कंप्यूटर युग में, जब हर शाम भारतीय रिज़र्व बैंक को सम्पूर्ण बैंकिंग उद्योग के आंकड़े मिल जाते हैं, ऐसे में नोट्बंदी के छह महीने बाद सरकार की ये दलील कि पुराने नोट अभी भी गिने जा रहे हैं, गले नहीं उतरती. निस्संदेह, सवाल उठता है कि जब प्रत्येक कार्य दिवस की समाप्ती पर बैंकों को लेन-देन के आंकड़े मिलाना अनिवार्य है तो नोट्बंदी के दौरान क्या बैंकों ने अपने बही खाते नहीं मिलाये जो आज भी पुराने नोटों की वापिसी की पूर्ण रकम नहीं बतायी जा रही?
ये प्रश्न जहाँ हमारे बैंकों के कुप्रबंध और लाचारी की ओर इंगित करता है वहीं ये भी कि किस तरह तर्कहीन सरकारी नीतियाँ बैंकों की आर्थिक नींव नष्ट कर रही हैं. इतिहास गवाह है कि सब सरकारें, आम आदमी की भलाई के नाम पर, बैंकों में हस्तक्षेप कर, बेतुके निवेश या खर्चे करने को बाध्य करती आ रही हैं. यानी बैंक मुनाफा तो कमा सकते हैं लेकिन सिर्फ सरकारी नीतियों में आर्थिक योगदान के बाद, भले ही इनके कारण बैंक खोखले और आम इंसान को दी जाने वाली सहूलियतें बंद हो जायें. ये सर्वविदित है कि सब सरकारें ऋण माफी का इस्तेमाल वोट बटोरने के लिए करती हैं जबकि ज़रुरत वित्तीय व्यवस्था में नीतिगत बदलाव की है. राष्ट्रीयकृत बैंकों की आर्थिक बली से और कुछ नहीं लोगों की पूंजी और हितों पर ही प्रहार किया जा रहा है और वो भी, निजी बैंकों और सूदखोरों की तरह, आम इंसान से प्रत्येक सेवा का शुल्क लूटने में लगे हैं.
१९६९ के बैंक राष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य था आम आदमी का उत्थान ताकि उसकी जमा पूंजी उसके विकास में काम आ सके. उस समय निजी बैंकों पर आरोप था कि वो आम आदमी का पैसा तो जमा कर लेते थे लेकिन ऋण सिर्फ बड़े व्यापारियों को ही देते थे. राष्ट्रीयकरण के बाद, बैंकिंग सेवा का बेशक विस्तार हुआ पर किसानों और आम आदमी की दिक्कतें फिर भी कम नहीं हुईं और आज भी पूंजीपतियों के मुकाबले आम इंसान को ऋण मिलना मुश्किल होता है जबकि छोटे ऋणों का भुगतान, बड़े कर्जदारों के मुकाबले अधिकतर समय पर किया जाता है. यही नहीं, धनाढ्य वर्ग के अरबों रुपये डकार जाने पर भी उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती जबकि गरीबों की छोटी सी भूल चूक पर भी उनकी चल-अचल सम्पतीयाँ कुर्क कर दी जाती हैं.
बैंकिंग व्यवस्था आम इंसान को बेहतर सेवाएं प्रदान करे, ये आज भी एक सपना ही है. रिजर्व बैंक के आंकड़े साबित करते हैं कि वर्तमान में भी ज़्यादातर ग्रामीण वासी बैंकिंग सुविधा से वंचित हैं और यथार्थ दिखाता है कि आज भी गरीब को बैंकों द्वारा दुत्कारा और प्रताड़ित किया जाता है. नोटबंदी के बाद जिस तरह से विभिन्न सेवाओं पर शुल्क लगा कर बैंकिंग सेवाओं को जटिल बनाया जा रहा है तथा आम आदमी को उनसे वंचित किया जा रहा है, यह गहन शोध का विषय है. अफ़सोस ये है कि व्यावसायिक गुणवत्ता बढ़ाने की बजाये, सरकारी बैंक भी निजी बैंकों जैसे ऊलजलूल तुगलकी फरमान जारी कर, शुल्क बटोरने में लगे हुए हैं जबकि इससे आर्थिक वृद्धी में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. आम आदमी से चैक-बुक, ऐटीएम् प्रयोग या नकद पैसे लेने पर मनमाने शुल्क बटोरने से कहीं बेहतर होगा बैंक अपनी आर्थिक और प्रशासनिक कुशलता सुधार कर, सही लेनदेन करें ताकि ग्राहक के समय और पूंजी दोनों की बचत हो सके.
सरकार का कर्तव्य है कि वो सम्पूर्ण बैंकिंग उद्योग को आम ग्राहक के प्रति जवाबदेह बनाये और बेवजह हस्तक्षेप से उनकी व्यापारिक कुशलता को ना बिगाड़े. बैंकों को भी समझना होगा कि आम आदमी के पैसा ही उनकी पूंजी है और उसी के सहारे उनकी नींव रखी है. प्रत्येक बैंक का सामाजिक उत्तरदायित्व है कि वो अपने ग्राहक के संवेदनशील सहयोगी बनें और एक आम आदमी को उत्कृष्ट ग्राहक सेवा और सम्मान दे क्योंकि ये उसका मौलिक अधिकार है.