सूचना देने से मना करने के 60 फीसदी से अधिक आदेशों के आधार ऐसे हैं, जो सूचना के अधिकार कानून में दिए ही नहीं गए हैं। यह बात केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा कराए गए अध्ययन में सामने आई है।
अध्ययन की रिपोर्ट पिछले हफ्ते पेश की गई है। इसमें पाया गया कि कई मामले ऐसे हैं, जिनमें सूचना देने से मना कर दिया गया, लेकिन इसके लिए न तो कोई कारण बताया गया न ही कोई ऐसी छूट का जिक्र किया गया, जो आरटीआई ऐक्ट में दी गई हो। उदाहरण के तौर पर सूचना आयुक्तों ने सूचना देने से मना करने के आदेशों को इस आधार पर मान लिया कि सूचना तीसरे पक्ष से संबंधित है या तीसरे पक्ष ने सूचना देने से मना कर रखा है, जबकि सूचना कानून की धारा 11 तीसरे पक्ष को सूचना रोकने का अधिकार नहीं देती। इस मामले में सूचना अधिकारी का फैसला ही अंतिम होता है। यह जरूर है कि इससे पहले वह तीसरे पक्ष की सुनवाई करेगा।
अध्ययन में पाया गया है कि आरटीआई कानून का प्रयोग करने वाले ज्यादातर पुरुष हैं। अपील और शिकायत दर्ज करने वालों में 90 फीसदी पुरुष हैं। वहीं 44 फीसदी अर्जियां ऐसे मामलों में दाखिल की गई हैं, जहां मांगी गई सूचना को वेबसाइट पर होना चाहिए था। कानून की धारा चार के अनुसार सभी विभागों का कर्तव्य है कि संबंधित सूचनाएं वेबसाइट पर डाल दें, ताकि उनके लिए अर्जी न लगानी पड़े।
केंद्रीय सूचना आयोग में अपील के सुनवाई पर आने की प्रतीक्षा अवधि बहुत लंबी है। इसकी वजह आयुक्तों की नियुक्ति न होना है। अक्तूबर 2018 तक आयोग में करीब 25, 000 अपील लंबित हैं। जनवरी से आयोग सिर्फ सात सूचना आयुक्तों के साथ काम कर रहा है। सीआईसी समेत चार सूचना आयुक्त इस वर्ष दिसंबर में सेवानिवृत्त हो रहे हैं। इसके बाद आयोग की शक्ति सिर्फ तीन आयुक्तों की रह जाएगी। सामान्यतय: आयोग एक मामला 319 दिन में निपटाता है, लेकिन अब इसमें ढाई साल तक लग रहे हैं।
इस अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि 56 फीसदी आदेशों में आरटीआई ऐक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन किया गया है। इनके आधार पर सूचना आयोगों को सूचना अधिकारियों पर जुर्माना लगाना चाहिए था, लेकिन सिर्फ 26 फीसदी केस में ही आयुक्तों ने सूचना अधिकारी को नोटिस जारी किए और पूछा कि क्यों न उन पर जुर्माना लगाया जाए। इनमें से भी चार फीसदी केस में ही जुर्माना लगाया गया, शेष को छोड़ दिया गया। इससे आयोग को 203 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।
साभार- https://www.livehindustan.com/ से