आजादी का जश्न अभी क्षितिज तक भी न चढ़ सका था कि मुल्क के दो फाड़ होने का बिगुल बज गया और सांप्रदायिक सद्भाव तार-तार हो गया; जिसके साथ ही दोनों तरफ की बेकसूर आवाम के खून का एक दरिया बह निकला। लाखों लोग मारे गए। करोड़ों बेघर हुए। लगभग एक लाख महिलाओं; युवतियों का अपहरण हुआ। यही बँटवारा इस पुस्तक का मुख्य मुद्दा है; जो लेखक की कड़ी मेहनत और बरसों की शोध का नतीजा है। बँटवारे में मरनेवालों का सरकारी आँकड़ा केवल छह लाख दर्ज है; लेकिन इस संदर्भ में अगर तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी मोसले पर गौर करें तो वह गैरसरकारी आँकड़ा दस लाख दरशाता है; यानी कि बँटवारे में छह लाख नहीं; बल्कि दस लाख लोग मारे गए। गौरतलब है कि न पहले और न ही बाद में; इतना बड़ा खून-खराबा और बर्बरता दुनिया के किसी भी देश में नहीं हुई।
अब एक बड़ा सवाल उठता है कि देश का विभाजन आखिर सुनिश्चित कैसे हुआ? क्या जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद इसके लिए जिम्मेदार था या फिर अंग्रेजों की कुटिल नीति? क्या गांधी और कांग्रेस के खून में बुनियादी रूप से मुसलिम तुष्टीकरण का बीज विद्यमान था; जिसने अंततः बँटवारे का एक खूनी वटवृक्ष तैयार किया और जिसकी तपिश आज भी ठंडी नहीं हो पाई है।
विभाजन की त्रासदी और विभीषिका का वर्णन करती पुस्तक; जो पाठक को उद्वेलित कर देगी।
14 अगस्त 1947 को भारतीय पुण्यभूमि खंडित हुई उस खंडित भूमि का नाम पाकिस्तान पड़ा । पिछले साल 14 अगस्त को भारत सरकार ने फैसला किया कि वह अब हर साल 14 अगस्त को भारत के विभाजन की त्रासदी को लेकर स्मृति दिवस मनाएगा ।
भारत विभाजन की विभीषिका इतनी गहरी थी जिसकी कल्पना भी उन लोगों के आज भी रोंगटे खड़े कर देती है जिन्होंने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष जिनके परिजनों ने विभाजन की विभीषिका को देखा था, सुना है। कहा जाता है बड़े लोग जब गलती करते है या उनसे महत्वपूर्ण निर्णयों के आकलन में गलती होती है तो उसका दुष्परिणाम भी बहुत व्यापक और लंबे कालखंड के लिये होता है। विभाजन की भूमिका का बीज सबसे पहले 1909 में मारले मिंटो सुधार के तहत विधान परिषदों में मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचन अधिनियम में पड़ा था ।
पहले कांग्रेस ने इसका प्रखर विरोध किया लेकिन 1916 में कांग्रेस ने लीग के साथ लखनऊ समझौते में स्वीकार कर लिया । यही से कांग्रेस ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेक कर सैद्धांतिक स्वीकृत दे दी और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आगे भारत के खंडित होने तक लगातार झुकती रही । 1920 में असहयोग आंदोलन में तुर्की के अपदस्थ खलीफा के समर्थन में खिलाफत को भी इस आंदोलन में गांधी जी के प्रभाव में जोड़ दिया गया।जिसका भारतीय भूमि से कोई लेना देना नही था । इंदुलाल याज्ञिक ने अपनी किताब ‘गांधी एज आई न्यू हिम’ के पेज 129 में लिखा कि “हमने गांधी जी यह सौदा कभी नही किया था कि हम उनके साथ किसी धार्मिक या धार्मिक राजनैतिक आंदोलन में शामिल होंगे।” आंदोलन की समाप्ति के बाद पूरे देश के छोटे बड़े शहरों में दंगे हुए ।
मालाबार में तो मुस्लिम मोपलाओं ने हिंदुओ का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया। कांग्रेस कार्यसमिति में इस कुकृत्य की खुलकर निंदा नही हुईं । आंबेडकर ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान औऱ भारत विभाजन ‘ के पेज 148 में लिखा कि महात्मा गांधी ने नरसंहार करने वाले मोपलाओं के बारे में कहा कि” मोपला धर्मभीरु वीर लोग है जो उनके विचार से धर्म सम्मत है।” पाकिस्तान के हिंदुओ ने सिंध को तत्कालीन बम्बई प्रान्त से अलग न करने की मांग को लेकर गांधी से कहा ऐसा करने से वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे उनके जीवन पर पहले से अधिक खतरा हो जाएगा। इस पर गांधी जी ने 10 फरबरी 1940 के अपने हरिजन समाचार पत्र के द्वारा कहा कि” हिंदुओ को अपनी जानमाल की हिफाजत करने का तरीका खुद खोजना होगा। ” नतीजा सिंध, बंबई प्रान्त से अलग हुआ और हिंदू समुदाय अल्पसंख्यक हो गए । उन पर हमलों की संख्या में जबरदस्त बढोत्तरी हुई।
इसमें कोई शक नही कि गांधी ने खेड़ा, चंपारण, असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलन के द्वारा भारतीय जन समुदाय को स्वतंत्रता की चेतना से जोड़ दिया परन्तु साम्प्रदायिकता के आगे वह लगातार घुटना टेकते रहे । जिससे मुस्लिम लीग को ताकत मिलती गयी और वह लगातार मजबूत होती चली गई। जाने माने इतिहासकार विपिन चंद्रा जिन्हें आमतौर पर गांधीवादी इतिहासकार माना जाता है उन्होंने अपनी किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में गाँधी युग की कांग्रेस पर साम्प्रदायिकता से लड़ने में असफल बताकर कांग्रेस की खुलकर आलोचना की । उन्होंने अपनी किताब भारत का स्वतंत्रता संग्राम में 353, 387,395 पेज पर लिखा कि ” कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता से संघर्ष नही किया और उसके मूल कारणों को नही समझा जिससे मुस्लिम लीग और जिन्ना मजबूत होते गए। कांग्रेस स्वतंत्रता की चेतना का प्रसार तो कर सकी परन्तु राष्ट्र से नही जोड़ सकी खासकर मुसलमानों को । यह कांग्रेस की बड़ी कमजोरी थी । ”
भारतीय भूभाग को अलग होने और पाकिस्तान बनने की प्रक्रिया कुछ दिनों में पूरी नही हुई यह लंबे कुटिल ,कुत्सित प्रयासों और राष्ट्रवादी विचारों की दीर्घकालीन असफलताओं के चलते हुआ है। अविभाजित भारत लाहौर के रहने वाले प्रोफेसर ए एन बाली जिन्होंने खुद अपनी आंखों से बटवारे को देखा था । उन्होंने बंटवारे के पीछे की कुटिलताओं और राष्ट्रीय असफलताओं को भी अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने बंटवारे पर ‘नाउ इट कैन बी टोल्ड’ नामक पुस्तक लिखी है। उन्होंने अपनी इस किताब के पेज 34 में लिखा कि ” कैसे लाहौर जो कि हिन्दू बाहुल्य 1941 तक था ।
मुस्लिम लीग ने एक हिन्दू पार्षद के वोट के चलते लाहौर नगर निगम में बहुमत प्राप्त कर नगर निगम द्वारा ग्रामीण मुस्लिम इलाकों को मिलाकर लाहौर को मुस्लिम बाहुल्य बना दिया था । ” बटवारे तय होने के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने अंतिम समय तक यह तय नही किया था कि लाहौर, कलकत्ता और दिल्ली पाकिस्तान में रहेगा या भारत में । हिंदुओं के बहुमत के कारण कलकत्ता और दिल्ली तो भारत को मिल गए परन्तु प्रभु श्रीराम के पुत्र लव का बसाया शहर लाहौर, हिंदू अल्पसंख्यक हो जाने के कारण पाकिस्तान में शामिल कर लिया गया। साम्प्रदायिकता से नतमस्तक होने और तुष्टीकरण की नीति के चलते भारत का दुखद विभाजन हुआ और विभाजन की ऐसी विभीषिका जनमानस ने झेली जिसका वर्णन करना मुश्किल है।
विभाजन के दौरान ब्रिटिश अधिकारी मोसले जिसने अपनी आंखों से दुखद विभाजन को देखा था। उसने बताया था कि पाकिस्तान से भारत में आने वाला एक जत्था 73 मील का था । ये लम्बे जत्थे इसलिये चलते थे क्योकि जत्थों में शामिल लोगों को लगता था कि बड़े जत्थे के साथ चलना उनके लिये ज्यादा सुरक्षा जनक हो सकता है। फिर भी हालात इतने बुरे थे पाकिस्तान के मुस्लिम बलवाई जत्थों पर हमला करके सामान, महिलाओं, युवतियों को लूट लेते थे फिर भी जत्था रुकता नही था औऱ चलता ही जाता था। विस्थापित हो रहे परिजन औऱ पीड़ित असहाय होकर हमेशा के लिये स्वजनों से बिछड़ जाते थे ।विभाजन की विभीषिका का वर्णन किताब ‘फ्रीडम मिडनाइट चिल्ड्रन’ तथा लेखक गुरुदत्त की कई पुस्तकों में जिन्होंने विभाजन स्वयं झेला था सहित कई किताबों में वर्णित है । ज्ञात इतिहास में मात्र छह महीनों में इतनी बड़ी त्रासदी आधुनिक दुनिया में शायद ही कहीं हुई हो। हिटलर ने जरूर तीस लाख यहूदियों का कत्ल करवा दिया था परंतु उसे ऐसा करवाने में काफी समय लगा था।
14 अगस्त 1947 को देश ने बंटवारें का दर्द झेला था। पाकिस्तान जहां इसे अपनी आजादी के दिन के रूप में मनाता हैं वहीं भारत में अभी भी लाखों लोग हैं जिनके दिलों में बंटवारे का जख्म , दर्द आज भी ताजा है। लाखों लोग अपना घर, परिवार और रिश्तेदार को छोड़कर भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से यहां आए।
देश के बंटवारे के समय करीब ढाई करोड़ लोग दोनों देशों के विस्थापित हुए। बंटवारे की त्रासदी का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस दौरान 15- 20 लाख लोग मारे गए। बंटवारें का दर्द लेकर लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत में आए। इस दौरान सबसे दिल दहलाने वाली घटनाएं महिलाओं के साथ हुई। बंटवारे के दौरान अनुमान के अनुसार 1 लाख महिलाओं के साथ रेप हुआ। एक से दो लाख तक महिलाओं का या तो अपहरण हुए या फिर उन्हें जबरन पाकिस्तान में ही रोक लिया गया ।
सबसे ज्यादा प्रताड़ना हिन्दू समाज के दलित वर्ग की हुई क्योकि अज्ञानता, निर्धनता के कारण ज्यादातर ये पाकिस्तान से आ ही नहीं सके , उन्हें वहां के मुसलमानों ने अपनी गुलामी करवाने के लिये बंधक बना लिया था। आंबेडकर और गांधी ने पाकिस्तान से मार्मिक अपील भी की थी यह अलग बात है कि पाकिस्तान पर इस अपील का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
लेखक – मुनीष त्रिपाठी,पत्रकार, इतिहासकार और साहित्यकार हैं । हाल ही में उन्हें उनकी पुस्तक’ विभाजन की त्रासदी’के लिये यूपी हिंदी संस्थान द्वारा प्रतिष्ठित “केएम मुंशी” पुरस्कार दिया गया है। इसके अलावा औरैया जनपद प्रशासन ने उन्हें पत्रकारिता और साहित्य में ‘औरैया रत्न’ से विभूषित किया है। ‘भरतपुर का सूरजमल’ हाल ही में दूसरी प्रसिद्ध पुस्तक प्रकाशित हुई है।
ये पुस्तक इस लिंक पर भी उपलब्ध है https://www.amazon.in/-/hi/Munish-Tripathi-ebook/dp/B07PW62T44