Saturday, November 23, 2024
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फ़िल्मी धुनों व धार्मिक भजनों का यह ‘कॉकटेल

भारतीय फ़िल्म उद्योग प्रत्येक वर्ष अरबों रुपये का कारोबार करता है। इसमें एक बड़ा हिस्सा इन्हीं फ़िल्मों में इस्तेमाल होने वाले गीत-संगीत पर भी खर्च होता है। प्रत्येक फ़िल्म निर्माताओं की हमेशा यही कोशिश रहती है कि वे अच्छी से अच्छी,मधुर व आकर्षक धुनों पर आधारित गीत अपनी फ़िल्मों में शामिल कर उसकी सफलता सुनिश्चित करें।फ़िल्मी संगीतकार के तौर पर नौशाद,लक्ष्मीकांत प्यारे लाल,आरडी बर्मन,एसडी बर्मन,मदनमोहन,रौशन,बप्पी लाहिरी जैसे संगीत की दुनिया के और भी ऐसे कई महारथी हुए हैं जिनकी बनाई हुई धुनों को विभिन्न फ़िल्मों में गाए गए गीतों के माध्यम से ऐसी सफलता मिली कि आज भी सैकड़ों फ़िल्मी नग़मे आम लोग अपनी ज़ुबान पर अक्सर गुनगुनाते रहते हें।

श्रोताओं के दिलों को छूने वाली धुन बनाना तथा उन्हें फ़िल्मों के माध्यम से लोकप्रिय बनाना कोई आसान काम नहीं हैं। अन्य कलाओं व विषयों की तरह संगीत भी एक बेहद पेचीदा और मुश्किल विषय है। इसमें पारंगत होना अथवा इस क्षेत्र में आकर सफलता सुनिश्चित करना कोई आसान काम नहीं है। बड़ी तपस्या,मेहनत,लगन और रियाज़ करने के बाद कहीं जा कर एक संगीतकार किसी गीत को अच्छी धुनें दे पाता है। वैसे भी किसी गीत को अच्छी धुन से संवारना किसी अकेले संगीतकार या संगीत निर्देशक के वश की बात भी नहीं होती। उसके साथ संगीत में इस्तेमाल होने वाले कई प्रकार के यंत्र प्रयोग में लाए जाते हैं जिसे उन सभी वाद्य यंत्रों को बजाने में पारंगत कलाकार ही बजा सकते हैं। गोया कहना गलत नहीं होगा कि अपने अथक परिश्रम व योग्यता का इस्तेमाल करने के बाद फिर कहीं जाकर एक लोकप्रिय व श्रोताओं के दिलों को मंत्रमुग्ध कर देने वाली धुन तैयार होती है।
अब आईए नज़र डालते हैं भारतीय बाज़ारों में बिकने वाले धार्मिक भजनों की ऑडियो वीडियो कैसेट,सीडी व डीवीडी पर। भारत में धार्मिक भजनों का भी एक बहुत बड़ा व्यवसाय है। स्वयं को गायक कहने वाले अनेक भजन गायक श्रद्धालुओं के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनमें बेशक कुछ गायक ऐसे भी हैं जो फ़िल्मी संगीतकारों की तरह अपनी ही रची गई धुनों पर धार्मिक भजन गाते हैं। परंतु यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अधिकांश धार्मिक भजनों में िफल्मों में लोकप्रिय हो चुके गीतों की धुनें इस्तेमाल की जाती हैं। सीधी सी भाषा में कहा जाए तो चोरी की धुनों पर धार्मिक भजन गाए जाते हैं। और चूंकि ऐसी धुनें फ़िल्मों के माध्यम से श्रद्धालुओं व श्रोताओं के कानों में पहले ही पड़ चुकी होती हैं इसलिए धार्मिक भजनों के साथ उन धुनों को गुनगुनाते हुए भक्तजनों को आनंद की अनुभूति होती है। परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि ऐसी धुनों को गुनगुनाते समय भक्तों का ध्यान उसी फ़िल्मी गीत की तरफ ज़रूर जाता है जिससे कि वह धुन वास्तविक रूप से जुड़ी होती है। कहा जा सकता है कि ऐसे भजन गुनगुनाते समय किसी भक्त का ध्याान भजनों के बोल से भटक कर फ़िलमी गीत की ओर आसानी से चला जाता है।
लिहाज़ा यहां यह सवाल उठना लाजि़मी है कि क्या धार्मिक भजनों के व्यवसाय में इस प्रकार से फ़िल्मी गीतों में इस्तेमाल की गई धुनों का प्रयोग किया जाना उचित है? या फिर भजन व्यवसाय में लगे लोग महज़ पैसा कमाने के लिए इस शार्टकट का इस्तेमाल करते हैं? वैसे भी चूंकि यह विषय धर्म व धार्मिकता से जुड़ा हुआ है इस लिए यहां सच्चाई,पवित्रता तथा वास्तविकता का होना बेहद ज़रूरी है। केवल अपने भजनों को लेाकप्रिय बनाने के लिए चिरपरिचित धुनों का इस्तेमाल कर तथा उन्हीं धुनों के आधार पर उसी सुर-ताल से मेल खाते हुए भजन लिखने वाले लोगों से भजन लिखवा कर बाज़ार में लोकप्रियता हासिल करना तथा इसी रास्ते पर चलते हुए अपने भजन व्यवसाय को चमकाना अनैतिक भी है और अधार्मिक भी। आज बाज़ार में नुसरत फतेहअली खां,नरेंद्र चंचल के अतिरिक्त और भी कई संगीतकारों व गायकों के भजन व क़व्वालियों बिकती देखी जा सकती हैं जो शुद्ध रूप से उन्हीं के द्वारा संगीतबद्ध की जाती हैं और ऐसी रचनाएं काफी लोकप्रिय भी होती हैं। शिरडी वाले साईं बाबा पर आधारित तमाम भजन ऐसे हैं जो विभिन्न गायकों द्वारा उन्हीें की अपनी संगीतकारों की टीम द्वारा तैयार किए गए हैं। ऐसे भजनों,कव्वालियों की लोकप्रियता निश्चित रूप से सराहनीय है। भक्तों द्वारा ऐसे गीत-संगीत को प्रोत्साहन भी देना चाहिए।
परंतु फ़िल्मी संगीत पर गाया जाने वाला कोई भी भजन शुद्ध रूप से धार्मिक भजन कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। सिवाए उन धार्मिक भजनों के जो गीत और संगीत दोनों की लिहाज़ से पूरी तरह से फ़िल्मों में ही इस्तेमाल किए गए हों। हद तो यह है कि ऐसे व्यवसायिक िकस्म के भजन गायकों द्वारा किसी एक ही लोकप्रिय धुन पर अलग-अलग देवी-देवताओं की शान में अलग-अलग भजन गाए गए हैं। यह तो भला हो फ़िल्म जगत के उन संगीतकारों का जो उनकी अपनी धुनों का इस प्रकार गैर कानूनी तरीके से इस्तेमाल किए जाने पर आपत्ति नहीं करते। और इसी वजह से फ़िल्मी धुनों को चोरी कर उनपर बेलगाम क़िस्म के भजन गायकों द्वारा अपना गला रवां करने का खेल बदस्तूर जारी रहता है। और फ़िल्मी धुनों पर ऐसे गायक अपनी रंग-बिरंगी पौशाकें पहने कर तथा अपनी पृष्ठभूमि में विभिन्न धर्मस्थलों की शूटिंग करवा कर भजनों की डीवीडी अथवा सीडी तैयार कर उन्हें बाज़ार में बेचकर लाखों रुपये कमाते रहते हैं।
इस प्रक्रिया से गुज़रने में उन्हें न तो ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है और न किसी खास परिश्रम या रियाज़ की ज़रूरत होती है। मज़े की बात तो यह है कि फ़िल्मी धुनों पर धार्मिक भजन गाने वाले कई गायक श्रद्धालुओं के बीच आज बेहद लोकप्रिय भी हो चुके हैं और देवी-देवताओं की ‘कृपा’ से उन्हें इसी रास्ते पर चलते हुए लोकप्रियता मिलने के साथ-साथ उनकी अच्छी आय भी हो रही है। यानी हर्रे लगे न फिटकरी, रंग चोखे का चोखा। इस विषय में गुरुद्वारों मेें गाए जाने वाले भजन तथा शब्द अथवा गुरु कीर्तन आदि को इस का अपवाद ज़रूर कहा जा सकता है। इन भजनों या शब्दों में फ़िल्मी गीतों की धुनों से कतई परहेज़ किया जाता है। शब्द कीर्तन मंडली द्वारा हालांकि प्राय: गुरु ग्रंथ साहब में दर्ज शब्दों को ही पढ़ा जाता है। परंतु प्रत्येक अलग-अलग भजन गायक स्वरचित अपनी अलग-अलग धुनों का ही इस्तेमाल करते हैं। और यदि इन धुनों को संगीत प्रेमियों द्वारा ध्यान मग्र होकर सुना जाए तो यह धुनें फ़िल्मी धुनों से कहीं अधिक प्रभाव छोडऩे वाली होती हैं। इन्हें सुनकर किसी फ़िल्मी धुन अथवा फ़िल्मी गीत की तरफ़ ध्यान नहीं जाता। और श्रोता पूरी श्रद्धा के साथ केवल शब्द सुनने में ही ध्यानमग्न रहता है। देवी-देवताओं की प्रशंसा में गाए जाने वाले भजनों के साथ भी ऐसे ही प्रयास किए जाने चाहिए।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि जिस प्रकार धार्मिक मामलों में पवित्रता व शुद्धता का पूरा ख्याल रखा जाता है तथा देवी-देवताओं व भगवान की शान में इस्तेमाल होने वाली प्रत्येक वस्तु शुद्ध हो, इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है,धार्मिक भजनों में भी उसी प्रकार की शुद्धता का ध्यान ज़रूर रखा जाना चाहिए। जिस प्रकार भजन लिखने वाला कोई कवि नए भजन लिखता है उसी प्रकार उसके भजन के लिए इस्तेमाल होने वाली धुन भी पूरी तरह से नई व भजन के संगीतकार द्वारा स्वरचित होनी चाहिए।फ़िल्मी धुनों से तो खासतौर पर धार्मिक भजनों की धुनों का दूर-दूर तक कोई नाता हरगिज़ नहीं होना चाहिए। क्योंकि ऐसे भजन श्रद्धालुओं व श्रोताओं का ध्यान धार्मिक भजनों से भटका कर फ़िल्मी गीतों की ओर ले जाते हैं जिससे उन की भक्ति व धार्मिक एकाग्रता में स्वाभाविक रूप से विघ्न पड़ता है। और इस विघ्र के लिए श्रोता व श्रद्धालु कम जबकि भजन गायन को व्यवसाय बनाने वाले भजन गायक ज़्यादा जि़म्मेदार होते हैं। इसलिए फ़िल्मी धुनों व धार्मिक भजनों के कॉकटेल की इस परंपरा को समाप्त किए जाने की ज़रूरत है।

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