Friday, April 26, 2024
spot_img
Homeपुस्तक चर्चाउन तीनों ने कहा, हम डाकू हैं और दिल्ली में डाका डालने...

उन तीनों ने कहा, हम डाकू हैं और दिल्ली में डाका डालने जा रहे थे

स्वामी दर्शनानन्द जी महाराज का सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श सन्यासी के रूप में गुजरा। उनका परमेश्वर में अटूट विश्वास एवं दर्शन शास्त्रों के स्वाध्याय से उन्नत हुई तर्क शक्ति बड़ो बड़ो को उनका प्रशंसक बना लेती थी। संस्मरण उन दिनों का हैं जब स्वामी जी के मस्तिष्क में ज्वालापुर में गुरुकुल खोलने का प्रण हलचल मचा रहा था। एक दिन स्वामी जी हरिद्वार की गंगनहर के किनारे खेत में बैठे हुए गाजर खा रहे थे। किसान अपने खेत से गाजर उखाड़कर , पानी से धोकर बड़े प्रेम से खिला रहा था। उसी समय एक आदमी वहां पर से घोड़े पर निकला। उसने स्वामी जी को गाजर खाते देखा तो यह अनुमान लगा लिया की यह बाबा भूखा हैं। उसने स्वामी जी से कहा बाबा गाजर खा रहे हो भूखे हो। आओ हमारे यहां आपको भरपेट भोजन मिलेगा। अब यह गाजर खाना बंद करो। स्वामी जी ने उसकी बातों को ध्यान से सुनकर पहचान कर कहा। तुम ही सीताराम हो, मैंने सब कुछ सुना हुआ हैं। तुम्हारे जैसे पतित आदमी के घर का भोजन खाने से तो जहर खाकर मर जाना भी अच्छा हैं। जाओ मेरे सामने से चले जाओ। सीताराम दरोगा ने आज तक अपने जीवन में किसी से डांट नहीं सुनी थी। उसने तो अनेकों को दरोगा होने के कारण मारा पीटा था। आज उसे मालूम चला की डांट फटकार का क्या असर होता हैं। अपने दर्द को मन में लिए दरोगा घर पहुंचा। धर्मपत्नी ने पूछा की उदास होने का क्या कारण हैं। दरोगा ने सब आपबीती कह सुनाई। पत्नी ने कहा स्वामी वह कोई साधारण सन्यासी नहीं अपितु भगवान हैं। चलो उन्हें अपने घर ले आये। दोनों जंगल में जाकर स्वामी जी से अनुनय-विनय कर उन्हें एक शर्त पर ले आये। स्वामी जी को भोजन कराकर दोनों ने पूछा स्वामी जी अपना आदेश और सेवा बताने की कृपा करे।

सीताराम की कोई संतान न थी और धन सम्पति के भंडार थे। स्वामी जी ने समय देखकर कहा की सन्यासी को भोजन खिलाकर दक्षिणा दी जाती हैं। सीताराम ने कहा स्वामी जी आप जो भी आदेश देंगे हम पूरा करेंगे। स्वामी जी ने कहा धन की तीन ही गति हैं। दान, भोग और नाश। इन तीनों गतियों में सबसे उत्तम दान ही हैं। मैं निर्धन विद्यार्थियों को भारतीय संस्कृति के संस्कार देकर, सत्य विद्या पढ़ाकर विद्वान बनाना चाहता हूँ। इस पवित्र कार्य के लिए तुम्हारी समस्त भूमि जिसमें यह बंगला बना हुआ हैं। उसको दक्षिणा में लेना चाहता हूँ। इस भूमि पर गुरुकुल स्थापित करके देश, विदेश के छात्रों को पढ़कर इस अविद्या, अन्धकार को मिटाना चाहता हूँ। स्वामी जी का संकल्प सुनकर सीताराम की धर्मपत्नी ने कहा। हे पतिदेव हमारे कोई संतान नहीं हैं और हम इस भूमि का करेंगे क्या। स्वामी जी को गुरुकुल के लिए भूमि चाहिए उन्हें भूमि दे दीजिये। इससे बढ़िया इस भूमि का उपयोग नहीं हो सकता। सिताराम ने अपनी समस्त भूमि, अपनी सम्पति गुरुकुल को दान दे दी और समस्त जीवन गुरुकुल की सेवा में लगाया। एक जितेन्द्रिय, त्यागी, तपस्वी सन्यासी ने कितनों के जीवन का इस प्रकार उद्धार किया होगा। इसका उत्तर इतिहास के गर्भ में हैं मगर यह प्रेरणादायक संस्मरण चिरकाल तक सत्य का प्रकाश करता रहेगा।

एक बार स्वामी दर्शनानन्द जी का दिल्ली में उपदेश हो रहा था। यह घटना सदर बाजार और पहाड़ी धीरज के बीच की है जहाँ आजकल बारह टूटी चौक है। पास में हाफिज बन्ना की सराय थी जहाँ दूर-दूर के यात्री अपनी बैल गाडि़याँ खड़ी करते थे। सायं का समय था। लोग स्वामी जी का उपदेश ध्यान से सुन रहे थे। उपदेश का विषय था- कर्म और फल। स्वामी जी ने बताया कि प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। कर्म के फल को टाला नहीं जा सकता और न ही किसी और के कर्म के फल को कोई दूसरा भोग सकता। उपदेश सुनने वालों में रोहतक देहात से आए हुए तीन व्यक्ति भी उपस्थित थे। भाषण के बाद वे तीनों व्यक्ति स्वामी जी के पास पहुंचे और कहा कि बाबाजी हम आपसे एकान्त में कुछ बात करना चाहते हैं। वे तीनों स्वामी जी को पास के जंगल में ले गए। स्वामी जी को उन के बारे में कुछ शंका होने लगी पर तभी वे तीनों जमीन पर बैठ गए और स्वामी जी के बैठने के लिए चादर बिछा दी। उन्होंने स्वामी जी से आज के उपदेश के बारे में अपने कुछ प्रश्न कहे और उनके उत्तर प्राप्त करके बहुत संतुष्ट हुए।

इसके बाद एक ने गंभीर होकर पूरी बात बताई- ‘स्वामी जी हम तीनों डाकू हैं। हम देहली में डाका डालने आए थे। परन्तु आपके उपदेश से हमारा हृदय परिवर्तन हो गया है। आज से हम यह काम छोड़ रहे हैं।’ उन्होंने स्वामी जी का बहुत आदर सत्कार किया और उन्हें उनके ठहरने के स्थान पर छोड़ गए। ये तीनों व्यक्ति उस दिन से पूरी तरह बदल गए। ये आर्यसमाज में शामिल हो गये और इन्होंने समाज सेवा के बड़े-बड़े कार्य किये। इनमें से एक थे चौधरी पीरू सिंह, जिन्होंने अपने गांव मटिण्डु में अपनी तीस बीघे भूमि दान देकर स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा गुरुकुल की स्थापना कराई। दूसरे व्यक्ति थे फरमाणा गांव के लाला इच्छाराम, जिनके सुपुत्र हरिश्चन्द्र जी विद्यालंकार और प्रो0 रामसिंह जी आर्य समाज के नेता और विद्वान् बने। तीसरे थे- फरमाणा गांव के ही चौ0 जुगलाल जैलदार, जो अपनी वीरता, निर्भीकता व समाज-सुधार के कार्यों के कारण बहुत प्रसिद्ध हुए। यह वह समय था जब उपदेश देने वाले भी सच्चे होते थे और उपदेश ग्रहण करने वाले भी। आज उपदेश करने वाले हजारों हैं और सुनने वाले लाखों! पर उनमें से शायद ही किसी का जीवन इस तरह बदलता हो, जिस तरह इन तीनों का बदल गया।

स्वामी जी ने अपने जीवन में न जाने कितनी आत्माओं पर उपकार किया। स्वामी जी की जीवनी हर आर्य को एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए। स्वामी जी प्रतिदिन एक ट्रैक्ट लिखते थे। इन ट्रैक्ट में विभिन्न विषयों पर वैदिक विचारों का संकलन है। इन ट्रैक्ट को स्वामी दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह के नाम से संकलित किया गया है।

स्वामी दर्शनानन्द।
दर्शनों के अद्वितीय विद्वान व तार्किक शिरोमणि। उनकी उपयोगी पुस्तकें प्राप्त करने के लिए 7015591564 पर Whatsapp करें।
1जीवन चरित ₹250
2 श्रीमद्भगवतगीता सिद्धांत ₹150
3 दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह₹400
4 उपनिषद प्रकाश ₹300

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार