Thursday, January 16, 2025
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दो दिवसीय सम्मान और राष्ट्रीय बाल साहित्यकार समारोह नाथद्वारा में 5 एवं 6 जनवरी को

कोटा / नाथद्वारा/ साहित्य मंडल नाथद्वारा की ओर से दो दिवसीय सम्मान और राष्ट्रीय बाल साहित्यकार समारोह नाथद्वारा में 5 एवं 6 जनवरी को आयोजित किया जाएगा। यह जानकारी देते हुए साहित्य मंडल के प्रधानमंत्री श्याम प्रकाश देवपुरा ने बताया कि  मंडल के संस्थापक हिंदी भाषा सेनानी और बाल साहित्य रचनाकार स्व. भगवतीप्रसाद देवपुरा की स्मृति में आयोजित समारोह में राजस्थान सहित 9 राज्यों के 81 हिंदी साहित्य सेवियों को मानद उपाधियों से सम्मानित किया जाएगा। उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा कुछ साहित्यकारों को पुरस्कृत भी किया जाएगा।
संस्था के पदाधिकारी अनिरुद्ध देवपुरा ने बताया कि समारोह में उद्घाटन सत्र में स्व. भगवती प्रसाद देवपुरा के कृतित्व और व्यक्तित्व के साथ साहित्यिक योगदान पर व्याख्यान आयोजित किए जाएंगे। बाल साहित्य परिचर्चा में 9 साहित्यिक विद्वान बाल साहित्य आलेख वाचन करेंगे। सांस्कृतिक कार्यक्रम और अखिल भारतीय कवि सम्मेलन भी आयोजित किए जाएंगे। उत्तरप्रदेश के लखनऊ निवासी सुश्री सुकलता त्रिपाठी को काव्य मर्मज्ञ की मानद उपाधि के साथ इक्कावन सो रुपए राशि का पुरस्कार प्रदान किया जाएगा।
 सम्मानित होने वाले बाल साहित्यकार :
बाल साहित्यकारों में बाल साहित्य भूषण की मानद उपाधि से राजस्थान से बसंती पंवार, जेबा रशीद, मधु माहेश्वरी, नीना छिब्बर, विमला नागला, हेमलता दाधीच, सीमा जोशी मुथा, तृप्ति गोस्वामी, विमला महारिया मौज, मीनाक्षी पारीक, पारस जैन, विष्णु शर्मा हरिहर, नरेंद्र निर्मल, कृष्ण बिहारी पाठक, भारत दोषी, विनोद कुमार शर्मा, विजय कुमार शर्मा, पुनीत रंगा, महेश पंचोली एवं यशपाल शर्मा पहुंना सम्मानित किए जाएंगे। उत्तरप्रदेश से देवी प्रसाद गौड़, अरविंद कुमार दुबे, हरीलाल मिलन, उदयनारायण उदय, प्रदीप अवस्थी, राजकुमार सवान, कर्नल प्रवीण कुमार त्रिपाठी, मीनू त्रिपाठी, रजनीकांत शुल्क, महेश कुमार मधुकर, कमलेंद्र कुमार, श्याम मोहन मिश्र, हरियाणा से ज्ञान प्रकाश पीयूष और मध्य प्रदेश से श्याम सुंदर श्रीवास्तव सम्मानित होंगे।
सम्मानित होने वाले साहित्यकार :
साहित्य कुसुमाकर उपाधि से मुंबई के डॉ. शारदा प्रसाद दुबे, कोटा से डॉ. क्षमा चतुर्वेदी और कानपुर से हरी बाणी, साहित्य सौरभ उपाधि से जोधपुर से डॉ. चांद कौर जोशी, उदयपुर से डॉ. रक्षा गोदावत एवं अजमेर से सुरेश कुमार श्रीचंदानी, काव्य कौस्तुभ उपाधि से जयपुर से सरोज गुप्ता, ग्वालियर से अमरसिंह यादव, आगरा से मुकेश कुमार ऋषि, बीकानेर से पूर्णिमा मिश्रा, काव्य कुसुम उपाधि से इंदौर से जय बजाज, भीलवाड़ा से शिखा अग्रवाल, जोधपुर से अंजू शर्मा जांगिड़, पत्रकार श्री उपाधि से बीकानेर के उमाशंकर व्यास, उदयपुर से राजेश वर्मा, लोक कला मर्मज्ञ उपाधि से नागौर के हिदायत ख़ां , साहित्य सुधाकर – काव्य कलाधर उपाधि से रोसड़ा – समस्तीपुर बिहार से डॉ. प्रफुल्ल चन्द ठाकुर, मिर्जापुर से आनंद प्रजापति, जमशेदपुर से डॉ. रागिनी भूषण, कच्छ से डॉ. संगीता पाल, बरेली से सुश्री एंजेल गांधी, मिर्जापुर से सुश्री सृष्टिराज , बाल साहित्य भूषण से बिजनौर के डॉ. अजय जनमेजय, प्रतापगढ़ उत्तरप्रदेश से डॉ. दयाराम मौर्य, रायबरेली से डॉ. अरविंद कुमार साहू, वाराणसी से गौतमचंद अरोड़ा को सम्मानित किया जाएगा।
   इनके साथ – साथ दिल्ली से विमला रस्तोगी एवं अनिल कुमार जायसवाल, दरभंगा बिहार से डॉ. सतीशचंद भगत, बक्सर डॉ. मीरा सिंह,नागपुर से शशि पुरवार, अजमेर से डॉ. शैलजा माहेश्वरी, दुर्ग छत्तीसगढ़ से बलदाऊ राम साहू, भाटापाड़ा छत्तीसगढ़ से कन्हैया साहू, कोटा से डॉ. नरेंद्र नाथ चतुर्वेदी, अहमदाबाद से श्याम पटल पाण्डेय, अजमेर से गोविंद भारद्वाज, हनुमानगढ़ से दीनदयाल शर्मा, लुधियाना से डॉ. ककीरचंद शुक्ल, बाड़मेर से डॉ. बंशीधर तातेड, गाडरवाड़ा मध्यप्रदेश से विजय बेशर्म, जबलपुर से वंदना सोनी, रुद्र प्रयाग से कालिकप्रसाद सेमवाल तथा विमल इनानी को सम्मानित किया जाएगा।

एचबीओ के संस्थापक चार्ल्स डोलन नहीं रहे

होम बॉक्स ऑफिस (HBO) और केबलविजन सिस्टम्स कॉर्प के संस्थापक चार्ल्स डोलन का 98 वर्ष की आयु में  अमरीका में  निधन हो गया।  डोलन अपने अंतिम समय में अपने परिवार और प्रियजनों के बीच थे।

चार्ल्स डोलन को केबल टीवी की दुनिया में क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने 1972 में HBO की स्थापना की और 1973 में केबलविजन सिस्टम्स कॉर्प की शुरुआत की, जिसे उन्होंने अमेरिका की पांचवीं सबसे बड़ी केबल कंपनी बनाया। उनकी दूरदर्शी सोच और साहसिक फैसलों ने उन्हें इंडस्ट्री में अद्वितीय स्थान दिलाया। उन्होंने 1984 में अमेरिकन मूवी क्लासिक्स (AMC) और 24 घंटे का स्थानीय न्यूज चैनल न्यूज12 भी शुरू किया।

चार्ल्स डोलन अपने साहसिक फैसलों के लिए जाने जाते थे। उन्होंने न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन, नेशनल बास्केटबॉल एसोसिएशन की निक्स, और नेशनल हॉकी लीग की रेंजर्स जैसी प्रतिष्ठित संपत्तियों पर नियंत्रण हासिल कर अपने प्रतिस्पर्धियों को मात दी। 1995 में उन्होंने अपने बेटे जेम्स को केबलविजन का सीईओ बनाया, जबकि वह खुद चेयरमैन बने रहे।

चार्ल्स फ्रांसिस डोलन का जन्म 16 अक्टूबर 1926 को क्लीवलैंड, अमेरिका में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वह अमेरिकी एयरफोर्स में शामिल हुए। युद्ध के बाद उन्होंने जॉन कैरोल यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, जहां उनकी मुलाकात हेलेन बर्गेस से हुई और बाद में दोनों ने शादी कर ली। उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बजाय अपना व्यवसाय शुरू किया, जिसमें शुरुआती असफलताओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और नए बिजनेस आइडिया के साथ आगे बढ़ते रहे।

चार्ल्स डोलन ने अपने करियर में कई महत्वपूर्ण पहल कीं। 1965 में उन्होंने न्यूयॉर्क में पहली केबल फ्रेंचाइज़ी जीती। बाद में उन्होंने HBO पे-टीवी सर्विस को आगे बढ़ाया और लांग आइलैंड में केबल फ्रेंचाइज़ी खरीदी। 1980 में ब्रावो केबल-टीवी नेटवर्क की शुरुआत की और 1984 में AMC और मचम्यूजिक यूएसए जैसे नेटवर्क्स लाए।

डोलन का एक बड़ा परिवार है। उनकी पत्नी हेलेन और छह बच्चे – कैथलीन, मैरिएन, डेबोरा, थॉमस, पैट्रिक और जेम्स। पैट्रिक न्यूज12 नेटवर्क के चेयरमैन हैं और जेम्स मैडिसन स्क्वायर गार्डन कंपनी के चेयरमैन हैं।

उन्होंने अपने करियर की शुरुआत वीडियो प्रोडक्शन और मार्केटिंग के क्षेत्र में की। शुरुआती दिनों में, डोलन ने ‘Sterling Communications’ नामक कंपनी बनाई, जो न्यूयॉर्क में केबल टेलीविजन सेवाएं प्रदान करती थी। 1971 में, डोलन ने “होम बॉक्स ऑफिस (HBO)” की स्थापना की।  एचबीओ पहला ऐसा नेटवर्क बना जो सब्सक्रिप्शन बेस्ड सेवा प्रदान करता था। उन्होंने एक नई रणनीति अपनाई, जहां प्रीमियम कंटेंट जैसे फिल्में और स्पोर्ट्स इवेंट दर्शकों को सीधे उनके घरों तक पहुंचाए गए।

एचबीओ ने मनोरंजन के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों को छुआ और इसे टेलीविजन की दुनिया में सबसे प्रभावशाली नेटवर्क्स में से एक बना दिया। चार्ल्स डोलन ने यह साबित किया कि लोग विज्ञापनों से मुक्त प्रीमियम कंटेंट के लिए पैसा देने को तैयार हैं।

डोलन ने केवल एचबीओ ही नहीं, बल्कि कई अन्य मीडिया और केबल कंपनियों को भी स्थापित किया। उनकी कंपनी Cablevision अमेरिका की सबसे बड़ी केबल सेवा प्रदाताओं में से एक रही है।  उनके परिवार ने न्यूयॉर्क के खेल और मनोरंजन उद्योग में भी बड़ा योगदान दिया है।

शृंगार रस के कवि पण्डित राम नारायण चतुर्वेदी

पंडित राम नारायण चतुर्वेदी का जन्म बैसाख कृष्ण 12, संवत् 1944 विक्रमी को उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर के हैसर बाजार-धनघटा नगर पंचायत के ग्राम सभा मलौली में हुआ था। यह क्षेत्र इस समय वार्ड नंबर 6 में आता है। जो पूरे नगर पंचायत क्षेत्र के बीचोबीच स्थित है। यह एक प्रसिद्ध चौराहा भी है जो राम जानकी रोड पर है । इनके पिता पंडित कृष्ण सेवक चतुर्वेदी जी थे। यह बस्ती मण्डल का एक उच्च कोटि का कवि कुल घराना रहा है। पंडित कृष्ण सेवक चतुर्वेदी के छः पुत्र थे – प्रभाकर प्रसाद, भास्कर प्रसाद, हर नारायण, श्री नारायण, सूर्य नारायण और राम नारायण। इनमें भास्कर प्रसाद , श्री नारायण और राम नारायण उच्च कोटि के छंदकार हो चुके हैं। पंडित राम नारायण जी का रंग परिषद में भी बड़ा आदर और सम्मान हुआ करता था। घनाक्षरी और सवैया छंदों की दीक्षा उन्हें रंगपाल जी से मिली थी। वे भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी श्री नारायण चतुर्वेदी और राम नारायण चतुर्वेदी के भाई थे। राम नारायण की शिक्षा घर पर ही हुई थी। इनके चार पुत्र बांके बिहारी, ब्रज बिहारी, वृन्दावन बिहारी और शारदा शरण थे। जिनमें ब्रज बिहारी ब्रजेश और शारदा शरण मौलिक अच्छे कवि रहे।

पंडित राम नारायण जी अंग्रेजी राज्य में असेसर (फौजदारी मामलों में जज / मजिस्ट्रेट को सलाह देने के लिए चुना गया व्यक्ति) के पद पर कार्य कर रहे थे। एक बार असेसर पद पर कार्य करते हुए उन्होंने ये छंद लिखा था जिस पर जज साहब बहुत खुश हुए थे –

दण्ड विना अपराधी बचें कोऊ,

दोष बड़ों न मनु स्मृति मानी।

दण्ड विना अपराध लहे कोऊ,

सो नृप को बड़ा दोष बखानी।

राम नारायण देत हैं राय,

असेसर हवै निर्भीक है बानी।

न्याय निधान सुजान सुने,

वह केस पुलिस की झूठी कहानी।।

ब्रज भाषा और शृंगार रस

कवि राम नारायण जी ब्रज भाषा के शृंगार रस के सिद्धस्थ कवि थे। सुदृढ़ पारिवारिक पृष्ठभूमि और रंगपाल जी का साहश्चर्य से उनमें काव्य कला की प्रतिभा खूब निखरी है। उनका अभीष्ट विषय राधा- कृष्ण के अलौकिक प्रेम को ही अंगीकार किया है। शृंगार की अनुपम छटा उन्मुक्त वातावरण में इस छंद में देखा जा सकता है। एक छंद द्रष्टव्य है –

कौन तू नवेली अलबेली है अकेली बाल,

फिरौ न सहेली संग है मतंग चलिया।

फूले मुख कंज मंजुता में मुख नैन कंज,

मानो सरकंज द्दव विराजे कंज कलिया।

करकंज कुचकंज कंजही चरण अरु

वरन सुकन्ज मंजु भूली कुंज अलियां।

तेरे तनु कंज पुंज मंजुल परागन के,

गंध ते निकुजन की महक उठी गालियां।।

घनाक्षरी का नाद-सौष्ठव

सुकवि राम नारायण की एक घनाक्षरी का नाद सौष्ठव इस छंद में देखा जा सकता है-

मंद मुस्काती मदमाती चली जाती कछु,

नूपुर बजाती पग झननि- झननि- झन ।

कर घट उर घट मुख ससीलट मंजु,

पटु का उडावै वायु सनन- सनन- सन।

आये श्याम बोले वाम बावरी तु बाबरी पै,

खोजत तुम्हें हैं हम बनन- बनन- बन।

पटग है झट गिरे घट-खट सीढ़िन पै,

शब्द भयो मंजु अति टनन-टनन- टन।।

वैद्यक शास्त्रज्ञ

सुकवि राम नारायण जी कविता के साथ साथ वैद्यक शास्त्र के भी ज्ञाता थे। उनके द्वारा रचित आवले की रसायन पर एक छंद इस प्रकार देखा जा सकता है –

एक प्रस्त आमले की गुठली निकल लीजै,

गूदा को सुखाय ताहि चूरन बनाइए।

वार एक बीस लाइ आमला सरस पुनि,

माटी के पात्र ढालि पुट करवाइए।

अन्त में सुखाद फेरि चुरन बनाई तासु,

सम सित घृत मधु असम मिलाइये।

चहत जवानी जो पै बहुरि बुढ़ापा माँहि,

दूध अनुपात सो रसायन को खाइये।।

ज्योतिष के मर्मज्ञ

सुकवि राम नारायण जी को कविता , वैद्यकशास्त्र के साथ साथ ज्योतिष पर भी पूरा कमांड था। उनके द्वारा रचित एक छंद नमूना स्वरूप देखा जा सकता है-

कर्क राशि चन्द्र गुरु लग्न में विराजमान,

रूप है अनूप काम कोटि को लजावती।

तुला के शनि सुख के समय बनवास दीन्हैं

रिपु राहु रावन से रिपुवो नसावाहि।

मकर के भौम नारि विरह कराये भूरि,

बुध शुक्र भाग्य धर्म भाग्य को बढ़ावहीं ।

मेष रवि राज योग रवि के समान तेज,

राम कवि राज जन्म पत्रिका प्रभावहीं।।

ब्रजभाषा की प्रधानता

इस परम्परागत कवि से तत्कालीन रईसी परम्परा में काव्य प्रेमी रीतिकालीन शृंगार रस की कविता को सुन-सुन कर आनंद लिया करते थे। कवि राम नारायण भोजपुरी क्षेत्र में जन्म लेने के बावजूद भी ब्रजभाषा में ही कविता किया करते थे। उनका रूप-सौंदर्य और नख-सिख वर्णन परंपरागत हुआ करता था। उन्होंने पर्याप्त छंद लिख रखें थे पर वे उसे संजो नहीं सके। कविवर ब्रजेश जी के अनुसार पंडित रामनारायण जी चैत कृष्ण नवमी सम्बत 2011 विक्रमी को अपना पंच भौतिक शरीर को छोड़े थे ।

बस्ती के छंदकार शोध ग्रन्थ के भाग 1 के पृष्ठ 122 से 126 पर स्मृतिशेष डॉक्टर मुनि लाल उपाध्याय ‘सरस’ जी ने पंडित राम नारायण जी के जीवन वृत्त और कविता कौशल पर विस्तार से चर्चा किया है।

लेखक परिचय

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)

प्राचीन भारतीय खेल साँप सीढ़ी

भारत मे ‘सांप सीढी’ और विश्व मे ‘स्नेक अँड लेडर्स’ इस नाम से प्रसिद्ध इस खेल की खोज भारत मे ही हुई है। इसका पहले का नाम ‘मोक्ष पट’ था. तेरहवी सदी मे संत ज्ञानेश्वर जी (वर्ष 1272 – वर्ष 1296) ने इस खेल का निर्माण किया।

ऐसा कहा जाता है की संत ज्ञानेश्वर और उनके बडे भाई संत निवृत्तीनाथ, भिक्षा मांगने के लिये जब जाते थे, तब घर मे उनके छोटे भाई सोपानदेव और बहन मुक्ताई के मनोरंजन के लिए, संत ज्ञानेश्वर जी ने यह खेल तैयार किया।

इस खेल के माध्यम से छोटे बच्चों पर अच्छे संस्कार होने चाहिए, उन्हे ‘क्या अच्छा, क्या बुरा’ यह अच्छी तरह से समझ मे आना चाहिए, यह इस मोक्षपट की कल्पना थी। सामान्य लोगों तक, सरल पध्दति से अध्यात्म की संकल्पना पहुंचे, इस हेतू से इस खेल की रचना की गई है।

साप यह दुर्गुणोंका और सीढी यह सद्गुणोंका प्रतीक माना गया। इन प्रतिकों के माध्यम से बच्चों पर संस्कार करने के लिए इस खेल का उपयोग किया जाता था।

प्रारंभ मे, मोक्षपट यह खेल 250 चौकोन के साथ खेला जाता था। बाद मे मोक्षपट का यह पट, 20×20 इंच के आकार मे आने लगा। इसमे पचास चौकोन थे। इस खेल के लिए 6 कौडीयां आवश्यक थी। यह खेल याने मनुष्य की जीवन यात्रा थी।

डेन्मार्क के प्रोफेसर जेकब ने ‘भारतीय संस्कृती परंपरा’ इस परियोजना के अंतर्गत मोक्षपट पर बहुत रिसर्च किया है। प्रोफेसर जेकब ने कोपनहेगन विश्वविद्यालय से ‘इंडोलॉजी’ इस विषय पर डॉक्टरेट की है। प्राचीन मोक्षपट इकठ्ठा करने के लिए उन्होने ने पूरे भारत का भ्रमण किया। अनेक मोक्षपट का उन्होने संग्रह किया। कुछ जगह पर इसी को ‘ज्ञानचोपड’ कहा जाता था। प्रोफेसर जेकब को प्रख्यात शोधकर्ता और मराठी साहित्यिक रा. चिं. ढेरे के पांडुलिपियों के संग्रह मे दो प्राचीन मोक्षपट मिले। इन मोक्षपट में 100 चौकोन थे। इसमे पहला घर जन्म का और अंतिम घर मोक्ष का होता था। इसमे 12 वा चौकोन यह विश्वास का या आस्था का होता था। 51वां घर विश्वसनीयता का, 57 वा शौर्य का, 76 वा ज्ञान का और 78वा चौकोन तपस्या का होता था। इनमे से किसी भी चौकोन मे पहुंचने वाले खिलाडी को सीढी मिलती थी, और वह खिलाडी उपर चढता था।

इसी प्रकार सांप जिस चौकोन मे रहते थे, वह चौकोन दुर्गुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। 44 वा चौकोन अहंकार का, 49 वा चौकोन चंचलता का, 58 वा चौकोन झूठ बोलने का, 84 वा चौकोन क्रोध के लिए और 99 वा चौकोन वासना का रहता था। इन चौकोनो मे जो खिलाडी आते थे, उनका पतन निश्चित था।

भारत में रामदासी मोक्षपट, वारकरी मोक्षपट, (ज्ञानेश्वर जी का मोक्षपट, गुलाबराव महाराज का मोक्षपट) आदी प्रचलित थे. रामदासी मोक्षपट मे  38 सीढीयां और 53 सांप थे। समर्थ रामदासजीने राम कथा को संस्कार रूप से बच्चों तक पहुंचाने के लिए इसका उपयोग किया।

1892 मे यह खेल इंग्लंड मे गया। वहां से युरोप में ‘स्नॅक अँड लेडर्स’ इस नाम से लोकप्रिय हुआ। अमेरिका मे यह खेल, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, वर्ष 1943 मे पहुंचा। वहां इसे ‘शूट अँड लैडर्स’ कहते है।

ताश
सामान्यतः यह माना जाता है की, दुनिया मे बडे पैमाने पर खेले जाने वाले पत्तों के (ताश / कार्ड) खेल का उद्गम, नवमी सदी मे चीन मे हुआ है। गुगल, विकिपीडिया सब जगह यही उत्तर मिलता है। लेकिन यह सच नही है। भारत में प्राचीन काल से पत्तों का खेल खेला जा रहा है। केवल इसका नाम अलग था. इसका नाम था ‘क्रीडापत्रम’..!

भारत मे जो मौखिक / वाचिक इतिहास चलता आ रहा है, उसके अनुसार साधारणतः देढ हजार वर्ष पूर्व, भारत मे राजे रजवाडो मे, उनके राज प्रासादोंमे ‘क्रीडापत्रम’ यह खेल खेला जाता था।

‘A Philomath’s Journal’ के 30 नवंबर 2015 के अंक मे एक लेख आया है – ‘Popular Games and Sports that Originated in Ancient India’। इस लंबे-चौड़े लेख मे ठोस रूप से यह बताया गया है कि, ‘क्रीडापत्रम’ इस नाम से पत्तों का खेल, भारत मे बहुत पहले से था। इस का अर्थ है, ‘भारत ही पत्तों के (ताश के) खेल का उद्गम देश है’।

मुगल कालीन इतिहासकार अबुल फजल ने इस खेल के संबंध में जो जानकारी लिखकर रखी है, उसके अनुसार पत्तों का यह खेल भारतीय ऋषीओंने बनाया है। उन्होने 12 यह आकडा रखा। हर पैक मे बारा पत्ते रहते थे। राजा और उसके 11 सहयोगी, ऐसे 12 सेट. अर्थात 144 पत्ते। लेकिन आगे चलकर मुगलो ने जब इस खेल को ‘गंजीफा’ के रूप मे स्वीकार किया, तब उन्होने 12 आंकडा तो वैसा ही रखा, लेकिन ऐसे 12 पत्तों के आठ सेट तैयार किये। अर्थात गंजीफा खेल के कुल पत्ते हुए 96।

मुगलों के पहले के जो ‘क्रीडापत्रम’ मिले है, वे अष्टदिशाओं के प्रतीक के रूप मे आठ सेटो मे थे। कही – कही 9 सेट थे, जो नवग्रहों का प्रतिनिधित्व करते थे। श्री विष्णू के दस अवतारों के प्रतीक के रूप मे 12 पत्तों के दस सेट भी खेल मे दिखते है। मुगल पूर्व काल के सबसे अधिक पत्तों के सेट, ओरिसा मे मिले है।

पहले के यह पत्ते गोल आकार मे रहते थे। राज दरबार के नामांकित चित्रकार उस पर नक्काशी करते थे। ये सब पत्ते हाथों से तैयार किये हुए, परंपरागत शैली मे होते थे।

शतरंज, लूडो, साप सीढी, पत्ते (ताश) यह सब बैठकर खेलने वाले खेल है. अंग्रेजी में इसे ‘बोर्ड गेम’ या ‘इनडोअर गेम’ कहा जाता है. विश्व में यह खेल सभी आयु के लोगों मे प्रिय है। हमारे लिए गर्व की बात है कि, ये सब खेल भारत ने दुनिया को दिये हैं..!


(क्रमशः)
–   प्रशांत पोळ – जाने माने लेखक हैं और भारत के ऐतिहासिक, राजनीतिक व साँस्कृतिक इतिहास पर शोधपूर्ण लेखन करते हैं, इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है)
(आगामी ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग 2’ इस पुस्तक के अंश)

…और जतिन बन गया राजेश खन्ना

ये कहानी तब की है जब राजेश खन्ना कोई फिल्मस्टार नहीं, कॉलेज स्टूडेंट हुआ करते थे। तब वो राजेश खन्ना भी नहीं, जतिन खन्ना थे। उनका एक कॉलेज फ्रेंड एक ड्रामा कंपनी से जुड़ा था, जिसका नाम था आईएनटी ड्रामा कंपनी। उस ड्रामा कंपनी के डायरेक्टर थे वी.के.शर्मा। मशहूर लेखक व डायरेक्टर सागर सरहदी भी तब उसी ग्रुप का हिस्सा थे। राजेश खन्ना साहब की बायोग्राफी लिखने वाले लेखक यासिर उस्मान को सागर सरहदी जी ने एक इंटरव्यू दिया था, जिसमें उन्होंने वी.के.शर्मा साहब के बारे में कहा था,”उस ड्रामा ग्रुप के सबसे महत्वपूर्ण शख्स हुआ करते थे वी.के.शर्मा। वो उत्तर प्रदेश से थे। कद तो उनका छोटा था। पर प्रतिभा के मामले में वो बहुत बड़े थे। वो नाटक लिखते थे। नाटकों का निर्देशन करते थे। और उनमें अभिनय भी करते थे। जतिन(राजेश खन्ना) उन्हें अपना गुरू मानते थे। हालांकि शुरुआत में ना तो वी.के.शर्मा, और ना ही अन्य लोग जतिन को गंभीरता से लेते थे।”
सागर सरहदी जी के मुताबिक, जतिन हर शाम रिहर्सल में आते थे और एक कोने में खड़े होकर अन्य एक्टर्स को अपने-अपने किरदारों की प्रिपेरेशन करते देखते थे। तब शायद जतिन इसी उम्मीद में रहते होंगे कि किसी दिन वी.के.शर्मा उन्हें नोटिस करेंगे। और वो जतिन को उनका पहला ब्रेक देंगे। मगर कई महीनों तक जतिन को कोई रोल नहीं मिला। मगर एक दिन ड्रामा कंपनी से जुड़ा एक एक्टर बीमार पड़ गया। जबकी दो दिन बाद ही एक शो होना था जिसमें वो एक्टर भी हिस्सा लेने वाला था। उसका रोल तो काफी छोटा था। उसे सिर्फ स्टेज पर खड़ा रहना था और एक लाइन बोलनी थी। अब नाटक के मंचन से महज़ दो दिन पहले उस रोल के लिए किसी नए एक्टर को तैयारी कराना आसान नहीं था। इसलिए वी.के.शर्मा चिंतित हो उठे। तभी उनका ध्यान जतिन पर गया जो हर दिन की तरह उसी कोने में खड़ा होकर रिहर्सल देख रहा था। उन्होंने जतिन को बुलाया और पूछा,” एक छोटा रोल निभाना चाहोगे?
जतिन ने बहुत सामान्य ढंग से हां में सिर हिला दिया। जबकी वी.के.शर्मा का वो ऑफर सुनकर उनका दिल बहुत तेज़ धड़क रहा था। आखिरकार महीनों के इंतज़ार के बाद जतिन को उनके सब्र का फल मिलने जा रहा था। छोटा ही सही, उन्हें उनका पहला रोल ऑफर हुआ था। उस पल को याद करते हुए खुद राजेश खन्ना ने एक दफ़ा कहा था,”कुछ ही सेकेंड्स में मैं उस सीमा के पार आ खड़ा हुआ, जिससे पार जाने का ख्वाब मैं कई महीनों से देख रहा था।” मगर वो सब उतना भी आसान नहीं था। जिस नाटक में जतिन को जीवन का पहला किरदार निभाना था उसका नाम था “मेरे देश के गांव।” उस नाटक को नागपुर में आयोजित होने वाले एक कॉम्पिटीशन में परफॉर्म किया जाना था। उन दिनों जतिन के एक बहुत खास दोस्त हुआ करते थे जिनका नाम था हरीदत्त। हरीदत्त ने भी उस नाटक में एक्टिंग की थी। उन्होंने उस नाटक में एक अहम किरदार निभाया था।
हरीदत्त ने लेखक यासिर उस्मान को दिए एक इंटरव्यू में बताया था,”वो 3 मई 1961 का दिन था। मुझे ये तारीख इसलिए याद है क्योंकि मुझे उस नाटक के लिए बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला था। मैंने उसमें एक पागल आदमी का किरदार निभाया था। जतिन का रोल बहुत छोटा था। वो एक दरबान बना था। मुझे अब भी याद है कि वो घबराहट के मारे कांप रहा था।” उस पूरे नाटक में जतिन को सिर्फ एक ही लाइन बोलनी थी। वो लाइन थी “जी हुज़ूर, साब घर पर हैं।” वो एक लाइन याद करने के लिए जतिन ने घंटों तक रिहर्सल की थी। मगर जब नाटक शुरु हुआ और जतिन की लाइन बोलने का वक्त धीमे-धीमे नज़दीक आने लगा, वो घबराहट का शिकार हो गए। भीड़ से भरे ऑडिटॉरियम में लाइव शो में डायलॉग बोलने का खयाल उन्हें डराने लगा। आखिरकार जतिन के डायलॉग बोलने का वक्त आ ही गया।
सालों बाद उस दिन को याद करते हुए राजेश खन्ना जी ने कहा था,”मैंने बहुत मेहनत की थी उस एक लाइन पर। मगर शो के दिन मैं फिर भी नर्वस हो गया और अपनी वो एक लाइन गलत बोल गया। मुझे कहना था ‘जी हुज़ूर, साब घर पर हैं।’ मगर मैं कह गया ‘जी साब, हुज़ूर घर पर हैं।’ डायरेक्टर मुझ पर बड़ा गुस्सा थे। शो खत्म होने के बाद मैं चुपचाप, बिना किसी को बताए, किसी से मिले अपने घर भाग गया।” उस दिन को याद करते हुए हरीदत्त जी ने कहा था,”जतिन जब जा रहा था तो उसकी आंखों में आंसू थे।” घर पहुंचने के बाद जतिन किसी से नज़रें ना मिला सके। वो सीधा अपने कमरे में गए। उन्होंने खुद को शीशे में देखा और फिर नज़रें फेर ली। वो समझ चुके थे कि वो औरों से तो भाग सकते हैं। मगर खुद से नहीं भाग सकते। एक्टर बनने के अपने ख्वाब को पूरा करने के अपने पहले प्रयास में जतिन को नाकामी का सामना करना पड़ा था। उनका कॉन्फिडेंस भी बुरी तरह डगमगा गया था। अपने कमरे में वो उस दिन ज़ोर-ज़ोर से रोए। उस रात उन्होंने काफ़ी शराब पी। ताकि वो सो सके। मगर नशे की उस हालत में भी वो अपनी उस पहली हार की टीस को भुला नहीं सके।”
अगले दिन जतिन के दोस्तों ने उन्हें चियर करने की कोशिश की। मगर जतिन किसी से मिलने नहीं आए। एक दिन पहले नाटक में हुआ वो पूरा वाकया जतिन को बहुत शर्मनाक लग रहा था। जतिन ने नाटकों की रिहर्सल पर जाना भी बंद कर दिया। हरीदत्त बताते हैं कि जतिन बहुत ज़्यादा सेंसिटिव थे। वो हर बात को दिल पर ले लेते था। मैंने उससे कहा था कि नाटकों में ये सब होता रहता है। मगर उन्हें फ़िक्र थी कि उनके पिता उन पर फैमिली बिजनेस को जल्द से जल्द जॉइन करने का दबाव बना रहे थे। और जतिन में इतना साहस भी नहीं था कि वो अपने पिता की आंखों में देख भी सकें। मना करना तो दूर की बात थी। अपने इस ख्वाब के लिए ही तो उन्होंने अपने पिता के बिजनेस को त्यागने का फैसला किया था। लेकिन वो तो एक लाइन तक सही से डिलीवर ना कर सके।
दोस्तों ने जब काफ़ी कहा तो आखिरकार जतिन फिर से नाटक में लौट आए। और इत्तेफ़ाक से आगे चलकर वो नाटक उस ड्रामा कंपनी का सबसे सफ़ल नाटक साबित हुआ। जतिन का आत्मविश्वास लौटना शुरू हुआ। सागर सरहदी ने लेखक यासिर उस्मान को बताया था कि उस थिएटर कंपनी में जतिन की पहचान तब एक ऐसे लड़के की थी जो अच्छा है और एक्टिंग करना पसंद करता है। बकौल सागर सरहदी, जतिन ने उनके लिखे दो नाटकों “मेरे देश के गांव” व “और शाम गुज़र गई” में काम किया था। हालांकि शुरुआत में किसी ने भी जतिन को बहुत इंपोर्टेंस नहीं दी थी। मगर जतिन ने फैसला कर रखा था कि आज नहीं तो कल, हर किसी को उन्हें गंभीरता से लेना होगा। उन दिनों जतिन का अधिकतर समय थिएटर से जुड़े लोगों के साथ ही गुज़रता था। अक्सर थिएटर के लोग जब मिलते थे तो नई कहानियों, किरदारों के बारे में अधिक बात करते थे। जतिन को वो माहौल बहुत पसंद आता था।
एक्टिंग और थिएटर के प्रति जतिन का वो बेइंतिहा लगाव आखिरकार रंग लाया। धीरे-धीरे जतिन स्टेज पर बढ़िया प्रदर्शन करने लगे। वो इंटर-कॉलिजिएट कॉम्पिटीशन्स में भी हिस्सा लेने लगे। मशहूर नाटककार व फिल्म डायरेक्टर रमेश तलवार ने एक दफ़ा कहा था,”उन दिनों नाटकों में जतिन को बहुत खास रोल नहीं मिलते थे। मगर वो छोटे रोल्स को भी मना नहीं करते थे। मेरे अंकल सागर सरहदी ने एक नाटक लिखा था जिसका नाम था “और दिए बुझ गए।” जतिन ने उस नाटक में बड़े भाई का किरदार निभाया था। उस नाटक को वी.के.शर्मा ने डायरेक्ट किया था। वो पहला किरदार था जिसके लिए जतिन की तारीफें हुई थी। और उन्हें कॉलेज फेस्टिवल में अवॉर्ड भी मिला था। उस दिन जतिन बहुत खुश हुए थे। उसी दौरान जतिन ने सत्यदेव दुबे के नाटक अंधा युग में भी काम किया था।” जतिन खन्ना के उस दौर को याद करते हुए सागर सरहदी ने कहा था,”उस नाटक कंपनी से गौरी नाम की एक लड़की भी जुड़ी थी। वो लड़की बहुत खूबूरत थी। सब उसके साथ फ्लर्ट करने की कोशिश करते थे। लेकिन वो अगर किसी से प्रभावित थी तो सिर्फ जतिन से। जतिन की स्माइल और इनोसेंस बहुत प्रभावी थी। थिएटर के दिनों में तो हमें उसका चार्म नहीं दिखा था। मगर लड़कियां तब भी जतिन को बहुत पसंद करती थी।”
कॉलेज फंक्शन में अवॉर्ड मिलने के बाद जतिन का सैल्फ कॉन्फिडेंस शिखर पर आ चुका था। जतिन के ख्वाबों को भी पंख लग चुके थे। अब जतिन थिएटर से आगे बढ़कर, फिल्मों में एक्टिंग करना चाहते थे। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के तमाम बड़े प्रोड्यूसर्स के ऑफिसों में अपनी तस्वीरें छोड़ना शुरू कर दिया। जतिन को पता था कि फिल्म इंडस्ट्री के लिए वो सिर्फ एक स्ट्रगलर है। जैसे तमाम दूसरे लड़के-लड़कियां हैं। जतिन ने अपने एक्टिंग टैलेंट को और अधिक पॉलिश करने के लिए स्टेज पर अपनी एक्टिंग स्किल्स को शार्प करना शुरू कर दिया। इसी दौरान एक दिन जतिन को थिएटर डायरेक्टर बी.एस.थापा ने फोन किया। बी.एस.थापा जतिन को लीड रोल में लेकर एक नाटक डायरेक्ट करना चाहते थे। जतिन के लिए ये एक बड़ी खुशखबरी थी। थापा ने जतिन को गेलॉर्ड रेस्टोरेंट मिलने के लिए बुलाया। ये एक ऐसा रेस्टोरेंट था जो चर्चगेट इलाके का बहुत ही मशहूर और सॉफिस्टिकेटेड रेस्टोरेंट उन दिनों माना जाता था। अक्सर फिल्म इंडस्ट्री के लोग उस रेस्टोरेंट में मीटिंग्स करने आते थे।
अपने संघर्ष के दिनों में जतिन भी गेलोर्ड रेस्टोरेंट जाते रहते थे। वहां उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के तब के कई बड़े नामों को देखा था। जिनमें सुनील दत्त, जे. ओम प्रकाश व मोहन कुमार जैसे नाम शामिल थे। बी.एस.थापा के बुलाने पर जब अगले दिन जतिन गेलोर्ड रेस्टोरेंट पहुंचे तो उन्होंने रेस्टोरेंट के बाहर एक खूबसूरत सी लड़की को देखा। उस लड़की की पर्सनैलिटी ने जतिन को बहुत प्रभावित किया। जतिन काफी देर तक दूर से उस लड़की को देखते रहे। कुछ पल बाद वो लड़की रेस्टोरेंट के भीतर चली गई। जतिन भी बी.एस.थापा से मिलने रेस्टोरेंट में घुसे तो उन्हें एक सरप्राइज़ मिला। वो खूबसूरत सी लड़की बी.एस.थापा के साथ ही बैठी थी। शुरुआती बातचीत के बाद बी.एस.थापा ने उस लड़की की तरफ इशारा करते हुए जतिन से कहा,”जतिन इनसे मिलिए। ये हैं अंजू महेंद्रू। नाटक में ये ही आपकी हीरोइन होंगी।” जतिन ने मुस्कुराकर अंजू महेंद्रू से हाथ मिलाया। और फिर तीनों नाटक के बारे में बात करने में मशगूल हो गए।
साथियों ये कहानी खत्म होती है यहीं पर। मैं जानता हूं कि आपमें से बहुत से लोगों को ये बात अच्छी नहीं लग रही होगी कि अभी तो कहानी में अंजू महेंद्रू की एंट्री हुई है। जिस किताब से ये कहानी मैंने लिखी है उसमें भी ये कहानी इसी जगह आकर खत्म होती है।
साल 1942 में 29 दिसंबर को राजेश खन्ना साहब का जन्म हुआ था। मैं इनके शुरुआती जीवन पर ही इससे पहले भी इक्का-दुक्का कहानियां किस्सा टीवी पर पोस्ट कर चुका हूं। उनमें से एक कहानी सुरेखा नाम की उस लड़की के बारे में है जो राजेश खन्ना जी के जीवन की वो पहली लड़की थी जिसके साथ उनका रुमानी रिश्ता कायम हुआ था। जबकी वो उम्र में सुरेखा से काफी छोटे थे और बालक ही थे। फिर सुरेखा वाले चैप्टर का एक दुखद अंत भी हो गया था। कोई फिर से पढ़ना चाहे तो बताइएगा। मैं फिर से सुरेखा व राजेश खन्ना वाली कहानी का लिंक शेयर कर दूंगा। राजेश खन्ना वाकई में सुपरस्टार थे। उनकी कहान जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी आपको पता चलेगा कि क्यों उन्हें बॉलीवुड का पहला सुपरस्टार कहा गया था। और कैसे उनका पतन होना शुरू हुआ था। इस कहानी में मौजूद अधिकतर जानकारियां हमने पत्रकार व बायोग्राफर यासिर उस्मान जी द्वारा लिखित राजेश खन्ना जी की बायोग्राफी “राजेश खन्ना: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज़ फर्स्ट सुपरस्टार” से ली हैं। बहुत अच्छी किताब है। आप ऑनलाइन खरीद सकते हैं। अंग्रेजी भाषा में है। पढ़ेंगे तो निराश नहीं होंगे आप।
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कश्मीरी पंडितों का पर्व ‘खेचरी-मावस’

कश्मीरी पंडितों के लिए कई त्यौहार और पूजा-अनुष्ठान विशिष्ट हैं, जिनमें से कुछ प्राचीन काल से चले आ रहे हैं।ऐसा ही एक विशिष्ट कश्मीरी त्यौहार ‘खेचरी-मावस’ या यक्ष-अमावस्या है जो पौष (दिसंबर-जनवरी) के कृष्णपक्ष की अमावस्या के दिन मनाया जाता है । प्रागैतिहासिक कश्मीर में विभिन्न जातियों और जातीय समूहों के एक साथ रहने और सह-मिलन की स्मृति में, इस दिन कुबेर को बलि के रूप में खिचड़ी चढ़ाई जाती है जो दर्शाता है कि यक्ष का पंथ बहुत पहले से ही कश्मीर में  मौजूद था। खेचरी-मावास एक लोक-धार्मिक त्यौहार प्रतीत होता है। इस शाम एक मूसल या कोई भी पत्थर (अगर मूसल उपलब्ध न हो) तो उसे धोकर चंदन और सिंदूर से अभिषेक किया जाता है और इसे कुबेर की छवि मानकर पूजा की जाती है। खिचड़ी के  नैवेद्य को मंत्रों के साथ कुबेर को अर्पित किया जाता है और इसका एक हिस्सा पूजक द्वारा अपने घर की बाहरी दीवार पर इस विश्वास के साथ रखा जाता है कि यक्ष इसे खाने आएंगे।

खेचरी-मावास न केवल कश्मीरी पंडितों के धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है, बल्कि इसमें कश्मीर के पौराणिक इतिहास का भी समावेश है। यह पर्व यक्षों के ऐतिहासिक अस्तित्व को प्रमाणित और स्थापित करता है। यक्ष कश्मीर के प्राचीन मूल निवासियों में से एक जनजाति थे, जो हिमालय के ऊपरी पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे। उनका विस्तार वर्तमान उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश से लेकर कश्मीर तक था।  हिंदू शास्त्रों ने यक्षों को गंधर्वों, किन्नरों, किरातों और राक्षसों के साथ अर्ध देवताओं का दर्जा दिया है। यक्ष भी कश्मीरी हिंदुओं की तरह देवों के देव महादेव भगवान शिव के कट्टर उपासक थे। यक्षपति भगवान कुबेर भगवान शिव के घनिष्ठ मित्र भी माने जाते हैं। भगवान कुबेर धन के स्वामी हैं और पौराणिक नगर अलकापुरी में निवास करते हैं, जो पर्वत मेरु की एक शाखा पर स्थित है। पर्वत मेरु भगवान शिव का निवास स्थान है। यक्षों के राजा भगवान कुबेर को धनपति, नर-राजा, राज-राजा और रक्षेंद्र भी कहा जाता है। वे सोने, चांदी, हीरे और अन्य बहुमूल्य रत्नों के स्वामी हैं। इसके अतिरिक्त वे उत्तर दिशा के अधिष्ठाता देवता भी माने जाते हैं। उनके भक्त और प्रजाजन, जिन्हें यक्ष/पिशाच कहा जाता है, असाधारण शक्तियों के धनी माने जाते हैं। प्राचीन समय में, यक्ष कश्मीर के विशाल पर्वत श्रृंखलाओं में निवास करते थे और शीतकालीन महीनों में कश्मीर की घाटियों में उतरते थे। कश्मीर के नाग निवासियों द्वारा उनका आतिथ्य खिचड़ी जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों से किया जाता था।

जैसा कि कहा गया है खिचड़ी-अमावस्या की संध्या पर चावल, हल्दी और मूंग दाल मिलाकर खिचड़ी पकाई जाती है। यह खिचड़ी कभी-कभी मांस या पनीर के साथ भी तैयार की जाती है, जो परिवार की रीत पर निर्भर करती है। खिचड़ी को श्रद्धा के साथ तैयार किया जाता है और इसे ताजे मिट्टी के पात्र (टोक), घास से बनी गोल आकृति (अरी) या थाली पर रखा जाता है, यह भी परिवार की रीति पर निर्भर करता है। इसके बगल में एक मूसल (काजवठ) को घास से बनी गोलाकार/आरी पर सीधा खड़ा करके रखा जाता है। इसे तिलक लगाया जाता है और फिर पूजा की जाती है। इसके बाद खिचड़ी का एक भाग घर की आंगन की दीवार पर रखा जाता है।

इसके पश्चात इसे मूली और गांठ गोभी के अचार के साथ नैवेद्य के रूप में ग्रहण किया जाता है। मूसल भगवान कुबेर और उनके भक्त यक्षों के पर्वतीय निवास का  प्रतिनिधित्व करता है। यक्षों की ऐतिहासिक उपस्थिति को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के मध्य और उत्तरी जिलों में उनके नाम पर बसे गांवों द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है। यहां तक कि श्रीनगर में भी यक्षों के नाम पर आधारित एक बस्ती है, जिसे “यछपोरा” कहा जाता है, जो पुराने शहर में स्थित है।

विस्थापन के बाद भी जो कश्मीरी पंडित जहाँ पर भी बसे हैं, अपने प्राचीन सभी त्योहारों को श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं क्योंकि ये धार्मिक अनुष्ठान उनकी गहरी और अटूट आस्था को व्यक्त करते हैं। खिचड़ी अमावस्या भी इन्हीं में से एक है।

पाठविधि के कारण वेद में मिलावट संभव ही नहीं

वेदों की रक्षा के लिए जिस विधि का विधान किया गया, वह अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि कहलाती है। इस प्रयास के कारण ही वेद वर्तमान में अविकल रूप में उपलब्ध हैं और उसमें एक अक्षर की भी मिलावट करना संभव नहीं हो सका। इस अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि में वेद के प्रत्येक पद का उच्चारण अनुलोम तथा विलोम विधि से किया जाता है, जिससे उसके रूपज्ञान में किसी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं रहती है।

सभी विद्याओं का मूल वेद है। इसमें संसार के आदिकाल में ईश्वर ने मनुष्यों को जीवन जीने की कला की उपदेश दी है। hindu dharm ved भारत देश की चेतना है। हमारे प्राणों की ऊर्जा है। वेद हमारा सर्वस्व है। भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में वेदों को वही स्थान प्राप्त है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मारहित शरीर शव होती है, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति से वेद को अलग कर देने पर यह संस्कृति प्राणविहीन होकर निर्जीव हो जाती है। जब कभी मनुष्य भयंकर विपत्ति में होता है, और उसे ऐसा प्रतीत होता है कि अब शायद कुछ भी न बचे, उस समय वह जिसको सबसे अधिक चाहता है, उसकी रक्षा करने का भरसक यत्न भी करता है। ऐसा ही हमारे देश के इतिहास में हुआ।

भारतीय संस्कृति पर विदेशी आक्रांताओं का संकट

महाभारतयुद्ध के पश्चात एक ऐसा समय आया, जब लगता था कि मानो हमारे देश से वीरता रूठ गई हो। इस काल में देश को रौंदते हुए अनेक विदेशी आततायी आक्रांता आए, और हम भारतीय असहाय होकर उनके दमन चक्र को सहते रहे। देश में आए आक्रांता ऐसे क्रूर और निर्दयी स्वभाव के थे कि अपने मार्ग में आने वाले सभी वस्तुओं को आग के हवाले कर दिया। इस हमले में न जाने कितने भारतीय साहित्य आग की भेंट चढ़ गए, जो आज प्राप्य नहीं हैं।

वैदिक विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 101, सामवेद की 1000और अथर्ववेद की 9 शाखाएँ हुआ करती थीं। इनमें से बहुत थोड़ी-सी शाखाएं आज प्राप्य हैं, शेष उन दुष्टों के क्रोध का शिकार होकर विलुप्त हो गई हैं। यह सब सिर्फ संपति को लूटने की हवश नहीं थी, बल्कि यह भारतीय सभ्यता- संस्कृति को समाप्त करने का एक कुटिल और भयानक षड्यन्त्र था। जिस प्रकार अरब और यूनान की सभ्यताएं समाप्त हो गयीं, उनका नाम लेने वाला भी आज कोई नहीं है, उसी प्रकार इस देश की अस्मिता और अस्तित्व को कुचलने का नहीं, जड़ से उन्मूलन करने का प्रयास विदेशियों द्वारा किया जा रहा था। hindu dharm ved

उस समय इस देश के मनस्वी विद्वानों अर्थात ब्राह्मणों ने अपना जीवन नहीं वरन पीढ़ियों के जीवन को इस वेदज्ञान राशि की रक्षा में अर्पित कर दिया। यह एक ऐसा अभिनव प्रयास था, जिसकी समता विश्वसाहित्य की रक्षा में किसी अन्य प्रयास से नहीं की जा सकती। यह उत्सर्ग सीमा पर कठोर यन्त्रणाएं सहकर प्राण विसर्जन करने वाले वीरों की बलिदान गाथा से कहीं बढ़कर है। hindu dharm ved

वेदपाठ की अष्टविकृतियुक्त विधि और उसका महत्व
वेदों की रक्षा के लिए जिस विधि का विधान किया गया, वह अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि कहलाती है। इस प्रयास के कारण ही hindu dharm ved वर्तमान में अविकल रूप में उपलब्ध हैं और उसमें एक अक्षर की भी मिलावट करना संभव नहीं हो सका। इस अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि में वेद के प्रत्येक पद का उच्चारण अनुलोम तथा विलोम विधि से किया जाता है, जिससे उसके रूपज्ञान में किसी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं रहती है। शैशिरीय समाम्नाय में महर्षि व्याडि ने जटा आदि आठ विकृतियों के लक्षण बतलाये हैं-

शैशिरीये समाम्नाये व्याडिनैव महर्षिणा।

जटाद्या विकृतीरष्टौ लक्ष्यन्ते नातिविस्तरम्।।

जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः।

अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः त्रमपूर्वा महर्षिभिः।।- शैशिरीय समाम्नाय 1, 2।।

क्रम पाठपूर्वक महर्षियों ने आठ जटा आदि विकृतियाँ के लक्षण प्रतिपादित किए हैं- जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दण्ड, रथ, घन। मंत्रों का प्रकृत उपलब्ध पाठ संहितापाठ कहलाता है। पाणिनीय सूत्र 1/4/109 में संहिता का लक्षण करते हुए पाणिनी कहते हैं- परः सन्निकर्षः संहिता। वर्णों की अत्यन्त समीपता का नाम संहिता है। ऋग्वेद 10/97/22 के अनुसार संहिता पाठ के प्रत्येक पद विच्छेद पूर्वक पाठ करना पदपाठ कहलाता है। पदपाठ में पद तो वे ही रहते हैं, परन्तु पदपाठ में स्वर में बहुत अन्तर आ जाता है। संहितापाठ में जहाँ स्वर संहितापाठ की दृष्टि से लगे होते हैं, वहीं पदपाठ में स्वरों का आधार पद होता है। क्रम से दो पदों का पाठ क्रमपाठ कहलाता है। ऋषि कात्यायन के अनुसार भी क्रम पूर्वक दो पदों का पाठ क्रमपाठ है।

वेदपाठ की विभिन्न विधियाँ: जटा, शिखा और माला पाठ

इस क्रमपाठ का प्रयोजन स्मृति माना गया है। अनुलोम तथा विलोम प्रकार से जहाँ क्रम तीन बार पढ़ा जाता है, उसे जटा पाठ कहते हैं। अनुलोम तथा विलोम प्रकार से मन्त्र में क्रम से आये दो पदों का तीन बार पाठ करना चाहिए। विलोम में पद के समान संधि होती है, जबकि अनुलोम में क्रम के समान। जटा पाठ में प्रथम सीधा क्रम, तदन्तर विपरीत क्रम, पुनः उसी सीधे क्रम का पाठ किया जाता है। गणितीय भाषा में इसको1, 2, 1कहा जा सकता है। जब जटापाठ में अगला पद जोड़ दिया जाता है, तब वह शिखापाठ कहलता है। शिखापाठ प्रथमपद, तदनन्तर द्वितीय पद, पुनः वही प्रथम पद और उसके पश्चात तृतीय पद का ग्रहण किया जाता है। अगली पंक्ति में तृतीय एव चतुर्थ पद का अनुलोम, विलोम, पुनः अनुलोम करने के पश्चात पंचम पद का पाठ किया जाता है।

इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है। माला पाठ दो प्रकार का होता है- पुष्पमाला और क्रम माला। क्रममालापाठ के आधी ऋचा के प्रारम्भ के दो पद तथा अन्त का एक पद, तदनन्तर प्रारम्भ से द्वितीय एवं तृतीय पद तथा अन्त की ओर से षष्ठ एवं पञ्चम पद, पुनः प्रारम्भ से तृतीय एवं चतुर्थ पद और अन्त की ओर से पंचम एवं चतुर्थ पद। इसी प्रकार आधी ऋचा के मध्य से आदि और अन्त की ओर बढ़ते हुए चले जाते हैं और पुनः जहाँ से चले थे वहाँ पहुँच जाते हैं। रेखा पाठ में दो, तीन, चार या पाँच पदों का क्रमशः पाठ किया जाता है। इस पाठ में प्रथम अनुलोम पाठ किया जाता है, तदनन्तर विलोम, पुनः अनुलोम पाठ किया जाता है।

वेदपाठ की विशेष विधियाँ: ध्वज, दण्ड, रथ और घनपाठ

ध्वजपाठ में क्रम से प्राप्त होने वाले दो पदों का पाठ करते हुए आदिक्रम में अनुलोम से प्रारम्भ होकर अन्त तक तथा अन्तक्रम में विलोम से प्रारम्भ होकर आदि तक पहुँचा जाता है। दण्डपाठ में प्रथम अनुलोम पुनः विलोम पाठ करते हुए मन्त्र के सभी पदों का पाठ किया जाता है।

यह पाठ इस प्रकार का होता है कि प्रथम दो पदों का अनुलोम-विलोम करते हुए त्रमशः उसमें एक-एक पद की वृद्धि की जाती है। रथ पाठ तीन प्रकार का होता है- द्विचक्ररथ, त्रिचक्ररथ, चतुश्चक्ररथ। घनपाठ में क्रम को अन्त से प्रारम्भ करके आदि पर्यन्त और आदि से प्रारम्भ करके अन्त तक ले जाया जाता है। इस घनपाठ के अनेक भेद हैं। घनपाठ अन्य वेदपाठों की तुलना में अधिक कठिन माना जाता है। वैदिक विद्वानों के अनुसार  यह मेधाशक्ति की पराकाष्ठा तथा उत्कर्ष है कि ऐसे विषम पाठ को हमारे वेदपाठी शुद्ध स्वर से अनायास ही पाठ करते हैं।

सामवेद की रक्षा करने के लिए ऋषियों ने उपर्युक्त से भिन्न प्रक्रिया अपनायी है। सामवेद की रक्षा की दृष्टि से स्वरगणना का माध्यम अपनाया गया है। यह स्वरगणना अत्यन्त समीचीन है और ऐसी गणना अन्य वेदों के मंत्रों में नहीं पायी जाती है। सामवेद के ऋचाओं पर उदात्तादि तीनों स्वरों के विशिष्ट चिह्न अंकित किये गये हैं। सामवेद में उदात्त के ऊपर1 का अंक, स्वरित पर 2 का तथा अनुदात्त पर 3 का अंक लगाया जाता है। स्वरों की विशेष गणना की व्यवस्था सामवेद में की गयी है।

वेदों की रक्षा: वेदपाठविधि और इसके अभेद्य सुरक्षा उपाय

वैदिक विद्वानों के अनुसार इस वेदपाठविधि के विधान के कारण ही वाममार्गी और जैनियों ने जो इस देश के साहित्य को प्रदूषित करने का कुचत्र चला रखा था, वह प्रदूषण वेदों को संत्रमित नहीं कर पाया। महाभारत युद्ध के पश्चात जहाँ एक ओर भारत देश वीरों और विद्वानों से शून्य हो गया था, वहीं दूसरी ओर स्वार्थी तत्त्वों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए समग्र भारतीय साहित्य को नाना प्रकार से संदूषित करने की प्रक्रिया चला रखी थी।

उनका यह प्रयास बहुत अधिक सफल भी रहा, परंतु वे वेद में एक भी अक्षर की मिलावट करने में सफल नहीं हो सके। जिसके कारण hindu dharm ved का उच्चारण जिस प्रकार प्राचीन काल में हुआ करता था, आज भी इस वेदपाठविधि के कारण उसी रूप में सुना जा सकता है। यह व्यवस्था वेद की रक्षा के लिए एक अभेद्य दुर्ग का निर्माण करती है। यही कारण है कि वर्तमान में वेद उसी शुद्ध और प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हो रहा है।

( लेखक सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता हैं। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर शोधपूर्ण लेखन करते हैं )
साभार- https://www.nayaindia.com/ से

रंगबिरंगी तितली रानी : बाल मन को प्रफुल्लित करती कविताएं

अपने करतबों से हंसता, बहलाता जोकर, छुक- छुक करती रेल की सवारी का आनंद, पेड़,बगीचे,नदियां,बादल, बरसात प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ती, बंदर,हाथी, भालू, घोड़े, मुर्गा,कुत्ता,बिल्ली , कोयल पशु – पक्षी का महत्व समझाती, प्यार लुटाती माँ, मदारी का कौतुक लिए कविताओं का संग्रह ” रंगबिरंगी तितली रानी ” बाल मन को रोमांचित करता है। योगिराज योगी की छोटी –  छोटी बाल कविताओं का यह ऐसा  अनूठा  संग्रह है जिसमें नन्हें -मुन्नों के लिए भरपूर मनोरंजन है, कौतुक है, जानकारियां है, रोचकता है, और सामान्य जान से भरपूर हैं।
कविताएं बच्चों की जिज्ञासाओं को भी पूरा करने में सहायक हैं। जिनके प्रति बच्चों को लगाव होता है वह कविताओं में समाया है। भाषा  और शब्दों का चयन इतनी सहज, सरल,तरल है की सीधे दिल और दिमाग को छू लेती है। मनोरंजन का पुट भरपूर होने से इन्हें गुनगुनाने लगते हैं। मुख्य विशेषता यह भी है कि बाल कविताओं में पारंपरिक विषयों के साथ – साथ अधुनातन का भी मेल भी देखने को मिलता है।
” मेरी मम्मी” कविता में जब बच्चा कहता है, ” रोटी गरम खिलाती मम्मी, मुझ पर प्यार लुटाती मम्मी” तो इससे मॉ का उसके प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। ऐसे ही नानी के वात्सल्य भाव को बताते हुए बालक ” नानी का घर ” कविता में कहता है, ‘ नानी रखती पूरा ध्यान, हो कर आता मैं बलवान।’
किसी को मुस्कराहट देने से बड़ा कोई काम नहीं है। आपके किसी काम से कोई मुस्कराए इस से बड़ी दूसरी कोई बात नहीं हो सकती। इस संदेश को बहुत ही प्रभावी तरीके से बच्चों को दिया है ” जोकर ” कविता में, ” जोकर सर्कस की जान, नाटा कद इस की पहचान/ टॉप लगता अपने सर पर, खूब हंसता हमको जम कर/ नए नए करतब दिखाता, हँसा हँसा
कर मन बहलाता/ बड़ा कठिन है खुशी लूटना, जोकर से सीखो मुस्काना ।
 आकाश में तारे खूब चमकते हैं, टिम टिमाते हैं, प्रकाशित होते हैं – इस पर लिखी कविता ” तारे” में ध्रुव तारे की जानकारी मनोरंजन के साथ यूं दे दी है, ” ध्रुव नाम का एक तारा, चमचम करता लगता प्यारा।” ” बिल्ली ” कविता में इसके स्वभाव से परिचय कराते हुए लिखते हैं, ” आँखें घूर डराती बिल्ली, कुत्तों से घबराती बिल्ली।” इसी तरह ” मोर ” कविता में मोर का स्वभाव बताया गया है, ” नाच दिखाता पंख खोल कर, दाना चुगने आता घर पर/ मिर्ची बेज चाव से खाता, इसे देख सांप छिप जाता।”
जीवन में फुर्ती का और चौकस अर्थात सजग रहने के महत्व पर ” हिरन ” कविता में उसके इन्हीं गुणों को बच्चों तक पहुंचाने का प्रयास किया है, ” आँखें इसकी सुंदर, फुर्ती में बड़ा धुरंधर/ चौकस रह कर चरता है, सदा झुंड में रहता है।” उड़ती, फूलों पर मंडराती तितली बच्चों को कितना भाती है,कवि इस कविता में कहता है, ” चार पंख होते छः पैर, उपवन उपवन करती सैर/ बच्चें दौड़ लगते पीछे, तितली से इनका मन रीझे।” सड़क कविता में बच्चों को दुर्घटना से बचने का उपयोगी संदेश दिया है, ” इस पर बाईं ओर है चलना, दुर्घटना से बच कर रहना।” संग्रह की अंतिम कविता ” बादल” बरसात के फायदे के बारे में जागरूक करती है, ” खेतों खेतों में खड़े किसान, खुशहाली के गाते गान।”
मनोहारी सभी चालीस बाल कविताओं का यह इंद्रधनुष बच्चों के मन को खूब भाएगा। कवि के लेखन की यही सार्थकता है। साहित्यकार रामेश्वर शर्मा ‘ रामू भैया ‘ ने अपने मन को कविताओं से जोड़ते हुए  ” रंगबिरंगी तितली रानी और मेरा पाठक मन* प्रेरक भूमिका लिखी है। प्रकाशकीय साहित्यकार कीर्ति श्रीवास्तव ने लिखा है। और यूं हुआ बाल कविताओं का सृजन में लेखक ने सहयोगियों का आभार जताते हुए भविष्य में बाल लेखन करते रहे का संकल्प लेते हुए यह कृति बच्चों को पसंद आने की कामना की है। हरे और गुलाबी आभा लिए फूलों और तितलियों से सज्जित आवरण पृष्ठ आकर्षक है।
पुस्तक : रंगबिरंगी तितली रानी
लेखक : योगिराज योगी, कोटा
प्रकाशक : बौद्धि प्रकाशन, जयपुर
प्रथम प्रकाशन  : 2022
कवर : पेपर बैक
पृष्ठ : 52
साइज : ए फॉर
मूल्य : 220 ₹
(लेखक कोटा में रहते हैं और साहित्यिक व सांस्कृतिक व पर्यटन से जुड़े ऐतिहासिक विषयों पर  लेखन करते रहते हैं)
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

अरब सागर में जहाज डूबने के बाद भारतीय तटरक्षक बल ने चालक दल के नौ सदस्यों को बचाया

भारतीय तटरक्षक बल (आईसीजी) ने 26 दिसंबर, 2024 को पाकिस्तान के खोज और बचाव क्षेत्र (उत्तरी अरब सागर) में गुजरात के पोरबंदर से लगभग 311 किलोमीटर पश्चिम में स्थित एक डूब चुके हुए जहाज एमएसवी ताज धारे हरम से नौ भारतीय चालक दल के सदस्यों को सफलतापूर्वक बचा लिया। चुनौतीपूर्ण समुद्री परिस्थितियों में चलाए गए खोज और बचाव मिशन ने मुंबई और कराची, पाकिस्तान के समुद्री बचाव समन्वय केंद्रों (एमआरसीसी) के बीच असाधारण सहयोग को प्रदर्शित किया।

गुजरात के मुंद्रा से रवाना होकर यमन के सोकोत्रा की ओर जाने वाला यह जहाज समुद्र की लहरों और जहाज पर बाढ़ की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुआ। नियमित निगरानी उड़ान के दौरान आईसीजी डोर्नियर विमान को संकट की सूचना का पता लगा, जिसके बाद एमआरसीसी, मुंबई और गांधीनगर में आईसीजी क्षेत्रीय मुख्यालय (उत्तर पश्चिम) ने तुरंत कार्रवाई की। पहले से ही नजदीक में गश्त कर रहे आईसीजीएस शूर को घटनास्थल पर तेज़ रफ्तार से भेजा गया, जबकि एमआरसीसी पाकिस्तान ने इलाके में मौजूद जहाजों को सतर्क कर दिया। गहन खोज के बाद, चालक दल के सदस्यों को एक लाइफ राफ्ट (जीवन रक्षक बेड़े) पर पाया गया, जो जहाज को छोड़कर शरण ले रहे थे।

बचाव अभियान जहाज के पूरी तरह डूबने से पहले, शाम करीब 4 बजे पूरा हुआ। सभी चालक दल के सदस्यों को सुरक्षित रूप से आईसीजीएस शूर पर लाया गया, जहां उन्हें चिकित्सा सहायता प्रदान की गई और उन्हें स्वस्थ घोषित किया गया। नाविक अब पोरबंदर बंदरगाह के लिए रवाना हो गए हैं।

मीठा मीठा मीडिया, कुनैन है पत्रकारिता

मैं किस्म किस्म के गीत बेचता हूं, बोलो जी कौन सा खरीदोगे, गीत की यह पंक्तियां जब पढ़ते थे तो हंसा करते थे। तब मालूम ना था कि यह गीत की यह दो पंक्तियां भविष्य की मीडिया की कहानी का सच बन कर सामने खड़ा कर दिया जाएगा। आज यही सच है कि मीडिया का कारोबार बढ़ रहा है और सरोकार की पत्रकारिता हाशिए पर है। या यूं कहें कि अब साम्राज्य मीडिया का ही रहेगा तो कुछ गलत नहीं है। नई पीढ़ी संभावनाओं से लबरेज़ है, वह जानना और समझना चाहती है। वह पत्रकारिता करना चाहती है लेकिन हम ही उन्हें मीडिया का हिस्सा बना देते हैं। एक जवान को जिंदगी में हम जैसी तंगहाली थोड़े चाहिए। उसे थोड़े समय में आसमां छू लेना है। एयरकंडीशन केबिन, बड़ी गाड़ी और ज्ञान के नाम पर कान में फूंके गए मंत्र के बूते रातों रात स्टार बन जाते हैं। आज की पत्रकारिता का सच यही है।
अब जब इस राह से गुजरना हो तो कुछ अपने अनुभव पुराने और नए साथियों के अनुभव को साझा करना ज़रूरी हो जाता है। उम्र के 6 दशक में इतना तो पा लिया कि सम्मान के साथ अपनी बात कह सकने का साहस रखूं। हां, एक बात से हमेशा भी खाता हूं कि कोई नया साथी मुझे गुरु संबोधित करे। मैं इस शब्द से बेजार ही रहना चाहता हूं और अब तक यक़ीन है। खैर, मुद्दा यह है कि मीडिया का नए वर्ष में क्या स्वरूप होगा? यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि मीडिया का स्वरूप पहले से बेहतर होगा और होना भी चाहिए। आज का नौजवान लाखों खर्च कर जब पढ़ाई पूरी करता है तो उसे इसका भी हकदार मानने में कोई हर्ज नहीं। खर्च किया है तो वापस लेगा भी। मीडिया की यही खासियत उसे दिनों दिन आगे बढ़ा रही है। इसलिए मुझे निजी तौर पर लगता है कि सब ठीक है। व्यापार की समझ ना पहले थी और अब क्या होगी। हां लिखने का जो सुख मिलता है, वह मेरी अपनी पूंजी है।
मीडिया शब्द ही आरम्भ से मेरे लिए एक पहेली बना रहा। संभव है कि जानकार इसके व्यापक प्रकार से परिचित हों और मैं ग़ाफ़िल। यह शब्द भारतीय हिंदी पत्रकारिता का तो ना है और ना होगा। हम गांधी बाबा की पत्रकारिता से जुड़े हैं। हमारे पुरुखों में शान से पराड़कर, विद्यार्थी और अनेक नाम हैं, जिन्हें पढ़ कर हमने दो शब्द लिखना सीखा है। इस थाती को मीडिया के नाम करने का कोई इरादा नहीं। हां, इक इल्तज़ा नए साथियों से ज़रूर रहती है कि मीडिया में भविष्य ज़रूर बनाएं लेकिन आत्मा में हमारे पुरुखों को भी सहेज कर रख लें। जब आप बीमार होते हैं तब रसोगुल्ला ठीक नहीं करता, वैसे ही मीडिया की चकाचौंध से ऊब जाने पर पुरखा पत्रकार आपको स्ट्रेस से बचा सकते हैं।
मीडिया और पत्रकारिता के बीच एक महीन सी दरार है और यह सहमति है कि दोनों के रास्ते जुदा जुदा हैं। मीडिया कहता है कि राजा ने कहा रात है, मंत्री ने कहा रात है, सबने कहा रात है, यह सुबह सुबह की बात है। पत्रकारिता की रीत इससे उलटी है। वह हां में हां करने और लिखने से अलग रखता है। मेहनत कम, मॉल में दम मीडिया के लिए कारगर संबोधन है। अब फ्यूचर मीडिया का ही होगा, कोई शक नहीं। अब हम बाज़ार हैं, उपभोक्ता हैं और हमारा मूल्य मीडिया चुकाता है।
बरबस मुझे अपने बचपन के उन दिनों की याद आ जाती है जब पूरे अख़बार को धूप में फ़ैला कर हिज्जा कर अपनी हिंदी ठीक करते थे। पांच पैसों का उस दौर में क्या मोल था, मेरे अपने दौर के दोस्त जानते हैं। अब जरूरत हिंदी की नहीं, हिंदी को हाशिए पर रख देने की है और वह बाज़ार के इशारे पर हो रहा है। आपके मेरे बच्चे अंग्रेजी स्कूलों से शिक्षित हैं और अपना भविष्य अंग्रेज़ी में तलाशते हैं तो इसमें उनकी नहीं, हमारी गलती है। इन सब के बीच हमने क्या खोया, इसकी मीमांसा करने बैठ गए तो लज्जा से ख़ुद का चेहरा भी आईना में देख नहीं पाएंगे। एक दूसरे की पीड़ा, रिश्तों की गर्माहट अब सिक्कों की खनक में दबा दिया गया। मीडिया सुविधा देता है और पत्रकारिता सुकून। तय नौजवान पीढ़ी को करना है कि उसे क्या चुनना है। मेरी समझ में सुकून के ऊपर सुविधा बैठेगी।
अब अख़बारों को भी ताज़ा चेहरा चाहिए। अगर ठीक हूं तो 35 पार के लिए कपाट बंद है। यह भी बाजार की रणनीति है। लेकिन ठीक उलट टेलीविजन की दुनियां है जहां उम्रदराज लोगों की बड़ी टीम का जमावड़ा है। इस विरोधाभास को भी समझने की कोशिश कर रहा हूं। यकीनन यह भी बाजार की ही रणनीति होगी लेकिन समझना होगा कि इसके बाद भी कारगर कौन है?
आख़िर जिस दौर में हम यह तय कर रहे हैं कि कौन सा अखबार किस वर्ग का होगा, उस दौर में यह सब बेमानी है। मुद्दा यह है कि वक्त अभी बीता नहीं कि हम लालटेन बन कर रास्ता ना दिखा सकें। पत्रकारिता के बाद एक शिक्षक के नाते पूरा भरोसा है कि एक लालटेन की रोशनी पूरा खेल बदल देगी। आपको उनकी भाषा, बोली में बात करना सीखना होगा। कितने को याद है कि शशिकपूर अभिनीत न्यू डेल्ही टाइम्स नाम की कोई फिल्म आई थी। ऐसे अनेक उदाहरण है जिसे लालटेन की महीन रोशनी से उन भावनाओं को ज़िंदा रखा जा सकता है, जिसकी हमारे पास शिकायतों का अंबार है। हां, ध्यान रखिए किसी को सिखाने के पहले ख़ुद को शिक्षित करना होगा।
(एम सी यू में एकजंट प्रोफेसर रहे वरिष्ठ पत्रकार कम्युनिटी रेडियो के जानकार हैं। मध्य प्रदेश शासन में 8 कम्युनिटी एवं रेडियो कर्मवीर की स्थापना के पहले रेडियो सलाहकार भी रहे। दस अन्य किताबों के साथ हिंदी में कम्युनिटी रेडियो पर किताब भी है। 25 वर्ष से नियमित प्रकाशित रिसर्च जर्नल “समागम” के संपादक हैं)