Wednesday, November 27, 2024
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ऑनलाइन व्यवस्था में घट रहे शिक्षकों के दायित्व-बोध

वर्तमान समाज में जब से सोशल मीडिया और नेटवर्क ने अपना प्रभुत्व बढ़ा लिया है,तब से शिक्षकों और गुरुओं का कार्य क्रमशः घटता जा रहा है। ऑनलाइन क्लास, ऑनलाइन पेमेंट, ऑनलाइन शॉपिंग और ऑनलाइन रोजगार के साथ-साथ हमारे व्यवहार कुशलता भी विलुप्त हो रही है। संस्कार दिखाई नहीं देते।अच्छी आदतें विरले ही दिखाई देती हैं। आज सूचना प्राप्ति के स्रोत बहुत बढ़ गए हैं अतः सूचना के लिए शिष्य गुरु पर आश्रित नहीं हैं। कुछ समय पहले जब सूचना प्राप्ति के लिए कोई स्रोत नहीं होते थे ,मार्गदर्शन के लिए गुरु ही एकमात्र विकल्प होता था तब गुरु का महत्व बहुत ज्यादा था!
 वैदिक काल जो पूर्णतः वेदों और उपनिषदों का समय था, संस्कृति और संस्कृत वाणी अपने चरम उत्थान पर थी। उस काल में ज्ञान एवं सूचना का एकमात्र स्रोत गुरु या शिक्षकों के उपदेश ही होते थे। उस समय गुरु और शिष्य के बीच में ही शिक्षा व्यवस्था थी। तीसरी कोई कड़ी या माध्यम उपलब्ध नहीं होती थी।उन दिनों शिक्षकों का मार्गदर्शन पाठ्यक्रम नहीं करता बल्कि गुरु ही पाठ्यक्रम का निर्धारण करते थे। किस शिष्य को कब और क्या सीखना है कब क्या आवश्यकता है? पूर्णतया गुरु ही निर्धारित करते थे । गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करना उस समय की आवश्यकता थी, इसलिए गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी और शिक्षक ज्ञान का प्रसार करने और शिक्षा तथा संस्कार सिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। आने वाली चुनौतियों से लड़ने के लिए शिष्य को पूरी तरह से तैयार करते ,आवश्यकता पड़ने पर उसे दंडित भी करते थे।इस बात की उन्हें पूर्ण आजादी भी होती थी। गुरु उन्हें शिक्षा देकर जीवन जीने योग्य बनाकर पूर्ण मानव के रूप में घर भेजते थे।
 हमारी भारतीय संस्कृति में यह विख्यात है कि ‘जैसा खाए अन्न वैसा होये मन’। वैदिक काल से ही परंपरागत रूप में उक्त विचार का पालन देखने को मिलता था । हमारे भारतीय गुरुओं को भी यह बातें बखूबी ज्ञात होती थी इसीलिए गुरुकुल में भोजन का मीनू भी गुरु ही बताते थे। कब खाना है? कितना खाना है और क्या खाना है ?यह पूरी तरह से गुरु ही तय करते थे !अतः विद्यार्थियों को अपने भूख ,प्यास और नींद पर पूर्णतया संयम और नियंत्रण होता था !यह भी कहा जाता है कि भूखे पेट रहने पर सात्विक विचार आते हैं इसीलिए हमारे भारतीय संस्कृति में उपवास का विधान भी बनाया है।
जब हम कम भोजन करते हैं या उपवास करते हैं अथवा भूखे पेट होते हैं तो उस समय मानव कल्याण के विचार जन्म लेते हैं,  ऐसा भारतीय मनीषियों का मानना है परंतु आज तो शिक्षा ही नहीं बल्कि भोजन की भी व्यवस्था ऑनलाइन हो जाने से जब चाहे ,जहां चाहे ,जो चाहे उपलब्ध हो जाता है और वह भी बिना किसी परिश्रम के। ऐसे में भोजन का क्या महत्व ?कैसा अन्न और कैसा मन? जीह्वा और मन पर कैसा नियंत्रण? उस भोजन की कैसी शक्ति ?उसमें किसका प्रेम? किस तरह का स्वाद? किस तरह का सेहत और कहां उसमें भारतीय संस्कृति? यहां तो पूरी व्यवस्था ही ऑनलाइन है, शिक्षा से लेकर भोजन तक!  वहीं अगर ऑनलाइन व्यवस्था नहीं होती, प्रत्यक्ष रूप से शिक्षक होते तो बिना परिश्रम किसी को भी कुछ भी खाने को मिलता? नहीं न?तब भला कौन शिष्य बेवजह अपनी जीह्वा को तकलीफ देकर गुरु के समीप जाकर बेवजह अपने ऊपर अंकुश लगवाएं ?अनुशासन किसे अच्छा लगता है? संस्कृतियों को कौन देखने आता है? जैसा है वैसा चलने दिया जाए!
 वहीं अगर भारतीय गुरुकुल व्यवस्था की बातें करें तो बिना परिश्रम किसी को कुछ भी नहीं मिलता! परीक्षा के परिणाम से लेकर भोजन तक, हर जगह परिश्रम का ही महत्व दिखाई देता है !छात्रों को गुरु बचपन से ही पढ़ाते हैं –
‘उद्यमेनैव  सिद्धयन्ति कार्याणि न वै मनोरथैः,
नहि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः! ‘
 त
भी तो परिश्रम करके पहले भोजन एकत्रित करना पड़ता है, उसके बाद स्वयं ही उसे बनाना पड़ता है! फिर अच्छा या बुरा जैसा भी बन पड़ा है ,उसे श्रद्धा और आदरपूर्वक नमन करके भोजन करना होता था क्योंकि भोजन अन्नपूर्णा मां का आशीर्वाद है, उन्हीं की कृपा से प्राप्त होता है,तो उस देवी को नमन करके आदर पूर्वक भोजन को ग्रहण करना हमारी संस्कृति में बताया जाता है !यही हमारी आदतें हमारे संस्कार बनकर पीढ़ी दरपीढ़ी हस्तांतरित होती हैं और हमारी भारतीय संस्कृति के रूप में विश्व भर में हमारी पहचान बताती है!
दुख इस बात की है कि  वर्तमान ऑनलाइन सिस्टम में अन्नपूर्णा माता की बातें कौन करें और कहां करें? कहीं भी, कभी भी और कुछ भी खाने वाली जनता अन्नपूर्णा देवी को भला क्यों याद करें ? ऐसे में भोजन मंत्र पढ़ने वाले और अन्नपूर्णा को आदर प्रदान करने वाले लोग तो मजाक और उपवास के पात्र बनते जा रहे हैं !तब भला ऐसे में कौन गुरु आगे आकर हमें हमारी संस्कृति से रूबरू करवाए और हमारे सनातन धर्मियों को भारत बोध की दिशा का ज्ञान कराए? विचारणीय है….
डॉ सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)

पाकिस्तानी शायर की कविता ‘मैं भी काफिर तू भी काफिर ने सोशल मीडिया पर धूम मचाई

पाकिस्तान के एक मशहूर शायर सुलेमान हैदर की एक कविता ‘मैं भी काफिर, तू भी काफिर’ इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई है। पाकिस्तान में इस कविता पर विवाद भी हो रहा है आप भी पढ़िए और सोचिए:
‘मैं भी काफिर तू भी काफिर, मैं भी काफिर, तू भी काफिर
फूलों की खुशबू भी काफिर, शब्दों का जादू भी काफिर
यह भी काफिर, वह भी काफिर, फैज और मंटो भी काफिर
नूरजहां का गाना काफिर, मैकडोनाल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर, कोक भी काफिर, हंसी गुनाह और जोक भी काफिर
तबला काफिर, ढोल भी काफिर, प्यार भरे दो बोल भी काफिर
सुर भी काफिर, ताल भी काफिर, भांगड़ा, नाच, धमाल भी काफिर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफिर, काफी और खयाल भी काफिर
वारिस शाह की हीर भी काफिर, चाहत की जंजीर भी काफिर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफिर, भेंट नियाज की खीर भी काफिर
बेटे का बस्ता भी काफिर, बेटी की गुड़िया भी काफिर
हंसना-रोना कुफ्र का सौदा, गम भी काफिर, खुशियां भी काफिर
जींस और गिटार भी काफिर, टखनों से नीचे बांधो तो
अपनी यह सलवार भी काफिर, कला और कलाकार भी काफिर
जो मेरी धमकी न छापे, वह सारे अखबार भी काफिर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफिर, डार्विन का बंदर भी काफिर
फ्रायड पढ़ाने वाले काफिर, मार्क्स के सब मतवाले काफिर
मेले-ठेले कुफ्र का धंधा, गाने-बाजे सारे फंदा
मंदिर में तो बुत होता है, मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफिर, कुछ मस्जिद के अंदर काफिर
मुस्लिम देशों में मुस्लिम भी काफिर, गैर मुस्लिम तो हैं ही काफिर
काफिर काफिर मैं भी काफिर, काफिर-काफिर तू भी काफिर
काफिर काफिर हम दोनों काफिर, काफिर काफिर सारा जहाँ ही काफिर।

कावड़ यात्रा का ऐतिहासिक विवेचन

कांवड़ यात्रा सावन का विशेष आयोजन

सावन माह में शिव भक्त गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी जलाशय के तट पर कलश में गंगाजल भरते हैं और उसको कांवड़ पर बांध कर कंधों पर लटका कर अपने अपने इलाके के शिवालय में लाते हैं और शिवलिंग पर अर्पित करते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा करने से भगवान शिव सभी भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं और जीवन के सभी संकटों को दूर करते हैं।

पुराणों में बताया गया है कि कांवड़ यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सहज रास्ता है। कांवड़ धारी ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार की कठिन से कठिन बाधाओं को पार कर लेता है। कांवड़ लाने वाले भक्तों को कांवड़िया और भोला कहा जाता है। यह कावड़ आम या सेमला के पेड़ों की लकड़ी से बनाए जाते हैं। कावड़ बनाने वाले में बढ़ई और कलाकार दोनों के कौशल का मिश्रण होता है। दो मटकियों में किसी नदी या पवित्र सरोवर का जल भरा जाता है और फिर उसे आपस में बंधी हुई बांस की तीन स्टिक पर रखकर उसे बांस के एक लंबे डंडे पर बांधा जाता है। इस अवस्था में आकृति किसी तराजू की तरह हो जाती है।

आजकल तांबे के लोटे में जल भरकर इसे कंधे पर लटकाकर यात्रा की जाती है। इस दंड में दोनो  छोर पर जल के दो घड़े या पात्र (डिब्बे या बोतल) टांग लेता है। एक तरफ पानी और दूसरे तरफ यात्री का अन्य सामान्य भी हो सकता है। कावड़ , पवित्र नदियों से पानी ले जाने के लिए टोकरियों के रूप में हो सकता है। लोग कावड़ लेकर शिव भगवान की यात्रा करने जाते हैं। लोग भगवान शिव की तीर्थ यात्रा के लिए पवित्र नदियों से जल ले जाने के लिए टोकरियों का उपयोग करते हैं।

हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं इस यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है। कांवड़ यात्रा हमेशा सावन के पहले सोमवार से शुरू होती है, वहीं समापन ऐसे दिन पर करते हैं जब दिन सोमवार, प्रदोष या शिवरात्रि हो।

हाथरस यू पी का परसरा परंपरागत कावड़ वाला गांव है 

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पूर्व अधीक्षण पुरातत्वविद डॉ. ज्ञानेंद्र श्रीवास्तव ने इस गांव का सर्वेक्षण अपने आगरा के कार्यकाल में किया था। उनकी विवेचना के अनुसार ,   “ परसरा बस्ती के लोगों को बाबाजी और जोगी भी कहते हैं। इनकी छोटी छोटी मढ़ियाँ भी होती हैं। ये लोग काँवड़ लेकर चलते रहते हैं। सावन में विशेषकर इनके साथ और लोग भी जल लेने और जगह जगह थानों और शिवालयों में चढ़ाने जाते हैं । उस समय वहाँ उनके 18-20 घर थे किंतु अधिकांश लोग बाहर गये हुए थे।

प्राचीन काल से योगी या जोगी ( योग साधना करने वाले), यति (जती ईश्वरोपासना के यत्न या जतन करने वाले), तपस्वी या तपसी (  तप या तपस्या करने वाले जिसमे व्रत, उपवास,आसन, शयन,एकांतवास, ठंढ या ताप सहने की अनेकानेक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।), मुनि ( मौन साधक) आदि ईश्वरोपासक संप्रदायों की  परंपरा रही है।  यह भारतवर्ष की विशेषता रही है कि सामान्य जन सदैव इनसे जुड़कर इनकी देखभालएवं सुविधा का ध्यान रखता रहा है । सामान्य जन गृहस्थ धर्म का पालन करते हुये जोगी -जती आदि साधकों के साथ मिलकर उनके समारोहों को भी भव्य बनाता रहा है और इसी क्रम में वह इनके साथ यात्रा आदि पर भी निकलने लगा तथा अन्य तीर्थों का भ्रमण कर साधु-संतों के दर्शन तथा तीर्थयात्रा का प्रसाद लेने लगा।

शैव धर्म में कालांतर में इसमें पाशुपत, कापालिक, मत्तमयूर , अघोरादि पाँच व्यवस्थित साधना वाले सम्प्रदाय विकसित हुये। पाशुपत सम्प्रदाय का उत्थान गुजरात के आचार्य लकुलीश की महत्ता से हुआ जो ओडिसा से लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत में फैल गया । इसी सम्प्रदाय में आचार्य पराशर नामक  महान् शैवाचार्य हुये  जिनके नाम से  पाराशरेश्वर नामक अनेकानेक शिवमंदिर भी मिलते है एवं परसरा , परसौंजा आदि अपभ्रंश नामों वाले सेटलमेंट या गांव भी मिलते हैं जो इस संप्रदाय के अनुसरण करने वालों के जीवंत केंद्र थे। समय के साथ यद्यपि विशिष्ट साधना सम्प्रदाय ओझल हो गये किंतु लोकमत में उनकी मान्यता बनी रही और  यह सब मनुष्य की  जीवन शैली में रच बस गया। इस प्रकार रुद्र या शिव के जलाभिषेक हेतु कांवड़ यात्रा लोकजीवन का अभिन्न अंग बन गयी। “

जल की यात्रा का पर्व 

श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए हैं। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु – पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है ।

कावड़ यात्रा का इतिहास

हिंदू पुराणों में कांवड़ यात्रा का संबंध दूध के सागर के मंथन से है। जब अमृत से पहले विष निकला और दुनिया उसकी गर्मी से जलने लगी, तो शिव ने विष को अपने अंदर ले लिया। लेकिन, इसे अंदर लेने के बाद वे विष की नकारात्मक ऊर्जा से पीड़ित होने लगे। त्रेता युग में, शिव के भक्त रावण ने कांवड़ का उपयोग करके गंगा का पवित्र जल लाया और इसे पुरामहादेव में शिव के मंदिर पर डाला। अन्य जगह रावण द्वारा देवघर में वैद्यनाथ में जल अर्पण का विवरण मिलता है।धार्मिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को पीने से शिवजी का गला जलने लगा था। इस स्थिति में देवी- देवताओं ने गंगाजल से प्रभु का जलाभिषेक किया, जिससे प्रभु को विष के प्रभाव से मुक्ति मिल गई। ऐसा माना जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।

सृष्टि की मान्यताओं का अंकन

प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। कांवड यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।

कांवड़ के चार प्रकार

कांवड़ मुख्यत: चार प्रकार की होती है और हर कांवड़ यात्रा के नियम और महत्व अलग होते हैं। इनमें सामान्य कांवड़, डाक कांवड़, खड़ी कांवड़, दांडी कांवड़ हैं। जो व्यक्ति जैसी कांवड़ लेकर जाता है, उसी हिसाब से तैयारियां भी की जाती है।

1. सामान्य कांवड़
सामान्य कांवड़ यात्रा के लिए कांवड़िये रास्ते में आराम करते हुए यात्रा करते हैं और फिर अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं। इसके नियम बेहद सहज और सरल है। इसकी सबसे अच्छीा बात है कि कांवड़ियां बीच रास्ते में कभी भी आराम कर सकता है और फिर यात्रा शुरू कर सकता है।

2.डाक कांवड़
डाक कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़िये नदी से जल लेकर भगवान शिव का जलाभिषेक करने तक लगातार चलना होता है। एक बार यात्रा शुरू करने के बाद जलाभिषेक के बाद ही यात्रा खत्म की जाती है। शिव मंदिरों में जलाभिषेक के लिए विशेष व्यवस्था भी की जाती है। इसके नियमों का पालन करने के लिए शिव भक्त को बहुत मजबूत बनना पड़ता है, क्योंकि इस यात्रा में कांवड़ को पीठ पर ढोकर लगातार चलना पड़ता है।

3. खड़ी कावड़ 
खड़ी कावड़ यात्रा सामान्य यात्रा से थोड़ी मुश्किल होती है। इस कांवड़ यात्रा में लगातार चलना होता है। इसमें एक कांवड़ के साथ दो से तीन कांवड़िएं होते हैं। जब कोई एक थक जाता है, तो दूसरा कांवड़ लेकर चलता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यात्रा में कांवड़ को नीचे जमीन पर नहीं रखते। इसी कारण इसे खड़ी कांवड़ यात्रा कहते हैं।

4.दांडी कांवड़
दांडी कांवड़ को सबसे कठिन यात्रा माना जाता है। इसमें कांवड़िए को बोल बम का जयकारा लगाते हुए दंडवत करते हुए यात्रा करते हैं। कांवड़िए घर से लेकर नदी तक और उसके बाद जल लेकर शिवालय तक दंडवत करते हुए जाते हैं। इसमें सामान्य कांवड़ यात्रा से काफी समय लगता है।

कांवड़ यात्रा की परंपरा 

1.सभी देवों द्वारा शिव जी का अभिषेक
कांवड़ यात्रा को लेकर प्रथम मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान जब महादेव ने हलाहल विष का पान कर लिया था, तब विष के प्रभावों को दूर करने के लिए भगवान शिव पर पवित्र नदियों का जल चढ़ाया गया था। ताकि विष के प्रभाव को जल्दी से जल्दी कम किया जा सके। सभी देवता मिलकर गंगाजल से जल लेकर आए और भगवान शिव पर अर्पित कर दिया। उस समय सावन मास चल रहा था। मान्यता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हो गई थी।

2.परशुराम द्वारा पुरा महादेव जी का अभिषेक 
मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। परशुराम गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर आए थे और यूपी के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का गंगाजल सेअभिषेक किया था। उस समय सावन मास ही चल रहा था, इसी के बाद से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई। आज भी इस परंपरा का पालन किया जा रहा है। लाखों भक्त गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर जाते हैं और पुरा महादेव पर जल अर्पित करते हैं।

3. रावण द्वारा भी पुरा महादेव जी का अभिषेक 
प्राचीन ग्रंथों में रावणको पहला कांवड़िया बताया है। समुद्र मंथन के दौरान जब भगवान शिव ने हलाहल विष का पान किया था, तब भगवान शिव का कंठ नीला हो गया था और वे तभी से नीलकंठ कहलाए थे। लेकिन हलाहल विष के पान करने के बाद नकारात्मक शक्तियों ने भगवान नीलकंठ को घेर लिया था। तब रावण ने महादेव को नकारात्मक शक्तियों से मुक्त के लिए रावन ने ध्यान किया और गंगा जल भरकर ‘पुरा महादेव’ का अभिषेक किया, जिससे महादेव नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त हो गए थे। तभी से कांवड़ यात्रा की परंपरा भी प्रारंभ हो गई।

4. श्रवण कुमार माता पिता के साथ हरिद्वार से कावड़ लाया गया
कुछ विद्वान का मानना है कि सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा शुरू की थी। श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को तीर्थ यात्रा पर लेजाने के लिए कांवड़ बैठया था। श्रवण कुमार के माता पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी, माता पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार कांवड़ में ही हरिद्वार ले गए और उनको गंगा स्नान करवाया। वापसी में वे गंगाजल भी साथ लेकर आए थे। बताया जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई थी।

5. रावण द्वारा बैद्यनाथ जी का अभिषेक
जनश्रुति एवं पुराणों के अनुसार भगवान शिव को खुश करने के लिए लंकेश्वर रावण ने हरिद्वार से कांवर में जल लाकर बाबा बैद्यनाथ पर जलार्पण किया था।

6. भगवान राम द्वारा बैद्यनाथ जी का अभिषेक
आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान राम पहले कांवड़िया थे।भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजलभरकर देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया था। उस समय सावन मास चल रहा था।राज्याभिषेक के पश्चात राम अपनी पत्नी सीता एवं तीनों भाईयों के साथ देवघर आए थे और बाबा बैद्यनाथ पर जलाभिषेक किए थे।

(लेखक का परिचय: लेखक ,भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

सिकंदर क्षत्रिय राजा पुरु (पोरस) से हार गया था

आज से 2400 साल पहले भारतीय स्वतंत्रता के पहले महानायक क्षत्रिय राजा पुरु (पोरस)जिन्होंने विदेशी यूनानी आक्रमणकारी अलेक्जेंडर उर्फ सिकन्दर जिसने पूरी दुनिया के राष्ट्रों ईरान सहित पूरे अरब को जीत लिया था, उसे तलवार की धार से भारत की भूमि पर हराया था।

ग्रीक के इतिहासकारों ने अपने राजा अलेक्ज़ेंडर उर्फ सिकन्दर को जीता हुआ प्रस्तुत किया पर अगर अलेक्जेंडर ने भारतीय राजा पुरु को हराया था तो फिर अलेक्जेंडर की सेना पुरु से लड़ने के बाद भारत की भूमि से भाग क्यों खड़ी हुई?पुरु से लड़ने के बाद अलेक्जेंडर की सेना में भगदड़ क्यों मच गया था?अलेक्जेंडर उर्फ सिकन्दर को घायलावस्था में अपने वतन ग्रीक (यूनान) लौटना पड़ा।रास्ते में उसकी मौत हो गई।

सच्चाई यह है कि अलेक्जेंडर उर्फ सिकन्दर ने अपने जीवन की भीख पुरु से मांगा लेकिन ग्रीक के इतिहासकारों ने अपने अलेक्जेंडर को जीतता हुआ पेश कर दिया।

हम भारत के लोग प्राचीनकाल से इस मामले में कमज़ोर साबित हुए है।हॉलीवुड फिल्म अलेक्जेंडर (2008) में भी अलेक्जेंडर उर्फ सिकन्दर को भारतीय क्षत्रिय राजा पुरु से लड़ते हुए घोड़ा से गिरते हुए दिखाया गया।उस फिल्म में पुरु को अलेक्ज़ेंडर पर भारी दिखलाया गया है।अमेरिकन मानते है कि सिकन्दर को क्षत्रिय राजा पुरु ने हरा दिया था,पर हम भारतीय 2400 साल से पुरु को सिकन्दर द्वारा हारे हुए योद्धा के रूप में मानते आए है।यही भारत का दुर्भाग्य रहा है।

मार्क्सवादी,कॉम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भारतीय राजाओं को हारने वाले के रूप में प्रस्तुत किया ताकि भारत और भारतीय राजाओं को कमज़ोर और अप्रासंगिक कहा जा सके।धन्यवाद हो अमेरिकन हॉलीवुड रिसर्चरों का जिन्होंने पुरु को जीतते हुए दिखाकर सच बोल दिया।

जो लोग बोलते है कि क्षत्रिय अधिकतर जंग हार जाते थे उनको पुरु से बप्पा रावल का इतिहास पढ़ना चाहिए जिन्होंने हज़ारों वर्षो तक दुनिया के हर राजाओं को हराया। जिन्होंने अलेक्जेंडर से अरब के आक्रांताओं तक को अरब तक खदेड़ा।पृथ्वी राज चौहान भी मोहम्मद गोरी से 1192 में रात्रि के समय हथियार न उठाने के कारण गोरी द्वारा छल के कारण हार गए।

साभार- https://www.facebook.com/ranveersingh.jodha.3 से

क्या शिवजी को भांग पीते हुए चित्रित करना सही है?

हिन्दू समाज में शिवजी भगवान को कैलाशपति, नीलकंठ आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है।कई चित्रों में शिवजी भांग का सेवन करते हुए दिखाया जाता है

वेदों में शिव ईश्वर का एक नाम है जिसका अर्थ कल्याणकारी है एवं एक नाम रूद्र है जिसका अर्थ दुष्ट कर्मों को करने वालो को रुलाने वाला है। वेदों में एक ईश्वर के अनेक नाम गुणों के आधार पर बताये गए हैं। ऐसे में ईश्वर के शिव नामक नाम के आधार पर एक पात्र की कल्पना करना जो भांग जैसे नशे को ग्रहण करता है। यह अज्ञानता का प्रतीक मात्र है। सावन के महीने में कावड़ यात्रा पिछले कुछ वर्षों से विशेष रूप से प्रचलित हो गई है। कावड़ लाने वाले शिव की घुट्टी कहकर भांग आदि का सेवन करते है। इसे कुछ लोग भांग सेवन को धार्मिकता बताते है। जबकि यह केवल और केवल अन्धविश्वास है।

वेदों के शिव–म प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च(यजु० १६/४१)के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं।
अर्थ- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मङ्गलकारी और अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं,वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।

इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है–
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
-यजुर्वेद ३/६०

विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।।
-यजुर्वेद १६/२
हे मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी कल्याणकारिणी देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये।

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।।
-यजुर्वेद १६/५
हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को निश्चय से ओषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप जो सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियां हैं, उनको दूर कीजिये।

या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।।
-यजुर्वेद १६/४९
हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह वा विस्तारयुक्त नीति देखने में प्रिय ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली है उससे जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।

उपनिषदों में भी शिव की महिमा इस प्रकार है-
स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।
स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।।
-कैवल्योपनिषद् १/८

वह जगत् का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान्, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।
प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।७।।
-माण्डूक्योपनिषद्
प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।
यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।

सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।।
-श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/१४
जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।
इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।।
-श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/१४
परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।

नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।।
-श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/१
उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है।

योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। १/१/२४
जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। १/१/२६
वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या इस प्रकार की है–
(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से ‘णिच्’ प्रत्यय होने से ‘रुद्र’ शब्द सिद्ध होता है।’यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्र:’ जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है।

यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।
यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है। जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है।

(डुकृञ् करणे) ‘शम्’ पूर्वक इस धातु से ‘शङ्कर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘य: शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:’ जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘शङ्कर’ है।

‘महत्’ शब्द पूर्वक ‘देव’ शब्द से ‘महादेव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो महतां देव: स महादेव:’ जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इस लिए उस परमात्मा का नाम ‘महादेव’ है।

(शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुलमेतन्निदर्शनम्।’ इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण करने हारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है।

निष्कर्ष- उपरोक्त लेख द्वारा योगी शिव और निराकार शिव में अन्तर बतलाया है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम है। आइये निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करे। ऐसे मिथ्या शिव की नहीं जिसके भांग पीते हुए चित्रण को सत्य मानने की हमारी बुद्धि ही अनुमति नहीं देती।

(लेखक ऐतिहासिक, अध्यात्मिक व सांस्कृतिक विषयों पर शोधपूर्ण लेखन करते हैं)

गहलोत की पिक्चर अभी बाकी है…!

राजनीति में वैसे तो चर्चाओं का कोई खास मोल नहीं होता। क्योंकि चालाक लोगों द्वारा चर्चाएं चलाई ही इसलिए जाती हैं कि चर्चित व्यक्ति को चकित करने के चौबारे तलाशे जा सकें। उसकी राह में कांटे बिछाए जा सके और फिर तकदीर के तिराहे से सीधे सियासत की संकरी अंधेरी गलियों में आसानी से धकेल दिया जाए। लेकिन व्यक्तित्व अगर विराट हो, कद औरों के मुकाबले कई गुना ज्यादा ऊंचा हो और सियासत के सभी पहलुओं में प्रतिभा अगर प्रामाणिक हो, तो उसके बारे में सुनी सुनाई पर भी लोग भरोसा करने लग जाते हैं। अशोक गहलोत इसीलिए इन दिनों कुछ ज्यादा ही चर्चा में हैं।

राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत के बारे में कहा जाता है कि वे जब कुछ नहीं कर रहे होते हैं, असल में तभी वे बहुत कुछ कर रहे होते हैं। क्योंकि गहलोत जानते हैं कि शांतिकाल ही क्रांतिकाल से निपटने की तैयारियों का असली वक्त होता है। इन दिनों भी वे सियासत के समंदर में भविष्य उठने वाली लहरों की लपलपाहट को नाप रहे हैं, और जान रहे हैं कि लहरें कितनी भी लपलपाती रहे, उनकी नियति तो आखिर समंदर में समाना ही है।

राजनीति के गलियारों में सवाल हैं कि राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस दोनों की राजनीति में सचिन पायलट की सियासी सक्रियता के कम होने के मायने क्या है? और पायलट समर्थक बहुत छोटे से नेता अभिमन्यू पूनिया और गहलोत की राजनीतिक पौधशाला में पुष्पित पल्लवित हरीश चौधरी आखिर बेनामी हमले किस की शह पर कर रहे हैं। खिलाड़ीलाल बैरवा जैसे जनाधार विहीन लोगों की बकवास को किसकी शह है, यह भी जानना जरूरी है।

वह भी ऐसे वक्त में, जब पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत को विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ का अध्यक्ष बनाए जा सकने की चर्चाएं है। क्योंकि, मल्लिकार्जुन खड़गे तो खैर बहुत बाद में, राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद पिक्चर में आए, लेकिन कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद निर्विवाद रूप से गहलोत ही सबसे अनुभवी और विपक्षियों में सबके साथ संबंध निभाने वाले विश्वसनीय नेता माने जाते हैं। राजनीतिक विश्लेषक अरविंद चोटिया कहते हैं कि राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद डोटासरा, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली, और हाल ही में नियुक्त उप नेता रामकेश मीणा व मुख्य सचेतक रफीक खान सभी तो गहलोत समर्थक ही हैं। मतलब, गहलोत राजनीतिक रूप से आलाकमान के सबसे करीब हैं।

गहलोत ‘आखरी सांस तक राजस्थान की सेवा’ करने की बात कहते रहे हैं। मगर, उनकी टक्कर में आने के लिए यही बात सचिन पायलट भी तो कह चुके हैं कि वे किसी पद पर रहें या न रहें, अंतिम सांस तक राजस्थान की जनता की सेवा करते रहेंगे। राजस्थान में इन दो ताकतवर नेताओं के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा भी अपनी ताकत के तेवर दिखाते रहे हैं।

उनके कार्यकाल में लोकसभा चुनाव में राजस्थान में कांग्रेस की ताकत जबरदस्त बढ़ी है और उस दौर में गहलोत पूरे चुनाव राजस्थान में ही जमे रहे। डोटासरा और गहलोत पार्टी जीत सकने वालों को हर हाल में जिताने की जुगत में जुटे रहे। मगर पायलट भले ही राजस्थान की सेवा का वादा करें, लेकिन मजबूरी है कि वे छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रभारी हैं, पार्टी के अखिल भारतीय महासचिव भी हैं और सात प्रदेशों में हुए उप चुनावों में कांग्रेस की जीत पर बयान देने के साथ ही, कश्मीर में आतंकी हमलों जैसे राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपने विचार रखकर राजनीति के राष्ट्रीय फलक पर अपनी छवि निखारते दिखते हैं।

वैसे, असल में लोकसभा चुनाव के बाद से, राजस्थान में गहलोत और पायलट दोनों अपेक्षाकृत शांत शांत से हैं। जनता में यह आम धारणा है कि अशोक गहलोत जब सक्रिय होते हैं तो प्रदेश में कांग्रेस और देश में राजस्थान दोनों को चर्चा में रखे रहते हैं। गहलोत के पास मुद्दे हैं, आधार है, विचार हैं, विश्वास हैं और इससे भी इतर, बहुत बड़ा उनका राजनीतिक कद है। फिर भी गहलोत इन दिनों शांत हैं। इसीलिए, कांग्रेस भी किसी लपलपाती लहरों वाले महासागर सी होने के बावजूद एकदम शांत – प्रशांत। वरिष्ठ पत्रकार अवधेश पारीक कहते हैं कि गहलोत की सक्रियता न होने से राजस्थान में कांग्रेस लगभग दिशाहीन सी लग रही है। गहलोत के स्वास्थ्य लाभ के इस दौर में इन दिनों एक पॉलिटिकल वैक्यूम बना है, मगर उनके फिर से सीन में आते ही वे राजनीतिक विश्लेषकों को कुछ खास मसाला देंगे। पारीक कहते हैं कि गहलोत की सक्रियता पूरी कांग्रेस को एक तरह से सक्रिय कर देती है।

राजस्थान में बीजेपी लगातार दो आम चुनाव से सभी 25 सीटें जीत रही थी, मगर कांग्रेस ने अशोक गहलोत और प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के नेतृत्व में इस बार के आम चुनाव में अपनी जबरदस्त ताकत दिखाई। गहलोत की अपनी कसी हुई चुनावी रणनीति को कार्यान्वित करने की पहल, उम्मीदवारों की अदलाबदली सहित गठबंधन की कूटनीति, और अपनी सरकार के वक्त की योजनाओं के माहौल के जरिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा को साथ लेकर दिखाए गए गहलोत के राजनीतिक कमाल ने बीजेपी को पस्त कर दिया। हालांकि, गहलोत के बेटे वैभव गहलोत जालोर से चुनाव हार गए, लेकिन कांग्रेस ने लोकसभा की 11 सीटें बीजेपी से झटक लीं। गहलोत और टडोटासरा का य़ह वो कतमाल था, जो सचिन पायलट दो आम चुनाव में भी नहीं दिखा सके। पायलट के 7 साल लंबे प्रदेश कांग्रेस अक्ष्यक्ष के कार्यकाल में दोनों बार आम चुनाव में कांग्रेस को सभी 25 लोकसभा सीटों पर बहुत बुरी हार का मुंह देखना पड़ा। यहां तक कि पायलट खुद भी अजमेर से चुनाव हार गए थे।

राजस्थान में कांग्रेस और कांग्रेसियों में कोई बहुत हलचल नहीं है, अकेले डोटासरा ही बीजेपी पर जुबानी हमले कर रहे हैं और गहलोत इन दिनों स्लिप डिस्क की वजह से पूरी तरह से बेड रेस्ट पर हैं। दरअसल, स्लिप डिस्क कमर की वह तकलीफ है, जो किसी को जब जकड़ती है, तो व्यक्ति को उस हद तक परेशान कर देती है कि उसका चलना, फिरना उठना और बैठना तो दूर की बात, करवट बदलना भी बहुत मुश्किल हो जाता है। और लंबे समय तक आराम ही उससे निजात दिला सकता है। गहलोत उसी तकलीफ से निकलने की राह में बेड रेस्ट पर हैं। कुछ बड़े नेता और निजी लोग भले ही जरूरी काम से उनसे मिल लें, मगर आमजन में गहलोत का मूवमेंट और मिलना – जुलना लगभग बंद सा है। इसी वजह से राजस्थान में कांग्रेस कुछ ठहरी ठहरी सी है। 29 अप्रैल को गहलोत चुनाव प्रचार के लिए चंडीगढ़ पहुंचे थे और वहीं से स्लिप डिस्क का यह जो मामला चला, तो अब तक चल ही रहा है।

उधर, मरते दम तक राजस्थान की सेवा के प्रण का पराक्रम दिखाने वाले सचिन पायलट राजस्थान के अलावा सभी मुद्दों पर बोल रहे है और राष्ट्रीय मुद्दों पर अपने बयानों के जरिए देश का नेता बनने की जुगत में जुटे लग रहे हैं। मूर्ति के अनावरण और एकाध प्रेस कॉन्फ्रेंस व किसी के शपथ ग्रहण समारोह को छोड़ दें, तो राजस्थान के कांग्रेसी राजनीतिक परिदृश्य से पायलट लगभग गायब ही हैं। विधायक के तौर पर प्रदेश में बीजेपी की सरकार के बजट की आलोचना भले ही की हो, मगर उनकी राजनीतिक गतिविधियां लगभग ठप है। उधर, छत्तीसगढ़ में भी कुल 11 लोकसभा सीटों में से 10 पर कांग्रेस की करारी हार के बाद उनके प्रभारी होने के राजनीतिक कौशल पर भी सवाल उठ रहे हैं।

इससे पहले, जब वे राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष थे, तभी 2019 और 2024 के दोनों आम चुनावों में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को सभी 25 सीटों पर करारी हार का मुंह देखना पड़ा था। जबकि इस बार गहलोत और डोटासरा की जोड़ी ने बीजेपी से 11 सीटें झटक ली। पायलट शायद इसीलिए सन्न हैं और फिर से सक्रियता दिखाने के मौके की तलाश में हैं।

राजनीति के जानकार कहते हैं कि बहुत संभव है कि पायलट अपने जन्मदिन 7 सितंबर का इंतजार कर रहे हैं, जब रक्तदान या वृक्षारोपण जैसे चर्चित कार्यक्रमों के जरिए एक बार फिर अपनी सक्रियता दिखा सकें। वैसे, जो हालात दिख रहे हैं, उनमें तो यही कहा जा सकता है कि गहलोत की पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। इसलिए उनके बेड रेस्ट से आजाद होने की प्रतीक्षा जरूरी है। लेकिन राजनीति में प्रतीक्षा के मायाजाल का भी अपना अलग ब्रह्म सत्य है। कुछ लोग जीवन भर किसी पद की प्रतीक्षा करते रहते हैं, और कुछ लोग आसानी से उस पद को जी कर आगे भी बढ़ जाते हैं। पायलट फिलहाल तो अपना वक्त आने की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं। मगर, देखते हैं, पायलट की प्रतीक्षा का प्रतिफल कब सामने आता है, या फिर आता भी है कि नहीं!

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

बुनकरों की थाली से निवाला छीनती मशीनें

भारत गांवों का देश कहलाता है और गांवों की धडक़न लघु और कुटीर उद्योगों से चलती है. महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना में गांवों को आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाने के लिए हाथकरघा को बढ़ाने पर विशेष रूप से जोर दिया गया है. मिसाल के तौर पर गांधीजी स्वयं के हाथों से बुने कपड़ों का उपयोग करते थे. विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने के लिए आंदोलन की शुरुआत 7 अगस्त 1905 से हुई थी. इसी आंदोलन के चलते तत्कालीन भारत के लगभग हर घर में खादी बनाने की शुरूआत हुई थी.

स्वदेशी उद्योग और विशेष रूप से हथकरघा बुनकरों को प्रोत्साहित करने के लिए, और 7 अगस्त 1905 को चलाए गए स्वदेशी आंदोलन को सम्मान देते हुए सरकार ने हर साल 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया था. प्रधानमंत्री ने 2015 में हथकरघा दिवस की शुरुआत करते हुए कहा था कि सभी परिवार घर में कम से कम एक खादी और एक हथकरघा का उत्पाद जरूर रखें. 7 अगस्त 2015 को चेन्नई में मद्रास विश्वविद्यालय की शताब्दी के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रथम राष्ट्रीय हथकरघा दिवस का उदघाटन किया था, जिसके बाद से यह प्रतिवर्ष मनाया जा रहा है. हथकरघा गरीबी से लडऩे में एक अस्त्र साबित हो सकता है, जैसे स्वतंत्रता के संघर्ष में स्वदेशी आंदोलन था. प्रत्येक वर्ष 7 अगस्त को राष्ट्रीय हाथकरघा दिवस मनाने का संकल्प प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लिया था जिसका यह दसवां पड़ाव है.

चंदेरी के बुनकर हों या कोसे के कपड़ों को उत्पादन करने वाले कारीगर नई तकनीक के सामने हाथ डालते नजर आ रहे हैं. जिन बुनकर परिवारों को हथकरघा व्यवसाय से इश्क है, वे ही इसे स्वयं को खपा रहे हैं लेकिन युवा वर्ग शहरों की ओर पलायन कर अन्य व्यवसाय में अपना भविष्य देख रहे हैं. अक्सर चंदेरी आकर सेलिब्रेटी बुनकरों के साथ फोटो ख्ंिाचा जाते हैं और ज्यादा हुआ तो एकाध हिन्दी फिल्म सुई धागा जैसे बन जाती है. लेकिन इससे बुनकरों का कोई लाभ नहीं होता है. सरकार उनकी बेहतरी का ढिढ़ोरा पीटती है लेकिन जमीनी तौर पर बुनकरों की थाली फांके पर ही गुजरती है. गांधी का सपना, अबसपना ही बनकर रह गया है और केन्द्र सरकार का हेंडलूम दिवस एक उत्सवी परम्परा.

उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल से ही भारत में हथकरघा उद्योग का विशेष महत्व रहा है. आज भी हैंडलूम यानी हथकरघा के जरिए लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है. खासकर ग्रामीण क्षेत्र के लिए यह जीवनयापन का एक महत्वपूर्ण जरिया है. सबसे खास बात ये है कि हैंडलूम व्यापार भारत के पर्यावरण के भी अनुकूल है. भारत में आर्थिक गतिविधियों के सबसे बड़े असंगठित क्षेत्रों में से एक है जो ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों के लाखों बुनकरों को रोजगार प्रदान करता है. इनमें से अधिकांश महिलाएं और आर्थिक रूप से वंचित समूहों के लोग हैं. देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में हथकरघे का योगदान और बुनकरों की आमदनी में वृद्धि करने के उद्देश्य से साल में एक दिन राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है. जमीनी हकीकत में इसका कोई लाभ बुनकरों को नहीं मिलता है.

हैंडलूम का हिंदी अर्थ है ‘हथकरघा’ जो दो शब्द हैंड (हाथ) और लूम (करघा) से मिलकर बना है. ‘करघा’ धागा या धागा बुनकर कपड़ा बनाने के लिए एक उपकरण होता है जिसे हाथ से संचालित होकर चलने वाला यह उपकरण ‘हथकरघा’ (हैंडलूम) कहलाता है. यह एक पुरानी तकनीक है जिसका उपयोग बुनकर कपड़े बनाने के लिए करते हैं. करघा आमतौर पर खंभे, लकड़ी के लॉग और रस्सियों से बना होता है. हथकरघा का उपयोग विभिन्न उत्पादों जैसे साड़ी, कालीन/गलीचे, शॉल आदि को बुनने के लिए किया जा सकता है. हथकरघा के अलग-अलग प्रकार हैं जैसे पिट करघा, फ्रेम करघा, खड़े करघा हथकरघा उद्योग से निर्मित सामानों का विदेशों में भी खूब निर्यात किया जाता है. लेकिन खूबसूरत बुनाई और कढ़ाई करने वाले कारीगरों की जगह अब मशीनों ने ले ली है. मशीनों ने बुनकरों की थाली से निवाला छीन लिया है.

उल्लेखनीय है कि हथकरघा क्षेत्र महिला सशक्तिकरण की कुंजी है. 70 प्रतिशत से अधिक हथकरघा बुनकर और संबंधित श्रमिक महिलाएं हैं. भारत में कृषि के बाद हथकरघा सबसे बड़े रोजगार प्रदाताओं में से एक है. देश में यह क्षेत्र लगभग 23.77 लाख हथकरघा से जुड़े 43.31 लाख व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करता है. इन संख्याओं में से 10 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) से हैं, 18प्रतिशत अनुसूचित जनजाति (एसटी) से हैं, और 45प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं. भारत में, हथकरघा क्षेत्र कपड़ा उत्पादन में लगभग 15 प्रतिशत योगदान देता है और देश की निर्यात आय में भी योगदान देता है.

केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने उस्ताद योजना के तहत बुनकरों के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था कराई जिससे उन्हें तकनीकी रूप से और समृद्ध किया जा सके. सरकार भी बुनकरों को फैशन जगत से जोडऩे की बात दोहराती आयी है और बुनकरों को सीधे बाजार से उपलब्ध कराने की बात कहती आयी है. हथकरघा क्षेत्र के पुनरोत्थान के लिए कदम उठाए जा रहे है.

2017 में सरकार ने बड़ा फैसला करते हुए कहा था कि देश में जगह जगह स्थापित बुनकर सेवा केंद्रों (डब्ल्यूएससी) पर बुनकरों को आधार व पैन कार्ड जैसी अनेक सरकारी सेवाओं की पेशकश की जाएगी. ये केंद्र बुनकरों के लिए तकनीकी मदद उपलब्ध करवाने के साथ-साथ एकल खिडक़ी सेवा केंद्र बने हैं. और इन खिडक़ी से कभी बुनकरों के घर रोशन होने की कोई खबर नहीं आती है. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में कहा कि देश 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाएगा और लोगों का एक छोटा सा प्रयास कई लोगों के जीवन को बदल देगा, उन्होंने लोगों से हैशटैग ‘माई प्रोडक्ट माई प्राइड’ के साथ सोशल मीडिया पर स्थानीय उत्पादों को अपलोड करने और खादी और हथकरघा के कपड़े खरीदना शुरू करने का आग्रह किया.

सरकारों का काम होता है लोकलुभावन योजना और दिवस मनाया जाना. वास्तव में ये दिवस केवल कागजी और उत्सवी होते हैं जिसका बुनकरों की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं होता है. परसाई जी के व्यंग्य की पंक्ति याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था कि दिवस तो कमजोरों का मनाया जाता है. कभी थानेदार दिवस मनाते आपने देखा है. तो जनकवि की यह पंक्ति भी सामयिक है कि ‘तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है’।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं व समसामयिक विषयों पर लिखते हैं)

अभय छजलानी: पत्रकारिता के तपस्वी साधक

4 अगस्त-जयंती विशेष

इन्दौर आज समूचे भारत में पत्रकारिता की नर्सरी माना जाता है। महनीय सम्पादकीय परम्परा की नींव माने जाने वाले शहर इन्दौर की इमारत की बुलन्दी को खड़ा करने में जिन साधकों के श्रम दर्ज हैं, ऐसे योद्धाओं में एक नाम अभय छजलानी भी है।

माँ अहिल्या की नगरी इंदौर में छजलानी परिवार में 4 अगस्त 1934 को जन्म लेने वाले अभय जी ने हिन्दी पत्रकारिता की नर्सरी माने जाने वाले अख़बार ‘नईदुनिया’ को वटवृक्ष बनाने में अहम भूमिका निभाई। आपने वर्ष 1955 में पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। 1963 में कार्यकारी संपादक का कार्यभार संभाला। बाद में, लंबे अरसे तक आप ‘नईदुनिया’ के प्रधान संपादक भी रहे। वर्ष 1965 में पत्रकारिता के विश्व प्रमुख संस्थान थॉम्सन फाउंडेशन, कार्डिफ (यूके) से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र से इस प्रशिक्षण के लिए चुने जाने वाले आप पहले पत्रकार थे। परिवार में पत्नी पुष्पा छजलानी, पुत्र विनय छजलानी और पुत्रियाँ शीला और आभा हैं।

हिन्दी पत्रकारिता के कर्मठ सूत्रधार, जिनके नेतृत्व ने भारतीय पत्रकारिता जगत् को कई मूर्धन्य संपादक सौंपे, जिनमें राजेन्द्र माथुर जी, राहुल बारपुते जी, प्रभाष जोशी जी, शरद जोशी जी आदि हैं। हिन्दी पत्रकारिता की कोंपलो को आपने बहुत करीने से सहेजकर पल्लवित होने में मदद की है।

अभय जी नईदुनिया के संपादकीय बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने के अलावा कई महत्त्वपूर्ण सामाजिक दायित्व भी निभा रहे थे। वे भारतीय भाषाई समाचार पत्रों के शीर्ष संगठन इलना के तीन बार अध्यक्ष रह चुके हैं। वे 1988, 1989 और 1994 में संगठन के अध्यक्ष रहे। वे इंडियन न्यूज़ पेपर सोसायटी (आईएनएस) के 2000 में उपाध्यक्ष और 2002 में अध्यक्ष रहे। 2004 में भारतीय प्रेस परिषद् के लिए मनोनीत किए गए, जिसका कार्यकाल 3 वर्ष रहा।

उन्हें 1986 का पहला श्रीकांत वर्मा राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। 1995 में मप्र क्रीड़ा परिषद् के अध्यक्ष बने। ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग एंड फ्रेटरनिटी द्वारा वर्ष 1984 का गणेश शंकर विद्यार्थी सद्भावना अवॉर्ड वर्ष 1986 में राजीव गाँधी ने प्रदान किया। पत्रकारिता में विशेष योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1997 में जायन्ट्स इंटरनेशनल पुरस्कार तथा इंदिरा गाँधी प्रियदर्शिनी पुरस्कार मिला था। पत्रकारिता में अतुलनीय अवदान के लिए भारत सरकार ने उन्‍हें वर्ष 2009 में पद्मश्री प्रदान किया था। छजलानी जी को इंदौर में इंडोर स्टेडियम अभय प्रशाल स्थापित करने के लिए भोपाल के माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान ने सम्मानित किया था। उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय योगदान के लिए ऑल इंडिया एचीवर्स कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली में 1998 में राष्ट्रीय गौरव पुरस्कार प्रदान किया। साथ ही, इसी वर्ष लालबाग ट्रस्ट इंदौर का अध्यक्ष बनाया गया।

अभय जी का हिन्दी भाषा के प्रति गहरा प्रेम और लगाव भी रहा, यहाँ तक कि अपने अख़बार में वर्तनी दोष भी न जाएँ इस बात की चिंता अभय जी अधिक करते थे। कुछ एक बार तो अख़बार में एक शब्द की ग़लती हेडिंग में ग़लत छप जाने के कारण उन्होंने अख़बार में इंक से सुधार करवाएँ और प्लेट्स भी बदलवाकर नई छपाई करवाई। ऐसे हिन्दी आग्रही का सम्पूर्ण जीवन हिन्दी भाषा की सेवा में रत रहा।

‘मातृभाषा उन्नयन संस्थान’ द्वारा वर्ष 2020 में आपको ‘हिन्दी गौरव अलंकरण’ से विभूषित किया गया। संस्थान ने पहला हिन्दी गौरव अलंकरण समारोह इंदौर में आयोजित कर अभय जी को अलंकृत किया था। आप मध्य प्रदेश टेबल टेनिस संगठन के अध्यक्ष रह चुके हैं। इसके अलावा अभय जी ने शहर के कई ख़ास मुद्दों को भी उठाया। छजलानी जी की खेल गतिविधियों में ख़ास रुचि के चलते ही नईदुनिया प्रकाशन ने हिन्‍दी की पहली खेल पत्रिका ‘खेल हलचल’ का प्रकाशन भी आरंभ किया था।

सामाजिक सरोकारों की बात करें तो अभय जी नर्मदा को इंदौर लाने की मुहिम के अगुआ थे। इंदौर के पेयजल संकट को दूर करने के लिए नर्मदा का पानी लाने के आंदोलन में उन्होंने पुरज़ोर तरीके से कार्य किया। इंदौर में अभय प्रशाल जैसा भव्य इनडोर स्टेडियम बनवाने में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इसके अतिरिक्त सामाजिक और राजनीतिक दखलंदाज़ी भी बेजोड़ रही। एक समय मंत्रिमंडलों का खाका नईदुनिया तय करता था, और अभय जी कई बार निर्णायक भी होते थे। यहाँ तक कि वे अख़बार की हर विधा, हर क्षेत्र में दक्ष थे। अख़बार की डिज़ाइनिंग, रिपोर्टिंग, संपादन, मार्केटिंग या कोई भी पद हो, हर पद पर उन्होंने काम किया।

उन्होंने सोवियत संघ, जर्मनी, फ़्रांस, जॉर्डन, यूगोस्लाविया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, थाईलैंड, इंडोनेशिया, तुर्की, स्पेन, चीन आदि कई देशों की यात्रा कर उस अनुभवों को अपनी कार्यशैली में शामिल किया।

अभयजी ने ‘विकास की व्यथा -कथा -कारवां भाग -1’, ‘छटपटाता शहर -भाग -2’, ‘शहर अकेला इस भीड़ में -कारवां -3’, ‘पीड़ा -ज्यों की त्यो -भाग -कारवां -4′,’अपना इंदौर -चार भागों में’, ‘मंथन’, ‘चिंतन’, ‘धड़कन’, ‘देखा सुना’ किताबों को लिखा एवं आपके संपादन में ‘सन्दर्भ-2003’, ‘सृष्टि का स्वर लता’, ‘भोपाल आज और कल’, ‘जब गाँधी आए’ एवं ‘अमर सेनानी’ पुस्तक प्रकाशित हुई। इनमें ‘अपना इन्दौर’ बड़ी चर्चित और महनीय पुस्तक रही, जिसमें इन्दौर का समग्र इतिहास समाया है।

अभय जी को अब्बू जी नाम राहुल बारपुते जी ने ही दिया था, प्यार से उनके बेहद ख़ास लोग अब्बू जी कहते थे। अब्बू जी न केवल इन्दौर के लिए बल्कि प्रदेश और देश के लिए कृत संकल्पित व्यक्तित्व रहे। दृष्टि सम्पन्नता में उनका कोई सानी नहीं था। हिन्दी भाषा की सतत् सेवा का ध्येय और साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए भी सहज भाव से आदर सहित मिलने वाले चंद लोगों में अभय जी भी शामिल रहे।

एक बार मातृभाषा उन्नयन संस्थान के सम्मान के लिए आग्रह हेतु उनसे जब मैं मिलने गया तो उन्होंने इतना आदर दिया, संस्थान की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली और यह तनिक भी महसूस नहीं होने दिया कि उनकी और मेरी उम्र में लगभग आधी शताब्दी का अंतर है। विनीत भाव से सम्मान ग्रहण करने का आग्रह स्वीकार किया। यही सहजता अभिभूत करती रही।

ऐसा भी नहीं रहा कि अभय जी का कभी विवादों से सामना न हुआ हो, लता अलंकरण हो अथवा अन्य मसले, इनके बावजूद भी अभय जी एक महानायक जैसे, हमेशा की तरह सूट-बूट पहने उजले ही नज़र आए। एक उम्र गुज़ार कर नईदुनिया को अपने पसीने से सींचने के कारण ही अभय जी ने इन्दौर की वैश्विक पहचान में नईदुनिया को दर्ज करवाया।

अपने छोटों से भी असीम नेह रखने वाले अभय जी ने 23 मार्च 2023 को इन्दौर में आखिरी साँस ली। उनका अंतिम संस्कार इंदौर के रीज़नल पार्क मुक्तिधाम पर किया गया। उनके साथ न केवल नईदुनिया युग ठहर गया बल्कि हिन्दी पत्रकारिता ने एक योद्धा को खो दिया। जीवन के अंतिम दौर में बीमारी के कारण उनकी स्मृतियाँ धुंधली ज़रूर हो रही थीं किन्तु चेतना और जिजीविषा वैसी ही बनी रही। लोगों से मिलने की चेष्टा हो अथवा शहर हितार्थ कार्य करने की प्रणाली, साहित्य में रुचि हो अथवा लेखनी को सतत् भाव से बहने देने का कार्य, अभय जी हमेशा से जीवंत व्यक्तित्व के रूप में नज़र आए। निश्चित रूप से अभय जी पत्रकारिता का चलता-फिरता विश्वविद्यालय या यूँ कहें कि पत्रकारिता के तपस्वी साधक रहे।
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
पता: 204, अनु अपार्टमेंट, 21-22 शंकर नगर, इंदौर (म.प्र.)
संपर्क: 9893877455 | 9406653005
अणुडाक: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com

[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

भारतीय ज्ञान प्रणाली पर एक रोचक पुस्तक

भारत में ज्ञान की एक समृद्ध परंपरा है और एक विरासत है जो कई सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रवर्तक लेखक स्वदेशी भारतीय लोग ही थे, यह बात अब पुरातत्त्व जाणकारी , आनुवंशिक जाणकारी, तथा कंकालों की पुनर्रचना करके प्राप्त जाणकारी के आधार पर वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है|

हड़प्पाई लोगों के बारे में प्राचीन डीएनए अनुसंधान की शुरुवात 2011-12 में राखीगढ़ी में शुरू किया गया था जिसका अंतर्राष्ट्रीय महत्व है। हरियाणा के हिसार जिले में स्थित राखीगढ़ी हडप्पाई सभ्यता का सबसे बड़ा शहर है। सरस्वती नदी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपनदी के रूप में जाने जाने वाली दृषद्वती के समीप सरस्वती बेसिन या कुंड के बीच में यह इलाका अवस्थित है|

अधिकांश बुनियादी शिल्प और विज्ञान 7000 ईसा पूर्व के आसपास पेश किए गए थे। डेटा यह भी इंगित करता है कि लगभग 3000 ईसा पूर्व हड़प्पाई सभ्यता के दौरान क्रमिक विकास और बुनियादी प्रौद्योगिकियों और विज्ञानों ने परिपक्वता प्राप्त की थी। हड़प्पावासियों को भारतीय संस्कृति और परंपरा का संस्थापक माना जाता है।

विश्व प्रसिद्ध पुरातत्वविद् और राखीगढ़ी परियोजना के प्रमुख डॉ. वसंत शिंदेजी ने इस पुस्तक के माध्यम से पुरातात्विक डेटा इसकी समकालीन प्रासंगिकता पर आधारित भारतीय ज्ञान प्रणाली की उत्पत्ति को शामिल किया है। यह पुस्तक छात्रों, पेशेवरों, नीति निर्माताओं और बड़े पैमाने पर जनता के लिए अत्यंत मूल्यवर्धक होगी।

भारतीय ज्ञान परंपरा: राखीगढ़ी के विशेष संदर्भ में पुरातत्त्वशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
लेखक : डॉ. वसंत शिंदे
हिंदी प्रस्तुति : शंकर नेने
पृष्ठ : २००
मूल्य 540 रुपये

प्राचीन भारतीय ज्ञान जिनके बारे में हम ज्यादा नहीं जानते

1008 और 108 का महत्व
भारतीय परंपरा और संस्कृति में 1008 और 108 जैसी संख्याओं का विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। इन संख्याओं का उपयोग मंत्र जाप, धार्मिक अनुष्ठान, और ज्योतिष में होता है। आइए, इन संख्याओं के महत्व को विस्तार से समझें।

108 का महत्व
मंत्र जाप: 108 को बहुत पवित्र माना जाता है और इसका उपयोग माला में 108 मनकों के रूप में होता है। हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म में मंत्र जाप के लिए 108 मनकों वाली माला का प्रयोग किया जाता है।
खगोल विज्ञान: 108 का खगोलीय महत्व भी है। सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी लगभग 108 गुणा सूर्य के व्यास के बराबर है, और चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी लगभग 108 गुणा चंद्रमा के व्यास के बराबर है।
वेदांग: वेदांगों की संख्या 6 है, और पुराणों की संख्या 18 है। 6 x 18 = 108, जो वैदिक ज्ञान के समग्रता का प्रतीक है।
योग: योग में भी 108 का महत्व है। शरीर में 108 पवित्र स्थलों का उल्लेख होता है, जिन्हें “मार्म पॉइंट्स” कहा जाता है।
2. 1008 का महत्व
देवताओं के नाम: हिंदू धर्म में कई देवताओं के 1008 नाम होते हैं, जैसे विष्णु के 1008 नाम (विष्णु सहस्रनाम) और शिव के 1008 नाम (शिव सहस्रनाम)। यह नाम देवताओं की विभिन्न शक्तियों और गुणों का वर्णन करते हैं।
मंत्र जाप: कुछ विशेष अनुष्ठानों में मंत्र जाप की संख्या 1008 होती है, जो अधिक शक्ति और आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक है।
अभिषेक: धार्मिक अनुष्ठानों में देवताओं के अभिषेक के समय 1008 बार जल या अन्य पवित्र पदार्थों का प्रयोग किया जाता है।
सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण
पूर्णता और अनंतता: 108 और 1008 संख्याएँ पूर्णता और अनंतता का प्रतीक मानी जाती हैं। यह संख्याएँ ब्रह्मांड की अनंतता और जीवन के चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं।
धार्मिक महत्व: इन संख्याओं का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों, योग, ध्यान और पूजा में किया जाता है, जो व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है।
1008 और 108 जैसी संख्याओं का भारतीय परंपरा में गहरा धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। ये संख्याएँ न केवल धार्मिक अनुष्ठानों और मंत्र जाप में महत्वपूर्ण हैं, बल्कि खगोल विज्ञान और योग के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। इन संख्याओं का उपयोग व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक संतुलन को बढ़ाने में सहायक होता है।
भारतीय वास्तु शास्त्र
भारतीय वास्तु शास्त्र एक समृद्ध और विस्तृत प्रणाली है, जो भवन निर्माण और आंतरिक सजावट में संतुलन और सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ावा देती है। इसके सिद्धांत और नियम न केवल सौंदर्यशास्त्र को ध्यान में रखते हैं, बल्कि मानव जीवन की भौतिक और मानसिक समृद्धि को भी सुनिश्चित करते हैं। इसका उद्देश्य मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करना है, जिससे जीवन में सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त हो सके। आइए, वास्तु शास्त्र के प्रमुख तत्वों और सिद्धांतों को विस्तार से समझें। वास्तु शास्त्र भारतीय स्थापत्य कला और विज्ञान का प्राचीन ग्रंथ है, जो भवन निर्माण और स्थानिक व्यवस्था के सिद्धांतों का संकलन करता है।इसका मुख्य उद्देश्य मानव जीवन को सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर बनाना और जीवन की गुणवत्ता को सुधारना है।
वास्तु शास्त्र पांच तत्वों (पंचमहाभूत) पर आधारित है:

पृथ्वी (Earth): भवन का आधार और भूमि का महत्व।
जल (Water): जल स्रोतों की स्थिति और जल प्रवाह।
अग्नि (Fire): प्रकाश, ताप और ऊर्जा स्रोतों की स्थिति।
वायु (Air): वायु संचलन और वेंटिलेशन।
आकाश (Space): खुली जगह और आकाशीय ऊर्जा।
वास्तु शास्त्र में दिशाओं का विशेष महत्व है। विभिन्न दिशाओं के अनुसार भवन निर्माण और कमरों की स्थिति निर्धारित की जाती है:

पूर्व (East): सूर्य की ऊर्जा, ज्ञान और स्वास्थ्य का प्रतीक।
पश्चिम (West): स्थिरता और संतुलन।
उत्तर (North): धन और समृद्धि।
दक्षिण (South): शक्ति और सुरक्षा।
वास्तु पुरुष मंडल वास्तु शास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसमें एक ग्रिड के रूप में भूमि को विभाजित किया जाता है। इसे 64 (8×8) या 81 (9×9) भागों में विभाजित किया जाता है। प्रत्येक भाग का अपना महत्व होता है और उसे देवताओं और ग्रहों के अनुसार नियुक्त किया जाता है।
भवन निर्माण के सिद्धांत
भूमि चयन: भूमि का चयन करते समय भूमि की गुणवत्ता, स्थलाकृतिक विशेषताओं और पर्यावरण का ध्यान रखा जाता है।
मुख्य द्वार: मुख्य द्वार का स्थान और दिशा महत्वपूर्ण होती है। पूर्व या उत्तर दिशा में मुख्य द्वार को शुभ माना जाता है।
कमरों का स्थान:
रसोई: अग्नि तत्व के कारण दक्षिण-पूर्व दिशा में।
बेडरूम: शांति और विश्राम के लिए दक्षिण-पश्चिम दिशा में।
पूजा कक्ष: पूर्व या उत्तर-पूर्व दिशा में, जिससे सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त हो।
बाथरूम: उत्तर-पश्चिम दिशा में।
वेंटिलेशन और प्रकाश: प्राकृतिक वेंटिलेशन और प्रकाश का उचित प्रबंध होना चाहिए, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहे।
वास्तु दोष और उनके उपाय
वास्तु दोष निर्माण के समय दिशा, तत्व या सिद्धांतों के विपरीत कार्य करने से उत्पन्न होते हैं। इन दोषों के समाधान के लिए विभिन्न उपाय सुझाए जाते हैं, जैसे:

धातु के पिरामिड: घर के विभिन्न कोनों में धातु के पिरामिड रखकर ऊर्जा संतुलन।
आइना: उचित स्थानों पर आइना लगाकर ऊर्जा का प्रवाह सही करना।
पौधे: सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने के लिए तुलसी और अन्य पवित्र पौधे लगाना।