Tuesday, March 19, 2024
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आजादी के पहले और उसके बाद का इन्दौरः क्या खोया क्या पाया

भारत की आजादी के अमृत महोत्सव में ७५वी वर्षगांठ के पूरे होने का दिन १५अगस्त हैं। पचहत्तर साल में हमारे शहरों में क्या कुछ बदलाव हुआ। १९४७से२०२२के बीच देश के सभी शहरों में बड़ा बदलाव हुआ। चूंकि मैं मध्यप्रदेश के इन्दौर में जन्मा और बड़ा हुआ तो भारतीय शहरों में इन पचहत्तर वर्षों में हुए बदलावों को इन्दौर शहर को प्रतीक मानकर यह लेख लिखा है कमोबेश सारे भारत में शहरी करण की यह या ऐसी ही कहानी है। भारत और इन्दौर शहर की जिन्दगी और बसाहट में हुए बदलावों को देखें समझे और परखे तो आज केभारत और इन्दौर को भरोसा ही नहीं होगा की कुल जमा साढ़े तीन या चार पीढियों में इतना बड़ा बदलाव भारत के इन्दौर जैसे शहरों ने देखा।आजादी के काल में पैदा हुए लोगों की आयु सात दशक पूरे कर आठवें दशक में पहुंच चुकी हैं।आज इन्दौर में जिन्दा सतर अस्सी और नब्बे की आयु के नागरिकों के मन में बहुत सारे बदलाव की यादें हैं।वे बच्चे से बुजुर्ग हो गये पर इन्दौर दिन प्रतिदिन तेजी से भागते दौड़ते और आगे बढ़ते लाखों युवाओं का शहर ही नहीं युवाओं के सपनों को पूरा करने वाले केन्द्र की तरह बनता जा रहा हैं।पहले देशभर से लोग शहरों में रोजगार हेतु आते जाते और बसते जाते थे।आज शहरों में सपनों का सौदा करने आते हैं।

पुराने इन्दौर में अधिकतर या सब अपने थे आज इन्दौर में सपनों का समुद्र है पर अपनों का अकाल हैं।कोई किसीको नहीं जानता और कोई किसीको नहीं मानता।

आज का इन्दौर पहले मूलतः एक कस्बा था जो पचहत्तर सालों के अन्तराल में इतना विस्तारित हो गया की क्या यह वहीं कस्बेनुमा इन्दौर हैं? या हम कहीं और आ गये हैं? यह भौंचक्का भाव हम सबके मन में हैं। इन्दौर की कहानी इन्दौर के लोगों के पराक्रम की कहानी हैं। इन्दौर मूलतः सरकारी नहीं असरकारी बसाहट या शहर हैं। आज़ादी के दिन होल्कर रियासत से मध्य भारत का मुख्य व्यावसायिक शहर इन्दौर। मध्य भारत में दो बड़ी रियासतें थीं होल्कर और सिंन्धिया याने इन्दौर और ग्वालियर।इसी से आजादी के बाद इन्दौर को रियासतों के विलीनीकरण के फलस्वरूप अंशकालीन राजधानी की भूमिका भी मिली जो १९५६में मध्यप्रदेश बनने पर इन्दौर से भोपाल चली गयी। मध्य भारत में ग्वालियर और इन्दौर में छः छः माह का राजकीय बंटवारा था। मध्य भारत विधानसभा जब इन्दौर में आती तो गांधी हाल में लगती थी और संभागायुक्त कार्यालय मध्य भारत का सचिवालय था।१९४७ से१९५६याने करीब आठ साल इन्दौर राजकाज का आधा-अधूरा शहर रहा।पर आजादी के पहले से आज तक इन्दौर व्यावसायिक राजधानी अपने नागरिकों के दम पर बना उसमें कोई फेरबदल नहीं हुआ।इसे यों भी कह सकते हैं की इन्दौर एक अंतहीन व्यवसाय है।इन्दौर में अपने पराये की समझ भले ही कम ज्यादा हो पर हर धंधे की समझ जीवन के हर क्षेत्र में हैं।

आज़ादी के बाद एक दशक तक इन्दौर में बसाहट और रहन सहन में ज्यादा भेद नहीं थे।मूल इन्दौर ऐसा था की एक छोर से दूसरे छोर तक हंसते-खेलते ,चलते चलते सभी आते जाते थे इसलिए नागरिकों में जान-पहचान का संकट नहीं था।पैदल,सायकल और तांगे यहीं मुख्य आवागमन के साधन थे।आज ये तीनों ही साधन खरमोर की तरह लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल होते जा रहे हैैं। बड़े गणपति से घंटाघर और जूनी इंदौर से मिल एरिया मुख्य इन्दौर खत्म।इसके चारों और खेत और छोटे छोटे गांव और खेती-बाड़ी का माहौल। जूनी इंदौर सबसे मूल इन्दौर दो नदियों और छोटी छोटी टेकरी नुमा बसाहट चाहें तो आज भी इसे हम तलाश या खोज सकते हैं।उस समय का इन्दौर नदी की सभ्यता का शहर था।नदी की सभ्यता याने बच्चे युवा और बुजुर्ग भी इन नदियों में नहाते धोते और तैरना सीखते थे। नौलखा पुल,बारामत्था,छत्रीबाग और कृष्णपुरा के घाट नदी के संस्कार उत्सव और मेल-जोल के स्थल थे।

आज़ादी के पहले से लेकर आज तक इन्दौर में देश के हर हिस्से से लोग इन्दौर आये और बसे और इन्दौर ने सबको बसने दिया।हर तरफ से तरह-तरह के लोग इन्दौर आये और आज इन्दौर में पुराने समय से रह रहे लोगों की तादाद बहुत कम हो गयी और आजके नये समय में पांच दस बीस साल से ही इन्दौर में आये और बसे हैं वे पहले के इन्दौर को वैसे नहीं जानते जैसें आजादी से पहले रहनेवाले अपने शहर और बस्तियों को जानते-समझते हैं।जो लोग इन्दौर में रहते तो है पर इन्दौर के लोगों की विरासत और इतिहास को प्रत्यक्ष रूप से अवसर न पाने से पहचानते समझते और जानते कम हैं ।शायद उन्हें लगता होगा की इन्दौर शुरू से ही बड़ा शहर हैं। इन्दौर के कई रूप रंग हैं इन्दौर के आसपास खेती-बाड़ी की जमीनों पर जो बसाहटे बसी है वे तो पांच दस साल पहले खेत थे। ऐसा इन्दौर अब आधे से ज्यादा हो गया हैं। जहां पुरानी बसाहट का कोई इतिहास ही नहीं है। वहां तो शहरीकरण की शुरूआत हैं।इसका नतीजा यह हो गया हैं कि नये बन रहे इन्दौर में समाधान कम और धमासान ज्यादा हो गया हैं।

आज यदि गांधी नगर से बिचौली मर्दाना और तलावली चांदा से सिमरोल तक इन्दौर ही इन्दौर हो गया तो आपसी मेलजोल जान पहचान तो इतिहास बनेंगे हीं।दिन भर बाईक कार वाहन की रेलमपेल और भागमभाग इन्दौर की मुख्य जीवन चर्या हैं। किसीको कभी-भी सोचने-समझने विचारने की गुंजाइश ही नहीं हैं।यह आज के इन्दौर का नया रूप है।

इन्दौर में सही मायने में आजादी के बाद से आज तक दिन-दूनी रात चौगुनी गति से इन्दौर अराजक रूप से विस्तारित करने के दर्शन ने जड़े जमा ली है।आज इन्दौर में जहां भी कोई खाली जमीन हैं वहां-वहां कोई न कोई प्रोजक्ट निरन्तर जन्म लेता ही रहता हैं।लाख दो लाख से ज़्यादा लोग सुबह से रात तक मोबाइल और बाईक से लेस होकर धूमते रहते हैं पूछो आजकल क्या चल रहा हैं एक मत से ज़वाब मिलता हैं अंकल प्रापर्टी का कामकाज हैं।

आज की युवा पीढ़ी भरोसा नहीं करेगी कि आजादी के समय इन्दौर के कई घरों में बिजली ही नहीं थी।शाम को इन्दौर की अधिकांश बसाहटों में शाम होने से पहले लालटेन और चिमनी को साफ करना मुख्य दृश्य था। सड़क पर कहीं कहीं बिजली के बल्ब लगे होते थे।साठ से सत्तर के बीच सड़क पर ट्यूब लाईट लगने लगी और गली मौहल्लों मे ट्यूब लाईट लगवाना गली मौहल्लों की राजनीति का मुख्य विषय था। श्री सुरेश सेठ जब महापौर बने तो वैपर लैम्प ओवरब्रिज पर लगे तो गली मोहल्लों की राजनीति में ट्यूब लाईट का जलवा खत्म हुआ और वैपर लैम्प लगवाना सबसे लोकप्रिय विषय बन गया।

आज के इन्दौर में ये गतिविधियां इतिहास बन गयी है। आज इन्दौर चकाचौंध का शहर बन गया। नगरपालिका परिषद और नगर निगम के शुरुआती दौर में इन्दौर के घरों में बहुत कम रेडियो थे।तो इन्दौर के कई मौहल्लों में चौराहों पर सार्वजनिक रेडियो गुमटी लगाई गयी और शाम को तीन चार घण्टे सार्वजनिक रेडियो लोगों को सुनने को मिलता था।इसी तरह शहर की पान की दुकानों पर क्रिकेट और हाकी का आंखों देखा हाल सुनना शहर में आम बात थी। सत्तर के आते-आते रेडियो ट्रांजिस्टर घर घर आ गये और वह जमाना चला गया।

पानी के इन्दौर में कई स्त्रोत थे।आजादी के समय कुएं बावड़ी नदी तालाब और आजादी से पहले ही नल होने से शहर भर के मौहल्लों बस्तियों में सार्वजनिक नलों से अधिकतर घरों में पानी भरना दिनचर्या का मुख्य अंग था। गर्मी और जलसंकट के दिनों में लोग नलों पर तरह तरह से वस्तुओं को रखकर अपना क्रम आरक्षित कर लेते थे।

सार्वजनिक नल भी इन्दौर में मेलजोल बढ़ाने, प्रेम-प्रसंग ,राग-द्वेष के साथ ही नगरिय जीवन में स्वभाव की समझ की खुली पाठशाला थे। यशवंत सागर इन्दौर का सबसे बड़ा जलस्त्रोत शुरू से रहा है गर्मी आने पर जब जलस्तर कम होने लगता था तो सारा शहर चिंतित हो जाता था और अखबारों में यह मुख्य समाचार होता था। पानी की कमी का सवाल इन्दौर की कहानी का मुख्य हिस्सा हैं। सत्तर अस्सी में नर्मदा से पानी लाने से इन्दौर का नजरिया ही बदल गया।नर्मदा से पहले एक डेढ़ दशक तक हैंडपंप इन्दौर में नया विकल्प आया पर बिजली आने से सब ट्यूबवेलों को लगाने लगवाने की धारा में बह गये।तब से अब तक वैध अवैध ट्यूब वेल लगाने का सिलसिला जारी है। कालोनी के हर प्लाट पर खुद का ट्यूबवेल खुदवाना लगवाना और फिर जमीन के पानी का स्तर नीचे जाने पर गोष्ठी सेमिनार आदि इन्दौर के स्वभाव का मुख्य विषय है।पर इन्दौर में क्या देश दुनिया में पीने का पानी बाजार का मुख्य विषयबन गया है।अब आज हम पानी को भी खरीदने बेचनेवाले हो गये। पानी की बोतल से लेकर कंटेनरों और टेंकरों से निरन्तर बारहमासी व्यवसाय आज के इन्दौर की विशेषज्ञता है।जो कहीं न मिले उसे खरीद लो और जो बिक ना सके उसे बेच दो यही व्यवसायिक कुशलता का धोष वाक्य है।

आज के इन्दौर में हम सब कुछ बेचने खरीदने में लगे हैं।

इन्दौर आज से ही नहीं लम्बे समय से जमीन से जुड़ा शहर बनने में निरन्तर लगा हुआ है। जमीन को लेकर इन्दौर का ज्ञान गणित गुणा-भाग अनूठा है।सारा शहर खाली जमीन को वर्ग फुट के भाव में ही देखता रह दिन रात सुखी दुःखी होता रहता है। जमीन के भावों ने शहरी जिन्दगी के सोच समझ और दर्शन को पूरी तरह बदल दिया है।तभी इन्दौर जैसा शहर जो आजादी के समय में शहर भर के घरोपे और मेल-मिलाप और आत्मियता का हांमी हुआ करता था वह दिन ब दिन परिवारों की आत्मियता को भुलाकर पारिवारिक कलह का शिकार होने से परहेज़ नहीं करने लगा है।

आज़ादी के बाद और उससे पहले भी हमारे शहर की बसाहट मिली-जुली हुआ करती थी। अब हम अलग-अलग रह कर शांति और सुरक्षा की हिमायत करने लगे हैं।और अपने ही नागरिकों से अजनबी जैसा व्यवहार करने के साथ नये नागरिकों को सीमित दायरे में रहना जीवन जीना और सोचने-समझने विचारने का दायरा निरन्तर सिकोड़ने की राह पर चल पड़े हैं।

सूचना क्रांति और तकनीक के काल में इन्दौर जैसे शहर में जो ढांचा आजादी के बाद उपलब्ध था वह समूचा बदल गया है और इन्दौर जैसे कस्बे से बड़े शहर में बदले शहर में शिक्षा का पूरा परिदृष्य ही बदल गया है।निजी और सरकारी कालेजों से चली हमारी शिक्षा यात्रा जागतिक होती जा रही हैैं। आज़ादी के बाद इन्दौर कला, कानून और विज्ञान की शिक्षा का केन्द्र था पर दो दशकों में तकनीकी और प्रबन्धन की शिक्षा का शहर हो गया।आईटी की शिक्षा के प्रसार का नतीजा इन्दौर के समाज में स्पष्ट दिखाई दे रहा है युवा पीढ़ी जिस तेजी से देश दुनिया में ऊंची तनख्वाह की नौकरी पा रही हैं। उसने सामाजिक सोच में बड़ा बदलाव शुरू किया है।इन्दौर में एकाकी पर वैश्विक परिवारों की संख्या बढ़ी है।

इन्दौर के लोग दुनिया को प्रत्यक्ष देखने समझने का अवसर पाने लगे हैं। जिसका असर ब्याह शादी समारोह से दैनिन्दन रहन सहन पर भी दिखाई देने लगा है। खाने-पीने और जीवनशैली में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ता है। धर्मशाला या सड़क पर आजादी के बाद शादी ब्याह के समारोह छोटे बड़े सब कोई बेहिचक कर लेते थे वे सब अब बड़े मैरेज गार्डन रिसार्ट और भव्य होटल में जगह की तलाश में व्यस्त रहते हैं। सड़क पर तो भाड़े की शोभायात्रा और भोजन भंडारे ही होते है। आज़ादी के बाद सड़कों पर नाटक सिनेमा , संगीत , कविसम्मेलन और परिसंवाद होते थे वे सब अब लुप्तप्राय घटनाओं में बदल गये।अब सड़क पर जगह-जगह चालान बनते हैं। ट्राफिक जाम होता हैं।पैदल चलने-फिरने की सुरक्षित जगह नहीं है और लोग पैदल चलने से कतराते नजर आते हैं।यह भी होता है अरे आज पैदल कैसे? मानों पैदल चलना मुफलिसी का पर्याय हो।आजादी के बाद के इन्दौर में सब कोई टीवी इन्दौर किसी की पहुंच में नहीं हैं न शासन ,न प्रशासन न प्रेस ,न नागरिक, न व्यवसायी न वंचित ,न धनाढ्य ,न छात्र ,न शिक्षक ,न वकील ,न डाक्टर ।

अभी भी हम सब के मन में इंदौर के अंतहीन विस्तार का सपना बना हुआ है। आज़ादी की वर्षगांठ पर हम सब इन्दौर के नागरिक की भूमिका को निरन्तर चैतन्य रहकर निरापद और शिकायत विहिन शहर बनाने की और क़दम बढ़ावे यहीं आज का इन्दौर हम से सवाल कर रहा है ।हम विकास और अंधे विस्तार के भेद को समझेंगे या नहीं?

आज़ादी की वर्षगांठ भी हम सब से सवाल कर रही हैं। आज़ादी के बाद भी हम अपने मन और जीवन में शांत और समाधान कारी समाज हिलमिल कर क्यों नहीं बना पा रहे हैैं? आज़ादी के पचहत्तरवें वर्ष में हमारे शहरों के साथ हमारा सोच और समझ कैसी बनती जा रहीं है। हमारे शहर हमारी सम्पत्ति नहीं हमारे रहन सहन की ऐसी जगह हैं जहां हम और हमारी अगली पीढ़ी सभ्यता और सोच को आगे बढ़ाती है। हमारे शहर और समूचा जीवन शांत सभ्यताओं को आगे ले जाने वाला जीवन्त स्थान है। जीवन का आधार हमारी बसाहट है।बसाहट बड़ी हो या छोटी सुरुचिपूर्ण और आत्मनिर्भरता से परिपूर्ण होकर, जानते-समझते बसायेंगे तो नागरिकों और व्यवस्था दोनों को समाधान पूर्वक जीवन की आधारभूमि खड़ी करने में मदद मिलेगी ।

हमारा सोच समझ और आपसी व्यवहार हमेशा-हमेशा के लिए होना चाहिए। अल्पकालीन और तात्कालिक एकांगी समाधान व्यक्ति और समाज दोनों की तेजस्विता और जीवनी शक्ति को घटाते हैं।करोना महामारी ने भी हमें सबक सिखाने का काम किया है जितना अराजक शहरी विस्तार उतना जनजीवन अस्त-व्यस्त और असुरक्षित निजी और सार्वजनिक जीवन ,न धन न सम्पत्ति ,हमारा सुरक्षा कवच बन पाये। अमृत महोत्सव में आई आज़ादी की इस पचहत्तर वीं वर्षगांठ पर हम सब भारत में निरापद शहरी जीवन के बारे में समाधान ढूढे और उसे साकार करें। करोना से बचाव में इम्यूनिटी को बनानें और बढ़ाने पर जैसा जोर दिया गया हैं वैसे ही शहर विस्तार की इम्यूनिटी की जरूरत को जमीन पर साकार करना हमारी-आपकी आजादी की सही और सकारात्मक समझ हैं। बड़े शहर नहीं छोटे व मझोले पर हर तरह से व्यवस्थित शहरी बसाहटों में ही स्थायित्व और समाधान है । अंतहीन प्रदूषणकारी शहरी सभ्यताओं का जाल हम सब अराजकतावादी और यंत्रवत तरिके से निजी और सामूहिक विवेकहीनता से भारत में लगातार बिना रूके, समझें तेजी से विकास के नाम पर अंधा विस्तार अपनी अंधी समझ से करते ही जा रहें हैं।

( लेखक स्वतंत्र लेखक अभिभाषक एवं गांधीवादी विचारक हैं।

संपर्क
त्रिवेदी परिसर ३०४/२ भोलाराम उस्ताद मार्ग ग्राम पिपल्या राव आगरा मुम्बई राजमार्ग , इन्दौर म.प्र.
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