Wednesday, November 27, 2024
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हिन्दी संस्थाओं की पतनगाथाः राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा

महात्मा गाँधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, पं. जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, आचार्य नरेन्द्र देव, काका कालेलकर, सेठ जमनालाल बजाज, ब्रिजलाल बियाणी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, बाबा राघवदास, वियोगी हरि, हरिहर शर्मा, श्रीमन्नारायण अग्रवाल, श्रीनाथ सिंह, नर्मदा प्रसाद सिंह तथा शंकरराव देव जैसे मनीषियों द्वारा 4 जुलाई 1936 को सेवाग्राम स्थित गाँधी जी के आवास पर हुई बैठक में गठित, “भारत जननी एक हृदय हो” का मूलमंत्र अपनाकर राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से सारे देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली, दो करोड़ से भी अधिक हिन्दीतर क्षेत्र के लोगों को हिन्दी सिखाने वाली, दुनिया के 23 देशों में हिन्दी की परीक्षाओं का केन्द्र संचालित करने वाली, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा आज अपने 70 कर्मचारियों और अधिकारियों को 6 हजार से लेकर 10 हजार तक वेतन दे पाने में भी सक्षम नहीं है. पुस्तकालय और मुद्रणालय आधुनिकीकरण की बाट जोह रहे हैं, ज्यादातर भवन जर्जर हो चुके हैं, छात्रावास में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं.

देश- विदेश में हिन्दी की परीक्षाएं लेकर प्रमाण पत्र और उपाधियाँ देने वाली इस संस्था के संचालन का मुख्य आर्थिक स्रोत परीक्षाओं से मिलने वाला शुल्क तथा सरकारी संस्थाओं से मिलने वाला अनुदान है. पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न मदों में मिलने वाली अनुदान की राशि 18 लाख के आस-पास होती है जो कोरोना काल के बाद से ही अनियमित है. समिति के खर्च को देखते हुए यह अनुदान ऊँट के मुँह में जीरा जैसा है.

परीक्षाओं से मिलने वाले शुल्क की दशा और भी खराब है. आज इस संस्था द्वारा दी जाने वाली ज्यादातर उपाधियों और प्रमाण- पत्रों की मान्यताएँ देश की दूसरी सरकारी तथा स्वायत्त संस्थाओं द्वारा अमान्य की जा चुकी हैं या उपेक्षित की जा रही हैं जिसके कारण परीक्षार्थियों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है.  पहले जहाँ समिति द्वारा आयोजित परीक्षाओं में तीन लाख से भी अधिक परीक्षार्थी शामिल होते थे वहाँ आज संख्या घटकर कुछ हजार में सिमट गई है. सरकारों द्वारा दिन प्रतिदिन की जा रही हिन्दी की उपेक्षा भी इसका एक प्रमुख कारण है. इन विपरीत परिस्थितियों में भी आज यहाँ के कर्मचारी किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट काटकर हिन्दी की सेवा में लगे हैं तो इसके पीछे गाँधी का आदर्श, त्याग और उनका अपना संस्कार ही प्रेरक है.

हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का 25वाँ अधिवेशन 24-26 अप्रैल 1936 को नागपुर में हुआ था जिसकी अध्यक्षता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने की थी. इसी अधिवेशन में दक्षिण भारत को छोड़कर शेष हिन्दीतर प्रदेशों तथा विदेशों में भी हिन्दी का प्रचार करने के उद्देश्य से एक अलग संस्था गठित करने का निर्णय लिया गया था. इसे अमली जामा पहनाया गया 4 जुलाई 1936 को गाँधी के निवास स्थान पर.

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा का संचालन एक कार्यसमिति करती है जिसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, प्रधान मंत्री, कोषाध्यक्ष, लेखा परीक्षक तथा चार मनोनीत सदस्य होते हैं. समिति की एक व्यवस्थापिका समिति भी होती है जो स्थायी होती है. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सोलह सदस्य इस व्यवस्थापिका समिति के भी सदस्य होते हैं. इतना ही नहीं, सम्मेलन का प्रधान मंत्री ही इस समिति का पदेन उपाध्यक्ष होता है. इस तरह समिति पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का एक सीमा तक वर्चस्व बना रहता है. इस समय प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित समिति के अध्यक्ष हैं और डॉ. हेमचंद्र बैद्य इसके प्रधान मंत्री.

इस समिति का नामकरण भी हिन्दी या हिन्दुस्तानी की जगह राष्ट्रभाषा के नाम पर रखने के पीछे एक रणनीति रही है. दरअसल अभी वर्धा समिति को कार्य करते ढाई वर्ष ही हुए थे कि गाँधी जी की ‘हिन्दुस्तानी’ और टंडन जी की ‘हिन्दी’ का विवाद शुरू हो गया था. काका कालेलकर जैसे मनीषी भी ‘हिन्दुस्तानी’ के पक्ष में थे और उन्होंने ‘सबकी बोली’ का संपादन किया तो उसमें हिन्दुस्तानी का जोर शोर से समर्थन किया. ऐसी दशा में प्रत्येक मुद्दे पर बहुत सोच समझ कर कदम उठाने की जरूरत थी. समिति के मंत्री श्रीमन्नारायण ने लिखा, “शब्दों के झगड़े में बिना पड़े ‘राष्ट्रभाषा’ कहकर ही हम अपना काम चलाते आए हैं.

अगर जिस भाषा को सम्मेलन ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ कहता है, उसी भाषा को ‘हिन्दुस्तानी’ कहा जाए तो हम उसका विरोध नहीं करते. हाँ, अगर ‘हिन्दुस्तानी’ का मतलब अरबी-फारसी से लदी हुई ठेठ उर्दू हो तो हम उसे कबूल नहीं कर सकते, क्योंकि हम जानते हैं कि हिन्दुस्तान की तमाम प्रान्तीय भाषाओं में संस्कृत से निकले हुए ( तद्भव) शब्द ही अधिक पाए जाते हैं. अरबी और फारसी के जो शब्द हिन्दी और हिन्दुस्तान की अन्य भाषाओं में घुल मिल गए हैं उनका बहिष्कार करना तो हम स्वप्न में भी नहीं सोचते.

भाषा- शास्त्र की दृष्टि से यह झगड़ा टिक नहीं सकता. हम ऐसी भाषा का प्रचार करें, जिसको हिन्दुस्तान के अधिक से अधिक लोग आसानी से समझ सकें. इस भाषा में ज्यादातर संस्कृत से निकले हुए देशज शब्दों को तो रखना ही होगा, लेकिन अरबी, फारसी और धीरे- धीरे प्रान्तीय भाषाओं  के भी कुछ सुन्दर शब्द आ ही जाएंगे. हम शुद्ध राष्ट्रीय दृष्टि से काम करते जाएं और शब्दों के झगड़े में न पड़ें.” ( उद्धृत, हिन्दी की विकास यात्रा, केशव प्रथमवीर, पृष्ठ-40)

निस्संदेह,  ‘हिन्दी’ और ‘हिन्दुस्तानी’ के झगड़े से बचने के लिए ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का इस्तेमाल निरापद था क्योंकि आजाद भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर उस भाषा को आसीन करने के मुद्दे पर लगभग सभी गाँधीवादी सहमत थे. इसके बावजूद हिन्दुस्तानी के समर्थन में कुछ संगठन भी बने और इस झगड़े का अंत तब हुआ जब देश का बँटवारा हो गया. दरअसल गाँधी जी हर कीमत पर हिन्दू- मुस्लिम एकता स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि उसी के बल पर राष्ट्रीय आन्दोलन को आगे बढ़ाया जा सकता था. अंत में जब उनकी इच्छा के विरुद्ध देश बँट गया तो फारसी लिपि और हिन्दुस्तानी का मुद्दा कमजोर पड़ गया. इन्हीं दिनों हिन्दुस्तानी की समर्थक और गाँधी जी की प्रिय सहयोगी रेहाना बहन तैयब जी ने गाँधी जी को लिखा,

“15 अगस्त के बाद दो लिपि के बारे में मेरे ख्याल बिल्कुल बदल गए और अब पक्के हो गए हैं. मेरे ख्याल से अब वक्त आ गया है कि इस दो लिपि के सवाल पर खुल्लम खुल्ला और आमतौर से साफ- साफ चर्चा हो. इसलिए अगर आप ठीक समझें तो इस खत को ‘हरिजन’ में छापकर उसपर चर्चा करें. जब तक हिन्दुस्तान अखण्ड था और उसे अखण्ड रखने की उम्मीद थी, तब तक नागरी लिपि के साथ उर्दू लिपि को चलाना मैं उचित बल्कि जरूरी मानती थी.

आज हिन्दुस्तान, पाकिस्तान दो  अलग राज्य बन गए हैं. ‘हिन्दुस्तानी’ हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा और नागरी हिन्दुस्तान की खास और मान्य लिपि- फिर नागरी के साथ उर्दू के गठबंधन की क्या जरूरत है ? इस सवाल पर मैं बराबर विचार करती रही हूँ और अब मेरा दृढ़ विश्वास हो गया है कि हिन्दुस्तान पर उर्दू लिपि लादने में इतना ही नहीं कि कोई फायदा नहीं, बल्कि सख्त नुकसान है. मैं मानती हूँ कि……. मुसलमानों को अगर आप वफादार हिन्दुस्तानी बनाना चाहते हैं तो उनमें बाकी के हिन्दुस्तानियों में अब कोई फर्क नहीं करना चाहिए.  अगर वे हिन्दुस्तान में रहना चाहते हैं तो और हिन्दुस्तानियों की तरह रहें, हिन्दुस्तानी सीखे, नागरी सीखें. ………..  हम हिन्दुस्तानियों का यही सूत्र रहे- हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी, हमारी राष्ट्रलिपि देवनागरी. बस.” ( उद्धृत, उपर्युक्त, पृष्ठ-51-52)

कहना न होगा, गाँधी जी ने रेहाना बहन तैयबजी का वह पूरा पत्र अपने ‘हरिजन सेवक’ के 9 नवंबर 1947 के अंक में प्रकाशित किया था. क्या इससे पत्र के प्रति गाँधी जी की सहमति प्रमाणित नहीं होती ?

बाद में जब हमारा संविधान लागू हुआ तो उसमें देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली ‘हिन्दी’ को संघ की राजभाषा घोषित कर दिया गया और इसके बाद हिन्दी-हिन्दुस्तानी तथा नागरी-फारसी का झगड़ा गौण हो गया.

गठन के बाद समिति के पदाधिकारी, जिनमें आचार्य काका कालेलकर, मोटूरि सत्यनारायण, श्रीमन्नारायण अग्रवाल, पं. हरिहर शर्मा तथा दादा धर्माधिकारी आदि प्रमुख थे, ने विभिन्न प्रदेशों में व्यापक दौरे किए. परिणामस्वरूप गठन के आरंभिक तीन-चार वर्षों में ही विभिन्न प्रान्तों में उसके संगठन खड़े हो गये जिससे आगे का मार्ग आसान हो गया. समिति के पूर्व प्रधान मंत्री अनंतराम त्रिपाठी के अनुसार आज जोरहाट ( असम), कोलकाता (प. बंगाल), कटक ( उड़ीसा), नागपुर ( विदर्भ), जयपुर ( राजस्थान), मुंबई ( महाराष्ट्र), अहमदाबाद (गुजरात), पुणे ( महाराष्ट्र), शिलांग (मेघालय), बेलगाँव (कर्नाटक), औरंगाबाद, (महाराष्ट्र) भोपाल( मध्य प्रदेश), इंफाल ( मणिपुर ), मडगाँव (गोवा), उत्तर लखीमपुर( असम), नई दिल्ली, दीमापुर (नागालैंड), जम्मू ( जम्मू-कश्मीर), गुड़गाँव ( हरियाणा), उत्तर 24 परगना ( प. बंगाल), रागना-धर्म नगर ( त्रिपुरा), लुंगलेई ( मिजोरम), रायपुर ( छत्तीसगढ़) में समिति की प्रान्तीय समितियाँ हैं. इस तरह समिति का मुख्यालय तो वर्धा में है किन्तु हिन्दी के प्रचार का सुचारु संपादन के लिए 23 प्रान्तीय समितियाँ कार्य कर रही हैं. इनमें अनेक समितियों के अपने- अपने भवन भी हैं.

1938 में समिति ने हिन्दी की परीक्षाएं लेने का काम दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के अवकाश प्राप्त प्रधान मंत्री पं. हरिहर शर्मा के नेतृत्व में शुरू किया. आज भी समिति का सबसे बड़ा विभाग, परीक्षा विभाग ही है. वर्ष में दो बार फरवरी -अप्रैल तथा सितंबर में परीक्षाएं ली जाती हैं.

हिन्दी के प्रचार -प्रसार के लिए समिति ने परीक्षाएं तो अनेक चलायीँ, किन्तु जिन परीक्षाओं का विशेष प्रचार हुआ, वे हैं, ‘राष्ट्रभाषा प्राथमिक’, ‘राष्ट्रभाषा प्रवेश’, ‘राष्ट्रभाषा परिचय’ और ‘राष्ट्रभाषा कोविद’. ‘राष्ट्रभाषा कोविद’ समिति की पहली उपाधि परीक्षा है. आगे चलकर दो अन्य उच्च स्तरीय परीक्षाएं आरंभ की गईं- ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ और ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’. ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ परीक्षा शुरू करने के पीछे उद्देश्य था कि योग्य हिन्दी प्रचारक तथा योग्य हिन्दी शिक्षक तैयार हो सकें. ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’, समिति की सर्वोच्च उपाधि परीक्षा है. ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ परीक्षा 1944 से आरंभ हुई और ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’ 1960 से. इन परीक्षाओं में ‘कोविद’ इंटर के समकक्ष, ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ बी.ए. के समकक्ष और ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’ एम.ए. के समकक्ष मान्यता प्राप्त है. किन्तु अब धीरे- धीरे इन परीक्षाओं का महत्व बहुत घट गया है और इसीलिए परीक्षार्थियों की संख्या तेजी से घट रही है.

हिन्दी शिक्षक और हिन्दी प्रचारक तैयार करने के लिए समिति ने 1937 में ‘राष्ट्रभाषा अध्ययन मंदिर’ की स्थापना की. 18 जनवरी 1951 को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने ‘राष्ट्रभाषा भवन’ का शिलान्यास किया तथा 1952 में ‘राष्ट्रभाषा महाविद्यालय’ की स्थापना की गई. इस महाविद्यालय में ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ तथा ‘अध्यापन-विशारद’ की पढ़ाई की व्यवस्था की गई. समिति के परिसर में हिन्दी माध्यम से किशोर भारती, उच्च प्राथमिक विद्यालय तथा राष्ट्रभाषा माध्यमिक विद्यालय भी संचालित हैं जिसे राज्य शासन की मान्यता हासिल है.

समिति ने ‘भारत भारती’ नामक 13 भाषाओं की 13 छोटी- छोटी पुस्तकें प्रकाशित की हैं. सभी भाषाओं को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया है. इन पुस्तकों के द्वारा इन तेरह भाषाओं में से किसी भी भाषा का सामान्य ज्ञान आसानी से अर्जित किया जा सकता है. इसके अलावा समिति की ओर से सभी परीक्षाओं में संपूर्ण भारत में प्रथम व द्वितीय स्थान पाने वाले परीक्षार्थियों को सम्मानित व पुरस्कृत भी किया जाता है.

अपने आरंभिक काल में लोगों तक अपनी बात पहुँचाने तथा संपर्क सूत्र के लिए समिति ने ‘सबकी बोली’ पत्रिका निकाली थी. 1941 में ‘सबकी बोली’ के स्थान पर ‘राष्ट्रभाषा समाचार’ निकाला जाने लगा, जिसने 1943 में ‘राष्ट्रभाषा’ का आकार ले लिया. ‘राष्ट्रभाषा’ पत्रिका आज भी नियमित रूप से निकल रही है.

समिति के पास एक अतिथि भवन भी है जिसे पहले ‘रोहित कुटी’ कहते थे. भदंत आनंद कौसल्यायन इसमें लंबे समय तक रहे .इसीलिए इसे आज ‘आनंद कुटी’ कहा जाता है. समिति का एक सभा भवन है जिसमें बैठकें और विविध आयोजन होते रहते हैं.

प्रकाशित पुस्तकों को विद्यार्थियों तथा सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए 1937 में पुस्तक बिक्री विभाग खोला गया था. हिन्दी के प्रचार- प्रसार में इस विभाग की भी ऐतिहासिक भूमिका रही है. यह विभाग आज भी मंथर गति से चल रहा है.

1946 में समिति ने अपना प्रेस खोला. आरंभ में हैंड कंपोजिंग की व्यवस्था थी. बाद में बढ़ते हुए काम के दबाव में स्वचालित मोनो टाइप एवं सुपर कास्टर मशीन खरीदी गई. छपाई में तकनीकों के विकास के साथ ही समिति प्रेस को यथासंभव आधुनिक बनाने की कोशिश कर रही है.

समिति के पास 30 हजार से भी अधिक पुस्तकों का एक समृद्ध ‘राष्ट्रभाषा पुस्तकालय’ है. 1937 में ही इसका शुभारंभ हुआ था. महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के शोधार्थी भी इस पुस्तकालय का लाभ उठाते हैं. वर्धा शहर में सेठ जमनालाल बजाज ने 1929 में ‘हिन्दी मंदिर पुस्तकालय’ के नाम से एक पुस्तकालय की स्थापना की थी. 1954 में इस पुस्तकालय की देख- रेख का दायित्व समिति को सौंप दिया गया. तबसे समिति ही इसका भी देखभाल करती है. इस पुस्तकालय में भी लगभग दस हजार पुस्तकें हैं.

1949 में समिति ने अपने हिन्दी प्रचारकों और शिक्षकों का एक सम्मेलन वर्धा में आयोजित किया था. सम्मेलन बहुत सफल रहा और हिन्दी प्रचारकों ने अपने अनुभव साझा किये. उन्होंने प्रचार कार्य में आने वाली कठिनाइयों के विषय में भी आपस में विचार विमर्श किया. इसके बाद से लगभग हर वर्ष अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन के आयोजन की कोशिश होती रही है और 2010 तक समिति की ओर से बीस सम्मेलन हो चुके थे.

समिति की ओर से प्रतिवर्ष ऐसे किसी हिन्दीतर भाषी विद्वान को “महात्मा गाँधी पुरस्कार” भी दिया जाता है जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा हिन्दी की उल्लेखनीय सेवा की हो.  जिन विद्वानों को यह पुरस्कार मिल चुका है उनमें आचार्य क्षितिमोहन सेन, महर्षि श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, बाबूराव विष्णु पराड़कर, विनोबा भावे, काका कालेलकर, अनंतगोपाल शेवड़े, रांगेय राघव, दादा धर्माधिकारी, पाँडुरंग शास्त्री आठवले आदि प्रमुख हैं.

हमारा देश 14 सितंबर को जो ‘हिन्दी दिवस’ मनाता है उसके प्रस्ताव और क्रियान्वयन का श्रेय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति को ही है. समिति का पाँचवाँ राष्ट्रभाषा सम्मेलन 10-11 नवंबर 1953 को नागपुर में हुआ था. इसी सम्मेलन में पारित प्रस्ताव संख्या-6 इस तरह है,

“यह सम्मेलन निश्चय करता है कि स्वतंत्र भारत के संविधान ने जिस दिन हिन्दी को राजभाषा तथा देवनागरी को राष्ट्रलिपि स्वीकार किया है, उस दिन अर्थात्14 सितंबर को संपूर्ण भारत में हिन्दी दिवस मनाया जाए.”

उक्त प्रस्ताव के अनुसार राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के प्रधान मंत्री श्री मोहनलाल भट्ट ने 14 सितंबर 1954 को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाने के लिए दिनांक 30.11.1953 को एक पत्र प्रान्तीय समिति, जिला समिति, नगर समितियों के अतिरिक्त देश के तमाम कार्यालयों तथा विशिष्ट व्यक्तियों के पास भेजा. इस पत्र को उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा’ के दिसंबर 1953 के अंक में प्रकाशित भी किया. उनकी इस अपील का व्यापक असर हुआ और 14 सितंबर 1954 को पहला ‘हिन्दी दिवस’ संपूर्ण भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाया गया. इस अवसर पर राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर देश के तमाम गणमान्य व्यक्तियों, साहित्यकारों तथा हिन्दी प्रेमियों के शुभ संदेश प्राप्त हुए. तभी से ‘हिन्दी दिवस’ मनाने की परंपरा चल पड़ी.

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के प्रांगण में इस दिन प्रभात फेरी होती है, जुलूस निकाले जाते हैं तथा विभिन्न साहित्यिक -सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. इस दिन समिति के प्रांगण में निम्नलिखित प्रतिज्ञा भी करायी जाती है-

1.      हम अपना प्रतिदिन का कार्य मातृभाषा अथवा राष्ट्रभाषा हिन्दी में करेंगे.

2.      हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त गौरवशालिनी भाषा बनाएंगे.

3.      राष्ट्रभाषा हिन्दी और देवनागरी लिपि का संदेश घर-घर पहुँचाकर राष्ट्रीय एकता की भावना को दृढ़ करेंगे.

4.      राष्ट्रभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के विकास को एक-दूसरे का पूरक मानकर दोनों का विकास करेंगे.

5.      “एक हृदय हो भारत जननी” के मूल मंत्र को राष्ट्रभाषा के प्रचार द्वारा सफल बनाएंगे.

इसी तरह विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन के पीछे भी राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की ही केन्द्रीय भूमिका है. समिति की 29 सितंबर 1973 की बैठक में विश्व हिन्दी सम्मेलन को मूर्त रूप देने का निर्णय लिया गया. उन दिनों मधुकरराव चौधरी समिति के अध्यक्ष थे. जनवरी 1974 के प्रथम सप्ताह में समिति की ओर से एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से मिला और उनके सामने विश्व हिन्दी सम्मेलन की योजना को औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया. मई 1974 में भारत सरकार की ओर से इस योजना को स्वीकृति मिली और नागपुर में 10-14 जनवरी 1975 को पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के तत्वावधान में सम्पन्न हुआ. इस सम्मेलन का उद्घाटन किया था तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने और अध्यक्षता की थी मारीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने.

इस सम्मेलन में तीन ऐतिहासिक निर्णय लिए गये-

1.      राष्ट्रसंघ में हिन्दी को मान्यता प्रदान की जाय.

2.    विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की कर्मभूमि वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के तत्वावधान में हो.

3.   विश्व हिन्दी सम्मेलन का कार्य आगे बढ़ाने की दृष्टि से विश्व हिन्दी अंतररराष्ट्रीय सचिवालय स्थापित किया जाय ताकि जो उपलब्धियाँ इस सम्मेलन के माध्यम से प्राप्त हुई हैं उन्हें  कुछ स्थायित्व मिले और जो वातावरण बना है, वह अधिक दृढ़ और अनुकूल बनता जाए.

उक्त निर्णयों के फलस्वरूप ही महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना वर्धा में हुई और मारीशस में अंतरराष्ट्रीय हिदी सचिवालय की. हाँ, संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी को आधिकारिक दर्जा मिलना अभी बाकी है.

निस्संदेह हिन्दी की प्रतिष्ठा और विकास में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की भूमिका ऐतिहासिक है, किन्तु आज उसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है. समिति के प्रधान मंत्री हेमचंद्र बैद्य ने एक बात-चीत में बताया कि उनके आग्रह पर कुछ वर्ष पहले उद्योगपति राहुल बजाज ने समिति को एक करोड़ रूपये की धनराशि अनुदान के रूप में दिया था जिससे मेस तथा कुछ अन्य भवनों का पुनरुद्धार हो सका. उल्लेखनीय है कि समिति के पहले कोषाध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाज थे. उन्हीं की प्रेरणा से कानपुर के सेठ पद्मपत सिंहानिया ने इसका प्राथमिक व्यय भार उठाया.  उन दिनों उन्होंने किश्तों में पचहत्तर हजार रूपए प्रदान किए थे जिससे समिति का कार्य आगे बढ़ा. किन्तु आज हिन्दी के लिए राहुल बजाज जैसे दाता कितने हैं ? सरकार से हमारी गुजारिश है कि समिति की स्वायत्तता बरकरार रखते हुए उसके लिए यथोचित और नियमित अनुदान की व्यवस्था करे ताकि ऐतिहासिक महत्व की यह संस्था आगे भी अपनी  भूमिका निभा सके.

समिति जहाँ स्थित है उसे ‘हिन्दी नगर’ कहा जाता है. समिति के वर्तमान अध्यक्ष प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने बताया कि समिति के पास सेठ जमनालाल बजाज की कृपा से प्राप्त 17 एकड़ भूमि है.

देश के राष्ट्रभाषा प्रेमियों से भी अपील है कि वे इस ऐतिहासिक महत्व की संस्था के उद्धार के लिए आवाज उठाएं और यथासंभव सहयोग करें.

(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)       


एमएल गुप्ता- वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई द्वारा प्रेषित
vaishwikhindisammelan@gmail.com 

यशश्री शिंदे के हत्यारे दाऊद शेख को फांसी दी जाए – विश्व हिंदू परिषद की मांग

मुंबई। उरण स्थित गरीब हिंदू परिवार कि सदस्या यशश्री शिंदे कि जिहादी मानसिकता रखनेवाले दाऊद शेख द्वारा निर्ममतापूर्वक हत्या की गई. क्रूर जिहादी मानसिकताग्रस्त दाऊद शेख को जल्द से जल्द फांसी की सजा दी जाए और यशश्री को न्याय मिले ।

विहिंप द्वारा पत्रकार परिषद में यह मांग की गईय़  इस परिषद विहिंप नवी मुंबई उपाध्यक्षा मनीषा भोईर, सामाजिक कार्यकर्ता योगिता साळवी तथा विहिंप कोकण प्रांत मातृशक्ती सह संयोजिका योगिता थरवळ ने संबोधित किया । परिषद का आयोजन विहिंप कोकण प्रांत – मातृशक्ती के तत्वावधान में किया गया था ।

पत्रकार वार्ता में आरोप लगाया गया कि  पिछले कई वर्षों से भारत में लव्ह जिहाद के षडयंत्र के कारण युवतीयों के अस्तित्व को धोखा उत्पन्न हुआ है. भारत में, महाराष्ट्र में लव्ह जिहाद के घटनाओं में बडे पैमाने पर बढौत्री आई है. 18 वर्षों से कम उम्र कि नाबालिग लडकियाँ एवं 18 वर्ष के उपर कि लडकियों को टारगेट कर के भगाकर ले जाना एवं उनका धर्मातरण करने के षडयंत्र के मामले दिन पर दिन सामने आ रहे है.

दाऊद शेख ने ऐसेही नृशंस मानसिकता से यशश्री कि अत्यंत बर्बरतापूर्वक हत्या की है. विशेष बात यह है कि, 2019 में यशश्री 15 वर्ष कि थी तब उसे सताने के आरोप में दाऊद शेख पर उरण पुलिस थाने में भारतीय न्याय संहिता के कलम 354, 507 अंतर्गत मामला दाखिल किया गया था. तीन महीने सलाखों के पीछे रहने के पश्चात कई वर्षो तक शेख कर्नाटक में रह रहा था. मालूम होता है कि, यशश्री के हत्या से कुछ दिनों पहले वह उरण लौंटा था.  बदला लेने के लिये उसने अत्यंत निर्दयतापूर्वक  यशश्री कि हत्या की. उसके शरीर के टुकडे किये, बाल काटे, क्रूरता से स्तन काट दिए और गुप्तांग पर भी वार किये.

पिछले कई वर्षों में लव्ह जिहाद के अंतर्गत हिंदू लड़कियों को फसाकर, डराकर, लैंगिक शोषण कर के और कई बार जान कि धमकी देकर धर्मांतरण करनेपर मजबूर करने के मामले बढ रहे है. चेंबूर कि रुपाली चंदनशिवे, वसई कि श्रद्धा वालकर, मानखुर्द कि पूजा श्रीरसागर कि तरह भीमकन्या यशश्री शिंदे भी इस जिहादी मानसिकता के कारण प्राण गँवा चुकी है.

श्रीराज नायर
कोकण प्रांत सहमंत्री / प्रवक्ता
M : 9820967185
Email : snshriraj8@gmail.com

नरेंद्र मुजुमदार कोकण प्रांत प्रचार-प्रसार प्रमुख
M : 8369204985
Email : narendra.mujumdar9@gmail.com

“Sita Nivas” 2nd Floor, 219, Dr. Ambedkar Road,
Opposite Central Railway Playground, Lower Parel,
Mumbai 400 012.
www.vskkokan.org

‘डाक विभाग की पोस्टल प्रीमियर लीग-2024’ क्रिकेट टूर्नामेंट का उद्घाटन

अहमदाबाद। डाक कर्मीयों के बीच खेलों को बढ़ावा देने के लिए, डाक विभाग, अहमदाबाद सिटी डिवीजन द्वारा ‘पोस्टल प्रीमियर लीग – 2024’ का आयोजन किया गया। अहमदाबाद मुख्यालय क्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने V9 क्रिकेट ग्राउंड, साइंस सिटी सर्कल, अहमदाबाद में टूर्नामेंट का उद्घाटन किया। अहमदाबाद सिटी डिवीजन के वरिष्ठ डाकघर अधीक्षक श्री विकास पालवे ने सभी क्रिकेट खिलाड़ियों को खेलो इंडिया की शपथ दिलवाई और मुख्य अतिथि को सभी क्रिकेट टीमों का परिचय दिलवाया।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि क्रिकेट टीम भावना, परस्पर सहयोग, अनुशासन, और अंत तक जूझने का प्रतीक है। ऐसी प्रतियोगिताएं कर्मचारियों में उत्साहवर्धन करती हैं, उन्हें स्वस्थ रहने की प्रेरणा देती हैं तथा उनके सामाजिक कौशल का निर्माण करती हैं। अहमदाबाद सिटी डिवीजन द्वारा इस प्रतियोगिता के पहली बार आयोजन पर उन्होंने ख़ुशी भी जताई।

टूर्नामेंट में अहमदाबाद सिटी पोस्टल डिवीजन के तहत 2 महिला क्रिकेट टीमों सहित कुल 10 क्रिकेट टीम भाग ले रही है।  टूर्नामेंट के पहले दिन 08 – 08 ओवर के सात मैच खेले गए। ओढव ओलंपियन और ड्रैगन इलेवन ने पहले दिन दो मैच जीतकर सेमीफाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली है। वहीं नॉर्थन स्टार, वेस्ट ग्लैडिएटर और नवरंगपुरा नाइट राइडर्स ने दो में से एक मैच जीता है।

टूर्नामेंट के सेमी फाइनल और फाइनल मैच 04.08.2024 को खेले जाएंगे।

ऋतु जोशी की कलम से उपजे सृजन और संवेदना के शब्दों के मोती

कोई नहीं जान पाता

वीराने में खड़ी
एक खूबसूरत इमारत
कब तब्दील हो गई खंडहर में
बहुत खामोशी से घटता है
उसका दरकना समय के साथ – साथ
उसके भरभरा कर गिरने के पहले
कोई नहीं सुन पाता
इस अनहोनी की आहट
ठीक इसी तरह एक दिन
अचानक भरभरा कर
बिखर जाती हैं स्त्रियां
कोई नहीं सुन पाता
इस अनहोनी की आहट
 कोटा की खामोश रचनाकार  ऋतु जोशी की यह भावपूर्ण रचना दो पक्षों को लेकर लिखा गया मार्मिक सृजन है। इमारत और स्त्रियों के दरकने – बिखरने की आहट भला कौन सुन पाता है। दोनों का बिखरना इतना खामोश होता है कि कब दरक गई और बिखर गई पता ही नहीं चलता। इमारत और स्त्री की एक व्यथा इनके काव्य सृजन की अद्भुत विशेषता कह सकते हैं। मन की खुशी के लिए स्वान्तः सुखाय लिखती हैं, न किसी मंच पर न किसी गोष्ठी में। प्रचार से कोसों दूर अपने सृजन में लगी रहती हैं।
इतना खाली से क्यूं हूं मैं ?
तू बिन बोले
बिन बताए
भीतर से कहीं चला गया क्या ?
 चार पंक्तियों की छोटी  सी रचना ” खालीपन ” भावों में कितनी गहराई समेटे हैं कि एक प्रेयसी  अपने खालीपन का सवाल स्वयं से ही कर रही है और फिर जवाब भी स्वयं ही दे रही दिखाई देती है। निसंदेह प्रेम में खालीपन के अहसास का यह सवाल – जवाब अपने आप में लाज़वाब है, जो सृजन का ही विशिष्ट गुण है।
 एक अन्य रचना ” बैराग ” में कुछ और दहना है, कुछ और बहना है को प्रेम से जोड़ते हुए लिखती हैं ……….
तेरे प्रेम के तीरे
अपनी नाव लगाने से पहले
जहां जाने क्यूं
ये लगता है
बैराग खड़ा मिलेगा।
प्रेम में दर्द के अहसास को भुलाने का कैसे जतन किया, इस पर कितना प्रभावी लेखन किया है इन पंक्तियों में………
जब से उतरी है खालिश
तेरी मेरी चाहत में
एक बात तो जरूर अच्छी हो गई/
मेरी कलम दर्द की स्याही से लिखने लगी
मेरी नज्में कुछ और मशहूर हो गई।
प्रेम के साथ आस्था भी गहरे से जुड़ी है। देखिए कितने सुंदर भावों में प्रेम ,आस्था और अध्यात्म के संयोग का कव्यमय चित्रण किया है इन पंक्तियों में……..
तुम सूरज की तरह जलते हो
मुझमें प्राण और ऊर्जा फूंकने के लिए
मैं अकिंचन
मंदिर के कोने में रखे
आस्था के दीपक सी जलती हूं
तुम्हें पूजने के लिए।
ऐसी अर्थपूर्ण और प्रभावपूर्ण 135 से अधिक काव्य संग्रह की इनकी दूसरी कृति है ” नदी,धरती और समंदर “। कृति के शीर्षक से प्रतीत होता है कि विषय वस्तु नदी, पृथ्वी और समुंदर होगा । जब की ये प्रेम का ही प्रतीक है, नदी का प्रियतम समुंदर है जो धरा से अनेक बाधाओं को पार कर अंततः अपने प्रियतम समुंदर से जा मिलती है। प्रेमी का अपने प्रियतम से मिलन ही तो प्रेम की पूर्णता है। प्रेम को नदी, पृथ्वी और समुंदर का प्रतीक बना कर ही शायद रचनाकार ने यह शीर्षक दिया होगा ऐसा मैं समझता हूं। हो सकता है रचनाकार का कोई अन्य विचार रहा हो।
यह काव्य संग्रह की यह दूसरी कृति समर्पित है उस परमात्मा को जिसकी मुठ्ठी में सितारे है। किताब शुरू होती है प्रेम की कुछ परिभाषाओं से। पहली कविता ” मैं और तुम” से शुरू कर  सफर का सुनामी, तुम्हारा प्यार, वक्त नहीं, बाजारू औरत, काठ का पुतला, अधूरे पल, जब कह नहीं पाता आदमी, इश्क है या रिश्तेदारी, उपहार, तब और अब, आवेग, तेरे कर्ज, पुराना पड़ चुका प्रेम, काला टीका, तरीका, तेरी आंखों के सिवा, अनकहा सा, अलहदा, बालों की लट, खत्म होने लगता है आदमी, नदी की जिद, दर्द, जन्म – जमांतर, बेवजह, किसी के प्यार में थी जैसी कविताओं से होकर सफर के अंतिम पायदान पर  “बस करो” से विश्राम लेता है। कविताओं के मजमून भाव जगत में विचरण कराने को पर्याप्त हैं।                रचनाकार अपनी बात में लिखती है ” किशोरवय हो या नारी , प्रेम के उन्मुक्त गगन में विचरण करती है। अपनी बात को कहने का इन्हें सबसे अच्छा और प्रभावी माध्यम लगा कविता। दुख हो या सुख कविता में अभिव्यक्त करने से जो आत्म सुख और शांति मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। हो सकता है यह मेरे अनुभवों की सीमा हो लेकिन मैं तो कविता के माध्यम से सुखों को टटोलती हूं।”
यूं तो कभी  प्रेम पत्र लिखा नहीं तुझे
पर अक्सर ये सोचती हूं
जो लिखती भी तो क्या लिखती
क्या प्रेम कभी शब्दों में पूरी तरह से
अभिव्यक्त हो सहता है भला
बातों का अव्यक्त रह जाना तो
बहुत बड़ी कमजोरी रही है प्रेम की
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पुस्तक : नदी , धरती और समंदर
लेखक : ऋतु जोशी
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर
कवर : हार्डबाउंड
मूल्य : 300₹

कलम के सिपाही कभी तटस्थ नहीं होते ! प्रेमचंद जयंती 31 जुलाई पर विशेष

कभी हिंदी के मूर्धन्य कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के संदर्भ में सुप्रसिद्ध  व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने कहा था कि मुक्तिबोध सक्रिय बेईमान और निष्क्रिय ईमानदार लोगों के गठबंधन के सताए हुए हैं। आज मुक्तिबोध और परसाई दोनों ही इस दुनिया में नहीं हैं और 21वीं शताब्दी के भूमंडलीकरण के मुक्त व्यापार के दौर में हमारा साहित्य जगत इसी अपवित्र महागठबंधन से पीड़ित है। बदलते भारत की किसी भी समस्या, चुनौती और प्रश्न पर लेखक को मौन देखकर, आज भी मुझे लगता है कि लेखक समय से मुठभेड़ करने की जगह समझौते और समर्पण अधिक कर रहा है। एक आत्ममुग्ध नायिका की तरह। इसीलिए वह न तेरा है न मेरा है और साहित्य, समाज और समय का है।
 हिंदी जगत में तीन-तेरह की ये बीमारी 2014 के बाद बहुत दयनीयता से फलफूल रही है और सभी तरफ सक्रिय बेईमान और निष्क्रिय ईमानदार अपने-अपने मोर्चों पर मारधाड़ से ही प्रचार और सदगति का मोक्ष और मुनाफा तलाश कर रहे हैं।
बहरहाल! साहित्य के बाजार में लेखक और संस्कृति कर्मी अब इसलिए अप्रासंगिक हो गए हैं कि उन्होंने अपना दीन ईमान छोड़ दिया है और बौद्धिक ऐय्याशी का तानाबाना पहन लिया है ताकि गति से पहले सुरक्षा बनी रहे। ये भी इतिहास है कि पहली बार देश की राजनीति और सामाजिक- आर्थिक परिवर्तन के संग्राम में (1936) प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई थी तब कथाकार प्रेमचंद ने साहित्य के उद्देश्य को लेकर कहा था कि साहित्य तो राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है और कोई मनोरंजन तथा महफिल सजाने का कारोबार नहीं है। तब से लेकर अब तक वामपंथी और मार्क्सवादी विचारधारा के ऐसे सभी संगठन (प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, सांस्कृतिक मंच, आदि) भारत की सभी भाषायी चेतना में वामपंथी पार्टियों के अत्यधिक हस्तक्षेप और  अंतर्विरोधों से विकलांग होकर बिखर चुके हैं और व्यक्तिवाद तथा बाजारवादी व्यवस्था की बहती गंगा में डुबकी लगा रहे हैं।
विचारधारा के मरने की घोषणाएं कर दी गई हैं और लेखक ने सभी विकल्प खुले हैं का अवसरवादी रास्ता पकड़ लिया है। कांग्रेस के लिए 1977 में संसद कवि श्रीकांत वर्मा और नौकरशाह कवि गिरिजा कुमार माथुर ने इंदिरा गांधी के आपातकाल में कभी राष्ट्रीय लेखक संगठन बनाया था लेकिन तब वामपंथी लेखक संघों ने आपातकाल के आगे हथियार नहीं डाले थे और कांग्रेस समर्थक श्रीकांत वर्मा का यह सपना टूट गया था।
मैं खुद भी इसी चक्कर में आपातकाल के तहत आकाशवाणी की नौकरी खो चुका हूं अतः ये कहना चाहता हूं कि 1990 में सोवियत संघ के विभाजन और समाजवाद के धराशाही होने के बाद भारत में जो भूमंडलीकरण का मुक्त बाजार शुरू हुआ तब से हमारे यहां साहित्य में विघटन, पलायन और सक्रिय बेईमानी और निष्क्रिय  ईमानदारी का गठबंधन बड़ा है तथा धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवादी सपनों का संविधान कमजोर होना शुरू हुआ है जो आज खुल्ला खेल फर्रुखाबादी बन गया है। आश्चर्य तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयं संघ, जन संघ और भाजपा प्रणीत तथाकथित अखिल भारतीय साहित्य परिषद आज भी टूटी और बिखरी नहीं है अपितु 2014 के बाद तो साहित्य, संस्कृति, कला, संगीत, शिक्षा, विज्ञान और सूचना प्रसारण एवं इतिहास के क्षेत्र में खुलकर सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद का बिगुल बजा रहा है और नया भारत भी बना रही है।
सच ये है कि  दक्षिण पंथ 1925 से लगातार एकजुट रहा है लेकिन हम और हमारी लोकतांत्रिक समाजवादी और धर्मनिरपेक्षता साहित्य तथा सांस्कृतिक चेतना का आंदोलन आपसी फूट और व्यक्तिवादी अहंकारों से निरंतर टूटा है। ऐसे कठिन दौर में मेरा अनुभव और अनुरोध कहता है कि कल इस नए भारत का क्या होगा ? जहां आज संसद से सड़क तक कोई विपक्ष नहीं है, जनपथ से राजपथ तक कोई हस्तक्षेप नहीं है और साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के परिसर में कोई रविंद्रनाथ, सुब्रह्मण्यम भारती, प्रेमचंद, कैफी आजमी, महाश्वेता देवी, महादेवी, मीरा और मुक्तिबोध अथवा परसाई नहीं है। मुझे लगता है कि भारत में साहित्य, संस्कृति, शिक्षा, स्वतंत्रता और सत्य के प्रयोगों पर अंधा युग मंडरा रहा है क्योंकि हम चुप हैं, डरे हुए हैं और नफा-नुकसान के बाजार तथा जनविरोधी विचार में फंसे हैं और साहित्य, समाज और समय को धोखा दे रहे हैं।
हजारों साल की गुलामी ने हमारी मनुष्य होने की सच्चाई को प्रत्येक सत्ता-व्यवस्था ने दलित, आदिवासी, महिला और अल्पसंख्यक बनाकर लड़ाया- भड़ाया है। शब्द की विश्वसनीयता को कुचला है और आज बाजार में बेचा है। अब यहां तस्लीमा नसरीन और गणेश लाल व्यास उस्ताद की चेतना और परंपरा कहां है जो गोविंद गुरु तथा कबीर की निर्गुण धारा को पुनः प्रवाहित कर सके? जब हमने भारत-पाक विभाजन भी देखा है, हम आपातकाल में भी संगठित थे और हम सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा में भी नहीं थे तो फिर हम चुप और तमाशबीन क्यों हैं ? कौन हमें लड़ा रहा है और कौन हमें सरकार तथा बाजार की कठपुतली बना रहा है?
 ( लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)

गुरुद्वारा रकाबगंज और दिल्ली विजेता बघेल सिंह

प्रधानमन्त्री मोदी जी गुरु तेग बहादुर जी के 400 वे प्रकाश पर्व को बनाने का निर्णय लिया है। गुरूजी के बलिदान की महिमा को शब्दों में वर्णित करना असम्भव है। इस्लामिक कट्टरवाद के कारण आलमगीर का ओहदा जिसके नाम के साथ लगा था, जिसने अपने सगे भाइयों को सत्ता के लिए मरवा दिया और अपने बूढ़े बाप को बंदी बनवा दिया था, जिसके केवल एक बार के दौरे में पंजाब की धरती लहूलुहान हो गई थी, जो गैर मुसलमानों से इस हद तक नफरत करता था कि उनकी शक्ल तक देखना हराम समझता था, जो अपने आपको मुल्ला-मौलवियों के सामने सच्चा मुसलमान सिद्ध करना चाहता था, जिसने अपने पूर्वज अकबर की बनाई राजपूत सन्धि को तार-तार कर दिया था>
उसके लिए हिन्दुओं के मंदिर तोड़ना, ब्राह्मणों के जनेऊ तोड़ना, हिन्दुओं को पकड़कर उनकी सुन्नत कर कलमा पढ़वाना दीन के सेवा था, जो अपनी खुद के पुत्रों पर कभी विश्वास नहीं करता था क्योंकि वह सोचता था कि कहीं वे भी उसे न मरवा दे, जो हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा में जाने वाले साधुओं तक से कर वसूलता था, जिसके लिए होली-दिवाली जैसे त्यौहार हराम थे, उस औरंगजेब के सताए कश्मीरी हिन्दुओं की धर्मरक्षा के लिए अपने प्राणों को आहूत करने वाले गुरु तेग बहादुर को हिन्द-की-चादर के नाम से श्रद्धा वश सुशोभित किया जाता है। ऐसे नरपिश्चाच औरंगज़ेब को खुली चुनौती देना कि उससे कहो मेरा धर्म परिवर्तन करके दिखा दे। खुलम-खुल्ला मृत्यु को दावत देना था।
कुछ भटके हुए लोग औरंगज़ेब और गुरु साहिबान के संघर्ष को राजनीतिक संघर्ष कहते हैं। अगर यह संघर्ष विशुद्ध रूप से राजनीतिक होता तो औरंगजेब उनके सामने दो ही विकल्प क्यों रखता?  एक इस्लाम स्वीकार करो और दूसरा सर कटवाओ। गुरु जी ने अपने पूर्वजों की धर्म मर्यादा का सम्मान करना स्वीकार दिया और प्राण दान दे दिया। वो जानने थे कि उनके बलिदान की प्रेरणा से यह भारत भूमि ऐसे महान सपूतों को जन्म देगी जो आततायी औरंगजेब के क्रूर शासन की ईंट से ईंट बजा देंगे।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि यही हुआ। संसार का सबसे शक्तिशाली शासक औरंगज़ेब अपने कुशासन से इतनी चुनौतियों से घिर गया कि बुढ़ापे में उसे अपने साम्राज्य के टूटने की आहत महसूस होने लगी। ऐसा उसने अपने बेटों को लिखे खत में दर्शाया है। पंजाब से सिखों और खत्रियों, संयुक्त प्रान्त और प्राचीन हरियाणा से जाटों, राजपूताना से राजपूतों , बुंदेलखंड से बुंदेलों, असम से अहोम, मालवा से सिंधियाँ-होलकरों, महाराष्ट्र से मराठों आदि वीर क्षत्रियों की ऐसी सशस्त्र क्रांति की ज्वाला उठी। उस ज्वाला ने मुग़लों के करीब दो सदी पुराने शासन की नींवें ऐसी हिलाई कि उसका सूर्य सदा के लिए अस्त होकर दिल्ली की चारदीवारियों में कैद हो गया।
 ऐसे महान गुरु तेग बहादुर को हम नमन करते है। औरंगज़ेब के आदेश पर गुरु जी का कोतवाली के सामने चाँदनी चौक में जल्लाद ने 11 नवंबर 1675 को सर कलम कर दिया। जिस स्थान पर यह पाप हुआ। आज वहां गुरु द्वारा शीश गंज बना हुआ है।  उनके धड़ को हिन्दू लखी बंजारा अपनी जान को खतरे में डालकर उठा लाया और अपने घर में रखकर उसने आग लगा दी। इस प्रकार से गुरूजी का अंतिम संस्कार का किया गया। गुरु जी के सर को भाई जैता जी लेकर आनन्दपुर साहिब किसी प्रकार पहुंचे और उनके सर का अंतिम संस्कार उनके पुत्र गुरु गोविन्द राय द्वारा किया गया।
इस घटना के 100 वर्ष बाद 1783 में सिख जनरल बघेल सिंहके नेतृत्व में  का दिल्ली पर कब्ज़ा हो गया। उसने तेलीवाड़ा में  माता सुंदरी और माता साहिब की स्मृति में प्रथम गुरुद्वारा बनवाया। दूसरा गुरुद्वारा जयपुर के महाराज जय सिंह के बंगले के स्थान पर बनाया गया जहाँ गुरु हरी किशन जी कभी रुके थे।  चार अन्य गुरुद्वारे यमुना के घाटों के समीप बनाये गए थे। मजनू का टीला और मोतीबाग में भी दो गुरूद्वारे बनवाये और उनके साथ स्थिर आय वाली संपत्ति भी जोड़ी।
गुरु तेग बहादुर जी की स्मृति से जुड़े दो स्थल दिल्ली में थे।  एक कोतवाली जहाँ गुरु जी का बलिदान हुआ था दूसरा रकाबगंज जहाँ लखी बंजारा और उनके लड़के ने जान पर खेलकर उनके सर विहीन शव का अंतिम संस्कार किया था। इन दोनों स्थानों पर मुसलमानों ने मस्जिद बना ली थी। बघेल सिंह ने पहले रकाबगंज पर अपना ध्यान लगाया। स्थानीय मुसलमानों में मस्जिद हटाने की भीषण प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने मुग़ल बादशाह से इसके विरुद्ध याचिका डाली। उनका प्रस्ताव था कि चाहे पूरी दिल्ली जल कर खाक हो जाये पर ये मस्जिद नहीं हटनी चाहिए। मुग़ल बादशाह ने कहा की उन्हें यह प्रस्ताव पहले लेकर आना चाहिए था और वो सिख जनरल से इस विषय में चर्चा करेंगे।
बघेल सिंह के अधिकारी ने सूचना दी कि 1 अक्तूबर 1778 को मुसलमानों ने बादशाह को विश्वास में लेकर गुरुद्वारा को तोडा था। बघेल सिंह ने मिलने के लिए मुसलमानों के समूह को बुलाया जिसमें मुल्ला-मौलवी शामिल थे। उन सभी की सूची बनवाई। उनकी सबकी सम्पत्तियों की सूची बनवाई और उन्हें जब्त करने के लिए अपने घुड़सवार भेज दिए।उन्हें एक हफ्ते बाद मिलने के लिए बुलाया। उन्हें जब अपनी गंगा के दोआब में स्थित संपत्ति पर बघेल के घुड़सवार चढ़ते दिखे तो उनके होश उड़ गए। वे भागे भागे बघेल जनरल से समझौता करने आये। बघेल सिंह ने उनसे लिखित रूप में मस्जिद हटाने का प्रस्ताव ले लिया। उस प्रस्ताव को बादशाह के पास भेज दिया और मस्जिद तोड़ने के लिए अपने योद्धा भेज दिए। आधे दिन में 2000 घुड़सवारों ने मस्जिद की एक ईंट भी वहां न छोड़ी। गुरुद्वारा की नींव रखी गई ,गुरुबाणी का पाठ हुआ और कड़ा प्रसाद का वितरण हुआ।
अब गुरुद्वारा शीशगंज की बारी थी। बघेल सिंह ने सिखों को एकत्र किया। मुस्लिम जनसमूह बादशाह और मुल्ला मौलवियों को दरकिनार कर इकट्ठा हो गया। उन्होंने सिखों से लोहा लेने का मन बना लिया था। एक पानी पिलाने वाली मशकन ने वह स्थान बघेल सिंह को बताया जहाँ पर गुरु जी का बलिदान उसके पिता के सामने हुआ था। उसके अनुसार हिन्दू फकीर पूर्व दिशा की ओर मुख किये मस्जिद की चारदीवाली के भीतर एक चौकी पर विराजमान थे। जब जल्लाद ने उन पर अत्याचार किया था। बादशाह के अधिकारी भी आ गए। उन्होंने मुसलमानों को यह विश्वास दिलाया कि मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जायेगा। केवल उसकी चारदीवारी को तोड़ा जायेगा। वही हुआ। चारदीवारी गिराई गई। मस्जिद के प्रांगण में गुरुद्वारा की स्थापना हुई। यही गुरुद्वारा आजकल गुरुद्वारा शीशगंज कहलाता हैं। जनरल बघेल सिंह ने इतिहास में वो कारनामा कर दिखाया। जो कोई नहीं कर पाया। सिख संगत जनरल बघेल सिंह की दिल्ली विजय की बात तो करती है पर उनकी इस कूटनीतिक और रणनीतिक विजय की कोई चर्चा नहीं की जाती। क्यों?
(यह लेख सिख इतिहास के महान और प्रामाणिक इतिहासकार हरिराम गुप्ता द्वारा लिखित History of the Sikhs, भाग 3, पृ. 168-169 के आधार पर लिखा गया है)

जापान के प्रख्यात कोयासन विश्वविद्यालय द्वारा डॉ. अच्युत सामंत को मिली मानद डॉक्टरेट की डिग्री

भुवनेश्वर। जापान के प्रतिष्ठित एवं प्रख्यात कोयासन विश्वविद्यालय ने 24 जुलाई को अपने परिसर में अपने बहुप्रतीक्षित दौरे के दौरान कीट -कीस के संस्थापक डॉ. अच्युत सामंत को औपचारिक रूप से मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की।

लाखों आदिवासी बच्चों का जीवन सँवारने वाले अच्युत सामंत

डॉ. सामंत 100 साल से अधिक पुराने कोयासन विश्वविद्यालय से यह प्रतिष्ठित डॉक्टरेट की मानद डॉक्टरेट प्राप्त करने वाले दूसरे भारतीय हैं। उनसे पहले महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को यह प्रतिष्ठित डॉक्टरेट की उपाधि मिली थी। यह डॉ. सामंत की 58वीं मानद डॉक्टरेट की उपाधि है।

कोयासन विश्वविद्यालय के अध्यक्ष सोएदा रयुशो ने ओसाका-कोबे में भारत के महावाणिज्यदूत श्री निखिलेश गिरि और विश्वविद्यालय के अन्य गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में यह उपाधि प्रदान की।

अपने भाषण में सोएदा रयुशो ने कहा कि मानवता के प्रति उनके निस्वार्थ और अथक योगदान के सम्मान और आभार में कोयासन विश्वविद्यालय ने सर्वसम्मति से डॉ. सामंत को यह मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान करने का निर्णय लिया है।

अपने धन्यवाद ज्ञापन में डॉ. सामंत ने कहा, “यह एक ऐसा प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है जिसका इतिहास लगभग 100 साल से अधिक पुराना है। यह मेरे लिए और पूरे भारत के लिए उन्होंने मेरी शिक्षा और सामाजिक सेवा कार्यों के सम्मान में मुझे यह पुरस्कार प्रदान किया है।”

प्रेम में कभी कभी ( काव्य संग्रह )

शांत थी झील
गहरी भी
मैं खड़ा रहा किनारे
बहुत देर तक,
फिर ओक में भर कर पी लिया जल
तुम्हारी आंखों को
चूमने की इच्छा लिए।

कविता ” कामना ” की इन चंद पंक्तियों में प्रेम की छुपे भावों का नाद कितना भावपूर्ण है देखते ही बनता है। ऐसे ही गहरे रंगों में रंगी कविता ” स्मृतियों का रंग ” में प्रेम की अनुभूति गहरे तक समाई है………
अनगिनत रंग बिखरे हैं मेरे चारों और
हर रंग में से मैं चुनता हूं
तुम्हारे साथ बीते क्षणों की सुधियां
और नीले आसमान के नीचे खड़े हो कर
पूछता हूं अपने ही आप से
कैसा होता है स्मृतियों का रंग
क्या स्मृतियों का भी कोई रंग होता है ?

जीवन में अनुभूतियों के रंगों के बीच प्रेम के इंद्रधनुष को ले कर बहुत ही सहज भाव से लिखा है रचनाकार अतुल कनक ने अपने काव्य संग्रह ” प्रेम में कभी कभी ” में। कविता के प्रति रचनाकार अकेले अपने आप से ही सवाल करता है कि कविता के स्पर्श ने मुझे स्पंदन नहीं दिया होता – तो यह पहाड़ जैसी जिंदगी मैं कैसे जी पता। संग्रह की एक – एक कविता पाठक को प्रेम के सागर में गौते लगाते हुए प्रेम की अनंत अनुभूतियों से सराबोर कर देती हैं। कृति में लिखी 110 कविताएं प्रेम की कई परिभाषाएं गढ़ती दिखाई देती हैं। कृति को प्रेम का इंद्रधनुष कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

छत पर पायल उतार कर नाचती चांदनी में सुबह की पहली किरण तक बतियाने का कितना दिलकश चित्रण किया है……
चांद ही तो था
उतर गया झरोखे पर
और बजाने लगा बांसुरी
रात ही तो थी
छत पर नाचती रही
उतार कर पांवों से पायल
गीत ही तो थे
मचलते रहे हवाओं के होठों पर
हम – तुम ही तो थे
बतियाते रहे
सुबह की पहली किरण तक..।

इनका प्रेम काव्य प्रेम के रंगों के साथ – साथ प्रेम से जुड़े सामाजिक परवेश और संदर्भ को भी उंकेर कर समाज की सच्चाई को भी सामने लता है। ” जवान होती हुई लड़की ” एक ऐसी ही रचना है जिसमें घर के बाहर के परिवेश में उठते सवाल हैं, प्रेम का अर्थ समझने के संदर्भ हैं, लोगों की निगाहों और बहती हवाओं की समझ, आईना देख कर बड़े होने का अहसास, सुगंध और सुंदरता के प्रति आकर्षण सब कुछ महसूस कराते हुए अंत में लिखते है…..

” बदल चुकी है सारी दुनिया उसके लिए
या वह ही बदल चुकी है दुनिया के वास्ते…।”

संग्रह की कविताओं में मानवीय प्रेम के साथ – साथ जीवन, सामाजिक, परिवारिक, प्राकृतिक, दुख – सुख और आस पास के अनेक संदर्भ दिखाई पड़ते हैं जो रचनाकार के चिंतन और सृजन के प्रबल पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं और संवेदनशीलता का परिचायक हैं। सभी कविताएं सपाट सरल भाषा में छंद मुक्त हैं और गहरे अर्थ लिए है। आखिर में प्रेम युक्त कुछ छंद भी लिखे गए हैं।

संग्रह की कविताएं बीस साल बाद, जो प्रेम में होता है, गीली दूब की कविता, झील ने पूछा,प्रतीक्षा,याद मेरी बांसुरी की, बुरा तो लगता है, भ्रमित मत होना लड़कियों, मुझे आवाज़ देने से पहले, तुम सुन रहे होना, सवाल,कच्ची बस्ती में मौत, ईर्ष्या, कमजोर आदमी का सच, सरोकार, पहुंचना उन्हें साधुवाद, माघ की धूप, बचा सको तो बचालो पृथ्वी, इतिहास से, जिस दिन मन करता है, कोई क्या कहेगा,जब रो नहीं पाता आदमी,इसलिए मैं भी डरता हूं, बौराई धूप की कविता, अलग – अलग मिजाज की कविताएं हैं। सभी कविताएं और छंद पाठक को बांधे रखते हैं। कविता प्रेमियों के लिए अनिवार्य पठनीय कृति हैं।
पास से निकलती हो तुम
तो जैसे गूंज उठता है
मेरा पूरा अस्तित्व
दरबारी कान्हड़ा से
क्या देह भी बजती है
एक संतूर की तरह ?

लेखक : अतुल कनक ,कोटा ( राजस्थान )
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
कवर : पेपर बैक
मूल्य : 90₹

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समीक्षक : डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

निविडिया : कंपनी जिसका बाज़ार पूँजीकरण भारत की सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है

पिछले पखवाड़े कैलिफ़ोर्निया अपने प्रवास के दौरान निविडिया कंपनी का नाम सुना , इसका मुख्यालय इस राज्य के दक्षिणी भाग के सैंटा क्लारा नगर में है । आप हैरान हो जाएँगे जिस कंपनी का नाम और उसके मुख्य व्यवसाय का मेरे जैसे अधिकांश भारतीय लोगों को पता भी नहीं है उस का बाज़ार पूँजीकरण भारत की सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है और पिछले एक वर्ष में इसका शेयर प्राइस उछल कर दो सौ प्रतिशत हो चुका है।

कंपनी उस छोटे से चिप के डिज़ाइन और उत्पाद से जुड़ी है जिस पर AI यानि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बुनियाद टिकी हुई है , अगर सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो AI दुनिया के रहन सहन और कामकाज के तरीक़े में आमूल चूल परिवर्तन करने जा रही है । जो लोग भी कंप्यूटर जैसी डिवाइस पर काम करते हैं वे जानते हैं कि उन डिवाइस और उस पर चल रहे सॉफ्टवेयर का संचालन सीपीयू यानी सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट चिप करता है , इस चिप को इंटेल और एएमडी जैसी कंपनी बना कर दुनिया की सबसे संपन्न कंपनी बन गई हैं।

इस बीच निविडिया कंपनी ने ग्राफ़िक्स प्रोसेसिंग यूनिट (GPUs) बनाने में महारथ हासिल कर ली, आप पूछेंगे कि CPU और GPU में आख़िर फ़र्क़ क्या है ? जैसा कि नाम से ज़ाहिर है GPU चिप तस्वीरों के प्रोसेसिंग में बेहतर तरीक़े से काम करता है इसी लिए इसका इस्तेमाल वीडियो और कंप्यूटर गेम्स की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए किया गया , बाद में यह पाया गया कि यह चिप इमेज के साथ ही साथ गणना का काम भी बेहतर तरीक़े से कर लेता है जो CPU चिप के लिए संभव नहीं है। यह भी पाया गया कि GPU ऊर्जा बचाने और गणना की बढ़ती चुनौतियों से निपटने में भी कही बेहतर सक्षम है। सभी बड़े चिप निर्माताओं ने GPU की बेहतर संभावना को ध्यान में रखते हुए इसका उत्पादन शुरू कर दिया है लेकिन क्योंकि निविडिया इस क्षेत्र में कहीं पहले से स्थापित हो चुकी है इसका उसको अन्य प्रतियोगियों की तुलना में बहुत लाभ मिला है, यही नहीं निविडिया की सप्लाई चैन कहीं बेहतर है और उसकी उत्पादन क्षमता, गुणवत्ता और विश्वसनीयता प्रतियोगियों से कहीं अधिक है।

उदाहरण के लिए कार और अन्य ऑटो व्हीकल निर्माता चालक की सहायता के लिए कार में लगने वाले सॉफ्टवेयर के लिए निविडिया चिप्स इस्तेमाल कर रहे हैं कार में लगे सेंसर से मिलने वाली सूचना का पलक झपकते ही विश्लेषण कर देते हैं। टेस्ला अपने सारे वाहनों में केवल निविडिया हार्डवेयर का इस्तेमाल करती है ।

गए बुधवार को निविडिया ने जो वित्तीय परिणाम जारी किए उसके मुताबिक़ अब इस कंपनी का बाज़ार पूँजीकारण यानि मार्केट कैपिटलाइज़ेशन तीन ट्रिलियन डॉलर हो चुका है और यह अमेरिकी बाज़ार में ऐपल को पीछे छोड़ कर दूसरी सबसे कंपनी बन गई है , नंबर वन माइक्रोसॉफ़्ट से अब यह कुछ ही पीछे रह गई है। यही नहीं पिछले बारह महीने में इसके शेयर की क़ीमत दुगनी हो चुकी है।

आइये अब जानते हैं इस कंपनी की सफलता के पीछे कौन है। जेनसेन हुआंग इस कंपनी के मुखिया हैं उन्होंने 1993 में एक मध्यम श्रेणी के रोड साइड रेस्टोरेंट डेनी’ज में अपने मित्र कर्टिस प्रियोम और क्रिस मालावोवस्की के साथ की थी। जेनसेन ताइवान से अमेरिका आये एक विस्थापित परिवार में जन्मे , शिक्षा ऑरेगन और स्टैनफ़ोर्ड में ली , प्रारंभ में चिप बनाने वाली कंपनी एएमडी में काम किया। मैंने हाल ही में उनका CNBC पर साक्षात्कार देखा जिसमें उन्होंने अपनी सफलता का श्रेय कौशल और भाग्य दोनों को दिया । उनकी बात बिलकुल सही है, क्योंकि 2020 तक तो चिप बनाने के मामले में इंटेल नंबर वन थी तभी करोना ने दस्तक दे दे , इस महामारी के कारण घरों से बैठ कर काम करना शुरू किया , रिमोट काम बढ़ा तो डेटा सेंटर की माँग अचानक बहुत बढ़ गई जो क्लाउड आधारित कंप्यूटिंग को दक्षता पूर्वक संचालित और नियंत्रित कर सकें , महामारी के चलते घर में बैठे लोगों के बीच वीडियो गेम की मांग भी खूब बढ़ी । इन के कारण GPU चिप्स की एक तरह से क्रांति हो गई , AI का प्रवेश घर घर में हो गया जिसके कारण निविडिया का व्यवसाय कई गुना बढ़ गया।

यही वो दौर था जब सिलिकान घाटी में बैठे महारथियों को लगा कि आगे की दुनिया AI की है उसके बग़ैर कंपनियों के कामकाज में क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं है। निविडिया ने उस ज़रूरत को समझा और AI के ज़रिए विशाल गणनन क्षमता को हैंडल करने वाली प्रक्रिया के लिए आधार प्रदान किया।

निविडिया मुख्यालय सेंटा क्लारा में है , इस छोटे से खूबसूरत शहर की आबादी मात्र एक लाख बीस हज़ार है , लेकिन यहाँ निविडिया केवल चिप के शोध और विकास का काम करती है , उत्पादन की पूरी प्रक्रिया ताइवान की सेमीकंडक्टर मैन्यूफ़ैक्चरिंग फ़ाउंड्री में संपन्न होती है।

(लेखक स्टेट बैंक के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं और इन दिनों अमरीका यात्रा पर हैं)