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हमने विवाह जैसी परंपरा को मजाक बना दिया है

दूरदर्शन पर रामायण में “राम विवाह” आ रहा था। पुष्पवाटिका प्रसङ्ग, धनुष भंग, सीता माता की विह्वलता, प्रभु की मर्यादा और महाराज दशरथ-जनक का समधी-मिलन! 

विवाह के बाद महाराज दशरथ से अपनी पुत्रियों की भूल को क्षमा करते रहने की याचना करते पिता जनक, और उत्तर में पुत्रियों के रूप चार अमूल्य हीरे दान करने के लिए धन्यवाद देते दशरथ…दोनों एक दूसरे को हाथ जोड़ कर धन्यवाद दे रहे हैं। जब दान देने और ग्रहण करने वाले दोनों एक दूसरे के सामने प्रेम से नतमस्तक हों, उसी पवित्र क्षण में कालजयी सम्बन्ध बनते हैं।

विवाह के समय महाराज दशरथ और अन्य सभी बारातियों को गाली सुनाती स्त्रियों के लिए तुलसी बाबा लिखते हैं, ” जेंवत देंहि मधुर धुनि गारी, लै लै नाम पुरुख अरु नारी…”

महाराज जनक के महल की दासियाँ चक्रवर्ती सम्राट दशरथ की स्त्रियों का नाम ले कर गाली दे रही हैं, और वे मुस्कुरा रहे हैं। अपने एक बाण से ताड के सात बृक्षों को धराशायी कर देने वाले राम चुपचाप गाली सुनते हैं? परसुराम और जनक तक को अपने क्रोध से कंपा देने वाले लक्ष्मन दासियों की गाली पर क्रोधित नहीं हो रहे? क्या है यह?

यह संस्कृति है। वह संस्कृति, जो समाज के सबसे विपन्न परिवार की स्त्री को भी यह अधिकार देती है कि वह यदि समाज के सबसे सम्पन्न परिवार के पुरुष को भी गाली दे, परिहास करे तो उसका मुस्कुरा कर सम्मान किया जाय। यह भारत है…

महाभारत देख रहे थे, उसमें कुरु राजसभा में भीष्म के वध की प्रतिज्ञा करती अम्बा दिखी। उस युग का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भीष्म! और उस भीष्म को अनजाने में एक स्त्री का अपमान कर देने पर मृत्युदंड? और वह भी उस स्त्री के द्वारा जिसके पास न मायका है न ससुराल… न कोई मित्र है, न भाई… पर हुआ! अम्बा से शिखंडी बनी उसी स्त्री ने भीष्म की मृत्यु तय की… यह हमारी संस्कृति का आदर्श है। हमारी संस्कृति ने स्त्री के अधिकारों की यह सीमा तय की है।

यह संस्कृति राम ने नहीं बनाई! एक व्यक्ति के बनाने से सम्प्रदाय बनता है, संस्कृति नहीं बनती। राम संस्कृति बनाने नहीं आये, बल्कि संस्कृति थी इसलिए राम आये…

हाँ, तो बात राम विवाह की! जानते हैं, कोई भी वर-वधु अपने विवाह में अपनी सारी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाते। बहुत बातें तो वे बाद में समझते हैं और सोचते हैं कि अपने विवाह में यह किया होता तो अच्छा होता… सो जब वह स्त्री बेटी को जन्म देती है, तो उसी दिन से अपनी इच्छाओं को इकट्ठा करना शुरू करती है। उसी तरह अपने बेटे के विवाह के दिन के लिए उसका पिता सपने इकट्ठे करता है। इन दोनों के अपूर्ण सपनों के पूरे होने के दिन का नाम विवाह है… राम-सिया के विवाह का दिन वस्तुतः अयोध्या महाराज और जनकपुर महारानी के स्वप्नों के पूर्ण होने का दिन था।

आप वर्तमान में ही देखिये। कन्या पक्ष से पिता तो बेचारा व्यवस्था की चिन्ता में ही घुल कर रह जाता है, पर मां दौड़-दौड़ कर, नाच-नाच कर अपने शौक पूरे करती है। उसी तरह वर पक्ष में पिता बारात को भव्य बना देने के लिए अपनी सारी क्षमता झोंक देता है। आप अपने घर के ही किसी बारात को याद कीजिये, सबसे पहले आपको मूँछ उमेठ कर मुस्कुराते पिता याद आएंगे।

एक लड़के का पिता सबसे अधिक खुश तभी होता है जब कोई उससे हाथ जोड़ कर कहे कि “मुझे अपना बेटा दे दीजिए..” उसकी छाती चौड़ी हो जाती है। वह भले दिन भर में हजार झूठ बोलता हो, पर उस दिन भीष्म पितामह की तरह डायलॉग मारता है, “जाइये! मैं वचन देता हूँ कि बेटे की बारात आपके दरवाजे पर ही जाएगी…”

वह भले महादरिद्र हो, पर लगे हाथ फर्जी बड़प्पन दिखाते हुए कहता है, “बारात को सम्भाल लीजियेगा! बारातियों के स्वागत में कोई कमी नहीं होनी चाहिए…” जीवन भर दुख, विपन्नता और अभाव झेलने वाले व्यक्ति को भी एक दिन के लिए राजा बनाने की सामाजिक व्यवस्था है यह… राम ने भी अपने पिता से उनका यह अधिकार नहीं छीना, उन्होंने भी महाराजा दशरथ को राजा बनने का अवसर जीने दिया। इसीलिए राम लोक के आदर्श वर हैं… 

राम-सीता का विवाह दो कुलों के बुजुर्गों, अभिभावकों, हीत-मित्रों के आशीर्वाद की छाया में सम्पन्न हुआ, इसीलिए जीवन की तमाम विपत्तियों और उठापटक के बाद भी कहीं उनका प्रेम कमजोर नहीं पड़ा। यह उनके बुजुर्गों का आशीर्वाद ही था कि राम पत्नी के लिए समुद्र को बांध सके, और सीता पति के लिए वन के कष्टों को सह सकीं। 

विद्यार्थी जीवन में ही चौहत्तर बार लभ और तिहत्तर बार ब्रेकअप करने वाली पीढ़ी चाहे तो राम से सीख सकती है कि प्रेम कैसे करते हैं, और विवाह कैसे..