख रहा है न? तुम्हारे सिर के दुखने की यह तो शुरुआत है। मुझसे दूर ही रहना, वरना दुखते-दुखते एक दिन तुम्हारा सिर ही फट जाएगा। बचना हो तो इस धर्षिता, इस वेश्या, मुस्लिम-विद्वेषी, हिन्दू फ़ैनेटिक से तो दूर हट जाओ। अपने-आपको बचाओ सोबहान! पता नहीं कब उन रेपिस्टों से बदला लेते हुए मैं तुम्हारा ही खून कर डालूँ! तुम्हारे यहाँ तो मुस्लिम ब्रदरहुड वाला मामला है। है न? तो फिर एक ब्रदर की करतूतों की सजा दूसरा ब्रदर भुगते। बाबरी मस्जिद यहाँ के हिन्दुओं ने तोड़ी थी, उनके पाप का प्रायश्चित क्या हमने बांग्लादेश में नहीं किया था? बलत्कृत होकर, मरकर, पलायन करके, जान बचाकर, इसे बचना कैसे कहूँ, पलायन करके मरकर?

माया ने सोबहान के झुके हुए चेहरे को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाया। उठाकर उसके होंठों को चूमती हुई बोली— तुम क्यों एक हिन्दू लड़की के प्रेम में पड़ गए हो, बताओ? तुम्हें असल में प्रेम हुआ ही नहीं है। तुम तो ऐसे ही मजे ले रहे हो। कारण कि तुम्हें अपनी ज़िन्दगी में इस तरह का मजा कभी मिला नहीं। तुमने केवल बुर्केवाली मुसलमान लड़कियाँ ही देखी हैं जिनकी पढ़ाई-लिखाई कुछ नहीं हुई। हुई हो तो भी वे कंजरवेटिव ही हैं। इसलिए सुरंजन के मार्फत चांस मिलते ही हिन्दू सोसाइटी में घुस गए हो।

तुम्हें दिख रहा है कि एक इंडिपेंडेंट लड़की है। मर्दों के साथ बराबरी से चल रही है। अपने निर्णय खुद ले रही है। उसने चुटकी बजाते ही अपने पति को छोड़ दिया है। तुम्हें वह बहुत स्मार्ट लग रही है। अनस्मार्ट अनकूथ मुस्लिम लड़की की निकटता के बरअक्स यह लड़की अलग तरह की है, इसलिए। फिर इधर सेवा-सत्कारवाली बात भी है। यह लड़की पकाती और खिलाती भी है। विज्ञान विषय पर चर्चा कर सकती है। इसे इतिहास, भूगोल की खासी जानकारी है। है न? इसलिए तुम्हें मज़ा आ रहा है। तुम प्यार नहीं कर रहे हो। प्यार तुम अपनी जात के लोगों से ही करोगे। मेरी तरह।

मैं जिस तरह अपनी जात के अलावा किसी और को इनसान मानती ही नहीं। हालाँकि मैं ठीक नहीं कह रही। क्यों ठीक नहीं कह रही, बताओ तो? कारण यह कि जिस बदमाश से मैंने शादी की थी, उसे मैं समान रूप से हेट करती हूँ, जिस तरह मैं उन मुस्लिम रेपिस्ट लोगों को करती हूँ। लेकिन यह बात मैं कहती नहीं। हिन्दू होने की वजह से नहीं कहती। कारण कि किसी-न-किसी तरह से मैं हिन्दुओं को प्रोटेक्ट करती हूँ। करना ही चाहती हूँ।

सोबहान की दोनों आँखें लाल हो उठीं। वह भौचक्का-सा माया की ओर देख रहा था।

माया बोलती रही— मुसलमान लोग इस देश में क्यों रहते हैं? वे क्यों हमें जलाकर राख करने के लिए यहाँ रहते हैं? उन्हें तो उनका देश दिया जा चुका है। दो-दो देश दिये जा चुके हैं। सारे मुसलमान वहाँ जाकर रहें न! एक हिन्दू मेजॉरिटी वाले देश में माइनॉरिटी बनकर रहने में उन्हें क्या मज़ा आ रहा है? मजा जरूर आ रहा है, अन्यथा यहाँ क्यों रहते? उनका मज़ा मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। लेकिन असल बात क्या है, तुम्हें पता है। मर्द फिर वह हिन्दू हो या मुसलमान, दोनों समान होते हैं। दोनों समान रूप से शैतान हैं। लड़कियों को वे सताएँगे ही। तुम्हारी बीवी भुगत रही है मुसलमान बीवी के रूप में। मैं भुगत रही हूँ हिन्दू पत्नी के रूप में। तुम्हें भुगतना नहीं पड़ रहा है।

मेरे बड़े भाई सुरंजन नहीं भुगत रहे हैं! वे हिन्दू पत्नी को छोड़कर एक मुसलमान लड़की के साथ लीला करते फिर रहे हैं। तुमने भी उन्हीं का रास्ता पकड़ लिया है। तुम भी मुसलमान बीवी को बेवकूफ़ बनाकर हिन्दू के साथ लीला कर रहे हो। मेरे भाई भी मजे लूट रहे हैं। भाई साहब की तो एक सेक्युलर व्यक्ति की छवि बन रही है। तुम्हारा भी अच्छा नाम हो रहा है। यहाँ के लड़के तो हिन्दू लड़कियों से शादी करके बढ़िया सेक्युलर होने का चोला ओढ़ लेते हैं। किसी का नाम अब्दुर्रहमान है। वह अपना नाम बताने से पहले कहता है, मेरी पत्नी का नाम मौसमी मित्र है। समाज में ऊपर उठने के लिए पत्नी का उपयोग किया जा रहा है। समाज में ऊपर उठ जाने के बाद फिर पत्नी के साथ वह भी वैसा ही सलूक करने लगता है, जैसा कि मर्द लोग करते हैं। खैर, मर्द है न! तुम्हें समाज में ऊपर उठने की क्या ज़रूरत है? तुम तो अपनी पढ़ाई-लिखाई, विद्या-बुद्धि अच्छी नौकरी, अच्छे व्यवसाय की वजह से ही तो समाज में ऊपर उठ गए हो। तुम्हें हिन्दू से शादी की क्या जरूरत आन पड़ी? आई एम नॉट गोइंग टू मैरी अ मुस्लिम।

टेररिस्ट जात से शादी करके मुझे मरना है क्या? इससे तो वेश्या हो जाना बेहतर। मर जाना तो उससे भी अच्छा।

इसके बाद सोबहान तेज़ी से उठा और बाहर निकल गया।

अन्दर के कमरे की खिड़की से सोबहान को जाते देख किरणमयी माया के पास आकर बोलीं— क्या बात है, शोभन चला गया? चाय भी नहीं पी?

— नहीं।

— क्यों, तू चाय तो पिला ही सकती थी।

— नहीं माँ। उसे अब इस घर में कुछ भी खाने-पीने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह आख़िरी बार आया था। अब वह यहाँ नहीं आएगा।

— क्यों?

— इतनी बातें मत पूछो।

किरणमयी को ज़ोर से डपटकर माया ने चुप करा दिया।

माया तकिए के पास मोबाइल रखकर सो रही थी। रात दो बजकर तेरह मिनट पर एक एस.एम.एस. आया। आवाज सुनकर वह उठी और उसने एस.एम.एस. पढ़ा। सोबहान ने भेजा था। प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ।

मोबाइल को सीने के ऊपर पकड़े हुए माया ने आँखें बन्द कर लीं। आँसू आँखों की कोरों से दुलकते रहे।

साभार-https://rajkamalprakashan.com/blog/ से 

इंसान हो शाकाहारी बनो, जानवरों की तरह मांसाहारी नहीं

मांसाहारियों का एक सदाबहार तर्क मैं अक्सर सुनती हूँ – पेड़पौधों में भी तो जीवन होता है, तो उन्हें क्यों खाते हो?
आइए, आज इस तर्क की समीक्षा की जाए…
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पेड़-पौधे की डालियां तो आधी तूफान अधिक वर्षा के कारण भी टूट जाती हैं, यदि कोई शाकाहारी उन्हे काट भी देता है तो वह वापस डालियां निकाल कर बड़ा होने लगता है, उसे कोई फर्क नही पड़ता उसके एक हिस्से के टूट जाने से क्योंकि उनका उद्देश ही यही है,पर क्या कोई जीव जिसका कुतर्की मांस भक्षी गर्दन से काट देते हैं वापस खड़ा हो जाता है? उसका सिर वापस उग जाता है वह क्या बोलने लगता है?
तो मैं मांसाहारियों से पूछना चाहती हूँ कि क्या एक शाकाहारी पेड़ उखाड़ कर खा जाता है? पौधे को तोड़ कर निगल लेता है? पर एक जीव का जब जीवन छीना जाता है उसके भी दर्द होता है वह चीखता है, चिल्लाता है, उसके आंसू बहते हैं,जीने के लिए रहम की भीख मांगता है, मनुष्यो की तरह उसके भी खून का रंग लाल होता है,उस जीव के भी संवेदना होती है, उसे बंधन से आजाद करो फिर वह भी बता सकता है कि वह जीवन जीने के लिए क्या क्या कर सकते हैं!
एक कुतर्की मांसभक्षी बायोलॉजी के बेसिक नियमों से भी अनिभिज्ञ होता है अथवा उसे पता होता कि शाकाहारी तो “फल-फूल-सब्जी-अन्न” जैसी चीजें खाते हैं, जो पेड़-पौधों का हिस्सा होते हैं, स्वयं पेड़पौधे नहीं।
अरे कुतर्की मिथ्या भाषी जिस तेल और मसालों से उस निरापराधी जीव के मांस और खून जिसका रंग हमारी तरह लाल होता है छौंक लगाकर खाते हों वह मसाला और तेल शाकाहार है उसे खाना बंद करो फिर देखते हैं कितने दिन तक तुम कितना मांस भक्षी हो , हमारे शाकाहारी तेल और मसालों में इतने अच्छे हैं कि भूसा और टट्टी को भी छौंक दो तो उसमे भी स्वाद आ जायेगा।
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फल-फूल तो वृक्ष उत्पन्न ही इसलिए करता है, ताकि दूसरे जीव/कीट पतंगे/पक्षी फल-फूल की तरफ आकर्षित हों, उनका सेवन करें। अब चूंकि बीज स्वयं ऐसे रसायनों से कोटेड होता है, जिन्हें पशु-पक्षी पचा नहीं पाते, इसलिए बीज उनकी डाइजेस्टिव ट्रैक्ट से सुरक्षित निकल कर भूमि का हिस्सा बन कर पेड़-पौधों की उत्पत्ति करता है। जिसे ये हिंसा बताते हैं, वास्तव में यह प्रकृति द्वारा वनस्पति को प्रदत्त प्रजनन विधि है।
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इसके अलावा शाकाहारी पौधों के उन हिस्सों को भी ग्रहण करता है, जिन्हें पौधे फोटोसिंथेसिस की मदद से भोजन के रूप में स्टोर रखते हैं। इस प्रक्रिया में भी किसी पेड़-पौधे की जान नहीं चली जाती है और न ही पेड़-पौधों को दर्द होता है, यह भी विज्ञान प्रमाणित है कि पेड़-पौधों में दर्द महसूस कराने वाले न्यूरो-रिसेप्टर्स नहीं होते। उसके अलावा, हमारे द्वारा ग्रहण किये गए हिस्से को पेड़ वापस उगाने की भी क्षमता रखता हैं।
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इस पूरी प्रक्रिया में दूसरे का भोजन हड़पने की “थोड़ी-बहुत अनैतिकता” आप इसमें ढूंढ सकते हैं, जिसकी मुक्ति कृतज्ञ भाव से भोजन ग्रहण करके पौधों को धन्यवाद ज्ञापित करके भी हासिल हो सकती है।
पर एक तरफ जहाँ यह अनैतिकता है, तो वहीं दूसरी ओर तो साफ तौर पर क्रूरता की पराकाष्ठा है, एक जीवेषणा का अंतहीन शोषण हैं, भय का आर्तनाद है, अपने प्राणों को जाते देख एक जीव की चीख-पुकार है। एक मांसभक्षी भला किस युक्ति से उन निरीह-निरपराध जीवों की बद्दुआओं से मुक्त हो सकेगा?
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अगर एक मांसभक्षी वाकई पेड़ो के कटने से व्यथित होता है तो मैं बताता हूँ कि पेड़ों काटे क्यों जाते है। पेड़ काटे जाते हैं आपके घरों के साजोसामान के लिए, लकड़ी के लिए, इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट के लिए। जंगल का 70% हिस्सा काटा जाता है कृषियोग्य भूमि हासिल करने के लिए – ताकि मांसभक्षियों की खुराक बनने वाले जीवों का चारापानी उगाया जा सके। विडंबना देखिए – पेड़ों के हितैषी मांसाहारी को पता ही नहीं होता कि पेड़ों की सबसे ज्यादा क्षति का जिम्मेवार वह स्वयं ही होता है, कोई शाकाहारी नहीं।
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यह भी एक स्थापित तथ्य है कि खाये गए भोजन का 10% हिस्सा ही बॉडी फैट में तब्दील होता है। अर्थात – सामान्य गणित से भी चलें तो 10 मांसभक्षियों की खुराक तैयार करने में लगे शाकाहार से 100 लोगों का पेट भरा जा सकता है। अर्थात एक अकेला मांसाहारी 10 लोगों का भोजन तो हड़पता ही है, जंगलों को नष्ट करता है और एनिमल फार्मिंग के रूप में वर्ल्ड ग्लोबल वार्मिंग का भी सबसे बड़ा कंट्रीब्यूटर है। पर एक मांसाहारी को तर्क, सांख्यकी अथवा पर्यावरण से क्या लेना-देना? उसकी बुद्धि तो जिव्हास्वादन हेतु कुतर्क की उत्पत्ति में ही मगन रहती है।
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बहरहाल, हिंसा और अहिंसा के भेद भी बेहद सूक्ष्म हैं। मैं अगर पूर्णतः अहिंसक होने का व्रत धारण कर के वायुपान पर ही जीवित रहने का प्रण ले लूँ, तो क्या यह अहिंसा होगी? न जी – यह सरासर हिंसा होगी – मेरे खुद के प्रति, मेरे परिवार के प्रति।
मैं यह तो कहता ही नहीं कि विश्व कल से शाकाहारी हो जाये, और पूर्णतः क्रूरता से मुक्त हो जाये, पर हिंसा को त्यागने का विकल्प न हो, तो न्यूनतम हिंसा ही मनुष्य के लिए वरेण्य होनी चाहिए।
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अहिंसक न बनो, तो कम से कम न्यूनतम हिंसक ही बन जाओ।

पूरे इंसान न बन पाओ, तो कम से कम आधा-अधूरा इंसान ही बन जाओ।

shweta tripathi

लेखिका समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं

राहुल बारपुते की नजरों में : ऐसे थे हमारे रज्जू बाबू!

रज्जू बाबू जैसा बहुमुखी प्रतिभा का एवं सदैव जाग्रत अनेकानेक जिज्ञासाओं का धनी, मात्र पत्रकारिता के क्षेत्र में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी बिरला ही होता है, बहुत ही बिरला। लंबे समय तक रज्जू बाबू के सहकर्मी रहे ख्यात पत्रकार स्व. राहुल बारपुतेजी ने माथुर जी के लेखों के संग्रह ‘राजेन्द्र माथुर संचयन’ की भूमिका में रज्जू बाबू की अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया। प्रस्तुत हैं रज्जू बाबू पर बारपुतेजी के विचार…

कम से कम मेरी दृष्टि से यह वास्तव में एक अत्यंत सुखद संयोग था कि रज्जू बाबू (जी हां, इंदौर और इंदौर के परिसर में, सन् 1982 से 1991 में अपनी मृत्यु तक नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक रहे स्वर्गीय श्री राजेन्द्र माथुर को इसी नाम से, अर्थात् ‘रज्जू बाबू’ कहकर ही पहचाना, पुकारा जाता था : और आज भी इसी नाम से याद किया जाता है) और मैं लगातार सत्ताइस वर्षों तक सहकर्मी थे, इंदौर के एक दैनिक ‘नईदुनिया’ में।

संयोग इसलिए सुखद था कि रज्जू बाबू उन अत्यंत बिरले लोगों में से एक थे जो अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही ठान लेते हैं कि आगे चल करके क्या होंगे, फिर भले ही वे अपना लक्ष्य घोषित करें या अपने तक ही सीमित रखें, और अंतत: उस ठानी हुई मंजिल तक पहुंच ही जाते हैं। मेरी राय में रज्जू बाबू ने तय कर लिया था कि वे चोटी के पत्रकार बनेंगे।

और वे बने भी। जैसा कि सब जानते हैं, रज्जू बाबू अपनी अत्यंत अप्रत्याशित, और इसीलिए बेहद दुखद मृत्यु के समय नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक के पद पर कोई दस वर्षों से साधिकार आसीन थे। पूछा जा सकता है कि मैं कैसे जानता हूं कि रज्जू बाबू ने तय कर लिया था कि वे चोटी के पत्रकार बनेंगे? मेरे पास, अप्रत्यक्ष ही सही, पर प्रमाण है।

बात सन् 1955 की है, जब रज्जू बाबू बमुश्किल उन्नीस वर्ष के रहे होंगे। सन् 1955 के मध्य में वे शरद जोशी के साथ मुझसे मिलने ‘नईदुनिया’ के तत्कालीन दफ्तर में आए थे। शरद जोशी ने कहा था- ‘ये मेरे मित्र रज्जू बाबू हैं जो आप से किसी काम की खातिर मिलना चाहते हैं।’ मैं रज्जू बाबू की ओर मुड़ा और मैंने पूछा- ‘भाई, क्या काम है?’ तो रज्जू बाबू ने उत्तर दिया, ‘मैं नईदु‍निया’ में लिखना चाहता हूं।’ मैंने कहा कि ‘यह तो ठीक है, पर किस विषय पर लिखना चाहते हैं?’ रज्जू बाबू ने तत्काल उत्तर दिया, ‘वैसे तो कई विषयों पर लिखना चाहता हूं लेकिन खासकर विदेशी मामलों के बारे में।’

इस अनपेक्षित उत्तर से मैं चौक पड़ा था; लेकिन अपनी भावनाओं को सायास छिपाकर कहा, ‘अच्छी बात है। पर पहले, बतौर नमूने के, कुछ लिखकर दिखाइए, फिर तय करेंगे।’ इस मुलाकात के अगले ही दिन वे ‘नईदुनिया’ के दफ्तर में आ धमके। दुआ-सलाम के बाद उन्होंने मेरे सामने कागजों का एक पुलिंदा रखा और कहा, ‘देख लीजिएगा।’

उनके जाने के बाद मैंने पुलिंदा खोला तो उसमें संपादकीयनुमा कई लेख थे। जैसे ‘पख़तून राष्ट्रीयता’, ‘यूगोस्लाव विदेश नीति’, ‘हिन्द-अफ्रीका’ आदि। मैंने ये लेख पढ़े और मुझे ये एकदम से जंच गए। (शायद इसलिए कि उनकी भाषा वैसी ही थी जो मुझे भी पसंद थी। यानी, आडम्बरहीन, एकदम बोलचाल की आम-फहम पर, सहज प्रवाही भाषा। और साथ ही उन लेखों में ऐसे अनेक तथ्य भी थे कि जो केवल व्यापक अध्ययन एवं मनन के जरिए ही आ सकते थे!) कुछेक दिनों बाद जब रज्जू बाबू फिर मिलने आए तो मैंने कहा, ‘ठीक है, आप लिखिए। लेकिन एक समस्या है कि ये लेख छपेंगे कहां?’ रज्जू बाबू ने फौरन जवाब दिया, ‘अग्रलेख के तुरंत बाद। और उनका एक सामान्य शीर्षक होगा अनुलेख।’ मैं उनसे सहमत हो गया। और इस प्रकार, सन् 1955 के मध्य से ‘नईदुनिया’ परिवार में रज्जू बाबू शामिल हो गए, मेरे सहकर्मी हो गए और अगले सत्ताइस वर्षों तक बने रहे।

इन सत्ताइस वर्षों में उन्होंने बहुत लिखा। प्राय: रोज ही लिखते थे। अपवादस्वरूप, विभिन्न कारणों से वे गैरहाजिर रहते थे। जैसे, उनके घर कोई मंगल कार्य हो तब, या किसी कार्यवश इंदौर से बाहर जाना होता था तब, या काफी अस्वस्थ होते तब। पर ऐसे दिन वर्ष में कम ही आते थे। तो उन्होंने काफी लिखा और उनका लिखा मैं बराबर पढ़ा करता था, क्योंकि वह मुझे पसंद भी आता था। लेकिन, उनके कुछ लेख ऐसे थे कि जो उनकी विशिष्ट गुणवत्ता के कारण मुझे याद रह गए, आज भी याद हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने एक लेख लिखा था- ‘मैं समाजवादी नहीं हूं।’ इस लेख में उनकी बहुमुखी प्रतिभा खूब झिलमिलाती है (यों उनका, प्राय: हर लेख झिलमिलाता था।)

पर्याप्त चिंतन-मनन के परिणामस्वरूप रज्जू बाबू की जो राय बनी थी वह कितनी सही थी, यह हम आज इक्कीस वर्ष बाद देश की नई आर्थिक नीति में प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। आज कौन समाजवाद का नाम लेता है, सिवाय कतिपय कट्टर वामपंथियों के? और वे भी दबी जबान से ही समाजवाद का नाम लेते हैं। रज्जू बाबू की उक्त भविष्यवाणी और वर्तमान के बीच स्वयं सोवियत संघ का विलुप्त हो जाना भी एक महत्वपूर्ण कारक है वर्तमान परिस्थितियों का, लेकिन वह एक अलग विषय है। उक्त भविष्यवाणी यदि अब सही साबित होती नजर आती है तो इसका कारण यही है कि रज्जू बाबू की पैनी निगाहें यथार्थ की जड़ों तक पहुंच चुकी थीं और इसीलिए उक्त भविष्यवाणी का आधार वैज्ञानिक था।

लगातार लिखने-पढ़ने, सोचने-विचारने के कारण उनकी शैली निरंतर मंजती चली गई और अंतत: उसका अपना एक व्यक्तित्व निर्मित हो गया। उनके प्रारंभिक लेखों की भाषा लगभग वैसी ही है जैसी बाद के लेखों की।

प्रश्न किसी भी क्षेत्र का हो, रज्जू बाबू तब तक अपनी राय स्वयं तक ही सीमित रखते थे कि जब तक वे सभी प्रमुख पहलुओं की जानकारी लेकर किसी निश्चिय निष्कर्ष पर, फिर भले ही वह अस्थायी ही क्यों न हो, पहुंच नहीं जाते थे। मैंने लिख तो दिया है कि ‘सभी प्रमुख पहलुओं की जानकारी लेकर’ किसी निष्कर्ष पर पहुंचते थे, पर यह जानकारी एकत्र करना कितना कठिन है यह तो एक भुक्तभोगी ही जानता है। जिन विषयों ‍अथवा क्षेत्रों में रस हो उनके संपर्क में रहना, उनके बारे में निरंतर पढ़ते रहना आवश्यक होता है। फिर रज्जू बाबू की रुचियों का स्पेक्ट्रम तो औसत से कहीं अधिक विस्तृत था।

इतिहास, दर्शन, अर्थशास्त्र, साहित्य, विज्ञान, राजनीति आदि विषयों में तो उनकी रुचि थी ही पर इनके अलावा लीक से हटकर भी रुचियां थीं उनकी। जैसे पक्षियों का अध्ययन करना, या शरद ऋतु से लेकर ग्रीष्म तक की रातों में आकाश कैसा होता है, कौन से तारे कहां होते हैं आदि में भी उनकी खासी पैठ थी। मैं अक्सर ही उन्हें चलता-फिरता विश्वकोश कहता था और समूचे कार्यालय के लिए वे एक शब्दकोश तो थे ही! जो विषय ऊपर गिनाए हैं मैंने, उनके अलावा अन्य अनेक विषयों के बारे में उनकी जानकारी औसत से कहीं गहरी तो खैर होती ही थी, वह आद्यावत भी होती थी।

पता नहीं इतनी ढेर सारी, विविध जानकारी एकत्र करने के लिए उन्हें समय कैसे मिल जाता था। शायद वे बहुत पहले से ही ज्ञानार्जन की यात्रा पर निकल पड़े होंगे। रज्जू बाबू जैसा बहुमुखी प्रतिभा का एवं सदैव जाग्रत अनेकानेक जिज्ञासाओं का धनी, मात्र पत्रकारिता के क्षेत्र में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी बिरला ही होता है, बहुत ही बिरला।

(वेबदुनिया से साभार)

लोकसभा में किरेन रिजिजू का वक्फ बोर्ड संसोधन बिल पर भाषण

श्री किरेन रिजिजू ने कहा,  यह अमेंडमेंट बिल न केवल आवश्यक है बल्कि समय की मांग भी है। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि इस बिल का समर्थन करें और न्याय, समानता और सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाएं। मैं यहाँ इस बात को स्पष्ट करने के लिए आया हूँ कि क्यों इनका नोटिस स्तब्ध नहीं करता है और क्यों यहाँ पर उठाए गए ऑब्जेक्शन को स्वीकार नहीं करना चाहिए। मैं संक्षेप में कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा, उसके बाद आपके अनुमति से, मैं विस्तार से हर एक बिंदु का जवाब दूंगा। मेरा विश्वास है कि मेरी बातों को ध्यान से सुनने के बाद, अंत में जो भी आशंकाएं व्यक्त की गई हैं, वे सब दूर हो जाएंगी। मुझे पूरा यकीन है कि इस बिल के बारे में सब कुछ जानकारी प्राप्त करने के बाद, इस हाउस के सभी सदस्य इस बिल का समर्थन अवश्य करेंगे।

संविधान और धार्मिक स्वतंत्रता:
अध्यक्ष महोदय, इन्होंने कंटें का मुद्दा उठाया है। मैं पूरे जिम्मेदारी के साथ सदन को बताना चाहता हूं कि इस बिल में जो भी प्रावधान हैं, वे संविधान के अनुच्छेद 25 से 26 तक के किसी भी धार्मिक निकाय की स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप नहीं करते हैं। ना ही संविधान के किसी भी अनुच्छेद का उल्लंघन किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के ब्रह्मचारी वर्सेस स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल केस का हवाला देना चाहता हूँ, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक संप्रदाय के बारे में स्पष्ट रूप से रूलिंग दी है और वह आर्टिकल 25 और 26 के अंतर्गत नहीं आता है।

ब्रॉड बेस का उद्देश्य:
इस बिल में हमने ब्रॉड बेस का प्रावधान किया है। किसी का हक छीनने का सवाल ही नहीं है। बल्कि, जिनको हक नहीं मिला है, उन्हें हक देने के लिए यह बिल लाया गया है। इसमें महिलाओं, बच्चों और मुस्लिम समाज के पिछड़े वर्गों को अधिकार देने का प्रावधान है, जिन्हें अब तक कभी मौका नहीं मिला और जो अब तक दबे हुए थे।

संविधान के अनुसूची सूची में शामिल विषय:
संविधान के कंकरेंस लिस्ट में एंट्री नंबर 10 और 28 के अंतर्गत यह विषय आता है। इसलिए, यह पूरा विधायी अधिकार इस सदन और भारत सरकार के पास है।

इतिहास और अमेंडमेंट का संदर्भ:
यह वक्फ अमेंडमेंट बिल पहली बार इस सदन में पेश नहीं किया गया है। यह ऐतिहासिक रूप से 1954 में लाया गया था और उसके बाद कई अमेंडमेंट हुए हैं। आज जो अमेंडमेंट हम लाने जा रहे हैं, वह 1995 के वक्फ एक्ट और 2013 के अमेंडमेंट के आधार पर है।

अमेंडमेंट का उद्देश्य और कांग्रेस पार्टी का समर्थन:
कांग्रेस पार्टी ने भी कई मुद्दों को उठाया था, लेकिन वे उसे हल नहीं कर पाए। आज, हम उसी का समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं। यह अमेंडमेंट आम मुस्लिम समाज के हित में है और इसका समर्थन करने से करोड़ों लोगों का भला होगा।

महत्वपूर्ण कमेटियों का हवाला:
1976 की इंक्वायरी रिपोर्ट और जस्टिस राजेंद्र सच्चर की कमेटी का हवाला देना चाहता हूँ। इन कमेटियों ने वक्फ बोर्ड की कई खामियों को उजागर किया और सुधार के लिए सिफारिशें की थीं। आज हम उन्हीं सिफारिशों के आधार पर यह अमेंडमेंट लाए हैं।

वक्फ प्रॉपर्टीज और आय:
वक्फ प्रॉपर्टीज की सालाना आमदनी बहुत कम है। सच्चर कमेटी ने यह भी बताया था कि अगर इन्हें सही तरीके से मैनेज किया जाए, तो यह बहुत अधिक हो सकती है। हमारी सरकार ने भी अध्ययन किया है और पाया है कि वक्फ प्रॉपर्टीज का मार्केट वैल्यू बहुत अधिक है।

ब्रॉड बेस और महिलाओं का प्रतिनिधित्व:
सच्चर कमेटी और जॉइंट पार्लियामेंट कमेटी ने वक्फ बोर्ड को ब्रॉड बेस करने और महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने की सिफारिश की थी। आज हम उसी आधार पर यह अमेंडमेंट ला रहे हैं।

सार्वजनिक परामर्श और कंसल्टेशन:
इस बिल को लाने से पहले हमने व्यापक रूप से परामर्श किया है। हजारों लोगों से, स्टेकहोल्डर से, और विभिन्न समुदायों से परामर्श किया गया है।