Monday, November 25, 2024
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लेखकों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से एक नई वेबसाइट “द स्क्रिप्ट क्राफ्ट”

प्रसिद्ध अभिनेता प्रभास ने लेखकों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से एक नई वेबसाइट “द स्क्रिप्ट क्राफ्ट”  https://www.thescriptcraft.com/ लॉन्च की है। यह वेबसाइट लेखकों को अपने कहानी विचारों को साझा करने और अपनी रचनात्मकता को दिखाने के लिए एक बेहतरीन मंच प्रदान करती है। प्रभास, जो कहानियों से गहरा लगाव रखते हैं, ने इस पहल का समर्थन किया है ताकि लेखकों को एक व्यापक दर्शकों तक पहुंचने का मौका मिल सके। इस बारे में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में यह जानकारी दी गई।

इस वेबसाइट https://www.thescriptcraft.com/ पर लेखक 250 शब्दों में अपनी कहानी का सारांश प्रस्तुत कर सकते हैं। इसके बाद, दर्शक इन प्रस्तुतियों को पढ़ सकते हैं और उन्हें रेट कर सकते हैं। सबसे अधिक रेटिंग पाने वाली कहानियां शीर्ष पर पहुंचेंगी। खास बात यह है कि फीडबैक सिस्टम में टिप्पणियों के बजाय रेटिंग पर जोर दिया गया है, जिससे लेखकों को एक सकारात्मक और प्रेरणादायक माहौल मिलता है और वे अपनी कहानियों पर आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं।

लॉन्च के अवसर पर, “द स्क्रिप्ट क्राफ्ट” https://www.thescriptcraft.com/ ने एक विशेष प्रतियोगिता भी शुरू की है जिसका नाम है “इमेजिन योर फेवरेट हीरो विद सुपरपावर्स!” इसमें लेखकों को 3,500 शब्दों तक की कहानी प्रस्तुत करने का मौका मिलता है, जिसमें वे एक हीरो को सुपरपावर के साथ कल्पना में उकेर सकते हैं। इस प्रतियोगिता में दर्शकों की प्रतिक्रिया के आधार पर एक लेखक को चुना जाएगा, जिसे एक असली प्रोजेक्ट में सहायक लेखक या सहायक निर्देशक के रूप में काम करने का मौका मिलेगा। यह एक अनूठा अनुभव होगा जो उभरते हुए लेखकों को अपनी प्रतिभा को निखारने का मौका देगा।

“द स्क्रिप्ट क्राफ्ट”  https://www.thescriptcraft.com/ में आगे चलकर ऑडियोबुक्स का फीचर जोड़ने की योजना है, जिससे लेखक अपनी कहानियों को ऑडियो अनुभव में बदल सकेंगे। इस विकास से लेखकों को ऐसे दर्शक भी मिल सकेंगे जो सुनने में अधिक रुचि रखते हैं और जो ऑडियो कहानियों को पसंद करते हैं।

प्रभास द्वारा समर्थित और थाला वैष्णव और प्रमोद उप्पलापति द्वारा स्थापित “द स्क्रिप्ट क्राफ्ट” नए लेखकों के लिए एक अद्भुत अवसर प्रस्तुत करता है, जहां वे अपनी रचनात्मकता को दुनिया के सामने ला सकते हैं और अपनी कहानी कहने की क्षमता को निखार सकते हैं।

भारतीय भाषाओं की जननी है प्राकृत भाषा

उदयपुर । भारत सरकार ने प्राचीन भाषा प्राकृत को शास्त्रीय (क्लासिकल) भाषा का दर्जा प्रदान करने की स्वीकृति प्रदान की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने गुरुवार को प्राकृत सहित पाँच भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिए जाने को स्वीकृति दी है। जैन समाज, प्राकृत प्रेमियों और प्राकृत सेवियों ने सरकार के इस निर्णय का अभिनंदन किया है।
श्रमण डॉ. पुष्पेन्द्र ने बताया कि जैन समाज और प्राकृत प्रेमी लंबे समय से प्राकृत को शास्त्रीय भाषा की मान्यता की मांग कर रहे थे। प्राकृत में शास्त्रीय भाषा की सारी विशेषताएँ पूरी तरह से विद्यमान हैं। जैन समाज में प्राकृत भाषा का शिक्षण और प्राकृत साहित्य का स्वाध्याय आम बात है, इससे जैन धर्म के विपुल साहित्यिक विरासत की सुरक्षा सुनिश्चित होगी क्यूँकि प्राकृत भाषा जैन संस्कृति की आधार स्तंभ है, प्राकृत भाषा जैनधर्म-दर्शन और आगम की मूल भाषा है। यही तो महावीर की वाणी है जो लोक भाषा प्राकृत में गुम्फित है. रचित है और प्रवाहित है। भारतीय भाषाओं की जननी है प्राकृत भाषा, क्यूँकि प्राकृत का इतिहास सर्वाधिक प्राचीन रहा है।
उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व छह भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल चुका था- तमिल, संस्कृत, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और ओडिया। अब प्राकृत के साथ ही पालि, असमिया, बांग्ला, मराठी मिलाकर कुल ग्यारह शास्त्रीय भाषाएं हो गई हैं। शास्त्रीय भाषाओं का एक लंबा इतिहास और समृद्ध, अद्वितीय और विशिष्ट साहित्यिक विरासत होती है। प्राकृत के प्रारंभिक ग्रंथ 2 हजार से ढाई हजार वर्ष प्राचीन हैं। इनमें भारत की सांस्कृतिक विरासत का खजाना है।
ज्ञातव्य हो कि 2022 में रोहतक (हरियाणा) में आयोजित प्रथम राष्ट्रीय प्राकृत संगोष्ठी में भी प्राकृत मनीषी डॉ. दिलीप धींग ने प्राकृत को शास्त्रीय भाषा की मान्यता का प्रस्ताव रखा था, जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था।
स्कूली शिक्षा में राजस्थान में लागू है प्राकृत भाषा-
उल्लेखनीय है कि माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान द्वारा कला संकाय के अंतर्गत पूर्व में संचालित प्राकृत भाषा वैकल्पिक विषय को शैक्षणिक सत्र 2023-24 से अतिरिक्त विषय के रूप में भी सम्मिलित करने का निर्णय किया है। बोर्ड सचिव मेघना चौधरी के आदेश के अनुसार कक्षा 11 एवं 12 में कला संकाय के अंतर्गत लिये जाने वाले तीन वैकल्पिक विषयों के साथ ही विद्यार्थी अब चौथे अतिरिक्त वैकल्पिक विषय के रूप में अध्ययन कर सकेंगे। स्कूली शिक्षा के स्तर पर प्राकृत भाषा को अतिरिक्त विषय के रूप में लागू करने वाला राजस्थान देश का प्रथम राज्य है।
प्राकृत भाषा सीखने से क्या लाभ होगा?
अंतरराष्ट्रीय प्राकृत शोध केन्द्र के पूर्व निदेशक डॉ दिलीप धींग अनुसार शोधकर्ताओं को अब प्राकृत में अध्ययन करने में सुगमता रहेगी क्यूँकि देश के किसी भी विश्वविद्यालय में अब प्राकृत भाषा का अध्ययन करवाया जाएगा जिससे प्राकृत जानने वालों की संख्या में इजाफा होगा. लोकतंत्र में सारी योजनाएं संख्या के आधार पर होती है और सरकार प्राकृत  के विकास पर और अधिक ध्यान देगी। तीर्थंकरों की वाणी प्राकृत सीखने से श्रद्धालु को ठीक से समझ पाएंगे. हमारी विरासत, आगम  ग्रंथों की ओर लोगों का ध्यान जाएगा. इनके अनुवाद और पठन-पाठन पर शोध-परक काम होगा।

शिव ने सती के शरीर को उठाकर किया विनाश का दिव्य तांडव नृत्य, बन गए 51 शक्तिपीठ

हिन्दू धर्म में देवी के 51 शक्ति पीठ हिंदुओं की देवी के प्रति गहन आस्था और विश्वास का प्रतीक हैं। भक्तगण पूरे वर्ष श्रद्धा के साथ इनके दर्शन करने जाते हैं। नवरात्रि के दिनों में भक्तों की अपार भीड़ एकत्रित होती हैं एवं धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। देवी के शक्तिपीठों के पीछे की प्रचलित कथा के अनुसार राज दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदंबिका ने जन्म लिया जिसका नाम सती रखा गया। सती ने बड़ी होकर भगवान शिव के साथ विवाह किया। कथानक के अनुसार दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया और इसमें भगवान शिव और अपनी पुत्री माता सती को छोड़ कर सभी देवताओं को आमंत्रित किया। माता सती ने यज्ञ में उपस्थित होने की अपनी इच्छा शिव के सामने व्यक्त की, जिन्होंने उसे रोकने के लिए अपनी पूरी कोशिश की परंतु माता सती यज्ञ में चली गई। यज्ञ के पहुंचने के पश्चात माता सती का स्वागत नहीं किया गया।
 इसके अलावा, दक्ष ने शिव का अपमान किया। माता सती  अपने पिता द्वारा अपमान भरे शब्दों को सुन न सकी और उन्होंने अपने शरीर का बलिदान दे दिया। यज्ञ में हुए अपने अपमान और माता सती के बलिदान से क्रोधित होकर भगवान शिव ने वीरभद्र अवतार में दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया।  दुख में डूबे शिव ने सती के शरीर को उठाकर  विनाश का दिव्य तांडव नृत्य किया। अन्य देवताओं ने विष्णु को इस विनाश को रोकने के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया, जिस पर विष्णु ने सुदर्शन चक्र का इस्तेमाल करते हुए माता सती के देह के 51 टुकड़े कर दिए। शरीर के विभिन्न हिस्सें भारतीय उपमहाद्वीप के कई स्थानों पर गिरे और वह शक्ति पीठों के रूप में स्थापित हुए।
देवी के शक्ति पीठों की संख्या देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में 26, शिवचरित्र में 51, दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। देवी पुराण के अनुसार 51 शक्तिपीठों की स्थापना की गयी है और यह सभी शक्तिपीठ बहुत पावन तीर्थ माने जाते हैं। वर्तमान में यह 51 शक्तिपीठ भारत, पाकिस्तान,  श्रीलंका और बांग्लादेश  के कई हिस्सों में स्थित है। भारत में 42 , बांग्लादेश में 4, नेपाल में 2, पाकिस्तान, श्रीलंका और तिब्बत में एक – एक शक्ति पीठ हैं।
 
भारत के शक्ति पीठ
1.जम्मू – कश्मीर में अमरनाथ गुफा महामाया शक्ति पीठ पहलगाव जिले में है जहां  माता का कंठ गिरा था।  महामाया का मंदिर लगभग 5000 हजार साल पुराना है। यहाँ माता को महामाया और भैरव को त्रिसंध्येश्वर कहते हैं। जम्मू और श्रीनगर सड़क के माध्यम से जुड़े हुए हैं।
 2.मां ज्वाला देवी मंदिर – कांगड़ा घाटी में माता ज्वालादेवी का मंदिर स्थित है। यहाँ माता को सिद्धिदा (अंबिका) और भैरव को उन्मत्त कहते हैं। यह हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी से 30 किमी और धर्मशाला से 60 किमी की दूरी पर है। यहां प्रज्वलित ज्वाला प्राकृतिक न होकर चमत्कारिक मानी जाती है। मन्दिर कारीगरी युक्त दर्शनीय है।
काली धर पर्वत की शांत तलहटी में बसे इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां देवी की कोई मूर्ति नहीं है ज्वालामुखी मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवों को जाता है। मान्यता  है कि यहां देवी सती की जीभ गिरी थी जहां पर पृथ्वी गर्भ से नौ अलग-अलग जगह से ज्वाला निकल रही थी जिसके ऊपर ही मंदिर बन गया है इन नौ ज्योतियां को महाकाली ,अंत पूर्णा , चंडी , हिंगलाज , विद्यावाहिनी ,महालक्ष्मी सस्वरस्वति , अंबिक , आजीदेवी के नाम से जाना जाता है।
3. नैना देवी -हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में  स्थित, नैना देवी शक्तिपीठ की अपार महत्ता है। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे ने से इसका नाम नैना देवी हो गया। देवी के मन्दिर  के र्गभ ग्रह में मुख्य तीन मूर्तियां हैं। दाई तरफ माता काली की, मध्य में नैना देवी की और बाई ओर भगवान गणेश की प्रतिमा है। मंदिर में पीपल का पेड़ मुख्य आकषर्ण का केन्द्र है जो कि अने क शताब्दी पुराना है। मंदिर के मुख्य द्वार के दाई ओर भगवान गणेश और हनुमान कि मूर्ति है।
मुख्य द्वार के पार करने के पश्चात दो शेर की प्रतिमाएं दिखाई देती हैं। शेर माता का वाहन माना जाता है। पास ही में पवित्र जल का तालाब है जो मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। मंदिर के समीप ही में एक गुफा है जिसे नैना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है। मन्दिर पहाड़ी पर समुद्र तल से 1100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। नैना देवी हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यहां पहुंचने के लिए चंडीगढ़ और पालमपुर तक रेल सुविधा है। इसके पश्चात बस, कार व अन्य वाहनो से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। चंडीगढ देश के सभी प्रमुख शहरो से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। वर्तमान मे उत्तर भारत की नौ देवी यात्रा मे नैना देवी का छटवां दर्शन होता है।
वैष्णो देवी से शुरू होने वाली नौ देवी यात्रा मे माँ चामुण्डा देवी, माँ वज्रेश्वरी देवी, माँ ज्वाला देवी, माँ चिंतपुरणी देवी, माँ नैना देवी, माँ मनसा देवी, माँ कालिका देवी, माँ शाकम्भरी देवी सहारनपुर आदि शामिल हैं।
4. कर्नाट शक्तिपीठ भी कांगड़ा में स्थित है। यहां सती के दोनों कान गिरे थे। यहां देवी को जय दुर्गा एवं शिव को अबिरू रूप में पूजा जाता हैं।
5 बिहार में जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट मिथिला में मिथिला शक्तिपीठ स्थित है। यहाँ माता का बायाँ स्कंध गिरा था। इस शक्तिपीठ में शक्ति को ‘उमा’ या ‘महादेवी’ और भैरव को महोदर कहते हैं।
6.बिहार से अलग हुए झारखंड के देवघर में जयदुर्गा शक्तिपीठ पार्वती मंदिर बैजनाथ धाम देवघर में स्थित है। देवघर में स्थित वैद्यनाथ धाम ज्योतिर्लिग के साथ जयदुर्गा शक्तिपीठ भी है। यहां सती का हृदय गिरा था, जिस कारण यह स्थान ‘हार्दपीठ’ से भी जाना जाता है। इसकी माता शक्ति है जयदुर्गा और शिव को वैद्यनाथ कहते हैं।
7.पंजाब के जालंधर में माता सती का शक्तिपीठ त्रिपुर मालिनी मां मंदिर है। यह मंदिर देवी तालाब मंदिर नाम से भी जाना जाता है। यहाँ मां सती का इस जगह बाया वक्ष(स्तन) गिरा था। जिसके बाद से मां यहां पर शक्ति ‘त्रिपुरमालिनी’ तथा भैरव ‘भीषण’ के रुप में विराजमान है।
8.हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित शक्तिपीठ श्री देविकूप भद्रकाली मंदिर को “सावित्री पीठ”, “देवी पीठ”, “कालिका पीठ” या “आदी पीठ” भी कहा जाता है। भद्रकाली मंदिर में माता सती के दाहिने घुटने गिर गए थे। महाभारत की लड़ाई से पहले, भगवान कृष्ण के साथ पांडवों ने यहां उनकी पूजा की और अपने रथों के घोड़ों को दान दिया। श्री देविकूप भद्रकाली मंदिर में श्रीकृष्ण और बलराम का मुंडन संस्कार भी किया गया था।
 9. उत्तर प्रदेश के इलाहबाद शहर के संगम तट पर माता की हाथ की अँगुली गिरी थी। यहाँ तीन मंदिरों को शक्तिपीठ माना जाता है और तीनों ही मंदिर प्रयाग शक्तिपीठ की शक्ति ‘ललिता’ के हैं। इस शक्तिपीठ को ललिता के नाम से भी जाना जाता हैं। 10.वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर विशालाक्षी मंदिर में स्थित है विशालाक्षी शक्तिपीठ। यहाँ पर देवी सती के कान के मणिजड़ीत कुंडल गिरे थे। इसलिए इस जगह को ‘मणिकर्णिका घाट’ कहते है। यहाँ देवी को विशालाक्षी मणिकर्णी और भैरव को काल भैरव रूप में पूजा जाता है।
11.वाराणसी में ही माँ वराही पंच सागर शक्तिपीठ स्थित है। इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है, लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति माता वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं। देवी वराही एक बोना का सिर है। वह अपने हाथ में एक चक्र, शंख, तलवार लिये रहती है।
12.चित्रकूट के पास रामगिरि स्थान पर रामगिरि शक्तिपीठ है। यहाँ माता का दायाँ स्तन गिरा था। यहाँ माता सती को शिवानी और भैरव को चंड कहते हैं। 13.मथुरा जिले के वृंदावन तहसील श्री उमा शक्ति पीठ स्थित है। इसे कात्यायनी शक्तिपीठ भी कहते है। इस पवित्र स्थान पर माता के बाल के गुच्छे और चूड़ामणि गिरे थे। यहाँ राधारानी ने भगवान श्रीकृष्ण को पाने के लिए पूजा की थी। यहाँ माता सती है उमा और भैरव को भूतेश कहते हैं।
14.राजस्थान में अजमेर से 11 किमी उत्तर-पश्चिम में विश्व प्रसिद्ध पुष्कर से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर गायत्री पहाड़ के पास स्थित मणिबंद शक्तिपीठ है। सती माँ की इस शक्तिपीठ को मणिदेविक मंदिर भी कहते हैं। इस जगह माँ सती के हाथ की कलाई गिरी थी। यह शक्तिपीठ मणिदेविका शक्तिपीठ और गायत्री मन्दिर के नाम से ज्यादा विख्यात है। यहाँ शक्ति माँ गायत्री और शिव भैरव् सर्वनंदा कहलाते हैं।
15.राजस्थान के भरतपुर में महाभारतकालीन विराट नगर के प्राचीन ध्वंसावशेष के निकट एक गुफ़ा है, जिसे भीम की गुफ़ा कहते हैं। यहीं के विराट ग्राम में माँ अंबिका शक्तिपीठ स्थित है। इस स्थान पर सती के दायें पाँव की उँगलियाँ गिरी थीं। यहाँ की सती अंबिका तथा शिव अमृतेश्वर हैं।
16.माता का हार गिरने के कारण कुछ मैहर (मध्य प्रदेश) के शारदा देवी मंदिर को शक्तिपीठ मानते हैं, तो कुछ चित्रकूट के शारदा मंदिर को शक्तिपीठ मानते हैं। ये दोनों ही स्थान तीर्थ माने गए हैं।
17.मध्यप्रदेश के अमरकंटक में शोन नदी के पास कालमाधव शक्तिपीठ स्थित है। यहाँ  माता का बायाँ नितंब गिरा था। यहाँ एक गुफा है। यहाँ शक्ति माँ को काली और भैरव को असितांग कहते हैं।
18.मध्यप्रदेश के अमरकण्टक में ही नर्मदा के उद्गम स्थल शोणदेश स्थान पर सती माता का दायाँ नितंब गिरा था। यहाँ माता सती “नर्मदा” या “शोणाक्षी” और भगवान शिव “भद्रसेन” कहलाते है।
 19.मध्यप्रदेश के उज्जैन में अवंती या भैरव पर्वत शक्तिपीठ  स्थित है। यहां पर सती के ऊपरी होंठ गिर गये थे। होंठ पतन के स्थान पर एक मंदिर का निर्माण किया गया था। यहां मां सती की प्रतिमा अवंती के रूप में और भगवान शिव लाम्बाकर्ण के रूप में पूजे जाते हैं।
20.गुजरात और राजस्थान की सीमा पर स्थित माउंट आबू से 45 किमी. की दूरी पर गुजरात में अंबा माता का प्राचीन शक्तिपीठ है। यहाँ मां सती का हृदय गिरा था। इसमें माता भवानी की कोई मूर्ति नहीं है, बल्कि यहां पर एक श्रीयंत्र स्थापित है। इस श्रीयंत्र को कुछ इस प्रकार सजाया जाता है कि देखने वाले को लगे कि मां अम्बे यहां साक्षात विराजी हैं। यह बहुत ही खूबसूरत मन्दिर है।
21.जूनागढ़ जिले में सोमनाथ मंदिर के प्रभास क्षेत्र में त्रिवेणी संगम के निकट चंद्रभागा शक्ति पीठ स्थित है। यहाँ माँ सती के शरीर का उदर/आमाशय गिरा था यहाँ सती माता को चंद्रभागा और भैरव को वक्रतुंड के रूप में जाना जाता है।
22.महाराष्ट्र के नासिक नगर स्थित गोदावरी नदी घाटी में जनस्थान शक्तिपीठ स्थित है। इस जनस्थान पर माता की ठोड़ी गिरी थी। यहां मां सती भ्रामरी और भैरव विकृताक्ष के रूप में पूजे जाते हैं।
23.उड़ीसा के उत्कल में ब्रह्मकुंड के समीप स्थित विरजा देवी का मंदिर है। यहाँ पर माता माता सती की नाभि गिरी थी। समग्र उत्कल ही सती का नाभिक्षेत्र है और इसे ही विरजाक्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र में विमला के नाम से महादेवी और जगन्नाथ के नाम से भैरव निवास करते हैं।
24.पश्चिमी बंगाल में सबसे ज्यादा शक्तिपीठ हैं। कोलकाता के कालीघाट में कालीघाट शक्तिपीठ स्थित है। मंदिर माता के बाएँ चरण का अँगूठा गिरा था। यहाँ शक्ति को कालिका और भैरव को नकुशील कहते हैं। इस पीठ में काली की भव्य प्रतिमा विराजित है, जिनकी लाल जीभ बहार निकली हुई है। जीभ से रक्त की कुछ बूंदे टपक रही हैं। देवी काली भगवान शिव की छाती पर पैर रखे हुए है। हाथ में कुल्हाड़ी तथा कुछ नरमुण्ड हैं। जनश्रुति के अनुसार देवी के गुस्से को शांत करने के लिए शिव उनके रास्ते में लेट गये। देवी ने गुस्से में उनकी छाती पर पैर रख दिया। जैसे ही उन्होंने भगवान शिव को पहचाना उनका गुस्सा शांत हो गया। मंदिर में त्रिनयना माता रक्तांबरा, मुण्डमालिनी एवं मुक्तकेशी भी विराजमान हैं। समीप ही नकुलेश का मंदिर भी है। बताया जाता है कि पुराने मंदिर के स्थान पर वर्तमान 1809 ई. में बनवाया गया था।
25.कोलकाता के हावड़ा से 145 किलोमीटर दूर वर्धमान जिले से 8 किमी दूर अजेय नदी के तट पर स्थित बाहुल शक्तिपीठ स्थापित है। यहाँ माता माता सती का बायां हाथ गिरा था। यहाँ की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं।
26.वर्धमान जिले के उज्जयनी नामक स्थान पर मांगल्य चंडिका मंदिर है। यहाँ माता की दायीं कलाई गिरी थी। यहाँ माता को मंगल चंद्रिका और भैरव को कपिलांबर कहते हैं।
27.वर्धमान जिले से लगभग 32 किलोमीटर दूर जुगाड्या (युगाद्या) स्थान पर शक्तिपीठ स्थित है। यहाँ शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री देवी ‘युगाद्या’ तथा भैरव ‘क्षीर कण्टक’ हैं। इस स्थान पर माता सती के दाहिने चरण का अँगूठा गिरा था। त्रेता युग में अहिरावण ने पाताल में जिस काली की उपासना की थी, वह युगाद्या ही थीं। अहिरावण की कैद से छुड़ाकर राम-लक्ष्मण को पाताल से लेकर लौटते हुए हनुमान देवी को भी अपने साथ लाए तथा क्षीरग्राम में उन्हें स्थापित किया।
28.पश्चिमी बंगाल के जलपाईगुड़ी के बोडा मंडल के सालबाढ़ी ग्राम स्थित त्रिस्रोत स्थान पर भ्रामरी शक्तिपीठ स्थित है। इस स्थान पर माता सती का बायाँ पैर गिरा था। यहाँ पर शक्ति है भ्रामरी और भैरव को अंबर और भैरवेश्वर कहते हैं।
29.मुर्शीदाबाद जिले के लालबाग कोर्ट रोड स्टेशन के पास स्थित देवी माता के इस स्थान को किरीट विमला और माता मुक्तेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है। इन्हें देवी भुवनेशी भी कहा जाता है। यहाँ माता सती का मुकुट गिरा था। किरीट का अर्थ ही सिर का आभूषण या मुकुट होता है। यहां देवी माता सती को विमला और भैरव को संवर्त्त कहते हैं।
30.बीरभूम जिले में बोलीपुर स्टेशन के 10 किमी उत्तर-पूर्व में कोप्पई नदी के तट पर देवगर्भा शक्तिपीठ स्थित है। इस स्थान पर माता की अस्थि गिरी थी। इस मंदिर में देवी माँ को स्थानीय रूप से कंकालेश्वरी के रूप में भी जाना जाता है। यहाँ शक्ति माँ को देवगर्भा और भैरव को रुरु कहते हैं।
31.पूर्वी मेदिनीपुर के पास तामलुक स्थित विभाष स्थान पर विभाष शक्तिपीठ स्थित है। यहाँ माता की बायीं एड़ी गिरी थी। यहाँ माँ सती कपालिनी और शिव भगवान शिवानन्द कहलाते है।
32.वीरभूम जिले के नलहाटी स्टेशन के निकट कालिका तारापीठ है। यहाँ माता के पैर की हड्डी गिरी थी। यहाँ शक्ति है कालिका देवी और भैरव को योगेश कहते हैं। एक अन्य मान्यता अनुसार तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता है।
33.वीरभूम जिले के दुबराजपुर स्टेशन से सात किमी दूर वक्रेश्वर में पापहर नदी के तट पर महिषमर्दिनी शक्तिपीठ स्थित है।  यहाँ माता का भ्रूमध्य (मनरू) गिरा था। इसकी माता शक्ति है महिषमर्दिनी और भैरव को वक्रनाथ कहते हैं।
34.वीरभूम जिले के सैंथिया रेलवे स्टेशन नंदीपुर स्थित चारदीवारी में बरगद के वृक्ष के समीप माता का गले का हार गिरा था। यही नंदीपुर शक्तिपीठ है। यहाँ माता शक्ति है नंदिनी और भैरव को नंदिकेश्वर कहते हैं।
35.लाबपुर ’(लामपुर) में अट्टाहास शक्तिपीठ स्थित है। इस स्थान पर माता का निचला ओष्ठ गिरा था। यहाँ माता सती ‘फुल्लरा’ तथा शिव ‘विस्वेश’ हैं।
36.असम के गुवाहाटी जिले में स्थित नीलांचल पर्वत के कामाख्या स्थान पर कामाख्या देवी मंदिर स्थित है।  यहाँ माता का योनि भाग गिरा था। यह सबसे पुराना शक्तिपीठ है जो कामाख्या देवी को समर्पित है। मंदिर के गर्भगृह में योनी के आकार का एक कुण्ड है जिसमें जल निकलता है। इसे योनी कुण्ड कहा जाता है। योनी कुण्ड लाल कपड़े व फूलों से ढ़का रहता है। मंदिर में प्रति वर्ष अम्बुबाची मेले का अयोजन किया जाता है। इस मेले में देशभर के तांत्रिक और अघोरी भाग लेते हैं। मान्यता है कि मेले के दौरान कामाख्या देवी रजस्वला होती है और इन तीन दिन में योनी कुण्ड से जल की जगह रक्त प्रवाह होता है। अम्बुबाची मेले को कामरूपों का कुम्भ भी कहा जाता है। कामाख्या देवी की पूजा दैनिक रूप से करने के साथ-साथ कुछ विशेष अवसरों पर भी आयोजित की जाती है। सितम्बर-अक्टूबर माह में दुर्गा पूजा, पौष माह में पोहन बिया पूजा (इस दौरान भगवान कमेश्वरा और कामेश्वरी की प्रतिकात्मक विवाह की पूजा), फाल्गुन माह में दुर्गाडियूल पूजा, चौत्र माह में बसन्ती पूजा एवं इसी माह मडानडियूल पूजा का आयोजन विशेष रूप से किया जाता है।
37.मेघालय की जयंती पहाड़ी पर जयंती शक्तिपीठ स्थापित है। यहां सती के वाम जंघ का नीपात हुआ था। भारत के पूर्वी भाग में मेघालय पर्वतीय राज्य है।
38.त्रिपुरा के अगरतला से 140 किमी की दूरी पर स्थित उदरपुर के निकट राधाकिशोरपुर गाँव में त्रिपुर सुंदरी शक्ति पीठ मंदिर है। यहाँ पर माता का दायाँ पैर गिरा था। यहाँ शक्ति को त्रिपुर सुंदरी और भैरव को त्रिपुरेश कहते हैं।
39.आंध्रप्रदेश के राजामुंद्री क्षेत्र स्थित गोदावरी नदी के तट पर  गोदावरीतीर  सर्वशैल शक्ति पीठ है। यहाँ कोटिलिंगेश्वर पर माता के गाल गिरे थे। गोदावरी शक्ति पीठ को सर्वशैल भी कहा जाता है। इस मंदिर में शक्ति को देवी विश्वेश्वरी और राकिनी के रूप पूजा जाता है और भैरव को वत्सनाभ और दण्डपाणि के रूप में पूजा जाता है।
40.आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर आदिशक्ति माता भ्रमराम्बा देवी शक्ति पीठ मंदिर है। इस स्थान पर दक्षिण गुल्फ अर्थात दाएँ पैर की एड़ी गिरी थी। यहाँ इस मंदिर में शक्ति को श्री सुंदरी के रूप में और भैरव को सुंदरानंद रूप में पूजा जाता है। दूसरी मान्यता के अनुसार कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र के पर्वत पर माता के दाएँ पैर की पायल गिरी थी। बावन शक्तिपीठों में से एक इस पवित्र धाम में सती माता की ग्रीवा (गला या गरदन) गिरी थी।
41.तमिलनाडु के कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग पर शुचितीर्थम शिव मंदिर में शुचि-नारायणी शक्तिपीठ है। यहाँ पर माता की ऊपरी दंत (ऊर्ध्वदंत) गिरे थे। यहाँ की माता शक्ति ‘नारायणी’ तथा भैरव ‘संहार या ‘संकूर’ हैं। महर्षि गौतम के शाप से इंद्र को यहीं मुक्ति मिली थी, वह शुचिता (पवित्रता) को प्राप्त हुए, इसीलिए इसका नाम शुचींद्रम पड़ा। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ हिन्दूओं के लिए प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। सुचीन्द्रम शक्ति पीठ को ठाँउमालयन या स्तानुमालय मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर सात मंजिला है जिसका सफेद गोपुरम काफी दूर से दिखाई देता है। मंदिर का प्रवेश द्वार लगभग 24 फीट उंचा है जिसके दरवाजे पर सुंदर नक्काशी की गई है।  मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं के लिए लगभग 30 मंदिर है जिसमें पवित्र स्थान में बड़ा लिंगम, आसन्न मंदिर में विष्णु की मूर्ति और उत्तरी गलियारे के पूर्वी छोर पर हनुमान की एक बड़ी मूर्ति है। यह मंदिर हिंदू धर्म के लगभग सभी देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ, मंदिर में बनी हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है।
42.कन्याकुमारी में कन्याआश्रम को कालिकशराम या कन्याकुमारी शक्ति पीठ के रूप में भी जाना जाता है। कन्याश्रम में माता की पीठ गिरी थी। इस शक्तिपीठ को सर्वाणी के नाम से जाना जाता है। यहाँ देवी को सर्वाणी और भैरव को निमिष कहते हैं।
भारतीय उप महाद्वीप के शक्तिपीठ
बांग्लादेश -43 (सुनंदा)  शक्तिपीठ -माँ सुगंध का शक्तिपीठ बांग्लादेश के शिकारपुर से 20 किमी दूर सुंगधा (सुनंदा) नदी के तट पर स्थित है। यहाँ माता सती की नासिका (नाक) गिरी थी। यहाँ देवी ‘सुनंदा’ और शिव ‘त्र्यम्बक’ हैं। भारत से जाने वाले लोगों को इस तीर्थ यात्रा के लिए वीजा प्राप्त करना होगा।
44.श्रीशैल शक्तिपीठ -बांग्लादेश के सिल्हैट जिले के उत्तर-पूर्व में जॉइनपुर गांव के पास शैल नामक स्थान पर श्रीशैल शक्तिपीठ है। यहाँ माता का गला (ग्रीवा) गिरा था। यहाँ शक्ति माँ महालक्ष्मी और भैरव को शम्बरानंद कहते हैं।
 45.करतोयातट- अपर्णा शक्तिपीठ- बांग्लादेश के शेरपुर बागुरा स्टेशन से 28 किमी दूर भवानीपुर गांव के पार करतोया की सदानीरा नदी के तट स्थान अपर्णा शक्तिपीठ है। यहाँ पर माता की पायल (तल्प) गिरी थी। इसकी शक्ति माता को अर्पण और भैरव को वामन कहते हैं। यहां पहले भैरवरूप शिव के दर्शन करें, फिर देवी का दर्शन करना चाहिए।
46.यशोर- यशोरेश्वरी शक्तिपीठ- बांग्लादेश के खुलना जिला के ईश्वरीपुर के यशोर स्थान पर यशोरेश्वरी शक्तिपीठस्थित है। इस स्थान पर माता के हाथ और पैर गिरे (पाणिपद्म) थे। इसकी शक्ति है यशोरेश्वरी और भैरव को चण्ड, शिव को चंद्र कहते हैं। यह बांग्लादेश का तीसरा सबसे प्रमुख शक्तिपीठ है।
47. गुह्येश्वरी शक्तिपीठ- गुह्येश्वरी मंदिर, काठमांडु, नेपाल में स्थित पशुपतिनाथ मंदिर के पास ही है। यहां सती के शरीर के दोनो घुटने गिरे थे। यहां देवी का नाम महाशिरा एवं भैरव हैं कपाली। इस मंदिर का नाम गुह्येश्वरी मंदिर भी है। यहां पहुंचने के लिए श्रद्धालु बस, ट्रेन और हवाई रास्ते द्वारा काठमांडू पहुंच सकते हैं।
48.गण्डकी शक्तिपीठ – नेपाल में गंडकी नदी के तट पर पोखरा नामक स्थान पर स्थित मुक्तिनाथ शक्तिपीठ स्थित है। यहाँ माता का मस्तक या गंडस्थल गिरा था। गण्डकी पीठ को मुक्तिदायिनी माना गया है। इस स्थल के मुक्तिनाथ भी बोला जाता है। यहाँ सती गण्डकी चंडी तथा शिव चक्रपाणि हैं। तिब्बत–49.मानसा-दाक्षायणी माता शक्तिपीठ -तिब्बत में स्थित मानसरोवर के पास माता का यह शक्तिपीठ स्थापित है। इसी जगह पर माता माता सती का दायाँ हाथ गिरा था, इसलिए यहां एक पाषाण शिला को उनका रूप मानकर पूजा जाता है। यहाँ दर्शन करने  लिए कैलाश मानसरोवर यात्रा में भाग लेना होता है।
श्रीलंका–50.इन्द्राक्षी शक्तिपीठ – श्रीलंका के ट्रिकोनेश्वरम मंदिर में शक्तिपीठ श्रीलंका में है। यहाँ माता सती की पायल गिरी थी। यहं माता सती को इंद्राक्षी और भैरव को राक्षसेश्वर कहते हैं। रावण और भगवान राम ने भी यहां पूजा की थी। इसे शंकरी देवी मंदिर भी कहते है। यहां शिव का मंदिर भी है, जिन्हें त्रिकोणेश्वर या कोणेश्वरम कहा जाता है।
 51.माता हिंगलाज शक्तिपीठ-माता सती का यह शक्तिपीठ पाकिस्तान के कब्जे वाले बलूचिस्तान में स्थित है। यहाँ माता का सिर गिरा था। सुरम्य पहाड़ियों की तलहटी में स्थित यह गुफा मंदिर इतना विशालकाय क्षेत्र है कि आप इसे देखते ही रह जाएंगे। यह मंदिर 2000 वर्ष पूर्व भी यहीं विद्यमान था। यहाँ माता को कोटरी (भैरवी-कोट्टवीशा) और भैरव को भीमलोचन कहते हैं। कराची से वार्षिक तीर्थ यात्रा अप्रैल के महीने में शुरू होती है। यहां वाहन द्वारा पहुंचने में लगभग 4 से 5 घंटे लगते हैं।
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल

आर्यन लेखिका मंच ने किया पत्रकारों का सम्मान

कोटा/ आर्यन लेखिका मंच कोटा द्वारा रविवार को एक निजी कोचिंग के सभागार में मासिक संगोष्ठी में कविता पाठ, कहानी सुनाओ, कहानी समीक्षा के साथ – साथ पत्रकारों का सम्मान किया। मंच की अध्यक्ष रेखा पंचोली ने कहा पत्रकार और साहित्यकार एक दूसरे के पूरक है। साहित्यकार अपने लेखन से जिस प्रकार समाज का आइना सामने लाते हैं वैसे ही पत्रकार भी समाज को आइना दिखाने और चेताने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।

कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, राजेश त्रिपाठी, दिनेश कुमार गौतम मामा, धनराज  टांक , भूपेंद्र शर्मा, दीपक शर्मा को सम्मानित किया गया। मुख्य अथिति  बीना जैन दीप, विशिष्ठ अथिति जितेन्द्र निर्मोही, सारिका मित्तल एवं डॉ.वीणा अग्रवाल ने अपने विचार व्यक्त किए।  विजय जोशी ने कहानी विधा पर अपने विचार व्यक्त किए। नहुष व्यास और महेश पंचोली आदि ने कविता पाठ किया। रेखा पंचोली आदि ने अपनी कहानी प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संचालन डॉ.अपर्णा पांडेय ने किया। श्यामा शर्मा, मंजु कुमारी रश्मि,  साधना शर्मा  अनुराधा शर्मा, डॉ.युगल सिंह आदि कई साहित्यकार मोजूद रहे।

किस्से स्वामीनारायण के :त्रिकोणिय खेतार जहां तीन-तीन दिव्य घटनाएं घटी

यह स्थान नारायण सरोवर के दक्षिण एक खेत के बाद है। यहां स्वामी नारायण के बचपन की तीन प्रमुख घटनाएं घटी थीं।

यह वह त्रिकोणीय खेत वाला स्थान है जहाँ घनश्याम ने पक्षियों को समाधि में भेजा था। वे घास के स्थान पर पेहटुल तोड़ने की लीला किए थे। इसी खेत में कड़वे पेहटुल का मीठा स्वाद भी किए थे। यह बहुत ही कल्याणकारी और दिव्य प्रसादी स्थल है। इस खेत से संबंधित तीन प्रमुख घटनाएं घटित हुई थी।

1.पक्षियों को समाधि में भेजना

चिड़ियों को अचेत कर समाधि में भेजकर खेत की रक्षा बाल प्रभु ने सम्वत 1845 सन 1789 ई. में किए थे। मां बाप के साथ वे अयोध्या से छपिया आए हुए थे। उन्हें शालिधान के फसल को घर लाना था। खेत की रखवाली घनश्याम को सौंपा गया था। वे बाल सखा के साथ खेल में गए और वहां मदमस्त हों जाते थे । खेत में दाना चुनने जो भी चिड़िया आती थी वह अचेत हो जाती थी। वह पारलौकिक आनन्द पाती थी।बाद में बाल प्रभु संकेत कर चिड़ियों को अचेतता दूर कर देते थे। वे विचित्र तरीके से खेत की रखवाली कर रहे थे। बाद में शालिधान की फसल खलिहाल में लाया गया। उसको साफ कर बैलगाड़ी में लाद कर परिवार के सभी अयोध्या चले आए।

2. खेत से घास के बजाय पेहटुल उखड़ना

इसी खेत में दयालु प्रभु घास के स्थान पर पेहटुल तोड़ने की लीला किए थे। एक बार बड़े भाई रामप्रताप अपने खेत में घास काटने गए थे। उनके साथ उनका छोटा भाई घनश्याम भी था। खेत में मक्का और पेहटुल साथ-साथ उगे थे। और इन दोनों के बीच उगी घास को निकालना था।

बड़े भाई को काम करते देख घनश्याम के मन में भी काम करने का विचार आया। इसलिए वह भी काम करने लगे। लेकिन घास निकालने की बजाय घनश्याम मक्का और पेहटुल उखाड़ रहे थे ।

यह देखकर बड़े भाई ने उसे डांटा, लेकिन घनश्याम को इसकी परवाह नहीं थी। बड़े भाई ने कहा,”ये क्या कर रहे हो?”

उन्होने जबाब दिया, “जीव हिंसा कम हो इसलिए यह कर रहा हूं।आप कहे थे पेहतुल से घास निकलना है। मैं तो घास मे से पेहतुल अलग कर रहा हूं। ये दोनों एक ही है।”

बड़े भाई ने उसे फिर से डांटा, लेकिन घनश्याम को इसकी परवाह नहीं थी। बड़े भाई को गुस्सा आ गया। उसने गुस्से में घनश्याम को मारने के लिए हाथ उठाया।

घनश्याम को बुरा लगा। वह भागकर घर में गया, छिपकर चरनी में घास के ढेर में छिप गया ताकि कोई उसे न पा सके। जब बड़ा भाई दोपहर को घर लौटा, तो भक्तिमाता ने उसे अकेला देखकर घनश्याम के बारे में पूछा।

 उसने कहा, “घनश्याम पहले ही घर आ चुका है।”

 “नहीं, अभी तक नहीं आया,” माँ ने कहा।

 बड़े भाई को अब आश्चर्य हुआ। उसने कहा, “मैंने जब उसे पीटना चाहा तो वह नाराज होकर कहीं भाग गया होगा।”

 घनश्याम की खोज शुरू हुई। उसके सभी गाँव के मित्रों से घनश्याम के बारे में पूछा गया। परन्तु किसी ने घनश्याम को नहीं देखा था।  नदी, तालाब,

मंदिर, इमली का पेड़ और आम का पेड़ जहाँ- जहाँ घनश्याम जाता था, वहाँ-वहाँ खोजा गया, परन्तु वह कहीं नहीं मिला। आस- पास के गाँवों में दूत भेजे गए। अन्त में वे निराश और असहाय हो गए।

भक्तिमाता की दुर्दशा की कोई सीमा नहीं थी। वह रोने लगी: “अरे प्यारे घनश्याम, मेरे बेटे घनश्याम, तुम कहाँ हो?”

माँ का विलाप घनश्याम सहन नहीं कर सका। उसने घास के ढेर से चिल्लाकर कहा, “मैं आ गया माँ।”

शीघ्र ही मौसी सुन्दरीबाई दौड़कर चरनी के पास गई और घनश्याम का हाथ पकड़कर उसे वापस ले आई। भक्तिमाता घनश्याम से लिपट गई।

 घनश्याम ने माँ की गोद में मुँह छिपाते हुए कहा, “माँ, मेरा बड़ा भाई मुझे खोज रहा था, मैं उसे देख रहा था।”

 घनश्याम ने अपने भाई को चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन भी कराया। बड़े भाई ने दोनों हाथ जोड़ कर बाल प्रभु से क्षमा मांगी थी।

 “कितना शरारती है मेरा बेटा घनश्याम!” माँ ने उसे अपने आंचल में छिपाते हुए कहा था।

3.कड़वा पेहटुल को मीठा बनाया

इसी खेत में कड़वे पेहटुल का मीठा स्वाद भी किए थे। वसराम तिवारी बालक घनश्याम के मामा थे। उन्होंने अपने खेत में पेहटुल लगाया था। पेहटुल पकते ही उन्हें उसे चखने की इच्छा हुई। इसलिए उन्होंने एक अच्छा पेहटुल चुनकर खाया। लेकिन जैसे ही उन्होंने पहला टुकड़ा मुंह में डाला, उन्हें थूकना पड़ा। पेहटुल बहुत कड़वा था।

वसराम भक्तिमाता के घर गए और कहा, “बहन, पेहटुल कड़वा होता है। अगर मीठा होता, तो मैं घनश्याम को खेत में ले जाकर खिलाता। उसे पेहटुल बहुत पसंद है न?”

 “घनश्याम के लिए पेहटुल कभी कड़वा नहीं हो सकता,” भक्तिमाता ने कहा।

 “लेकिन वे वास्तव में कड़वे हैं,” वसराम ने कहा। घनश्याम सरपट दौड़ता हुआ आया और बोला, “पेहटुल का फल कितना मीठा है!”

 वसराम ने पूछा, “कौन सा?” “वही जो मैं आपके खेत से लाया हूँ,” घनश्याम ने कहा, “इसे चखो।”

वसाराम ने उसे चखा और पाया कि वह बहुत मीठा है। “क्या यह मेरे खेत का है?” वसराम ने पूछा, “लेकिन मेरे खेत में तो सभी पेहटुल/ककड़ी के फल कड़वे होते हैं।”

 “नहीं, वे कड़वे नहीं हैं, वे बहुत मीठे हैं,” घनश्याम ने कहा, “चलो वहाँ चलते हैं और मैं तुम्हें दिखाता हूँ।”

वे खेत में गए। वसराम ने ककड़ी के दो से पाँच फल तोड़े और वे मीठे निकले, शहद की तरह मीठे। वह बहुत हैरान हुआ: “यह कैसे? कुछ ही समय में वे मीठे हो गए?”

घनश्याम ने कहा, “काक, यदि आप पहले भगवान का हिस्सा निकाल देते, तो सभी फल मीठे होते।”

इसलिए, ध्यान रखें, हर चीज में सबसे पहले भगवान का हिस्सा निकालना चाहिये। जहां भगवान का हिस्सा होगा, वह मीठा होगा और अगर भगवान का हिस्सा नहीं निकाला जाता है, तो वह चीज कड़वी होगी।

लेखक परिचय

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास   करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)

महादेव शिव मंदिर पतिजिया बुजुर्ग,दरियापुर, छपिया

छपिया रेलवे स्टेशन से पूरब पतिजिया बुजुर्ग नामक गांव स्थित है। यहां शंकर जी एक महत्त्व पूर्ण प्रसादी वाला मंदिर बना हुआ है। यहां धर्मपिता सपरिवार घनश्याम महाराज के साथ आते थे। उसी समय एक बार मंदिर के शिव लिंग से भोले नाथ प्रकट होकर घनश्याम महाराज से मिले थे और दोनों भगवान एक दूसरे को भेंट भी किए थे।

 यहां हर साल शिवरात्रि का बहुत बड़ा मेला लगता है। एक बार धर्म पिता सपरिवार घनश्याम महाराज के साथ यहां आये थे। उसी समय शंकर और पार्वती जी भी आपस में विचार करने लगे थे । हम लोगों के दर्शन हेतु साक्षात भगवान जी आए हैं। इसलिए हम लोग भी सामने प्रकट होकर उनसे चलकर मिलते हैं। यह विचार कर वे महाराज जी सामने मानव रूप में आए। अंतर्यामी महाप्रभु भोलेनाथ को पहचान गए। दोनों भगवान घनश्याम और भोलेनाथ एक दूसरे से गले मिले थे।

भोले नाथ बोलने लगे, “ आप हमारे दर्शन के लिए आए थे। आपका प्रेम देखकर हम भी आपके दर्शन करने के लिए आ गए हैं।”

 घनश्याम महाराज धर्म कुल तथा श्री शंकर पार्वती जी सभी लोग चलते हुए पतीलिया के इस पावन स्थल तक आ गए थे। फिर पतीलिया में शंकर पार्वती जी दोनों अदृश्य हो गए थे।

इसके बाद धर्म भक्ति और रिश्तेदार तथा घनश्याम के मित्र सभी ने मंदिर में जाकर दर्शन किए थे। मेला देखकर सब लोग छपिया वापस आ गए थे। इस महत्त्व वाला यह प्रसादी स्थल है। यहां दोनों के मिलन के प्रतीक चिन्ह के रुप में एक ओटो (छतरी)का निर्माण किया गया है। इसे ही प्रसादी स्थल कहा जाता है। इस शिव मंदिर को स्थानीय जनता बाबा पाटेश्वरनाथ के नाम से भी जनता है।

 लेखक परिचय

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास   करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)

स्वामीनारायण भगवान से जुड़े रोमांचक किस्सेः कालीदत्त का उद्धार स्थल छपिया

घनश्याम पाण्डेय@स्वामी नारायण महाराज के दूर के मामा अपने भांजे के आध्यात्मिक उत्सर्ग से प्रसन्न नहीं थे। वे उन्हें नीचा दिखाने और नुकसान पहुंचाने का किसी अवसर को हाथ से जाने नहीं देते थे। उन्होंने दो बार अपने भांजे को समाप्त करने का असफल प्रयास किया।

छठी के रात को प्रथम प्रयास

बालप्रभु के जन्म के छ्ठी के दिन काली दत्त राक्षस ने बाल प्रभु को मां से छीन कर गायब कर दिया था, तब हनुमान जी ने प्रभु की रक्षा की थी। आषाढ़ संवत 1837 चैत सुदी चौदस दिनांक 8 अप्रैल 1781 को छठी के अवसर पर धर्मभक्ति भवन छपिया में बाल प्रभु घनश्याम को गायब करने की घटना घटी हुई थी।

माता भक्ति बालक के जन्म के छठे दिन  अपने कर्तव्यों में इतनी व्यस्त थीं कि वे अपने बच्चे को खुद के गोद में नहीं ले सकीं थीं । यद्यपि वह उनके लिए उनकी आत्मा से भी अधिक प्रिय था। उन्होंने अन्य छोटे बच्चों को अपने बच्चे की देखभाल करने के लिए दे दिया था तथा अतिथि महिलाओं की यथायोग्य सेवा में लग गई थी ।

इस शुभ घड़ी में भीड़-भाड़ को देख कर कालीदत्त राक्षस ने अपने मंत्र से अभिमंत्रित पुतरियों को उत्पन्न किया था, जो बालक को उठा कर आकाश मार्ग से भागने लगी थी। इसे देख मां भक्ति देवी ने जब क्रंदन किया तो परिवार के सब लोग जाग गए थे। बाल प्रभु ने अपना भार इतना बढ़ा दिया कि पुतरियों ने बालक को ज़्यादा देर तक थाम ना सकीं उन्हें जमीन पर रखकर वहां से भागने लगीं थीं।

उसी समय प्रभु की इच्छा से हनुमान जी ने पुतरियों को ताड़ित करना शुरू कर दिया था। वे प्रभु की शक्ति समझ हनुमान जी से अपने प्राण की भिक्षा मांगने लगी थीं । कालीदत्त को उन पुतरियो ने बहुत फटकारा। जो अपनी जान बचाकर जंगल में छिप गया था। तभी हनुमान जी ने बाल प्रभु को जमीन से उठाकर मां की गोद में सुरक्षित लौटा दिया था। नरेचा में हनुमान जी का मन्दिर बना हुआ है।

मुण्डन वाले दिन द्वितीय प्रयास

ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि दिनांक 19 जून 1783 शुक्रवार धनिष्ठा नक्षत्र में बालप्रभु तीन माह 12 दिन के होने पर छपिया के नारायण सरोवर के तट पर चौलकरन (मुण्डन संस्कार) हुआ था। पिताजी ने एक अद्वितीय भोज का आयोजन किया था।

 अभी भोजन का कार्यक्रम चल रहा था। धर्मदेव अपने लोगों के साथ बैठे हुए थे। भक्ति माता सब लोगों के भोजन व्यवस्था में लगी हुई थी।

चंचल बच्चे दोपहर के भोजन के बाद जल्दी में भोजन करके घनश्याम महराज को लेकर सरोवर के किनारे खेलने चले गए थे। खेलते हुए वे बच्चे, अपने उस प्रिय बच्चे को साथ लेकर शाम के समय पास के नगर के बगीचे में गए। वहां आमों का बगीचा देखकर, पेड़ से गिरे पके आमों को खाकर वे बहुत प्रसन्न हुए।

वे एक वृक्ष के नीचे घनश्याम को रखा और जामुन की तलाश में और आगे बढ़ गए जो कलिदत्त का इलाका था।प्रभु का दूर का मामा कालीदत्त इस अवसर की ताक में बैठा था। वह प्रभु को ईर्ष्या और द्वेष बस मारना चाहता था। वह प्रभु को वृक्ष के नीचे जब पकड़ने गया तब प्रभु कालीदत्त को एक भयानक आग की तरह दिखाई दिये। वहां जाते ही वह जलने लगा। इसलिए वह अपने प्रयास में पीछे हट गया।

 वह अपने जादू और काली तंत्र कला का उपयोग करने का फैसला किया। वह अपने तंत्र के प्रयोग से आंधी और झंझावात फैलाया। वृक्ष और टहनियां टूट कर गिरने लगी।बिजली चमक रही थी। मूसलाधार भारी बारिश हो रही थी। कई पेड़ गिर गए। कई जीव-जंतु और पक्षी मर गए। चारों ओर घना अंधेरा छा गया था। कोई भी किसी का चेहरा नहीं देख सकता था।

कालीदत्त इस अवसर का लाभ उठाया। उसने ऐसी माया रची कि वह विशालकाय शरीर के साथ उस आम के वृक्ष पर गिर पड़ा जिसके नीचे घनश्याम बैठा था। वह आम का वृक्ष घनश्याम पर गिर पड़ा। आम का पेड़ कालीदत्त जैसा दुष्ट नहीं था। वृक्ष घनश्याम पर गिर पड़ा और उसे छतरी की तरह सुरक्षित ढक लिया।अब घनश्याम को तूफान और वर्षा से पूरी सुरक्षा मिल गई थी। कालीदत्त स्तब्ध रह गया। वह उसे पकड़ने के लिए फिर दौड़ा, जब उसने देखा कि घनश्याम जीवित है।

कालीदत्त प्रभु के समीप आ गया। मंद मुस्कान के साथ प्रभु ने तीव्र दृष्टिपात किया। जैसे ही उसकी नजर घनश्याम से मिली, वह भूत-प्रेत से ग्रस्त व्यक्ति की तरह इधर-उधर भागने लगा।असुर अपना मान भान खोकर वृक्ष से टकरा कर गिर गया। धरा कांपने लगी। उसके दोनों नेत्रों से खून की धारा निकलने लगी। वह मुख से भी खून की उल्टी करने लगा था । चक्रवात में गिर रहे एक वृक्ष के नीचे दबकर वह मर गया।

तूफान और वर्षा बंद हो गई। इस बीच माता-पिता अपने बच्चों की तलाश में बाहर आ गए। सभी माता-पिता लालटेन और मशालें लेकर बाहर आ गए। उन्होंने अपने बच्चों के नाम पुकारे।

धर्मदेव और भक्तिमाता भी घनश्याम की तलाश में बाहर आ गए थे। घनश्याम की बुआ सुन्दरीबाई, जो घनश्याम से बहुत प्रेम करती थीं, भी घनश्याम की खोज में निकली थीं। घनश्याम के सबसे बड़े भाई रामप्रतापभाई भी अपने छोटे भाई घनश्याम की खोज में निकले थे।

गाँव के अन्य बच्चे मिल गये, परन्तु घनश्याम नहीं दिखा। बच्चों ने अपने माता-पिता को बताया कि उन्होंने घनश्याम को आम के पेड़ के नीचे देखा था, और उसके बाद क्या हुआ, उन्हें नहीं मालूम।

यह सुनकर सुन्दरीबाई बहुत डर गयीं। वे दौड़कर आम के पेड़ के पास पहुँचीं। उन्होंने देखा कि बालक घनश्याम इस प्रकार खेल रहा था, मानो कुछ हुआ ही न हो। “हरि मिल गया। हरि मिल गया।” बुआ सुन्दरीबाई चिल्लायीं।

भक्तिमाता और अन्य लोग वहाँ दौड़े। बुआ सुन्दरीबाई ने बालक घनश्याम को उठाकर भक्तिमाता की गोद में दे दिया। माता की खुशी का ठिकाना न रहा।उन्होंने एक बहुमूल्य हार उतारकर सुन्दरीबाई को दे दिया। घनश्याम को पा लेने की खुशी से बढ़कर कोई चीज अनमोल नहीं है। कालीदत्त को मृतक तथा घनश्याम को मंद मुसकान बिखेरते सकुशल पा सभी गांव वासियों के खुशी का ठिकाना ना रहा। वे प्रभु को उठाकर अपने घर ले आए।

जिस स्थान पर काली दत्त गिरा वहां उसका स्मारक बना हुआ है।इस स्थान पर पहुंचने के लिए मेड़ों के सहारे लगभग 50 – 60 मीटर पैदल चलना पड़ता है। ना तो

ग्राम सभा और ना मन्दिर प्रशासन इस स्थल पर कोई सुरक्षित संपर्क मार्ग बना सके है। वहां पहुंचने पर गांव l बच्चे अवश्य घेर कर श्रद्धालुओं से दस बीस रूपए की मांग करने लगते हैं और बहुत मुश्किल से ये श्रद्धालुओं को छोड़ते हैं।

 

लेखक परिचय

 

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास   करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)

दिवाली पर लक्ष्मी पूजन का मुहुर्त पूजा सामग्री और पूजा विधि

दिवाली पर लक्ष्मी पूजन का विशेष महत्व होता है। कार्तिक कृष्ण पक्ष अमावस्या को धन प्रदात्री ‘महालक्ष्मी’ एवं धन के अधिपति ‘कुबेर’ का पूजन किया जाता है।

31 अक्टूबर को दीपावली पर पूजन का उत्तम मुहूर्त स्थिर लग्न वृषभ सायं 6:27 से रात 8:23 बजे तक है।

इस तरह घरों-प्रतिष्ठानों में श्रीसमृद्धि कामना से लक्ष्मी पूजन के लिए सायंकाल 1.57 घंटे का मुहूर्त है।

इसके बाद स्थिर लग्न सिंह मध्य रात्रि 12:53 बजे से भोर 3:09 बजे तक है।

कार्तिक अमावस्या तिथि इस बार 31 अक्टूबर व एक नवंबर दो दिन है।
अमावस्या 31 अक्टूबर को दोपहर 3:12 बजे लग रही जो एक नवंबर को शाम 5:13 बजे तक है।
एक नवंबर को सूर्यास्त सायं 5:32 बजे हो रहा।
अमावस्या सूर्यास्त से पूर्व 5:13 बजे खत्म हो रही है।
एक नवंबर को ही सायं 5:13 बजे के बाद प्रतिपदा लग जा रही है।
एक नवंबर को प्रदोष काल व निशीथकाल दोनों में कार्तिक अमावस्या न मिलने से 31 अक्टूबर को दीपावली मनाना शास्त्र सम्मत है।
लक्ष्मी पूजन के लिए 3 शुभ मुहूर्त (Lakshmi Puja 2024 Time)

प्रदोष काल में पूजा मुहूर्त:- 31 अक्टूबर 2024, शाम 05 बजकर 35 मिनट से रात 08 बजकर 11 मिनट तक.
वृषभ काल पूजा मुहूर्त:- 31 अक्टूबर 2024, शाम 06 बजकर 21 मिनट से रात 08 बजकर 17 मिनट तक.
निशिता काल पूजा मुहूर्त:- 31 अक्टूबर 2024, रात 11 बजकर 39 मिनट से देर रात 21 बजकर 31 मिनट तक

निर्णय सिंधुकार के अनुसार ‘पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा अभ्यंगस्नानादौ परा।’ ब्रह्म पुराण में भी कार्तिक अमावस्या को लक्ष्मी-कुबेर आदि का रात्रि में भ्रमण बताया गया है।
हमारे पौराणिक आख्यानों में इस पर्व को लेकर कई तरह की कथाएँ हैं। भारतीय परंपरा में हर पर्व और त्यौहार का संबंध प्रकृति की पूजा, हमारे सुखद जीवन, आयु, स्वास्थ्य, धन, ज्ञान, वैभव व समृद्धि की उत्तरोत्तर प्राप्ति से है। साथ ही मानव जीवन के दो प्रभाग धर्म और मोक्ष की भी प्राप्ति हेतु विभिन्न देवताओं के पूजन का उल्लेख है। आयु के बिना धन, यश, वैभव का कोई उपयोग ही नहीं है।


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सर्वप्रथम आयु वृद्धि एवं आरोग्य प्राप्ति की कामना की जाती है। इसके पश्चात तेज, बल और पुष्टि की कामना की जाती है। तत्पश्चात धन, ज्ञान व वैभव प्राप्ति की कामना की जाती है। विशेषकर आयु व आरोग्य की वृद्धि के साथ ही अन्य प्रभागों की प्राप्ति हेतु क्रमिक रूप से यह पर्व धन-त्रयोदशी (धन-तेरस), रूप चतुर्दशी (नरक-चौदस), कार्तिक अमावस्या (दीपावली- महालक्ष्मी, कुबेर पूजन), अन्नकूट (गो-पूजन), भाईदूज (यम द्वितीया) के रूप में पाँच दिन तक मनाया जाता है। धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, नया साल और भैयादूज या भाईदूज ये पाँच उत्सव पाँच विभिन्न सांस्कृतिक विचारधाराओं प्रतिनिधित्व करते हैं।

लक्ष्मी जी का स्थायी निवास अपने यहाँ बनाये रखने के लिये दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के लिये दिन के सबसे शुभ मुहूर्त समय को लिया जाता है।

इस साल दिवाली 31 दिसंबर को मनाई जा रही है। देश का राष्ट्रीय पंचांग तैयार करने वाले खगोल विज्ञान केंद्र, कोलकाता ने अपने कैलेंडर में दीपावली 31 अक्टूबर को ही बताई है। देश के अधिकतर हिस्सों में 31 अक्टूबर की रात ही लक्ष्मी पूजा की जाएगी। कुछ लोग 1 नवंबर को ये पर्व मनाएंगे।

हिन्दू पंचांग के अनुसार, 31 अक्टूबर, यानी गुरूवार को, कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्था तिथि दोपहर 2 बजकर 40 मिनट से लग रही है. इसका समापन 01 नवंबर को शाम 5 बजकर 13 मिनट पर होगा. उदयातिथि के अनुसार, क्योंकि 31 को सूर्यास्त के पहले ही अमावस्या तिथि शुरू हो रही है, इसलिए दीपावली 31 अक्टूबर को ही मनाई जाएगी. दीपावली के त्योहार पर रात्रि में अमावस्या तिथि होनी चाहिए, जो 1 नवंबर 2024 को शाम के समय में नहीं है.

दीवाली के दिन माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की विधि-विधान से पूजा की जाती है. इस बार लक्ष्मी पूजा का शुभ मुहूर्त 31 अक्टूबर 2024 को शाम 5 बजे से लेकर रात के 10 बजकर 30 मिनट तक है।

पूजन के लिए आवश्यक सामग्री :

धूप बत्ती (अगरबत्ती), चंदन , कपूर, केसर , यज्ञोपवीत 5 , कुंकु , चावल, अबीर, गुलाल, अभ्रक, हल्दी , सौभाग्य द्रव्य-मेहंदी, चूड़ी, काजल, पायजेब, बिछुड़ी आदि आभूषण। नाड़ा (लच्छा), रुई, रोली, सिंदूर, सुपारी, पान के पत्त , पुष्पमाला, कमलगट्टे, निया खड़ा (बगैर पिसा हुआ) , सप्तमृत्तिका, सप्तधान्य, कुशा व दूर्वा (कुश की घांस) , पंच मेवा , गंगाजल , शहद (मधु), शकर , घृत (शुद्ध घी) , दही, दूध, ऋतुफल, (गन्ना, सीताफल, सिंघाड़े और मौसम के फल जो भी उपलब्ध हो), नैवेद्य या मिष्ठान्न (घर की बनी मिठाई), इलायची (छोटी) , लौंग, मौली, इत्र की शीशी , तुलसी पत्र, सिंहासन (चौकी, आसन) , पंच-पल्लव (बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते), औषधि (जटामॉसी, शिलाजीत आदि) , लक्ष्मीजी का पाना (अथवा मूर्ति), गणेशजी की मूर्ति , सरस्वती का चित्र, चाँदी का सिक्का , लक्ष्मीजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र, गणेशजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र, अम्बिका को अर्पित करने हेतु वस्त्र, सफेद कपड़ा (कम से कम आधा मीटर), लाल कपड़ा (आधा मीटर), पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार), दीपक, बड़े दीपक के लिए तेल, ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा) , धान्य (चावल, गेहूँ) , लेखनी (कलम, पेन), बही-खाता, स्याही की दवात, तुला (तराजू) , पुष्प (लाल गुलाब एवं कमल) , एक नई थैली में हल्दी की गाँठ, खड़ा धनिया व दूर्वा, खील-बताशे, तांबे या मिट्टी का कलश और श्रीफल।

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कमलासना की पूजा से वैभव:

गृहस्थ को हमेशा कमलासन पर विराजित लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। देवीभागवत में कहा गया है कि कमलासना लक्ष्मी की आराधना से इंद्र ने देवाधिराज होने का गौरव प्राप्त किया था। इंद्र ने लक्ष्मी की आराधना ‘ú कमलवासिन्यै नम:’ मंत्र से की थी। यह मंत्र आज भी अचूक है।

दीपावली को अपने घर के ईशानकोण में कमलासन पर मिट्टी या चांदी की लक्ष्मी की प्रतिमा को विराजित कर, श्रीयंत्र के साथ यदि उक्त मंत्र से पूजन किया जाए और निरंतर जाप किया जाए तो चंचला लक्ष्मी स्थिर होती है। बचत आरंभ होती है और पदोन्नति मिलती है। साधक को अपने सिर पर बिल्व पत्र रखकर पंद्रह श्लोकों वाले श्रीसूक्त का जाप भी करना चाहिए।

लक्ष्मी पूजन

लक्ष्मी का लघु पूजन (सही उच्चारण हो सके, इस हेतु संधि-विच्छेद किया है।) महालक्ष्मी पूजनकर्ता स्नान करके कोरे अथवा धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहनें, माथे पर तिलक लगाएँ और शुभ मुहूर्त में पूजन शुरू करें। इस हेतु शुभ आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके पूजन करें। अपनी जानकारी हेतु पूजन शुरू करने के पूर्व प्रस्तुत पद्धति एक बार जरूर पढ़ लें।

पूजा सामग्री का शुध्दिकरण :

बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की अनामिका से निम्न मंत्र बोलते हुए अपने ऊपर एवं पूजन सामग्री पर जल छिड़कें-

ॐ अ-पवित्र-ह पवित्रो वा सर्व-अवस्थाम्‌ गतोअपि वा ।
य-ह स्मरेत्‌ पुण्डरी-काक्षम्‌ स बाह्य-अभ्यंतरह शुचि-हि ॥
पुन-ह पुण्डरी-काक्षम्‌ पुन-ह पुण्डरी-काक्षम्‌, पुन-ह पुण्डरी-काक्षम्‌ ।

आसन का शु्ध्दिकरण :
निम्न मंत्र से अपने आसन पर उपरोक्त तरह से जल छिड़कें-
ॐ पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वम्‌ विष्णु-ना घृता ।
त्वम्‌ च धारय माम्‌ देवि पवित्रम्‌ कुरु च-आसनम्‌ ॥

आचमन कैसे करें:

दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें-

ॐ केशवाय नम-ह स्वाहा,
ॐ नारायणाय नम-ह स्वाहा,
ॐ माधवाय नम-ह स्वाहा ।

अंत में इस मंत्र का उच्चारण कर हाथ धो लें-ॐ गोविन्दाय नम-ह हस्तम्‌ प्रक्षाल-यामि ।

दीपक :
दीपक प्रज्वलित करें (एवं हाथ धोकर) दीपक पर पुष्प एवं कुंकु से पूजन करें-
दीप देवि महादेवि शुभम्‌ भवतु मे सदा ।
यावत्‌-पूजा-समाप्ति-हि स्याता-वत्‌ प्रज्वल सु-स्थिरा-हा ॥
(पूजन कर प्रणाम करें)

स्वस्ति-वाचन :
निम्न मंगल मंत्र बोलें-
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा ।
स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥

द्-यौ-हौ शांति-हि अन्‌-तरिक्ष-गुम्‌ शान्‌-ति-हि पृथिवी शान्‌-ति-हि-आप-ह ।
शान्‌-ति-हि ओष-धय-ह शान्‌-ति-हि वनस्‌-पतय-ह शान्‌-ति-हि-विश्वे-देवा-हा

शान्‌-ति-हि ब्रह्म शान्‌-ति-हि सर्व(गुम्‌) शान्‌-ति-हि शान्‌-ति-हि एव शान्‌-ति-हि सा
मा शान्‌-ति-हि। यतो यत-ह समिहसे ततो नो अभयम्‌ कुरु ।
शम्‌-न्न-ह कुरु प्रजाभ्यो अभयम्‌ न-ह पशुभ्य-ह। सु-शान्‌-ति-हि-भवतु॥
ॐ सिद्धि बुद्धि सहिताय श्री मन्‌-महा-गण-अधिपतये नमः॥

(नोट : पूजन शुरू करने के पूर्व पूजन की समस्त सामग्री व्यवस्थित रूप से पूजा-स्थल पर रख लें। श्री महालक्ष्मी की मूर्ति एवं श्री गणेशजी की मूर्ति एक लकड़ी के पाटे पर कोरा लाल वस्त्र बिछाकर उस पर स्थापित करें। गणेश एवं अंबिका की मूर्ति के अभाव में दो सुपारियों को धोकर, पृथक-पृथक नाड़ा बाँधकर कुंकु लगाकर गणेशजी के भाव से पाटे पर रखें व उसके दाहिनी ओर अंबिका के भाव से दूसरी सुपारी स्थापना हेतु रखें।)

संकल्प :
अपने दाहिने हाथ में जल, पुष्प, अक्षत, द्रव्य आदि लेकर श्री महालक्ष्मीजी अन्य ज्ञात-अज्ञात देवीदेवताओं के पूजन का संकल्प करें-

हरिॐ तत्सत्‌ अद्यैत अस्य शुभ दीपावली बेलायाम्‌ मम महालक्ष्मी-प्रीत्यर्थम्‌ यथासंभव द्रव्यै-है यथाशक्ति उपचार द्वारा मम्‌ अस्मिन प्रचलित व्यापरे उत्तरोत्तर लाभार्थम्‌ च दीपावली महोत्सवे गणेश, महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, लेखनी कुबेरादि देवानाम्‌ पूजनम्‌ च करिष्ये।
( अब जल छोड़ दें।)

श्रीगणेश-अंबिका पूजन

हाथ में अक्षत व पुष्प लेकर श्रीगणेश एवं श्रीअंबिका का ध्यान करें।

धनतेरस पूजा मुहुर्त एवँ महत्त्व

माना जाता है कि इस दिन समुद्र मंथन के दौरान, अमृत का कलश लेकर धनवंतरी प्रकट हुए थे. तभी से इस दिन को धनतेरस के रूप में मनाया जाने लगा. धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, धनवंतरी के प्रकट होने के ठीक दो दिन बाद मां लक्ष्मी प्रकट हुईं थीं. यही कारण है कि हर बार दिवाली से दो दिन पहले ही धनतेरस मनाया जाता है. इस दिन स्वास्थ्य रक्षा के लिए धनवंतरी देव की उपासना की जाती है. इस दिन को कुबेर का दिन भी माना जाता है और धन संपन्नता के लिए कुबेर की पूजा की जाती है.

इस साल धनतेरस 29 अक्टूबर को मनाई जाएगी। कार्तिक मास कृष्णपक्ष तिथि प्रदोष (द्वादशी मिश्रित त्रियोदशी) धनतेरस 29 अक्टूबर 2024 दिन मंगलवार को है। धनतेरस के दिन त्रिपुष्कर योग बन रहा है जो इसे और भी शुभ बनाता है। त्रिपुष्कर योग 29 अक्टूबर 2024 दिन मंगलवार को प्रातः छह बजकर 27 मिनट से रात आठ बजकर छह मिनट तक रहेगा।  इस दिन स्थिर लग्न का शुभ मुहूर्त शाम 0642 से रात 0840 मिनट तक रहेगा। धनतेरस के दिन स्थिर लग्न का शुभ मुहूर्त का समय शाम 06:42 से रात 08:40 मिनट तक रहेगा।

धनतेरस का पर्व हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है. धनतेरस के दिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जनक भगवान धन्वंतरि के साथ माता लक्ष्मी और कुबेर देवता की पूजा अर्चना की जाती है।

 

धन्वंतरि देव का पौराणिक मंत्र
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:
अमृतकलश हस्ताय सर्व भयविनाशाय सर्व रोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप
श्री धन्वंतरि स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥

राशि के अनुसार धन तेरस पर सामान खरीदी का मुहुर्त
मेष – चांदी या तांबा के बर्तन, इलेक्ट्रॉनिक सामान
वृष – चांदी या तांबे के बर्तन
मिथुन – स्वर्ण आभूषण, स्टील के बर्तन, हरे रंग के घरेलू सामान, पर्दा
कर्क – चांदी के आभूषण, बर्तन
सिंह – तांबे के बर्तन, वस्त्र, सोना
कन्या -गणेश की मूर्ति, सोना या चांदी के आभूषण, कलश
तुला- वस्त्र, सौंदर्य या सजावट सामग्री, चांदी या स्टील के बर्तन
वृश्चिक – इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, सोने के आभूषण, बर्तन
धनु – स्वर्ण आभूषण, तांबे के बर्तन
मकर – वस्त्र, वाहन, चांदी के बर्तन
कुम्भ – सौंन्दर्य के सामान, स्वर्ण, ताम्र पात्र, जूता-चप्पल
मीन – स्वर्ण आभूषण, बर्तन


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दिवाली का खगोलीय महत्त्व

विदेशों में भी धूमधाम से मनाई जाती है दिवाली

राम की शक्ति पूजा

हिंदी कवियों की कलम से दीपपर्व का सौंदर्य

फिल्मी गीतों में दीपावली

मुस्लिम शायरों कि कलम से दिवाली का महत्त्व

मुस्लिम शायरों कि कलम से दिवाली का महत्त्व

मध्य युग से लेकर आज तक कई मुस्लिम कवियों ने भी दिवाली के इस रंगारंग त्यौहार पर अपनी कलम चलाई है और अपनी बेहतरीन शायरी से इस त्यौहार की महिमा का बखान किया है। हिन्दुओं के त्यौहारों पर नजीर अकबराबादी ने जिस मस्ती से कलम चलाई है उसका कोई सानी नहीं है। प्रस्तुत है कुछ शायरों द्वारा दीपावली को लेकर लिखी गई कुछ यादगार शायरी।

नजीर अकबराबादी

हर एक मकां में जला फिर दीया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा खुश लगा दिवाली का
अजब बहार का दिन है बना दिवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई
बताशे ले कोई, बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलौनेवालों की उनसे ज़्यादा बन आई
गोया उन्हीं के वां राज आ गया दिवाली का।

हर एक मौकों में जला फिर दिया दीवाली का।
हर एक तरफ को उजाला हुआ दीवाली का ।
सभी के दिल में समां भा गया दीवाली का ।
किसी के दिल में मजा खुश लगा दीवाली का।
अजब बहार का है दिन बना दीवाली का ।

दिवाली के मौके पर खील बताशे और खिलौनों के महत्व को नजीर ने कुछ इस तरह बयाँ किया है।

जहाँ में यारों अजब तरह का है यह त्योहार ।
किसी ने नकद लिया और कोई करे है उधार ।
खिलौने खीलों बताशों का गर्म है बाजार ।
हर एक दुकां में चिरागों की होरही है बहार ।
सभी को फिक्र अब जा बजा दीवाली का ।

कोई कहे है इस हाथी का बोलो क्या लोगे ।
ये दो जो घोड़े हैं इनका भी क्या भला लोगे ।
यह कहता है कि मियाँ जाओ बैठो क्या लोगे ।
टके को ले लो कोई चौधड़ा दीवाली का ।

दिवाली के मौके पर जुआ खेलने की आदत पर अफ़सोस जताते हुए नज़ीर लिखते हैं

मकान लीप के ठिलिया जो कोरी रखवाई।
जला चिराग को कोड़ी यह जल्द झंकाई।
असल जुंआरी थे उनमें तो जान सी आई।
खुशी से कूद उछलकर पुकारे और भाई
शगुन पहले करो तुम जरा दीवाली का।

किसी ने घर की हवेली गिरो रखा हारी ।
जो कुछ था जिन्स मयस्सर बना बना हारी
किसी ने चीज किसी की चुरा छुपा हारी
किसी ने गठरी पड़ोसिन की अपनी ला हारी
यह हार जीत का चर्चा पड़ा दीवाली

सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं
अल अहमद सुरूर

यह बामोदर’, यह चिरागां
यह कुमकुमों की कतार
सिपाहे-नूर सियाही से बरसरे पैकार।’
यह जर्द चेहरों पर सुर्खी फसुदा नज़रों में रंग
बुझे-बुझे-से दिलों को उजालती-सी उमंग।
यह इंबिसात का गाजा परी जमालों पर
सुनहरे ख्वाबों का साया हँसी ख़यालों पर।
यह लहर-लहर, यह रौनक,
यह हमहमा यह हयात
जगाए जैसे चमन को नसीमे-सुबह की बात।
गजब है लैलीए-शब का सिंगार आज की रात
निखर रही है उरुसे-बहार आज की रात।
हज़ारों साल के दुख-दर्द में नहाए हुए
हज़ारों आर्जुओं की चिता जलाए हुए।
खिज़ाँ नसीब बहारों के नाज उठाए हुए
शिकस्तों फतह के कितने फरेब खाए हुए।
इन आँधियों में बशर मुस्करा तो सकते हैं
सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं।

रात आई है यों दिवाली की
उमर अंसारी

रात आई है यों दिवाली की
जाग उट्ठी हो ज़िंदगी जैसे।
जगमगाता हुआ हर एक आँगन
मुस्कराती हुई कली जैसे।
यह दुकानें यह कूच-ओ-बाज़ार
दुलहनों-सी बनी-सजीं जैसे।
मन-ही-मन में यह मन की हर आशा
अपने मंदिर में मूर्ति जैसे।

बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
नाजिश प्रतापगढ़ी

बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
कदम-कदम पर हज़ारों दीये जलाते हैं।
हमारे उजड़े दरोबाम जगमगाते हैं
हमारे देश के इंसान जाग जाते हैं।
बरस-बरस पे सफीराने नूर आते हैं
बरस-बरस पे हम अपना सुराग पाते हैं।
बरस-बरस पे दुआ माँगते हैं तमसो मा
बरस-बरस पे उभरती है साजे-जीस्त की लय।
बस एक रोज़ ही कहते हैं ज्योतिर्गमय
बस एक रात हर एक सिम्त नूर रहता है।
सहर हुई तो हर इक बात भूल जाते हैं
फिर इसके बाद अँधेरों में झूल जाते हैं।

दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
महबूब राही

दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
हर सिम्त है पुरनूर चिरागों की कतारें।
सच्चाई हुई झूठ से जब बरसरे पैकार
अब जुल्म की गर्दन पे पड़ी अदल की तलवार।
नेकी की हुई जीत बुराई की हुई हार
उस जीत का यह जश्न है उस फतह का त्योहार।
हर कूचा व बाज़ार चिराग़ों से निखारे
दिवाली लिए आई उजालों की बहारें।