कोरोना महामारी के शोर में इस साल जून से अब तक करीब बीस हजार भारतीय अपने खेतों में सर्पदंश से मौत का शिकार हो चुके हैं। देश भर में करीब तीन लाख लोग हर साल सांप के काटने का शिकार होते है ।हर दस मिनिट में एक व्यक्ति की मौत इसके चलते हो रही है।स्वास्थ्य पर तमाम बड़े वादों औऱ मिशन मोड़ वाले कार्यक्रमों के इतर सर्पदंश का यह जानलेवा सिलसिला पिछले 20 बर्षों से बदस्तूर जारी है।पूरी दुनियां में हर साल करीब सवा लाख लोग सांप के जहरीले दंश से मारे जाते है जिनमे से लगभग आधे भारतीय होते है।हाल ही में “टोरंटो विश्वविद्यालय “के सेंटर फॉर ग्लोबल रिसर्च ने यूनाइटेड किंगडम के सहयोग से इस मामले पर एक शोध के नतीजे सार्वजनिक किए है।इसमें कहा गया है कि बर्ष2000 से 2019 के मध्य भारत मे करीब 12 लाख लोग सर्पदंश से मौत के मुंह मे समाये जा चुके है।
चौकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें से 25 फीसदी 15 से 29 साल के लोग है।यानी भारत मे बच्चे सर्वाधिक शिकार हो रहे है।”ट्रेंड इन स्नेकबाइट डेथ इन ए नेशनली” रिप्रजेंटेटिव मोरेटेलिटी स्टडी”नामक शीर्षक से जारी इस शोध दस्तावेज में विस्तार से भारत के इस स्याह पक्ष को रेखांकित किया गया है।खासबात यह है कि इस त्रासदी को फीसदी भोगने वाला 97 फीसदी तबका गांव का गरीब आदमी है। ऐसी मौतें खेत मे काम करते वक्त या उन गरीबों के साथ होती है जिनके पास पक्के घर और सोने के लिए ऊँचे पलँग नही है। जो मजदूरी के लिए जूते,रात्रि टार्च,दस्ताने जैसें साधनों से वंचित रहते है।जाहिर है सर्पदंश का केंद्र गांव,गरीब,किसान और मजदूर ही है।शहरी इलाकों में केवल 3 फीसदी सर्पदंश की मौत का खुलासा करने वाली इस शोध रपट के अनुसार करीब 58 हजार भारतीय प्रति वर्ष इसलिये मारे जाते है क्योंकि उनके रहवास के आसपास एंटी वेनम डोज या तो उपलब्ध नही होते है और अगर है भी तो वहां ट्रेंड स्टाफ नही होता है।
सांप के काटने के बाद अगले एक से दो घण्टे निर्णायक होते है लेकिन जागरूकता के आभाव में ग्रामीण पहले तो झाड़ फूंक के चक्कर मे पड़ते है और जब अस्पताल की बारी आती है तब वहां एंटी वेनम की उपलब्धता ही नही रहती।इस शोध के मुताबिक आधी से ज्यादा मौतें जून से सितंबर के महीनों में होती है जब मानसून के साथ देश भर में धान,सोयाबीन,मूंगफली जैसी फसलों की पैदावार में किसान खेतों में लगे रहते है।देश में एक चौथाई घटनाओं के केंद्र महाराष्ट्र, गोवा,औऱ गुजरात है। लेकिन सर्पदंश से 70 फीसदी मौतें आठ राज्य बिहार,यूपी,मप्र,राजस्थान,आंध्रप्रदेश(तेलंगाना सहित)झारखण्ड,ओडिसा,औऱ गुजरात में होती हैं।इनमें से भी हर बर्ष यूपी में 8700,बिहार में 4500 एवं आंध्र तेलंगाना मिलाकर 5200 लोगों की मौत सांप के जहर औऱ एंटी वेनम नही मिलने के चलते हो रहीं है।समझा जा सकता है कि अन्य सभी मानकों में पिछड़े यूपी बिहार जैसे बड़े राज्य इस मामले में भी गरीबों के लिए कुछ नही कर पा रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या सर्पदंश से मौत के मुंह मे जाने वाले लोग देश के मजदूर,किसान है इसलिए इस मामले पर कोई बुनियादी पहल आज तक नही हुई?हकीकत भी कुछ ऐसी ही बिहार,मप्र या यूपी के किसी भी दूरदराज के प्राथमिक/उप स्वास्थ्य केंद्र में चले जाइये आपको एंटी वेनम की उपलब्धता खोजने से नही मिलेगी। इसका रखरखाव फ्रिज में करना होता औऱ देश के अधिकांश पीएचसी पर यह सुविधा आज भी उपलब्ध नही है मजबूरन लोग ऐसे मामलों में जिला अस्पताल या निजी नर्सिंग होम्स में जाते है।वहां तक आने में लगने वाला समय ही सर्पदंश के मामले में निर्णायक होता है।सरकार के स्तर पर पहली बार 2009 में ” नेशनल स्नेकबाइट मैनेजमेंट प्रोटोकॉल”तैयार किया गया था लेकिन इस पर अमल के मामले में फिलवक्त कोई ठोस काम नही हुआ है।आज एंटी वेनम की बाजार में कीमत साढ़े पांच सौ रुपए है और इसका मानक डोज देने वाले ट्रेंड लोगों की देश भर में कोई ट्रेनिंग नही होती है इसीलिए कई लोग तो ओवर डोज के चलते भी मर जाते है या स्थाई विकलांगता का शिकार हो जाते है।
ग्वालियर की प्रतिष्ठित डॉक्टर नीलिमा सिंह का मानना है कि अधिकांश मौतों को रोका जा सकता है बशर्ते समय पर निर्धारित एंटी वेनम डोज उपलब्ध हो।वह जोड़ती है कि भारत में प्रशिक्षित डॉक्टरों एवं पैरा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है क्योंकि ऐसी कोई प्रमाणिक व्यवस्था है ही नही।चूंकि इस डोज को बनाने में दवा कम्पनियो को बड़ा फायदा नही होता है इसलिये चुनींदा कम्पनियों में ही इसका निर्माण होता है।भारत मे डोज बनाने वाली “प्रीमियम सीरम्स एन्ड वैक्सीन्स”के मालिक एमबी खंडेलकर मानते है कि मुनाफे में न्यूनता बड़ी कम्पनियों की दिलचस्पी न होने का अहम कारण है हालांकि वह इसकी तकनीकी दिक्कतों को भी एक वजह मानते है।
एंटी वेनम भेड़ों औऱ घोड़े से बनाई जाती है जो एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया है ।साथ ही इसकी खपत डाक्टरों और दवा कम्पनियों के मध्य बदनाम पारम्परिक संव्यवहार का हिस्सा भी नही है।इसका संधारण कठिन होने से भी यह निजी दवा कम्पनियों के लिए प्राथमिकता में नही रहती है।डॉ नीलिमा सिंह का दावा है कि पिछले 12 साल से पौधों के एंटी ऑक्सीडेंट लेकर गोली के रूप में एंटी वेनम ईजाद करने पर काम चल रहा है जो कि अंतिम चरण में है।गोली के रूप में इसके आने के बाद डोज को लेकर आने वाली तकनीकी समस्या का समाधान होने की बात कही जा रही है।यह संधारण की दिक्कतों से भी निजात दिलाने वाला नवोन्मेष होगा।इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी गंभीरता से काम कर रहा है उसका लक्ष्य 2030 तक सर्पदंश से होने वाली मौतों के आंकड़े को आधा करने का है।हालांकि इसके लिए एंटी वेनम का उत्पादन 25 से 40 फीसदी बढ़ाने पर भी काम करना होगा।
भारत में होने वाली मौतों को लेकर सरकारी आंकड़े अक्सर दुरूह प्रक्रिया के चलते वास्तविकता को बयां नही करते है क्योंकि सरकार उन्ही मामलों की गणना करती है जो उसके।राजस्व औऱ पुलिस रिकार्ड में दर्ज होते है।गांव देहात में लोग अक्सर ऐसे मामलों की रिपोर्ट थानों में नही करते है क्योंकि मृत्यु के बाद पोस्टमार्टम कराना पड़ता है तब जाकर पुलिस मर्ग कायमी कर प्रकरण राजस्व अधिकारियों को भेजती है।मप्र जैसे राज्यों में ऐसे मामलों में पचास हजार की सात्वना राशि देने का प्रावधान है लेकिन अधिकतर लोग इस प्रक्रिया का पालन ही नही करते है।इसीलिए केंद्रीय स्तर पर ऐसी मौतों का आंकड़ा वास्तविकता से बहुत दूर होता है।
संभवत इसीलिये अन्य बीमारियों या कैज्युल्टी की तुलना में सर्पदंश को लेकर सरकार गंभीर नहीं हैं।बेहतर होगा देश की मौजूदा स्वास्थ्य नीति में सर्पदंश को दुर्घटनाजन्य चिकित्सा सुविधा के दायरे से बाहर निकालकर स्थाई इलाज के मैदानी प्रावधान किए जाए।चूंकि इसका केंद्र गांव है इसलिए पीएचसी/सीएचसी स्तर पर एंटी वेनम की सहज उपलब्धता कम से कम मानसून के दौरान तो सुनिश्चित की ही जा सकती है।इस मामले पर शोध एवं प्रशिक्षण को बढाबा देने की भी आवश्यकता है।फिलहाल देश में केवल मुंबई के हाफ़क़ीन इंस्टिट्यूट एवं चेन्नई के इरुला कोपरेटिव सोसायटी में ही इस मामले पर थोड़ा बहुत काम किया जाता है।देश में होने वाली मौतों के मद्देनजर रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर काम बढ़ाये जाने की भी समानान्तर आवश्यकता है।