अगर मैं कहूं कि खजुराहो से लौटने के बाद मैंने अपना काफी समय जुगाड़ भिड़ाने में लगा दिया तो आप क्या सोचेंगे? शायद कुछ अच्छा नहीं सोच पाएंगे। लेकिन मेरा अनुरोध है कि जुगाड़ शब्द को इतने हल्के में मत लीजिए। यह एक ऐसा अस्त्र है जिसकी मदद से आप अपने रास्ते में आने वाली किसी भी मुश्किल से निपट सकते हैं।
जुलाई के अंत में मैं जुगाड़ इस बात के लिए लगा रहा था कि कैसे एयरकंडीशनर अर्थात एसी लगाए बिना चिपचिपी गर्मी से राहत मिल सकती है। मेरे जैसा आदमी जिसने केवल दसवीं कक्षा तक ही विज्ञान की पढ़ाई की है, वह भला इस विषय पर कैसे सोच सकता है? कई बच्चों में जन्मजात इंजीनियर बनने के गुण होते हैं। वे अपने खिलौनों को खोलकर फिर से जोड़ लेते हैं। लेकिन मेरे अंदर ऐसी कोई प्रतिभा नहीं थी।
इंजीनियरिंग जैसे गूढ़ विषय पर मैं कैसे सोचने लगा, इसके पीछे भी एक कहानी है। कुछ वर्ष पहले मैंने एक किताब पढ़ी थी जिसका नाम है ऐंटी फ्रैजाइल। इस किताब में नसीम निकोलस तालिब ने आज से 50-60 वर्ष पहले के उस समय का उदाहरण दिया है जब लोग अटैचियों में सामान भर कर यात्रा करते थे। इन अटैचियों में पहिया नहीं होता था। इन्हें उठाकर ले जाना होता था। अगर आप की उम्र 50 के आस-पास है तो आपने भी रेल से यात्रा करते समय वीआईपी की अटैचियां खूब ढोई होंगी।
इन अटैचियों को ढोने में आप अकेले नहीं थे। यही काम बड़े-बड़े वैज्ञानिक, इंजीनियर और एक से बढ़कर एक विद्वान भी कर रहे थे। इन अटैचियों को ढोने में सबको कष्ट होता था। इस समस्या का समाधान पहिए में था जिसके बारे में सब जानते थे। लेकिन समस्या और समाधान को जोड़ने का विचार किसी को नहीं सूझा। और सूझा भी तो ऐसे व्यक्ति को जिसका इंजीनियरिंग से कोई औपचारिक नाता नहीं था। आज हम जिस तरह के पहिए वाले ट्राली बैग का इस्तेमाल करते हैं उसे 1987 में एक पाइलट ने बनाया था।
यह सोचकर कभी आश्चर्य लगता है कि 1969 में मनुष्य चांद पर पहुंच गया था लेकिन एक मामुली सा ट्रालीबैग बनाने में उसे 1987 तक इंतजार करना पड़ा। इस उदाहरण ने मेरे मन में इंजीनियरिंग का आतंक खत्म कर दिया। इसी बीच मैंने एक डाक्यूमेंट्री सीरीज देखी जिसका नाम है इंजीनियरिंग कनेक्शन्स। रिचर्ड हैमॉन्ड की बनाई इस सीरीज में 16 एपीसोड हैं। इस पूरी सीरीज में उसने बताया है कि किस प्रकार छोटे-छोटे जुगाड़ों से बड़े-बड़े अविष्कार संभव हो पाए हैं। यह सब पढ़कर और देखकर मेरे मन में जुगाड़ के प्रति आकर्षण बढ़ गया।
जुलाई में यदि मैं एयर कंडीशनर का जुगाड़ ढूंढ रहा था तो इसके पीछे कई कारण थे। पहली बात यह कि बाजार में मिलने वाला एसी बहुत महंगा होता है। खरीद भी लिया तो इसको चलाने का खर्चा उठाना सबके बस की बात नहीं। मध्यवर्गीय परिवारों में जहां बिजली का बिल देना पड़ता है, वहां लोग एसी कितना सहमे-सहमे चलाते हैं, यह आपको भी मालूम है। अगर आप की जेब भारी है लेकिन आप दुनिया जहान की सोचते हैं तब भी आप एसी चलाने में एक पल के लिए हिचकेंगे। मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिनके पास 24 घंटे एसी में रहने की हैसियत है लेकिन वे उसके बिना रहते हैं। ये लोग न तो कंजूस हैं और न ही अपने शरीर को जानबूझ कर कष्ट देना चाहते हैं। वास्तव में वे एसी को एक बुराई मानते हैं और इस कारण इससे दूर रहते हैं।
एसी के कारण होने वाली समस्याओं से मैं भी परिचित हूं, इसलिए इसे पसंद नहीं करता। लेकिन बरसात की चिपचिपी गर्मी से बचने के लिए उसकी शरण में जाने से स्वयं को रोक भी नहीं पाता। मेरी इच्छा है कि दिल्ली की इस मजबूरी को गांव लेकर न जाऊं। वहां मैं कुछ ऐसा जुगाड़ करना चाहता हूं जिससे बाजार का एसी न लगवाना पड़े लेकिन ठंडक उसी तरह की मिले।
खोजबीन करने पर पता चला कि बाजारू एसी के कई विकल्प उपलब्ध हैं। इसमें तिरहुतीपुर की परिस्थिति में मुझे जिओ थर्मल एसी का विकल्प सबसे अच्छा लगा। पर्यावरण की दृष्टि से इस प्रकार का एसी अच्छा होता है। इसे चलाने का खर्च भी बहुत कम होता है। लेकिन इसे लगाना अपने आप में थोड़ा जटिल है। यह बाजार में रडीमेड नहीं मिलता। इसके जानकार भी बहुत कम हैं। लेकिन मुझे भरोसा है कि इन सब समस्याओं का कोई न कोई जुगाड़ जल्दी ही ढूंढ लूंगा।
जुगाड़ की प्रेरणा स्वअनुभूत कष्ट से उत्पन्न होती है। भारत के गांवों में जुगाड़ के एक से बढ़कर एक उदाहरण मिल जाएंगे। इनके माध्यम से गांव वाले अपनी समस्याओं का सहज और सस्ता उपाय ढूंढने का प्रयास करते हैं। कई शहरी लोगों ने भी कमाल के जुगाड़ बनाए हैं। असल में बात ग्रामीण और शहरी की नहीं, बल्कि दर्द को महसूस करने की है। जो दर्द के जितना नजदीक होगा, उसके मन में जुगाड़ के प्रति उतना ही अधिक समर्पण होगा।
आइडिया के लेवल पर कई जुगाड़ बड़े क्रांतिकारी होते हैं, लेकिन शास्त्रीय ज्ञान और संसाधन के अभाव में वे अपनी जगह नहीं बना पाते। इसी के साथ यह भी सच है कि जिनके पास शास्त्रीय ज्ञान और संसाधन हैं, उन्हें वह आइडिया नहीं आता जो जुगाड़ बनाने वाले को आता है। दोनों में मेल न होने के कारण हमारा देश कई क्रांतिकारी अविष्कारों से चूक जाता है। जरूरत इस बात की है कि जिनके पास शास्त्रीय ज्ञान और संसाधन है, उन्हें दर्द भी महसूस हो और जिन्हें दर्द महसूस होता है उनकी पहुंच भी किसी न किसी तरह शास्त्रीय ज्ञान और संसाधन तक सुनिश्चित की जाए।
दुर्भाग्य से शास्त्रीय ज्ञान और संसाधन का संगम अभी तक जुगाड़ की प्रवृत्ति से नहीं हो पाया है। सरकार चाहती है कि यह काम हमारे इंजीनियरिंग कालेज करें। इसके लिए स्टार्टअप, इन्क्यूबेशन सेंटर सहित कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं। लेकिन अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहा है। 2014 में मैं आदरणीय बसंत जी के सौजन्य से आई.आई.टी दिल्ली स्थित सी.आर.डी.टी. (सेंटर फार रूरल डेवलपमेंट एंड टेक्नालाजी) में खूब जाया करता था। उस समय वहां उन्नत भारत अभियान की नींव रखी जा रही थी जिसमें मेरी भी एक छोटी सी भूमिका थी। आज 2022 में जब मैं अपने गांव को सामने रखकर सीआरडीटी और उन्नत भारत अभियान का मूल्यांकन करता हूं तो मन उदास हो जाता है। लगता है कहीं कुछ चूक हो गई जो आज भी जारी है।
आज जरूरत इस बात की है कि हमारे स्कूल, कालेज और बड़े-बड़े तकनीकी संस्थान अपने विद्यार्थियों में जुगाड़ की प्रवृत्ति जगाएं। जब तक किसी विद्यार्थी में जुगाड़ की प्रवृत्ति नहीं जगेगी तब तक वह कोई बड़ा अविष्कार नहीं कर पाएगा। किसी को यह बताना पड़ेगा कि जब वर्तमान संसाधनों का इस्तेमाल करके भविष्य की कोई तकनीक विकसित की जाती है तो उसकी शुरुआत जुगाड़ से ही होती है। चाहे इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति हो या नए जमाने की इंटरनेट क्रांति, सभी जुगाड़ के ही कारण संभव हो पायी हैं।
मेरी इच्छा है कि देश भर के जुगाड़ी लोगों का डाटा इकट्ठा किया जाए, उन पर पत्रिका, किताब और डाक्यूमेन्ट्री फिल्में बनाई जाएं। चमत्कार तो तब होगा जब इसी के साथ-साथ देश भर में जुगाड़ संगम आयोजित किए जाएं। जरूरी नहीं कि यह पहल बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों और सरकारी प्रतिष्ठानों की ओर से ही हो। सच कहें तो देश का कारपोरेट सेक्टर और छोटी-बड़ी सामाजिक संस्थाएं भी इस दिशा में प्रभावी कदम उठा सकती हैं। अगर ईश्वर की कृपा रही तो निकट भविष्य में हम भी तिरहुतीपुर में एक छोटा सा जुगाड़ संगम करना चाहेंगे।
आदर सहित आप सबका अपना
*विमल कुमार सिंह*
संयोजक, ग्रामयुग अभियान
रविवार, 21 अगस्त 2022
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ईमेल- vimal.mymail@gmail.com