Friday, April 26, 2024
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पड़ोस में हो रही है हमारी घेराबंदी

वर्षों से चीन भारत को हिंद महासागर में 'मोतियों की माला" के माध्यम से घेरने की कोशिश करता रहा है। इसके तहत वह इस क्षेत्र में अपनी सुविधा के लिए नेटवर्क खड़ा करने के काम में जुटा हुआ है ताकि अपने सामरिक हितों को मजबूत कर सके और समुद्री क्षेत्र में पकड़ बढ़ा सके। चीन अब अपनी इस पुरानी नीति को अमलीजामा पहनाने के लिए समुद्री सिल्क रूट परियोजना के नाम से आगे बढ़ा रहा है। जाहिर है, इसके बहाने चीन की वास्तविक इच्छा कुछ और ही है। नया नामकरण भारत की चिंताओं के मद्देनजर किया गया है और इस बहाने चीन क्षेत्रीय प्रभुत्व कायम करने की कोशिश में है।

चीन की सिल्क रूट परियोजना एक लुभावना कदम है, जो 'मोतियों की माला" नीति के जैसी ही है। यह नीति इस योजना को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है कि एशिया की नई शक्ति व्यवस्था और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन को केंद्रीय स्थान दिलाया जा सके। इस परियोजना के माध्यम से चीन अपने तमाम पड़ोसी देशों के साथ मौजूदा समुद्री विवाद को हल करने के साथ ही क्षेत्रीय यथास्थिति को भी बदलने की कोशिश कर रहा है। कुल मिलाकर उसकी महत्वाकांक्षा यही है कि एशिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य को नए सिरे से निर्धारित किया जाए।

चीन में सैन्य विज्ञान अकादमी के कर्नल बाओ झिउ के मुताबिक यह परियोजना वास्तव में तटवर्ती देशों को आर्थिक अवसर प्रदान करती है, जिसके माध्यम से चीन के साथ इन देशों का सुरक्षा सहयोग अधिक प्रगाढ़ हो सकेगा। इस पहल पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग की छाप है जिन्होंने सिल्क रूट के लिए 40 अरब डॉलर का कोष निर्धारित किया है। इसके अतिरिक्त इस परियोजना के लिए चीन द्वारा प्रायोजित एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक भी सहयोग कर रहा है। यह संस्था चीन को वित्तीय मदद देने, निवेश करने और अन्य आर्थिक सहूलियतें मुहैया कराती है, ताकि अन्य क्षेत्रीय देशों के साथ चीन की नजदीकी बढ़े। तटवर्ती देशों में चीन द्वारा बंदरगाहों का निर्माण, रेल संपर्क, हाईवे और पाइप लाइन बिछाने आदि का उद्देश्य भी क्षेत्रीय देशों को चीन की अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ना है, जिसमें चीन को खनिज संसाधनों का निर्यात और चीन में बने सामानों का आयात शामिल है।

यदि समुद्री सिल्क मार्ग के सामरिक आयाम को देखा जाए तो यह चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को मजबूती प्रदान करता है। यह चीनी राष्ट्रपति की महत्वपूर्ण नीतिगत पहल है। उदाहरण के लिए चीन के नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में कार्यरत मेजर जनरल जी मिंगकुई अपने एक निबंध में लिखते हैं कि यह परियोजना चीन को नई पहचान देने के साथ ही उसके प्रभुत्व में विस्तार करेगी। विशेषकर अमेरिका की धुरी में एशिया को जाने से रोका जा सकेगा। हालांकि पीएलए विशेषज्ञ इस पहल को 'मोतियों की माला" नीति से जोड़कर देखने से इनकार करते हैं। वे सिल्क मार्ग योजना को 15वीं शताब्दी में झेंग हे से जाेडते हैं। झेंग हे चीनी एडमिरल थे, जो खजाने वाले जहाज के साथ अफ्रीका की नौसैनिक यात्रा पर गए थे। केंद्रीय सैन्य आयोग के सदस्य सुन जिंग और झेंग के मुताबिक प्राचीन सिल्क मार्ग में एक इंच जमीन पर भी कब्जा करने की कोशिश नहीं की गई, ना ही इसके माध्यम से समुद्री आधिपत्य कायम करने की कोशिश हुई।

हालांकि इतिहास गवाह है कि मुख्य समुद्री रास्तों पर सैन्य बलों के माध्यम से नियंत्रण स्थापित किया गया, जिसमें स्थानीय शासकों की भी मिलीभगत होती थी। वास्तव में 'मोतियों की माला" से समुद्री सिल्क मार्ग को मुश्किल से ही अलग किया जा सकता है। इसके माध्यम से तटवर्ती देशों में चीन द्वारा प्रायोजित इस परियोजना से चीनी सेना की मुखरता बढ़ेगी। इससे तटवर्ती देश चीन की एक समन्वित रणनीति का हिस्सा बन जाएंगे, जिससे इन देशों को प्रभावित किया जा सकेगा। चीन उन्हें यही समझा रहा है कि अगर चीन एशिया की सबसे बड़ी शक्ति बनता है तो यह उनके अपने हित में है। दूसरे शब्दों में समुद्री सिल्क मार्ग चीन की मोतियों की माला की उसकी छद्म रणनीति को शांति के नाम पर नए सिरे से आगे बढ़ा सकेगा।

चीन आर्थिक हितों के नाम पर अपने सैन्य लक्ष्यों को आगे बढ़ा रहा है। इसका पता इससे भी चलता है कि श्रीलंका की राजधानी कोलंबो के पास चीन ने 50 करोड़ डॉलर की लागत से दो कंटेनर टर्मिनलों का नवनिर्माण किया है जहां उसने अलग से अपने दो युद्धपोतों को तैनात कर रखा है। इस टर्मिनल में अधिकांश स्वामित्व चीन की सरकारी कंपनियों के पास है। इन गतिविधियों के माध्यम से चीन हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी स्थायी उपस्थिति बनाए रखने में समर्थ हुआ है। इसी तरह पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर भी चीन ने अपनी पकड़ मजबूत करने के साथ ही अपनी उपस्थिति बना ली है। यह बंदरगाह सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण एक हारमुज जलडमरू के निकट स्थित है। चीन ने ग्वादर बंदरगाह का निर्माण केवल व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए नहीं किया है, बल्कि वह इसके माध्यम से नौसैनिक अड्डा स्थापित कर रहा है और महत्वपूर्ण समुद्री रास्तों पर प्रभुत्व कायम कर रहा है।

श्रीलंका के दक्षिणी बंदरगाह हंबनटोटा के बाद चीन कोलंबो के पास 1.4 अरब डॉलर की राशि से छोटे-मोटे देश के बराबर की एक भूमि पर एक विशाल कांप्लेक्स बना रहा है। इस कांप्लेक्स में कई ऊंची इमारतें बनाई जाएंगी ताकि चीन के समुद्री रास्ते के लिए इसे ठहरने के एक बड़े स्थान के रूप में विकसित किया जा सके। पीएलए सैन्य विज्ञान अकादमी के मानद सदस्य झाउ बो स्वीकार करते हैं कि इस क्षेत्र में चीन की इस वृहत परियोजना से हिंद महासागर का राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल जाएगा और यहां चीन की सशक्त उपस्थिति होगी। यह चीन की मध्य एशिया नीति के लिए महत्वपूर्ण है।

कुल मिलाकर एशिया की नई क्रम-व्यवस्था पूर्व एशिया के घटनाक्रमों से निर्धारित नहीं होने वाली जहां जापान चीन के प्रभुत्व को रोकने के प्रति कृतसंकल्प है, बल्कि यह हिंद महासागर से निर्धारित होगी जहां बीजिंग भारतीय प्रभुत्व को खत्म करने के लिए लंबे समय से कार्य कर रहा है।

-लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं।

 

साभार- दैनिक नईदुनिया से 

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