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आयुर्वेद की कथा – चतुर्थ भाग – वाग्भट्ट


धन्वंतरि समारम्भां, जीवकाचार्य मध्यमाम् ।
अस्मद् आचार्यपर्यन्ताम् , वन्दे गुरु परम्पराम् ॥

कलौ वाग्भटनामातु गरिमात्र प्रदर्शिते।

वाग्भट्ट की गरिमा कलियुग के प्रमुख वैद्य के रूप में प्रदर्शित है। क्योंकि उन्होंने कलियुग में आहार-विहार के नियम-सिद्धांतों का पालन न करने के कारण होने वाले रोगों व उनके निदान पर मुख्य कार्य किया है।

वह सिंध प्रदेश के रहनेवाले थे। उनकी कालगणना आज से 1000 से 1500 वर्ष पहले करी जाती है। जैन मत के हेमचंद्राचार्य जी (जिन्होंने सिद्धेम व्याकरण की रचना करी है) के काल में ही वाग्भट्ट हुये। संहिताओं में वर्णित भौगोलिक स्थिति देखकर, उनकी व्याख्याओं का वर्णन देखकर काल का निर्णय किया जाता है।

अष्टांग हृदय में वाग्भट्ट जब सूत्रस्थान, कल्पस्थान आदि में स्वयं का परिचय देते हैं तो ‘सिंहगुप्त सुनु’ ऐसा कहते हैं, इसके द्वारा यह सिद्ध किया जाता है कि वह सिंहगुप्त के पुत्र थे। उनके दादा का नाम भी वाग्भट्ट ही था (पहले ये परंपरा होती थी कि तीसरी पीढ़ी, पहली पीढ़ी का नाम रखा करती थी)।

इतिहास की दृष्टि से देखें तो उनके लिखे चार या पाँच ग्रंथ मिलते हैं, जो उपलब्ध है। अनुपलब्ध ग्रन्थ जैसे वाग्भट्ट निघंटु का वर्णन बहुत सारे ग्रंथों में मिलता है परंतु वो ग्रंथ अभी प्राप्य नहीं है। वाग्भट्ट संग्रह नामक ग्रंथ भी अभी अनुपलब्ध है किन्तु उसकी स्तुति भी कई जगह देखने को मिलती है। जब हूणों द्वारा तक्षशिला विश्विद्यालय की ग्रंथ राशि को जलाया गया था, उस समय इन ग्रंथों के नष्ट होने के संकेत मिलते हैं, ऐसा वैद्य लोग अनुमान करते हैं। उपलब्ध ग्रंथों में सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टांग हृदयम्’ है। उसके बाद अष्टांग संग्रह नामक ग्रंथ है। ‘रस रत्न समुच्चय’ भी वाग्भट्ट रचित माना जाता है, यद्यपि कुछ स्थानों में इसका खंडन भी किया गया है।

वाग्भट्ट ने चरक की काय चिकित्सा, सुश्रुत की शल्य चिकित्सा और उनके काल में उपलब्ध बहुत सारे विषयों के अनुसार अष्टांग हृदय का संकलन (compilation) किया। इसीलिए ‘हृदयइव हृदयमेतत् सर्वायुर्वेदांगमयपयोधे:’ – अष्टांग हृदय चिकित्सा जगत का हृदय है – जैसे कई वाक्य अष्टांग हृदयम् के बारे में मिलते हैं। अष्टांग हृदयम् के आयुष्कामीय अध्याय में ये बात कही गई है।

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वाग्भट्ट के विभिन्न ग्रंथों पर 34 व्याख्याओं का वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त ग्यारह व्याख्याएँ और हैं। वाग्भट्ट को संपूर्णता से समझ सकें इसलिए अरुण दत्त ने उनके ऊपर ‘सर्वांग सुंदरा’ व्याख्या लिखी है। उसके बाद हेमाद्रि की ‘आयुर्वेद रसायन’ नामक व्याख्या बहुत प्रसिद्ध है।

वाग्भट के कार्य पर अरुण दत्त द्वारा लिखी व्याख्या ‘सर्वांगसुंदरा’ उत्तम, सबसे प्रमाणभूत मानी जाती है। उसमें सूत्र स्थान में जो लिखा है, वैसी दिनचर्या का आचरण करना बहुत लाभकारी है।

वाग्भट्ट का शिक्षण अवलोकितेश्वर के आश्रम में हुआ था। अवलोकितेश्वर बौद्ध धर्म के दीक्षित भिक्षु थे। उस समय बौद्ध धर्म का प्रसार था और उनके मठ कई जगह रहे होंगे। क्योंकि राजवैद्य जीवकाचार्य जी जो आत्रेय मुनि के पास पढ़े थे वह भी के बौद्ध भिक्षुओं के संपर्क में थे।

उसके बाद उनके दो प्रमुख शिष्य हुए – जैझट्ट और इंदु। उन्होंने वाग्भट्ट की परंपरा आगे चलाई। वाग्भट्ट के पुत्र और शिष्य थे तसीटाचार्य जिन्होंने चिकित्सा कलिका नामक एक ग्रंथ लिखा, वह अब अप्राप्य है। उसमें पुष्पौष चिकित्सा का वर्णन है, अर्थात फूलों से जो चिकित्सा होती है, विशेषकर मनो मस्तिष्क पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है, उसका उल्लेख किया गया है। किस फूल की क्या गुण है, विशेषता है, उसका क्या उपयोग है, इसका वर्णन है। होमियोपैथी ने उसका बहुत अच्छी तरह उपयोग किया है। चिकित्सा कलिका पर जैझट्ट की व्याख्या भी मिलती है।

वाग्भट्ट का अरबी भाषा में अल्बे रूनी ने अनुवाद किया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने, जो सातवीं शताब्दी में यहां आया था, अपने संस्मरणों में लिखा है कि वाग्भट्ट की परंपरा दक्षिण भारत में बहुत देखने को मिली।अष्टांग हृदय का कई भाषाओं में अनुवाद होकर भारत से बाहर गया। विशेषकर जर्मनी में 1949 में इसका अनुवाद हुआ।

वाग्भट्ट द्वारा रचित सर्वाधिक चर्चित व प्रशंसित ग्रंथ अष्टांग हृदयम् है, उन्होंने इस ग्रंथ की रचना चालीस-पैंतालीस वर्ष की आयु में करी थी।

वाग्भट्ट के अष्टांग संग्रह में 120 अध्याय हैं और 6 स्थान हैं – सूत्र स्थान(30), शारीरस्थान(6), निदानस्थान(16), चिकित्सास्थान(22), कल्पसिद्धि(6) और उत्तरतंत्र(40)। हमने दूसरे भाग में 120 की अध्याय संख्या के कारण की चर्चा करी है ।

वाग्भट्ट ने अपने ग्रंथ का सूत्रस्थान से व उसमें सर्वप्रथम आयुष्कामीय अध्याय से आरम्भ किया है। आयुष्य का क्या अर्थ है, उसका परिरक्षण कैसे करना चाहिये, इत्यादि का इस अध्याय में वर्णन करा गया है।

वाग्भट्ट ने ‘नाति संक्षेप नाति विस्तर’ (न बहुत संक्षेप न बहुत विस्तार) शैली पर इस संहिता ग्रंथ की रचना करी है। कलियुग में रोग, आहार-विहार के नियमों व आचरण को पालन न करने से होंगे इसलिए वाग्भट्ट ने प्रेरणा से अष्टांग संग्रह और अष्टांग हृदयम् की रचना करी।

वाग्भट्ट की धन्वंतरि से भेंट व अष्टांग हृदयम् की रचना की कथा ऐसी है : समय समय पर ऋषि-मुनि मनुष्य जाति का कल्याण करने के लिए आते रहते हैं। एक कहावत के अनुसार जब जब मानव मूल्यों की हानि होने लगती है, आडम्बर, अहंकार, अराजकता अधिक बढ़ जाती है तब करुणा की दृष्टि लेकर, जन कल्याण की भावना के साथ सबसे पहले ऋषि ही देवदूत के रूप में आता है । जैसे गीता में बताया है

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुर् अपि योगस्य शब्द-ब्रह्माऽऽतिवर्तते॥

(6.43, 6.44)

योगी, प्रकृति द्वारा निर्धारित समयावधि में आते हैं और क्षेत्र विशेष में अपना कार्य पूर्ण होते ही चले जाते हैं। ऐसे ही वाग्भट्ट थे। वाग्भट्ट ऐसे शिष्य थे जिनका अपने गुरु अवलोकितेश्वर जी पर पूर्ण समर्पण भाव रहा। गुरु कृपा से वह कल्याण कार्य कर रहे थे। एक बार ऐसा हुआ कि भगवान धन्वंतरि ने सोचा, “पृथ्वी की एक परिक्रमा लूँ, और देखूँ कौन ऐसी प्रामाणिकता से आयुर्वेद के सेवा कार्य कर रहा है”। वह शुचि वैद्य को ढूँढ रहे थे तो पृथ्वी भ्रमण पर निकले, कई आयुर्वेदाचार्यों से प्रश्न पूछे। ऐसे ही वाग्भट्ट के आश्रम में भी आये। वहाँ धन्वंतरि पक्षी के रूप में आये। वाग्भट्ट ध्यानावस्था में बैठे सोच रहे थे। उन्होंने वाग्भट्ट की परीक्षा करने का विचार किया, उस समय वाग्भट्ट की आयु पचीस-छबीस वर्ष की थी। (उसी आयु में ही वह इतने गुणी वैद्य हो गए थे)।

वैदिक शिक्षा की परीक्षा पद्धति का सुंदर दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए उन्होंने वाग्भट्ट से केवल तीन प्रश्न पूछे। उस समय वाग्भट्ट युवावस्था में थे, आयु पचीस-छबीस वर्ष की थी (उसी आयु में ही वह इतने गुणी वैद्य हो गए थे) , वह आश्रम में उपस्थित थे व गुरु शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी। धन्वंतरि ने पूछा –

“कोरूऽक् कोरूऽक् कोरूऽक्?”

निरोगी कौन है, निरोगी कौन है, कौन निरोगी है ?

वाग्भट्ट को तुरंत आभास हो गया कि यह कोई असाधारण पक्षी है। देव प्रेरित पक्षी अथवा साक्षात देव ही पक्षी रूप में आया है। उन्होंने पक्षी से संस्कृत में जलपान इत्यादि के लिए पूछा। पक्षी रूपी भगवान ने कुछ इच्छा नहीं करी, केवल अपने प्रश्न का उत्तर जानना चाहा। बहुत गहन विचार करने के पश्चात वाग्भट्ट ने कहा –

“हितभुक् मितभुक् अशाकभुक्।”

अर्थात् (वह निरोगी है)

(1) जो हितकारक अन्न का सेवन करता है। अपने स्वास्थ्य का, अपना हित देखकर जो खाता है।

(2) दूसरा जो प्रमाण में खाता है अर्थात भोजन उतना करता है जितनी आवश्यकता है। वह ध्यान रखता है कि उसकी प्रकृति क्या है और उसे क्या-कितना खाना चाहिए।

मात्रा शिथिल अध्याय इसीलिए है कि मात्रा में सेवन करो। आयुर्वेद में व्यक्ति विशेष की प्रकृति को जानकर कर, उसका परीक्षण कर, उसके अनुसार भोजन निर्धारण का विस्तृत ज्ञान व निर्देश उपलब्ध हैं।

(3) कम से कम शाक जो खाता है, वह निरोगी रह पाता है।

यह पहले तो आश्चर्यजनक लगता है, क्योंकि आजकल तो यही चलन है कि अधिक से अधिक शाक–सब्जी खाओ, इसी लिये अन्न का सेवन न करो या कम करो।

‘शाकेन् वर्धन्ते रोगा:’ ऐसा भी आयुर्वेद में सूत्र आया है। यानी शाक खाने से रोग बढ़ते हैं।

आयुर्वेद में ही सर्वप्रथम शाक को पकाने का विधि, उसकी पद्धति विकसित करी गई। कौन से मसाले डालने हैं, किस मात्रा में हो सकते हैं, छौंक डालने का विधान, कौन सी सब्जी सेवनीय होती है, किसके साथ सेवनीय नहीं होती है, ये सब बताया गया है। उसी आयुर्वेद में ये भी कहा गया है कि शाक को अतिमात्रा में खाने से, ऋतु के विपरीत खाने से क्या हानि है और कौन से सब्जी किस तरह खानी है, यह बताया गया है। इन सब का पूरा ध्यान रख कर खाना है।

वाग्भट्ट का सूत्र रूपि गहन व पूर्ण उत्तर सुनकर धन्वंतरि प्रसन्न हो गए। उन्होंने वाग्भट्ट को अपनी पहचान बतायी और उन्हें ज्ञान का आशीर्वाद दिया, उन्हें अनुग्रह दिया। उस अनुग्रह के पश्चात वाग्भट्ट ने अष्टांग हृदयम् की रचना करी।

प्रसन्न होकर अनुग्रह करना केवल श्रवण का विषय नहीं है, प्रायोगिक अनुभव है। यदि प्रसन्न होकर एक व्यक्ति किसी को आशीर्वाद देता है, उसके लिए दुआ करता है तो उसका प्रभाव लेने वाले को अनुभव होता है। उस पर भी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति यदि आशीर्वाद देता है तो वह अति प्रभावशाली होता है। ऊर्जा के विज्ञान को जानने पर पता चलता है कि ऐसे आशीर्वाद देने वाले की प्राणशक्ति आशीर्वाद पाने वाले को मिलती है। विद्या के बहुत प्रकार हैं। वह केवल पुस्तक पढ़कर ही प्राप्त नहीं होती है। उसमें गुरु का आशीर्वाद और अनुग्रह आवश्यक है।

तो धन्वंतरि ने आशीर्वाद दिया और वाग्भट्ट ने पूरे चिकित्सा जगत के कार्य को निष्कंटक करने का काम किया, अर्थात उसमें जो मान्यताएँ चली गई थीं (स्वार्थ के कारण उसमें जो कालांतर में मिलावट आ गयी थी), वह पुनः स्थापित करी, अष्टांग संग्रह और अष्टांग हृदयम् को लेकर प्रमाणभूत ग्रंथों की रचना करी।

काल–काल पर चिकित्सा जगत में ये देखना पड़ता है क्योंकि उसमें मिलावट होने की, उसके दूषित होने की बहुत संभावना हो जाती है। ये विषय ऐसा है कि हरेक व्यक्ति को जानने की इच्छा है, दूसरा इस प्रकार के व्यक्ति भी है जो चार लोगों पर परिणाम आया तो उसे सार्वजनिक प्रयोग के लिए सिद्ध कर देते है (जैसे एलोपथी में होता है, चालीस पर प्रयोग होते हैं और सारे विश्व में वह लागू हो जाते हैं)। वह प्रयोग किस देश के हैं, किस काल के हैं, किस वातावरण में, किस परिस्थिति में उसके परिणाम आये हैं उसका ध्यान न करके, सबको एक ही प्रकार से लागू किया जाता है। सबसे चिंताजनक तो पशुओं पर प्रयोग और मनुष्य पर लागू, ऐसा होता है।

सभी पशुओं की प्रकृति बिल्कुल अलग है, मनुष्यों से तो बिल्कुल ही अलग है। औषधि के प्रयोग के लिए उसका प्रकृति से साम्य कैसा है, ये सब बातें देखनी पड़ती हैं, इसलिए ऐसे नियम जो अति सीमित अनुभव से या अपने ही अनुभव को प्रमाण मान लेता है, हो सकता है वह सार्वजनिक सत्य न भी हो, उसके लिए दिव्य ज्ञान की आवश्यकता रहती है जो तटस्थता से निर्णय कर सके, उसके लिए ऋषि–मुनि ऐसे ग्रंथों की रचना करते हैं। वो प्रतिद्वेषी नहीं होते। किसी के प्रति उनका द्वेष नहीं होता है, उनका कोई स्वार्थ नहीं होता है। मानव सेवा, जन कल्याण के भाव से वह अपने प्राप्त ज्ञान को बता कर जाते हैं (जो कालांतर में श्रुत से लिखित हो गया है)। इसी तरह अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदयम् हमें वाग्भट्ट की स्मृति से उपलब्ध हैं।

सूक्ष्म शरीर से आज भी ऋषि मुनि हम सब पर सदैव दृष्टि रखते हैं, इसलिए मंत्र का आयुर्वेद में इतना अधिक प्रभाव माना गया है। इसीलिए मंत्रौषधि – अभिमंत्रित औषधि- का विधान है।

सभी बड़े ऋषि-मुनियों की विशेषता की एक स्वतंत्र विचारधारा भी होती है। जैसे वाग्भट्ट की विशेषता यह है कि उन्होंने विपाक का पहली बार परिचय दिया। विपाक का सटीक वर्णन (रस, गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव) तथा व्याख्या वाग्भट्ट द्वारा करी गयी है।

“जाठरेणाग्निना योगाद् यदुदेति रसान्तरम्। रसानां परिणामन्ते स विपाक इति स्मृतः।।“ (अ हृ सू 9।20)

जिस तरह से रस के प्रभाव बदल जाते हैं, उसे विपाक कहते हैं।

वाग्भट्ट ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा रचित संहिता-ग्रंथों के पठन-पाठन की गंभीरता को ध्यान में रखकर प्रयोगात्मक एवं व्यावहारिक शैली में अपने ग्रंथ की रचना करी है। इसके अध्ययन में बोझ नहीं लगता। विषयों का वर्णन सरल है।

आज भी अष्टांग हृदय दक्षिण में कई जगह पढ़ाया जाता है। उसके आधार पर रसशाला होती है। औषधशाला होती है। चिकित्सा की एक संरचना उपलब्ध है।

आयुर्वेद के क्षेत्र में वाग्भट्ट का बहुत योगदान माना गया है। उन पर अनेक लेखकों ने व्याख्या, टीका लिखे हैं। वाग्भट्ट विमर्श में उनके ग्रंथों की व्याख्या की बहुत चर्चा करी गयी है। आयुर्वेद के ज्ञान को पढ़ने के लिए विद्वानों की व्याख्या के अतिरिक्त न्याय दर्शन, व्याकरण को जानने की, उनके बोध की आवश्यकता रहती है। उसी के लिए गुरुकुल और गुरु का सानिध्य आवश्यक है।

शारंग, वाग्भट्ट, चरक, सुश्रुत, आदि को आयुर्वेद के गुरुकुल कुछ नियमों की सहायता से सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं परंतु उनकी संख्या अभी कम है। बचपन से ही ऐसी शिक्षा, वातावरण और प्रेरणा हो तो आयुर्वेद के क्षेत्र में बड़ी क्रांति हो सकती है।

इस श्रृंखला में बृहत्त्रयी अथवा वृद्धत्रयी की तीन संहिताओं की चर्चा करी गयी। इनके अतिरिक्त आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ हमारे प्रयोग व लाभ के लिए उपलब्ध हैं जिनमें से कुछ का इस श्रृंखला के चार भागों में उल्लेख किया गया।

आयुर्वेद सनातन नित्यनूतन शास्त्र है। ऋषियों ने सभी प्रकृति के मानवों, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं में अनेकानेक औषधों के प्रयोग-ज्ञान को जाना है और उसे सभी जीवों के हित के लिए संकलित किया है। आयु व आरोग्य के लिए केवल आयुर्वेद ही पूर्ण उपाय है।

कोरोना की तरह की महामारी की व्याख्या भी चरक संहिता में है, जनपदोध्वंस अध्याय में! अन्य कई ग्रंथों में भी है। ऐसा कुछ होने पर ऋषि-मुनि चिंतित होते थे, ऋषि परिषद का आयोजन करते थे, इसमें देवों की सहायता कैसे लेनी है, देव विपाश्रय चिकित्सा इसमें क्या कर सकती है, कई औषधियों के गुण-दोष से लेकर कैसे प्रयोग किये जा सकते हैं, ये सब सोच विचार कर राजा को प्रस्तुत करते थे। राजा भी श्रद्धावान होते थे। उसे पूरे प्रभाव से लागू करते थे। ऐसे बहुत महामारियों को भारत ने भगाया है। अलोपथी के इतिहास में ऐसे प्रयोग नहीं देखने को मिलते। क्योंकि वहाँ बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति थे नहीं और यदि थे तो इस निर्देश में नहीं थे या बहुत कम थे। हमारे यहाँ एक प्रामाणिक परंपरा का इतिहास रहा है, इसीलिए ऋषि-मुनियों का ज्ञान आज भी उतना ही काम आता है, उस परंपरा का पालन करने वाले उस तरह के द्रव्यों का, द्रव्य गुण का प्रयोग अनवरत आज भी कर रहें हैं। आयुर्वेदिक दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार-विहार के नियमों को मानने वाले को कोरोना नहीं हुआ होगा, ऐसा विश्वास के साथ कहा जा सकता है।

वाग्भट्ट, चरक, सुश्रुत आदि का ज्ञान कालातीत (timeless) है। इतने जनमानस के स्वास्थ्य को संभालने के लिए हम आज भी बहुत सक्षम हैं। हम स्वयं का ध्यान रख सकते हैं और अन्य देशों को सहायता भी दे सकते हैं।

आयु:कामयमानेन धर्मार्थं सुखसाधनम् ।
आयुर्वेदो उपदेशेषु विधेयः परमादरः॥

(भावप्रकाश निघंटु)

अर्थात आयुर्वेद के उपदेशों में परम् आदर का विधेय करना चाहिये (उसे श्रद्धापूर्वक मानना चाहिये) क्योंकि चार में से तीन पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम,जिससे प्राप्त होते हैं वह आयु (आरोग्य) है, उसके ही कारण ये पूर्ण होते हैं।

आयु के विज्ञान को प्रस्तुत करने वाला शास्र आयुर्वेद है।

इति!

 

 

 

 

 

लेखिका के बारे में -अंशु अपने को एक सतत जिज्ञासु कहती हैं। वर्तमान में संस्कृति आर्य गुरुकुलम में शिष्य तथा शिक्षक हैं। दर्शन, वैदिक शिक्षा और आयुर्वेद गुरुकुल में शिक्षण के मुख्य विषय हैं। प्राप्त ज्ञान को साझा करने की मंशा से विभिन्न वैदिक विषयों पर लिखती हैं।भारतीय इतिहास और वैदिक ज्ञान के आधुनिक शास्त्रीय प्रयोग उनकी रुचि के विषय हैं। फिनटेक, आईटी कंसल्टिंग के क्षेत्र में 20 वर्ष बिताने के बाद अब वैदिक ज्ञान, शिक्षा और शिक्षा पद्धति की साधना यात्रा पर निकल चुकी हैं।

साभार- https://www.indictoday.com/ से