शुभ्रा मुखर्जी चली गईं। वे देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का पत्नी थीं। पर, दो बेटियों और एक बेटे के अलावा अपने जैसे कुछ लोगो के लिए भी वे मां थीं। मां इसलिए, क्योंकि होने को तो वे शर्मिष्ठा मुखर्जी की माताजी थीं। लेकिन अपनी बेटी के नजदीक ही नहीं दूर के साथियों को भी उन्होंने जो स्नेह दिया, वह मां के स्नेह से कभी कम नहीं रहा। शुभ्रा मुखर्जी यानी साक्षात ममता की मूरत। माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और कुछ कहती हुई सी गोल गोल आंखें। उन आंखों में से झांकता स्नेह का संसार उन्हें किसी भी अन्य महिला से अलग करता था।
पानी में रहकर भी खुद को पानी से अलग कैसे रख जाता है, यह कोई नहीं जानता। लेकिन यह गुर शुभ्राजी जानती थीं। इसीलिए वे छह दशक के लंबे कालखंड तक देश के सबसे सफलतम राजनेता की पत्नी रहीं, राजनीति और उसकी छाया से हमेशा कोसों दूर रहीं। लेकिन अब, पानी में रहकर बी पानी से विरत रहने का यह गुर उनके साथ ही स्वर्ग में समा गया। उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी का नृत्य का अपना अलग संसार है। शुभ्राजी से अपना संपर्क आलोक तोमर के जरिए था। कुछ वक्त पहले आलोक तोमर स्वर्ग सिधार गए, तो शुभ्रा जी से वह संपर्क भी समाप्त हो गया। लेकिन आज जब शुभ्रा मुखर्जी के दुनिया से चले जाने की खबर सुनी तो वे कुछ बातें यादों में फिर से ताजा हो गईं जो प्रणब दा के वित्त मंत्री, और विदेश मंत्री रहने के दौरान जी थीं। मां ने अपनी बेटी शर्मिष्ठा को भी वैसा ही बनाया। राजनीतिक परिवार में रहने के बावजूद राजनीति से मीलों दूर रहनेवाली शर्मिष्ठा मुखर्जी के सबसे करीबी मित्र देश के वरिष्ठ पत्रकार और हमारे भाई आलोक तोमर उनकी पीडा के क्षणों और पारिवारिक सुख के गवाह रहे हैं। शर्मिष्ठा के एक कत्थक प्रस्तुति कार्यक्रम पर आलोक तोमर ने जो कविता लिखी थी, उसे सुनकर शुभ्राजी की आंखों में जो गदगद भाव दिखा था, वह भी अपने आपमें अलग अनुभव था। शुभ्राजी से अपन कुल जमा कोई छह बार मिले होंगे। लेकिन हर बार वे मातृत्व से गदगद मिली।
शर्मिष्ठा मुखर्जी प्रणब दा की बेटी होने से ज्यादा बड़ी कलाकार है। लेकिन कलाकार होने की परंपरा का निर्वहन करने में परिवार का राजनीतिक कद कभी बीच में न आए, तो ही कला अपने असली स्वरूप में निखार लेगी। यह उन्होंने अपनी माता शुभ्राजी से सीखा। वे बताती रही है कि उनके माता पिता जीवन में कभी आपस में नहीं लड़े। राजनीति में होने के कारण घर के लिए समय कम दे पाना हमेशा से प्रणब दा की राजनीतिक मजबूरी रही। लेकिन माता शुभ्रा मुखर्जी ने कभी उनसे कोई शिकायत नहीं की। कोई शख्स जिसकी संगीत और नृत्य में खासी रुचि हो, तो उसके भीतर ममता का सागर भी निश्चित रूप से हिलोरे ले रहा होता है। सन 1998 में जब अपन आलोक तोमर के साथ जब पहली बार शर्मिष्ठा मुखर्जी के साथ उनकी माताजी से मिले, तो इतना स्नेह मिला कि अपनी तो झोली भी भर गई सी लगी थी। शुभ्रा मुखर्जी अपने घर आनेवाले हर व्यक्ति से इतने स्नेह के साथ मिलती थीं, कि उसे लगता ही नहीं था कि वह पहली बार उनसे मिल रहा है। अपने साथ भी ऐसा ही हुआ था।
घर के गमलों का, उनमें पल रहे पौधों और उन पर उगे फूलों का शुभ्रा मुखर्जी बहुत खयाल रखा करती थीं। राष्ट्रपति भवन में भी वे बहुत सारे गमलों और फूलों का खयाल किया करती थीं। उनको फूलों से बहुत प्यार था। वे जन्मी तो तब के हिंदुस्तान में ही थीं, लेकिन अब उनका जन्मस्थान बांग्लादेश में पड़ता है। खुद पर बहुत भरोसा करती थीं। मानती थीं कि खुद पर भरोसा करके सपने देखने वालों के सामने दिक्कतें तो बहुत आती हैं, लेकिन यह भी जानती थीं कि वो उन दिक्कतों का मजबूती से सामना करते हैं वे ही अपना मुकाम हासिल करते हैं। प्रणब दा के जीवन के हर पड़ाव पर मजबूती से उनका सहारा बनी रहीं। शुभ्रा मुखर्जी की जिंदगी की असली तस्वीर यही है। प्रणब दा अब अकेले हैं। और, जीवन भर ममता की मूरत रही शुभ्राजी की सूरत अब तस्वीर में सजेगी, यह तकलीफदेह बात है। प्रणब दा के लिए भी, अपने लिए भी और देश के लिए भी। अच्छे इंसान का दुनिया से चले जाना तकलीफ देता है। यह प्रणब दा के मन के मर्म को समझने का वक्त है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)