दो दिवसीय सम्मान और राष्ट्रीय बाल साहित्यकार समारोह नाथद्वारा में 5 एवं 6 जनवरी को
एचबीओ के संस्थापक चार्ल्स डोलन नहीं रहे
होम बॉक्स ऑफिस (HBO) और केबलविजन सिस्टम्स कॉर्प के संस्थापक चार्ल्स डोलन का 98 वर्ष की आयु में अमरीका में निधन हो गया। डोलन अपने अंतिम समय में अपने परिवार और प्रियजनों के बीच थे।
चार्ल्स डोलन को केबल टीवी की दुनिया में क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने 1972 में HBO की स्थापना की और 1973 में केबलविजन सिस्टम्स कॉर्प की शुरुआत की, जिसे उन्होंने अमेरिका की पांचवीं सबसे बड़ी केबल कंपनी बनाया। उनकी दूरदर्शी सोच और साहसिक फैसलों ने उन्हें इंडस्ट्री में अद्वितीय स्थान दिलाया। उन्होंने 1984 में अमेरिकन मूवी क्लासिक्स (AMC) और 24 घंटे का स्थानीय न्यूज चैनल न्यूज12 भी शुरू किया।
चार्ल्स डोलन अपने साहसिक फैसलों के लिए जाने जाते थे। उन्होंने न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन, नेशनल बास्केटबॉल एसोसिएशन की निक्स, और नेशनल हॉकी लीग की रेंजर्स जैसी प्रतिष्ठित संपत्तियों पर नियंत्रण हासिल कर अपने प्रतिस्पर्धियों को मात दी। 1995 में उन्होंने अपने बेटे जेम्स को केबलविजन का सीईओ बनाया, जबकि वह खुद चेयरमैन बने रहे।
चार्ल्स फ्रांसिस डोलन का जन्म 16 अक्टूबर 1926 को क्लीवलैंड, अमेरिका में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वह अमेरिकी एयरफोर्स में शामिल हुए। युद्ध के बाद उन्होंने जॉन कैरोल यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, जहां उनकी मुलाकात हेलेन बर्गेस से हुई और बाद में दोनों ने शादी कर ली। उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बजाय अपना व्यवसाय शुरू किया, जिसमें शुरुआती असफलताओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और नए बिजनेस आइडिया के साथ आगे बढ़ते रहे।
चार्ल्स डोलन ने अपने करियर में कई महत्वपूर्ण पहल कीं। 1965 में उन्होंने न्यूयॉर्क में पहली केबल फ्रेंचाइज़ी जीती। बाद में उन्होंने HBO पे-टीवी सर्विस को आगे बढ़ाया और लांग आइलैंड में केबल फ्रेंचाइज़ी खरीदी। 1980 में ब्रावो केबल-टीवी नेटवर्क की शुरुआत की और 1984 में AMC और मचम्यूजिक यूएसए जैसे नेटवर्क्स लाए।
डोलन का एक बड़ा परिवार है। उनकी पत्नी हेलेन और छह बच्चे – कैथलीन, मैरिएन, डेबोरा, थॉमस, पैट्रिक और जेम्स। पैट्रिक न्यूज12 नेटवर्क के चेयरमैन हैं और जेम्स मैडिसन स्क्वायर गार्डन कंपनी के चेयरमैन हैं।
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत वीडियो प्रोडक्शन और मार्केटिंग के क्षेत्र में की। शुरुआती दिनों में, डोलन ने ‘Sterling Communications’ नामक कंपनी बनाई, जो न्यूयॉर्क में केबल टेलीविजन सेवाएं प्रदान करती थी। 1971 में, डोलन ने “होम बॉक्स ऑफिस (HBO)” की स्थापना की। एचबीओ पहला ऐसा नेटवर्क बना जो सब्सक्रिप्शन बेस्ड सेवा प्रदान करता था। उन्होंने एक नई रणनीति अपनाई, जहां प्रीमियम कंटेंट जैसे फिल्में और स्पोर्ट्स इवेंट दर्शकों को सीधे उनके घरों तक पहुंचाए गए।
एचबीओ ने मनोरंजन के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों को छुआ और इसे टेलीविजन की दुनिया में सबसे प्रभावशाली नेटवर्क्स में से एक बना दिया। चार्ल्स डोलन ने यह साबित किया कि लोग विज्ञापनों से मुक्त प्रीमियम कंटेंट के लिए पैसा देने को तैयार हैं।
डोलन ने केवल एचबीओ ही नहीं, बल्कि कई अन्य मीडिया और केबल कंपनियों को भी स्थापित किया। उनकी कंपनी Cablevision अमेरिका की सबसे बड़ी केबल सेवा प्रदाताओं में से एक रही है। उनके परिवार ने न्यूयॉर्क के खेल और मनोरंजन उद्योग में भी बड़ा योगदान दिया है।
शृंगार रस के कवि पण्डित राम नारायण चतुर्वेदी
पंडित राम नारायण चतुर्वेदी का जन्म बैसाख कृष्ण 12, संवत् 1944 विक्रमी को उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर के हैसर बाजार-धनघटा नगर पंचायत के ग्राम सभा मलौली में हुआ था। यह क्षेत्र इस समय वार्ड नंबर 6 में आता है। जो पूरे नगर पंचायत क्षेत्र के बीचोबीच स्थित है। यह एक प्रसिद्ध चौराहा भी है जो राम जानकी रोड पर है । इनके पिता पंडित कृष्ण सेवक चतुर्वेदी जी थे। यह बस्ती मण्डल का एक उच्च कोटि का कवि कुल घराना रहा है। पंडित कृष्ण सेवक चतुर्वेदी के छः पुत्र थे – प्रभाकर प्रसाद, भास्कर प्रसाद, हर नारायण, श्री नारायण, सूर्य नारायण और राम नारायण। इनमें भास्कर प्रसाद , श्री नारायण और राम नारायण उच्च कोटि के छंदकार हो चुके हैं। पंडित राम नारायण जी का रंग परिषद में भी बड़ा आदर और सम्मान हुआ करता था। घनाक्षरी और सवैया छंदों की दीक्षा उन्हें रंगपाल जी से मिली थी। वे भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी श्री नारायण चतुर्वेदी और राम नारायण चतुर्वेदी के भाई थे। राम नारायण की शिक्षा घर पर ही हुई थी। इनके चार पुत्र बांके बिहारी, ब्रज बिहारी, वृन्दावन बिहारी और शारदा शरण थे। जिनमें ब्रज बिहारी ब्रजेश और शारदा शरण मौलिक अच्छे कवि रहे।
पंडित राम नारायण जी अंग्रेजी राज्य में असेसर (फौजदारी मामलों में जज / मजिस्ट्रेट को सलाह देने के लिए चुना गया व्यक्ति) के पद पर कार्य कर रहे थे। एक बार असेसर पद पर कार्य करते हुए उन्होंने ये छंद लिखा था जिस पर जज साहब बहुत खुश हुए थे –
दण्ड विना अपराधी बचें कोऊ,
दोष बड़ों न मनु स्मृति मानी।
दण्ड विना अपराध लहे कोऊ,
सो नृप को बड़ा दोष बखानी।
राम नारायण देत हैं राय,
असेसर हवै निर्भीक है बानी।
न्याय निधान सुजान सुने,
वह केस पुलिस की झूठी कहानी।।
ब्रज भाषा और शृंगार रस
कवि राम नारायण जी ब्रज भाषा के शृंगार रस के सिद्धस्थ कवि थे। सुदृढ़ पारिवारिक पृष्ठभूमि और रंगपाल जी का साहश्चर्य से उनमें काव्य कला की प्रतिभा खूब निखरी है। उनका अभीष्ट विषय राधा- कृष्ण के अलौकिक प्रेम को ही अंगीकार किया है। शृंगार की अनुपम छटा उन्मुक्त वातावरण में इस छंद में देखा जा सकता है। एक छंद द्रष्टव्य है –
कौन तू नवेली अलबेली है अकेली बाल,
फिरौ न सहेली संग है मतंग चलिया।
फूले मुख कंज मंजुता में मुख नैन कंज,
मानो सरकंज द्दव विराजे कंज कलिया।
करकंज कुचकंज कंजही चरण अरु
वरन सुकन्ज मंजु भूली कुंज अलियां।
तेरे तनु कंज पुंज मंजुल परागन के,
गंध ते निकुजन की महक उठी गालियां।।
घनाक्षरी का नाद-सौष्ठव
सुकवि राम नारायण की एक घनाक्षरी का नाद सौष्ठव इस छंद में देखा जा सकता है-
मंद मुस्काती मदमाती चली जाती कछु,
नूपुर बजाती पग झननि- झननि- झन ।
कर घट उर घट मुख ससीलट मंजु,
पटु का उडावै वायु सनन- सनन- सन।
आये श्याम बोले वाम बावरी तु बाबरी पै,
खोजत तुम्हें हैं हम बनन- बनन- बन।
पटग है झट गिरे घट-खट सीढ़िन पै,
शब्द भयो मंजु अति टनन-टनन- टन।।
वैद्यक शास्त्रज्ञ
सुकवि राम नारायण जी कविता के साथ साथ वैद्यक शास्त्र के भी ज्ञाता थे। उनके द्वारा रचित आवले की रसायन पर एक छंद इस प्रकार देखा जा सकता है –
एक प्रस्त आमले की गुठली निकल लीजै,
गूदा को सुखाय ताहि चूरन बनाइए।
वार एक बीस लाइ आमला सरस पुनि,
माटी के पात्र ढालि पुट करवाइए।
अन्त में सुखाद फेरि चुरन बनाई तासु,
सम सित घृत मधु असम मिलाइये।
चहत जवानी जो पै बहुरि बुढ़ापा माँहि,
दूध अनुपात सो रसायन को खाइये।।
ज्योतिष के मर्मज्ञ
सुकवि राम नारायण जी को कविता , वैद्यकशास्त्र के साथ साथ ज्योतिष पर भी पूरा कमांड था। उनके द्वारा रचित एक छंद नमूना स्वरूप देखा जा सकता है-
कर्क राशि चन्द्र गुरु लग्न में विराजमान,
रूप है अनूप काम कोटि को लजावती।
तुला के शनि सुख के समय बनवास दीन्हैं
रिपु राहु रावन से रिपुवो नसावाहि।
मकर के भौम नारि विरह कराये भूरि,
बुध शुक्र भाग्य धर्म भाग्य को बढ़ावहीं ।
मेष रवि राज योग रवि के समान तेज,
राम कवि राज जन्म पत्रिका प्रभावहीं।।
ब्रजभाषा की प्रधानता
इस परम्परागत कवि से तत्कालीन रईसी परम्परा में काव्य प्रेमी रीतिकालीन शृंगार रस की कविता को सुन-सुन कर आनंद लिया करते थे। कवि राम नारायण भोजपुरी क्षेत्र में जन्म लेने के बावजूद भी ब्रजभाषा में ही कविता किया करते थे। उनका रूप-सौंदर्य और नख-सिख वर्णन परंपरागत हुआ करता था। उन्होंने पर्याप्त छंद लिख रखें थे पर वे उसे संजो नहीं सके। कविवर ब्रजेश जी के अनुसार पंडित रामनारायण जी चैत कृष्ण नवमी सम्बत 2011 विक्रमी को अपना पंच भौतिक शरीर को छोड़े थे ।
बस्ती के छंदकार शोध ग्रन्थ के भाग 1 के पृष्ठ 122 से 126 पर स्मृतिशेष डॉक्टर मुनि लाल उपाध्याय ‘सरस’ जी ने पंडित राम नारायण जी के जीवन वृत्त और कविता कौशल पर विस्तार से चर्चा किया है।
लेखक परिचय
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)
प्राचीन भारतीय खेल साँप सीढ़ी
भारत मे ‘सांप सीढी’ और विश्व मे ‘स्नेक अँड लेडर्स’ इस नाम से प्रसिद्ध इस खेल की खोज भारत मे ही हुई है। इसका पहले का नाम ‘मोक्ष पट’ था. तेरहवी सदी मे संत ज्ञानेश्वर जी (वर्ष 1272 – वर्ष 1296) ने इस खेल का निर्माण किया।
ऐसा कहा जाता है की संत ज्ञानेश्वर और उनके बडे भाई संत निवृत्तीनाथ, भिक्षा मांगने के लिये जब जाते थे, तब घर मे उनके छोटे भाई सोपानदेव और बहन मुक्ताई के मनोरंजन के लिए, संत ज्ञानेश्वर जी ने यह खेल तैयार किया।
इस खेल के माध्यम से छोटे बच्चों पर अच्छे संस्कार होने चाहिए, उन्हे ‘क्या अच्छा, क्या बुरा’ यह अच्छी तरह से समझ मे आना चाहिए, यह इस मोक्षपट की कल्पना थी। सामान्य लोगों तक, सरल पध्दति से अध्यात्म की संकल्पना पहुंचे, इस हेतू से इस खेल की रचना की गई है।
साप यह दुर्गुणोंका और सीढी यह सद्गुणोंका प्रतीक माना गया। इन प्रतिकों के माध्यम से बच्चों पर संस्कार करने के लिए इस खेल का उपयोग किया जाता था।
प्रारंभ मे, मोक्षपट यह खेल 250 चौकोन के साथ खेला जाता था। बाद मे मोक्षपट का यह पट, 20×20 इंच के आकार मे आने लगा। इसमे पचास चौकोन थे। इस खेल के लिए 6 कौडीयां आवश्यक थी। यह खेल याने मनुष्य की जीवन यात्रा थी।
डेन्मार्क के प्रोफेसर जेकब ने ‘भारतीय संस्कृती परंपरा’ इस परियोजना के अंतर्गत मोक्षपट पर बहुत रिसर्च किया है। प्रोफेसर जेकब ने कोपनहेगन विश्वविद्यालय से ‘इंडोलॉजी’ इस विषय पर डॉक्टरेट की है। प्राचीन मोक्षपट इकठ्ठा करने के लिए उन्होने ने पूरे भारत का भ्रमण किया। अनेक मोक्षपट का उन्होने संग्रह किया। कुछ जगह पर इसी को ‘ज्ञानचोपड’ कहा जाता था। प्रोफेसर जेकब को प्रख्यात शोधकर्ता और मराठी साहित्यिक रा. चिं. ढेरे के पांडुलिपियों के संग्रह मे दो प्राचीन मोक्षपट मिले। इन मोक्षपट में 100 चौकोन थे। इसमे पहला घर जन्म का और अंतिम घर मोक्ष का होता था। इसमे 12 वा चौकोन यह विश्वास का या आस्था का होता था। 51वां घर विश्वसनीयता का, 57 वा शौर्य का, 76 वा ज्ञान का और 78वा चौकोन तपस्या का होता था। इनमे से किसी भी चौकोन मे पहुंचने वाले खिलाडी को सीढी मिलती थी, और वह खिलाडी उपर चढता था।
इसी प्रकार सांप जिस चौकोन मे रहते थे, वह चौकोन दुर्गुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। 44 वा चौकोन अहंकार का, 49 वा चौकोन चंचलता का, 58 वा चौकोन झूठ बोलने का, 84 वा चौकोन क्रोध के लिए और 99 वा चौकोन वासना का रहता था। इन चौकोनो मे जो खिलाडी आते थे, उनका पतन निश्चित था।
भारत में रामदासी मोक्षपट, वारकरी मोक्षपट, (ज्ञानेश्वर जी का मोक्षपट, गुलाबराव महाराज का मोक्षपट) आदी प्रचलित थे. रामदासी मोक्षपट मे 38 सीढीयां और 53 सांप थे। समर्थ रामदासजीने राम कथा को संस्कार रूप से बच्चों तक पहुंचाने के लिए इसका उपयोग किया।
1892 मे यह खेल इंग्लंड मे गया। वहां से युरोप में ‘स्नॅक अँड लेडर्स’ इस नाम से लोकप्रिय हुआ। अमेरिका मे यह खेल, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, वर्ष 1943 मे पहुंचा। वहां इसे ‘शूट अँड लैडर्स’ कहते है।
ताश
सामान्यतः यह माना जाता है की, दुनिया मे बडे पैमाने पर खेले जाने वाले पत्तों के (ताश / कार्ड) खेल का उद्गम, नवमी सदी मे चीन मे हुआ है। गुगल, विकिपीडिया सब जगह यही उत्तर मिलता है। लेकिन यह सच नही है। भारत में प्राचीन काल से पत्तों का खेल खेला जा रहा है। केवल इसका नाम अलग था. इसका नाम था ‘क्रीडापत्रम’..!
भारत मे जो मौखिक / वाचिक इतिहास चलता आ रहा है, उसके अनुसार साधारणतः देढ हजार वर्ष पूर्व, भारत मे राजे रजवाडो मे, उनके राज प्रासादोंमे ‘क्रीडापत्रम’ यह खेल खेला जाता था।
‘A Philomath’s Journal’ के 30 नवंबर 2015 के अंक मे एक लेख आया है – ‘Popular Games and Sports that Originated in Ancient India’। इस लंबे-चौड़े लेख मे ठोस रूप से यह बताया गया है कि, ‘क्रीडापत्रम’ इस नाम से पत्तों का खेल, भारत मे बहुत पहले से था। इस का अर्थ है, ‘भारत ही पत्तों के (ताश के) खेल का उद्गम देश है’।
मुगल कालीन इतिहासकार अबुल फजल ने इस खेल के संबंध में जो जानकारी लिखकर रखी है, उसके अनुसार पत्तों का यह खेल भारतीय ऋषीओंने बनाया है। उन्होने 12 यह आकडा रखा। हर पैक मे बारा पत्ते रहते थे। राजा और उसके 11 सहयोगी, ऐसे 12 सेट. अर्थात 144 पत्ते। लेकिन आगे चलकर मुगलो ने जब इस खेल को ‘गंजीफा’ के रूप मे स्वीकार किया, तब उन्होने 12 आंकडा तो वैसा ही रखा, लेकिन ऐसे 12 पत्तों के आठ सेट तैयार किये। अर्थात गंजीफा खेल के कुल पत्ते हुए 96।
मुगलों के पहले के जो ‘क्रीडापत्रम’ मिले है, वे अष्टदिशाओं के प्रतीक के रूप मे आठ सेटो मे थे। कही – कही 9 सेट थे, जो नवग्रहों का प्रतिनिधित्व करते थे। श्री विष्णू के दस अवतारों के प्रतीक के रूप मे 12 पत्तों के दस सेट भी खेल मे दिखते है। मुगल पूर्व काल के सबसे अधिक पत्तों के सेट, ओरिसा मे मिले है।
पहले के यह पत्ते गोल आकार मे रहते थे। राज दरबार के नामांकित चित्रकार उस पर नक्काशी करते थे। ये सब पत्ते हाथों से तैयार किये हुए, परंपरागत शैली मे होते थे।
शतरंज, लूडो, साप सीढी, पत्ते (ताश) यह सब बैठकर खेलने वाले खेल है. अंग्रेजी में इसे ‘बोर्ड गेम’ या ‘इनडोअर गेम’ कहा जाता है. विश्व में यह खेल सभी आयु के लोगों मे प्रिय है। हमारे लिए गर्व की बात है कि, ये सब खेल भारत ने दुनिया को दिये हैं..!
(क्रमशः)
– प्रशांत पोळ – जाने माने लेखक हैं और भारत के ऐतिहासिक, राजनीतिक व साँस्कृतिक इतिहास पर शोधपूर्ण लेखन करते हैं, इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है)
…और जतिन बन गया राजेश खन्ना
कश्मीरी पंडितों का पर्व ‘खेचरी-मावस’
कश्मीरी पंडितों के लिए कई त्यौहार और पूजा-अनुष्ठान विशिष्ट हैं, जिनमें से कुछ प्राचीन काल से चले आ रहे हैं।ऐसा ही एक विशिष्ट कश्मीरी त्यौहार ‘खेचरी-मावस’ या यक्ष-अमावस्या है जो पौष (दिसंबर-जनवरी) के कृष्णपक्ष की अमावस्या के दिन मनाया जाता है । प्रागैतिहासिक कश्मीर में विभिन्न जातियों और जातीय समूहों के एक साथ रहने और सह-मिलन की स्मृति में, इस दिन कुबेर को बलि के रूप में खिचड़ी चढ़ाई जाती है जो दर्शाता है कि यक्ष का पंथ बहुत पहले से ही कश्मीर में मौजूद था। खेचरी-मावास एक लोक-धार्मिक त्यौहार प्रतीत होता है। इस शाम एक मूसल या कोई भी पत्थर (अगर मूसल उपलब्ध न हो) तो उसे धोकर चंदन और सिंदूर से अभिषेक किया जाता है और इसे कुबेर की छवि मानकर पूजा की जाती है। खिचड़ी के नैवेद्य को मंत्रों के साथ कुबेर को अर्पित किया जाता है और इसका एक हिस्सा पूजक द्वारा अपने घर की बाहरी दीवार पर इस विश्वास के साथ रखा जाता है कि यक्ष इसे खाने आएंगे।
खेचरी-मावास न केवल कश्मीरी पंडितों के धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है, बल्कि इसमें कश्मीर के पौराणिक इतिहास का भी समावेश है। यह पर्व यक्षों के ऐतिहासिक अस्तित्व को प्रमाणित और स्थापित करता है। यक्ष कश्मीर के प्राचीन मूल निवासियों में से एक जनजाति थे, जो हिमालय के ऊपरी पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे। उनका विस्तार वर्तमान उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश से लेकर कश्मीर तक था। हिंदू शास्त्रों ने यक्षों को गंधर्वों, किन्नरों, किरातों और राक्षसों के साथ अर्ध देवताओं का दर्जा दिया है। यक्ष भी कश्मीरी हिंदुओं की तरह देवों के देव महादेव भगवान शिव के कट्टर उपासक थे। यक्षपति भगवान कुबेर भगवान शिव के घनिष्ठ मित्र भी माने जाते हैं। भगवान कुबेर धन के स्वामी हैं और पौराणिक नगर अलकापुरी में निवास करते हैं, जो पर्वत मेरु की एक शाखा पर स्थित है। पर्वत मेरु भगवान शिव का निवास स्थान है। यक्षों के राजा भगवान कुबेर को धनपति, नर-राजा, राज-राजा और रक्षेंद्र भी कहा जाता है। वे सोने, चांदी, हीरे और अन्य बहुमूल्य रत्नों के स्वामी हैं। इसके अतिरिक्त वे उत्तर दिशा के अधिष्ठाता देवता भी माने जाते हैं। उनके भक्त और प्रजाजन, जिन्हें यक्ष/पिशाच कहा जाता है, असाधारण शक्तियों के धनी माने जाते हैं। प्राचीन समय में, यक्ष कश्मीर के विशाल पर्वत श्रृंखलाओं में निवास करते थे और शीतकालीन महीनों में कश्मीर की घाटियों में उतरते थे। कश्मीर के नाग निवासियों द्वारा उनका आतिथ्य खिचड़ी जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों से किया जाता था।
जैसा कि कहा गया है खिचड़ी-अमावस्या की संध्या पर चावल, हल्दी और मूंग दाल मिलाकर खिचड़ी पकाई जाती है। यह खिचड़ी कभी-कभी मांस या पनीर के साथ भी तैयार की जाती है, जो परिवार की रीत पर निर्भर करती है। खिचड़ी को श्रद्धा के साथ तैयार किया जाता है और इसे ताजे मिट्टी के पात्र (टोक), घास से बनी गोल आकृति (अरी) या थाली पर रखा जाता है, यह भी परिवार की रीति पर निर्भर करता है। इसके बगल में एक मूसल (काजवठ) को घास से बनी गोलाकार/आरी पर सीधा खड़ा करके रखा जाता है। इसे तिलक लगाया जाता है और फिर पूजा की जाती है। इसके बाद खिचड़ी का एक भाग घर की आंगन की दीवार पर रखा जाता है।
इसके पश्चात इसे मूली और गांठ गोभी के अचार के साथ नैवेद्य के रूप में ग्रहण किया जाता है। मूसल भगवान कुबेर और उनके भक्त यक्षों के पर्वतीय निवास का प्रतिनिधित्व करता है। यक्षों की ऐतिहासिक उपस्थिति को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के मध्य और उत्तरी जिलों में उनके नाम पर बसे गांवों द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है। यहां तक कि श्रीनगर में भी यक्षों के नाम पर आधारित एक बस्ती है, जिसे “यछपोरा” कहा जाता है, जो पुराने शहर में स्थित है।
विस्थापन के बाद भी जो कश्मीरी पंडित जहाँ पर भी बसे हैं, अपने प्राचीन सभी त्योहारों को श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं क्योंकि ये धार्मिक अनुष्ठान उनकी गहरी और अटूट आस्था को व्यक्त करते हैं। खिचड़ी अमावस्या भी इन्हीं में से एक है।
पाठविधि के कारण वेद में मिलावट संभव ही नहीं
वेदों की रक्षा के लिए जिस विधि का विधान किया गया, वह अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि कहलाती है। इस प्रयास के कारण ही वेद वर्तमान में अविकल रूप में उपलब्ध हैं और उसमें एक अक्षर की भी मिलावट करना संभव नहीं हो सका। इस अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि में वेद के प्रत्येक पद का उच्चारण अनुलोम तथा विलोम विधि से किया जाता है, जिससे उसके रूपज्ञान में किसी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं रहती है।
सभी विद्याओं का मूल वेद है। इसमें संसार के आदिकाल में ईश्वर ने मनुष्यों को जीवन जीने की कला की उपदेश दी है। hindu dharm ved भारत देश की चेतना है। हमारे प्राणों की ऊर्जा है। वेद हमारा सर्वस्व है। भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में वेदों को वही स्थान प्राप्त है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मारहित शरीर शव होती है, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति से वेद को अलग कर देने पर यह संस्कृति प्राणविहीन होकर निर्जीव हो जाती है। जब कभी मनुष्य भयंकर विपत्ति में होता है, और उसे ऐसा प्रतीत होता है कि अब शायद कुछ भी न बचे, उस समय वह जिसको सबसे अधिक चाहता है, उसकी रक्षा करने का भरसक यत्न भी करता है। ऐसा ही हमारे देश के इतिहास में हुआ।
भारतीय संस्कृति पर विदेशी आक्रांताओं का संकट
महाभारतयुद्ध के पश्चात एक ऐसा समय आया, जब लगता था कि मानो हमारे देश से वीरता रूठ गई हो। इस काल में देश को रौंदते हुए अनेक विदेशी आततायी आक्रांता आए, और हम भारतीय असहाय होकर उनके दमन चक्र को सहते रहे। देश में आए आक्रांता ऐसे क्रूर और निर्दयी स्वभाव के थे कि अपने मार्ग में आने वाले सभी वस्तुओं को आग के हवाले कर दिया। इस हमले में न जाने कितने भारतीय साहित्य आग की भेंट चढ़ गए, जो आज प्राप्य नहीं हैं।
वैदिक विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 101, सामवेद की 1000और अथर्ववेद की 9 शाखाएँ हुआ करती थीं। इनमें से बहुत थोड़ी-सी शाखाएं आज प्राप्य हैं, शेष उन दुष्टों के क्रोध का शिकार होकर विलुप्त हो गई हैं। यह सब सिर्फ संपति को लूटने की हवश नहीं थी, बल्कि यह भारतीय सभ्यता- संस्कृति को समाप्त करने का एक कुटिल और भयानक षड्यन्त्र था। जिस प्रकार अरब और यूनान की सभ्यताएं समाप्त हो गयीं, उनका नाम लेने वाला भी आज कोई नहीं है, उसी प्रकार इस देश की अस्मिता और अस्तित्व को कुचलने का नहीं, जड़ से उन्मूलन करने का प्रयास विदेशियों द्वारा किया जा रहा था। hindu dharm ved
उस समय इस देश के मनस्वी विद्वानों अर्थात ब्राह्मणों ने अपना जीवन नहीं वरन पीढ़ियों के जीवन को इस वेदज्ञान राशि की रक्षा में अर्पित कर दिया। यह एक ऐसा अभिनव प्रयास था, जिसकी समता विश्वसाहित्य की रक्षा में किसी अन्य प्रयास से नहीं की जा सकती। यह उत्सर्ग सीमा पर कठोर यन्त्रणाएं सहकर प्राण विसर्जन करने वाले वीरों की बलिदान गाथा से कहीं बढ़कर है। hindu dharm ved
वेदपाठ की अष्टविकृतियुक्त विधि और उसका महत्व
वेदों की रक्षा के लिए जिस विधि का विधान किया गया, वह अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि कहलाती है। इस प्रयास के कारण ही hindu dharm ved वर्तमान में अविकल रूप में उपलब्ध हैं और उसमें एक अक्षर की भी मिलावट करना संभव नहीं हो सका। इस अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि में वेद के प्रत्येक पद का उच्चारण अनुलोम तथा विलोम विधि से किया जाता है, जिससे उसके रूपज्ञान में किसी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं रहती है। शैशिरीय समाम्नाय में महर्षि व्याडि ने जटा आदि आठ विकृतियों के लक्षण बतलाये हैं-
शैशिरीये समाम्नाये व्याडिनैव महर्षिणा।
जटाद्या विकृतीरष्टौ लक्ष्यन्ते नातिविस्तरम्।।
जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः।
अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः त्रमपूर्वा महर्षिभिः।।- शैशिरीय समाम्नाय 1, 2।।
क्रम पाठपूर्वक महर्षियों ने आठ जटा आदि विकृतियाँ के लक्षण प्रतिपादित किए हैं- जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दण्ड, रथ, घन। मंत्रों का प्रकृत उपलब्ध पाठ संहितापाठ कहलाता है। पाणिनीय सूत्र 1/4/109 में संहिता का लक्षण करते हुए पाणिनी कहते हैं- परः सन्निकर्षः संहिता। वर्णों की अत्यन्त समीपता का नाम संहिता है। ऋग्वेद 10/97/22 के अनुसार संहिता पाठ के प्रत्येक पद विच्छेद पूर्वक पाठ करना पदपाठ कहलाता है। पदपाठ में पद तो वे ही रहते हैं, परन्तु पदपाठ में स्वर में बहुत अन्तर आ जाता है। संहितापाठ में जहाँ स्वर संहितापाठ की दृष्टि से लगे होते हैं, वहीं पदपाठ में स्वरों का आधार पद होता है। क्रम से दो पदों का पाठ क्रमपाठ कहलाता है। ऋषि कात्यायन के अनुसार भी क्रम पूर्वक दो पदों का पाठ क्रमपाठ है।
वेदपाठ की विभिन्न विधियाँ: जटा, शिखा और माला पाठ
इस क्रमपाठ का प्रयोजन स्मृति माना गया है। अनुलोम तथा विलोम प्रकार से जहाँ क्रम तीन बार पढ़ा जाता है, उसे जटा पाठ कहते हैं। अनुलोम तथा विलोम प्रकार से मन्त्र में क्रम से आये दो पदों का तीन बार पाठ करना चाहिए। विलोम में पद के समान संधि होती है, जबकि अनुलोम में क्रम के समान। जटा पाठ में प्रथम सीधा क्रम, तदन्तर विपरीत क्रम, पुनः उसी सीधे क्रम का पाठ किया जाता है। गणितीय भाषा में इसको1, 2, 1कहा जा सकता है। जब जटापाठ में अगला पद जोड़ दिया जाता है, तब वह शिखापाठ कहलता है। शिखापाठ प्रथमपद, तदनन्तर द्वितीय पद, पुनः वही प्रथम पद और उसके पश्चात तृतीय पद का ग्रहण किया जाता है। अगली पंक्ति में तृतीय एव चतुर्थ पद का अनुलोम, विलोम, पुनः अनुलोम करने के पश्चात पंचम पद का पाठ किया जाता है।
इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है। माला पाठ दो प्रकार का होता है- पुष्पमाला और क्रम माला। क्रममालापाठ के आधी ऋचा के प्रारम्भ के दो पद तथा अन्त का एक पद, तदनन्तर प्रारम्भ से द्वितीय एवं तृतीय पद तथा अन्त की ओर से षष्ठ एवं पञ्चम पद, पुनः प्रारम्भ से तृतीय एवं चतुर्थ पद और अन्त की ओर से पंचम एवं चतुर्थ पद। इसी प्रकार आधी ऋचा के मध्य से आदि और अन्त की ओर बढ़ते हुए चले जाते हैं और पुनः जहाँ से चले थे वहाँ पहुँच जाते हैं। रेखा पाठ में दो, तीन, चार या पाँच पदों का क्रमशः पाठ किया जाता है। इस पाठ में प्रथम अनुलोम पाठ किया जाता है, तदनन्तर विलोम, पुनः अनुलोम पाठ किया जाता है।
वेदपाठ की विशेष विधियाँ: ध्वज, दण्ड, रथ और घनपाठ
ध्वजपाठ में क्रम से प्राप्त होने वाले दो पदों का पाठ करते हुए आदिक्रम में अनुलोम से प्रारम्भ होकर अन्त तक तथा अन्तक्रम में विलोम से प्रारम्भ होकर आदि तक पहुँचा जाता है। दण्डपाठ में प्रथम अनुलोम पुनः विलोम पाठ करते हुए मन्त्र के सभी पदों का पाठ किया जाता है।
यह पाठ इस प्रकार का होता है कि प्रथम दो पदों का अनुलोम-विलोम करते हुए त्रमशः उसमें एक-एक पद की वृद्धि की जाती है। रथ पाठ तीन प्रकार का होता है- द्विचक्ररथ, त्रिचक्ररथ, चतुश्चक्ररथ। घनपाठ में क्रम को अन्त से प्रारम्भ करके आदि पर्यन्त और आदि से प्रारम्भ करके अन्त तक ले जाया जाता है। इस घनपाठ के अनेक भेद हैं। घनपाठ अन्य वेदपाठों की तुलना में अधिक कठिन माना जाता है। वैदिक विद्वानों के अनुसार यह मेधाशक्ति की पराकाष्ठा तथा उत्कर्ष है कि ऐसे विषम पाठ को हमारे वेदपाठी शुद्ध स्वर से अनायास ही पाठ करते हैं।
सामवेद की रक्षा करने के लिए ऋषियों ने उपर्युक्त से भिन्न प्रक्रिया अपनायी है। सामवेद की रक्षा की दृष्टि से स्वरगणना का माध्यम अपनाया गया है। यह स्वरगणना अत्यन्त समीचीन है और ऐसी गणना अन्य वेदों के मंत्रों में नहीं पायी जाती है। सामवेद के ऋचाओं पर उदात्तादि तीनों स्वरों के विशिष्ट चिह्न अंकित किये गये हैं। सामवेद में उदात्त के ऊपर1 का अंक, स्वरित पर 2 का तथा अनुदात्त पर 3 का अंक लगाया जाता है। स्वरों की विशेष गणना की व्यवस्था सामवेद में की गयी है।
वेदों की रक्षा: वेदपाठविधि और इसके अभेद्य सुरक्षा उपाय
वैदिक विद्वानों के अनुसार इस वेदपाठविधि के विधान के कारण ही वाममार्गी और जैनियों ने जो इस देश के साहित्य को प्रदूषित करने का कुचत्र चला रखा था, वह प्रदूषण वेदों को संत्रमित नहीं कर पाया। महाभारत युद्ध के पश्चात जहाँ एक ओर भारत देश वीरों और विद्वानों से शून्य हो गया था, वहीं दूसरी ओर स्वार्थी तत्त्वों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए समग्र भारतीय साहित्य को नाना प्रकार से संदूषित करने की प्रक्रिया चला रखी थी।
उनका यह प्रयास बहुत अधिक सफल भी रहा, परंतु वे वेद में एक भी अक्षर की मिलावट करने में सफल नहीं हो सके। जिसके कारण hindu dharm ved का उच्चारण जिस प्रकार प्राचीन काल में हुआ करता था, आज भी इस वेदपाठविधि के कारण उसी रूप में सुना जा सकता है। यह व्यवस्था वेद की रक्षा के लिए एक अभेद्य दुर्ग का निर्माण करती है। यही कारण है कि वर्तमान में वेद उसी शुद्ध और प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हो रहा है।
रंगबिरंगी तितली रानी : बाल मन को प्रफुल्लित करती कविताएं
अरब सागर में जहाज डूबने के बाद भारतीय तटरक्षक बल ने चालक दल के नौ सदस्यों को बचाया
भारतीय तटरक्षक बल (आईसीजी) ने 26 दिसंबर, 2024 को पाकिस्तान के खोज और बचाव क्षेत्र (उत्तरी अरब सागर) में गुजरात के पोरबंदर से लगभग 311 किलोमीटर पश्चिम में स्थित एक डूब चुके हुए जहाज एमएसवी ताज धारे हरम से नौ भारतीय चालक दल के सदस्यों को सफलतापूर्वक बचा लिया। चुनौतीपूर्ण समुद्री परिस्थितियों में चलाए गए खोज और बचाव मिशन ने मुंबई और कराची, पाकिस्तान के समुद्री बचाव समन्वय केंद्रों (एमआरसीसी) के बीच असाधारण सहयोग को प्रदर्शित किया।
गुजरात के मुंद्रा से रवाना होकर यमन के सोकोत्रा की ओर जाने वाला यह जहाज समुद्र की लहरों और जहाज पर बाढ़ की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुआ। नियमित निगरानी उड़ान के दौरान आईसीजी डोर्नियर विमान को संकट की सूचना का पता लगा, जिसके बाद एमआरसीसी, मुंबई और गांधीनगर में आईसीजी क्षेत्रीय मुख्यालय (उत्तर पश्चिम) ने तुरंत कार्रवाई की। पहले से ही नजदीक में गश्त कर रहे आईसीजीएस शूर को घटनास्थल पर तेज़ रफ्तार से भेजा गया, जबकि एमआरसीसी पाकिस्तान ने इलाके में मौजूद जहाजों को सतर्क कर दिया। गहन खोज के बाद, चालक दल के सदस्यों को एक लाइफ राफ्ट (जीवन रक्षक बेड़े) पर पाया गया, जो जहाज को छोड़कर शरण ले रहे थे।
बचाव अभियान जहाज के पूरी तरह डूबने से पहले, शाम करीब 4 बजे पूरा हुआ। सभी चालक दल के सदस्यों को सुरक्षित रूप से आईसीजीएस शूर पर लाया गया, जहां उन्हें चिकित्सा सहायता प्रदान की गई और उन्हें स्वस्थ घोषित किया गया। नाविक अब पोरबंदर बंदरगाह के लिए रवाना हो गए हैं।