महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड ने 11वीं की अंग्रेजी की किताब में एक ऐसे इंजिनियर को जगह दी है जिसने 2004 में अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर खेती को पेशा बना लिया। अब यह इंजिनियर महाराष्ट्र के डहाणू तालुका के एक छोटे से गांव में किसान के तौर पर अपनी जिंदगी बिता रहा है।
इस इंजिनियर का नाम वेंकट अय्यर है। वेंकट की पेठ नाम के गांव में 4.5 एकड़ जमीन है। वह महाराष्ट्र बोर्ड के इस फैसले से खुश हैं, उनका मानना है कि इस तरह छात्रों को खेती और अनाज, फल-सब्जियों की देसी प्रजातियों की अहिमयत के बारे में जानने का मौका मिलेगा।
लेकिन ऐसा नहीं है कि वेंकट को पहले दिन से ही कामयाबी मिलने लगी थी। 17 साल की कॉर्पोरेट जॉब छोड़ने के बाद जब उन्होंने खेती शुरू की तो पहले साल उन्हें निराशा हाथ लगी। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और बाद में अपने अनुभवों पर एक किताब भी लिखी। 11वीं की किताब में न केवल अय्यर का जिक्र है बल्कि उनकी किताब ‘ मूंग ओवर माइक्रोचिप्स’ का एक अध्याय भी है।
टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में वेंकट ने बताया, ‘पहले, मुझे लगता था कि जिन लोगों के पास करने को कुछ नहीं होता वे खेती करते हैं लेकिन अब ऐसा नहीं है। किताब में इस अध्याय से युवाओं को जैविक खेती की जानकारी तो मिलेगी ही हमारी पारंपरिक प्रजातियों के बारे में भी उन्हें पता चलेगा जिनकी जगह अब संकर प्रजातियां ले चुकी हैं।’ फिलहाल वेंकट अपने खेतों में मौसमी सब्जियां, चावल की दो स्थानीय प्रजातियां (लाल और भूरी), तिल, मूंगफली, सरसों और तुलसी उगाते हैं।
जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने खेती को क्यों चुना, उन्होंने कहा, ‘मैं इस बात पर निश्चित नहीं था कि क्या करूं। उसी समय मेरी पत्नी जैविक कपास पर एक किताब लिख रही थीं जिसकी रिसर्च के लिए ग्रामीणों के साथ काफी समय बिता रही थीं। वह वापस आकर ग्रामीण जीवन की बातें बतातीं जो मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं किसान बन सकता हूं। उन्होंने कहा, देश के 65 प्रतिशत लोग अगर किसान बन सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। बस तभी से शुरुआत हुई।’
वेंकट खेती के अलावा स्थानीय ग्रामीणों को जैविक खेती के तरीके सिखाते हैं। इसके अलावा उन्होंने किसानों की मदद के लिए, उन्हें बेहतर बाजार और कीमतें दिलाने के लिए कुछ नए मार्केटिंग प्लैटफॉर्म खोजे हैं। स्थानीय किसान वेंकट के साथ मुंबई की हाउसिंग सोसायटी और स्कूलों में स्टॉल लगाकर अपनी उपज बेचते हैं।
दूसरी तरफ स्कूली किताबों पर काम करने वाली समिति का कहना था कि वह चाहती थी कि छात्रों को असल जीवन के आदर्श व्यक्तित्वों के बारे में बताया जाए। किताबों पर काम करने वाली समिति की मुख्या संयोजिका प्राची साठे कहती हैं, ‘हमारी किताबों में ऐतिहासिक व्यक्तित्व तो बहुत से हैं जो अब जीवित नहीं हैं। इसलिए हमने ऐसे उदाहरणों को किताब में शामिल किया जिनसे आज के स्टूडेंट्स जुड़ सकें और चाहें तो मिल सकें।’
साभार – नवभारत टाईम्स से