Friday, November 29, 2024
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स्नो फ्लावर’: दो देशों की संस्कृति, परिवार और पहचान की कहानी

समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में फलती-फूलती एक कहानी, ‘स्नो फ्लावर’ परिवार, प्रेम और अपनेपन के विषयों का पता लगाती है

भारत के 55वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में, स्नो फ्लावर ने भव्य प्रीमियर के दौरान अपनी छाप छोड़ी और फिल्म के कलाकार और तकनीकी और व्‍यावहारिक पहलुओं पर काम करने वाले सदस्य जिनमें प्रशंसित निर्देशक गजेंद्र विट्ठल अहिरे, छाया कदम, वैभव मांगले और सरफराज आलम सफू शामिल थे, इन लोगों ने कल गोवा में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मीडिया को संबोधित किया।

मराठी भाषा की यह फिल्म दो देशों के बीच की एक मार्मिक कहानी है जो दो अलग-अलग संस्कृतियों – रूस और कोंकण को जोड़ती है। बर्फीले साइबेरिया और हरे-भरे कोंकण की विपरीत पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म भारत में रहने वाली दादी और रूस में रहने वाली पोती के बीच की ‘दूरी’ को दर्शाती है।

निर्देशक गजेंद्र विट्ठल अहिरे ने स्नो फ्लावर के पीछे की रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में भी जानकारी साझा की। अहिरे ने इन खराब परिस्थितियों में फिल्मांकन की चुनौतियों पर भी प्रकाश डाला। साइबेरिया के खांटी-मानसिस्क में तापमान -14 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाने के कारण, छोटे दल को कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ा। इन चुनौतियों के बावजूद, दल के समर्पण और मजबूत टीमवर्क ने उन्हें एक ऐसी फिल्म बनाने की अनुमति दी जो कहानी की भावनात्मक गहराई को पकड़ती है।

अहीरे ने कहा, “जब हम रूस पहुंचे, तो तापमान माइनस 14 डिग्री था।” “उन्होंने हमारा ख्याल रखा- हमें जूते, कपड़े, जैकेट, यहाँ तक कि साबुन और शैम्पू भी मुहैया कराया। उनके सहयोग से, हम अच्छी तरह से काम करने और कहानी के साथ न्याय करने में सक्षम हुए।” उन्होंने यह भी कहा कि भाषा की बाधा के बावजूद- क्रू में से कोई भी अंग्रेजी नहीं बोलता था, और रूसी क्रू को हिंदी नहीं आती थी- टीम फिल्म निर्माण की सार्वभौमिक भाषा और आपसी सम्मान पर भरोसा करते हुए प्रभावी ढंग से संवाद करने में कामयाब रही। “अपनी संस्कृति का पालन करते हुए हम पहले शॉट से पहले हर सुबह गणपति आरती करते हैं। रूस से आए क्रू ने पहले दो दिन तक इसका पालन किया और आपको यकीन नहीं होगा कि उन्होंने तीसरे दिन से ही आरती करना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि हमें समझ में नहीं आता लेकिन ऐसा करना अच्छा लगता है,” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा।

वैभव मंगले ने बताया कि रूस को स्थान के रूप में जानबूझकर चुना गया था, न केवल इसकी आकर्षक भौगोलिक स्थिति बल्कि कोंकण के साथ इसके सांस्कृतिक विरोधाभास के कारण। साइबेरिया के बर्फ से ढके परिदृश्य कहानी में भावनात्मक और भौगोलिक विभाजन के लिए एक आदर्श पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं, जो हरे-भरे, उष्णकटिबंधीय कोंकण क्षेत्र की विपरीत विषय वस्‍तु को दर्शाता है।

फिल्म की एक प्रमुख अभिनेत्री छाया कदम ने दोनों देशों के बीच के अंतर को चित्रित करने के अपने अनुभव को साझा किया। उन्होंने बताया, “मैं गजेंद्र की बहुत बड़ी प्रशंसक हूं और उनके साथ काम करके मुझे रूस और भारत के बीच के सांस्कृतिक अंतर को चित्रित करने का अवसर मिला।”

फिल्म के मुख्य अभिनेता सरफराज आलम सफू ने सेट पर अनुभव की गई सहयोगी भावना पर और जोर दिया। मॉस्को में रहने वाले सफू ने कम से कम उपकरणों और बुनियादी ढांचे के साथ काम करने की छोटी सी टीम की क्षमता की प्रशंसा की। “सीमित संसाधनों के साथ भी, हम शूटिंग को सफलतापूर्वक पूरा करने में सफल रहे। निर्देशक गजेंद्र ने मुझे खुद को अभिव्यक्त करने का मौका दिया और मैंने कलाकारों और क्रू से बहुत कुछ सीखा,” सफू ने कहा। उन्होंने दर्शकों पर फिल्म के भावनात्मक प्रभाव पर भी प्रकाश डाला, कई रूसी दर्शक, जो आईएफएफआई प्रतिनिधियों के रूप में यहां आए थे, स्क्रीनिंग के दौरान भावुक हो गए। उन्होंने कहा, “दोनों देशों के बीच संबंध बढ़ रहे हैं।” सफू ने कहा, “मुझे उम्मीद है कि यह फिल्म रूसी और भारतीय फिल्म निर्माताओं के बीच और अधिक सहयोग को प्रेरित करेगी।”

कोंकण के शानदार समुद्र तट से लेकर साइबेरिया के बर्फ से ढके ठंडे परिदृश्यों तक, फिल्म में एक ऐसा विरोधाभासी दृश्य प्रस्तुत किया गया है जो पात्रों की भावनात्मक उथल-पुथल को दर्शाता है।

प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान फिल्म निर्माताओं ने मीडिया और दर्शकों से क्षेत्रीय सिनेमा का सहयोग करने का आग्रह किया। अहीरे ने कहा, “यह एक क्षेत्रीय फिल्म है जिसे हर भारतीय को देखना चाहिए।” “यह सिर्फ़ दो संस्कृतियों के बीच फंसी एक लड़की की कहानी नहीं है, यह परिवार, प्यार और अपनेपन के सार्वभौमिक विषयों के बारे में है।”

सुश्री निकिता जोशी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस का संचालन किया।

आप प्रेस कॉन्फ्रेंस यहां देख सकते हैं:

फिल्म के बारे में

‘स्नो फ्लावर’ पूरे भारत के सिनेमाघरों में नवम्बर 2024 में रिलीज होगी।

स्नो फ्लावर की कहानी एक युवा लड़की परी की भावनात्मक यात्रा पर आधारित है, जो खुद को दो अलग-अलग दुनियाओं के बीच फंसी हुई पाती है। कहानी दो देशों में सामने आती है: भारत के कोंकण में, सपने देखने वाले एक युवा बबल्या, की रूस जाकर दशावतार थिएटर समूह में शामिल होने की प्रबल इच्‍छा होती है, जिसके कारण उसके अपने माता-पिता, दिग्या और नंदा के साथ  रिश्ते खराब हो जाते हैं। रूस में, बबल्या जीवन बनाता है, शादी करता है, और उसकी एक बेटी, परी होती है। हालाँकि, उस वक्‍त त्रासदी हो जाती है जब पब में झगड़े के दौरान बबल्या की मौत हो जाती है, और उसके माता-पिता अनाथ परी को वापस कोंकण लाने के लिए रूस जाते हैं। उनके प्यार और उसे पालने के प्रयासों के बावजूद, उन्हें जल्द ही अहसास होता है कि लड़की की असली जगह रूस में है, जहाँ उसे पूर्णता और खुशी मिल सकती है। एक पीड़ादायक फैसला लेकर, लड़की और उसकी मातृभूमि के बीच गहरे संबंध को स्वीकार करते हुए नंदा परी को रूस वापस भेज देती है।

#आईएफएफआई वुड

‘हनु-मान’: भारतीय पैनारोमा मंच पर एक पौराणिक सुपरहीरो का उदय

सार्थक कथा की प्रस्तुति न केवल एक लक्ष्य बल्कि उत्तरदायित्व भी है: तेजा सज्जा

हमारा सिनेमा दर्शकों के प्रेम और गाथा वर्णन के उत्साह से सफलता प्राप्त करता है: तेजा सज्जा

हनुमान जैसे व्यक्तित्वों को पहले से ही विश्व स्तर पर सराहा जाता है; अब समय आ गया है कि भारत इस कथा का नेतृत्व करे: तेजा सज्जा

हनु-मान केवल एक फिल्म नहीं है; यह हमारी सांस्कृतिक जड़ों और परंपराओं के प्रति श्रद्धांजलि है: तेजा सज्जा

गोवा में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के भारतीय पैनोरमा खंड में प्रशांत वर्मा द्वारा निर्देशित एक उत्कृष्ट सिनेमा कृति हनु-मान का प्रदर्शन किया गया। अंजनाद्री के काल्पनिक गांव में फिल्माई गई यह फिल्म हनुमन्थु की यात्रा का वर्णन करती है, जो एक छोटा चोर है और फिर भगवान हनुमान के रक्त की एक जीवाश्म बूंद से दिव्य शक्तियां प्राप्त करता है। यह परिवर्तन एक स्वघोषित सुपरहीरो के साथ एक महाकाव्य संघर्ष के लिए मंच तैयार करता है, जिसमें पौराणिक कथाओं, साहस और मानवीय उदारता का शानदार सामंजस्य किया गया है।

हनुमन्थु की मुख्य भूमिका निभाने वाले अभिनेता तेजा सज्जा ने भारतीय पौराणिक कथाओं पर आधारित इस कथा पर आगे काम करने पर विचार किया। प्रोडक्शन के दायरे पर विचार व्यक्त करते हुए, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कैसे टीम ने बड़े स्तर पर भारतीय सिनेमा के समान स्तर पर दृश्य लाने के लिए बजटीय सीमाओं को भी लांघा। अंजनाद्री के सुरम्य लेकिन काल्पनिक गांव को पूरी तरह से हैदराबाद में एक सेट पर फिर से बनाया गया, यह फिल्म निर्माताओं की सरलता को दर्शाता है।

तेजा सज्जा ने फिल्म के पीछे के रचनात्मक दृष्टिकोण पर भी बात की और निर्देशक प्रशांत वर्मा की तीन वर्ष की लंबी निर्माण यात्रा के दौरान दृढ़ता और लगन को इसका श्रेय दिया। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे यह फिल्म न केवल भारत की पौराणिक जड़ों को फिर से सामने लाती है बल्कि भारतीय सिनेमा को वैश्विक मंच पर भी स्थापित करती है।

सज्जा ने भारतीय संस्कृति में पूरी तरह से समाहित एक ऐसे किरदार को निभाने पर गर्व व्यक्त किया, जो समान पौराणिक पात्रों से परिचित अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के साथ जुड़ता है। उन्होंने हनु-मान को एक बड़ी फ्रैंचाइज़ में विस्तारित करने की योजना की भी जानकारी दी गयी जिसमें तेजा ने एक सीक्वल पर काम करने की पुष्टि की, जो इससे भी बड़ी कथा देने का वादा करती है। उन्होंने फिल्म में बेहतर तरीके से रचे गए महिला पात्रों के महत्व पर जोर दिया, कहानी को आगे बढ़ाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका पर ध्यान दिया गया है।

अभिनेता ने भारतीय सिनेमा के भविष्य के प्रति भी अपनी आशा व्यक्त की, उन्होंने इसके विकास का श्रेय दर्शकों के गाथा वर्णन के प्रति होने वाले अटूट प्रेम को दिया। उन्होंने कहा कि संपन्न तेलुगु फिल्म उद्योग अभिनव कथाओं और मन को मोह लेने वाले प्रदर्शनों के साथ निरंतर बंधनों से आगे बढ़ता रहा है, एक ऐसा भाव जिससे उन्हें उम्मीद है कि यह अधिक अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने की दिशा में प्रोत्साहन देगी।

हनु-मान सांस्कृतिक विरासत और आधुनिक कहानी का एक सशक्त मिश्रण है, जिसका उद्देश्य भारत और विदेश दोनों ही जगह दर्शकों के मन में अपना स्थान बनाना है। भारतीय पैनोरमा खंड में इसका समावेश फिल्म के कलात्मक और सांस्कृतिक महत्व की भी पुष्टि करता है।

मंच से सिनेमा तक: “पुणे हाईवे” जीवन की भावपूर्ण कहानी प्रस्तुत करती है

“दोस्ती, विश्वासघात और मुक्ति ‘पुणे हाईवे’ हमें अनुभव का महत्व बताने वाले विकल्प सोचने के लिए मजबूर करती है” – अमित साध

“मंच से स्क्रीन तक का सफ़र चुनौतीपूर्ण रहा, लेकिन परिणाम वास्तव में संतोषजनक है” – बग्स भार्गव, निर्देशक और लेखक

“ फ़िल्म इस बात का सबूत है कि सच्चाई से कही गई एक साधारण कहानी किसी भी बाधा को पार कर सकती है” – राहुल दाकुन्हा, निर्देशक और लेखक

गोआ। फिल्म ‘पुणे हाईवे’ के कलाकार और दल के अन्य सदस्‍य आज गोवा में 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में एक दिलचस्प प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए एकत्र हुए। फिल्म निर्माताओं ने अपनी रचनात्मक प्रक्रियाओं, निर्माण के दौरान आने वाली चुनौतियों और सिनेमा के भविष्य की अपनी कल्पना पर चर्चा की।

राहुल दाकुन्हा और बग्स भार्गव द्वारा निर्देशित और लिखित, पुणे हाईवे एक भावनात्मक थ्रिलर है जो एक रोमांचक कथानक प्रस्तुत करती है जो अप्रत्याशित परिस्थितियों से प्रभावित होकर नाजुक दोस्ती की तह खोलती है। पुरानी यादों, रहस्य और तकलीफदेह ड्रामा के बेहतरीन मिश्रण के साथ, फिल्म गहरे मानवीय संबंधों और उनकी जटिलताओं का सार प्रस्तुत करती है। फिल्म के भयावह दृश्य एक ऐसा सिनेमाई अनुभव प्रस्तुत करते हैं जो इसके समाप्त होने के बाद भी लंबे समय तक दिलो-दिमाग पर छाए रहते हैं।

मूल रूप से नौ देशों में दिखाए गए एक कमरे के नाटक के रूप में कल्पना की गई, पुणे हाईवे ने सिनेमाई प्रारूप में फिट होने के लिए रचनात्मक विकास किया। राहुल दाकुन्हा, जिन्होंने नाटक और फिल्म लिखी और निर्देशित की, ने बड़े पर्दे के लिए इसके दायरे का विस्तार करने के बारे में जानकारी साझा की।

दाकुन्हा ने बताया, “हमें सिनेमा के लिए नाटक की मूल भावनाओं को बरकरार रखते हुए भय, गुस्से और रोमांच के क्षणों की फिर से कल्पना करनी थी।” “यह दोस्ती के पीछे छिपे वास्तविक मुद्दों का विश्लेषण करने की कहानी है।”

सह-निर्देशक बग्स भार्गव ने फिल्म के निर्माण में किए गए सामूहिक प्रयास पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, “यह फिल्म प्रेम की मेहनत है, जिसमें कहानी कहने के वर्षों का अनुभव और विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।”

जाने-माने अभिनेता अमित साध ने इस तरह के अनूठे प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने पर अपनी खुशी जाहिर की। उन्होंने कहा, “यह भूमिका निभाना मेरे करियर के सबसे चुनौतीपूर्ण और संतोषजनक अनुभवों में से एक रहा है। यह एक ऐसी कहानी है जो हर उस व्यक्ति से जुड़ी है जिसने कभी दोस्ती को महत्व दिया है।”

मंजरी फडनीस ने फिल्म के सार्वभौमिक विषयों पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा, “पुणे हाईवे सिर्फ़ एक थ्रिलर नहीं है; यह मानवीय रिश्तों और जीवन को बदल देने वाली घटनाओं का सामना करने पर हमारे द्वारा चुने गए रास्ते की मार्मिक खोज है।

निर्माता सीमा महापात्रा ने कहा, “यह एक ऐसी फिल्म है जो हर किसी को पसंद आएगी – क्योंकि इसके मूल में, रिश्तों और उन विकल्पों की चर्चा है जो हमें किसी अनुभव का महत्व बताते हैं।”

पुणे हाईवे को इसके सार्वभौमिक विषयों के लिए सराहा गया है, जिससे यह विभिन्न संस्कृतियों के दर्शकों के लिए प्रासंगिक बन गया है। सस्पेंस और भावनात्मक गहराई के मिश्रण ने इसे इस साल के आईएफएफआई गोवा में एक बेहतरीन प्रविष्टि के रूप में स्थान दिया है। फिल्म निर्माता फिल्म समारोहों से हटकर फिल्म के बारे में आशावादी हैं, और ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुँचने के लिए इसे वैश्विक प्लेटफार्मों पर रिलीज़ करने की योजना बना रहे हैं। निर्देशकों ने एक सीक्वल का भी संकेत दिया, जिसमें पात्रों के जीवन और कहानी के अनसुलझे रहस्यों को गहराई से दिखाने का वादा किया गया।

सह-निर्माता जहाँआरा भार्गव ने कहा, “हम पुणे हाईवे को दुनिया के साथ साझा करने के लिए उत्साहित हैं। यह एक ऐसी कहानी है जिसे हर किसी को बताना और सुनना चाहिए।”

पुणे हाईवे दुनिया भर के दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ने का वादा करती है, यह भारतीय सिनेमा में दोस्ती और उनकी जटिल गतिशीलता को फिर से परिभाषित करती है।

कैमरापर्सन के लिए कोई फॉर्मूला नहीं होता है; हर फिल्म एक नई फिल्म है

सिनेमैटोग्राफर्स को हर नई फिल्म को अपनी पहली फिल्म की तरह देखना चाहिए: जॉन सील

गोआ। गोवा में आयोजित 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में “इन-कन्वर्सेशन” सत्र में प्रसिद्ध छायाकार जॉन सील ने सिनेमैटोग्राफी की कला में अपने व्यापक करियर और अंतर्दृष्टि का अनुभव साझा किया। सील ने दृश्य माध्यम से कहानी कहने में प्रकाश की परिवर्तनकारी शक्ति पर चर्चा की और प्रत्येक फिल्म के लिए एक नया दृष्टिकोण बनाने के महत्व पर उल्लेख किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सिनेमैटोग्राफी के लिए कोई फॉर्मूला नहीं है – हर प्रोजेक्ट में अपने अनूठे कथानक, भूगोल और संदर्भ के साथ, नई सोच की आवश्यकता होती है।

सील की फिल्मी यात्रा 1960 के दशक में शुरू हुई, जब ऑस्ट्रेलियाई फिल्म उद्योग उभर रहा था और उन्होंने वृत्तचित्रों से लेकर नाटक तक कई तरह के मीडिया में कार्य किया तथा काम के दौरान कला की बारीकी सीखी। ऑस्ट्रेलियाई प्रसारण निगम (एबीसी) के साथ उनके काम ने उन्हें घोड़ों की दौड़ को कवर करने और टेलीविजन शॉर्ट्स को फिल्माने सहित अपने कौशल को विकसित करने का मौका दिया। उन्होंने कहा कि मैं घोड़ों की दौड़ को कवर करने के तरीके पर एक लंबा व्याख्यान दे सकता हूं।

सील ने कहा कि जैसे-जैसे ऑस्ट्रेलियाई सिनेमा उद्योग फल-फूल रहा था, तो उनके साथियों ने जुनून के साथ फिल्में बनायीं। उन्होंने बताया कि अमरीका की फार्मूलाबद्ध संरचना “वाइड-शॉट – मीडियम-शॉट और क्लोज-अप” के आधार पर काम नहीं किया गया है। इस दृष्टिकोण की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, विशेष रूप से अमरीका में सराहना की गई, जहां पर फिल्म निर्माताओं ने बजट और समय-सीमा के भीतर काम करने के ऑस्ट्रेलियाई तरीके की सराहना की। सील ने कहा कि सिनेमेटोग्राफी के लिए कोई फॉर्मूला नहीं है। आपको लगता होगा कि हमने एक फिल्म के लिए कोई स्टाइल बनाया होगा – मैं इसकी प्रशंसा कर सकता हूं और सोच सकता हूं कि मैं इसे अगली फिल्म में भी अपना सकता हूं। लेकिन नहीं! हर फिल्म अनोखी होती है। ऑस्ट्रेलिया में, हम ‘क्या होगा अगर’ प्रणाली का अभ्यास करते थे। ‘क्या होगा अगर ऐसा हुआ? क्या होगा अगर इसे यहां होना ही है?’

सील ने अपने विश्वास को साझा करते हुए कहा कि कैमरा प्रोफेशनल को हर प्रोजेक्ट को हमेशा ऐसे देखना चाहिए जैसे कि यह उनकी पहली फिल्म हो। उन्होंने बताया कि कैसे समय के साथ उन्होंने एक कैमरे से कई कैमरों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जिससे अभिनेताओं और तात्कालिक दृश्यों की अधिक गतिशील कवरेज की संख्या बढ़ी। उन्होंने बड़े प्रेम से याद करते हुए कहा कि कैसे एक दृश्य की शूटिंग के दौरान, अभिनेता ने एक टूथपिक गिरा दी जो स्क्रिप्ट में नहीं थी लेकिन खूबसूरती से उसमें सुधार किया गया था। उन्होंने बताया कि तभी मुझे एहसास हुआ कि हमें इसे एक साथ दो कैमरों से शूट करना चाहिए। उन्होंने बताया कि उन दिनों हम हमेशा एक अतिरिक्त कैमरा साथ रखते थे, ताकि अगर शूट किए जा रहे कैमरे में कोई तकनीकी समस्या आती तो हम आपातकालीन स्थिति में काम कर सकें। उन्होंने हंसते हुए कहा कि इसलिए, मैंने बस ‘इमरजेंसी’ चिल्लाया और निर्देशक को आंख मारी। इससे वह समझ गया और इस तरह हमने बाकी सीन को दो कैमरों के सेट अप के साथ शूट किया।

सील ने लाइटिंग कैमरामैन और ऑपरेटर दोनों के होने के महत्व को भी रेखांकित किया, क्योंकि इससे निर्देशक तथा अभिनेताओं के साथ एक करीबी रिश्ता बनता है, जो आकर्षक फिल्म बनाने के लिए आवश्यक होता है। उन्होंने कहा कि “जब मेरे कई दोस्त कैमरा प्रोफेशन में ऊंचे स्तर पर पहुंच गए, तो मैंने लाइटिंग कैमरामैन तथा ऑपरेटर बनना पसंद किया क्योंकि मुझे हमेशा लगा कि मैं निर्देशक के करीब रहता हूं और उसे वह दृश्य दिखाने में मदद करता हूं जो वह चाहता है।”

सील ने अभिनय में अभिनेता के पक्ष को समझने के लिए किए गए अपने प्रयासों को भी साझा किया और बताया कि कैसे कैमरा पर्सन के तकनीकी पहलू उन्हें प्रस्तुति देने में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। उन्होंने बताया, मैंने हमेशा पाया है कि जब अभिनेता को सही फोकस या शॉट पाने के लिए फ्लोर पर बने ‘निशानों’ का पालन करना पड़ता है, तो वह यांत्रिक हो जाता है – जिसे आमतौर पर कैमरा क्रू या फोकस खींचने वाले द्वारा चिह्नित किया जाता है। उन्होंने बताया कि यह उनका काम नहीं है, बल्कि कैमरा पर्सन का काम है। इसलिए, उन्होंने कैमरे के लिए निशान बनाना पसंद किया – जहां पर क्रू को पता होगा कि सही फोकस कहां प्राप्त करना है और अभिनेता को इसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है।

सील ने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने क्लैप बोर्ड को बदल दिया जो शोर एवं ध्वनि के कारण अभिनेताओं को परेशान करता था, जहां पर उन्हें तैयार होना था और किरदार में आना होता था। उन्होंने बताया कि

“इसलिए, हमने बिना शोर के स्लाइड-इन बोर्ड लाए जिससे उन्हें तैयार होने और किरदार में आने का समय मिल गया।”

इस सत्र में दर्शकों को फिल्म में डूबाए रखने के उनके दर्शन पर प्रकाश डाला गया। सील ने उन क्षणों को कैप्चर करने की चुनौतियों का वर्णन किया, जो दर्शकों को बांधे रखते हैं, जैसे कि एक तूफानी दृश्य में अभिनेताओं की भावनात्मक तीव्रता को प्रबंधित करने का उदाहरण। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि प्रत्येक फिल्म को एक अनूठी परियोजना के रूप में देखा जाना चाहिए। सील ने कहा कि पिछले कामों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्री-प्रोडक्शन का महत्व और निर्देशक की दृष्टि को समझना उनकी प्रक्रिया में मुख्य बिंदु थे, विशेष रूप से कैमरा लेंस जैसे तकनीकी विकल्पों के संबंध में, जो अभिनेताओं तथा कहानी दोनों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकते हैं। सील ने कहा कि “आप प्री-प्रोडक्शन के दौरान जितना अधिक काम करते हैं, फिल्मांकन के दौरान उन्हें कैप्चर करना उतना ही आसान होता है।”

सील की बातचीत से सिनेमैटोग्राफी की कला के प्रति उनके अनुभव एवं प्रतिबद्धता की गहराई का पता चला और यह दर्शाया कि अभिनेताओं तथा दर्शकों के साथ गहरा संबंध बनाए रखते हुए प्रत्येक नई फिल्म के लिए अनुकूलन व नवाचार करना कितना महत्वपूर्ण है।

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कि क्या नए जमाने के डिजिटल कैमरे दिव्यांग लोगों को सिनेमैटोग्राफर बनने में मदद कर सकते हैं, क्योंकि एक आम सोच है कि दिव्यांग लोग अच्छे सिनेमैटोग्राफर नहीं बन सकते, उन्होंने अपनी धारणा व्यक्त की कि निश्चित रूप से कैमरे किसी भी व्यक्ति को क्रिएटर बनने में मदद कर सकते हैं। सील ने जोर देते हुए कहा कि “यह स्क्रिप्ट है!” और कहा कि शारीरिक दिव्यांगता किसी क्रिएटर को नहीं रोक सकती है।

#IFFIWood,

मैं अपनी फिल्म के माध्यम से अपने राष्ट्र की प्रामाणिकता के नुकसान को दर्शाना चाहता था: रस्तिस्लाव बोरोस, ‘द स्लगर्ड क्लान’ के निर्देशक

संस्था के अनुरूप न होने वाले विचारों और फिल्मों को धन जुटाना मुश्किल होता है: बेल्किस बायरक

स्वतंत्र और तटस्थ सिनेमा को धन नहीं मिलता: फेज अजीजखानी

गोआ। 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित फिल्म ‘द स्लगार्ड क्लान’ के निर्देशक रस्तिस्लाव बोरोस ने कहा कि स्लोवाकिया एक युवा राष्ट्र है जो बढ़ते पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के कारण अपनी प्रामाणिकता खो रहा है।

मीडिया से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा, “मैं अपने देश की आत्मा को दिखाना चाहता था। यह एक बहुत ही युवा देश है। इसे आजाद हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है। मैं फिल्म के जरिए कुछ प्रामाणिक दिखाना चाहता था। इसलिए, मैंने वास्तविकता न दिखाने का फैसला किया, बल्कि एक रूपक या दृष्टांत प्रस्तुत करने की कोशिश की। यह मेरे देश के लिए एक सपना है। देश के युवाओं की सारी आकांक्षाएं उपभोक्तावाद पर आधारित हैं।”

बेल्किस बायरक ने अपनी फिल्म ‘गुलिजर’ के बारे में बात करते हुए बताया कि फिल्म बनाते समय उन्हें किस तरह के फंड की जरूरत थी। उन्होंने कहा, “ज्यादातर पूर्वाग्रह की वजह से फिल्म के लिए फंड मिलना मुश्किल होता है। मैन्सप्लेनिंग उद्योग से आती है, सांस्कृतिक संस्थानों से नहीं।” उन्होंने आगे कहा कि “अगर आप समाज के किसी वर्ग का विरोध करने वाले विचार रखते हैं तो इसमें चुनौतियां आएंगी।”

मनीजेह हेकमत और फेज अजीजखानी द्वारा निर्देशित ‘फियर एंड ट्रेम्बलिंग’ एक ऐसी महिला की कहानी है जिसका अटूट विश्वास उसे अकेलेपन की ओर ले जाता है, जिससे वह परिवार और सामाजिक संबंधों से कट जाती है। यह अत्यधिक दृढ़ विश्वास उसके गहरे अकेलेपन का मूल कारण बन जाता है। फेज अजीजखानी ने कहा कि फिल्म का नाम ही इस फिल्म को बनाने के अनुभव को दर्शाता है।

अपने समापन भाषण में, फिल्म के लिए धन जुटाने के बारे में बोलते हुए, अजीजखानी ने कहा कि जो सिनेमा सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थन करता है, उसे धन मिलता है, हालांकि स्वतंत्र और तटस्थ सिनेमा को धन नहीं मिलता है और उसे मित्रों, परिवार और स्वयं के संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ता है।

तीन फिल्मों ‘द स्लगर्ड क्लान’, ‘गुलिजर’ और ‘फियर एंड ट्रेम्बलिंग’ के निर्देशकों ने आज गोवा में आयोजित 55वें आईएफएफआई के अवसर पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया। प्रेस कॉन्फ्रेंस का संचालन श्रीयंका चटर्जी ने किया।

लोकल इज ग्लोबल! सार्वभौमिक अपील वाली कहानियां वैश्विक दर्शकों का दिल जीत लेंगी

गोआ। मानवीय भावनाएं सार्वभौमिक हैं और सिनेमा एक भाषा के लिहाज से अज्ञेय माध्यम होने के नाते, दुनिया भर के लोगों को जोड़ सकती है। क्या कहानियों और कहानी कहने की कला में सीमाओं, भाषाओं और संस्कृतियों को पार करने की शक्ति है? आज पणजी में कला अकादमी में 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में फिल्म स्क्रीनिंग के मौके पर ‘स्टोरीज दैट ट्रैवल’ शीर्षक के साथ इस विषय पर एक पैनल चर्चा आयोजित की गई।

प्रतिष्ठित पैनलिस्टों में भारतीय मूल के ब्रिटिश पारसी लेखक, नाटककार, पटकथा लेखक फारुख धोंडी, स्पेनिश निर्माता अन्ना सौरा, प्रख्यात अभिनेता तनिष्ठा चटर्जी, प्रसिद्ध अभिनेता और निर्माता वाणी त्रिपाठी टिक्को और अंग्रेजी वृत्तचित्र फिल्म निर्देशक लूसी वॉकर शामिल थे। भारतीय फिल्म निर्देशक और निर्माता बॉबी बेदी ने चर्चाओं का संचालन किया, जिसमें कहानी कहने की विभिन्न बारीकियों पर प्रकाश डाला गया, जो सार्वभौमिक तो हैं, लेकिन क्षेत्र, देश या संस्कृति विशिष्ट भी हो सकती हैं।

 

बॉबी बेदी ने सत्र की शुरुआत इस कथन के साथ की कि भारत विश्व स्तर पर लोकप्रिय और मजबूत फिल्म निर्माण उद्योग है; लेकिन भारतीय फिल्म निर्माता प्रवासी दर्शकों से परे दर्शकों के बारे में नहीं सोचते हैं और इसलिए, अक्सर अंतरराष्ट्रीय दर्शकों से जुड़ नहीं पाते हैं।

वृत्तचित्र फिल्म निर्माता लूसी वॉकर का मानना है कि “लोगों को उन लोगों और प्राणियों के बारे में फिल्में बनानी चाहिए जिनकी वे परवाह करते हैं।” उन्होंने कहा कि उन्हें दुनिया भर में घूमना पसंद है, लेकिन एक पर्यटक के रूप में नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों पर फिल्में बनाने के लिए। लूसी वॉकर की फिल्म ‘माउंटेन क्वीन: द समिट्स ऑफ लखपा शेरपा’ ने हाल ही में आईएफएफआई सहित फिल्म समारोहों में सराहना बटोरी है।

वाणी त्रिपाठी टिक्कू ने कहा, “वसुधैव कुटुम्बकम” भारत का मंत्र है। यह हमेशा से कहानीकारों की भूमि रही है और “कथावाचन” हमेशा से हमारी परंपरा रही है। उन्होंने कहा कि भारत के बाहर से आई कहानियां भी देश में सुनाई जाती हैं। उन्होंने कहा, “आखिरकार यात्रा करने वाली कहानियों में सार्वभौमिकता और सांस्कृतिक जुड़ाव का तत्व होता है।”

फारुख धोंडी ने मानव जाति में कहानी कहने के इतिहास पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा, “हर जनजाति, हर संस्कृति की अपनी पौराणिक कथाएं होती हैं। यहीं से कहानी शुरू होती है! पौराणिक कथाएं हमें संस्कृति की नैतिकता के बारे में बताती हैं। कुछ यात्रा करती हैं, जबकि कुछ नहीं करतीं।” उन्होंने कहा कि सभी कहानियां दुनिया भर में दर्शकों से समान रूप से जुड़ती नहीं हैं। उन्होंने बताया कि राज कपूर की भारतीय किसानों और शहरी गरीबों से संबंधित कहानियां सोवियत दर्शकों से जुड़ी थीं और कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान और आस-पास के देशों में पुरस्कार जीते, हालांकि उन्हें अमेरिका या यूरोप में उस तरह से समर्थन नहीं मिला। लेकिन दूसरी ओर, सत्यजीत रे की उपन्यास संबंधी कहानियां यूरोप और अमेरिका के दर्शकों से जुड़ सकी थीं।

उन्होंने कहा कि अगले चरण में दुनिया भर में मौजूद आधुनिक वास्तविकता पर आधारित कहानियां आईं और स्लमडॉग मिलियनेयर और सलाम बॉम्बे जैसी फिल्मों ने दुनिया भर के कई लोगों को जोड़ा। मॉनसून वेडिंग जिसमें ‘प्यार सब कुछ जीत लेता है’ (लव कनक्वेर्स ऑल) का सार्वभौमिक संदेश है, पश्चिमी दर्शकों से जुड़ पाई। फारुख धोंडी ने कहा, इसी तरह बैंडिट क्वीन ने भी पश्चिमी दर्शकों को प्रभावित किया, जो एक अलग भाषा और एक अलग संस्कृति में होने के बावजूद अपने अधिकारों के लिए लड़ रही एक महिला की कहानी से पश्चिमी दर्शकों को चकित कर दिया।

प्रसिद्ध स्पेनिश फिल्म निर्माता कार्लोस सौरा की बेटी अन्ना सौरा ने कहा कि इंटरनेट के युग में लोगों के पास दुनिया भर के कंटेंट तक पहुंच है और इसलिए सभी कहानियों के वैश्विक दर्शक हैं। उन्होंने इस तथ्य पर जोर दिया कि “ऐसी कहानियां जो इंसानों के रूप में हमारी हैं, उनका दुनिया भर में जुड़ाव होगा”। उन्होंने कहा कि ये कहानियां दुनिया में कहीं से भी हो सकती हैं। अन्ना सौरा ने कहा कि फिल्म समारोहों और ओटीटी ने वृत्तचित्रों और लघु फिल्मों को भी एक मंच दिया है और इसलिए, सभी के लिए एक बड़ा बाजार खुल गया है। हालांकि, उन्होंने कहा कि निर्माताओं और फिल्म निर्माताओं की जिम्मेदारी है कि वे दुनिया भर में परियोजनाओं को बढ़ावा दें। इस संदर्भ में, उन्होंने कहा कि कुछ विषय ऐसे हैं जो पूरी दुनिया में यात्रा कर सकते हैं और समझे जा सकते हैं और भाषा इसके लिए कोई बाधा नहीं है।

मशहूर अभिनेत्री तनिष्ठा चटर्जी ने वैश्विक दर्शकों के लिए कहानियों की अपील पर चर्चा में एक कलाकार का दृष्टिकोण पेश किया। उन्होंने कहा कि भारतीय दर्शक टीवी के प्रति अधिक अनुकूल हैं और सिनेमा उनके लिए गौण है। अभिनेत्री ने बताया कि भारतीय सिनेमा संस्कृति की तरह ही जोरदार और उल्लासपूर्ण है, जबकि पश्चिम में भावनाओं को अधिक सूक्ष्म तरीके से व्यक्त किया जाता है। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक बारीकियां भी देश-दर-देश बदलती रहती हैं।

तनिष्ठा चटर्जी ने यह भी कहा कि भावनाएं सार्वभौमिक होती हैं। उन्होंने कहा, “लेकिन जब विषय स्थानीय होता है, तो वह फैलता है।” अभिनेत्री ने कहा कि हमें कुछ ऐसा बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जो सार्वभौमिक हो, बल्कि स्थानीय कहानियां बताने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने, “संस्कृति और भावनाओं की सार्वभौमिक भाषा हमेशा यात्रा करती है।”

बॉबी बेदी ने अवतार जैसी फिल्मों का जिक्र किया, जिसमें भारत की एक स्थानीय कहानी ने वैश्विक सुपर स्टोरी का रूप ले लिया था। फारुख धोंडी ने याद दिलाया कि अमेरिकी सुपर हीरो फिल्मों के भी वैश्विक दर्शक हैं। इस पर बोलते हुए लूसी वॉकर ने कहा कि सुपरहीरो भी स्थानीय लोग ही होते हैं जो मौके का फायदा उठाते हैं।

चर्चा इस बात पर समाप्त हुई कि सार्वभौमिक भावनात्मक अपील वाली स्थानीय कहानियां दुनिया भर के दर्शकों को जीत लेंगी।

गुजरात की लोककथाओं के आसपास गहराई से समाई ‘कारखानू

आईएफएफआई में प्रदर्शित होने के बाद गुजराती सिनेमा में धूम मचाने के लिए तैयार: रुषभ थांकी, निर्देशक
‘गूगल मैट्रिमोनी’ लोगों के जीवन पर प्रौद्योगिकी के प्रभाव की खोज करती है: अभिनव जी अत्रे, फिल्म निर्माता

एक सच्ची कहानी ‘राडोर पाखी’ में स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी से पीड़ित एक लड़की का संवेदनशील चित्रण; अपने सपने पूरा करने के लिए कठिन परिस्थितियों से निकलकर उसकी सशक्त बनने की भावना : डॉ. बॉबी शर्मा बरुआ, निर्देशक

भारत के 55वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में तीन बेहतरीन फिल्में दिखाई गईं: गुजराती फिल्म ‘कारखानू’, असमिया फिल्म ‘राडोर पाखी’ और ‘गूगल मैट्रिमोनी’। दूरदर्शी निर्देशकों और निर्माताओं द्वारा निर्मित ये सिनेमाई रत्न रहस्य, हास्य, डरावनी, प्रामाणिक मानवीय संबंधों की तलाश और जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने की ताकत जैसे गहरे विषयों का पता लगाते हैं।

मीडिया से बातचीत में ‘कारखानू’ के निर्देशक रुषभ थांकी ने बताया कि यह फिल्म गुजरात की लोककथाओं के आसपास गहराई से जुड़ी हुई है। शुरुआत में इसे एक लघु फिल्म के रूप में बनाया गया था, लेकिन बाद में इसे एक पूरी फीचर फिल्म में बदल दिया गया। अभिनेता पार्थ दवे ने फिल्म को दो साल की यात्रा, एक व्यंग्य और एक-कट प्रोजेक्ट बताया, जो स्व-वित्तपोषित था, जिसने आईएफएफआई में इसकी स्क्रीनिंग के साथ गुजराती फिल्म उद्योग के लिए एक नई उपलब्धि हासिल की।

फिल्म ‘गूगल मैट्रिमोनी’ के लिए निर्देशक श्रीकार्तिक एस एस ने बताया कि यह फिल्म एक एंथोलॉजी (विभिन्‍न लेखकों की एक ही विषय पर लिखी रचनाओं का संग्रह) का हिस्सा है। फिल्म निर्माता अभिनव जी अत्रे ने बताया कि कहानी बताती है कि प्रौद्योगिकी किस तरह से जीवन को प्रभावित करती है। अभिनेता देव ने कहा कि टीम आईएफएफआई में मिली सराहना को महत्व देती है, जो उभरते फिल्म निर्माताओं को प्रेरित करती है। जब उनसे फिल्म की व्यावसायिक व्यवहार्यता के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि उनका ध्यान पैसा कमाने के बजाय एक सार्थक फिल्म बनाने पर था।

फिल्म ‘राडोर पाखी’ के निर्देशक डॉ. बॉबी शर्मा बरुआ ने बताया कि यह फिल्म स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी से पीड़ित एक लड़की का संवेदनशील चित्रण है। जब उनसे फिल्म के संयमित स्वर के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि यह एक सच्ची, दिल को छू लेने वाली कहानी पर आधारित है। अभिनेत्री सुलख्याना बरुआ ने बताया कि ‘राडोर पाखी’ का हिस्सा बनना मानसिक और शारीरिक रूप से चुनौतीपूर्ण था, लेकिन एक बड़ा सम्मान था, क्योंकि उन्होंने एक वास्तविक जीवन की प्रेरणादायी शख्सियत का किरदार निभाया था।

फ़िल्म के बारे में:

कारखानू – ‘कारखानू’, जिसे ‘भारतीय फीचर-फ़िल्म’ श्रेणी में दिखाया जा रहा है, गुजरात की पहली ‘स्मार्ट हॉरर कॉमेडी’ है, जो विचित्र और भयानक “हॉन्टेड फ़ैक्टरी” को जीवंत करती है। काली चौदस की रात को, तीन बढ़ई एक भूतिया कार्यशाला में फंस जाते हैं, जहाँ विचित्र घटनाएँ उन्हें देर होने से पहले इसके रहस्यों को उजागर करने के लिए मजबूर करती हैं। रहस्य, हास्य और डरावनी कहानियों का एक रोमांचक मिश्रण, यह फ़िल्म एक अविस्मरणीय अनुभव का वादा करती है।

गूगल मैट्रिमोनी – ‘गूगल मैट्रिमोनी’, जिसे ‘भारतीय गैर-फीचर फिल्म’ श्रेणी में दिखाया जा रहा है, अंधे अनंथु की कहानी है, जो एकांत जीवन जीता है, और दृष्टि और सहायता के लिए अपने गूगल ग्लास पर निर्भर रहता है। अपनी दृष्टिहीनता के कारण मैट्रिमोनी साइट्स पर अस्वीकृति से संघर्ष करते हुए, उसकी दुनिया तब बदल जाती है जब उसका गूगल ग्लास एक महिला को उसकी ओर मुस्कुराते हुए देखता है, उसे किसी के साथ मजबूत जुड़ाव का अहसास होता है। यह फिल्म तकनीक से प्रेरित दुनिया में सच्चे मानवीय संबंध की खोज को दर्शाती है, जहाँ वास्तविकता और भ्रम अक्सर आपस में जुड़े होते हैं, और प्यार और स्वीकृति अंतिम इच्छाएँ बनी रहती हैं।

राडोर पाखी – ‘राडोर पाखी’ असम की एक महत्वाकांक्षी लेखिका ज्योति की सच्ची कहानी है, जिसे स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी का पता चला है, जिसके कारण वह बिस्तर पर पड़ी रहती है। अपनी शारीरिक चुनौतियों के बावजूद, वह लेखिका बनने के अपने सपने को पूरा करने में लगी रहती है। फिल्म में उसकी यात्रा पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें मानवीय भावना का लचीलापन और अपने सपनों को पूरा करने के लिए बाधाओं को पार करने में पाई जाने वाली ताकत को दिखाया गया है।

नाविका सागर परिक्रमा – II आईएनएसवी तारिणी फ्रेमंटल, ऑस्ट्रेलिया से लिटलटन, न्यूजीलैंड तक अभियान के दूसरे चरण पर रवाना हुई

भारतीय नौसेना का नौकायन पोत आईएनएसवी तारिणी 24 नवंबर 2024 को 0830 बजे आईएसटी ( स्थानीय समयानुसार 1100 बजे ) फ्रेमेंटल, ऑस्ट्रेलिया से एनएसपी-II के अभियान के दूसरे चरण के लिए लिटलटन, न्यूज़ीलैंड के लिए रवाना हुई। तारिणी और उसके साहसी दल को वहां मौजूद उत्साही भीड़ ने लिटेलटन तक सुरक्षित यात्रा की शुभकामनाओं के साथ विदा किया।

नविका सागर परिक्रमा-II, जिसे 2 अक्टूबर 2024 को नौसेना प्रमुख एडमिरल दिनेश के त्रिपाठी ने हरी झंडी दिखाकर शुरू किया था, भारतीय नौसेना का एक अभियान है जिसमें नौसेना की दो महिला अधिकारी 56 फीट लंबी आईएनएसवी तारिणी पर सवार होकर पृथ्वी की दोहरी परिक्रमा अभियान कर रही हैं।

https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2061255

लेफ्टिनेंट कमांडर दिलना के और लेफ्टिनेंट कमांडर रूपा ए ने 9 नवंबर 2024 को फ्रेमैंटल में एक नियोजित ठहराव किया, जहाँ उन्होंने 39 दिनों की यात्रा पूरी की, जिसमें 4900 समुद्री मील की दूरी तय की थी। इस यात्रा के दौरान उन्हें पर्थ में भारतीय कौंसल जनरल, डीए कैनबरा, रॉयल ऑस्ट्रेलियाई नौसेना के अधिकारियों और मुख्य रूप से भारतीय सशस्त्र बलों के पूर्व सैनिकों के भारतीय प्रवासी समुदाय द्वारा गर्मजोशी से स्वागत किया गया।

फ्रेमंटल और पर्थ में, चालक दल ने विभिन्न प्रभावशाली गतिविधियों में भाग लिया, जिसमें लैंगिक समानता और वैश्विक समुद्री सहयोग को बढ़ावा देने में भारतीय नौसेना के योगदान को प्रदर्शित किया गया, साथ ही समुद्री अन्वेषण और महिला सशक्तिकरण में भारत की प्रगति का भी प्रतिनिधित्व किया गया।

दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंधों को बढ़ावा देने तथा उनकी उपलब्धियों को मान्यता देने के लिए, चालक दल को पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की संसद में विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में सम्मानित किया गया, जहां उन्होंने सांसदों के साथ बातचीत की तथा संसद के एक सत्र में भी भाग लिया, सदन में एक वक्तव्य जारी किया गया, जिसमें अभियान तथा उनकी अब तक की यात्रा को मान्यता दी गई।

इस दौरान, तारिणी ने भारत से आए तटीय सहायता दल की देखरेख में सभी प्रणालियों की जांच की और दोषों की मरम्मत की तथा अगले पड़ाव के लिए प्रावधानों का स्टॉक किया। चालक दल को टीम के संरक्षक कमांडर अभिलाष टॉमी (सेवानिवृत्त) ने आगे के मार्ग के बारे में जानकारी दी, जिन्होंने नाव का मूल्यांकन भी किया।

भारत की समृद्ध समुद्री विरासत के राजदूत के रूप में कार्य करते हुए, उन्होंने पर्थ में भारत के महावाणिज्यदूत द्वारा आयोजित एक जीवंत कार्यक्रम में भारतीय प्रवासियों के साथ बातचीत की। उन्होंने रॉयल ऑस्ट्रेलियन नेवल बेस एचएमएएस स्टर्लिंग और ओशन रीफ हाई स्कूल का भी दौरा किया। छात्रों के साथ अपनी यात्रा और अनुभव साझा करते हुए, दल ने युवा दिमागों पर गहरी छाप छोड़ी, जिसमें चुनौतियों के खिलाफ लचीलापन, नवाचार और सपनों को आगे बढ़ाने के महत्व पर जोर दिया गया।

अभियान के चरण II में आईएनएसवी तारिणी केप ल्यूविन, ग्रेट ऑस्ट्रेलियन बाइट, टस्मानिया और न्यूज़ीलैंड के दक्षिणी द्वीप को पार करते हुए लिटेलटन पहुंचेगी। यह यात्रा लगभग 3400 समुद्री मील (6300 किलोमीटर) की होगी और लगभग 20 दिनों में पूरी होगी। इस दौरान, दल को विभिन्न मौसम स्थितियों का अनुभव होगा, जिसमें फ्रंटल मौसम प्रणालियाँ और गिरते तापमान शामिल हैं।

रायपुर दक्षिण के नतीजे ने लगाई विष्णु देव साय के सुशासन पर मुहर

रायपुर दक्षिण विधानसभा उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड जीत ने छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में चल रही सरकार के सुशासन पर मुहर लगाई है। चुनाव परिणाम ने साबित कर दिया है कि मतदाताओं का सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा है। यह संभव हुआ है मुख्यमंत्री की सहज सरल छवि तथा जनहित के मुद्दों पर दृढ़ता से त्वरित निर्णय लेने की उनकी कार्यप्रणाली के कारण। एक वर्ष के कार्यकाल में साय सरकार ने न केवल पारदर्शी प्रशासनिक तंत्र का विकास किया बल्कि भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति को अपनाते हुए अंतिम पायदान पर बैठे व्यक्ति तक सरकारी योजनाओं और नीतियों का लाभ कैसे पहुंचे इस पर पूर्ण मनोयोग से काम किया है।

उपचुनाव के नतीजों ने सरकार के कामकाज पर मुहर लगाई है यह उप चुनाव रायपुर दक्षिण की एक सीट का चुनाव कहकर टाला नहीं जा सकता है। यह राजधानी की ऐसी सीट है जो पूरे राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। यहां से बही हवा पूरे राज्य मेें असर करती है। इसका कारण यह है कि इस इलाके में राज्य के सभी संभागों के तथा हर वर्ग के वोटर निवासरत हैं। इसलिए रायपुर दक्षिण में दक्षिणपंथ की विजय को पूरे राज्य के जनादेश की झलक के तौर पर देखना गलत नहीं होगा। उपचुनाव में मुख्यमंत्री साय के करिश्माई व्यक्तित्व का आकर्षण वोटरों में इतना अधिक रहा कि यहां विपक्षी कांग्रेस के लिए कोई जगह ही न बची। साय ने ऐसा कोई मुद्दा ही न छोड़ा जिसे विपक्ष भुना सके। चुनाव के दौरान कांग्रेस मुद्दा विहीन हो गई। यही कारण है कि उसने मौलाना के चुंबन सरीखे एडिटेड वीडियो बनाकर चुनाव को प्रभावित करने का प्रयास किया और अपनी जग हंसाई करवाई। भाजपा के पास विष्णु देव साय के रूप में एक शानदार और बेदाग चेहरा था जबकि भूपेश बघेल की वादा खिलाफी वाली छवि ने कांग्रेस की संभावनाओं को पहले ही खत्म कर दिया था। साय के नेतृत्व में भाजपा एक होकर चुनाव लड़ी वहीं कांग्रेस पूरी तरह बिखरी रही।

एक और गौर करने वाली बात यह है रायपुर नगर निगम के कांग्रेसी महापौर का वार्ड भी इसी विधानसभा क्षेत्र में है। महापौर के वार्ड से भी भाजपा को लीड मिली है। इससे यह भी प्रमाणित हो गया कि महापौर अपने वार्ड के पार्षद का चुनाव भी नहीं जीत सकते हैं। कांग्रेस के परंपरागत वोटर भी इस बार भाजपा की विजय देखना चाहते थे। प्रचार के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस के वोटर भी चाहते थे कि विष्णु के सुशासन के साथ मिलकर वे अपने क्षेत्र को विकास की डगर पर लेकर चलें। प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री के रोड शो को जो शानदार प्रतिसाद मिला था उससे नतीजों का अनुमान तो पहले ही लग गया था। कांग्रेस तो इतना डरी हुई थी कि अपने महापौर को चुनाव प्रचार तक नहीं करने दिया। इससे आने वाले निगम चुनाव के परिणामों का भी अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

भाजपा की एकतरफा विजय के कारणों का विश्लेषण करें तो कई कारण स्पष्ट रूप से दिखते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो विधानसभा चुनाव के दौरान किए गए वादों से बढ़कर राज्य सरकार ने जनहित के जो काम किए उनका प्रतिफल इस जीत में दिखा। महतारी वंदन योजना के तहत राज्य की 70 लाख से अधिक महिलाओं के खाते में प्रतिमाह 1000 रुपये का अंतरण, किसानों को धान का बोनस और 3100 के दाम पर रिकार्ड धान खरीदी, युवाओें के लिए सरकारी नौकरियों के अवसर, भर्ती की आयु सीमा में पांच वर्ष की छूट, 18 लाख से अधिक प्रधानमंत्री आवासों को स्वीकृति, पीएससी की परीक्षाओं में पारदर्शिता, भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति, गरीबों को मुफ्त राशन तथा शहरी बुनियादी सुविधाओं का विकास जैसे तमाम कामों ने चुनाव परिणामों को प्रभावित किया है। विष्णु देव साय के नेतृत्व में राज्य में तेजी से अधोसंरचना विकास का काम चल रहा है। सड़कें, पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल का कायाकल्प हो रहा है। नक्सल समस्या से सख्ती से निपटने की कारगर रणनीति अपनाई गई है। शहरों में कानून व्यवस्था पर जोर दिया जा रहा है। यही कारण है कि जनता का सरकार पर भरोसा बढ़ा है और परिणाम सामने है।

एक पुरानी याद!

बात तब की है जब भारत सरकार द्वारा फ़ेलो के रूप में मेरा चयन हुआ था और मैं राजस्थान सरकार से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर १९९९ से लेकर २००१ तक शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में ‘अनुवाद की समस्याओं’ पर शोधकार्य करने के लिए वहाँ गया था।(यह कार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका है।) संस्थान के अकादमिक माहौल की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।भारत में ही नहीं पूरे एशिया में यह संस्थान अपनी गौरवशाली अकादमिक परम्परा के लिए सुविख्यात है।
मेरे समय में सर्वश्री गिरिराज किशोर,कृष्णा सोबती और रामकमल राय जी भी इस संस्थान में थे।(आज की तारीख में तीनों का स्वर्गवास हो चुका है।)पूरे कार्यकाल के दौरान मैं विश्वविद्यालय मार्ग(समर हिल) पर स्थित तथा प्राकृतिक छटा से ओतप्रोत ‘डेल विल्ला’ बंगले में रहा।
एक दिन जब मैं अपने अध्ययन-कक्ष में कुछ काम कर रहा था तो कश्मीर विश्वविद्यालय के परीक्षा-नियंत्रक का मेरे पास फोन आया जिस में उन्होंने मुझे निवेदन किया कि डी-लिट की एक थीसिस वे मेरे पास संवीक्षा के लिए भेजना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें मेरी सहमति चाहिए। ‘हाँ’ करने के एक सप्ताह के अंदर-अंदर शोध-प्रबंध मेरे पास डाक से आ  गया। पार्सल खोलने पर देखा तो ग्रंथ मेरे मिलने वाले मित्र डा० भूषणलाल कौल का था। मेरी जानकारी के मुताबिक कौल उस समय कश्मीर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थे। थीसिस की ठीक-ठाक रिपोर्ट भेज दी और कुछ ही दिनों के बाद मौखिकी(viva)की तारीख भी तय हुई।वायवा श्रीनगर में होना था मगर इस बीच कौल साहब की तरफ से उनके एक परिचित ने(जिन्हें मैं भी जानता था) मुझे फोन कर अनुरोध किया कि मैं परीक्षा-नियंत्रक को पत्र लिखूँ कि यह वायवा श्रीनगर में न रखकर जम्मू में रखा जाए।(उस ज़माने में कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था।कौल के घाटी में कुछ असामाजिक तत्व पीछे पड़े हुए थे।शायद इसी लिए कौल साहब अपना यह वायवा श्रीनगर के बदले जम्मू में रखवाना चाह रहे थे।)परीक्षा-नियंत्रक महोदय ने मेरी बात मान ली और वायवा श्रीनगर के बदले जम्मू विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस  में रखा गया।
नियत तारीख को मैं जम्मू पहुंचा। विश्वविद्यालय के गेस्ट-हाउस में प्रवेश करते ही मुझे डा०भूषणलाल कौल,उनके सहकर्मी डा०रोशनलाल ऐमा,कश्मीर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा० रमेश कुमार शर्मा,उनकी पत्नी डा०विमला मुंशी आदि दिखे।कश्मीर विश्वविद्यालय के दो-तीन अधिकारीगण भी पहले से विराजमान थे।सभी से मुलाकात हुई। ‘अधिकारीगण’ को छोड़ शेष सभी से मैं परिचित था और वे मुझ से।विमला मुंशी द्वितीय परीक्षक की हैसियत से और डा० रमेश कुमार शर्मा पत्नी का साथ देने की गरज से आगरा से जम्मू आए हुए थे।शर्माजी तनिक उखड़े-से और कमजोर लगे। पूछने पर कहने लगे कि उन्हें कुछेक वर्ष पहले ‘स्ट्रोक’ आया था।खैर—-।
अधिकारीगण में से एक ने, जो शायद अवर कुलसचिव थे,कमान संभाली और वायवा की कार्रवाई शुरू करने के निर्देश दिए। जाने क्या सोचकर उन्होंने मुझे वायवा की पूरी कार्रवाई के संचालन का दायित्व सौंपा और संबंधित फाइल मुझे संभलायी! गेस्ट हाउस के बड़े-से कक्ष में हम लोगों के अलावा जम्मू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के कतिपय स्टाफ के सदस्य और विद्यार्थी भी मौजूद थे। सर्वप्रथम शोध-प्रबंध पर परीक्षकों के प्रतिवेदन पढे गए। मैसूर से प्रो० ओमकार कौल की,आगरा से डा० विमला मुंशी की और मेरी अपनी रिपोर्ट को मैं ने पढ़कर सुनाया। थीसिस के प्रो० ओमकार कौल भी एक परीक्षक थे पर वे किसी कारण से आ नहीं पाए थे।प्रश्नोत्तरी का दौर चला। जहां तक मुझे याद है श्रीमती मुंशी ने कोई खास प्रश्न शोधकर्त्ता से नहीं पूछा। मैं ने अवश्य भूषणलाल से दो-तीन सवाल किए।कश्मीरी के प्रख्यात रचनाकार अमीन कामिल के अवदान का उल्लेख प्रबंध में करना वे भूल गए थे।
यह मुद्दा मैं ने उठाया। और भी कुछेक बातों पर चर्चा हुई। कौल ने पूरी एकाग्रता के साथ सभी प्रश्नों का उत्तर अपने तरीके से दिया। आधे घंटे के भीतर-भीतर वायवा समाप्त हुआ और सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि डा० कौल को डी-लिट की उपाधि स्वीकृत की जाए। कौल को अनौपचारिक तौर पर उनके मित्रों द्वारा बधाई दी जाने लगी।यह सब चल ही रहा था कि मैं ने देखा कि भूषणलाल जी अपनी रूमाल से अपनी आँखें पोंछ रहे थे। शायद खुशी के आँसू छलक आए थे। पूछने पर कहने लगे: ‘आज मेरी पत्नी जीवित होती तो सब से ज्यादा खुशी उसे ही होती। अपने आखिरी दिनों में मुझ से कह के गई थी कि काम को अधूरा मत छोड़ना,इसे पूरा करना,पूरा करना—।‘ सभी ने डा० कौल को सांत्वना दी और अग्रिम बधाई भी दी।
बाद में पता लगा कि डा० कौल सेवानिवृत्ति के बाद जम्मू में रहने लग गए थे और अकादमिक कार्यों से अपने को पूर्णतया जोड़ दिया था। सूचना यह भी मिली कि प्रोस्ट्रेट के ऑपरेशन के दौरान कुछेक वर्षों के बाद उनका स्वर्गवास हो गया।
एक बात और। १९६२ के नवंबर माह में मेरा एम.ए. हिन्दी (फाइनल) का रिजल्ट आया था। उस वर्ष के बैच में मैं ने प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर परीक्षा उत्तीर्ण की थी। याद आ रहा है कि परिणाम निकलने के अगले दिन ही परीवियस में पढ़ रहे कौल अलसुबह मेरे घर पर आए और मुझ से मेरे नोट्स मांगने लगे जो मैं ने सहर्ष उनको दे दिए। बाद में सुना कि उन्होंने भी १९६३ में टॉप किया था। कौल वहीं कश्मीर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्त हुए और मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पीएच-डी कर  राजस्थान-कालेज-सेवा में आ गया और इस तरह वीर-वसुंधरा राजस्थान मेरी कर्मस्थली बन गई। पीछे मुड़कर देखना कितना अच्छा लगता है!

डॉ. शिबन कृष्ण रैणा