प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखे पत्र में गोविंदाचार्य ने देश की एकता के नायक लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की स्मृति में रिकार्ड समय में विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति बनवाने केलिए समस्त देशवासियों की तरफ से आभार व्यक्त करते हुए कहा है कि यदि इसी तेजी से अयोध्या में राम मंदिर जन्मभूमि पर मंदिर का निर्माण भी हो जाए तो देश की जनता द्वारा आपके लिए दिया गया ऐतिहासिक जनादेश सार्थक होगा। रामजन्मभूमि आंदोलन से जुड़े अपने अनुभव और कानून के जानकारों से विचार विमर्श के आधार पर उन्होंने बिन्दुवार सुझाव दिये हैं। इनके आधार पर मंदिर निर्माण से जुड़ी अड़चनों का पूर्ण बहुमत वाली सरकार द्वार निराकरण किया जा सकता है।
कभी भाजपा के थिंक टैंक रहे गोविंदाचार्य ने संघ प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण शुरू कराए जाने के बाबत छह पेज के अपने पत्र में यह स्पष्ट किया है कि केन्द्र सरकार को मंदिर निर्माण के लिए अदालती आदेश या किसी अध्यादेश की जरूरत नहीं है। केन्द्र सरकार अधिग्रहीत जमीन की मालिक है। गलत अदालती आदेश की वजह से 67.703 एकड़ भूमि का केंद्र सरकार को रिसीवर माना गया था। 1994 में सर्वोच्च अदालत ने अधिग्रहण को स्वीकृति देते हुए केन्द्र को जमीन का मालिकाना हक दे दिया। जब सरकार भूमि की मालिक है तब उस दोबारा अधिग्रहण करने का औचित्य क्या है। न्यायालय द्वारा रामलला को मान्यता पहले ही दी जा चुकी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा गर्भग्रह की भूमि के लिए रामलला के पक्ष में सर्वसम्मति से फैसला दिया जा चुका है। विवाद अन्य हिस्सों पर है। उन्होंने लिखा है कि रामलला की भूमि की ऐतिहासिकता की पुष्टि के लिए राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए रिफरेंस पर उच्चतम न्यायालय ने अक्टूबर 1994 में राय देने से इनकार कर दिया था। नतीजतन किसी भी न्यायालय का कोई हस्तक्षेप नहीं रह जाता है। ऐसे में सरकार को मंदिर निर्माण शुरू करा दिया जाना चाहिए।
गोविंदाचार्य ने पत्र में लिखा है कि भूखंड की मालिक केंद्र सरकार है मालिक को पार्टी बनाया जाना चाहिए लेकिन केन्द्र सरकार कहीं पक्षकार नहीं है। ऐसे में केंद्र सरकार एक आदेश जारी करके न्यास को मंदिर बनाने केलिए इस जमीन को दे सकती है। अदालत से इस मामले के निपटारे की कम गुंजाइश अपने खत में जताते हुए गोविंदाचार्य ने कहा है कि इस मामले में अब तक एक लाख पेज के द्सतावेज तैयार हुए हैं जिन्हें पढ़ने में सर्वोच्च अदालत को काफी लंबा समय लग जाएगा। न्यूज ट्रैक से बातचीत में उन्होंने कहा कि जनवरी में तो सर्वोच्च अदालत इस बात पर विचार करेगी कि कौन सी पीठ इस मामले की सुनवाई करे। गोविंदाचार्य के मुताबिक मंदिर निर्माण की पेचीदगी बहाना मात्र है। गोविंदाचार्य के पत्र ने संघ और केंद्र सरकार दोनो को इस मामले में स्टैंड लेने को विवश कर दिया है।
पत्र में लिखा गया है कि केंद्र सरकार के पास भूमि का स्वामित्व है परन्तु मुकदमे में पक्षकार नहीं है। अदालतों के साथ सभी पक्ष सहमत हैं कि यह भूमि की मिल्कियत का विवाद है, तो फिर इसका त्वरित निपटारा क्यों नहीं किया जा रहा। संसद द्वारा 1993 में बनाये गये कानून के अनुसार केंद्र सरकार के पास राम जन्मभूमि परिसर की संपूर्ण भूमि का स्वामित्व है, तो फिर केंद्र सरकार औपचारिक पक्षकार क्यों नहीं है।
पत्र में लिखा है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की कार्यवाही के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि केंद्र सरकार को मुकदमे में पार्टी बनाने के लिए सुनवाई हुई थी। तत्कालीन नरसिंहाराव सरकार द्वारा मामले से बचने के कारण उच्च न्यायालय ने मई 1995 के आदेश से केंद्र सरकार को मुकदमे में औपचारिक पक्षकार नहीं बनाया। भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में राम मंदिर निर्माण की बात कही है तो फिर केंद्र सरकार को इस मामले में औपचारिक पक्षकार बनकर पूरा पक्ष क्यों नहीं प्रस्तुत करना चाहिए। सिविल प्रोसिजर कोड कानून के तहत जमीन की मिल्कियत के मुकदमे में भू स्वामी को पक्षकार होना जरूरी है, तो फइर इस मुकदमे में केन्द्र सरकार पार्टी बनकर राम मंदिर निर्माण मार्ग क्यों नहीं प्रशस्त करती।
गोविंदाचार्य ने पत्र में लिखा है कि इस मामले में केंद्र सरकार द्वारा निम्न बिंदुओं पर सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख विस्तार से अपना पक्ष रखा जा सकता है-
बाबरी ढांचे के बावजूद गर्भगृह का स्थान सदैव रामलला का ही रहा है। राजकाज की दृष्टि से बादशाह होने के नाते सन् 1528 में बाबर के पास यदि इस भूमि की मिल्कियत आ भी गई तो आज की चुनी हुई सरकारें अब अयोध्या में उस भूमि की मालिक हैं। यह बात संसद के 1993 के कानून से भी स्पष्ट है जिसको सर्वोच्च न्यायालय की 1994 में स्वीकृति मिल चुकी है।
बाबरी ढांचे के ध्वस्त होने का मामला जमीन के विवाद से पूरी तरह से अलग है। इस मामले में कारसेवकों और अनेक नेताओं के खिलाफ लखनऊ की अदालत में आपराधिक मुकदमों में ट्रायल चल रहा है। हजारों गवाह वाले मामलों का अप्रैल 2019 तक समयबद्ध निस्तारण हेतु सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है तो फिर जमीन के मामले पर भी रोजाना सुनवाई करके त्वरित फैसला होना चाहिए।
संविधान के अनुसार संसद और न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र पूर्णतः विभाजित है। सरकार ने जब संसद के कानून के माध्यम से भूमि का अधिग्रहण कर लिया है तो फिर उस पर न्यायपालिका का हस्तक्षेप कैसे संभव है।
गोविंदाचार्य ने लिखा है कि राम की ऐतिहासिकता को अदालतों ने भी माना है। इसकी जानकारी सरकारी विज्ञापनों के माध्यम से देश की जनता को दी जानी चाहिए कि इलाहाबाद उच्च न्यायलय द्वारा गर्भ गृह की भूमि के लिए रामलला के पक्ष में सर्वसम्मति से फैसला दिया जा चुका है और विवाद कुछ अन्य हिस्से पर है।
रामलला की जन्मभूमि की ऐतिहासिकता की पुष्टि के लिए राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए रिफरेंस पर उच्चतम न्यायालय ने अक्टूबर 1994 में राय देने से इनकार कर दिया था तो फिर आस्था के इस प्रश्न पर किसी भी न्यायालय का कोई भी क्षेत्राधिकार नहीं हो सकता। अगर भूमि का मामला खत्म हो जाए तो इस मसले पर न्यायिक विवादों का अंत हो जाएगा।
पत्र में गोविंदाचार्य लिखते हैं कि पूरे देश में भगवान राम से जुड़े अनेक पर्व मनाए जाते हैं। जन्मोत्सव के पर्व रामनवमी पर न्यायालय में अवकाश होता है। दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा रावण के पुतले का दहन किया जाता है। जिस समय अदालतों में भी अवकाश होता है। रावण वध के पश्चात प्रभु राम की वापसी पर अयोध्यावासियों ने दिवाली मनाई थी। जिसके उपलक्ष्य में माननीय न्यायाधीश लम्बी छुट्टी पर जाते हैं। इन सब के बाद अब अदालतों को राम की ऐतिहासिकता के लिए और क्या प्रमाण चाहिए।
गोविंदाचार्य अंत में लिखते हैं कि संसद द्वारा 1993 में बनाए गए कानून के अनुसार 67.703 एकड़ भूमि की मालिक केंद्र सरकार को गलत अदालती आदेश की वजह से रिसीवर माना जा रहा है। सरकार जब उस भूमि की मालिक है तो उसी भूमि को दोबारा अधिग्रहीत कैसे किया जा सकता है। इस लिए जिस तरह केंद्र सरकार ने तीन तलाक जैसे मामलों के लिए अध्यादेश जारी किया तो फिर जनादेश के अनुसार 1993 के कानून में संशोधन के लिए केंद्र सरकार तुरंत अध्यादेश जारी कर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे। अयोध्या में रामलला के मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होने पर ही दिवाली में सही रोशनी होगी।